आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएँ एवं साहित्यिक प्रवृत्तियाँ

By | July 31, 2021
आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएँ एवं साहित्यिक प्रवृत्तियाँ
वास्तव में हिंदी साहित्य के आदिकाल का आरंभ ईसा की 10वीं शताब्दी माना जाता है। 10वीं शती
से लेकर 14वीं शती तक का काल हिंदी का आरंभिक काल है। “आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के भीतर
प्रथम डेढ़ सौ वर्षों तक रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है। इनमें धर्म, नीति, श्रृंगार और
वीर-सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में प्राप्त होती हैं, इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरांत जबसे मुसलमानों
कीचढ़ाइयों का आरंभ होता है तबसे हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप से बँधती हुई पाते है।” इस कथन
में शुक्ल जी ने आदिकाल की सीमा का भी लगभग संकेत किया है। शुक्ल जी अपभ्रंश को प्राकृताभास हिंदी
अर्थात हिंदी का आदि रूप मानते हैं।
जाहिर है हिंदी का आदिकाल अत्यंत विवादग्रस्त होते हुए भी अतिमहत्त्वपूर्ण है। भाषा-विकास के अर्थ
में हिंदी खूब आगे बढ़ती हुई दिखाई पड़ती है। साहित्यिक परंपराओं के लिये हिंदी अपभ्रंश पर ही विशेष रूप
से निर्भर रहती रही है। तभी अपभ्रंश की परंपराओं (साहित्यिक) का अनुसरण कर अपने रूप को
सजाती-सँवारती रही है। इस क्रम में हिंदी संस्कृत-अपभ्रंश के प्रभावों को आत्मसात कर आगे बढ़ती रही है।
वास्तव में इस युग की साहित्यिक पृष्ठभूमि अत्यंत समृद्ध रही थी। संस्कृत साहित्य समृद्ध और अलंकृत साहित्य
बन चुका था। मध्यदेश के पश्चिमी एवं पूर्वी सीमांतों पर अपभ्रंश का साहित्य एक नयी चेतना लेकर उदित हो
रहा था। पश्चिमी सीमांत में जैनाचार्य संस्कृत के पुराणों को नये रूप दे उनकी नयी और भिन्न व्याख्या कर
रहे थे। इनके साहित्य में भाषा का परिनिष्ठित रूप उभर रहा था । पूर्वी सीमांत में सिद्धगण ऐसी भाषा में ऐसे
साहित्य का निर्माण कर रहे थे जो रूढ़-सा होते हुए भी एक नयी भाषा और नये साहित्य-रूप के उदय की
संभावनाओं का संकेत दे रहा था। संस्कृत साहित्य कालिदास आदि को स्वच्छंद कलात्मक रूप को त्याग रूढ़
बनता जा रहा था। आनंदवर्द्धनाचार्य, मम्मट और अभिनव गुप्त आदि संस्कृत काव्य-शास्त्र को चरम सीमा पर
पहुँचा चुके थे, और हमारे खुद के आलोच्य आदिकाल में क्षेमेंद्र, महिम भट्ट, आचार्य हेमचंद्र, विश्वनाथ आदि
आचार्यों ने काव्य-शास्त्र के विविध अंगों को समृद्ध बना संस्कृत-आलोचना शास्त्र को एक प्रकार से पूर्णता की सीता तक पहुँचा दिया था। श्री हर्ष, भोज, सोमदेव, जयदेव आदि श्रेष्ठ कवियों ने इसी काल में श्रेष्ठ साहित्य
का सृजन किया।
दूसरी तरफ अपभ्रंश-साहित्य जैन धर्म का आश्रय प्राप्त कर सुंदर कथा-काव्यों और मुक्तकों का सृजन
कर रहा था। इसी युग में ‘संदेश रासक’ जैसे अमर काव्य का प्रणयन हुआ। अपभ्रंश साहित्य विभिन्न
काव्य-रूपों में पल्लवित हो रहा था । धार्मिकता का आवरण रहते हुए भी इसमें सुंदर काव्य रचे गये जिनका
साहित्यिक मूल्य वरेण्य है। सिद्ध और नाथ साहित्य के कारण लोकभाषा धीरे-धीरे उभरती चली गयी।
इस काल का साहित्य तीन रूपों में रचा गया राज्याश्रित, धर्माश्रित और लोकाश्रित, परंतु ‘दिशासक’
ही ऐसा काव्य-ग्रंथ है जो उच्च कोटि की लोकाश्रित साहित्यिक कृति था। इस काल के ‘रासो’ ग्रंथ अपभ्रंश
की रासो-ग्रंथ-परंपरा से प्रभावित थे। खुसरो की पहेलियाँ या मुकरियाँ विशुद्ध लोक-परंपरा की उपज हैं।
विद्यापति की पदावली लोकगीतों का अनुसरण करती दिखाई पड़ती है।
यदि आरंभिक काल (आदिकाल) में हिंदी भाषा के रचित और उपलब्ध साहित्य का आकलन करें, तो
हमें थोड़े ही ग्रंथ ऐसे मिलते हैं जिनके आधार पर इस काल के हिंदी साहित्य का विवेचन कर उसकी प्रवृत्तियों
को रेखांकित किया जा सकेगा। आदिकाल की कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ ये हैं-
(i) खुमान रासो (ii) वीसलदेव रासो (iii) पृथ्वीराज रासो (iv) खुसरो की रचनाएँ और विद्यापति की
पदावली।
इन रचनाओं में वीसलदेव रासो एक ऐसा ग्रंथ है जिसकी भाषा को कई विद्वानों ने अपभ्रंश का
उत्तरकालीन रूप माना है। इस प्रकार इस काल के ग्रंथों में हमें संक्रमणकालीन भाषा का रूप मिलता है। फिर
भी उस भाषा-रूप में हिंदी की प्रधानता दिखाई पड़ती है।
साहित्यिक सौष्ठव की दृष्टि से रासो ग्रंथ परिपक्व साहित्यिक कृतियों के रूप में स्वीकार किये जाते रहे
हैं। हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में हमें रासो ग्रंथों की ही प्रधानता मिलती है। यह प्रधानता देखकर यह
विश्वास करना पड़ता है कि हिंदी के पूर्ववर्ती साहित्य या साहित्यों में यह परंपरा अवश्य विकसित रही होगी।
वैसे भी अपभ्रंश साहित्य हिंदी-साहित्य का पूर्ववर्ती साहित्य रहा है और उसका हिंदी साहित्य के आरंभिक रूप
पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसलिये यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिंदी के रासो-ग्रंथ इसी पूर्ववर्ती
साहित्यिक परंपरा के विकसित रूप हैं । इस परंपरा के दो रूप माने गये हैं-गीत-नृत्यपरक और छंद
वैविध्यपरक । इनमें दूसरी परंपरा वीरों के चरित्र-वर्णन हैं। यही परंपरा हिंदी साहित्य में चली। इस दूसरी परंपरा
ने ही हिंदी क्षेत्र में विकास पाया । यह परंपरा ऐतिहासिक वीर पुरुषों के चरित्र-गायन के रूप में विकसित हुई।
हिंदी में रासो-ग्रंथों ने अपभ्रंश की धार्मिक प्रेरणा के आधार पर रचे गये रासो-ग्रंथों को सामंती-साहित्य का
रूप प्रदान कर दिया । इसलिये हिंदी में यह परंपरा अपभ्रंश की धार्मिक रास-परंपरा से स्वरूप में भिन्न परंतु
प्रेरणा में समान ‘ऐतिहासिक रासो काव्य-परंपरा’ के रूप में विकसित हुई।
इसी काल में एक कवि ऐसा हुआ जो संपूर्ण पूर्ववर्ती काव्य-परंपरा से अछूता रहकर एक ऐसी भाषा
में ऐसे साहित्य का सृजन कर रहा था जो परंपरागत एवं समकालीन साहित्य एवं भाषा-रूपों से भिन्न था, और
वह व्यक्ति था अमीर खुसरो, जिसे दूसरे शब्दों में खड़ी बोली को साहित्य में प्रतिष्ठिापित करने वाला पहला
कवि माना जा सकता है। ऐसे ही विद्यापति ऐसे कवि हैं जिन्होंने लोकभाषा मैथिली में पदावली लिखी और
जिसे हिंदी की रचना माना जाता है। विद्यापति मूलत: भक्त न होकर शृंगारी कवि हैं और उनकी इस शृंगार-धारा
का हम उनके युग में सीधे हिंदी पर कहीं प्रभाव पड़ता नहीं देखते । हाँ आगे के शृंगार-काल में जरूर विद्यापति
की शृंगार-धारा का रूप या प्रभाव देखते हैं। भाषा और काव्य-रूप की दृष्टि से उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश एवं
मैथिली में साहित्य रचे । धर्म, भक्ति या नीति संबंधी ग्रंथ संस्कृत में, अपने आश्रयदाता का चरित अपभ्रंश में,
और श्रृंगार तथा शिव-भक्ति से संबंधित छंद मैथिली में रचे । काव्य-परंपरा की दृष्टि से वे प्राचीन का पल्ला
थामे हैं। ‘कीतिलता’ एवं कर्तिपताका में उन्होंने चरित काव्यों एवं रासो ग्रंथों के रूपों को अपनाया। ‘पदावली’
में जयदेव की शृंगार-धारा का स्पष्ट प्रभाव है। वे अपने उस युग में एक विशिष्ट कवि के रूप में दिखाई पड़ते
हैं जो प्राचीन का अनुयायी है, परंतु हिंदी में नए काव्य-रूपों को जन्म दे रहा है।
हमें इस काल में उस सूफी प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा का भी रूप मिल जाता है, जिसका विकास आगे
चलकर जायसी आदि के काव्य में हुआ था। हिंदी में सूफो प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा के आदि प्रतिष्ठापक
मुल्ला दाउद माने जाते हैं। ये अमीर खुसरो के समकालीन थे। विशुद्ध प्रणय-गाथा के रूप में दाउद ने चन्दायन
या ‘चन्दावत’ लिखा।
मराठी के प्रसिद्ध संत-कवि नामदेव ने मराठी और हिंदी में कविताएँ की। यद्यपि हिंदी में रचित इनके
सत्तर-अस्सी पद ही उपलब्ध हैं, परंतु इन्हीं पदों के रूप में हमें हिंदी में विकसित संतकाव्य का पूर्व रूप मिल
जाता है। नामदेव के जो हिंदी पद मिले हैं उनका वर्ण्य विषय लगभग वही रहा है जो बाद में कबीर-काव्य
में है। ईश्वर के प्रति दृढ़ अनुराग माधुर्यपूर्ण भक्ति, विरह-व्यंजना, अद्वैतवादी सिद्धांत, गुरू का महत्त्व, मूर्तिपूजा
का विरोध, जाति-पाँति का खंडन, हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतिपादन, साधना-पक्ष में अनहद नाद एवं अलौकिक
अनुभूतियों की अभिव्यक्ति, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि का संयमन–सभी कुछ वही मिलता है जो आगे चलकर
संत-काव्य का मूल विवेच्य रहा है। ध्यातव्य है कि कबीर नामदेव के लगभग एक सदी बाद हुए थे। नामदेव
की भाषा भी कबीर की सधुक्कड़ी भाषा के समान मिश्रित भाषा थी; जिसमें ब्रज, पूर्वी हिंदी, पंजाबी और मराठी
का प्रभाव है । जाहिर है नामदेव की हिंदी रचनाओं में परवर्ती हिंदी संत-काव्य की सुदृढ़ पृष्ठभूमि मिल जाती
है। लगता है कबीर आदि के समान ही नामदेव ने भी यह परंपरा पुराने सिद्धों और नाथों से ही अपनाई थी,
क्योंकि सिद्ध-नाथ परंपरा में भी हमें वही तत्त्व प्रमुखतया दिखाई पड़ते हैं, जो नामदेव की प्रेरणा रहे हैं। स्पष्ट
है संत-काव्य का आरंभ हिंदी साहित्य के आरंभिक काल में हो चुका था। इससे हिंदी साहित्य के इतिहास की
वह लुप्त कड़ी भी मिल जाती है जिसके अभाव में हमें कबीर आदि के साहित्य को एकाएक उदित होते हुए
देखकर यह आश्चर्य होता था कि यह नवीन काव्य-परंपरा इतने वेग से अकस्मात कैसे फूट पड़ी। स्पष्ट प्रतीत होता है कि नामदेव से कबीर तक के संत काव्य की एक पूरीशृंखला है। नामदेव और कबीर के बीच में लगभग
एक सदी के दाण जिन कुछ कवियों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं, वे ये हैं–त्रिलोचन, सदन, बैना आदि ।
नाथपंथी साहित्य ने तो हिंदी के परवर्ती संत-साहित्य को बहुत गहरे प्रभावित किया ही था । नाथपंथी
साहित्य में जहाँ एक ओर उलटबाँसियों की थैली में रहस्यात्म्मक साधना की व्यंजना पाई जाती है, वहीं
जनता की बोली में धार्मिक पाखंड, जाति-प्रथा और मूर्ति पूजा आदि का तीखा खंडन भी मिलता है । कबीर
आदि कवियों में हमें जो रहस्यात्मकता, रूढ़ियों का खंडन और हठयोग-साधना से संबंधित उक्तियाँ मिलती
हैं उन पर नाथपंथी साधक-कवियों का ही प्रभाव रहा है। जाहिर है यही वह काल है जब हम आधुनिक
उत्तर भारतीय भाषाओं—विशेषकर हिंदी को विकसित होते हुए देखते हैं। इस काल का हिंदी साहित्य
अपभ्रंश काव्य-परंपराओं का ऋणी रहा है। हम अपभ्रंश की अनेक परंपराओं को हिंदी-साहित्य के आरंभिक
रूप में विकसित होता हुआ पाते हैं। अपभ्रंश के चरित-काव्यों की परंपरा हिंदी के ‘रासो’ काव्यों में
विकासामान रही है। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से रासो काव्यों को विशुद्ध रूपेण हिंदी की रचनाएँ कहने में
संकोच होता है क्योंकि यह उस संक्रातिकाल की भाषा है जब हिंदी धीरे-धीरे साहित्यिक प्रांगण में पदार्पण
करने का प्रयत्न कर रही थी।
तेरहवीं सदी से हम हिंदी के ऐसे काव्य-रूपों को विकसित होता हुआ पाते हैं जो भाषा की दृष्टि से
पूर्णरूपेण हिंदी है। यहाँ हम अमीर खुसरो के काव्य में खड़ी बोली को प्रयुक्त और विकसित होते हुए पाते
हैं; फिर भी खड़ी बोली उस समय तक इतनी विकसित नहीं हो पाई थी कि उसमें कथा-काव्यों या गंभीर
साहित्यिक तथा शृंगार आदि की संवेदनशील भावनाओं को अभिव्यक्त या निरूपित करने की क्षमता होती । यह
साधारण बोलचाल की मुहावरेदारे भाषा थी । खड़ी बोली के साथ-साथ हम मुल्ला दाउद के चंदायन के रूप
में सूफी प्रेमाख्यान काव्य-परंपरा और अवधी भाषा को जन्म लेते हुए पाते हैं । खुसरो और मुल्ला दाउद
समकालीन थे। ध्यातव्य है कि उस काल के हिंदी कवियों ने अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को ही काव्य की भाषा
के रूप में स्वीकार किया था। चौदहवीं शताब्दी में हम विद्यापति को मिथिला की लोकभाषा मैथिली में
‘पदावली’ की रचना करते हुए पाते हैं । ‘पदावली’ इस तथ्य का प्रमाण है कि उस काल में जब पुरानी
साहित्यिक भाषाओं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की अपेक्षा लोक भाषाएँ साहित्यिक रूप धारण कर रही थीं तो
जनता में वे अत्यंत लोकप्रिय भी हो उठी थीं। निश्चय यह काल प्राचीन साहित्यिक भाषाओं का अवसान काल
और जन-भाषाओं के उदय का काल था। जन-भाषाएँ तीव्र गति से साहित्य क्षेत्र पर अपना अधिकार जता रही
थीं, और आगे बढ़ रही थीं। खड़ी बोली, अवधी, मैथिली विशुद्ध रूप से बोलचाल की भाषाएँ ही थीं।
भाषा-रूप के इस विकास के साथ-साथ हम इस युग में उन काव्य-रूपों और विचार-सरणियों को भी
जन्म लेते और विकसित होते हुए देखते हैं जो परवर्ती कालों में साहित्य का मूलाधार बनी हैं की मुल्ला दाउद
के चंदायन का विकसित प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा का रूप जायसी आदि हिंदी के परवर्ती सूफी कवियों के
काव्य में मिलता है। विद्यापति की पदावली की शृंगारधारा संयत रूप में कृष्ण भक्ति-काव्य में और किंचित असंयत रूप में शृंगार-काल के कवियों की शृंगार प्रधान रचनाओं के रूप में पल्लवित होती है। विद्यापति की
पद-शैली ने तो परवर्ती संपूर्ण गेय काव्य को प्रभावित किया था। नामदेव की निर्गुण भक्ति और सामाजिक
अन्याय तथा आडंबर के प्रति उग्र आक्रोश को हम कबीर आदि संत कवियों के काव्य में विकास होता पाते हैं।
नाथपंथी साहित्य का भी इनपर गहरा प्रभाव पड़ा है।
इस प्रकार आदिकाल में उन भाषा-रूपों तथा काव्य-रूपों का जन्म हो चुका था, जिन्होंने कालांतर में
विकसित होकर हिंदी साहित्य को पल्लवित किया था। कबीर, सूर, तुलसी, बिहारी आदि उस समृद्ध साहित्य
के प्रणेता संभवतः कभी न बन पाते यदि अपने पूर्वजों की यह भाषा और काव्य-परंपरा विरासत के रूप में उन्हें
न मिली होती । इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी का आदिकालीन साहित्य तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के
चलत अनेक प्रकार की अराजक स्थिति से गुजर रहा था। अनेक तरह के अंतर्विरोधपरक विचार और
भाव-प्रक्षेपण इस काल में हम पाते हैं । शृंगार-धारा और वीर धारा, कर्म और कर्मकांड, जाति-पाँति तथा
धर्म-अवतार एवं इतिहास-सब परस्पर टकराव की स्थिति में थे। पारस्परिक युद्ध तथा विदेशियों के निरंतर
आक्रमणों के फलस्वरूप तत्कालीन समाज में एक प्रकार की अराजकता और अरक्षा की भावना थी। ऐसी
स्थिति में कविगण युद्ध के अतिरिक्त और सोच ही क्या सकते थे ? तत्कालीन कवि-कर्म का निरूपण करते हुए
इसीलिये आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा-“उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के
पराक्रम-विजय, शत्रु कन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रण-क्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में
उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।” फलतः कवि वीरता के भावों को अभिव्यक्ति देने
में लगे रहते थे। जन-जन में युद्ध-प्रियता की भावना उत्पन्न करने का गीत गाते थे। तभी तो उस काल में
वीर-रसपूर्ण रचनाओं की ही संभावना अधिक हो गयी थी। तब की स्थिति में वीरगाथाओं की ही रचना संभव
भी थी। फलत: कवि जन जहाँ युद्ध एवं आश्रयदाताओं के शौर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते थे, वहीं वे
आश्रयदाताओं को सुंदरी कन्याओं के रूप का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन कर उनकी शृंगार-चेतना को परवान चढ़ाते
थे शृंगारिकता की प्रवृत्ति इस काल में इसीलिये काफी बढ़ी । श्यामसुंदर दास ने अपने “हिंदी भाषा और
साहित्य” नामक ग्रंथ में राज्याश्रय में पलने वाले कवियों का वर्णन करते हुए लिखा है-“उस समय के कवि
प्रायः राजाओं को प्रसन्न करने और उनके कृत्यों का अंध समर्थन करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझ
बैठे थे। देश की स्थिीत और उसके भविष्य की ओर उनका ध्यान नहीं था ….. हिंदी के आदि युग में अधिकांश
ऐसे कवि हुए हैं, जिन्हें समाज को संगठित करने तथा सुव्यवस्थित कर उसे विदेशी आक्रांताओं से रक्षा करने
में समर्थ बनाने की उतनी चिंता न थी, जितनी अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति द्वारा स्वार्थ साधन करने
की थी।”
उस काल के प्रमुख काव्य ग्रंथों में मुख्यत: रासो काव्य-परंपरा में वीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, ढोला
मारू रा दूहा, अमीर खुसरो की पहेलियाँ, मुकरियाँ और विद्यापति की पदावली के नाम लिये जा सकते हैं। पूर्व
में कहा जा चुका है कि इस काल में मुख्यत: तीन तरह की रचनाएँ की जा रही थीं।
(1) ऐतिहासिक काव्य-रचनाएँ
(2) शृंगारपरक काव्य-रचनाएँ
(3) लौकिक काव्य रचनाएँ
आदिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति थी ऐतिहासिक काव्य की रचना करना जिसमें ऐतिहासिक व्यक्ति
को केंद्र में रखकर काव्य-रचनाएँ की जाती थीं। किसी राजा के वीरत्व का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रमुख प्रवृत्ति
थी। इस काल में वीर रस की अत्युक्तिपूर्ण तथा ओजस्विनी काव्य रचनाएँ खूब की गयी हैं। इस युग की
वीरगाथाएँ दो काव्य-रूपों में प्राप्त होती हैं-
(1) प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में तथा
(2) वीरगीतों के रूप में।
इनमें प्रथम प्रवृत्ति का प्रतिनिधि ग्रंथ है ‘पृथ्वीराज रासो’ तथा द्वितीय प्रवृत्ति का प्रतिनिधि ग्रंथ है-
वीसलदेव रासो।
ऐतिहासिक काव्य-ग्रंथों में ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता की ओर कवियों का ध्यान नहीं था।
कल्पना का उत्कर्ष एवं काव्य-रचना में उसका विनियोग यही मुख्य प्रवृत्ति थी। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते
है कि “इस युग के कवियों में कल्पना-विलास अधिक तथा ऐतिहासिक तथ्य-निरूपण अत्यंत कम, घटनाओं
की प्रामाणिकता की ओर ध्यान कम तथा अपनी संभावना की ओर रुचि अधिक, उल्लसित आनंद की ओर
अधिक तथा विलसित तथ्यावली की ओर कम थी।”
ऐसे ही आदिकालीन काव्य की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति हैशृंगारिकता की। यहाँ भी उनमें शृंगार-वर्णन
दो रूपों में मिलते हैं। देखा गया है कि वीरगाथापरक रचनाओं में युद्ध एवं प्रेम का वर्णन-निरूपण एक साथ
ही किया गया है। तत्कालीन मुख्य रचना पृथ्वीराज रासो में युद्ध की परिस्थिति और भूमिका में ही प्रेम के
निरूपण की चेष्टा की गयी है। परंतु इससे इतर उसी काल के अन्य कुछ प्रमुख काव्य-ग्रंथों में श्रृंगार का
वर्णन स्वतंत्र रूप में भी हुआ है। वीसलदेव रासो, जो मूलत: विरह-काव्य है, में तथा विद्यापति की पदावली
एवं ढोला मारू रा दूहा में शृंगार-वर्णन को स्वतंत्र रूप दिया गया है। वीसलदेव रासो में तो नायक एवं
नायिका के बीच प्रेम एवं विरह भावना का सुंदर चित्रण किया गया । शृंगारिकता की प्रवृत्ति भी इस काल
की मुख्य प्रवृत्ति है। डॉ. श्याम सुंदर दास कहते हैं—“यहाँ की वीरगाथाओं में शृंगार कभी-कभी वीरता का
सहकारी और कभी-कभी उसका उत्पादक बनकर आया है। और बराबर गौण स्थान का अधिकारी
रहा है।”
तीसरी प्रवृत्ति थी लौकिक काव्य-प्रणयन की, जिनमें लौकिक प्रचलित कथाओं के आधार पर कवियों
ने अनेक काव्य लिखे हैं। ऐसे काव्य ग्रंथों में ‘ढोला मारू रा दूहा’ का नाम प्रसिद्ध है। इसके अलावा भी रासो
काव्य परंपरा में लिखित अनेक रासो-गंथों में लौकिक कथाओं को आधार बनाकर वर्णन का केंद्रीय विषय चुना
गया है।
लौकिक काव्यों की भी प्रमुख प्रवृत्ति शृंगार भावना का विस्तृत वर्णन है । ढोला मारू रा दूहा में इसके
उदाहरण मिलते हैं। यह एक प्रेम काव्य है और शृंगार चेतना का इसमें बड़ा ही आकर्षक चित्रण किया गया
है। कहा जाता है कि ढोला मारू रा दूहा- वर्णित विलासिता के शृंगारिका वर्णन का आगामी रीतिकालीन काव्यों
पर बड़ा प्रभाव पड़ा था।
इस प्रकार आदिकालीन काव्य की साहित्यिक प्रवृत्तियों को गर खतियाना चाहें तो यो खतिया सकते हैं।
(1) इस काल में प्रायः वीरगाथाओं की ही रचनाएँ की गयी हैं जिनमें वीररस की प्रधानता है। यहाँ
शृंगार-वर्णन गौण है।
(2) अधिकांश साहित्य की रचना राज्याश्रित कवियों द्वारा हुई हैं जिसमें इन राज्याश्रित कवियों की वाणी
अपने स्वामी के कीर्ति-कथन में कभी कुंठित होती नहीं दिखाई पड़ती।
(3) इन काव्य-ग्रंथों में सच्चे वीरों की पवित्र गाथाओं का पूर्ण अभाव है। इतना ही नहीं इनमें
इतिहाससम्मत घटनाओं का भी अभाव है।
(4) इन कवियों में देश की भावना एवं राष्ट्रीयता का पूरा अभाव है। आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण
प्रशंसा इनमें विशेष रूप से मिलती है। देश की दुःस्थिति और भविष्य के प्रति उनमें तनिक भी चिंता नहीं है।
(5) इन रचनाओं में युद्धों के सजीव एवं सुंदर वर्णन की खासी प्रवृत्ति है। युद्ध वर्णन उनके हृदय में
उल्लास एवं उत्साह भरने के लिये किया करते थे।
(6) आदिकालीन हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्ति युद्ध एवं प्रेम दोनों भावनाओं से जुड़ी है।
(7) वीरगीत लिखने की प्रवृत्ति है परंतु छंद-प्रयोग के संदर्भ में कवियों में स्वच्छंदता की प्रवृत्ति है।
अस्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों का मूल रूप हमें पूर्वकालीन अपभ्रंश
रचनाओं से दाय के रूप में मिला है। भावधारा की प्रवृत्तियों के रूप में और संरचना की प्रकृति के रूप में पूर्व
के छंदों, काव्य-रूपों को अपनाने की प्रवृत्ति इस काल के साहित्यकारों-रचनाकारों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकालीन काव्य की प्रवृत्ति के संदर्भ में विशेषकर वीरगाथापरक
रचनाओं का हवाला देते हुए लिखा है कि ऐतिहासिक चरित्र को केंद्र में रखकर ऐतिहासिक कथा-काव्य लिखने
वाले इन कवियों ने इतिहास की तिथियों या घटनाओं की प्रामाणिकता की चिंता नहीं की है। इतिहास का तो
वास्तव में वहाँ नाम मात्र है। उनमें कल्पना की उड़ान थी और वे काव्य-निर्माण में अधिक रूचि लेते थे। उनमें
कल्पना-विलास अधिक था । वे काव्य-संभावनाओं को अधिक ध्यान में रखते थे। प्राय: कवियों में उल्लसित
आनंद की ओर प्रवृत्ति रहती थी। आचार्य द्विवेदी इसलिये लिखते हैं कि इन ऐतिहासिक कथा-काव्यों में इतिहास
को कल्पना के हाथों परास्त होना पड़ा है
इस वीरगाथापरक काव्य-रचना की विशेष प्रवृत्ति थी छंद-वैविध्य में विशेष रुचि । यह छंद-वैविध्य तो
इतनी व्यापक प्रवृत्ति के रूप में कवियों में घर कर गया था किरासो काव्य-धारा की रचनाओं के बहुत बाद तक भी तत्समान काव्य-रचनाएँ होती रहीं। यह तो तय है रासो काव्य धारा का प्रमुख काव्य-रूप प्रबंध-काव्य रहा
है। इन प्रबंध-काव्यों में नाना प्रकार की कथानक रूढ़ियों, कवि-समयों आदि के चित्रण द्वारा इन रासोकारों में
भारतीय काव्य-परंपरा का पालन करने की प्रवृत्ति स्पष्ट तया लक्षित की जा सकती है। ध्यातव्य है कि इसी
प्रवृत्ति में नवीन काव्य-परंपरा की प्रेरणा भी प्रत्यक्ष तथा विद्यमान है। आमतौर पर युद्धों और विवाहों के चित्रण
द्वारा मिथ्याभिमान और विलास से जर्जर जीवन को उभारकर इन रासो काव्यों के रचयिताओं ने तत्कालीन समाज
का सच्चा सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास प्रस्तुत कर दिया है। जाहिर है इनमें इतिहास की तिथियाँ और
घटनाएँ यथार्थ रूप में आप न ढूँढें । साहित्यिक कृति में साहित्यकार द्वारा सही-सही समाज की झाँकी और
जीवन की आलोचना का प्रयास तो इन काव्य ग्रंथों में मिल ही जाता है। ऐतिहासिक काव्य-रचना के संदर्भ
में तत्कालीन काव्यकारों की यह सामान्य प्रवृत्ति लक्षित की जा सकती है।
अस्तु आदिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्ति पूर्ववर्ती साहित्य से गृहीत तो है परंतु साथ ही आगे आने
वाले समय में लिखे जाने वाले साहित्य हेतु उत्प्रेरणा देने की अप्रत्यक्ष प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है

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