UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
राष्ट्रभाषा हिन्दी [2009, 13]
सम्बद्ध शीर्षक।
- राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में बाधाएँ
- राष्ट्रभाषा हिन्दी : राष्ट्र की एकता का प्रतीक
- देश के विकास में राष्ट्रभाषा की भूमिका
- हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों ? [2009]
- राष्ट्रभाषा का महत्त्व [2009]
- भारत की भाषा-समस्या और हिन्दी (2012)
प्रमुख विचार-बिन्दु–
- प्रस्तावना,
- भाषा के विभिन्न रूप,
- हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य,
- अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक,
- उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान।।
प्रस्तावना—किसी भी पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए तीन वस्तुएँ अनिवार्य होती हैं(1) राष्ट्रध्वज, (2) राष्ट्रगान तथा (3) राष्ट्रभाषा। भारत के पास राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान तो हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उसका उचित स्थान अब तक न मिल पाना बड़े दुर्भाग्य की बात है। किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न मूलभूत महत्त्व का होता है; क्योकि राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली, उसकी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने वाली एवं उसे उसके प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाकर उसमें अस्मिता-बोध जगाने वाली संजीवनी है, जिसके बिना राष्ट्र मृतप्राय होकर कालान्तर में अपनी सम्प्रभुता भी खो देता है। भारतेन्दु जी ने ठीक ही लिखा है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल ॥
वस्तुतः राष्ट्रभाषा के बिना कोई व्यक्ति गर्व से किसी स्वतन्त्र राष्ट्र का नागरिक कहलाने का अधिकारी नहीं होता। आज जो भारतीय किसी कार्यवश संसार के ऐसे देशों में जाते हैं, जहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं है, वहाँ अंग्रेजी के प्रयोग के कारण उन्हें जिस असुविधा एवं अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसका विवरण कितने ही सज्जनों ने स्वयं ही दिया है। यही कारण है कि किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न सब प्रकार के विवादों से ऊपर होता है, किन्तु संसार में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ राष्ट्रभाषा के प्रश्न को भी क्षुद्र राजनीतिक, क्षेत्रीय एवं साम्प्रदायिक विवादों में फंसाकर व्यवहार में अब तक अनिर्णीत रखा गया है। इसके दुष्परिणाम भी देश के उत्तरोत्तर बढ़ते जाते विघटन के रूप में दीख पड़ते हैं। अतः राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्थिति, इसके उचित स्थान-ग्रहण में बाधक तत्त्व एवं इस समस्या के समाधान पर विचार करना उचित होगा।
भाषा के विभिन्न रूप-सर्वप्रथम क्षेत्रीय (प्रादेशिक) भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अन्तर को स्पष्ट करना उचित होगा। किसी देश के प्रदेश विशेष की भाषा को प्रादेशिक या क्षेत्रीय भाषा कहते हैं; जैसे—भारत में बाँग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलुगू आदि भाषाएँ। जब कोई प्रादेशिक भाषा किन्हीं राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या साहित्यिक कारणों से समग्र देश में फैलकर विभिन्न प्रदेशवासियों के पारस्परिक व्यवहार का माध्यम बन जाती है तो उसे राष्ट्रभाषा’ कहते हैं। आशय यह है कि किसी प्रदेश विशेष के निवासी आपसी व्यवहार में तो अपनी प्रादेशिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं, किन्तु भिन्न भाषा-भाषी दूसरे प्रदेश वालों के साथ व्यवहार के समय एक ऐसी भाषा का प्रयोग करने को बाध्य हैं, जो सारे देश में थोड़ी-बहुत समझी-बोली जाती हो। इसी को राष्ट्रभाषा कहते हैं।
भारत में मध्यकाल से ही हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव-सरकार की ओर से नहीं, अपितु जनता-जनार्दन की ओर से—प्राप्त हुआ; क्योंकि कोई भी राष्ट्रभाषा जनता द्वारा ही स्वीकृत होती है। यहाँ राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय भाषा के अन्तर को भी स्पष्ट करना आवश्यक है। वस्तुतः किसी राष्ट्र में प्रचलित समस्त भाषाएँ वहाँ की राष्ट्रीय भाषाएँ (National Languages) होती हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा (Lingua Franca) केवल वही हो सकती है, जिसे विभिन्न प्रादेशिक भाषाएँ बोलने वाले आपसी व्यवहार के लिए अपनाएँ। इस प्रकार समस्त भारतीय भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं; राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी है।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य-देश की चौदह सम्पन्न भाषाओं के रहते हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा का पद क्यों दिया गया, इस सम्बन्ध में हिन्दी भाषा के प्रमुख क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के; जिसे प्राचीन काल में मध्यदेश कहते थे; विशिष्ट भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व पर दृष्टिपात करना होगा। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० धीरेन्द्र वर्मा लिखते हैं, “वैदिक साहित्य के अनुसार आर्यों का प्रारम्भिक निवास स्थान मध्य प्रदेश के मध्य में न होकर उसकी पश्चिमोत्तर सीमा पर सरस्वती नदी के निकटवर्ती प्रदेश में गंगा की घाटी के उत्तरी भाग तक फैला हुआ था। यही प्रदेश बाद में कुरु-पांचाल जनपदों के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रदेश से आर्य-संस्कृति चारों ओर फैली। यूरोपीय विद्वानों के अनुसार भी आर्यों की संस्कृति का प्राचीनतम तथा शुद्धतम रूप भारत में मध्यदेश में ही मिलता है। यहीं से इसका प्रभाव पश्चिम में (ईरान, ग्रीस आदि देशों) तथा अन्य दिशाओं में फैला।”
वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना यहीं हुई। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का सम्बन्ध मध्यदेश से ही है। राम और कृष्ण की क्रीड़ा-स्थलियाँ–अयोध्या और ब्रज-मध्यदेश में ही हैं। ‘गीता’ का उपदेश कुरुक्षेत्र में दिया गया। कई प्रमुख हिन्दू राजवंशों की राजधानियाँ इसी क्षेत्र में रहीं। बाद में विदेशी शासकों-तुर्क, अफगान, मुगल, अंग्रेज आदि ने भी अपने साम्राज्यों का केन्द्र मध्यदेश में ही दिल्ली (प्राचीन इन्द्रप्रस्थ) को बनाया और आज भी भारतवर्ष की राजधानी यही है। प्रधान साहित्यिक आर्य भाषाओं; जैसे-संस्कृत, पालि, शौरसेनी, ब्रजभाषा आदि का घर मध्यदेश ही रहा है। खड़ी बोली हिन्दी का सम्बन्ध भी यहीं से है; अत: किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय आर्य-संस्कृति के इतिहास में इसका असाधारण महत्त्व है।
विख्यात भाषाशास्त्री डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी भी उपयुक्त मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, वैदिक युग के बाद से प्राचीन काल में उत्तर भारत के जिस भाग को मध्यदेश कहा जाता था, उसके सांस्कृतिक तथा राजनीतिक प्राधान्य के कारण ही प्रत्येक युग में वहाँ की भाषा का प्राधान्य रहा है और इसी प्रदेश तथा इसके आसपास की भाषा भिन्न-भिन्न युगों में संस्कृत, पालि, शौरसेनी प्राकृत, ब्रज भाषा और अन्त में हिन्दी (खड़ी बोली) के रूप में सम्पूर्ण भारत की सहज एवं स्वाभाविक अन्तर्घान्तीय भाषा के रूप में विराजमान रही है।”
इस प्रकार यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही भारत को अखिल भारतीय व्यवहार के लिए सदा से राष्ट्रभाषा देता आया है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता पुष्ट हुई है। अत: यदि आज खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिला है तो वह किसी पक्षपात या कृपा का फल न होकर उसके पारम्परिक अधिकार की ही स्वीकृति है। वस्तुतः वह मध्यकाल से ही इस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वभावत: ही आसीन रही है। आज ही कोई नयी बात नहीं हुई। सच तो यह है कि इस देश के गौरवमय सुदीर्घ इतिहास में भाषा सम्बन्धी विवाद कभी उठे ही नहीं। फिर आज ही ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यह है कि विदेशी भाषा की गुलामी ने हमें अपनी अतीव समृद्ध परम्परा से काट दिया, जिससे हम अलगाववादी सुर अलापने लगे।
डॉ० चटर्जी अन्यत्र लिखते हैं, भारत की वर्तमान दशा पर विचार करने से राष्ट्रभाषा या जातीय भाषा के स्वीकृत होने की योग्यता हिन्दी में ही सबसे अधिक है। हिन्दी भाषा अखण्ड भारत की एकता के आदर्श को मुख्य प्रतीक है। अंग्रेजी न जानने वाले दो भिन्न-भिन्न प्रान्तों के भारतीय जब आ मिलते हैं, तब वे परस्पर वार्तालाप करते समय हिन्दी में ही बोलने की चेष्टा करते हैं। सम्भव है कि वह हिन्दी अत्यन्त अशुद्ध या टूटी-फूटी हो, किन्तु हिन्दी ही होती है। समस्त भारत के घुमक्कड़ साधु-संन्यासी, जो एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में घूमते हैं, हिन्दी ही सीखते हैं और हिन्दी ही बोलते हैं। भारतीय सेना-विभाग में हिन्दुस्तानी का ही बोलबाला है। भारत के बाहर, जैसे बर्मा में भारतीय भाषा’ से लोग हिन्दी को ही समझते हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा-भाषी दक्षिण भारत में उत्तर भारत की जिस भाषा को सबसे अधिक बोल सकते हैं, वह हिन्दी ही है।
अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक-हिन्दी के इसी अखिल भारतीय स्वरूप का यह परिणाम है कि हिन्दी-प्रदेश में प्रादेशिकता की भावना कभी नहीं उभरी, सदा भारतीयता पर बल दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी-प्रदेश में आकर भारत के किसी भी अन्य प्रदेश के व्यक्ति को किसी प्रकार के अलगाव का अनुभव नहीं होता, सर्वथा अपनेपन का ही अनुभव होता है। वस्तुतः हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का आग्रह समस्त भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के आग्रह का ही नामान्तर है; क्योंकि यदि हिन्दी को हिन्दी-भाषी प्रदेशों एवं केन्द्र में उसका उचित स्थान मिलता है तो समस्त प्रान्तों में वहाँ की प्रादेशिक भाषाओं को भी उनका उचित स्थान मिलकर रहेगा। अंग्रेजी ने आज हिन्दी का ही नहीं, अपितु समस्त प्रादेशिक भाषाओं का भी अधिकार छीन रखा है। यदि समस्त भारतवासी इस बात पर राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से विचार करें, तो सारा देश एकता के सूत्र में बँधकर अपने लुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है।
उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान-यही वह भावना थी, जिससे प्रेरित होकर 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिन्दी को भारतीय गणतन्त्र की राजभाषा बनाने के पक्ष में मत दिया। इन सदस्यों में भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा एवं बोली के प्रतिनिधि थे, किन्तु व्यापक राष्ट्रहित में उन्होंने प्रादेशिक भावना का परित्याग कर दिया। खेद है कि संविधान-निर्माताओं की दृढ़ राष्ट्र-प्रेम से प्रेरित इस उदार भावना के विपरीत आज भी देश पर दासता की प्रतीक एक विदेशी भाषा को थोपे रखा गया है। वस्तुत: यह निहित स्वार्थ वाले उन कतिपय दास मनोवृत्ति से ग्रस्त सत्ताधारियों का काम है, जो शरीर से स्वतन्त्र होने पर भी मन से अंग्रेजों के गुलाम हैं; क्योंकि उन्हें अपने महान् देश के गौरवमय अतीत एवं विश्वविजयिनी संस्कृति का रंचमात्र भी ज्ञान नहीं। हम आज भी विदेशी तकनीक का आयात कर रहे हैं और प्रत्येक क्षेत्र में उन पर निर्भर हैं।
इसका कारण यही है। कि हमने अपनी भाषाओं के माध्यम से स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा नहीं दिया, वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसन्धान को प्रश्रय नहीं दिया। राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान के अनुसार जो अधिकार मिले हैं। अभी भी अंग्रेजी ही उनका उपभोग कर रही है। अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए हमें भारत में भी ‘कमालपाशा’ (अरब के शासक कमालपाशा ने एक ही दिन में अपनी भाषा को राजभाषा घोषित कर लागू कर दिया था और अब वही अरबी भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की छठी मान्य विश्वभाषा बन चुकी है।) उत्पन्न करने होंगे। भारत भी उस दिन की प्रतीक्षा में है, जव भारत के राजनीतिज्ञों में से कोई कमालपाशा की भूमिका निभाएगा। बिना अपनी भाषा को अपनाये किसी भी राष्ट्र के लिए किसी क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय मौलिक योगदान करना सम्भव नहीं। अपनी भाषा को अपनाने के कारण ही जापान ने आज विश्व में आश्चर्यजनक प्रगति की है।
अभी तक सत्ताधारियों का अंग्रेजी के प्रति मोह भंग नहीं हुआ है और देश निरन्तर अध:पतन की ओर बढ़ता जा रहा है। इसे विनाश से बचाने एवं विश्वराष्ट्रों के मध्य गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का एकमात्र उपाय है-अपनी भाषाओं को अपनाना अर्थात् प्रादेशिक भाषाओं को अपने-अपने प्रदेश में और राष्ट्रभाषा को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना; क्योंकि बिना राष्ट्रभारती की आराधना के कोई भी राष्ट्र गौरव का अधिकारी नहीं बनती।
राष्ट्रीय एकता [2010]
सम्बद्ध शीर्षक
- राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
- राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
- राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्त्व
- वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप
- राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा
- राष्ट्रीय एकता : आज की अनिवार्य आवश्यकता [2016]
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
- भारत में अनेकता के विविध रूप,
- राष्ट्रीय एकता का आधार,
- राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—(क) साम्प्रदायिकता; (ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता; (ग) भाषावाद; (घ) जातिवाद; (ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति,
- राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय—(क) सर्वधर्म समभाव; (ख) समष्टिहित की भावना; (ग) एकता का विश्वास; (घ) शिक्षा का प्रसार; (ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त,
- उपसंहार
प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय-एकता एक भावात्मक शब्द है जिसको अर्थ है-‘एक होने का भाव’। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है-देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। भारत में इन दृष्टिकोणों से अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नरपशु है निरा, और मृतक समान है।
भारत में अनेकता के विविध रूप-भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं; जैसे-हिन्दू धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। वैष्णवों में भी रामपूजक और कृष्णपूजक हैं। इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारत की प्राचीन और नवीन भाषाओं में रचित साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विविधता की सूचक हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यन्त प्राचीन काल से एकता के सूत्र में बंधा रहा है।
राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिक सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है, जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं।
राष्ट्रीय एकता का आधार–हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाई-चारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना। वह तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे हैं। नानक का कथन है–
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे ।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे ॥
यदि हम भारतवासी अपने में निहित अनेक विभिन्नताओं के कारण छिन्न-भिन्न हो गये तो हमारी फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। ऐसा ही विचार राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने व्यक्त किया था, “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—मध्यकाल में विदेशी शासकों का शासन हो जाने पर भारत की इस अन्तर्निहित एकता को आघात पहुँचा था, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सद्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई थी, किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इस आन्तरिक एकता को खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो इस प्रकार हैं
(क) साम्प्रदायिकता–साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी गयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे—प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है। जहाँ भी विरोध और घृणा है, वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। जाति-पाँति के नाम पर लड़ने वालों पर इकबाल कहते हैं-मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता-अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है और हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें सुनाई पड़ती हैं। एक ओर कुछ तत्त्व खालिस्तान की माँग करते हैं तो कुछ तेलुगूदेशम्। और ब्रज प्रदेश के नाम पर मिथिला राज्य चाहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा बन गयी है।
(ग) भाषावाद–भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्तत: राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक संघ के रूप में गठित किया गया और प्रशासनिक सुविधा के लिए चौदह प्रान्तों में विभाजित किया गया, किन्तु धीरे-धीरे भाषावाद के आधार पर प्रान्तों की माँग बलवती होती चली गयी, जिससे भारत के प्रान्तों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया। तदुपरान्त कुछ समय तो शान्ति रही, लेकिन शीघ्र ही अन्य अनेक विभाषी बोली बोलने वाले व्यक्तियों ने अपनी-अपनी विभाषा या बोली के आधार पर अनेक आन्दोलन किये, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को धक्का पहुंचा।
(घ) जातिवाद-मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया और हर जाति अपने को दूसरी से ऊँची मानने लगी। इस तरह जातिवाद ने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हरिजनों के लिए आरक्षण की राजकीय नीति का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल सवर्ण जातियों ने कड़ा विरोध किया। विगत वर्षों में इस विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाकर देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इस प्रकार जातिवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में आज एक बड़ी बाधा बन गया है।
(ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति–जाति, धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोग सम्पूर्ण राष्ट्र का हित न देखकर केवल अपने जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा वर्ग के स्वार्थ को देखने लगते हैं।
राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय–वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं-
(क) सर्वधर्म समभाव-विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अत: हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक पाप है। धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के लिए गहरे विवेक की आवश्यकता है। सागर के समान उदार वृत्ति रखने वाले इनसे प्रभावित नहीं होते।
(ख) समष्टि-हित की भावना–यदि हम अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तो धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे ‘राष्ट’ के नाम पर सोचेंगे और इस प्रकार अलगाववादी भावना के स्थान पर राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, जिससे अनेकता रहते हुए भी एकता की भावना सुदृढ़ होगी।
(ग) एकता का विश्वास–भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर एकता का भी निवास है-इस बात का प्रचार ढंग से किया जाए, जिससे कि सभी नागरिकों को अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।
(घ) शिक्षा का प्रसार–छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हो। विद्यार्थियों को मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के साथ एक अन्य प्रादेशिक भाषा का भी अध्ययन करना चाहिए। इससे भाषायी स्तर पर ऐक्य स्थापित होने से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी।
(ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त–विदेशी शासनकाल में अंग्रेजों ने भेदभाव फैलाया था, किन्तु अब स्वार्थी राजनेता ऐसे छलछम फैलाते हैं कि भारत में एकता के स्थान पर विभेद ही अधिक पनपता है। ये राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक छलछद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी।
उपर्युक्त उपायों से भारत की अन्तर्निहित एकता का सभी को ज्ञान हो सकेगा और सभी उसको खण्डित करने के प्रयासों को विफल करने में अपना योगदान कर सकेंगे। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए तथा मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर सबल राष्ट्र के घटक स्वयं भी अधिक पुष्ट होंगे।
उपसंहार--राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।
हमारे राष्ट्रीय पर्व [2011, 12]
सम्बद्ध शीर्षक
- भारत के राष्ट्रीय त्योहार
- कोई राष्ट्रीय पर्व
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना,
- गणतन्त्र दिवस,
- स्वतन्त्रता दिवस,
- गाँधी जयन्ती,
- राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
- उपसंहार
प्रस्तावना-भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को यदि मनाना शुरू कर दिया जाए तो शायद एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मना कर भी वर्ष भर में उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। पर्व या त्योहार कई तरह के होते हैं; जैसे-धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय, ऋतु सम्बन्धी और राष्ट्रीय। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं, उन्हें राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एवं गाँधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये राष्ट्रीय पर्व समस्त भारतीय जन-मानस को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए जीवन-पर्यन्त संघर्ष किया और राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष न्योछावर कर दिया।
गणतन्त्र दिवस-गणतन्त्र दिवस हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना, अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।
गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसको मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सारे राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है। परेड और झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। यह परेड राष्ट्र की वैज्ञानिक, कला व संस्कृति के उत्थान को दर्शाती है। रात को राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के स्थलों पर रोशनी की जाती है, आतिशबाजी होती है और इसे प्रकार धूम-धाम से यह राष्ट्रीय त्योहार सम्पन्न हुआ करता है।
स्वतन्त्रता दिवस-पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों सारे नगर और सारे देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया।
इस दिने सम्पूर्ण राष्ट्र देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले शहीदों का स्मरण करते हुए देश की स्वतन्त्रता को बनाये रखने की शपथ लेता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले २ ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि ३; निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्वोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है।
गाँधी जयन्ती-गाँधी जयन्ती भी हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष गाँधी जी के जन्म-दिवस 2 अक्टूबर की शुभ स्मृति में देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधी जी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। गाँधी जी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रति वर्ष सारा देश उनके त्याग, तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस दिन सम्पूर्ण देश में विभिन्न प्रकार की सभाओं, गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। गाँधी जी की समाधि राजघाट पर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व अन्य विशिष्ट लोग पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। महात्मा गाँधी अमर रहे’ के नारों से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठता है।
राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व-इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी यहाँ मनाये जाते हैं और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही है।
उपसंहार-त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्वं मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है। इस प्रकार के त्योहार सभी देशवासी मिलकर मनाया करते हैं, इससे राष्ट्रीय एकता और ऊर्जा को भी बल मिलता है, जो इनका वास्तविक उद्देश्य एवं प्रयोजन होता है।
हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणा-स्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, गौरव व इसके उत्थान के लिए। सदैव समर्पित रहेंगे।
देश की प्रगति में विद्यार्थियों की भूमिका
सम्बद्ध शीर्षक
- राष्ट्र-निर्माण में युवा-शक्ति का योगदान
- राष्ट्रीय विकास एवं युवा-शक्ति
- वर्तमान युवा : दशा और दिशा [2016]
- छात्र जीवन तथा राष्ट्रीय दायित्व
- छात्र–संघों का गठन : वरदान या अभिशाप
- समय नियोजन और विद्यार्थी जीवन
- भारत की सुरक्षा और युवा पीढ़ी।
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना,
- विद्यार्थी जीवन का महत्त्व,
- कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान,
- शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग,
- भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन,
- काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास,
- चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव,
- उपसंहार
प्रस्तावना–विद्यार्थी राष्ट्र का भावी नेता और शासक है। देश की उन्नति और भावी विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उसके सबल कन्धों पर आने वाला है। वास्तव में राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए वह मुख्य धुरी का काम कर सकता है। जिस देश का विद्यार्थी सतत जागरूक, सतर्क और सावधान होता है वह देश प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रह सकता। विद्याथीं एक नवजीवन का सशक्त संवाहक होता है। उसमें रूढ़ियों और परम्पराओं के अटकाव नहीं होते, पूर्वाग्रह से उसकी दृष्टि धूमिल नहीं होती, वरन् वह नये विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने की भरपूर क्षमता से ओतप्रोत होता है।
विद्यार्थी जीवन का महत्त्व-विद्यार्थी शब्द की संरचना है-‘विद्या + अर्थी’ अर्थात् जो विद्यार्जन में सदा संलग्न रहने वाला हो। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। जिस विद्यार्थी को विद्योपार्जन की सच्ची लालसा हो, उसे सभी सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है, “सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? सुख चाहने वाला विद्या को छोड़ दे और विद्या चाहने वाला सुख छोड़ दे।” विद्यार्थी के जीवन में आत्म–संयम, इन्द्रिय-निग्रह, सद्-असद् का विवेक, दया, प्रेम, क्षमा, औदार्य, परोपकार आदि सद्गुण होने चाहिए। शास्त्रों में आदर्श विद्यार्थी को एकाग्रचित्त, सजग, चुस्त, कम भोजन करने वाला और चरित्र- सम्पन्न बताया गया है–
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी सदाचारी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥
अर्थात् विद्यार्थी कौवे के समान चेष्टा वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला, भूख से कम भोजन करने वाला और सदाचार का पालन करने वाला होता है। इसके साथ विद्यार्थी में नम्रता, अनुशासन, परिश्रम, संयम और अनासक्ति भाव होना चाहिए।
उपर्युक्त गुणों से युक्त विद्यार्थियों को कला, साहित्य, चिकित्सा, अभियान्त्रिकी आदि का पूर्ण अध्ययन-अभ्यास करके अपने विषय का विशेषज्ञ बनना चाहिए। एक अच्छा साहित्यिक विद्यार्थी सत् साहित्य का सृजन कर देशवासियों में देशभक्ति की भावना उजागर कर सकता है। देश की एकता व संगठन की भावना को सबल बनाकर भावात्मक एकता को पुष्ट कर सकता है। एक सच्चा चिकित्सक देश को स्वस्थ व नीरोग बनाने के लिए अपनी सेवाएँ समर्पित कर सकता है। एक सच्चा अभियन्ता राष्ट्र-निर्माण के अनेक कार्यों को निष्ठापूर्वक सम्पन्न कर देश की महान् सेवा कर सकता है।
कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान-आज देश में कई अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ तथा कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। इससे देश की यथोचित प्रगति नहीं हो पा रही है। विद्यार्थियों को इन रूढ़ियों और कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए बीड़ा उठाना होगा। आज भी गाँवों में बाल-विवाह, अशिक्षा व अज्ञान का बोलबाला है। गाँव के लोग ऋणग्रस्त और शोषण के शिकार हैं। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है; अत: जब तक ग्रामोत्थान का बिगुल नहीं बजाया जाता, तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता। विद्यार्थियों को गाँवों में जाकर साक्षरता, सहकारिता आदि कार्यक्रम चलाने में सहयोग करना चाहिए। गाँवों में लघु और कुटीर उद्योगों के प्रचलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। पशुधन व गोपालन को लोकप्रिय बनाना चाहिए। इसके लिए डेयरी उद्योग, कपड़ा बुनना, मधुमक्खी-पालन आदि का महत्त्व ग्रामीण भाइयों को समझाकर उनके विकास के लिए प्रोत्साहित कर इस कार्य में मार्गदर्शन किया जा सकता है। विद्यार्थियों को ग्रामोत्थान की ओर आकर्षित करने के लिए उन्हें आवश्यक रूप से वहाँ कुछ सुविधाएँ; जैसे—आवागमन के साधन, विद्युत उपकरण, सरकारी अनुदान आदि उपलब्ध कराने चाहिए। साथ ही उन्हें पर्याप्त प्रशंसा, प्रोत्साहन व सम्मान भी देना चाहिए, अन्यथा यह केवल एक आदर्श स्वप्न बनकर ही रह जाएगा।
शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग-–आज के अधिकांश शिक्षित व्यक्ति, शिक्षक, चिकित्सक, अभियन्ता गाँवों में सेवा देने से कतराते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। युवाओं को शहरी जीवन की सुख-सुविधाओं को त्यागकर देश की प्रगति और उत्थान को लक्ष्य में रखकर काम करना है।
भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन-आज देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। एक साधारण चपरासी से लेकर बड़ा अफसर, कर्मचारी, नेता तथा मन्त्री सभी इसमें लिप्त हैं। कोई भी कार्य रिश्वत के बिना नहीं चलता। पुलिस व न्यायालय-कर्मचारी खुले रूप में रिश्वत माँगते हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। व्यापारी व भी खाद्य-पदार्थों में मिलावट करते हैं। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। इस भ्रष्टाचार से लड़ना कोई सामान्य बात नहीं है। इसके लिए निर्भीक विद्यार्थियों को आगे आकर इस भ्रष्टाचाररूपी दानव से लड़ना होगा। जब तक देश से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा, देश की प्रगति होना मुमकिन नहीं है। इसके लिए विद्यार्थियों को सूझ-बूझ, धैर्य और साहस के साथ संघर्ष करने के लिए तत्पर होना होगा।
देश में दुराचार की विभीषिका भी बढ़ती जा रही है। लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार की घटनाओं से समाचार-पत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ राँगे रहते हैं। प्रजातन्त्र की व्याख्या करते हुए कहा जाता है कि प्रजा द्वारा प्रजा के लिए प्रजा का शासन, किन्तु लगता है कि देश में प्रचलित शासन-व्यवस्था भले और ईमानदार आदमियों के हाथों में न रहकर भ्रष्ट, बदमाश, सफेदपोश लोगों के हाथों में चली गयी है। इस विषम काल में हर आदमी सन्त्रस्त और दु:खी है। इससे लोहा लेने के लिए विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता हैं। स्वच्छ और सुन्दर प्रशासन के लिए नि:स्वार्थ सेवाभाव रखने वाले और कार्यकुशल व्यक्तियों की आवश्यकता है। इस अभाव की पूर्ति विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। उसे इस महामारी से लड़कर इसका उन्मूलन करना होगा, तब ही देश को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाया जा सकता है।
काले धन की समाप्ति हेत प्रयास-काला धन अथवा काला बाजाररूपी महादानव भी बड़ा शक्तिशाली, दुर्धर्ष और महा भयंकर है। आज काले धन वालों की समानान्तर सरकार शासन-सत्ता को दबोचे हुए है। करोड़ों की हेरा-फेरी करने वाले आबाद हो रहे हैं। उनको कोई आँख नहीं दिखा सकता। दो रुपये की चोरी करने वालों पर कहर बरसाया जाता है। महँगाई हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही है। ईमानदारीरूपी सोने की लंका जलती जा रही है। ऐसी विकराल परिस्थिति में सबकी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं। जनता किसी ऐसे सहयोग व नेतृत्व की आकांक्षा रखती है, जो इस विषम स्थिति से देश की रक्षा कर सके। इससे लोहा लेने के लिए भी विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता है।
चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव-बड़े-बड़े कल-कारखाने खोलने से तथा बड़े-बड़े बाँध बनाने से राष्ट्र सच्चे अर्थों में विकास नहीं कर सकता। हमें आने वाली पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की ओर विशेष ध्यान देना है। चरित्र-निर्माण ही शिक्षा का मुख्य व पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। जिस देश में चरित्रवान् लोग रहते हैं, उस देश का सिर गौरव से सदा ऊँचा रहता है। आज के विद्यार्थी को राष्ट्र-भक्ति की भावना से भी ओत-प्रोत होना चाहिए। उसे स्वयं को राष्ट्रीय गौरव का आभूषण बनाये रखना चाहिए। उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे देश की मान-मर्यादा को ठेस पहुँचती हो। राष्ट्र-निर्माण ही उसका लक्ष्य होना चाहिए। अपने जीवन के उत्थान के लिए उसे भौतिकता की ओर उन्मुख न होकर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होना चाहिए। इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि विश्व के किसी भी क्षेत्र में भौतिक शक्ति आध्यात्मिक शक्ति के सम्मुख ठहर नहीं सकी है।
उपसंहार–किसी देश की वास्तविक उन्नति उसके परिश्रमी, लगनशील, पुरुषार्थी और चरित्रवान् पुरुषों से ही सम्भव है। भारत के विद्यार्थी भी चरित्रशील बनकर देश में वर्तमान में व्याप्त सभी बराइयों का उन्मूलन कर देश की प्रगति में सच्चा योगदान कर सकते हैं। आज का विद्यार्थी वर्ग राजनैतिक पार्टियों के चक्कर में उलझकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना रहा है। घटिया किस्म के नेता इनके द्वारा अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आज के विद्यार्थी को इन सबसे अलग रहकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उसकी भावना राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर करने की होनी चाहिए।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘द्वापर’ काव्य में युवा-शक्ति का आह्वान करते हुए लिखा है-
रखते हो तो दिखलाओ कुछ आभा, उगते तारे,
आओ तेज, साहस के दुर्लभ दिन हैं यही हमारे ।
X X X
एक एक, सौ सौ अन्यायी कंसों को ललकारो ।
अपनी पुण्यभूमि पर धन-जीवन सब वारो ॥
स्वदेश-प्रेम
सम्बद्ध शीर्षक
- जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना,
- देश-प्रेम की स्वाभाविकता,
- देश-प्रेम का अर्थ,
- देश-प्रेम का क्षेत्र,
- देश के प्रति कर्तव्य,
- भारतीयों का देश-प्रेम,
- ‘देशभक्तों की कामना,
- उपसंहार।
प्रस्तावना-ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर उद्यान रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी एक प्रकार की उदासी और रुग्णता का अनुभव करने लगते हैं।
देश-प्रेम की स्वाभाविकता–प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में कविवर रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–
विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ।।
धुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।
प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों के लिए चले जाते हैं। परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। पशु-पक्षियों में उसके लिए इतना मोह और लगाव हो जाता है कि वे उसके लिए मर-मिटने हेतु भी तत्पर रहते हैं-
आग लगी इस वृक्ष में, जलते इसके पात,
तुम क्यों जलते पक्षियो ! जब पंख तुम्हारे पास ?
फल खाये इस वृक्ष के, बीट लथेड़े पात,
यही हमारा धर्म है, जलें इसी के साथ।
पशु-पक्षियों को भी अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा ? वह तो विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि, बुद्धिसम्पन्न एवं सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी है। माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है। संस्कृत के किसी महान् कवि ने ठीक ही कहा है-जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
देश-प्रेम का अर्थदेश-प्रेम का तात्पर्य है-देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी प्राणियों से प्रेम, देश की सभी झोपड़ियों, महलों तथा संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेश-भूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना व उन सभी के प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है।
सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबल पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥
सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को भी उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है। वह देश में छिपे हुए गद्दारों से सावधान रहता है और अपने प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए शत्रुओं का मुकाबला करता है।
देश-प्रेम का क्षेत्र देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकरे, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। ध्यान रहे, सभी को अपना कार्य करते हुए देशहित को सर्वोपरि समझना चाहिए।
देश के प्रति कर्तव्य-जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हमें बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश से हमें कभी भी उऋण नहीं हो सकते हैं।
भारतीयों को देश-प्रेम-भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। कितने ही ऋषि-मुनियों ने अपने तप और त्याग से देश की महिमा को मण्डित किया है तथा अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाकउल्ला खाँ आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया। ऐसे ही वीरों के बलिदान को ध्यान में रखकर कवि ने कहा है
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥
भारत का इतिहास ऐसे अनेक वीरों का साक्षी है, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा और मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को त्याग दिया और मन में मर-मिटने का अरमान लेकर शत्रु पर टूट पड़े। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय आदि अनेक देशभक्तों ने अनेक कष्ट सहकर और प्राणों का बलिदान करके देश की स्वाधीनता की ज्योति को प्रज्वलित किया। इसी स्वदेश प्रेम के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अनेकों कष्ट सहे, जेलों में रहे तथा अन्त में अपने प्राण निछावर कर दिये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल, पं० जवाहरलाल नेहरू आदि देशरत्नों ने आजीवन देश की सेवा की। श्रीमती इन्दिरा गाँधी देश की एकता और अखण्डता के लिए नृशंस आतंकवादियों की गोलियों का शिकार बनीं।
देशभक्तों की कामना–देशभक्तों को सुख-समृद्धि, धन, यश, कंचन और कामिनी की आकांक्षा नहीं होती है। उन्हें तो केवल अपने देश की स्वतन्त्रता, उन्नति और गौरव की कामना होती है। वे देश के लिए जीते हैं और देश के लिए मरते हैं। मृत्यु के समय भी उनकी इच्छा यही होती है कि वे देश के काम आयें। कविवर माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में एक पुष्प की भी यही कामना है-
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक ॥
उपसंहार-खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। नयी पीढ़ी का विदेशों से आयातित वस्तुओं और संस्कृतियों के प्रति अन्धाधुन्ध मोह, स्वदेश के बजाय विदेश में जाकर सेवाएँ अर्पित करने के सजीले सपने वास्तव में चिन्ताजनक हैं। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्रप्रेम की गाथाएँ पाठ्य सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्रप्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता। हमारे शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों को इस प्रश्न का समाधान ढूंढ़ना ही होगा कि अब मात्र उपदेश या अतीत के गुणगान से वह प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। हमें अपने राष्ट्र की दशा व छवि अनिवार्य रूप से सुधारनी होगी।
प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं। किसी एक क्यारी की उन्नति एकांगी उन्नति है और सभी क्यारियों की उन्नति देशरूपी उपवन की सर्वांगीण उन्नति है। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करता है उसी प्रकार हमें भी देश का सर्वांगीण विकास करना चाहिए। किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष को लक्ष्य न मानकर समग्रतापूर्ण चिन्तन किया जाना चाहिए; क्योंकि सबकी उन्नति में एक की उन्नति तो अन्तर्निहित होती ही है। प्रत्येक देशवासी का चिन्तन होना चाहिए कि “यह देश मेरा शरीर है और इसकी क्षति मेरी ही क्षति है।” जब ऐसे भाव प्रत्येक भारतवासी के होंगे तब कोई अपने निहित स्वार्थों के पीछे रेल, बस अथवा सरकारी सम्पत्तियों की होली नहीं जलाएगा और न ही सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग ही करेगा।
स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न कर व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।
स्वाधीनता का महत्त्व
सम्बद्ध शीर्षक
- पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
- परतन्त्रता अथवा दासता
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना,
- पराधीनता एक अभिशाप है,
- पराधीनता के विविध रूप-(क) राजनीतिक; (ख) आर्थिक; (ग) सांस्कृतिक; (घ) सामाजिक; (ङ) धार्मिक,
- स्वाधीनता का महत्त्व,
- उपसंहार
प्रस्तावना-‘पराधीनता से तात्पर्य दूसरे के अधीन या वश में रहने से है। जब हमारे मनन-चिन्तन और कार्य पर दूसरों की इच्छा और शक्ति का अंकुश लग जाता है तो हम पराधीन कहलाते हैं। इस स्थिति में प्राप्त सुख-सुविधाएँ भी सच्चा आनन्द प्रदान नहीं कर पातीं। सोने के पिंजरे में रहकर विभिन्न फल व स्वादिष्ट पदार्थ खाने वाला पक्षी भी इस बन्धन से छूटकर खुले आकाश में स्वच्छन्द विचरण के लिए उड़ जाना चाहता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति सत्य चरितार्थ होती है कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। सूखी रोटी खाने वाला और पत्थर की चट्टान पर सोने वाला स्वाधीन व्यक्ति पराधीन व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्न व निर्भीक होता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है
बस एक दिन की दासता, शत कोटि नरक समान है।
क्षण मात्र की स्वाधीनता, शत स्वर्ग की मेहमान है।
पराधीनता एक अभिशाप है-पराधीनता मानव की समस्त शक्तियों को कुण्ठित करने वाला पक्षाघात (लकवा) है। पराधीन व्यक्ति का व्यक्तित्व पंगु हो जाता है, उसकी इच्छाशक्ति मर जाती है और कठपुतली के समान दूसरों के आदेश-निर्देशों का अनुवर्तन ही उसकी नियति बन जाती है। फलतः उसका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है और वह हर बात में दूसरों का मुँह ताकता रहता है। इसलिए एक संस्कृत कवि ने कहा है-‘पारतन्त्र्यं महदुःखम् स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्”, अर्थात् परतन्त्रता से बड़ा दु:ख और स्वतन्त्रता से बड़ा सुख और कुछ नहीं है।
पराधीन मनुष्य का हृदय मात्र गति करता है। उसमें भावना के फूल नहीं लहराते। उसकी जिह्वा होती है। पर स्वर कहीं खो जाते हैं। उसकी आँखें देखती हैं, किन्तु उनमें प्रतिक्रिया का कोई स्पन्दन नहीं होता, उसमें विचार उपजते हैं किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाने को बाध्य होते हैं। उसमें जीवन होता है किन्तु उसमें और मृतक में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता।
पराधीन मनुष्य को तो कुछ सोचने और करने का अवसर ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो पराधीन बनाने वाले व्यक्ति की इच्छा और तेवर के अनुसार यानि वह जो सोचता है और करने को कहता है, पराधीन वही सब कर सकता है, वरन् करने को बाध्य हुआ करता है। अपनी इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की उसकी चेष्टा पर उसे बड़ी बेशरमी से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी इच्छाएँ, भावनाएँ, सोच-विचार की शक्ति समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में उसे किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति मात्र का भी प्रश्न नहीं उठता। इसके विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा और भावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतन्त्र होता है, जिसे करने से उसे सुख-प्राप्ति होती है। स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की भारतवासियों की स्थिति की तुलना करके इस अन्तर को सरलता के साथ समझा जा सकता है।
मानव सचमुच स्वाभिमान के लिए ही जीता है। स्वाभिमान से शून्य जीवन नरक भोगने से भी असह्य है और स्वाभिमान की रक्षा बिना स्वाधीनता के सम्भव नहीं। इसीलिए एक लेखक ने कहा है, “It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.” अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में स्वाधीन रहना अच्छा है।
पराधीनता के विविध रूप–पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की दोनों ही गर्हित हैं; क्योंकि व्यक्तिगत पराधीनता व्यक्ति के एवं राष्ट्रगत पराधीनता राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर उसे पंगु बना देती है। उसकी चेतना शक्ति शून्य और निष्कर्म हो जाती है। पराधीनता के कई रूप हैं, जिनमें मुख्य हैं—(1) राजनीतिक, (2) आर्थिक, (3) सांस्कृतिक, (4) सामाजिक और (5) धार्मिक।
(क) राजनीतिक पराधीनता-इससे आशय है कि किसी देश का दूसरों द्वारा शासित होना। राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह स्थिति है। वह शासित देश के समस्त गौरव का नाश कर उसे संसार में उपहास, घृणा और दया का पात्र बना देती है। विजेता द्वारा ऐसे देश का सर्वांगीण शोषण करके उसे हर दृष्टि से निःसत्त्व, श्रीहीन और अपदार्थ बना दिया जाता है। भारत का उदाहरण सामने है। जो भारत किसी समय सोने की चिड़िया कहलाता था, वही सैकड़ों वर्षों की गुलामी के परिणामस्वरूप अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो गया था। यही कारण है कि प्रत्येक पराधीन देश बंड़े-से-बड़ा बलिदान देकर भी सबसे पहले राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना चाहता है।
(ख) आर्थिक पराधीनता-आज के युग में किसी देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाये रखना कठिन हो गया है, इसलिए संसार के शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्रों, मुख्यत: अमेरिका, ने दूसरे देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु यह एक नया हथकण्डा अपनाया है। वे उन्हें आर्थिक सहायता या ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में मनमाने हस्तक्षेप का अधिकार पा लेते हैं। यह पराधीनता वर्तमान में तो क्षणिक सुखकर अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु भविष्य में यह बहुत ही कष्टकर होती है। महाजनों और जमींदारों के अत्याचार ऐसी पराधीनता के ही फल रहे हैं।
(ग) सांस्कृतिक पराधीनता-इसका आशय है किसी देश द्वारा दूसरे देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोप कर उसके साहित्य, कला और संस्कृति के सहज विकास को अवरुद्ध कर, वहाँ के बुद्धिजीवियों के स्वतन्त्र चिन्तन को नष्ट कर, उन्हें मानसिक दृष्टि से अपना गुलाम बनाना। भारत पर मुसलमानी शासनकाल में फारसी और अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी भाषा का थोपा जाना इस देश के स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। वस्तुतः राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता तो किसी देश के शरीर को ही गुलाम बनाती है, किन्तु सांस्कृतिक पराधीनता उसकी आत्मा को ही बन्धक रख लेती है। मैकाले (Macaulay) ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करते हुए यही तर्क दिया था कि इससे यह देश मानसिक दृष्टि से हमारा गुलाम बन जाएगा और उसकी बात आज अत्यधिक सत्य सिद्ध हो रही है। सन् 1947 ई० में राजनीतिक स्वाधीनता पाकर भी इस देश में पनपे अंग्रेजी के मानस-पुत्रों ने भारत को आज पहले से कहीं भयंकर सांस्कृतिक पराधीनता में जकड़कर खोखला बना दिया है।
(घ) सामाजिक पराधीनता-सामाजिक पराधीनता से आशय है समाज के विभिन्न वर्गों में असमानता का होना, जिससे कुछ वर्ग अधिक सुविधाएँ भोगते हुए दूसरों को दबाकर रखें। हिन्दू समाज में पराधीनता का यह रूप छुआछूत, ऊँच-नीच और स्त्रियों पर अत्याचार के कारण अपनी निकृष्टतम स्थिति में दीख पड़ता है। भारतीय नारी की तो नियति सचमुच दयनीय है; क्योंकि कौमार्यावस्था में पिता, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उसका अभिभावकत्व करते हैं। इस प्रकार बचपन से वार्धक्य तक वह बेचारी किसी-न-किसी के अधीन रहने को बाध्य है, स्वाधीनता उसके भाग्य में नहीं।
(ङ) धार्मिक पराधीनता–धार्मिक पराधीनता के कारण मनुष्य अनेक नियमों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और अन्धविश्वासों के अधीन हो जाता है। वह पुरोहितों-पुजारियों, मुल्लाओं-मौलवियों और पादरियों का दास बन जाता है। शिक्षा, व्यवसाय, साहित्य, कला आदि में उसे प्रचलित रूढ़िवादिता का अनुकरण करना ही पड़ता है।
स्वाधीनता का महत्त्व-स्वतन्त्रता से मधुर कोई मनोदशा नहीं है। मनुष्य की गरिमा इसी कारण है। कि वह स्वतन्त्र है। पशु को इसीलिए पशु कहा जाता है कि वह पाश (बन्धन) में है। जो मनुष्य भी पाश में हो तो उसका जीवन भी पशुवत् ही है। स्वतन्त्रता से उच्च स्वर्ग और कहीं नहीं है। स्वतन्त्र व्यक्तित्व व विचार से युक्त मानव का तेज अलौकिक होता है। जब प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बालक चन्द्रशेखर को न्यायालय में पेश किया गया तो न्यायाधीश ने उससे पूछा-तुम्हारा नाम। बालक चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया-‘आजाद’। ‘तुम्हारे पिता का नाम’, न्यायाधीश ने फिर पूछा। स्वतन्त्र’, चन्द्रशेखर ने निडरता के साथ उत्तर दिया। तात्पर्य यह है कि मानव का मन स्वतन्त्रता का प्रेमी है, परतन्त्रता तो उसके लिए मरण तुल्य है।
उपसंहार-आज हम स्वाधीन हैं, स्वतन्त्र हैं। हमें सभी प्रकार के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। इसे प्राप्त करने के लिए न जाने कितने लोग कुर्बान हुए और न जाने कितने कष्ट सहे, इसका अनुभव बहुत कम ही लोग कर सके हैं। हमें स्वाधीन होकर भी स्वच्छन्द नहीं होना चाहिए। हमें स्वतन्त्रता का वास्तविक प्रयोग कर देश का सहयोग करना चाहिए, जिससे देश की स्वाधीनता अमर बनी रहे। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। करि बिचार देखहु मन माहीं ॥
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वाधीनतारूपी अमृत-फल चखने के लिए हमें पराधीनतारूपी कण्टकों को निर्मूल करना होगा, सब प्रकार की पराधीनता के कलंक को मिटाना होगा। तभी भारतमाता का मुख उज्ज्वल होकर सारे विश्व को अपनी आभा से दीप्त कर सकेगा, उसका मार्गदर्शन कर सकेगा।
यदि मैं शिक्षामन्त्री होता [2014]
प्रमुख विचार-बिन्दु–
- प्रस्तावना,
- धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था,
- सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था,
- मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण,
- ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था,
- शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली,
- प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना,
- अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन,
- उपसंहार
प्रस्तावना-आज भारत को अंग्रेजी शासन-श्रृंखला से मुक्त हुए छ: दशकों से भी अधिक समय हो चुका है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में आज तक देश में विविध प्रयोगों से, देश की भावी पीढ़ी के साथ खिलावाड़ ही हुआ है। अभी तक हम न सभी को साक्षर कर पाये हैं, न ही राष्ट्र-भाषा हिन्दी को अपना यथोचित स्थान दिला पाये हैं। शिक्षा भी ऐसी दी गयी है कि जिसे ठोस रूप में न सांस्कृतिक कह सकते हैं और न ही वैज्ञानिक। इस शिक्षा ने केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाई है और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है।
यदि मैं शिक्षामन्त्री होता तो मैं सबसे पहले शिक्षा को राष्ट्रीय, वैज्ञानिक, कर्मप्रधान तथा सर्वसुलभ बनाने को प्राथमिकता देता।
धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था-आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की निजी संस्थाओं के अन्तर्गत सारे देश में ऐसे स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं जिसमें उन धर्मों की जातियों को प्रश्रय दिया जाता है, जिनके विचार संकुचित होते हैं। ये राष्ट्रीय भावना के स्थान पर साम्प्रदायिक तथा जातिगत श्रेष्ठता को महत्त्व देकर, नयी पीढ़ी को अनुदार विचारों वाला बनाते हैं। इस प्रकार की शिक्षा का परिणाम हम पहले ही देश-विभाजन के रूप में देख चुके हैं।
हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है। संविधान में ऐसा माना जा चुका है, फिर भी सनातनी, आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिशनरियों द्वारा क्यों अलग-अलग शिक्षा संस्थान चलाये जा रहे हैं? यदि मैं शिक्षामन्त्री पद को प्राप्त कर लें तो मैं इन संस्थाओं को प्रेरित करूगा कि भले ही वे अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दें, परन्तु राष्ट्रीय चरित्र की उपेक्षा करके निश्चित रूप से नहीं।।
सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था-धार्मिक भेदभावों के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षा-संस्थान भी इस देश में पब्लिक स्कूल चला रहे हैं। इन स्कूलों की फीस बहुत अधिक होती है। अत: बड़े-बड़े अमीरों और ऊँचे पदों पर विराजमान नेताओं-अफसरों के बच्चे ही इनमें स्थान पा सकते हैं। देश का गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग का योग्य बच्चा भी इनमें प्रवेश नहीं पा सकता। इन महँगे शिक्षा-संस्थानों में अंग्रेजी को माध्यम भाषा का स्थान देकर देश की नयी पीढ़ी में वर्गभेद के अनुचित संस्कार पैदा किए जा रहे हैं। शिक्षामन्त्री बनने के बाद में इन पब्लिक स्कूलों तथा अन्य स्कूलों को समान स्तर पर लाने की नीति अपनाऊंगा।
मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण-इसके बाद प्रश्न आता है-शिक्षा के माध्यम का। यह सच है कि भारत की सभी भाषाओं में सर्वाधिक बोली, लिखी व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी ही है। परन्तु खेद है, अभी तक इसे व्यावहारिक रूप में समुचित स्थान नहीं दिया जा रहा है, दो-तीन प्रतिशत अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही अपनी अंग्रेजियत लाद रखने की तानाशाही चला रहे हैं। इन्हीं के कारण आज साधारण किसानों व मजदूरों की सन्ताने शिक्षा से दूर हैं। उन्हें अनपढ़ ही रहने दिया जा रहा है। यदि में शिक्षामन्त्री बना तो समस्त देश में प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में दिलवाने का प्रबन्ध करूगा। स्कूली शिक्षा में हिन्दी प्रथम भाषा रहेगी। अन्य विषय भी हिन्दी माध्यम से पढ़ाये जाने की व्यवस्था करूगा।।
ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था—हमारा देश कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 75% आबादी गाँवों में बसती है। मैं चाहता हूँ कि गाँववाले शहर की ओर न देखकर पहले खुद के जीवन को उन्नत एवं गतिशील करें। इसके लिए उनकी शिक्षा व्यवस्था और शहर की शिक्षा-व्यवस्था में अन्तर रखना ही पड़ेगा। यदि मैं शिक्षामन्त्री बना तो गाँवों की जरूरतों के अनुसार, वहीं पर ऐसे शिक्षण व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करूगा जो गाँववासियों को आत्मनिर्भर बनाएँ, उनके परम्परागत कार्य को आधुनिक युग के अनुरूप ढालें, जैसे खेती के लिए खाद–निर्माण, नलकूपों की व्यवस्था करना, बीजों की उन्नत किस्में तैयार करना, वैज्ञानिक विधि अपनाकर उत्पादन बढ़ाना, पशुओं की नस्लों का स्तर सुधारना, सूत कातना, कपड़े बुनना, घरेलू सामान तैयार करना आदि। इन अनगिनत कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु उचित ज्ञान व प्रशिक्षण देना उन शिक्षा केंद्रों का कार्य होगा। इसके लिए गाँधी जी द्वारा स्वीकृत बेसिक शिक्षा प्रणाली वहुत उपयुक्त रहेगी।
शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली-शहरी विद्यार्थियों के लिए भी ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध होगा जो केवल बाबुओं का निर्माण न करे, बल्कि प्रतिभाशाली छात्रों को समुचित शिक्षा-सुविधाएँ दे। शिक्षा महँगी न हो। स्कूल-स्तर की सम्पूर्ण शिक्षा नि:शुल्क रहे। उस शिक्षा में विज्ञान को प्राथमिकता होगी। इन विद्यार्थियों से योग्य डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री, व्यापारी व उच्चाधिकारी बनने की क्षमता रखने वाले योग विद्यार्थी भी निकलेंगे जिन्हें उच्च शिक्षण संस्थानों में उपयुक्त पदों पर पहुँचने का समुचित शिक्षण व प्रशिक्षण दिया जाएगा। मैं शिक्षामन्त्री होकर यह नियम भी अनिवार्य कर दूंगा कि प्रत्येक सुशिक्षित डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री आदि बहुसंख्यक व्यक्ति गाँवों में कम-से-कम । तीन वर्षों तक कार्य करें। इससे शहर और गाँवों की दूरी कम की जा सकेगी।
प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना-प्राय: यह देखने में आता है कि धन, प्रतिष्ठा व अन्य प्रलोभनों के वशीभूत होकर अनेक उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक विदेशों को चले जाते हैं। मैं शिक्षामन्त्री बनूंगा तो उनको अपने देश में ही ऐसी सुविधाएँ प्रदान करूंगा, जिससे वे विदेशों की ओर मुंह न करें ताकि देश की प्रतिभा देशवासियों के लाभ में काम करे।।
अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन-शिक्षा की कैसी भी श्रेष्ठतम प्रणाली क्यों न स्वीकृत की जाए, यदि उसको लागू करने में ढील रहेगी अर्थात् योग्य, ईमानदार, परिश्रमी अध्यापकों, प्राध्यापकों, प्रशिक्षकों का अभाव रहेगी तो वह प्रणाली केवल कागजों एवं फाइलों में ही शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह जाएगी। उससे देश की नई पीढ़ी का कुछ भी भला नहीं होगा। अध्यापकों या शिक्षकों की मनोवृत्ति को बदलना भी जरूरी है। उन्हें समाज में सम्मानित व प्रतिष्ठित करना होगा। उन पर अध्यापन-कार्यक्रम के अतिरिक्त दूसरे व्यवस्थागत कार्यों का बोझ लादना उचित नहीं है। मैं अपने शिक्षामन्त्रित्व काल में देश के निर्माता शिक्षकों की सुविधाएँ, उनके वेतनमान, उनकी पदोन्नति में न्याय तथा औचित्य का ध्यान रखेंगा।।
उपसंहार-यह सच है कि उक्त शिक्षा-योजनाओं के लिए बहुत धन की आवश्यकता पड़ेगी। धन की इतनी मात्रा एक विकासशील देश के लिए जुटा पाना सम्भव नहीं जान पड़ता। पर यह भी सच है कि अन्य क्षेत्रों में लगाये जाने वाले धन की कटौती करके, फिलहाल शिक्षा क्षेत्र में नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए खर्च करना देश के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए जरूरी है। शुरू की कठिनाइयाँ बाद के लिए लाभकारी सुविधाएँ ही सिद्ध होगी।
यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता [2016]
प्रमुख विचार-बिन्दु-
- प्रस्तावना,
- मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना,
- अध्यापकों पर ध्यान देना,
- पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल,
- विद्यालय की दशा सुधारना,
- शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन,
- उपसंहार
प्रस्तावना--कल्पना भी क्या चीज होती है। कल्पना के घोड़े पर सवार होकर मनुष्य न जाने कहाँ-कहाँ की सैर कर आता है। यद्यपि कल्पना की कथाओं में वास्तविकता नहीं होती तथापि कल्पना में जहाँ मनुष्य क्षण भर के लिए आनन्दित होता है, वहीं वह अपने लिए कतिपय आदर्श भी निर्धारित कर लेता है। इसी कल्पना से लोगों ने नये कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं। एडीसन, न्यूटन, राइट बंधु आदि सभी वैज्ञानिकों ने कल्पना का सहारा लेकर ही ये नये आविष्कार किये। कल्पना में मनुष्य स्वयं को सर्वगुणसम्पन्न भी समझने लगता है।
मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना-मेरी कल्पना अपने आप में अत्यन्त सुखद है कि काश मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता। प्रधानाचार्य का पद गौरव एवं उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। मैं प्रधानाचार्य होने पर अपने सभी कर्तव्यों का भली-भाँति पालन करता। हमारे विद्यालय में तो प्रधानाचार्य यदा-कदा ही दर्शन देते हैं जिससे विद्यार्थी और अध्यापकगण कृतार्थ हो जाते हैं। मैं नित्य- प्रति विद्यालय आता। अपने विद्यार्थियों व अध्यापकगणों की समस्याएँ सुनता और तदनुरूप उनका समाधान करता।
अध्यापकों पर ध्यान देना-सामान्यत: विद्यालयों में कुछ अध्यापक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने ही आते हैं। वे स्वतन्त्र व्यवसाय करते हैं तथा विद्यार्थियों को पढ़ाना अपना कर्तव्य नहीं समझते। हमारे गणित के अध्यापक शेयरों का धन्धा करते हैं। मन्दी आने पर वे सारा क्रोध विद्यार्थियों पर निकालते हैं। यदि कोई विद्यार्थी उनसे प्रश्न हल करवाने चला जाता है तो वे उसकी पिटाई कर देते हैं। अंग्रेजी के अध्यापक बीमा कम्पनी के एजेन्ट हैं। वे अभिभावकों को बीमा करवाने की नि:शुल्क सलाह देते रहते हैं। अधिकांश अध्यापक ट्यूशन पढ़ाने के शौकीन हैं। वे कक्षा में बिल्कुल नहीं पढ़ाते। जो छात्र उनसे ट्यूशन नहीं पढ़ते, उन्हें वे अनावश्यक रूप से परेशान करते हैं। यहाँ तक कि उनको परीक्षाओं में भी असफल कर देते हैं। यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो सर्वप्रथम अध्यापकों की बुद्धि की इस मलिनता को दूर करता। ट्यूशन पढ़ाने को निषेध घोषित करता तथा ट्यूशन पढ़ाने वालों को दण्डित करता। जो अध्यापक अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते उनको विद्यालय से निकालने अथवा उनके स्थानान्तरण की संस्तुति कर देता। सभी अध्यापकों को आदर्श अध्यापक बनने के लिए येन-केन प्रकारेण विवश कर देता।।
पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल-हमारे विद्यालय के पुस्तकालय की दशा अत्यन्त शोचनीय हैं। छात्रों को पुस्तकालय से अपनी रुचि एवं आवश्यकता की पुस्तकें नहीं मिलतीं। मैं विद्यालय के पुस्तकालय की दशा सुधारता। शिक्षाप्रद पुस्तकों तथा महान साहित्यकारों की पुस्तकों की पर्याप्त मात्रा में प्रतियाँ खरीदवाता। किसी भी विषय की पुस्तकों का पुस्तकालय में अभाव नहीं रहने देता। और निर्धन विद्यार्थियों को नि:शुल्क पुस्तकें भी उपलब्ध कराता।।
हमारे विद्यालय में खेलों का आवश्यक सामान नहीं है। प्रधानाचार्य होने पर मैं विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार खेल का सामान उपलब्ध करवाता। विद्यालय की टीम के जीतने पर खिलाड़ियों को पुरस्कृत कर उनका मनोबल बढ़ाता। अपने विद्यालय की टीमों को खेलने के लिए बाहर भेजता, साथ ही अपने विद्यालय में भी नये-नये खेलों का आयोजन करता। राज्यीय और अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करता।
विद्यालय की दशा सुधारना-मैं विद्यार्थियों से श्रमदान करवाता। श्रमदान के द्वारा विद्यालय के बगीचे में नाना-प्रकार के पेड़-पौधे लगवाता। विद्यार्थियों को पर्यावरण के विषय में सचेत करता। विद्यालय के चारों ओर खुशबूदार फूलों के पौधे लगवाता, जिससे विद्यालय का वातावरण फूलों की सुगन्ध से खुशनुमा हो जाता।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विषय में मेरा विद्यालय अपने क्षेत्र का अवॉम विद्यालय होता। संगीत, कला, आदि की शिक्षा की विद्यालय में समुचित व्यवस्था करवाता। प्रत्येक महीने चित्रकला व वाद-विवाद प्रतियोगिता करवाता। विद्यार्थियों के मस्तिष्क में कला के प्रति आकर्षण पैदा करता। इस प्रकार मैं अपने विद्यालय को नवीन रूप प्रदान करता।
शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन-इतना करने के उपरान्त में सर्वप्रथम शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने पर ध्यान केन्द्रित करता। शिक्षा विद्यार्थियों के लिए सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक विकास में सहायक होती है। मैं विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा पर तो ध्यान देत ही मा ही व्यावसायिक प्रशिक्षण की भी सुविधा प्रदान करवाता। इस प्रकार विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्ति के बाद पाश्रित नहीं रहना पड़ता। मैं अपने विद्यालय में हिन्दी को अनिवार्य विषय घोषित करता। इसमें विद्यार्थियों में भाषा के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत होती, साथ ही उनमें देश-प्रेम की भावना भी आती।
हमारे विद्यालय की परीक्षा प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है। परीक्षा एहले ही विद्यार्थी अत्यधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं। मेरे प्रधानाचार्य बनने पर विद्यार्थियों को परीक्षाओं का भूत इस तरह नहीं सताता कि उन्हें अनैतिक विधियाँ अपनाकर परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़े। शर्षिक परीक्षा के मथ- साथ आन्तरिक मूल्यांकन भी उनकी योग्यता का मापदण्ड होता। लिखित और मोखिक दोनों रूप में परीक्षा होती। शारीरिक स्वास्थ्य भी परीक्षा का एक भाग होता तथा परीक्षा छात्रों के चहुंमुखी विकास का मूल्यांकन करती।
उपसंहार-यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय का रूप ही दूसरा होता! यह सब मेरी कल्पना में रचा-बसा है। यदि मैं प्रधानाचार्य बनूंगा तो अपनी सभी कल्पना को पराकार करूगा, यह मेरा दृढ़संकल्प है। मैं ऐसी सूझबूझ से विद्यालय का संचालन करूगा कि राज्य में ही नहीं पूरे देश में मेरे विद्यालय का नाम रोशन हो जायेगा। मुझे आशा है कि भगवान मेरी इस कल्पना को अवश्य साकार रूप प्रदान करेगा।
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