UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज)

By | June 1, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज)

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए। इसके सिद्धान्तों का विवरण देते हुए भारत में कार्यरत सहकारी समितियों का उल्लेख कीजिए।
या
सहकारिता का क्या तात्पर्य है? सहकारी समितियों का सामाजिक जीवन में महत्त्व बताइए। [2013]
उत्तर:
सहकारिता का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सहकारिता का सामान्य अर्थ पारस्परिक सहयोग द्वारा कार्य करना है। अकेला व्यक्ति जिस कार्य को करने में सक्षम नहीं होता, वह दूसरों की सहायता से उस लक्ष्य को पाने में सफल हो जाता है। सहकारिता शब्द ‘सहकारिता’ शब्दों से मिलकर बना है। ‘सह’ का अर्थ है साथ-साथ, जब कि ‘कारिता’ कार्य करने का बोधक है। अतः सहकारिता का शाब्दिक अर्थ हुआ-‘साथ-साथ मिलजुल कर कार्य करना।’

इस प्रकार सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से आत्म-उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं। सहकारिता एक ऐच्छिक संगठन है जिसका निर्माण प्रजातान्त्रिक आधार पर किया जाता है। भारत में सहकारिता आन्दोलन का प्रारम्भ 1904 ई० में हुआ था, परन्तु इसकी प्रगति अत्यन्त मन्द थी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् इस आन्दोलन में तेजी आयी है। स्वेच्छा से समान हितों की पूर्ति के लिए मिलजुल कर कार्य करने की भावना सहकारिता कहलाती है।

सहकारिता का ठीक-ठीक अर्थ जानने के लिए हमें उसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सहकारिता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
सहकारी नियोजन समिति के अनुसार, “सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसमें लोग स्वेच्छा के आधार पर अपनी आर्थिक उन्नति के लिए सम्मिलित होते हैं।’
सी० आर० फे के अनुसार, “सहकारिता मिलजुलकर कार्य करने की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें किसी विशिष्ट उद्देश्य को लेकर सामूहिक हित के लिए स्वेच्छा से प्रयास किया जाता है। सहकारिता का मूल मन्त्र है – सब एक के लिए और एक सबके लिए।
होरेस प्लंकेट के अनुसार, “सहकारिता संगठन के द्वारा बनाया गया प्रभावपूर्ण स्वावलम्बन है।”
हेरिक के शब्दों में, “सहकारिता स्वेच्छा से संगठित उन दुर्बल व्यक्तियों की क्रिया है जो संयुक्त शक्तियों और साधनों का आपसी प्रबन्ध के द्वारा उपयोग करते हैं तथा जिनका उद्देश्य सामान्य लाभ प्राप्त करना होता है।”
इस प्रकार सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है, जो समानता, स्व-सहायता तथा प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हित के लिए कार्य करता है।

सहकारिता के मुख्य सिद्धान्त

सहकारिता कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित है। सहकारिता के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित

  1.  ऐच्छिक संगठन – सहकारी समितियों की सदस्यता अनिवार्य न होकर ऐच्छिक होती है। स्वेच्छा से इनकी सदस्यता को प्राप्त किया जा सकता है।
  2.  प्रजातान्त्रिक नियन्त्रण – इसमें प्रत्येक सदस्य को एक ही मत देने का अधिकार है, चाहे उसकी कितनी ही पूँजी या भूमि संगठन में क्यों न लगी हो।।
  3. लाभ के वितरण का सिद्धान्त-सहकारी समितियों के लाभ को सदस्यों की पूँजी के अनुपात में बाँटा जाता है।
  4. एकता व भाई-चारे का सिद्धान्त – सहकारिता सदस्यों में भाई-चारे की भावना उत्पन्न करती है। इस संगठन में सभी के साथ समानता का व्यवहार होता है।
  5. पारस्परिक तथा आत्म-सहायता – सहकारी संस्थाएँ प्रायः अपने साधनों पर निर्भर करती हैं, जिसे आत्म-सहायता कहते हैं। सहकारिता का मुख्य उद्देश्य पारस्परिक हित और सामूहिक
    लाभ होता है।
  6. समानता – समानता सहकारिता का मुख्य सिद्धान्त है। सहकारिता में प्रत्येक के अधिकार समान होते हैं। अंशों की अधिकता होने पर भी सदस्य को केवल एक ही मत देने का अधिकार
  7. सहानुभूति – सहकारिता में सभी सदस्य परस्पर मिलजुलकर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में जुटे रहते हैं। एक सदस्य दूसरे के प्रति सहानुभूति से ओत-प्रोत रहता है।
  8.  एकता – सहकारिता का आधारभूत सिद्धान्त एकता है। इसमें सभी सदस्य एकजुट होकर लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं। इसमें एक सबके लिए तथा सब एक के लिए’ कोआदर्श रहता है।
  9. मितव्ययिता – सहकारिता कम व्ययसाध्य होती है। एक साथ सामूहिक प्रयास होने पर कार्य कम समय में ही पूरा हो जाता है। सदस्य-संख्या में वृद्धि के साथ-साथ सहकारिता में
    मितव्ययिता में भी वृद्धि होती चली जाती है।
  10.  आय का समान रूप से वितरण – सहकारिता आय के समान और उचित वितरण के सिद्धान्त पर टिकी हुई है। सहकारिता के उत्पादन का वितरण अंशों के अनुरूप, उचित और न्यायपूर्ण ढंग से किया जाता है। सदस्यों को श्रेष्ठ और उचित मूल्य पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना सहकारिता का मुख्य ध्येय है।

सहकारिता की विशेषताएँ

सहकारिता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. सहकारिता स्वैच्छिक संगठन है। व्यक्ति अपनी इच्छा से इस संगठन का सदस्य बन जाता है।
  2. सहकारिता की कार्यप्रणाली लोकतान्त्रिक होती है। सहकारिता के सभी सदस्यों को एकसमान अधिकार प्राप्त होते हैं। वे अपने मध्य से कुछ प्रतिनिधियों को संगठन के पदाधिकारी चुन लेते हैं।
  3. सहकारिता का लक्ष्य सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सुविधाएँ प्रदान कर उनमेंआत्मनिर्भरता उत्पन्न करना है।
  4.  सहकारिता सबके लाभ का संगठन है। ‘संयुक्त लाभ पद्धति’ सहकारिता की प्रमुख विशेषता है।
  5. सहकारिता में कम व्यय द्वारा सदस्यों को अधिक-से-अधिक लाभ उपलब्ध कराया जाता है।
  6. सहकारिता संयुक्त दायित्व वाला संगठन है। संयुक्त दायित्वों की पूर्ति संयुक्त प्रयास द्वारा की जाती है।
  7. सहकारिता की भावना ‘एक सबके लिए तथा सब एक के लिए प्रमुख है।
  8. सहकारिता न्याय और समानता पर आधारित है।
  9.  सहकारिता की सदस्यता सबके लिए उपलब्ध है।
  10. सहकारिता का संचालन नियमबद्ध ढंग से किया जाता है।

भारत में कार्यरत सहकारी समितियाँ

भारत सरकार ने 1904 ई० में ग्रामीण ऋणग्रस्तता समाप्त होने के उद्देश्य से सरकारी ऋण समितियाँ अधिनियम’ पारित किया। इसके पश्चात् 1912 ई० में ‘सहकारिता समितियाँ अधिनियम पारित करके देश में सहकारी समितियों का संगठन किया गया। वर्तमान समय में भारत में 3.56 लाख सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं। इनमें से 67% समितियाँ ग्रामीण विकास में लगी हैं। इन समितियों की सदस्य-संख्या 16.1 करोड़ तथा इनकी कार्यशील कुल पूँजी 62,570 करोड़ रुपये है।

भारत में इस समय निम्नलिखित सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं

1. प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ – यह एक सहकारी साख समिति है, जिसका प्रमुख कार्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें ऋण उपलब्ध करवाना है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इन समितियों की कुल संख्या लगभग 94 हजार है तथा 9.20 करोड़ से भी अधिक कृषक इनके सदस्य हैं। ऋण का भुगतान केवल कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जाता है। ठीक प्रकार से कार्य निष्पादन न कर पाने के कारण इन समितियों की संख्या निरन्तर घट रही है। गोरवाला समिति के सुझाव के अनुसार बड़े आकार वाली सहकारी समितियाँ स्थापित की जानी चाहिए।

2. सहकारी भूमि विकास बैंक – यह भी एक सहकारी साख समिति है, जिसका उद्देश्य कृषकों को लम्बी अवधि के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध करवाना है। इसकी 1,707 से अधिक शाखाएँ हैं तथा सहकारी भूमि विकास बैंक कृषकों की आर्थिक स्थिति, ऋण की उपयोगिता तथा भूमि की दशा और विकास की सम्भावनाओं को देखते हुए ऋण प्रदान करते हैं। इसके अन्तर्गत (1) केन्द्रीय विकास बैंक तथा (2) प्राथमिक भूमि विकास बैंक किसानों की भूमि रहन रखकर ऋण उपलब्ध कराते हैं।

3. सहकारी कृषि समितियाँ – ये उत्पादन व वितरण से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ हैं, जिनका उद्देश्य कृषि की दशा में सुधार करना तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करना है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कृषि समितियाँ कार्यरत हैं

  1. सहकारी संयुक्त कृषि समितियाँ,
  2.  सहकारी उत्तम कृषि समिति,
  3. सहकारी काश्तकारी कृषि समिति,
  4. सहकारी सामूहिक कृषि समिति,
  5.  सहकारी चकबन्दी समितियाँ,
  6.  सहकारी सिंचाई समितियाँ तथा
  7. दुग्ध वितरण सहकारी समिति।

सहकारी सिंचाई समितियाँ कुएँ खोदने तथा नलकूप लगाने इत्यादि के लिए ऋण देती हैं, जबकि चकबन्दी समितियाँ बिखरे टुकड़ों को एक ही बनाने का कार्य करती हैं।

4. सहकारी औद्योगिक समितियाँ – इन सहकारी समितियों का उद्देश्य गाँवों में लोगों को लघु एवं कुटीर उद्योग लगाने की सुविधाएँ तथा रोजगार के अवसर प्रदान करने में सहायता देना है। कच्चे माल तथा प्रशिक्षण भी इन समितियों द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं। 54 हजार से भी अधिक ऐसी औद्योगिक समितियाँ अनेक प्रकार के उद्योगों के विकास में तथा सामान को बेचने व निर्यात करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। चमड़ा रँगने, फल व सब्जियों को डिब्बों में बन्द करने, मिट्टी के बर्तन बनाने, तेल, गुड़, साबुन और ताड़ उद्योगों से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ भी स्थापित की गयी हैं।

5. सहकारी दुग्ध-आपूर्ति समितियाँ – इनका कार्य दुग्ध एवं डेयरी उद्योग को प्रोत्साहन देना है। पशुओं की नस्ल सुधारने तथा दुग्ध उत्पादन में वृद्धि करने में इन समितियों का विशेष योगदान है। आज 31 हजार से भी अधिक प्राथमिक दुग्ध-पूर्ति समितियों की स्थापना हो चुकी ै और अधिक-से-अधिक लोग इनसे लाभान्वित हो रहे हैं।

6. सहकारी विपणन समितियाँ – इन समितियों की स्थापना का उद्देश्य किसानों को दलालों के शोषण से बचाना तथा उनकी उपज का सही मूल्य दिलवाना है। ये समितियाँ किसानों से सीधे अनाज खरीदती हैं तथा बाजार मूल्य पर किसानों को तुरन्त भुगतान भी कर दिया जाता है।

7. बह-उद्देशीय सहकारी समितियाँ – आर्थिक विकास के लिए गठित इन समितियों का उद्देश्य लोगों के जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं से सम्बन्धित वस्तुएँ प्रदान करना है। ऋण देने के साथ-साथ ये समितियाँ जंगलों से प्राप्त पदार्थों के विक्रय तथा कृषि उपकरणों को भी प्रबन्ध करती हैं।

8. सहकारी उपभोक्ता समितियाँ – इनका उद्देश्य गाँवों तथा नगरों में उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर वस्तुएँ प्रदान करना है। ऋण देने के साथ-साथ ये समितियाँ जंगलों में पदार्थों के विक्रय तथा कृषि उपकरणों का भी प्रबन्ध करती हैं।

9. सहकारी आवास समितियाँ – इनका मुख्य उद्देश्य सदस्यों को आवास की सुविधाएँ उपलब्ध कराने और गृह-निर्माण के लिए भिन्न प्रकार के ऋण उपलब्ध कराना है। ऐसी समितियाँ रोशनी, सड़कों का निर्माण तथा पीने के पानी की व्यवस्था करने का कार्य भी करती हैं।

अतः विभिन्न प्रकार की समितियाँ लोगों को भिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करके उनके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सहकारी संघ की भी स्थापना की गयी है। विभिन्न सहकारी समितियों के विकास तथा क्रियान्वयन के लिए सहकारी राष्ट्रीय संघ भी बनाये गये हैं।

प्रश्न 2
ग्रामीण क्षेत्रो के पुनर्निर्माण में सहकारिता का क्या महत्त्व है? [2009]
या
ग्रामीण क्षेत्रों पर सहकारी समितियों के प्रभावों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सहकारिता ग्रामीण अर्थव्यवस्था की प्रगति का रहस्य है। भारत जैसे कृषि-प्रधान और विकासशील राष्ट्र के लिए सहकारिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन है। सहकारी आन्दोलन ग्रामीण जीवन की आधारशिला है। भारत की 75% ग्रामीण जनसंख्या के उत्थान में सहकारिता की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। लोकतन्त्र की शक्ति के रूप में चलाया गया सहकारी आन्दोलन ग्रामीण जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने में अहम् भूमिका निभा रहा है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में सहकारिता के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ।

1. पशुओं की दशा में सुधार – पशु भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार स्तम्भ हैं। सहकारी दुग्ध उत्पादक समितियों ने पशुओं की दशा सुधारने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिससे कृषकों की आय में तो वृद्धि हुई ही है, साथ ही दुग्ध उत्पादन में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। सहकारिता ग्रामीण क्षेत्रों में श्वेत क्रान्ति लाने में सफल हो रही है। इसी ने राष्ट्र में ऑपरेशन फ्लड कार्यक्रम को सफल बनाया है।

2. आवास-व्यवस्था में सुधार – गृह – निर्माण से सम्बन्धित सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज तथा नगरों में नये मकान बनाकर आवासीय समस्या को सुलझाने में पर्याप्त सहायता की है। इन समितियों द्वारा प्रकाश, सड़कों का निर्माण और पानी की व्यवस्था भी की गयी

3. बिचौलियों से मुक्ति – सहकारी समितियों के माध्यम से क्रय-विक्रय करने से किसानों को बिचौलियों के शोषण से मुक्ति मिल गयी है। उन्हें कम ब्याज पर पैसा ऋण के रूप में ही नहीं मिल जाता, अपितु उत्पादन की ठीक कीमत भी मिल जाती है। बिचौलियों का अन्त होने से कृषकों की आर्थिक दशा में गुणात्मक सुधार आया है। अब ग्रामीण जीवन में खुशहाली दिखाई पड़ने लगी है।

4. स्वच्छता एवं सड़कों की व्यवस्था –  सहकारिता ने ग्रामीण क्षेत्र में युगों से व्याप्त गन्दगी को दूर करने में सहायता प्रदान की है तथा सड़कों का निर्माण कराकर गाँवों में विकास के
द्वार खोल दिये हैं।

5. बचत तथा विनियोग में वृद्धि – सहकारी समितियों ने कृषकों में कम व्यय की आदत डाली है, जिससे वे बचत करने लगें तथा उनका विनियोग डाकखानों तथा सहकारी बैंकों में होने लगे।

6. ग्रामीण विकास – सहकारी समितियों ने कुटीर तथा लघु उद्योगों का विकास करके, नौकरी के अवसर प्रदान करके तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करके ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में तीव्रता प्रदान की है। ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सहकारिता का सर्वाधिक योगदान रहा है। सहकारिता ने ग्रामीण विकास के नये द्वार खोल दिये हैं।

7. सामाजिक व राजनीतिक चेतना – सहकारिता का सिद्धान्त सहयोग है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई है। लोकतान्त्रिक प्रणाली पर आधारित होने के कारण सहकारी समितियाँ ग्रामवासियों को लोकतन्त्र की शिक्षा भी स्वत: प्रदान करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नेतृत्व का विकास हुआ है, जिसने ग्रामवासियों का ठीक प्रकार से मार्गदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया है।

8. उत्तरदायित्व की भावना का विकास – सहकारिता में प्रत्येक सदस्य प्रत्येक कार्य के लिए जिम्मेदार होता है, जिसके कारण सभी अपना उत्तरदायित्व ठीक प्रकार से समझने लगते हैं।

9. नैतिक गुणों का विकास –  सहकारिता ग्रामवासियों में नैतिक गुणों के विकास में भी सहायक है। आत्मविश्वास, आत्म-सहायता, ईमानदारी तथा मितव्ययिता जैसे गुणों का विकास करने में
सहकारिता सहायक है।

10. जीवन को श्रेष्ठ बनाने में सहायक – सहकारिता ने ग्रामवासियों के जीवन को श्रेष्ठ बनाने में सहायता प्रदान की है। ऋण की सुविधाओं तथा क्रय-विक्रय की सुविधाओं के कारण वे शोषण से बच गये हैं। सहकारिता से मिलने वाली अनेक सुविधाओं ने ग्रामवासियों का जीवन श्रेष्ठ बनाने में सहायता प्रदान की है।

11. तनाव एवं संघर्ष से मुक्ति – सहकारी आन्दोलन के फलस्वरूप ग्रामवासियों में सहयोग, प्रेम और एकता का संचार हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष तथा मुकदमेबाजी कम होने से तनाव घट गया है। ऋणों से छुटकारा, कृषि उपजों को उचित मूल्य तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाने से कृषकों में आत्म-सन्तोष उत्पन्न हो गया है। तनाव तथा संघर्ष से मुक्त होकर ग्रामवासी अब समाज तथा राष्ट्र के नव-निर्माण में भरपूर सहयोग देने लगे हैं।

12. ग्रामीण पुनर्निर्माण का आधार – सहकारिता आन्दोलन ग्रामीण पुनर्निर्माण की आधारशिला कहलाता है। वर्तमान समय में लगभग 16 करोड़ सदस्य सहकारिता के गुणों से सम्पन्न होकर गाँवों के नव-निर्माण में अपना पूरा-पूरा सहयोग दे रहे हैं। सहकारी आन्दोलन ने ग्रामीण क्षेत्रों , की अर्थव्यवस्था, सामाजिक दशी, कृषि, पशुपालन तथा जीवन-यापन को नवीनतम आयाम दिये हैं। प्रगति की डगर पर ग्रामीण लोग अब राष्ट्र के अन्य लोगों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं। सहकारी आन्दोलन वह सुदृढ़ आधार है, जिस पर ग्रामीण विकास
एवं पुनर्निर्माण का भव्य भवन टिका हुआ है।

13. विकास योजनाओं में सहयोग – भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी आन्दोलन के माध्यम से विकास योजनाएँ लागू की गयी हैं। सहकारी समितियों ने इन्हें सुधरे हुए बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाएँ तथा नवीनतम कृषि यन्त्र देकर हरित-क्रान्ति की सफलता में प्रमुख भूमिका निभायी है। अनेक विकास योजनाओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता को समूल नष्ट कर दिया है।
इस प्रकार सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज को धन-धान्य से भरपूर करके सभी ओर समृद्धि बिखेर दी है। इसने अच्छे और चरित्रवान नागरिकों के निर्माण में सहायता देकर लोकतन्त्र की सफलता की आधारशिला रख दी है। शोषण पर रोक लगाकर ग्रामीण लोगों को आदर्श एवं सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य बनाया है। वास्तव में, सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के पुनर्निर्माण की कुंजी सिद्ध हो रही हैं। सहकारी आन्दोलन को गति प्रदान करके ग्रामीण क्षेत्रों की प्रगति और सम्पन्नता की नींव रखी जा सकती है। भारत सरकार सहकारी आन्दोलन को नया स्वरूप देने के लिए प्रयासरत है।

प्रश्न 3
ग्रामीण विकास में सहकारी समितियों का महत्त्व व योगदान बताइए।
या
ग्रामीण विकास समितियों के महत्त्व पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। [2016]
या
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों का महत्त्व व योगदान
ग्रामीण समाज की काया पलटने में सहकारी समितियों का सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। इन समितियों ने ग्रामीण ऋणग्रस्तता, कृषि के पिछड़ेपन, बँधुआ मजदूरी आदि समस्याओं का निराकरण करके ग्रामीण जीवन को सुख और समृद्धि से पाट दिया है। सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के लिए कल्पवृक्ष सिद्ध हो रही हैं। इन्होंने ग्रामीण समाज का नव-निर्माण करके उसे एक सुधरा रूप दिया है। ग्रामीण समाज के उत्थान में सहकारी समितियों के महत्त्व को निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है

1. पुराने ऋणों से मुक्ति – भारतीय गाँवों की मुख्य समस्या ऋणग्रस्तता थी। कहा जाता था कि भारतीय कृषक ऋणों में जन्म लेता है और ऋणों में ही मर जाता है। एक बार लिया हुआ ऋण पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता था। साहूकार तथा जमींदार ग्रामीण समाज के शोषण में आकण्ठ डूबे थे। सहकारी समितियों ने किसानों को उचित ब्याज की दर पर सुगमता से ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें उनके प्राचीन ऋणों से मुक्ति दिलवा दी।

2. आर्थिक विकास में गति – सहकारी समितियों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास में गति आ गयी है। अर्थव्यवस्था में सुधार आने से ग्रामीण समाज में खुशहाली की लहर दो से है। तीव्र गति से हुए आर्थिक विकास ने भारतीय कृषकों को कृषि, पशुपालन तथः कुटीर उद्योग-धन्धों के क्षेत्र में पर्याप्त निर्भरता प्रदान कर दी है।

3. सामाजिक चेतना का विकास – सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज के सदस्यों में परस्पर सहयोग, एकता, सामुदायिकता, सहानुभूति तथा प्रेम का भाव जाग्रत कर सामाजिक चेतना के विकास में अद्वितीय योग दिया है। ग्रामीण समाज के सभी सदस्य एकजुट होकर समाज के नव-निर्माण के लिए प्रयत्नशील हो उठे हैं।

4. झगड़ों और मुकदमेबाजी में कमी – सहकारी समितियों ने हम की भावना जगाकर ग्रामीण समाज में अपनत्व का भाव जगा दिया है। ग्रामीण समाज के सदस्य सामूहिक हित को ध्यान में रखकर तथा वैर-भाव छोड़कर तन-मन-धन से सहकारिता के कार्यों में सहयोग दे रहे हैं। सहयोग के कारण झगड़ों का अन्त हो गया और मुकदमेबाजी में कमी आ गयी है। इस प्रकार सामाजिक सनाव और संघर्ष में भी गिरावट आ गयी है।

5. पारस्परिक सहयोग का विकास – सहकारी समितियों का आधार पारस्परिक सहयोग है। सभी लोग इन समितियों के सदस्य बनकर एकता और सहयोग का प्रदर्शन करते हैं। सहयोग और एकता, प्रगति और शक्ति की आधारशिला है। सहयोग के कारण मित्रता, भाई-चारा, समानता और स्वतन्त्रता आदि गुणों का उदय होता है, जो राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करते हैं।

6. लोकतन्त्र का प्रशिक्षण – सहकारी समितियों का संगठन और संचालन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुरूप होता है। सहकारी समितियों के सदस्य बनकर ग्रामीण समाज के लोग स्वतन्त्रता, समानता व भाई-चारे का पाठ पढ़ते हैं तथा कर्तव्य और अधिकारों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार सहकारी समितियाँ लोकतन्त्र के लिए प्रबुद्ध और जागरूके नागरिकों का सृजन करने में बहुत सहयोग देती हैं।

7. सामाजिक कल्याण में अभिवृद्धि – सहकारी समितियाँ और इन समितियों के सदस्य सामूहिक हित को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं। इस प्रकार सहकारी समितियाँ सामाजिक कल्याण में अभिवृद्धि करने का सशक्त माध्यम हैं।

8. ग्रामीण समाज का पुनर्निर्माण – सहकारी समितियाँ ग्रामीण जीवन के पुनर्निर्माण में बहुत सहायक होती हैं। इनसे सहभागिता प्राप्त कर ग्रामीण समाज का जीर्ण-शीर्ण कलेवर पुनः तरुणाई प्राप्त कर लेता है। ग्रामवासियों को नया सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश मिल जाता है। वे स्वयं को राष्ट्र की मुख्य धारा का एक अभिन्न अंग समझने लगते हैं। सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज के सदस्यों को सम्मानित और सुखी जीवन प्रदान करा दिया है।

इस प्रकार सहकारी समितियों ने ग्रामीण समाज को धन-धान्य से भरपूर करके सभी ओर समृद्धि बिखेर दी है। इसने अच्छे और चरित्रवान् नागरिकों के निर्माण में सहायता देकर लोकतन्त्र की सफलता की आधारशिला रख दी है। इसने शोषण पर रोक लगाकर ग्रामीण लोगों को आदर्श एवं सुखी जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाया है। वास्तव में, सहकारी समितियाँ ग्रामीण समाज के पुनर्निर्माण की कुंजी सिद्ध हो रही हैं।

प्रश्न 4
भारतीय समाज में सहकारी आन्दोलन की धीमी गति होने के कारण बताइए तथा इन्हें प्रभावशाली बनाने के उपाय सुझाइए। [2010]
या
भारत में सहकारिता आन्दोलन पर अपने विचार (लेख, निबन्ध) लिखिए। [2007, 11, 15]
या
भारत में सहकारी आन्दोलन को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है? [2007]
या
सहकारी आन्दोलन की धीमी (मन्द) गति अथवा इसकी असफलता के कारणों का उल्लेख कीजिए। [2011]
या
भारत में सहकारी आन्दोलन की सफलता के लिए आवश्यक उपायों को सुझाइए। [2013]
या
भारतीय समाज में सहकारिता आन्दोलन पर प्रकाश डालते हुए इसकी असफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत में सहकारिता आन्दोलन का इतिहास

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पहले सहकारी आन्दोलन – सहकारिता का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। सर्वप्रथम सहकारी समितियों का संगठन जर्मनी में हुआ तथा वहाँ इन्हें पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। जर्मनी में इनकी सफलताओं से प्रभावित होकर 1901 ई० में भारत सरकार ने सर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। इस समिति की सिफारिश के आधार पर 1904 ई० में ‘सहकारी साख समिति अधिनियम’ (Co-operative Credit Societies Act, 1904) पारित हुआ। 1908 ई० तक सहकारिता आन्दोलन ने पर्याप्त प्रगति की। 1912 ई० में ‘सहकारी साख अधिनियम’ पारित हुआ। इस अधिनियम के अधीन सहकारिता के गैर-साख रूपों अर्थात् उत्पादन, क्रय-विक्रय, बीमा, मकानों आदि के निर्माण के लिए सहकारी समितियों की स्थापना की गयी 1914 ई० में भारत सरकार ने मैकलेगन की अध्यक्षता में एक सहकारी समिति की नियुक्ति की।

1919 ई० में माउण्ट-फोर्ड सुधारों (लॉर्ड माउण्टबेटन तथा लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा किये गये सुधार) के अन्तर्गत सहकारिता को एक राजकीय विषय बना दिया गया। 1925 ई० में बम्बई (मुम्बई) सरकार ने अपना ‘सहकारी समिति अधिनियम’ पारित किया। बम्बई के पश्चात् 1932 ई० में मद्रास (चेन्नई) में, 1934 ई० में बिहार में तथा 1943 ई० में बंगाल की प्रान्तीय सरकारों ने सहकारी समितियों से सम्बन्धित कानूनों का निर्माण किया। 1929 ई० तक सहकारी समितियों की संख्या 1 लाख तक बढ़ गयी। 1939 ई० में दूसरा महायुद्ध छिड़ा, जिसके परिणामस्वरूप कृषि उपज में पर्याप्त वृद्धि हुई।

अत: किसानों की आर्थिक दशा में सुधार हुआ। इससे सहकारिता आन्दोलन में और तीव्रता आयी और उनकी संख्या में 1945 ई० तक 41% की वृद्धि हुई। 1942 ई० में एक ‘सहकारिता योजना समिति’ (Co-operative Planning Committee) की नियुक्ति की गयी। इस समिति ने सिफारिश की कि प्राथमिक साख-समितियों का निर्माण किया जाए। साथ ही ऐसा प्रयास किया जाए जिससे कि दस वर्षों में देश में कम-से-कम 50% गाँवों व 30% शहरों के लिए समितियाँ बनायी जाएँ। रिजर्व बैंक से इस बात के लिए अनुरोध किया गया कि वह सहकारी समितियों को सफल बनाने के लिए अधिक-से-अधिक सहायता दे।।

स्वतन्त्रता के पश्चात सहकारी आन्दोलन–स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के आर्थिक विकास से कार्यक्रमों में सहकारिता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। पंचवर्षीय योजनाओं में भी सहकारिता के विकास पर अधिक बल दिया गया है और उसकी सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। वर्ष 1950-51 में प्राथमिक साख-समितियों की कुल संख्या 1.05 लाख थी। वर्ष 1960-61 में इन समितियों की संख्या 2.10 लाख तक जा पहुँची। 1965 ई० में हैं 10 करोड़ की प्रारम्भिक पूँजी से ‘राष्ट्रीय कृषि साख दीर्घकालीन कोष’ (National Agricultural Credit Long-term Operation Fund) की स्थापना की गयी। इस कोष का मुख्य कार्य राज्य सरकारों को सहकारी संस्थाओं के विकास के लिए ऋण प्रदान करना था। सहकारिता आन्दोलन से सम्बन्धित अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए ‘सहकारिता प्रशिक्षण की केन्द्रीय समिति’ (Central Committee for Co-operative Training) की स्थापना की गयी।

वर्ष 1977-78 में सहकारी समितियों की संख्या 3 लाख, प्राथमिक समितियों की सदस्य संख्या 193 लाख, हिस्सा पूँजी १ 1,812 करोड़ तथा कार्यशील पूँजी र 16,691 करोड़ थी। वर्ष 1982-83 में यह संख्या क्रमशः 2.91 लाख, 1,208 लाख, * 2,305 करोड़ तथा १ 21,857 करोड़ थी। जून, 1983 ई० के अन्त तक 94,089 प्राथमिक कृषि साख समितियाँ कार्य कर रही थीं तथा 96% व्यक्ति इनके अन्तर्गत थे। 1989 ई० में ये समितियाँ ग्रामीण क्षेत्र के 98% भाग में फैल चुकी थीं लेकिन वर्तमान में भारत में विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों की संख्या 5.04 लाख ही पहुँच पाई है, जिनकी सदस्य संख्या 22 करोड़ है। आज भारत में अनेक प्रकार की सहकारी समितियाँ कार्य कर रही हैं। इनमें साख सहकारी समितियाँ (प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ तथा सहकारी भूमि विकास बैंक), सहकारी उत्पादन समितियाँ (सहकारी कृषि समितियाँ, सहकारी औद्योगिक समितियाँ व सहकारी दुग्धपूर्ति समितियाँ), सहकारी विपणन समितियाँ, बहु-उद्देशीय जनजातीय सहकारी समितियाँ, सहकारी उपभोक्ता समितियाँ तथा सहकारी आवास समितियाँ प्रमुख हैं।

भारत में सहकारी आन्दोलन की धीमी गति (असफलता) के कारण

भारत में सहकारी आन्दोलन बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसने ग्रामीण क्षेत्रों की युगों-युगों से व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता और संघर्षों को समाप्त कर दिया है। भारत में सहकारिता के 100 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी इसकी प्रगति मन्द रही है। कुछ क्षेत्रों में तो सहकारी आन्दोलन असफल ही हो गया है। ग्रामीण विकास की यह सर्वोच्च आशा मन्द गति से आगे बढ़ रही है। भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति होने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अशिक्षा – सहकारिता की धीमी प्रगति का प्रमुख कारण ग्रामवासियों में व्याप्त अशिक्षा है। अशिक्षा के कारण ग्रामवासी सहकारिता के महत्त्व को नहीं समझ पाते तथा न ही विभिन्न समितियों के अधिनियमों को ही समझ पाते हैं। प्रभुतासम्पन्न लोग इसमें कोई रुचि नहीं लेते, क्योंकि इनसे उन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचता। अत: अशिक्षित लोग सहकारिता का पूरा लाभ नहीं
उठा पाते जिससे सहकारी आन्दोलन की गति मन्द रहती है।

2. अकुशल प्रबन्ध – सहकारिता की धीमी प्रगति का दूसरा कारण प्रबन्ध की अकुशलता है। सहकारी समितियों में मितव्ययिता की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, अपितु ऋण की वसूली पर भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। साथ ही अनेक सही व्यक्तियों को ऋण प्राप्त नहीं हो पाते हैं, जिससे इनका लाभ सीमित लोगों को ही मिल पाता है।

3. जन-सहयोग का अभाव – सहकारिता को सामान्य ग्रामवासियों ने अपने विकास से सम्बन्धित कार्यक्रम न मानकर इसे एक सरकारी आन्दोलन माना है। सरकार ने इसका प्रचार भी इसी ढंग से किया है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक जनता इस ओर आकर्षित नहीं हो पायी है। जनसामान्य का भरपूर सहयोग न मिल पाने के कारण यह आन्दोलन असफल रहा है।

4. अपर्याप्त साधन – सहकारी समितियाँ वित्तीय साधनों की कमी के कारण अपने सदस्यों को पूर्ण सहायता भी नहीं दे पायी हैं। अपर्याप्त साधनों के कारण कृषकों को समय पर ऋण नहीं मिल पाता तथा उन्हें साहूकारों के चंगुल में फंसना पड़ता है। साधनों की अपर्याप्तता के कारण सहकारी आन्दोलन पिछड़ जाता है।

5. ब्याज की विभिन्न दरें – विभिन्न राज्यों में सहकारी समितियों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों की दर में भिन्नता (6 प्रतिशत से लेकर 12 प्रतिशत) के कारण भी इनकी सफलता प्रभावित
हुई है। निर्धन किसान अधिक ब्याज अच्छे उत्पादन के दिनों में भी सहन नहीं कर सकता है।

6. लाल फीताशाही – सहकारी आन्दोलन की धीमी प्रगति को एक अन्य कारण सहकारी आन्दोलन से सम्बन्धित सहकारी विभागों में असामंजस्य तथा लाल फीताशाही को पाया जाना है। प्राथमिक, प्रान्तीय तथा केन्द्रीय समितियों में सहयोग का अभाव है तथा ऋण वितरण इत्यादि में अधिकारी भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं। अतः जनसाधारण इनका लाभ नहीं उठा पाता है।

7. जनता की उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण – सहकारी समितियों में होने वाले पक्षपात, जातिगत भावना, भ्रष्टाचार आदि के कारण जनसाधारण ने इनके प्रति उपेक्षापूर्ण नीति अपना ली है। धन का अनुचित उपयोग, फर्जी ऋण तथा गबन आदि का अखाड़ा बनती जा रही इन समितियों में ग्रामवासियों का विश्वास ही नहीं रहा।

8. व्यापारिक सिद्धान्तों की अवहेलना तथा पक्षपात – सहकारी समितियों की असफलता का एक अन्य कारण व्यापारिक नियमों की अवहेलना है। केवल ब्याज लेकर ऋण का नवीनीकरण कर देना, आवश्यकतानुसार ऋण न देना, ऋण देने में पक्षपात करना इत्यादि कारण जनता को इन समितियों के प्रति उदासीन बना देते हैं।

9. दलबन्दी – सहकारी आन्दोलन की मन्द गति का प्रमुख कारण दलबन्दी है। दलबन्दी के कारण जो संघर्ष उत्पन्न होते हैं उनसे सहकारी आन्दोलन की गति मन्द पड़ जाती है।

10. अन्य कारण – जातिवाद, स्वार्थपरता, व्यापक भ्रष्टाचार, नियन्त्रण तथा मार्गदर्शन का अभाव, प्रतिस्पर्धा व अकुशल प्रबन्ध के कारण भी भारत में सहकारी आन्दोलन की गति मन्द रही है।

भारत में सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए सुझाव

सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने में निम्नलिखित सुझाव सहायक हो सकते हैं

  1.  जनसाधारण में सहकारिता के सिद्धान्तों के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जानी चाहिए, जिससे वे स्वत: उनके सदस्य बनकर इनसे लाभान्वित होने लगे।
  2.  सहकारी समितियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए, जिससे वे अपने कार्य-क्षेत्र का विस्तार कर सकें।
  3. शिक्षा द्वारा जनता को सहकारिता लाभों से परिचित कराया जाना चाहिए।
  4.  सहकारी समितियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद तथा जातिवाद समाप्त किया जाना चाहिए।
  5. इसकी नीतियाँ अधिक व्यावहारिक रूप से बनायी जानी चाहिए, जिससे उन्हीं लोगों को इनका लाभ मिल सके, जिन्हें उसकी आवश्यकता है।
  6. सहकारिता से सम्बन्धित सरकारी विभागों में समन्वय रखा जाए और लालफीताशाही समाप्त की जाए।
  7. सरकारी हस्तक्षेप कम किया जाना चाहिए जिससे इनकी प्रगति आशातीत हो सके।
  8. कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे सहकारी समितियाँ प्रभावी हो सकें।
  9.  सहकारी समितियों में दलबन्दी को समाप्त किया जाए, जिससे वे स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य संचालन कर सकें।
  10.  सहकारिता की कार्य-विधि को ठीक से सुधारा जाए, जिससे जनता को इस आन्दोलन का पूरा-पूरा लाभ मिल सके।
  11. सहकारिता का प्रशिक्षण देकर जनसामान्य को इस आन्दोलन में सहभागी बनने के लिए प्रेरित किया जाए।
  12. सहकारी समितियों के लेखे-जोखे की समय-समय पर जाँच करायी जाए।
  13. अलाभकारी समितियों को समाप्त कर दिया जाए, जिससे अपव्यय पर रोक लग सके।
  14. प्रचार तथा जनसामान्य से सम्पर्क करके लोगों की अभिरुचि इस आन्दोलन के प्रति जगायी जाए।
  15. महिलाओं में सहकारिता के प्रति लगाव पैदा किया जाए, जिससे उनकी उत्पादक प्रवृत्ति का लाभ इस आन्दोलन को प्राप्त हो सके।

निष्कर्ष – भारत में सहकारिता की धीमी गति तथा असफलताओं को देखते हुए यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह आन्दोलन व्यर्थ है। भारत जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए सहकारिता बहुत आवश्यक है। मोरारजी देसाई के शब्दों में, “सचमुच का सहकारिता आन्दोलन प्रजातन्त्र की शक्ति बन सकता है।” सहकारिता पूँजीवाद और समाजवाद की अति को समाप्त करने वाला अमोघ अस्त्र है। यह मानव-समाज को सुधार कर सुखी तथा सम्पन्न जीवन प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है।

इससे ग्रामीण समाज में शोषण और अन्याय पर अंकुश लगेगा तथा समूचे समाज में खुशहाली और समृद्धि की लहर फैल जाएगी। श्री फखरुद्दीन अली अहमद के शब्दों में, भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में सामाजिक परितोष से युक्त आर्थिक संगठन के रूप में सहकारिता का एक विशेष महत्त्व है।’ यह शोषण से बचाव का सशक्त माध्यम है। मिर्धा समिति के शब्दों में, “सहकारी आन्दोलन निर्धन व्यक्ति की शक्तिशाली और सम्पन्न वर्ग द्वारा किये जाने वाले शोषण से रक्षा करने का अति उत्तम संगठन प्रस्तुत करता है। भारत में इस महान आन्दोलन को सफल बनाने की आवश्यकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता के चार मुख्य उद्देश्य बताइए। या सहकारिता के कोई दो लाभ बताइए। [2016]
उत्तर:
सहकारिता के चार मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. ग्रामीण पुनर्निर्माण – भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार ग्राम हैं। अत: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से सहकारिता आन्दोलन का शुभारम्भ किया गया। प्रारम्भ में सहकारिता का क्षेत्र केवल साख-समितियों तक ही सीमित था, किन्तु बाद में यह उद्योग, कृषि, बाजार, उपभोग आदि के क्षेत्रों में भी अपनाया गया।

2. साधनों एवं शक्तियों का सम्मिलित उपयोग – सहकारिता की क्रिया को दुर्बल और निर्धन व्यक्तियों ने इस उद्देश्य से अपनाया जिससे कि वे अपनी संयुक्त शक्तियों और साधनों का आपसी प्रबन्ध के द्वारा उपयोग कर सकें तथा लाभ प्राप्त कर सकें। इस प्रकार सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है जो समानता, स्व-सहायता तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हित के लिए करता है।

3. बिचौलियों तथा सूदखोरों से मुक्ति – किसानों को अपनी फसल को बेचने तथा कृषि के लिए खाद, बीज, ट्रैक्टर आदि खरीदने के लिए बिचौलियों का सहारा लेना पड़ता था। . इसके अतिरिक्त धनाभाव में वे सूदखोरों से भारी ब्याज पर ऋण लेते थे। सहकारिता का उद्देश्य कृषकों को इन बिचौलियों तथा सूदखोरों से मुक्ति दिलाना है। अब ये कार्य वे सहकारी समितियों के माध्यम से करते हैं तथा बिचौलियों और सूदखोरों के शोषण से बच जाते हैं।

4. उत्तरदायित्व की भावना का विकास – सहकारिता में प्रत्येक सदस्य प्रत्येक कार्य में साझीदार होता है तथा अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी होता है। उसमें उत्तरदायित्व की भावना
का विकास होता है तथा वह एक जिम्मेदार नागरिक बनता है।

प्रश्न 2
सहकारिता के चार आर्थिक लाभों को समझाइए। [2009]
उत्तर:
सहकारिता से मिलने वाले निम्नलिखित आर्थिक लाभों के कारण भारत में सहकारिता को व्यापक रूप से अपनाना अत्यन्त लाभदायक होगा

  1. कम ब्याज पर ऋण – सहकारी साख समितियाँ किसानों एवं कारीगरों को कम ब्याज पर ऋण प्रदान करके उन्हें महाजनों के शोषण से बचाती हैं।
  2. मध्यस्थों का अन्त – कई राष्ट्रों में सहकारी आन्दोलन ने उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं की सहकारी समितियों को परस्पर सम्बद्ध करके विपणन-प्रणाली से मध्यस्थों को पर्याप्त सीमा
    तक हटा दिया है।
  3.  कृषि का विकास – बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ कृषकों के लिए उत्तम बीज, यन्त्र तथा उर्वरकों की व्यवस्था करके उनकी कृषि-उपज में वृद्धि करने में सहायक होती हैं। इसी प्रकार
    चकबन्दी समितियाँ तथा कृषि समितियाँ कृषि के विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।
  4. निवास की समस्या का समाधान – सहकारी गृहनिर्माण समितियाँ अपने निर्धन तथा निस्सहाय सदस्यों के लिए निवास की व्यवस्था करती हैं।

प्रश्न 3
सहकारी कृषि समितियों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गाँवों की कृषि सम्बन्धी एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे हुए हैं। भूमि-विभाजन की इस समस्या का समाधान करने के लिए जिन चार प्रकार की सहकारी समितियों की स्थापना की गयी, वे हैं
(i) सहकारी संयुक्त कृषि समिति,
(ii) सहकारी उत्तम कृषि समिति,
(iii) सहकारी काश्तकारी कृषि समिति तथा
(iv) सहकारी सामूहिक कृषि समिति।।

  1. सहकारी संयुक्त कृषि समिति में कई लोगों की भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक बड़े कृषि फार्म के रूप में एकत्रित कर दिया जाता है। इस संयुक्त फार्म पर सभी लोग सामूहिक रूप
    से कृषि करते हैं और लाभ को सभी साझेदारों में उनकी भूमि के अनुपात में बाँट दिया जाता है। भूमि सामूहिक होते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी भूमि का मालिक बना रहता है।
  2.  सहकारी उत्तम कृषि समिति किसानों के लिए उत्तम किस्म के बीज, खाद एवं कृषि-यन्त्र जुटाती है, जिससे अधिक फसल पैदा हो सके।
  3. सहकारी काश्तकारी कृषि समिति गाँव की सारी भूमि को खरीद लेती है, उस पर ग्रामीणों से खेती करवाती है और बदले में उन्हें वेतन एवं लाभांश देती है।
  4. सहकारी सामूहिक कृषि समिति भी उत्पादन बढ़ाने के लिए सामूहिक रूप से कृषि करने को प्रोत्साहन देती है।

प्रश्न 4
सहकारी भूमि विकास बैंक पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भूमि सुधार, पुराने ऋणों को चुकाने एवं सिंचाई की सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए किसानों को ब्याज पर दीर्घावधि ऋण जुटाने हेतु सहकारी भूमि विकास बैंकों की स्थापना की गयी है। प्रारम्भ में इनका नाम ‘भूमि बन्धक बैंक’ था। सहकारी भूमि विकास बैंक भी निम्नलिखित दो प्रकार के हैं

  1. केन्द्रीय भूमि विकास बैंक – ये राज्य स्तर पर होते हैं। ये बैंक ऋण-पत्र जारी करते हैं। वर्तमान में इनकी संख्या 1,707 है।
  2. प्राथमिक भूमि विकास बैंक – ये बैंक गाँवों में कार्यरत् हैं जो किसानों को पम्पिंग सेट खरीदने, बिजली लगाने, भारी कृषि-यन्त्र खरीदने तथा गिरवी भूमि को छुड़ाने के लिए दीर्घकालीन ऋण देते हैं। ये बैंक किसानों की भूमि रेहन (गिरवी) रखकर उन्हें ऋण देते हैं। इस प्रकार इन बैंकों ने किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

प्रश्न 5
सहकारिता से उपभोक्ताओं को होने वाले लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सहकारी संस्थाओं से सबसे अधिक लाभ उपभोक्ताओं को प्राप्त होते हैं। सहकारी आन्दोलन से उपभोक्ताओं को मुख्यतया निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं

1. उचित कीमत पर अच्छी किस्म की वस्तुओं की प्राप्ति – सहकारी भण्डार सीधे उत्पादकों से थोक मूल्य पर वस्तुएँ खरीदते हैं जिस कारण वे अपने सदस्यों को कम मूल्य पर वस्तुएँ देने में समर्थ होते हैं। साथ ही ‘सहकारी वितरण प्रणाली’ कम तोल, मिलावट, व्यापारियों द्वारा उपभोक्ताओं का शोषण आदि बुराइयों को दूर करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है।

2. बचत में वृद्धि – उपभोक्ताओं को वस्तुओं के उचित कीमत पर उपलब्ध होने के कारण उनकी बचत में वृद्धि होती जाती है। अपनी बचतों को उपभोक्ता अन्य उपयोगी कार्यों में लगा सकते हैं।

3. मध्यस्थों द्वारा शोषण में कमी – सहकारी उपभोक्ता भण्डारों की स्थापना से उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित हो जाने के कारण मध्यस्थों (दुकानदारों) द्वारा उपभोक्ताओं के किये जाने वाले शोषण में कमी हो जाती है।

4. सदस्यों में लाभ का वितरण – सहकारी भण्डारों को जो शुद्ध वार्षिक लाभ होता है उसके एक भाग को संचित कोष में डालकर शेष लाभ को सदस्यों में बाँट दिया जाता है। इससे सदस्यों की आय में वृद्धि होती है।

5. रहन-सहन के स्तर का उन्नत होना – उपभोक्ताओं को अच्छी वस्तुएँ उपलब्ध होने तथा उनकी बचत एवं आय में वृद्धि होने से उनका रहन-सहन का स्तर उन्नत हो जाता है।

6. महाजनों से छुटकारा – सहकारी साख समितियाँ अपने सदस्यों को कम ब्याज पर ऋण प्रदान करके उनकी महाजनों व साहूकारों के शोषण से रक्षा करती हैं।

7. सहकारी तथा सेवा – भावना का विकास-सहकारी संस्थाएँ अपने सदस्यों को संगठित करके उन्हें लोकतन्त्रीय ढंग से कार्य करने की शिक्षा प्रदान करती हैं। फिर इन संस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य अपने सदस्यों की सेवा करना होता है न कि लाभ कमाना। इस दृष्टि से ये संस्थाएँ अपने सदस्यों में सेवा-भावना का विकास करती हैं।

8. सार्वजनिक हित के कार्य – सहकारी संस्थाएँ अपने संचित कोषों का पर्याप्त भाग पुस्तकालय, वाचनालय, क्लब आदि की स्थापना पर व्यय करती हैं। इससे सदस्यों (उपभोक्ताओं) के सामाजिक-कल्याण में वृद्धि होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता के पाँच आधारभूत सिद्धान्तों के नाम बताइए।
उत्तर:
सहकारिता के पाँच आधारभूत सिद्धान्तों के नाम हैं

  1. ऐच्छिक संगठन,
  2. लोकतन्त्रीय प्रबन्ध,
  3. पारस्परिक सहायता द्वारा आत्म-सहायता,
  4. एकता व भाई-चारे का सिद्धान्त तथा
  5. लाभ के न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त।

प्रश्न 2
सहकारिता की पाँच विशेषताएँ बताइए। उत्तर सहकारिता की पाँच विशेषताएँ हैं

  1.  ऐच्छिक संगठन,
  2.  आर्थिक हितों की रक्षार्थ गठन,
  3.  लोकतन्त्रीय सिद्धान्त के आधार पर संचालन,
  4. सामूहिक प्रयासों द्वारा सामूहिक कल्याण तथा
  5. न्यायपूर्ण आधार पर लाभों का वितरण।।

प्रश्न 3
सहकारिता को परिभाषित कीजिए तथा उसकी चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सहकारिता ऐसे व्यक्तियों का ऐच्छिक संगठन है, जो समानता, स्व-सहायता तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर सामूहिक हितों के लिए कार्य करता है। सहकारिता की चार विशेषताएँ हैं

  1. यह एक ऐच्छिक संगठन है,
  2. यह लोकतन्त्रात्मक संगठन है,
  3. इसका प्रमुख उद्देश्य सेवा है न कि लाभ कमाना तथा
  4. यह समानता को बढ़ावा देती है।।

प्रश्न 4
पाँच प्रकार की सहकारी समितियों के नाम बताइए।
या
किन्हीं दो सहकारी समितियों के नाम लिखिए।
उत्तरं:
पाँच प्रकार की सहकारी समितियाँ निम्नलिखित हैं

  1.  सहकारी साख समितियाँ,
  2. बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ,
  3. सहकारी बुनकर समितियाँ,
  4. सहकारी औद्योगिक समितियाँ तथा
  5. सहकारी उपभोक्ता समितियाँ (भण्डार)।।

प्रश्न 5
सहकारी उद्योग समितियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? [2007]
उत्तर:
ग्रामीण कुटीर उद्योग एवं अन्य उद्योगों को बढ़ावा देने, उनसे सम्बन्धित कच्चा माल एवं मशीनें उपलब्ध कराने आदि की दृष्टि से भी सहकारी समितियों की स्थापना की गयी है। 30 जून, 1997 तक देश में कुल 67,449 औद्योगिक सहकारी समितियाँ थीं जिनकी सदस्य संख्या 54.12 लाख थी। वर्ष 1996-97 में इन समितियों ने ₹ 2,532.27 करोड़ का कारोबार किया। जुलाहों एवं बुनकरों के लिए माल की सुविधाएँ जुटाने एवं बिक्री के लिए सहकारी बुनकर समितियाँ बनायी गयी हैं। चमड़ा रेंगने, मिट्टी के बर्तन बनाने, फल व सब्जी को डिब्बों में बन्द करने एवं साबुन, तेल, गुड़ और ताड़ उद्योगों से सम्बन्धित सहकारी समितियाँ भी स्थापित की गयी हैं। सन् 1966 में राष्ट्रीय औद्योगिक सहकारी संघ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य सहकारी समितियों के उत्पादों की बिक्री में सहायता करना है।

प्रश्न 6
दुग्ध वितरण सहकारी समितियों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
दूध, मक्खन और घी की सुविधाएँ जुटाने के लिए सहकारी डेयरी समितियों की स्थापना की गयी है। ये समितियाँ किसानों को अधिक दूध उत्पन्न करने और आय बढ़ाने की सुविधाएँ प्रदान करती हैं। 30 जून, 1997 में 67,121 प्राथमिक दुग्ध आपूर्ति सहकारी समितियाँ थीं, जिनकी सदस्य-संख्या 84.5 लाख थी। सन् 1970 में डेयरी सहकारी समितियों का एक राष्ट्रीय परिसंघ बनाया गया, जिसका मुख्यालय आनन्द में है।

प्रश्न 7
सहकारी विपणन समितियों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने की दृष्टि से सहकारी विपणन समितियों की स्थापना की गयी है। भारतीय किसानों को उनकी अज्ञानता एवं गरीबी के कारण उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। वे न तो माल के गुण जानते हैं और न ही मण्डियों तक ले जाने में सक्षम होते हैं। उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए दलाल एवं महाजन उनसे कम कीमत पर माल खरीद लेते हैं। सहकारी विक्रय समितियों की स्थापना इस ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो किसानों की दलालों से रक्षा करती हैं और उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाती हैं। ‘सहकारी विपणन निगम इस प्रकार की समितियों को कई सुविधाएँ भी उपलब्ध कराता है।

प्रश्न 8
सहकारी उपभोक्ता भण्डारों के क्या उद्देश्य होते हैं ? [2009]
उत्तर:
सहकारी उपभोक्ता भण्डारों के उद्देश्य हैं

  1.  उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर शुद्ध वस्तुएँ उपलब्ध कराना,
  2. मध्यस्थों के अनावश्यक लाभ समाप्त करना,
  3.  उचित वितरण प्रणाली स्थापित करना,
  4. मूल्य वृद्धि को रोकने में सहायता देना तथा
  5. उपभोक्ताओं में एकता की भावना उत्पन्न करना।

प्रश्न 9
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के दो कार्यों को लिखिए। [2007, 10]
या
ग्रामीण भारत में सहकारी समितियों के किन्हीं दो उपयोगी योगदानों को बताइए। [2009, 10, 11]
उत्तर:
ग्रामीण समाज में सहकारी समितियों के निम्नलिखित दो कार्य हैं

1. ग्रामीण कृषि व्यवसाय में सुधार करना – सहकारी संयुक्त कृषि समितियों, सहकारी सामूहिक समितियों तथा सहकारी काश्तकार समितियों आदि के द्वारा ग्रामीण कृषि व्यवसाय में सुधार करने के प्रयास किये जाते हैं।

2. कारीगरों, श्रमिकों एवं उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाना – सहकारी समितियाँ केवल कृषकों को लाभ नहीं पहुँचाती, अपितु इनसे कारीगरों, श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं को भी लाभ होता है।

प्रश्न 10
साख सहकारिताओं से आप क्या समझते हैं ? [2007, 14]
उत्तर:
ग्रामीण ऋणग्रस्तता को समाप्त करने के लिए ‘सहकारी ऋण समितियाँ अधिनियम पारित किया गया। इस समय विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियाँ देश में कार्यरत हैं, जिनमें सहकारी साख समितियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

  1. प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ – ये प्रमुख सहकारी साख समितियाँ हैं, जिनका मुख्य कार्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें ऋण उपलब्ध कराना है। लगभग
    10 करोड़ कृषक इन समितियों के सदस्य हैं।
  2. सहकारी भूमि विकास बैंक – यह भी एक सहकारी साख समिति है, जिसका उद्देश्य कृषकों को लम्बी अवधि के लिए कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना है। इसकी लगभग 1,700 शाखाएँ हैं। इसके अन्तर्गत केन्द्रीय विकास बैंक तथा प्राथमिक भूमि विकास बैंक किसानों की भूमि रहन रखकर ऋण उपलब्ध कराते हैं।

प्रश्न 11
सहकारी समितियों के असन्तोषजनक कार्यों के चार कारकों को लिखिए। [2013]
उत्तर:
सहकारी समितियों के असन्तोषजनक कार्यों के चार कारक निम्नलिखित हैं

  1. सहकारी समितियों के प्रबन्धकों ने अधिक कुशलता से कार्य नहीं किया है।
  2. सहकारी आन्दोलनों को सफल बनाने के लिए सरकार ने पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं करायी है।
  3. सरकार के विभिन्न विभागों में सहकारिता आन्दोलन को सफल बनाने के लिए जरूरी सामंजस्य का अभाव रहा है।
  4.  सहकारी समितियों के चुनावों ने ग्रामीणों में गुटबन्दी को उत्साहित कर इसके प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में बाधा डाली है।

प्रश्न 12
भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति के दो कारण बताइए। [2016]
उत्तर:
भारत में सहकारी आन्दोलन की मन्द गति के दो कारण निम्नलिखित हैं

  1.  भ्रष्टाचार – यह सहकारी समितियों की प्रमुख समस्या है। इन समितियों के सदस्य निजी स्वार्थों की पूर्ति के कारण अपनी जिम्मेदारियों का सही प्रकार से निर्वहन नहीं करते हैं।
  2.  सदस्यों में बचत की आदत का अभाव – जब तक सदस्यों में बचत की आदत को विकसित नहीं किया जाएगा, तब तक सहकारी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता है।

प्रश्न 13
साख समितियों से आप क्या समझते हैं? [2012]
उत्तर:
सहकारी साख समितियाँ – सहकारी साख समितियों का गठन ग्रामवासियों को ऋणग्रस्तता से छुटकारा दिलाने के लिए किया गया है। इन समितियों द्वारा ग्रामवासियों को ऋण, चिकित्सा इत्यादि की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। सहकारी साख समितियों अनेक प्रकार की होती हैं, जिनमें प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ तथा सहकारी भूमि विकास बैंक प्रमुख हैं। कृषि ऋण समितियाँ किसानों को ऋण उपलब्ध कराने का कार्य करती हैं, जबकि विकास ऋण पुराने ऋण चुकाने, कृषि में सुधार करने, अतिरिक्त सिंचाई साधन जुटाने हेतु दीर्घकालीन ऋण उपलब्ध कराती है। सहकारी भूमि विकास बैंक दो प्रकार के होते हैं केन्द्रीय भूमि विकास बैंक तथा प्राथमिक भूमि विकास बैंक। पहले प्रकार के बैंक राज्य स्तर पर गठित किए जाते हैं, जबकि द्वितीय प्रकार के बैंक ग्राम स्तर पर होते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सहकारिता का मुख्य आधार क्या है? [2012, 14]
उत्तर:
पारस्परिक जन सहयोग।

प्रश्न 2
भारत में सहकारी समितियाँ अधिनियम (को-ऑपरेटिव सोसाइटीज ऐक्ट) कब पारित हुआ था ? [2007]
उत्तर:
भारत में सहकारी समितियाँ अधिनियम 1912 ई० में पारित हुआ था।

प्रश्न 3
सहकारी साख-समितियाँ कितने प्रकार की होती हैं ? उनके नाम बताइए।
उत्तर:
सहकारी साख-समितियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. अल्पावधि ऋण देने वाली; जैसे‘प्राथमिक कृषि ऋण-समिति’ तथा
  2.  लम्बी अवधि के लिए ऋण देने वाली; जैसे ‘सहकारी भूमि विकास बैंक’।

प्रश्न 4
बहु-उद्देशीय सहकारी समितियाँ क्या होती हैं ?
उत्तर:
जो सहकारी समितियाँ अपने सदस्यों के साथ कई उद्देश्यों या आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, वे बहुउद्देशीय सहकारी समितियाँ कहलाती हैं; जैसे – सदस्यों के हितार्थ ऋण, विपणन, खाद, बीज आदि की व्यवस्था।

प्रश्न 5
कृषि के क्षेत्र में सहकारिता के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
कृषि क्षेत्र में सहकारिता के दो लाभ ये हैं

  1. खेती करने की विधियों में सुधार तथा
  2. कृषि-वस्तुओं की बिक्री-व्यवस्था में सुधार।

प्रश्न 6
कृषि-कार्यों के लिए नलकूप तथा कुएँ लगाने के लिए ऋण कौन-सी समितियाँ देती
उत्तर:
कृषि-कार्यों के लिए नलकूप तथा कुएँ लगाने के लिए ऋण सहकारी सिंचाई समितियाँ देती हैं।

प्रश्न 7
सहकारी आन्दोलन की सफलता किस बात पर निर्भर है ?
उत्तर:
सहकारी आन्दोलन की सफलता जन-सहयोग पर निर्भर है।

प्रश्न 8
किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने का काम कौन-सी सहकारी समितियाँ करती हैं ?
उत्तर:
किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने का काम सहकारी विपणन (विक्रय) समितियाँ करती हैं।

प्रश्न 9
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को किन कार्यों के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं ?
उत्तर:
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को भूमि-सुधार, पुराने ऋणों को चुकाने एवं सिंचाई की सुविधा प्राप्त करने के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारत में सहकारिता का प्रारम्भ निम्नलिखित में से किस वर्ष में हुआ ?
(क) सन् 1902 में
(ख) सन् 1904 में
(ग) सन् 1905 में
(घ) सन् 1907 में

प्रश्न 2
निम्नलिखित में से किसका सम्बन्ध सहकारिता से नहीं है ?
(क) सामाजिक संगठन
(ख) ऐच्छिक संगठन
(ग) लाभ का वितरण
(घ) सदस्यों का आर्थिक कल्याण

प्रश्न 3
किसानों के लिए अच्छे बीजों और उपकरणों की सुविधा कौन-सी समिति द्वारा दी जाती है?
(क) विक्रय समिति
(ख) औद्योगिक समिति
(ग) कृषि समिति
(घ) उपभोक्ता समिति

प्रश्न 4
सहकारी भूमि विकास बैंक किसानों को कौन-सा ऋण देने का कार्य करते हैं ?
(क) आवश्यकतानुसार
(ख) मध्यकालीन
(ग) अल्पकालीन
(घ) दीर्घकालीन

प्रश्न 5
प्रत्येक सबके लिए तथा सब प्रत्येक के लिए यह किसका मूल मंत्र है? [2012]
(क) श्रम दान का
(ख) भूदान का
(ग) सहकारिता का
(घ) इन सभी का

प्रश्न 6
ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक आवास प्रदान करने के लिए ‘समग्र आवास योजना’ कब प्रारम्भ की गयी।
(क) 1998 ई० में
(ख) 1999 ई० में
(ग) 2000 ई० में
(घ) 2001 ई० में

प्रश्न 7
भारत में सहकारी आन्दोलन का प्रमुख दोष है
(क) सरकारी सहायता पर निर्भरता
(ख) मूल्यों में वृद्धि
(ग) मध्यस्थों का अन्त
(घ) लाभ का समान वितरण

उत्तर:
1. (ख) सन् 1904 में,
2. (क) सामाजिक संगठन,
3. (ग) कृषि समिति,
4. (घ) दीर्घकालीन,
5. (ग) सहकारिता का,
6. (ख) 1999 ई० में,
7. (क) सरकारी सहायता पर निर्भरता।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 18 Co-operation and Rural Society (सहकारिता एवं ग्रामीण समाज) help you.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *