इतिहास बनाम दर्शन और इतिहास-दर्शन

By | July 25, 2021
इतिहास का प्रत्यक्ष अर्थ होता है व्यतीत की घटनाओं का वृत्त अथवा अतीत की घटनाओं का क्रमाक्रम लिखित वृत्त; तभी जब हम इतिहास के दर्शन की बात करते हैं यह स्वाभाविक है कि हम यह निश्चय करें कि किस अर्थ में हम इन शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह सोचना पड़ता है कि आखिर इतिहास है क्या और दर्शन क्या है।
सामान्तया दर्शन का अंगीकृत अर्थ होता है, प्रज्ञा और विवेक के प्रति प्रेम । इस अर्थ में प्रेम या अनुराग
से तात्पर्य उन्मुखता है। इतिहास के दर्शन का अर्थ होगा अतीत की गहन और गहरी जानकारी; परंतु निश्चय ही,
एक गम्भीर विद्या साधनापरक अनुशासन के तहत इतिहास-दर्शन की कुछ विशिष्ट सुनिश्चित अर्थवत्ता होनी
चाहिये। किसी अप्रत्याशित, सांयोगिक या आनुषंगिक रुचि के बदले उसमें सुनिश्चित रुझान होना चाहिये । दर्शन
‘शब्द का उपयोगहम प्रज्ञा’, विवेक अथवा ज्ञान के प्रति अनुराग से हटकर कहीं अधिक गम्भीर संदर्भ में करते हैं।
जो है, उसकी व्यवस्थित जानकारी के साथ ही उसकी व्याख्या और विश्लेषण भी यहाँ अपेक्षित होता है।
फलस्वरूप इतिहास का दर्शन इतिहास के कुछ मोहक और लुभावने संयोगों के प्रति पल्लवग्रहिता के छुटपुट चिंतन का प्रभावी नाम मात्र नहीं है, बल्कि विपरीत इसके, मानव-विचारों के उपक्रमों को संकेत देने वाली प्रक्रिया है
वह मानव के अतीत में घटित की रूप रेखा तैयार करता है और अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण अवधारकों के आँकड़े
उपस्थित करता है। टॉयनबी जैसा इतिहासकार इसे ही सभ्यता की प्रक्रिया से गुजरता हुआ मानव’ कहता है।
यहाँ ध्यातव्य यह है कि रूपरेखा का मतलब यह नहीं कि जितना जो कुछ घटित हो चुका है, उन सबका सर्वेक्षण । जाहिर है विचार, अवधारणा तथा वैचारिक रूप सब यहाँ वास्तविक ऐतिहासिक ज्ञान से उद्भूत होते हैं।
जाहिर है, इतिहास-दर्शन का अर्थ होता है ऐसा अनुमान जो वास्तविक घटनाओं पर आधारित हो । यह
ऐसे बल और घटकों की खोज और जाँच करता है जो ऐतिहासिक परिवर्तनों एवं व्यवधानों को उत्पन्न करता
है। संक्षेप में, यह संस्कृति के स्वभाव का अध्ययन करता है। चाहे तो हम कह सकते हैं कि इतिहास के दर्शन
का अर्थ है मानक और मापदंड का अध्ययन, प्रामाणिक प्रणाली, चरित्र और अतीत की घटनाओं के संदर्भ में
इतिहास की वैधता और तर्कसंगतता ।
दर्शन निश्चितरूपेण मानवीय ज्ञान के स्वरूप और स्वभाव से सम्बद्ध होता है और जैसा कि हम जान
चुके हैं इतिहास मानव का अभिज्ञान उसके अतीत के झरोखे से प्राप्त करता है। यह स्वाभाविक ही है कि
इतिहास का दर्शन अपने पेटे में इसे भी समाहित करके चले । ईसाइयों ने अवतारवाद के धर्म-सिद्धान्त की
स्वीकृति से ही इतिहास की व्याख्या प्रारंभ की थी। इस तरह मनुष्य को दु:ख-त्रास से मुक्ति दिलाने के लिये
ईश्वर का मानव तक आना प्रारंभिक इतिहास-दर्शन का भूल उपजीव्य विषय था । जाहिर है, इतिहास का
प्रारंभिक इतिहास ऐसे नियम और अनुशासन से सम्बद्ध था जो मानव-स्मृति में घटनाओं को क्रमिक रूप में
रखता था, ताकि समाज उसके द्वारा जीवन से सम्बद्ध नैतिक ताकत अर्जित सके। यही कारण है कि कभी
इतिहास की अक्सर साहित्य में लिखित त्रासदी (नाटक) और महाकाव्य से तुलना की जाती थी। इसका कारण
यह था कि इसकी मार्फत विशिष्ट नैतिक सिद्धांत प्राप्त होते थे।
क्रोचे ने स्पष्ट किया था कि इतिहास का दर्शन सदैव पूर्ण सांस्कृतिक परिवेश का प्रकार्य-व्यापार है।
पुराकालीन भारतीय मानस की व्यवहार्य संकल्पना और धारणा भी एक अपरिवर्तनीय (शाश्वत) यथार्थ (सत्य)
और उसके दर्शन के इर्द-गिर्द केंद्रित थी। हिन्दू पुराणों में सृष्टि और प्रलय की कालचक्रीय अवधारणा के कुछ
प्रसंग मिलते हैं। एक के बाद दूसरे युग की सुनिश्चित क्रमिक अवधारणा सविस्तर प्रस्थापित की गयी है।
हिन्दुओं के अनुसार ऐतिहासिक प्रक्रिया का पारंपरिक विभाजन चार युगों में किया गया—’कृत (सत् युग), त्रेता,
द्वापर और कलियुग । यहाँ पहले धर्म का परमसत्ता या परमात्म पर प्राबल्य रहता है; द्वितीय में उसका ह्रास होता
है; तृतीय में अत्यल्प हो जाता है और चतुर्थ (कलिकाल) में वह लुप्त हो जाता है।
बाद में इतिहास में संस्कृति के धार्मिक एवं ईश्वरपरक संदर्भ को देखा जाने लगा । तत्पश्चात् यही
प्रारंभिक धारणा अतींद्रिय-आध्यात्मिक-अलौकिक एवं दार्शनिक मनोदशा में तब्दील हो गयी । सूक्ष्म वैचारिक
युग की यहीं भूमिका बनी । बाद में यही मानवीय और वैज्ञानिक युग की शुरूआत की भी स्थिति बना गयी।
संस्कृति के अध्ययन का प्रारंभ इतिहास के परिप्रेक्ष्य में यहीं से शुरू हुआ । इस नयी खोज से नये ऐतिहासिक
यथार्थ का प्रादुर्भाव हुआ । इतिहास की शब्दावली में इस दार्शनिक शब्द ‘संस्कृति’ को समाहित किया गया।
फिर तो साहित्य में भी मिथकों एवं प्राचीन जातियों की संस्कृतियों का अध्ययन होने लगा। इतिहास-दर्शन के
निर्माण में इसने पूरी तात्विकता भर दी। इतिहास-दर्शन को आधुनिक बनाने का कार्य सर्वप्रथम हीगल ने किया। उसकी दृढ़ और सुनिश्चित प्रक्रिया के बहुरूपी विचारों ने धर्म और कला, भौतिक और आध्यात्मिक, तर्कशास्त्र एवं नीतिशास्त्र सबको अपने पेटे में लिया। उसी तरह संस्कृति और इतिहास ये दोनों भी उसकी प्रक्रिया में सम्मिलित थे। बाद में उसने
इतिहास के दर्शन पर शोध-प्रबंध भी लिखा । वह कहता है कि इतिहास कोई निरर्थक कथा नहीं है।
इस प्रकार हीगल ने सभ्य दुनिया के इतिहास के सर्वेक्षण के लिये इतिहास के दर्शन की प्रक्रिया को
आत्मसात किया । वह यह भी कहता है कि समाज के कार्य-कलाप और निष्पादन अंतरात्मा के द्वंद्वात्मक क्षों
द्वारा अनुशासित होते हैं। इस प्रकार स्वातंत्र्य के पूर्ण अहसास का पुरोगामी नैकट्य ही इतिहास है। यह और
कुछ नहीं वस्तुतः अंतरात्मा के प्रति आत्म-जागरुकता ही है। इतिहास आत्मचेतना के पूर्ण दैवी विकास के चरम
रूप का प्रदर्शन है। हालाँकि सच तो यह है कि यह दार्शनिक संश्लेषण इतना सूक्ष्म है कि किसी भी संस्कृति
के लिये यह आज तक प्रमाणित करना संभव नहीं हो पाया है। इसी कारण आज भी आधुनिक काल में हीगल
को इतिहास-दर्शन का जनक कहा जाता है।
इतिहास-दर्शन के वास्तविक विकास की दिशा आदर्शवादिता की जगह भौतिकवादिता है। इस क्षेत्र में
नृशास्त्रीय व्याख्याताओं में कार्ल मार्क्स और हीगल के नाम आते हैं। ये दोनों दुनिया को बदलना चाहते थे, सिर्फ
व्याख्या करना नहीं। उन्होंने समाज की पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने इस हेतु अपने साम्यवादी
प्रारूप में सामाजिक, ऐतिहासिक मिथक की व्याख्या की। उनके विचार नये थे और उनकी दृष्टि नितांत मानवीय
थी। उन्होंने कहा “वर्ग-संघर्ष का इतिहास ही इतिहास है। मार्क्स तो हीगल से भी एक कदम आगे था।
वह वर्ग-विहीन समाज की कल्पना करता था। मार्क्स की मानवता की चिंतना अत्यंत गहन-गम्भीर थी। वह
न्याय और समानता का स्वप्नद्रष्टा था तथा इन्हें ही समाज का आधार मानता था ।
डेनिल्वेस्की संस्कृति का अत्यंत प्रभावकारी दार्शनिक व्याख्याता था। उसने विश्व-इतिहास को महान
ऐतिहासिक जातियों, प्रारूपों एवं व्यक्तियों का बहुचक्रीय सिलसिला माना । उसने संसार में सभ्यता के जन्म,
विकास और प्रौढ़ता में कुछ समान नियमितता पायी थीं। मूल्यों के सांस्कृतिक अध्ययन के प्रति उन्नीसवीं शती
में इतिहास से सम्बद्धता देखी जाने लगी। बेवीलोनिया की सभ्यता को पुरातत्वज्ञों ने इसी क्रम में खोज निकाला।
बाद में अनेक विद्वानों ने इतिहास को स्वतंत्र विद्या साधना के रूप में स्थापित किया । ऐतिहासिक ज्ञान को कई
तरह के गंभीर बौद्धिक विवाद का विषय भी बनाया गया । ‘ऐतिहासिक प्रामाणीकरण की शर्ते क्या हैं’, “अपने
अध्ययन के दाण किसी प्रकार का नैतिक निष्कर्ष देने का औचित्य क्या है ?” तथा अतीत के सूत्रों के
पुर्ननिर्माण के लिये इतिहास के पास कौन-से खास उपकरण हैं ? आदि-आदि ऐसे प्रश्न हैं जो लगभग आज
पूछे जाते हैं। आधुनिक इतिहास-दार्शनिक का कहना है कि वह अतीत को, जो वह था मात्र इतना ही जानने
में उसकी रुचि है। क्रोचे ने वास्तव में इतिहासकार की ऐतिहासिक चेतना के आधार पर एक दार्शनिक विवाद
खड़ा कर दिया था। कुछ विचारक इतिहास-दर्शन के संदर्भ में बार-बार ‘असीम अथवा परमसत्ता’ तथा
‘अंतरात्मा-जीवात्मा’ की चर्चा का पुरजोर विरोध करते हैं।
उपरोक्त वैचारिक विश्लेषण के उपरांत ‘इतिहास के दर्शन’ के सामायिक संदर्भ को समझ सके हैं।
क्रोचे और कलिंगवुड जैसे विचारक इतिहास की प्रणाली के विषय में अधिक सोचते हैं न कि किसी ऐसी रीति के विषय में जो दार्शनिकों द्वारा मिथकों के अनुस्यूतिकरण को महत्त्व दिया जाता है। इतिहास का दर्शन अथच्
चिंतन अथवा अटकलबाजी के द्वारा संस्कृति के मूल एवं स्वभाव तथा उसके प्रयोजन-जिसकी समाप्ति अधिक
से अधिक प्रयोगाश्रित परिमाणन हो जाती है। वे इतिहास की आधार-सामग्री इतिहासकारों से लेते हैं और
विवेचनात्मक समीकरण के द्वारा कुछ निर्देशक विचारों को उगाह लेते हैं। इसके बाद वह सारी सामग्री को
व्याख्यायित करते हैं। वे हमेशा यह स्वीकार करते हैं कि अनुमान के प्रति उनकी पहुँच अनुभव सिद्ध होने के
कारण कभी भी उसके कार्य-कारण न्याय पर आद्धृत विचार विवाद-रहित नहीं हो सकते।
तर्क और विश्वास की इस कथा में इतिहास-दर्शन की अनेकविधा समस्याएँ स्पष्ट रूपेण सामने आती
हैं। प्रश्न है ‘मूल्य’ के सम्बन्ध में इतिहासकार किस सीमा तक कोई विचार कायम रख सकता है। सांस्कृतिक
विकास के पीछे कौन से बल काम करते हैं? किसी संस्कृति को क्या कुछ पक्व बनाता है। क्या इतिहास किसी
ऐतिहासिक नियमों द्वारा पूर्व से ही सुनिश्चित रहता है अथवा क्या यह मानवीय स्वतंत्रता की उपज है ? क्या
विभिन्न संस्कृतियों के बीच परस्पर संवाद की स्थिति होती है ? क्या इतिहास का वैसा कुछ विशेष लक्ष्य भी
होता है ? इस अभियान में क्या धर्म की भी कोई भूमिका होती है? ये कुछ समस्याएँ इतिहास के दर्शन के
साथ जुड़ी हुई हैं।
संक्षेप में, ऐसी विचार-प्रणाली जो अतीत को बुद्धि संगत व्याख्या के लिये प्रयुक्त करती है, इतिहास है।
यही कारण है कि एक ओर जहाँ इतिहासकार को वैज्ञानिक माना जाता है वहीं उसे कलाकार भी माना जाता
है। इतिहास जीवन की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष रूपेण जुड़ा होता है। जाहिर है, इतिहास अतीत के सामूहिक जीवन
का वर्णन और चित्रण करता है। वस्तुत: इतिहास घटनाओं को पुनर्निर्मित कर उसका लिखित प्रलेख तैयार करता
है। इतिहास की प्रकृति की बाबत कहा जा सकता है कि सारे मृत आँकड़ों को पनरअधिनियम जीवन प्रदान किया
जाता है। इतिहासकारों के विचारों में कल्पना और अनुमान के द्वारा इस पुनर्जीवीकरण के पीछे के तर्क और तुक
इसलिये आज के इतिहासकारों की आत्म चेतना एवं विचारणा की सचेतनता के प्रतीक हैं। बगैर समस्या के
समाधान के इतिहास महज इतिवृत्त, एक तरह की निरर्थक-निष्प्राण तालिका है। उसका ताल्लुक मात्र भाषा
शास्त्रियों के उपभोग से होता है ।
सामान्यतया यही समझा और माना जाता है कि इतिहास काल के हिसाब से ‘मानव-अतीत’ की दुनिया
से सम्बद्ध होता है। यह अतीत इतिहासकारों की प्रतीक्षा में है जो उसे खोज निकाले । इतिहास भी रचनात्मक
होता है परंतु उस रूप में नहीं जैसे कोई उपन्यासकार होता है। इतिहासकार की सारी उद्घोषणाएँ अतीत की
समस्त घटनाओं की संदर्भ से जाँची और सत्यापित की जाती हैं। जाहिर है सामान्यतया इतिहास अतीत के हर
घटित से सम्बद्ध है। इतिहास का हर वृत्त वास्तविक घटना पर आधारित होता है। वहाँ शुद्ध अनुमान
कल्पना मात्र के लिये कोई स्थान नहीं होता । अनुमान और कल्पना की एक सीमा स्पष्टरूपेण उसमें निहित होती
है। प्रसिद्ध इतिहासकार कलिंगवुड ने इसीलिये लिखा है-“सीजर्स एंड पेस्ट’ अफेअर, इट इज एन एफर्ट ऑफ थॉट टु ब्रिग बैक लाइफ टू डेड स्केलेटन ऑफ फैक्टस …….” इसीलिये क्रोचे भी ऐतिहासिक पुनर्रचना के लिये समस्या की निदानगत चर्या आवश्यक मानता है।
इतिहास घटनाओं से सम्बन्ध रखता है परंतु ध्यातव्य है कि घटनाएँ ही इतिहास नहीं है। इतिहास मानव
तथा मानव के कार्य-कलापों से भी सम्बद्ध होता है। यह जरूर है कि इतिहास में परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य के
बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। सुसंगत पूर्णता ऐतिहासिक अध्ययन के लिये सम्बद्ध स्थिति होती है। संक्षिप्त और सहदर्शिता दर्शन की थाती है। व्याख्या और अर्थनिर्णय वह वाहन है जिस पर चलकर इतिहासकार अपनी खोज करता है, घटित घटनाओं के खास संदर्श से वह वर्तमान के परे को प्रक्षेपित करता है। कहा जा सकता है कि अतीत के नवीनीकरण का दायित्व इतिहासकार के कंधे पर कायम रहता है। यहाँ सदा पुराने को नये में ढालने की प्रक्रिया चलती रहती है। इतिहास के दर्शन में सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं-पक्षों को पुनर्निमित करने के प्रवृत्ति रहती है। वह नीति-शास्त्रियों या नैतिकवादियों या दार्शनिक की तरह ऐतिहासिक सामग्री या आँकड़े की व्याख्या नहीं करता । हम कह सकते हैं कि अतीत के प्रति हमारी पहुँच
यौक्तिक और तर्काद्धृत हो सकती है और हमारे बौद्धिक औजार अतीत की सामग्री में एक लय और
पद्धति-प्रणाली की प्राप्ति कर सकते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि इतिहास हमारे जीवन को यांत्रिकता के
प्रति विद्रोही बनाता है। निश्चय ही इतिहास को काल के कैन्वस पर प्रसरित सत्य के निष्पक्ष अध्ययन का पक्षधर
होना चाहिये।
इतिहास सभ्यता की प्रक्रिया से गुजरते हुए मानव की लगभग आत्मकथा की मानिंद होता है। यह इरादा
तो रखता है असली यथार्थ बनने का परंतु वास्तव में मानव के सफल-असफल होने तथा उपलब्धियों एवं हास
के मूल कारणों की ही पड़ताल करता है। संस्कृतियों का विश्लेषण कर वह अपने अध्ययन में से ही कुछ मानदंड
निकालना चाहता है। इस अर्थ में इतिहास का दर्शन आधुनिक काल में अत्यंत मूल्यवान और दिलचस्प अध्ययन
प्रमाणित हो चुका है। अपने गूढ़ और निराकार क्षेत्र में से एक तरह का दर्शन ही इतिहास निष्पन्न कर लेता है
शायद । मूल्यों की खोज करने की इस नयी प्रणाली से मानवता को खुद से संघर्ष करते देखा जा सकता है।
संस्कृति को निर्मित करने वाली उत्प्रेरणा की प्रकृति से परिचित हुआ जा सकता है। दूरदर्शिता और
आकांक्षा [द्रष्टा और कलाकार की) जीवन की अन्विति तक ले जाती है। जे. ई. बूडिन नामक विचारक ने
इतिहास-दर्शन के महत्त्व के विषय में लिखा है-“ह्यूमेन हिस्ट्री इज कन्सर्ड विद वैल्यू एज विद फैक्ट्स, एंड
द टू इनसेपेरेबुल । टु अन्डरस्टैंड ह्यूमन हिस्ट्री वी मस्ट डिस्कवर ह्वाट मेन स्ट्राइव फॉर । वैल्यूज एन्टर इन्टू द
टेक्स्थर ऑफ हिस्ट्री ।” (ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी फिलॉसफी”-पृ. 95) ।
इतिहास-दर्शन के पेटे में संस्कृतियों के लिये महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यही कारण है कि संस्कृतियों
को संघटित शरीर-रचना कहा गया है और विश्व इतिहास को सामूहिक आत्मकथा । इस अर्थ में इतिहास की
खास विशेषता होती है। यह मानवीय विचारों का ऐसा उद्यम है जो अतीत की घटनाओं की पुनर्दोह करता है
किंतु वास्तव में यह सभ्यताओं की ऐसी आकृति या रूपविज्ञान है जो अपने चरित्र की दृष्टि से सुनिश्चित है और जीवन की खास अवधि तक जीता है। अपरिवर्तनीय और अटल सांस्कृतिक प्रक्रिया किसी तरह के पुनर्जन्म की
इजाजत नहीं देती। वैसे भी मृत ‘मृत’ है। उसमें जान फूंकना सम्भव नहीं।
अस्तु इतिहास के व्यापक घेरे में संस्कृति, सभ्यता और धर्म सबके साथ चलने वाले मानव-समुदाय का
एक गतिज लेख-जोखा रेखांकित रहता है और इतिहास की यही पूँजी उसे जीवन के विस्तीर्ण का अभिधारक
बनाने की भूमिक बनाता है।

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