साहित्य का इतिहास-दर्शन

By | July 26, 2021
 साहित्य का इतिहास-दर्शन

साहित्य का इतिहास-दर्शन

मनुष्य का इतिहास होता है, इसलिये उसे इतिहास-बोध की आवश्यकता होती है। साहित्य का भी
इतिहास होता है। साहित्य के इतिहास-लेखन की संभावना साहित्य की अवधारणा पर निर्भर करती है। वास्तव
में, इतिहास-दर्शन की तरह साहित्य के इतिहास का भी एक दर्शन होता है। साहित्य के इतिहास लेखन के लिये
यह आवश्यक है कि साहित्य-परंपरा को एक विकासशील और गतिशील प्रक्रिया माना जाये और साहित्यिक
कृतियों को उस प्रक्रिया का अनिवार्य अंग । सामाजिक जीवन के विकास के साथ ही कला और साहित्य का
भी विकास होता है। इसीलिये साहित्य के इतिहास की अवधारणा विगत छह दशकों से साहित्य-चिंतन के क्षेत्र
की एक महत्त्वपूर्ण लेकिन विवादास्पद समस्या बनी हुई है। इतिहास से नाराज अनेक आलोचकों ने आलोचना
में ऐतिहासिक संचेतना को अनावश्यक मानकर उसे समालोचना के क्षेत्र तक से बहिष्कृत करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने साहित्य-सिद्धांत तथा व्यावहारिक आलोचना तक ही आलोचना को सीमित कर दिया।
हम जानते हैं कि रचनाकार की ऐतिहासिक चेतना रचना की अंतर्वस्तु, उसके कलात्मक रूप और उसकी
मूल्यवत्ता को नियमित-निर्धारित करती है। आज के समय में जैसा कि जी. हार्टमैन नामक पाश्चात्य चिंतन ने
लिखा है-“साहित्य का इतिहास एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में ही नहीं, बल्कि साहित्य की रक्षा के लिये
भी आवश्यक है।”न्यू लिटरेरी हिस्ट्री, मा. स. सं.-1,1970 पृ. 183] इसीलिये साहित्य का इतिहास न तो
वर्तमान से पलायन का साधन है और न अतीत की आराधना का मार्ग । वह न तो अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने
का फल है और न वर्तमान के कटु यथार्थ के दंश से बचानेवाला कल्पनालोक । इतिहास न अतीत की अंध-पूजा है और न वर्तमान का तिरस्कार । इतिहास वर्तमान की समस्याओं से बचने का बहाना भी नहीं है, वह विकास, प्रगति और कर्म का निषेध नहीं है। साहित्य का इतिहास अतीत की विलुप्त रचनाओं और रचनाकारें के उद्धार का भी केवल साधन नहीं है। वह न तो रचना और रचनाकारों सम्बन्धी तिथियों और तथ्यों का कोष है और न कवि वृत्त-संग्रह’ मात्र । वह किसी रचना को अपने काल का केवल ऐतिहासिक दस्तावेज या कीर्ति-स्तम्भ ही नहीं मानता, रचना को अपने युग के यथार्थ के प्रतिबिंबन का केवल साधन नहीं समझता है और रचना के परंपरा, परिवेश और प्रभाव का विश्लेषण करके उसे भूल नहीं जाता है । साहित्य का इतिहास केवल विचारों का इतिहास नहीं होता, वह संस्कृति के इतिहास का परिशिष्ट भी नहीं है।
वह केवल महान प्रतिभाओं और महान् रचनाओं का स्तुति-गायन भी नहीं है । साहित्य का इतिहास न
तो रचनाओं की केवल अंतर्वस्तु का इतिहास है और न मात्र रूपों का । वह रचनाओं की साहित्यिकता या पाठक की ग्रहणशीलता या शब्दों के विज्ञान का ही इतिहास नहीं है। वह रचना और रचनाकारों से संबंधित
आलोचकीय प्रतिक्रियाओं का सारांश नहीं है और न मुक्त चिंतन के नाम पर वैचारिक दृष्टिहीनता का फल ।
वह केवल साहित्य की धारणा और इतिहास की धारणा के मेल का फल नहीं है । साहित्य का इतिहास
ऐतिहासिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, भाषावैज्ञानिक और सौंदर्यशास्त्रीय साहित्यानुशीलन का
सार-संग्रह भी नहीं है।
साहित्य के इतिहास का आधार है, साहित्य के विकासशील स्वरूप की धारणा । साहित्य की निरंतरता
और विकासशीलता में आस्था के बिना साहित्य का इतिहास-लेखन असंभव है। साहित्येतिहास स्वतंत्र और
पृथक् रचनाओं की श्रृंखला मात्र नहीं है। रेने वेलेक’ ने लिखा है-“साहित्य के इतिहास का प्रयोजन है
साहित्य की प्रगति, परंपरा निरंतरता और विकास की पहचान करना”-डिस्क्रिमिनेशन्स 1970 पृ. 143]
वस्तुतः इस विकास की धारणा के भी अनेक रूप हैं। ये धारणाएँ मुख्यत: दो हैं—(क) चक्रीय प्रगति की
धारणा और (ख) रेखीय प्रगति की धारणा । पहले के अनुसार साहित्य का विकास विश्लेषित करने वाले
इतिहासकार किसी साहित्य-परंपरा या एक विधा के विकास को उदय, उन्नति और हास के पुनरावर्ती क्रम के
रूप में समझते हैं।
कोयेस्लर का कहना है कि साहित्य रचना की अंतर्वस्तु और रूप में क्रांतिकारी उत्थान-पतन प्रासंगिकता
के बदलाव के कारण होता है। इसकी विभिन्न अवस्थाओं के रूप में विकास की प्रक्रिया चलती रहती है।
साहित्य और कला के विकास की व्याख्या करने वाला एक आवयविक सिद्धान्त भी है जिसके अनुसार साहित्य
या कला को संस्कृति या सामाजिक विकास के अंग के रूप में विवेचित किया जाता है। इसके अनुसार साहित्य
और समाज, युग और राष्ट्र की चेतना का अभिव्यंजक और विधायक है। भाषा के विकास-सिद्धांत का भी
साहित्य के इतिहास की विकासवादी धारणा पर प्रभाव पड़ा
साहित्य और कला के विकास की निरंतरता के अंतर्गत ही विभिन्न प्रवृत्तियों का उत्थान-पतन चला करता
है; इसीलिये कला या साहित्य की मृत्यु की कल्पना से इतिहास के अंत की कल्पना भी जुड़ जाती है। स्पष्ट
है, साहित्य के विकास का लक्ष्य मानव-समाज के विकास के लक्ष्य से संबद्ध है और कोई भी विकास लक्ष्यहीन
नहीं होता। मानव-समाज का इतिहास मनुष्य की प्रयोजनयुक्त क्रियाशीलता का ही परिणाम है। साहित्य का
इतिहास-लेखन साहित्य में होने वाले परिवर्तन और निरंतरता के द्वंद्वात्मक विकासशील संबंध की व्याख्या से
संभव होता है।
किंतु साहित्य के इतिहास में यदि विकास को स्वतः संचालित प्रक्रिया माननेवाले विचारक हैं तो उस
विकास को सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ की विकास प्रक्रिया से अनुशासित प्रक्रिया मानने वाले विचारक भी
हैं। साहित्य की विकासशील प्रक्रिया में नई प्रवृत्तियों के उदय, पुरानी प्रवृत्तियों से नयी प्रवृत्तियों के संघर्ष, नए
प्रयोग और परिवर्तन के साथ-साथ निरंतरता का क्रम चलता रहता है। साहित्य की विकास-प्रक्रिया के अंतर्गत
क्रियाशील आंदोलनों, परिवर्तनों और नवीन प्रयोगों के सम्बन्ध का विवेचन साहित्य के इतिहास में होता है।
साहित्य में परिवर्तन और आंदोलनों से नवीन प्रयोगों की सम्भावना ही उत्पन्न होती है और नवीन प्रयोगों से
परिवर्तनों के लिये भूमिका तैयार होती है। परिवर्तनशीलला के साथ-साथ निरंतरता मानव-चेतना और मानव-समाज
की एक विशेषता है। मानव-चेतना और साहित्य में पूर्ण परिवर्तनशीलता की संभावना को स्वीकार करने पर
इतिहास-लेखन असंभव होगा और परिवर्तनों के अभाव में इतिहास-लेखन भी निरर्थक ।
किसी भी काल के साहित्य में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं होता जो अतीत और भविष्य से पूर्णत: विच्छिन्न
हो। रचनात्मक प्रवृत्तियों, चिंतनधाराओं, सौंदर्यबोधीय मूल्यों और साहित्य-मूल्यों की विकासशील परंपरा में
परिवर्तन और निरंतरता का द्वंद्वात्मक गतिशील सम्बध होता है। हर नया आंदोलन अतीत से मुक्ति की बात करता
हुआ भी नया होने के बावजूद इतना नया नहीं होता कि अतीत से उसका कोई संबंध ही न हो । साहित्य और
कला के इतिहास में क्रांतिकारी परिवर्तनों के बावजूद निरंतरता के कारण होते हैं- -मानव-चेतना और
मानव-स्वभाव की निरंतरता, मानव-समाज की निरंतरता और रचना माध्यमों की निरंतरता । साहित्य की परंपरा
का सम्बन्ध एक ओर सामाजिक परंपराओं से होता है और दूसरी ओर भाषा की परंपरा से । सामाजिक जीवन,
जीवनानुभव और भाषा का गतिशील संबंध ही साहित्य में परिवर्तन और निरंतरता की संबद्धता का कारण है।
साहित्य के इतिहास में विचारणीय विषय अगर एक ओर परिवर्तन और निरंतरता का संबंध है तो दूसरी
ओर नवीन प्रयोगों की विशिष्टता और परंपरा का संबंध भी है। वास्तव में साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण समस्या
अभिनव प्रयोगों की विशिष्टता है और दूसरी समस्या विकास के बावजूद निरंतर गतिशील परंपरा के अंतर्गत घटित होने वाले परिवर्तनों का स्वरूप है। केवल रूप संबंधी-प्रयोग ही विचारणीय नहीं होता, वस्तु संबंधी प्रयोगों का स्वरूप भी विचारणीय होता है
प्राय: सभी मानते हैं कि साहित्य का इतिहास और साहित्य के अनुशीलन की ऐतिहासिक पद्धति दोनों
एक ही नहीं है। किसी रचना की ऐतिहासिकता रचना से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का कुल योग मात्र नहीं
है बल्कि ऐतिहासिकता ऐतिहासिक कल्पना-शक्ति से निर्मित एक मूल्य है जिससे रचना का मूल्यांकन होता है।
समाज और साहित्य के इतिहास में वर्तमान का विचारधारात्मक संघर्ष वर्तमान और भविष्य के लिये ही
नहीं होता, वह अतीत की रक्षा के लिये भी होता है। साहित्य के इतिहास में अतीत की प्रगतिशील परंपरा के
लिये संघर्ष एक ओर वर्तमान संघर्ष का अंग होता है तो दूसरी ओर अतीत की रक्षा के लिये संघर्ष होता है।
वाल्टर बेंजामिन जैसे चिंतक साहित्य के इतिहास-लेखन में अतीत की रचनाओं के वर्तमान अनुभव की व्याख्या
को आवश्यक मानते हैं। अतीत की रचनाओं को वे इतिहास-प्रक्रिया के अंग के रूप में देखने-परखने का आग्रह करते हैं।
साहित्येतिहास को ऐतिहासिक आलोचना से स्वतंत्र एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में विकसित करने
के लिये यह आवश्यक है कि रचना रचनात्मक प्रवृत्तियों और कलात्मक बोध के उदय तथा द्वंद्वात्मक विकास
को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में विवेचित किया जाये और इस विकास-प्रक्रिया को प्रभावित करनेवाले
ऐतिहासिक यथार्थ से विकास प्रक्रिया के संबंध की व्याख्या भी की जाये । इस विकास प्रक्रिया से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण और प्रभाव की व्याख्या करना भी इतिहासकार का काम है। इसके लिये निश्चय ही रचना
और रचनाकार से संबंधित तिथियों और तथ्यों का अनुसंधान करना होगा लेकिन, रचना का मूल्यांकन करनेवाली आलोचना-दृष्टि के पीछे वर्तमान की कला-चेतना की सक्रियता आवश्यक है। अतीत की रचनाओं की वर्तमान में प्रासंगिकता, वर्तमान की कला-चेतना और सामाजिक-चेतना से निर्धारित होती है। ऐतिहासिक कल्पना की सर्जनात्मक क्रियाशीलता से निर्मित ऐतिहासिक अंतदृष्टि और मूल्य दृष्टि के अभाव में रचना के आलोचनात्मक विश्लेषण-मूल्यांकन के बिना इतिहास अगर पुरातात्विक चिंतन बन जायेगा तो रचना और रचनाकार से संबंधित तथ्यों के विवेकपूर्ण अनुसंधान के बिना इतिहास ऐतिहासिक आलोचना का पर्याय हो जायेगा । ऐतिहासिक अंतदृष्टि और आलोचनात्मक चेतना के संयोग के कारण रामचंद्र शुक्ल का इतिहास एक ‘क्लासिक’ कृति है; जबकि ऐतिहासिक अंतष्टि और आलोचनात्मकता के सामंजस्य के अभाव के कारण हिन्दी साहित्य के अनेक दूसरे इतिहासों में इतिहास और आलोचना का पार्थक्य स्पष्ट देखा जा सकता है।
इतिहास मूलतः मूल्यांकनपरक होता है। यहाँ विचारणीय है कि अतीत की रचनाओं का मूल्यांकन अतीत
के अनुभव के रूप में किया जाये या वर्तमान के अनुभव के रूप में ? रचना का मूल्यांकन रचनाकालीन संदर्भ
में हो या समकालीन संदर्भ में ? यहाँ निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि रचना की उत्पत्ति और उसकी वर्तमान
सार्थकता—दोनों पर विचार करना ही इतिहास का उद्देश्य है, होना चाहिये। सो, साहित्य का इतिहास वर्तमान
की चेतना के परिप्रेक्ष्य में ही अतीत की सार्थकता की व्याख्या करके वर्तमान के लिये उसे उपयोगी और प्रासंगिक बनाता है।
निश्चय ही साहित्य के इतिहास-लेखन में अतीत को ठीक से समझने के लिये वर्तमान की सही समझ
अत्यंत जरूरी है, क्योंकि वर्तमान समाज से ही अतीत के बारे में नए और जरूरी सवाल मिलते हैं। साहित्य के
इतिहास को भी दोनों छोरों से समझना जरूरी है; दूरवर्ती अतीत के छोर से और निकटवर्ती वर्तमान के छोर से
भी । साहित्य के इतिहास-लेखन के लिये वर्तमान समाज और साहित्य के वास्तविक स्वरूप का बोध आवश्यक
है अन्यथा इतिहास-लेखन के नाम पर अतीत के लिये अतीत की साधना मात्र होगी। इस तरह वर्तमान से
विच्छिन्न इतिहास-बोध अतीत और वर्तमान दोनों को समझने में असमर्थ होगा और वर्तमान की चेतना से शून्य
इतिहास-लेखन केवल पुरातात्विक लेखन होगा।
साहित्य के इतिहास में रचना के अतीत और वर्तमान के संबंध का प्रश्न कालजयी कृतियों के संदर्भ में
भी विचारणीय है। कालजयी कृतियों की युग सापेक्षता और युग-निरपेक्षता परंपरा और परिवेश से उनके जुड़ाव
और परंपरा-परिवेश से परे उनकी सार्थकता का सवाल साहित्य के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण लेकिन विवादास्पद सवाल है। कालजयी कृतियों में युग सापेक्षता और युग निरपेक्षता का विरोध ही नहीं होता, उनकी एकता भी होती है। अपने परिवेश और अपनी परंपरा से सर्जनात्मक संबंध स्थापित करनेवाली कृति ही रचनाकार की सृजनशीलता, मौलिकता और नवीनता के कारण कालजयी भी होती है। गहरे स्तर पर समकालीन होकर,
समकालीन जीवन से संबद्ध होना ही कोई कृति सार्वकालिक बनती है, न कि परंपरा और परिवेश से विच्छिन्न होकर, युग सापेक्षता समकालीन ऐतिहासिक यथार्थ की व्यंजना का परिणाम है और युग निरपेक्षता ऐतिहासिक
यथार्थ की पुनर्रचना करनेवाली सर्जनात्मक प्रतिभा की देन है। रचनाशीलता शून्य से शुरू नहीं होती और न
शून्यता विकसित होती है। कालजयी कृतियों से कलात्मक मूल्यों की प्रासंगिकता की पहचान ऐतिहासिक चेतना
से संभव होती है। मूल्यवान कृतियों की रक्षा करना इतिहासकार का नैतिक दायित्व है। कृति का कलात्मक मूल्य उसमें व्यक्त नैतिक मानवीय मूल्यों से संबद्ध होता है और नैतिक मानवीय मूल्यों की सार्थकता का बोध
ऐतिहासिक चेतना से संबद्ध होता है।
साहित्येतिहास में अतीत और वर्तमान का अलगाव साहित्येतिहास की दुर्बलता मात्र नहीं बल्कि गलत
इतिहास-दृष्टि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास में अंतर्वस्तु और रूप के संबंधों को लेकर अपनाए गए
अलग-अलग दृष्टिकोणों के चलते ही वस्तुवादी और रूपवादी साहित्येतिहास की धारणाएँ विकसित हुई हैं।
वस्तुवादी इतिहासकार रचना में वस्तु को केंद्रीय महत्त्व देकर साहित्य के विकास के दौरान वस्तु संबंधी परिवर्तनों
की ही व्याख्या करते हैं। वास्तव में मौलिकता या नवीनता वस्तु में होती है और वस्तु अपने अनुरूप रूप का
विकास कर लेती है। वस्तुवादी साहित्येतिहास की एक धारा साहित्येतिहास को विचारों का इतिहास मानती है
तो दूसरी उसे सभ्यता का इतिहास समझती है। दूसरी ओर रूपवादी साहित्य के इतिहास को रूपों का इतिहास
मानते हैं। इसलिये रूपों के विकास को ही वे साहित्य के इतिहास का मूल विषय मानते हैं।
वास्तव में वस्तु और रूप को आधार बनाकर अपनाये गये ये दृष्टिकोण एकांगी हैं। रचना एक रूपायित
वस्तु होती है, इसलिये आलोचना या इतिहास में वस्तु की विच्छिन्नता नहीं, एकता का विवेचन ही अपेक्षित है।
साहित्य का इतिहास केवल रूप या वस्तु का इतिहास नहीं होता, वह रचना में व्यक्त रचनाकार की सृजनशील
चेतना का भी इतिहास होता है। रचनानिष्ठ साहित्येतिहासकार वस्तु और रूप की समग्रता के बोध से ही रचना
को प्रभावित करनेवाले वस्तु और रूप संबंधी प्रयोगों की व्याख्या करता है। साहित्य में संगीत मूर्तिकला या अमूर्त
चित्रकला जैसी वस्तु और रूप की एकता भले ही न हो, लेकिन यहाँ वस्तु और रूप में ऐसा पार्थक्य भी नहीं
होता कि दोनों का स्वतंत्र इतिहास बन सके । शब्द और अर्थ की संपृक्तता की तरह ही रचना में रूप और वस्तु
की एकता व्यक्त होती है। वास्तव में अर्थ ही वस्तु है और रूप उसके शब्द, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि
शब्दार्थ की मीमांसा ही साहित्येतिहास है। वस्तु और रूप दोनों ही सामाजिक यथार्थ और उसके प्रति रचनाकार
के दृष्टिकोण से प्रभावित निर्मित होते हैं; लेकिन केंद्रीय वस्तु अंतर्वस्तु ही है और अंतर्वस्तु की नवीनता से ही
रूप की नवीनता विकसित होती है। नई वस्तु, नये रूप में ही व्यक्त होती है। तात्पर्य यह है कि साहित्य के
इतिहास में वस्तु और रूप की एकता, संगति और अंतर्विरोध को ऐतिहासिक यथार्थ के संदर्भ में ही समझा जाना चाहिये।
कला या साहित्य के संदर्भ में नवीनता एक ऐतिहासिक मूल्य है। नया पुराने का निषेध करता हुआ उसी से विकसित होता है। पुराना पड़ जाने पर फिर उसका भी निषेध होने लगता है। कला और साहित्य और रूप संबंधी पुरानेपन और नयेपन के संघर्ष के विकास की यह प्रक्रिया ही इतिहास का निर्माण करती है और इस प्रक्रिया की व्याख्या करना ही इतिहास का प्रयोजन है। ध्यातव्य है कि साहित्य और कला में नया शून्य से पैदा नहीं होता । वह साहित्य-परंपरा और ऐतिहासिक यथार्थ के मिलन-बिंदु से प्रारंभ होता है और उस ऐतिहासिक क्षण की समझ के लिये नये और पुराने के संबंध का बोध इतिहास-विवेक से प्राप्त होता है।
साहित्य और कला के संदर्भ में ऐतिहासिक चेतना से ही नए सिद्धांत और नयी पद्धतियों का निर्माण होता
है। नए और पुराने का सम्यक् बोध ऐतिहासिक चिंतन से ही संभव होता है । साहित्येतिहास में ऐतिहासिक
यथार्थ की समझ के बिना उससे उत्पन्न साहित्य का सम्यक् बोध केवल काव्यशास्त्र के आधार पर नहीं हो
सकता । एक काल विशेष के साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति या विभिन्न प्रवृत्तियों का उत्स उस काल का सामाजिक
जीवन होता है; केवल साहित्य की परंपरा नहीं। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में पहली बार अनेक महत्त्वपूर्ण
कवि हजारों वर्षों के इतिहास में वर्ण-व्यवस्था की दलित जातियों में ही क्यों पैदा हुए? दलित जातियों के इस
रचनात्मक उन्मेष के कारणों की खोज के बिना भक्तिकालीन कविता का मूल्यांकन अधूरा होगा । उस काल के
सामाजिक जीवन और ऐतिहासिक यथार्थ के विश्लेषण से ही संत कवियों की उस रचनाशीलता के प्रेरक तत्वों
की पहचान हो सकती है जो धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्याप्त जड़ता और शास्त्रीयता का
खंडन करती है।
साहित्य के इतिहास के संदर्भ में विचारधारा की स्थिति और इतिहास-लेखन में दृष्टिकोण के स्वरूप
पर विचार होना चाहिये । इतिहास और कला-सृजन के बीच संबंध की खोज एक महत्त्वपूर्ण समस्या है और
यही साहित्य के इतिहास की अपनी समस्या है। साहित्य में अपने युग के जीवन की विमर्शात्मक व्यंजना होती
है। रचना में ऐतिहासिक और व्यक्तिगत दोनों तरह के तत्त्व होते हैं। विचारधारा में जीवन-प्रक्रिया का अमूर्तन
होता है जबकि कला में जीवन का मूर्त रूप व्यक्त होता है। साहित्य का इतिहासकार साहित्य के निर्माण में
सहयोगी ऐतिहासिक और व्यक्तिगत दोनों प्रकार के तत्त्वों की भूमिका पर विचार करता है। वह कृति में व्यक्त
जीवन को महत्त्व देता है। साहित्येतिहास साहित्य के विकास के अंतर्गत होने वाले परिवर्तनों के स्वरूप की
व्याख्या है और हर तरह की व्याख्या के लिये एक सुसंगत दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। एक व्यापक
विचार-प्रक्रिया ही इतिहास को सुसंगति प्रदान करती है। विचार-प्रक्रिया से अनुशासित साहित्येतिहास समग्र
इतिहास होता है। यहाँ प्रत्येक परिवर्तन की व्याख्या होती है। ऐसे ही समग्र इतिहास की धारणा विकसित करने
की आज जरूरत भी है।
साहित्येतिहास के स्वरूप को देखकर यह जिज्ञासा स्वतः होती है कि साहित्य इतिहास कला का है।
या विज्ञान का संरचनावादी विचारक का कहना है कि साहित्य, इतिहास शब्दों का इतिहास है। शौली वैज्ञानिक
भी यही कहते हैं। वे साहित्य की अंतर्वस्तु को रूपों का विज्ञान कहते हैं। साहित्य को कला मानने के पीछे
साहित्य, कला’ और ‘इतिहास’ की विशिष्ट धारणाएँ हैं।
साहित्यालोचन और साहित्येतिहास पर मानव-विज्ञानों, विशेषतः, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और भाषा-विज्ञान
का प्रभाव पड़ा है। समाजशास्त्र सामाजिक जीवन की संरचनाओं का विज्ञान है, मनोविज्ञान व्यक्तित्व का विज्ञान
है और भाषा-विज्ञान भाषा की संरचना का विज्ञान है। साहित्य के इतिहास लेखन में इन मानव-विज्ञानों की
सहायता ली जा सकती है, लेकिन साहित्य के इतिहास को न तो प्राकृतिक विज्ञानों के अनुरूप बनाया जा सकता
है और न समाजशास्त्र, मनोविज्ञान या भाषा-विज्ञान का उपफल ही बनाया जा सकता है। विज्ञान में तथ्यों की
खोज, परिकल्पनाओं का निर्माण और कार्य-कारण संबंध की विवेचना होती है। साहित्य का इतिहास दस्तावेजों
और तथ्यों की खोज, उनके वर्गीकरण और काल-निर्धारण तक ही सीमित नहीं होता, रचनाओं का मूल्यांकन,
परंपरा का विवेचन और युग की सामाजिक सांस्कृतिक चेतना की खोज का काम भी होता है। उसमें रचनाकार
की रचनाशीलता के संदर्भ में जीवन की वास्तविकता की मीमांसा होती है। इसीलिये फ्रांसीसी इतिहासकार जी.
लासों कहते हैं- “साहित्य का इतिहास मूल्यांकन और सुरुचि से बचने की कोशिश नहीं करता । जहाँ तक
उसका संबंध प्रमाणों से है वहाँ तक यह विज्ञान है; लेकिन जब तथ्यों के ज्ञान पर आधारित मूल्यांकन में
अभिरुचि और संवेदनशीलता की सक्रियता प्रबल होती है तो इतिहास विज्ञान नहीं रहता । इस प्रकार किसी कृति
का मूल्यांकन करना विज्ञान का काम नहीं है; विज्ञान से प्रभावित व्यक्तिगत विवेक का कार्य है। साहित्य के
इतिहास में वस्तुपरक ज्ञान और आत्मपरक कलाभिरुचि दोनों का सहयोग होता है।
साहित्येतिहास की विषय-वस्तु (साहित्य) के कलात्मक रूप और मूल्य की संचेतना के साथ-साथ
अपनी कला (इतिहास-लेखन की कला) की प्रकृति के प्रति सतत् जागरुकता के कारण ही साहित्य का इतिहास
सामान्य इतिहास से भिन्न होता है। साहित्य का इतिहास काव्य-सत्य का विवेचन करनेवाला बौद्धिक अनुशासन
है। साहित्य का इतिहास रचना और पाठक के बोध संबंधी निरंतर गतिशील संबंध की व्याख्या करता है;
इसलिये साहित्य के इतिहास की कला की सार्थकता साहित्य-कला का इतिहास होने में ही है।
इधर साहित्य के इतिहास से संबंधित कुछ नये प्रत्यय सामने आए हैं। साहित्य एक जीवंत गतिशील
प्रक्रिया है; रचना कर्म एक सामाजिक व्यवहार है। साहित्य को सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहार के अंग के रूप
में एक विशिष्ट रचनात्मक व्यवहार समझना साहित्य की नयी धारणा का आधार है। मानव-सृजनशीलता की
अभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं; साहित्य-सृजन उनमें से एक है। संपूर्ण मानव-सृजनशीलता जीवन के यथार्थ और
चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध से विकसित होती है। साहित्य का मूल उपादान मानव-जगत का यथार्थ है। इस
यथार्थ में मानव का केवल वस्तु-जगत ही नहीं, बल्कि मानव के अनुभूति-जगत और चिंतन-जगत का भी
समावेश रहता है। यह मानवीय यथार्थ एक गतिशील और विकासशील प्रक्रिया है। साहित्य में विकासशील
यथार्थ की गतिशील प्रक्रिया की व्यंजना होती है। मानव सृजनशीलता के माध्यम से इस यथार्थ के नए आयामों
और रूपों की अभिव्यक्ति होती है। मानवीय यथार्थ की रचनाशील व्यंजना का एक अनिवार्य ऐतिहासिक संदर्भ
होता है। रचना अपने काल के यथार्थ की जटिल समग्रता का अंग होती है। इसीलिये साहित्येतिहास की पहली
शर्त है कि रचना में निहित ऐतिहासिक यथार्थ की प्रामाणिक व्याख्या हो।
साहित्य-सृजन एक कर्म है और रचना कर्म के परिवेश तथा परिस्थितियों का विवेचन साहित्येतिहास की
दूसरी शर्त है। रचना संबंधी परिस्थितियों और परिवेश के विवेचन के अंतर्गत रचनाकाल की सांस्कृतिक-कलात्मक
प्रवृत्तियों का विश्लेषण भी जरूरी है। रचना-कर्म के उपादानों और साधनों की मीमांसा के अंतर्गत वस्तु और
रूप की परंपरा की प्रकृति का विश्लेषण होना चाहिये । प्रत्येक समर्थ कृति एक नयी रचना है, इसलिये उसकी
नवीनता का उद्घाटन उसके आंतरिक स्वरूप अर्थात् वस्तु, अनुभूति और विचार के विश्लेषण से ही इतिहासकार
कर सकता है। किसी रचना के सापेक्ष्य मूल्य का आकलन और उसकी मानवीय सार्थकता की व्याख्या भी
इतिहासकार का कर्त्तव्य है ताकि परंपरा और समकालीन रचनाशीलता के संदर्भ में कृति की मूल्यवत्ता उजागर
हो सके । इतिहासकार का यह नैतिक दायित्व है कि वह मूल्यवान कृति की पहचान बताते हुए उसकी रक्षा करे।
रचना-कर्म और कृति के साथ-साथ रचना कर्मी कलाकार की चेतना की प्रकृति और क्रियाशीलता की परख भी
इतिहासकार करता है क्योंकि रचनाकार की चेतना की क्रियाशीलता का ही फल रचना है। रचना में रचनाकार
की जागरुकता व्यक्त होती है और इसी संदर्भ में रचनाकार की विश्वदृष्टि तथा कृति से उस विश्व दृष्टि के संबंध
का विवेचन इतिहासकार करता है। यह इतिहासकार की ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि और आलोचनात्मक विवेक पर ही
निर्भर है कि वह रचना से रचनाकार की ओर जाए या रचनाकार से रचना की ओर । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि
दोनों में से किसी एक के विस्मरण से इतिहासकार का दायित्व पूरा नहीं होता।
इस प्रकार रचना अपने पाठकों की चेतना की विधायिका होती है। इसी कारण इतिहासकार रचना के
प्रभाव का भी विश्लेषण करता है। इतिहासकार रचना और रचना-कर्म की परंपरा, परिवेश, अंत: स्वरूप और
प्रभाव की मीमांसा के साथ-साथ साहित्य की विकासशीलता में रचना से उत्पन्न परिवर्तनों की व्याख्या करते हुए
साहित्य का इतिहास निर्मित करता है। साहित्येतिहास के इस नये स्वरूप के विषय में यह कहा जा सकता है
कि इसमें इतिहास और आलोचना का पार्थक्य लगभग समाप्त हो जाता है। सच तो यह है कि इतिहास और
आलोचना का अलगाव नहीं, दोनों की सर्जनात्मक एकता के आधार पर ही सच्चे साहित्येतिहास का विकास हो
सकता है। ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि और आलोचनात्मक विवेक से संपन्न इतिहासकार ही साहित्य को मानव के
सामाजिक व्यवहार का एक विशिष्ट रचनात्मक रूप समझते हुए, एक ऐतिहासिक काल के यथार्थ की जटिल
समग्रता के निर्माण में उसे सहायक मानते हुए साहित्य की सार्थकता मौलिकता और विकासशीलता का
विश्लेषण-मूल्यांकन कर सकता है। संस्कृति का भी इतिहास होता है इसलिये सांस्कृतिक चेतना के विकास के
लिये संस्कृति के इतिहास का बोध भी आवश्यक है। कोई भी समाज अपने सांस्कृतिक रिक्थ से जुड़कर संस्कृति
के नवीनीकरण का उद्देश्य प्राप्त कर सकता है। अतीत के दाय के सार्थक और मूल्यवान को निरर्थक और
मूल्यहीन से अलगाने का विवेक इतिहास-विवेक से प्राप्त होता है।
वस्तुतः साहित्यिक चेतना और उसके इतिहास की एकता से साहित्य-रूप में कलाकार की आस्था
मजबूत होती है और मानव-चेतना तथा उसकी विषयवस्तु के बीच अपनी मध्यस्थता के कर्तव्य का साहित्यकार
को बोध होता है। साहित्य का इतिहास रचनाकार को उसके ऐतिहासिक कर्तव्य का बोध कराता है।
वास्तव में विकास के लिये अतीत का ज्ञान ही नहीं वर्तमान की कर्मशीलता भी आवश्यक है। यही
कारण है कि वर्तमान रचनाशीलता को दिशा और दृष्टि देने में समर्थ साहित्येतिहास ही उपयोगी होगा।
इतिहास-बोध का प्रयोजन समाज को उसके अतीत के रचनात्मक ज्ञान और कर्म-संबंधी अनुभवों का नया
अनुभव करना है। साहित्येतिहास का लक्ष्य व्याख्या की पुर्नव्याख्या करना नहीं है, साहित्य के विकास की केवल
जाँच-पड़ताल करना भी नहीं है, बल्कि नई रचनाशीलता के संदर्भ में अतीत की रचनाशीलता की प्रासंगिकता
का विवेचन करना है। साहित्य के इतिहास का यही दर्शन है और उसका उद्देश्य नई रचनाशीलता के लिये नई
संभावनाओं की तलाश करना भी है।

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