up board class 9th hindi | काव्य से सम्बन्धित जानने योग्य बातें

By | May 1, 2021

up board class 9th hindi | काव्य से सम्बन्धित जानने योग्य बातें

 
(1) काव्य और उसके भेद
रसात्मक वाक्यों को काव्य कहते हैं―वाक्यं रसात्मकं काव्यं; अर्थात् जो शब्दमयी रचना श्रोता या
पाठक के मन में अलौकिक आनन्द की सृष्टि करती है, उसे काव्य कहते हैं। शैली की दृष्टि से काव्य के
निम्नलिखित भेद हैं―
पद्य-रचना उसे कहते हैं जिससे छन्दों का विधान होता है; जैसे-महाकाव्य, खण्डकाव्य आदि।
जिस साहित्यिक रचना में छन्दों का विधान न होकर सामान्य वाक्यों के रूप में अपनी बात कही जाती है, उसे
गद्य-रचना कहते हैं; जैसे-उपन्यास, कहानी, निबन्ध आदि।
प्रबन्ध और मुक्तककाव्य―ये पद्य-रचना के दो मुख्य भेद हैं। जिसमें किसी कथा का आश्रय
लेकर कविता रची जाती है, वह प्रबन्धकाव्य कहलाता है। प्रबन्धकाव्य के मुख्य रूप से दो भेद होते हैं―
महाकाव्य और खण्डकाव्य। जिसमें कोई कथा न कहकर स्वतन्त्र पदों के रूप में भावाभिव्यक्ति की जाती
है, वह मुक्तककाव्य कहलाता है; जैसे—सूर के पद। इसमें प्रत्येक पद अपने में पूर्ण और स्वतन्त्र होता है।
महाकाव्य―जिसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति (पात्र) के सम्पूर्ण जीवन का विस्तार से वर्णन हो,
वह महाकाव्य कहलाता है; जैसे-श्रीरामचरितमानस (तुलसीदास), कामायनी (जयशंकर प्रसाद) आदि।
खण्डकाव्य―जिसमें सम्पूर्ण जीवन का वर्णन न होकर जीवन के किसी एक अंश या खण्ड का
वर्णन होता है, उसे खण्डकाव्य कहते हैं; जैसे-पंचवटी, कर्मवीर भरत, तुमुल आदि।
गीतिकाव्य―यह मुक्तककाव्य का एक भेद है, जिसमें गेय पदों के रूप में कविता रची जाती है।
इसमें प्रत्येक पद अपने में पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं होता क्योंकि किसी भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति एक पद में न
होकर पूरी कविता में होती है, जिसे गीत कहते हैं; जैसे—प्रसाद के ‘लहर’, ‘झरना’ आदि कविता-संकलन।
 
(2) रस
काव्य (पद्यमयी या गद्यमयी रचना) पढ़ने, सुनने या देखने से पाठक, श्रोता या दर्शक को जो
अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं। काव्य में विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के योग से
रस की सृष्टि होती है। रसों की संख्या नौ मानी गयी है-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, वीभत्स, अद्भुत,
भयानक और शान्त। वात्सल्य और भक्ति को श्रृंगार के अन्तर्गत ही माना जाता है।
 
(3) अलंकार
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं। बिना अलंकारों के भी बड़ी-बड़ी भावपूर्ण
रचनाएँ रची जा सकती हैं, किन्तु अलंकारों के प्रयोग से भाषा और भाव में सौन्दर्य उत्पन्न होता है। अलंकारों
के दो भेद है-शब्दालंकार (जहाँ चमत्कार ‘शब्द’ पर आधारित होता है) और अर्थालंकार (जहाँ
चमत्कार का आधार अर्थ होता है, शब्द नहीं)।
 
(4) गुण
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले स्थायी (अनिवार्य) तत्त्वों को गुण कहते हैं। इस प्रकार अलंकार यदि
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले अस्थायी तत्त्व है तो गुण स्थायी, क्योंकि इनके बिना काव्य चित्ताकर्षक हो ही
नहीं सकता। गुण के तीन भेद है―प्रसाद, ओज और माधुर्य।
प्रसाद गुण―जैसे अंगूर के छिलके के अन्दर से उसका रस झलकता दीख पड़ता है, वैसे ही जब
सरल और शीघ्र अर्थग्राह्य शब्दों के प्रयोग से काव्य रस की तत्काल उपलब्धि हो जाती है तो ऐसी
शब्द-योजना प्रसाद-गुण से युक्त कहलाती है; जैसे—गुप्त जी का ‘भारत-भारती’ तथा हरिऔध जी का
‘प्रियप्रवास’ काव्य-ग्रन्थ।
ओज गुण―ऐसे शब्दों के प्रयोग से सम्बद्ध रचना जिससे चित्त में उत्साह का संचार हो, ओज गुण
से युक्त कहलाती है। वीर रस की कविता में ओज गुण की प्रधानता रहती है; जैसे-श्यामनारायण पाण्डेय
का हल्दी-घाटी’ काव्य-ग्रन्थ।
माधुर्य गुण―जो शब्द-योजना अत्यधिक कर्णमधुर और चित्त को द्रवित करने वाली हो और
जिससे सहृदय का मन तत्काल रस-मग्न हो जाये, माधुर्य गुण से युक्त कहलाती है; जैसे-मीरा या सूर के
पद।
 
(5) शब्द-शक्ति
जिस शक्ति के बल पर शब्द विभिन्न अर्थों की व्यंजना करते हैं, उसे शब्द-शक्ति कहते हैं। इसके
तीन भेद हैं―अभिधा, लक्षणा और व्यंजना।
अभिधा―यह वह शब्द-शक्ति है, जिसके बल पर शब्द के सामान्य अर्थ का बोध होता है। कोशों में
ऐसा ही अर्थ दिया होता है। जैसे—’वारि’ का न’।
लक्षणा―जब अभिधा से काम नहीं चलता अर्थात् शब्द के सामान्य अर्थ से वक्ता का भाव स्पष्ट
नहीं होता तो जिस शब्द-शक्ति के बल पर उससे मिलता-जुलता अर्थ लेकर वक्ता का आशय स्पष्ट होता है,
उसे लक्षणा कहते हैं; जैसे-यदि किसी व्यक्ति को कोई ‘गधा‘ कहे तो अभिधा से काम नहीं
चलेगा, क्योंकि वह गधा नामक पशु नहीं; अतः यहाँ गधे का आशय ‘मूर्ख व्यक्ति’ से लेना होगा।
व्यंजना―जब अभिधा और लक्षणा दोनों से अर्थबोध नहीं हो पाती तो जिस शब्द-शक्ति के बल पर
वक्ता का आशय ग्रहण हो पाता है, उसे व्यंजना कहते हैं; जैसे-यदि किसी कार्यालय का लिपिक
(क्लर्क) घड़ी देखकर अपने साथी से कहे कि पाँच बज गये तो उसका आशय होगा―‘काम बन्द करके
घर चलने का समय हो गया है।’
 
(6) छन्द
मात्रा, वर्ण (अक्षर), यति (विराम), गति (लय), तुक आदि के नियमों से बंधी पंक्तियों को छन्द
कहते हैं; जैसे-दोहा, चौपाई आदि।
 
(7) प्रतीक
सूक्ष्म को स्थूल के माध्यम से व्यक्त करना प्रतीक कहलाता है; जैसे-‘यौवन’ को प्रकट करने के
लिए गुलाब के फूल का प्रयोग। यहाँ ‘गुलाब’ यौवन का प्रतीक (चिह्न) है।
 
(8) विभिन्न वाद
छायावाद―प्रकृति में परमात्मा व आत्मा के प्रतीक रूप में एवं प्रत्यक्ष रूप में भी नर-नारी की छाया
देखना (जिसे प्रकृति का मानवीकरण कहते हैं) छायावाद की प्रमुख प्रवृत्ति है; जैसे—’लता’ को स्त्री,
‘वृक्ष’ को पुरुष आदि के रूप में देखना। उदाहरणार्थ-प्रसाद, पन्त, महादेवी आदि के काव्य
रहस्यवाद―प्रकृति में अव्यक्त सत्ता (परमात्मा) की झलक पाना रहस्यवाद कहलाता है; जैसे-
कबीर एवं जायसी की रचनाएँ।
प्रगतिवाद―साम्यवाद का काव्यात्मक रूपान्तरण ही प्रगतिवाद है। इसमें किसान-मजदूर की हीन
दशा, उनके शोषण, क्रान्ति, पूँजीवाद के विरुद्ध आक्रोश आदि विषय रहते है।
प्रयोगवाद―फ्रायड के काममूलक सिद्धान्तों का काव्य-रूपान्तरण प्रयोगवाद है। इसमें कवि अपनी
कविता में भाँति-भाँति के प्रयोगों का दावा करता है। इस वाद के अनुयायी कवि या लेखक संसार में छाये हुए
अन्धकार, अनाचार और विषाद में स्वयं को उचित मार्ग का अन्वेषक तथा अपनी कृतियों को प्रयोग मात्र
मानते हैं। ये प्रयोग विषय, भाषा, छन्द आदि सभी स्तरों पर दिखाई देते हैं; जैसे मुक्तिबोध आदि के
काव्य।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *