वज्रयानी सिद्धाचार्यों की तरह ही नाथों की भी अपभ्रंश साहित्य में अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है।
वज्रयान की सहज साधना और शैवों की साधना का सम्मिलित पल्लवन ही नाथ-संप्रदाय के रूप में प्रख्यात
हुआ। सिद्धों और नाथों का सामान्य अंतर यों समझा जा सकता है कि बौद्ध तांत्रिकों के लिये ‘सिद्ध’ और शैव
योगियों के लिये ‘नाथ’ शब्द रूढ़ हो गया था । नाथ-योगियों की इस शाखा को हिंदू शाखा ही मानना चाहिये।
इस शाखा में सिद्धों के अश्लील विधान और वीभत्स कार्य वर्जित ही रहे हैं। शिव-शक्ति की भावना के कारण
श्रृंगार की अभिव्यक्ति यहाँ भी हुई है, परंतु इसकी स्थिति सिद्धों की तरह अमर्याहित नहीं है।
‘नाथ’ शब्द के प्रयोग वेदों, ब्राह्मण ग्रंथ और महाभारत इत्यादि में भी मिलते हैं। उपर्युक्त ग्रंथों में
‘नाथ’ के अर्थ ‘रक्षक’, शरणदाता स्वामी, ‘पति’ इत्यादि भी मिलते हैं। ‘बोधिचर्यावतार’ में यह शब्द बुद्ध के
लिये प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती युग में शैव मत के क्रोड से विकसित नाथ-संप्रदाय में ‘नाथ’ का अर्थ ‘शिव’
किया गया है। ‘नाथ-संप्रदाय’ के सबसे बड़े पुरस्कर्ता थे मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ । गोरखनाथ इसके
बारह संप्रदायों के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस मत के साधक अपने नाम के साथ आगे ‘नाथ’ शब्द जोड़ते हैं
नाथ की संख्या भी चौरासी ही बताई जाती है। हालाँकि इनमें से अनेक नाम सिद्धों की सूची में भी मिल जाते
हैं। उन्हें ‘कनफटा और ‘दरशनी’ साधु भी कहा जाता है। विभिन्न परंपराओं के आधार पर मूल नाथ नौ ही
ठहरते हैं-गोरक्षनाथ, जालंधर नाथ, नागार्जुन, सहस्रार्जुन, दत्तात्रेय, देवदत्त, जड़भरत, आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ ।
आदिनाथ साक्षात शिव माने जाते हैं। ‘मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ आदिनाथ के ही शिष्य थे। विचार करने
पर मत्स्येंद्रनाथ, जालंधरनाथ, गोरखनाथ और कृष्णनाथ वस्तुत ऐतिहासिक प्रमाणित होते हैं।
गोरखनाथ का समय ईसवीं सन् की 9वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ठीक ठहरता है। इस संप्रदाय के साहित्य
और धर्म का जोर और प्रभाव ईसवी सन् की 14वीं शती तक मिलता है। इस प्रकार वह सिद्धों और संतों की
मध्यम कड़ी मानी जा सकती है। इस संप्रदाय पर कौल-संप्रदाय का भी प्रभाव पड़ा था। इन्हें अष्टांग योग की
साधना संभवत: यहीं से मिली थी। दार्शनिक सिद्धांत के विचार से यह मत शैव मत के अंतर्गत आता है और
व्यावहारिकता के विचार से इसका संबंध हठयोग-साधना से है। इस संप्रदाय की ईश्वर संबंधी भावना/धारणा
शून्यवाद के निकट ठहरती है। ‘सिद्ध सिद्धांत-पद्धति’ में ‘ह’ का अर्थ सूर्य और ‘ठ’ का अर्थ चंद्रमा किया
गया है। ब्रह्मानंद के अनुसार इसे प्राणवायु और अपानवायु से संबद्ध कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि प्राणायाम
द्वारा इन दोनों प्रकार की वायुओं का निरोध ही हठयोग है। दूसरी व्याख्या के अनुसार सूर्य (इड़ा) और चंद्रमा (पिंगलों) को रोकर सुषुम्ना से प्राण को संचारित करना ही हठयोग की साधना है। नाथपंथी साथकों के लिये
हठयोग की क्रिया आवश्यक है। चूंकि यह साधना शून्यवाद (ईश्वरवाद) को लेकर चली इसी से इसमें
मुसलमानों के लिये भी आकर्षण था । गोरखनाथ ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिये यह एक सामान्य साधना
का मार्ग दिया था। आगे पनपने वाली संत परंपरा का मूल इस संप्रदाय में भी मिल जाता है।
नाथ-साहित्य के अंतर्गत नाथ साधकों की ही कृतियाँ आती हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण
हैं गोरखनाथ । इनकी बानियों का एक संकलन डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने ‘गोरखबानी’ नाम से किया है।
इसमें गोरखनाथ की चालीस रचनाएँ संकलित हैं। गोरखनाथ के अतिरिक्त अजयपाल, सती काणेरी आदि की
रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। विभिन्न मूलों से ‘गरीबनाथ’, ‘गोपीचंद’, घोड़ा चूली, ‘चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ,
जलंधीपाद, पृथीनाथ, भरथरी, मच्छन्द्रनाथ आदि की रचनाएँ भी प्राप्त हुई हैं। परवर्ती काल में इस पंथ के
साधकों ने राम, लक्ष्मण, हनुमान, दत्तात्रेय, महादेव और पार्वती के संबंध में भी रचनाएँ की है। गुरु नानक रचित
प्राण संकली में भी इसी संप्रदाय की रचना ठहरती है। इस साहित्य में इंद्रिय-निग्रह, प्राण-साधना, मन:साधना,
नाड़ी-साधन, सुरति-योग, षट्चक्र-अनहदनाद आदि पर ही अधिक लिखा गया है। कायायोग, सहज जीवन,
संयत आचरण के साथ रूढ़िविरोध आदि पर इन लोगों की उक्तियाँ खूब मिलती हैं। थोड़ा बहुत राजनीतिक
गतिविधियों पर भी लिखा है-
‘हिंदू-मुसलमान खुदाई के बंदे,
हम जोगी न कोई किसी के छंदे ।
सिद्ध की ही तरह नाथ-साहित्य पर भी विचारने से शुद्ध निराशा ही हाथ लगती है। आचार्य शुक्ल ने
इसका साहित्यिक मूल्यांकन करते हुए निष्कर्ष दिया है—”उनकी रचनाएँ तांत्रिक विधान, योग-साधना,
आत्म-निग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुखी साधना के महत्त्व इत्यादि एक तरह
से साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र है। जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं है।
अस्तु वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं।”
यह जरूर है कि इस साहित्य का साहित्यिक मूल्य भले न हो परंतु ऐतिहासिक और भाषा-वैज्ञानिक
मूल्य तो है ही। हिंदी के संत साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में इसके अध्ययन का महत्त्व बना हुआ है। इसीलिये
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-“इसने परवर्ती संतों के लिये श्रद्धाचरण प्रधान धर्म की पृष्ठभूमि तैयार कर
दी थी। जिन संतो की रचनाओं से हिंदी साहित्य गौरवान्वित है, उन्हें बहुत कुछ बनी बनाई भूमि मिली थी।”
नाथपंथी साहित्य में भी जहाँ एक ओर उलटबाँसियों की शैली में रहस्यात्मक साधना की व्यंजना पाई जाती है
वहीं जनता की बोली में धार्मिक पाखंड, जाति-प्रथा, मूर्तिपूजा आदि का तीखा खंडन भी मिलता है। इस दृष्टि
से भी गोरखनाथ की मुख्य रचनाओं—पद, सबदी, अभैमात्रा जोग, आत्मबोध, सप्रवार, रामावली, ग्यानचौंतीसा
आदि का बड़ा महत्त्व है।
निस्संदेह, यदि नाथ-साहित्य गृहस्थों के प्रति अनादर का भाव न रखता, इतना अधिक रुक्ष और तीखा
न होता, नीरस, लोकविरोधी और क्षयिष्णु न होता तो इसका महत्त्व और भी अधिक होता। फिर भी परवर्ती
साहित्य में चारित्रिक दृढ़ता, आचरण की शुद्धता आदि कायम करने में नाथ-साहित्य का महत्त्व भुलाया नहीं
जा सकता।