आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि

By | July 28, 2021
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि
पिछली इकाई में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था कि तकरीबन डेढ़ सौ वर्षों से हिन्दी
साहित्य के इतिहास-लेखन की जो परंपरा चली, उसमें कालक्रम से गंभीर्य आता गया। मिश्रबंधु विनोद
से लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर डॉ. गणपति चंद्र गुप्त तक साहित्य
के इतिहास-दर्शन का अधुनातन रूप विनियोजित हुआ नजर आता है। इस पूरे कालखंड में हिन्दी साहित्य
के इतिहास-लेखन में जिन दृष्टिकोणों और प्रणालियों की चर्चा हुई है उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि हर
नये युग में भारतीय समाज ने सामूहिक रूप से लगभग एक ही दृष्टिकोण का अवलंबन किया है। हाँ,
इस बीच थोड़ा-बहुत अंतर होते हुए भी स्वतंत्रता के संघर्ष में भारतीय समाज के सभी स्तर प्रायः संयुक्त
से थे। इसीलिये इतिहास सम्बन्धी दृष्टिकोण और प्रणाली में भी आधारभूत मतभेद कम था, परंतु पाँचवें
दशक से उक्त संयुक्त मोर्चे के स्तरों में मतभेद होने लगा। यहीं से इतिहास संबंधी दृष्टिकोण तथा प्रणालियों
में परस्पर विरोध भी नजर आने लगा। ऐसे दृष्टिकोणों में सबसे पहले जो सामने आया वह यह था कि
इतिहास में दृष्टिकोण के लिये कोई स्थान नहीं है। माना गया कि घटनाओं की खोज ही इतिहास है।
इतिहास के इस तथ्यपरक दृष्टिकोण को वैज्ञानिकता के नाम पर प्रचारित भी किया गया। डॉ. गणपति चंद्र
गुप्त जैसे लेखकों ने इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार आधुनिक साहित्य के इतिहास संबंधी अपने
प्रत्यय स्थापित करने की कोशश की। कुछ विश्वविद्यालयों ने इसी प्रणाली को शिक्षोपयोगी कहकर खोज
के अधिकांश कार्य करवाये।
ध्यातव्य है कि तथ्य और विचार एकदम अलग नहीं किये जा सकते । जिस तथ्य-संग्रह में हमें योजना
अथवा दृष्टिकोण का अभाव दिखाई पड़ता है, वस्तुत: वह भी एक दृष्टिकोण ही है। इस संदर्भ में हिन्दी के
दो मौलिक इतिहास लेखकों-आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तुलनात्मक चर्चा की
जा सकती है।
एक साहित्येतिहासकार के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने समकालीन पाश्चात्य और भारतीय साहित्य
में विकसित रचना, आलोचना और इतिहास-लेखन का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करते हुए हिन्दी आलोचना और
इतिहास-लेखन की ठोस नींव रखी थी। इतना ही नहीं, इसी आधार पर उन्होंने भविष्य के विकास का एक
रास्ता भी तैयार कर दिया। इसीलिये कई बार कहा जाता है कि वे अपने समय के हिन्दी के ही सबसे बड़े
आलोचक और इतिहासकार नहीं थे, वे अखिल भारतीय स्तर पर भी अद्वितीय साहित्य-चिंतक भी दिखाई पड़ते
हैं। कई बार तो उस काल में संसार के बड़े से बड़े आलोचक और इतिहासकार के समकक्ष दिखाई पड़ते हैं।
उनके लेखन में आलोचना और इतिहास के सिद्धांत तथा व्यवहार का अनोखा ऐक्य दिखाई पड़ता है। ऐक्य
संबंधी यही साहित्य-विवेक शुक्ल जी के इतिहास की मुख्य विशेषता है।
आचार्य शुक्ल ने इतिहास-दर्शन, भाषा शास्त्र, विज्ञान और साहित्य संबंधी नए-पुराने चिंतन की वैचारिक
यात्रा करने के बाद एक सुनिश्चित समाजोन्मुखी विकासशील वस्तुवादी साहित्य-दृष्टि अर्जित की और इस नयी
दृष्टि से ही परंपरा के मूल्यांकन, वर्तमान की आवश्यकताओं की पहचान और भावी विकास की दिशा खोजने
का प्रयास किया। उन्होंने साहित्य और समाज के विकास के बीच के संबंध की खोज की और समाज, भाषा
और साहित्य के इतिहास में जनता की महत्त्वपूर्ण भूमिका की पहचान की। वस्तुत: उनके आलोचना और
इतिहास-दृष्टि के निर्माण में हिन्दी के भक्तिकालीन साहित्य की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ऐसा लगता है कि
कालक्रम से भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और छायावाद की रचनाशीलता का भी शुक्ल जी के साहित्य-विवेक एवं
इतिहास-दृष्टि के निर्माण में योगदान है।
आचार्य शुक्ल ने हिन्दी भाषा के इतिहास पर भी स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण चिंतन किया था। उन्होंने हिन्दी
भाषा के स्वरूप पर विचार करते हुए ही हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था । वस्तुत: ‘हिन्दी शब्द-सागर’
की भूमिका के रूप में ही उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभिक रूप तैयार कर दिया था। भाषा को
इतिहास से सर्वथा युक्त मानकर ही उन्होंने प्राकृत की अंतिप अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का
आविर्भाव माना है। यही उनका ‘देश-भाषा काव्य’ है, जिससे हिन्दी साहित्य का वह आरंभ मानते हैं। वास्तव
में शुक्ल जी अपने इतिहास में हिन्दी साहित्य का आरंभ देशभाषा-काव्य से ही मानते हैं क्योंकि अपभ्रंश को
पुरानी हिन्दी कहने के बावजूद उसे हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि में ही रखा है। जिन्हें शुक्ल जी आदिकाल की
फुटकल रचनाएँ और रचनाकार कहते हैं, उन्हीं से हिन्दी साहित्य का वास्तविक प्रारंभ भी वह मानते हैं। उन्होंने
लिखा है-“वीर गाथाकाल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असल बोलचाल और उसके बीच
कहे-सुने जाने वाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास
पृष्ठ-55)।
आचार्य शुक्ल की इतिहास-दृष्टि विधेयवादी निर्धारणवाद, तथ्यवाद, झूठी वैज्ञानिकता, विचार धारात्मक
संघर्ष में तटस्थता और पुरातात्विकता का शिकार नहीं है। उनका दृष्टिकोण ऐतिहासिक और वस्तुवादी है।
आलोचनात्मक विवेक उनकी इतिहास-दृष्टि की केंद्रीय विशेषता है। इसमें रचनाओं के कलात्मक सौंदर्य के
विश्लेषण और मूल्यांकन की प्रवृत्ति प्रबल है। उनकी इतिहास-दृष्टि मूल्यपरक और पक्षधर है। वे सामंती और
पूंजीवादी जीवन-मूल्यों, कला-मूल्यों आदि का विरोध करते हैं और लगभग जनवादी संस्कृति परंपरा तथा
कला-मल्यों का पक्ष लेते हैं। इस तरह साहित्य के विकास और समाज से उसके संबंध के बारे में अपनी
सुनिश्चित दृष्टि के आधार पर उन्होंने पहली बार एक सुसंगत काल-विभाजन किया था। आज भी रेने वेलेक
सदृश चिंतक मानते हैं कि काल-विभाजन के बिना साहित्य का इतिहास घटनाओं की अंध-तावरथा का समूह, मनमाना नामकरण और साहित्य का दिशाहीन प्रवाह हो जाता है। सो, इसी कारण शुक्ल जी ने पहली बार हिन्दी
साहित्य के इतिहास में सुसंगत काल-विभाजन का एक ठोस ढाँचा निर्मित किया जो आगे आनेवाले
इतिहास-लेखकों के लिये पथ-प्रदर्शक का कार्य करता रहा।
उन्होंने विभिन्न कालों के साहित्य-विवेचन और मूल्यांकन की दो मुख्य प्रवृत्तियों के साथ-साथ गौण
प्रवृत्तियों पर भी ध्यान दिया। इतना ही नहीं, शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के विकास में लोक संस्कृति और लोक
साहित्य के योगदान का भी मूल्यांकन किया है। इस कारण, उन्हें उसके जातीय रूप को उजागर करने में सुविधा
हुई है। आचार्य शुक्ल के सामने लगभग एक हजार वर्ष के हिन्दी साहित्य के इतिहास की विभिन्न परंपराओं
के उदय-अस्त परिवर्तन-प्रगति, विकास-हास, निरंतरता-अंतराल तथा संघर्ष और सामंजस्य का मूल्यांकन करने
और अपने समय की रचनाशीलता के विकास के संदर्भ में प्रासंगिक परंपराओं को रेखांकित करने का महत्त्वपूर्ण
दायित्व था। इसका मूल्यांकन शुक्ल जी ने वस्तुवादी समाजोन्मुखी इतिहास-दृष्टि से सफलता के साथ किया
है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के जातीय स्वरूप और विशेषताओं को बहुत महत्त्व दिया है। संस्कृत साहित्य से
उनके स्वतंत्र विकास को भी स्पष्ट किया है।
इस प्रकार इतिहास और आलोचना के समय में शुक्ल जी के चिंतनशील संतुलन का दृष्टांत मिलता है।
उनमें सुनिश्चित आलोचना-दृष्टि और निभ्रांत साहित्य-विवेक का विश्वसनीय व्यवहार है। इसी के बल पर
उन्होंने एक हजार वर्ष की रचनाओं, रचना-प्रवृत्तियों, परंपराओं और रचनाकारों का विश्वसनीय मूल्यांकन करते
हुए व्यापक पाठक-समुदाय के साहित्य-विवेक का निर्माण किया। निश्चय ही उनका साहित्येतिहास मुख्यत:
आलोचनात्मक और मूल्यांकनपरक इतिहास है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य द्विवेदी हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
इतिहासकार है। परंपरा के पुनर्मूल्यांकन और नये विकास की संभावनाओं की ओर संकेत कर आचार्य द्विवेदी
ने हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की दिशा में एक सार्थक और नया प्रयास किया। आचार्य द्विवेदी ने साहित्य
के इतिहास के मूल तत्त्वों पर गम्भीरता से स्वतंत्र चिंतन किया है। आचार्य द्विवेदी साहित्य को केवल
आत्मभिव्यक्ति या शब्द-सृष्टि नहीं मानते । साहित्य-साधना को वे विश्व के साथ एकत्व अनुभव करने की
साधना मानते हैं। वह कलावादी एवं व्यक्तिवादी विचारधारा से नितांत भिन्न अपना मत मानते हैं। वह मानते
हैं कि समाज में परिवर्तन होते हैं, विकास होता है तो जीवन-मूल्य भी बदलते हैं और नये विकसित होते हैं।
वह साहित्य को गतिशील सांस्कृतिक प्रवाह का अंग मानते हैं।
सामान्यतः द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति और साहित्य तथा विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के संदर्भ में
परंपरा को अविभाज्य, अखंड, विशुद्ध और एक नहीं मानते । वह मानते हैं कि भारतीय संस्कृति और साहित्य
में भारतीय समाज की ही तरह अनेक संस्कृतियों और साहित्यों की परंपराओं का मिला-जुला विकास हुआ है।
वह इसलिये परंपरा को सनातन मानने के विरोधी हैं। हर बात और हर वस्तु के मूल वेद में खोजने के भी वे
विरोधी हैं। द्विवेदी जी परंपरा को आधुनिक और वैज्ञानिक चित्त से देखने की सिफारिश करते हैं। अतीत के वृथा मोह से मुक्त द्विवेदी जी की भविष्योन्मुखी इतिहास-दृष्टि परंपरागत और नये अनुभव के द्वंद्व से उत्पन्न
इतिहास-विवेक को साहित्येतिहास-लेखन के लिये महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
द्विवेदी जी इतिहास को अतीत की कथा या व्यतीत का विवरण नहीं मानते । वे इतिहास को एक जीवंत
शक्ति मानते हैं जिसमें मानव-समाज की जिजीविषा प्रकट होती है। आचार्य द्विवेदी ने लिखा है-“इतिहास
जीवंत मनुष्य । के विकास की जीवन-कथा होता है जो काल-प्रवाह से नित्य उद्घाटित होते रहने वाली नव-नव
घटनाओं और परिस्थितियों के भीतर से मनुष्य की विजय यात्रा का चित्र उपस्थित करता है और जो काल के
पर्दे पर होने वाले नये दृश्यों को हमारे सामने सहज भाव से उद्घाटित करता रहता है—”हिन्दी साहित्य का
आदिकाल, पृ-78)
आचार्य द्विवेदी शुक्ल जी के महत्त्व को बगैर किसी टिप्पणी के स्वीकारते हुए कहते हैं—“हिन्दी
साहित्य का इतिहास उनकी व्यापक दृष्टि का ज्वलंत निदर्शन है। अनेक इतिहासकारों ने उनके ऐतिहासिक
काल-विभाजन और साहित्यिक मूल्यांकन को बिना किसी प्रकार के मत-विरोध के स्वीकार कर लिया है।”
स्वयं आचार्य द्विवेदी का ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ (1940) उनके तेजस्वी मौलिक विचारक और
इतिहासकार को प्रकट करता है। अपनी एक उद्भावना में उन्होंने भक्ति-साहित्य से ही वास्तविक हिन्दी साहित्य
का आरंभ माना है। हालाँकि इस मत में औचित्य नहीं है। साहित्य का इतिहास लिखते समय आचार्य शुक्ल
की दृष्टि का केंद्र वर्तमान था लेकिन द्विवेदी जी की नजर परंपरा पर अधिक रही है। उनकी इतिहास-दृष्टि की
यही प्रमुख विशेषता भी है। वे साहित्य के इतिहास को सांस्कृतिक परंपरा का ही एक रूप मानते हैं।
द्विवेदी जी के अध्ययन, इतिहास-लेखन और आलोचना के केन्द्र में भक्ति-आंदोलन और उसका साहित्य
रहा है और प्रगतिशील आंदोलन से उनकी गहरी सहानुभूति रही थी। वे भारतीय इतिहास की संभावना पर विचार
करने में पूरी तरह सक्षम हुए हैं। वे हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय साहित्य के इतिहास के अंग के रूप
में देखने की नई दृष्टि विकसित कर सके थे। यह आचार्य द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि की व्यापकता और
विकासशीलता का प्रमाण है।
अस्तु आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इतिहास-दृष्टि से भले ही एक सीमा तक
एक-दूसरे से भिन्न लगते हों परंतु दोनों हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखक के रूप में एक सीमा तक एक-दूसरे
के पूरक भी माने जा सकते हैं।

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