UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning (अधिगम या सीखना)
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning (अधिगम या सीखना)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
अधिगम अथवा सीखने (Learning) से आप क्या समझते हैं? सीखने की प्रक्रिया में सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने (अधिगम) का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। सीखने की अनुकूल परिस्थितियों अथवा सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने या अधिगम का अर्थ । सीखना जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौम क्रिया है जो हमारे ज्ञान में निरन्तर वृद्धि करती है। मनुष्य शैशवकाल से मृत्यु तक जाने-अनजाने, औपचारिक-अनौपचारिक साधनों से नयी-नयी बातें सीखने की प्रवृत्ति रखता है। सीखने की प्रक्रिया में मानव एवं पशु अपने पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाते हैं। वस्तुत: पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाने की क्रिया को ही हम सीखना कहते हैं।
दूसरे शब्दों में, अतीत से लाभ उठाना तथा अपनी प्रक्रियाओं को उपयुक्त बनाना ही सीखना (Learning) है। उदाहरण के लिए, आग से जला हुआ बच्चा दोबारा आग के पास नहीं जाता, क्योंकि अनुभव ने उसे सिखा दिया है कि आग उसे जला देगी; अतः वह सीख गया है कि आग से दूर रहना चाहिए। सीखने की क्रिया द्वारा मनुष्य के मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार में इतना परिवर्तन आ जाता है कि आगे चलकर मूल प्रवृत्तियों के असली रूप को पहचानना ही दूभर हो जाता है। इस प्रकार सीखने से हमारा तात्पर्य पर्यावरण के प्रति उपयुक्त प्रतिक्रिया को अपनाने की प्रक्रिया अर्जित करने से है। सीखने का एक नाम ‘अधिगम’ भी है।
सीखने की परिभाषा
अनेक विद्वानों ने सीखने की परिभाषाएँ दी हैं। प्रमुख विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
- क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना आदतों, ज्ञान तथा अभिवृत्तियों को अर्जन है।”
- गेट्स एवं अन्य के अनुसार, “अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसी को सीखना कहते हैं।”
- वुडवर्थ के अनुसार, “सीखना वह कोई भी क्रिया है जो बाद की क्रिया पर अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव डालती है।”
- चार्ल्स स्किनर के अनुसार, “सीखना, प्रगतिशील रूप से व्यवहार को ग्रहण करने की प्रक्रिया है।”
- कॉलविन के अनुसार, “अनुभव द्वारा पहले से बने बनाये (अर्थात् मौलिक) व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।”
- बर्नहर्ट के अनुसार, “सीखना व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी रूपान्तर लाना है जो निश्चित परिस्थितियों में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने या किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा किया जाता है।”
- बी०एन० झा के शब्दों में, “उपयुक्त अनुक्रिया अर्जित करने की प्रक्रिया ही सीखना है।”
- हिलगार्ड के अनुसार, “सीखना वह क्रिया है जिससे कि कोई क्रिया प्रारम्भ होती है अथवा जो किसी परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करने के कारण परिवर्तित होती है; शर्त यह है कि इस प्रकार के परिवर्तन की विशेषताओं की व्याख्या जन्मजात प्रतिक्रिया, प्रवृत्तियों, परिपक्वता अथवा प्राणी की अस्थायी अवस्थाओं द्वारा नहीं की जा सके।”
विभिन्न सम्प्रदायों की दृष्टि में सीखना
मानव स्वभाव के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से मनोविज्ञान के विभिन्न सम्प्रदायों का विकास हुआ। इन सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार सीखने की प्रक्रिया को समझाया है।
व्यवहारवाद के अनुसार, “सीखना मानव-व्यवहार में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।” प्रयोज़ावाद की दृष्टि में, “सीखना मानव-जीवन के लक्ष्य (प्रयोजन) से सम्बन्धित है तथा यह लक्ष्योन्मुख उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।’ गैस्टाल्टवाद स्वीकार करता है, “मानव सम्पूर्ण परिस्थिति से सम्बन्ध स्थापित करके सीखता है। वह सीखे गये ज्ञान को अपने पूर्व-अनुभव से जोड़कर आत्मसात् करता है।
निष्कर्षतः सीखना या अधिगम मनुष्य द्वारा वातावरण से समायोजन स्थापित करने की, जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। सीखना वस्तुतः एक प्रकार का मानसिक विकास है जिससे मानव का ज्ञानवर्द्धन होता है तथा उसकी विविध मानसिक प्रक्रियाओं का विकास होता है। विश्व के सभी प्राणी थोड़ी या अधिक, किन्तु हरदम कुछ-न-कुछ सीखते ही रहते हैं।
सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक
सीखने की सफलता कुछ विशेष परिस्थितियों अथवा कारकों पर निर्भर करती है जिन्हें हम सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक कहते हैं। ये परिस्थितियाँ अथवा कारक निम्नलिखित हैं
(1) शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य- सीखने की तीव्रता व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा न होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं कर पातीं, व्यक्ति रुचि लेकर कार्य नहीं करता और जल्दी ही थक जाता है। जो व्यक्ति देखने, सुनने, बोलने आदि क्रियाओं में निर्बल होते हैं, वे सीखने में पर्याप्त उन्नति नहीं कर पाते। वस्तुत: सीखने की प्रक्रिया का भौतिक और शारीरिक आधार स्नायु-संस्थान है। स्नायु-संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क और स्नायु आते हैं जिनके कार्य करने की शक्ति पर सीखने की प्रक्रिया निर्भर करती है। मस्तिष्क और स्नायु की शक्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्पष्टतः सीखने की क्रिया शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य से सीधे रूप में प्रभावित होती है।
(2) आयु– आयु का सीखने से गहरा सम्बन्ध है। आयु बढ़ने से सीखने की योग्यता क्यों कम हो। जाती है, इस संम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि आयु वृद्धि के कारण कुछ परिवर्तन आते हैं; जैसे-नाड़ी-मण्डल में विकार आ जाता है, उत्साह फीका पड़ने लगता है, विविध कार्यों में व्यस्तता के कारण अरुचि हो जाती है तथा व्यक्ति पर्याप्त रूप से श्रम नहीं कर पाता। हालाँकि, आयु बढ़ने के साथ-साथ अनुभव बढ़ता है, किन्तु सीखने की योग्यता घटती जाती है। प्रौढ़ों की अपेक्षा बालक जल्दी सीखते हैं। इसका कारण यह है कि बालकों का मस्तिष्क संसार की समस्याओं के बोझ से मुक्त रहता है, उनका नाड़ी-मण्डल अधिक स्वस्थ एवं लचीला होता है और जिज्ञासावश वे अधिक रुचि लेते हैं। सच तो यह है कि सीखना एक प्रगतिशील क्रिया है जिसे जीवन की किसी भी अवस्था में शुरू किया जा सकता है। केवल रुचि, अवधान, निष्ठा एवं श्रम की आवश्यकता है।
(3) उपयुक्त वातावरण– उपयुक्त वातावरण सीखने की प्रक्रिया में सहायक होता है। यदि वातावरण शान्त, सुन्दर, स्वस्थ तथा खुला होगा तो उससे मन को एकाग्र करने में सहायता मिलेगी। शोर-शराबे से युक्त, दूषित, गर्म तथा घुटन-भरे वातावरण में बालक तत्परता से नहीं सीख पाएगा। वह जल्दी थकान अनुभव करेगा और आलस्य के कारण झपकी मारने लगेगा। |
(4) प्रेरणा- सीखने में प्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सीखने में उन्नति लाने की दृष्टि से उसे प्रेरणायुक्त एवं प्रयोजनशील बना देना चाहिए। प्रेरणायुक्त व्यवहार उत्साह के कारण सीखने की प्रक्रिया को तीव्र कर देता है; अतः तीव्र प्रेरणा से सीखने की गति में तीव्रता आती है। प्रेरणा का सम्बन्ध लक्ष्य या प्रयोजन से है। यदि सीखने का लक्ष्य अच्छा है तो व्यक्ति उसे शीघ्र सीखने के लिए प्रेरित होता है। अतएव, सीखने की प्रक्रिया को त्वरित करने के लिए उसे उद्देश्यपूर्ण एवं प्रेरणायुक्त कर देना उचित है।
(5) रुचि- सीखने में रुचि का होना आवश्यक है। कोई कार्य सीखने या सिखाने से पहले व्यक्ति को उस कार्य में रुचि पैदा करनी चाहिए। रुचि लेकर किया गया कार्य शीघ्र होता है। रुचि एक प्रकार की आन्तरिक प्रेरणा है जो व्यक्ति को निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायता करती है तथा रुचि का सम्बन्ध इच्छाओं और उद्देश्यों से है। बालक की सीखने में रुचि तभी होगी जबकि सीखने की सामग्री उसके उद्देश्य एवं इच्छा से सम्बन्धित होगी। अतः बालक में सीखने के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए इन सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(6) अवधान- अवधान सीखने की एक आवश्यक शर्त तथा अनुकूल दशा है। सीखने के दौरान, विविध साधनों के माध्यम से व्यक्ति के अवधान को विषय-सामग्री में केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए। शान्त भाव से विषय में केन्द्रित अवधान सीखने की प्रक्रिया को तीव्र करता है।
(7) तत्परता- सीखने-सिखाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पहले व्यक्ति में तत्परता का गुण होना आवश्यक है। सीखने की तीव्र इच्छा के साथ, सीखने के लिए तत्पर बच्चे शीघ्रतापूर्वक सीखते हैं। इसके विपरीत इच्छा एवं तत्परता के अभाव में सीखने की क्रिया न केवल अधिक समय लेती है बल्कि इस भाँति सीखा गया विषय स्थायी प्रकृति का भी नहीं होता।
(8) समय- किसी कार्य को लगातार लम्बे समय तक करने से थकान तथा ऊब पैदा होती है। थके हुए मस्तिष्क से सीखी गयी बातों का मस्तिष्क पर अच्छा असर नहीं पड़ता है। यही कारण है कि दीर्घ काल के अन्तिम भाग में सीखा गया ज्ञान समझ से बाहर होता जाता है। सीखने की क्रिया को सार्थक बनाने की दृष्टि से शिक्षार्थियों को थोड़ी-थोड़ी देर का अन्तर करके याद करना चाहिए। इससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावकारी व उपयोगी बनती है।
(9) सीखने की विधि– सीखने की विधि की उपयुक्तता सीखने की सहायक दशा है। सीखने की अच्छी एवं उपयुक्त विधि मनोवैज्ञानिक एवं अर्थपूर्ण ढंग की तार्किक विधि होती है। यह विधि, विषय-सामग्री और बालक की बुद्धि व सीखने के लिए उपलब्ध समय को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।’
(10) करके सीखना– वर्तमान समय में सभी शिक्षा प्रणालियाँ ‘करके सीखना’ (Learning by doing) पर बल देती हैं। स्वयं करके सीखने से बालक का ध्यान सम्बन्धित कार्य में लम्बे समय तक केन्द्रित रहता है और वह द्रुत गति से सीखता है।
(11) सफलता का ज्ञान- सीखने वाले को सफलता का ज्ञान होने से प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि सीखने वाले व्यक्ति को समय-समय पर यह अहसास कराया जाता रहे कि उसे कार्य में सफलता मिल रही है तो वह अधिक उत्साह के साथ करने लगता है। अतः सीखने की प्रक्रिया में सफलता का ज्ञान कराते रहना चाहिए।
(12) अभ्यास- सीखने में वांछित उन्नति के लिए विषय का निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अभ्यास की अवधि न तो बहुत कम हो और न ही बहुत अधिक। मनोवैज्ञानिकों ने तीस मिनट की अभ्यास अवधि को सभी प्रकार से यथोचित बताया है। सीखी गयी बात को पुष्ट करने के लिए अभ्यास आवश्यक है। अतः पाइल (Pile) का यह कथन उचित ही है कि प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना चाहिए।
(13) प्रतिस्पर्धा- सीखने वालों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की भावना जाग्रत होने पर वे और अधिक सीखने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा का विचार व्यक्ति को एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए प्रेरित करता है; अतः शिक्षक को शिक्षार्थियों में प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा करते। रहना चाहिए।
(14) पुरस्कार और प्रशंसा– पुरस्कृत व्यक्ति सीखने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित होता है। समय-समय पर प्रशंसा या पुरस्कार का विचार सीखने में सहायक सिद्ध होता है। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बड़े लड़कों तथा मन्दबुद्धि बालकों पर प्रशंसा का अधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु लड़कियों पर लड़कों की अपेक्षा प्रशंसा या निन्दा का कम प्रभाव पड़ता है।
(15) दण्ड और निन्दा- यद्यपि दण्ड सीखने की क्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं तथापि बालकों को गलत कार्यों से रोकने के लिए दण्ड का प्रयोग करना ही पड़ता है। बालक के बुरे कार्यों की निन्दा की जानी चाहिए। तीव्र बुद्धि बालक पर निन्दा का अच्छा प्रभाव देखा गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि निन्दा, फल की अवहेलना से अधिक उत्साहवर्द्धक होती है।
उपर्युक्त अनुकूल दशाओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को । व्यवस्थित किया जाएगा तो निश्चय ही, सीखने की प्रक्रिया तीव्र, प्रभावकारी एवं स्थायी होगी।
प्रश्न 2
सीखने की विभिन्न विधियाँ क्या हैं? सोदाहरण समझाइए।
या
प्रमुख अधिगम विधियों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर
सीखने की विधि का अर्थ सीखने की विधि या अधिगम विधि से अभिप्राय उस प्रविधि से है जो किसी भी पाठ्य-सामग्री को सीखने के लिए अपनायी जाती है। सीखने की विधि तथा इससे सम्बन्धित कारक अधिगम (सीखना) को पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं; क्योंकि सीखने की विधियाँ सिर्फ मानवीय अधिगम क्षेत्र में ही प्रयोग की जाती हैं; अतः इनकी प्रधान एवं विशिष्ट भूमिका मानवीय अधिगम के सम्बन्ध में ही है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर पता चलता है कि अलग-अलग तरह से सीखने के कार्यों में अलग-अलग प्रकार की अधिगम/सीखने की विधियाँ प्रयुक्त होती हैं।
सीखने की विधियाँ सीखने की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जिनमें से मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन की प्रमुख चार विधियों को अधिक उपयोगी माना है। ये विधियाँ इस प्रकार हैं-
- अविराम तथा विराम विधि
- पूर्ण तथा अंश विधि
- साभिप्राय तथा प्रासंगिक विधि और
- सक्रिय सीखना तथा निष्क्रिय सीखना। इन विधियों की व्याख्या निम्नलिखित हैं-
(1) अविराम तथा विराम विधि (Massed Method and Spaced Method)– अविराम विधि, सीखने की एक ऐसी विधि है जिसमें किसी पाठ्य-सामग्री/पाठ को सीखते समय किसी तरह का विश्राम नहीं दिया जाता और सीखने के लिए जो समय तय होता है, व्यक्ति उसमें एक ही सत्र में अविराम (लगातार) कार्य करके सीखता रहता है। इसे संकलित विधि भी कहा जाता है। विराम विधि, जिसे वितरित विधि भी कहते हैं, किसी पाठ्य-सामग्री को विश्राम सहित तथा वितरित प्रयासों के द्वारा अलग-अलग सत्रों में सीखा जाता है। यदि कोई व्यक्ति लगातार दो घण्टे तक बैठकर एक ही सत्र में अपना पाठ याद करता है और इस बीच विश्राम नहीं करता, तो यह अविराम या संकलित विधि कही जाएगी; किन्तु यदि उसे बिना विश्राम किये पढ़ने में थकान या ऊब महसूस हो तो वह विराम या वितरित विधि का सहारा ले सकता है। वह पहले एक घण्टा पढ़ सकता है और पन्द्रह मिनट विश्राम के बाद फिर एक घण्टा पढ़ सकता है। इस भाँति, विश्राम के साथ एक से ज्यादा सत्रों में सीखने की विधि विराम विधि है।।
(2) पूर्ण तथा अंश विधि (Whole Method and Part Method)- अधिगम अर्थात् सीखने को संगठित तथा सुगम बनाने वाली दूसरी विधि पूर्ण तथा अंश विधि है। जब व्यक्ति पूरे कार्य को एक साथ करके सीखता है तो उसे पूर्ण विधि कहते हैं और जब वह पूरे कार्य को कई खण्डों/अंशों में बाँटकर प्रत्येक अंश को एक-दूसरे के बाद सीखता है तो उसे अंश विधि कहा जाता है। पूर्ण विधि में पाठ्य-सामग्री को आरम्भ से अन्त तक एक बार दोहरा लेने के बाद उसे फिर से दोहराकर अधिगम किया जाता है, किन्तु अंश विधि में पहले सम्पूर्ण पाठ्य-सामग्री को कुछ अंशों में बाँट लिया जाता है।
और फिर प्रत्येक अंश का अलग-अलग अधिगम करने के बाद सभी अंशों को एक साथ अधिगम कर लिया जाता है। पूर्ण विधि में 10 पृष्ठों के एक प्रश्नोत्तर को पहली पंक्ति में अन्तिम पंक्ति तक लगातार अनेक बार पढ़कर सीखा जाता है, किन्तु अंश विधि में इन 10 पृष्ठों की पाठ्य-सामग्री को सुविधानुसार कुछ अंशों में बाँटकर याद किया जाता है।
(3) साभिप्राय तथा प्रासंगिक विधि (Intentional Learning Method and Incidental Learning Method)- साभिप्राय विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छा तथा निश्चित उद्देश्य के साथ किसी कार्य या पाठ को सीखता है, जबकि प्रासंगिक विधि में व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को स्वयं ही सीख जाता है-उसमें कार्य को सीखने की कोई इच्छा या उद्देश्य नहीं होता। यदि बालक अभिरुचि एवं निश्चित उद्देश्य के साथ पाठ याद करे; जैसे कि उस पाठ की परीक्षा में आने की अत्यधिक सम्भावना है तो इस प्रकार सीख जाना साभिप्राय सीखने की विधि का उदाहरण है; किन्तु निरुद्देश्य एवं बिना अभिरुचि के स्वत: ही सीख जाना प्रासंगिक विधि में आता है; जैसे किसी कैलेण्डर में दिन व दिनांक देखते-देखते व्यक्ति को उसे पर छपा विज्ञापन याद हो जाता है।
प्रयोगात्मक अध्ययन बताते हैं कि साभिप्राय विधि द्वारा सीखना, प्रासंगिक विधि द्वारा सीखने से अधिक अच्छा व उपयोगी है; क्योंकि इस तरह के सीखने में व्यक्ति की अभिरुचि तथा अभिप्रेरणा अधिक रहती है और वह सीखे गये कार्य को अधिक समय तक याद रख सकता है। आमतौर पर हम पाते हैं कि व्यक्ति उद्देश्य एवं अभिरुचि के साथ कार्य जल्दी सीख जाता है और उसका प्रभाव भी देर तक बना रहता है, किन्तु वह निरुद्देश्य तथा बिना रुचि के कार्य ढंग से नहीं सीख पाता। |
(4) सक्रिय सीखना तथा निष्क्रिय सीखना (Active Learning and Passive Learning)- अधिगम की एक विधि सक्रिय एवं निष्क्रिय विधि भी है। जब व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को काफी तत्परता तथा सक्रियता के साथ सीखता है, सामग्री को बोल-बोलकर कण्ठस्थ करता है या उसे लिखता है तो इस तरह के सीखने को सक्रिय सीखना कहते हैं। | इस विधि का एक नाम मौखिक आवृत्ति विधि (Recitation Method) भी है। ह्विटेकर (Whittaker) नामक मनोवैज्ञानिक ने सक्रिय सीखने को परिभाषित किया है कि इसमें व्यक्ति
आत्म-परीक्षण (Self-testing) द्वारा या बोलकर या लिखकर किसी पाठ को सीखता है और उसे याद करता है। निष्क्रिय विधि में व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को मन-ही-मन पढ़कर कण्ठस्थ करता है। और आराम से लेटकर या आराम कुर्सी पर बैठकर शुरू से आखिर तक पढ़कर सीखता है।
परीक्षा के दिनों में बच्चे प्रश्न के उत्तरों को सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि बीच-बीच में पढ़ना बन्द करके सामग्री को बोलने की कोशिश करते हैं या उसे लिखकर जाँच करते हैं कि वे कार्य या पाठ को अच्छी तरह सीख गये हैं या नहीं-यह सक्रिय विधि द्वारा सीखना है। किन्तु आमतौर पर जब बच्चे बिस्तर पर लेटकर या आरामकुर्सी पर बैठकर किसी प्रश्न का उत्तर पढ़कर सीखने का प्रयास करते हैं। तो यह निष्क्रिय विधि द्वारा सीखने का उदाहरण होगा।
प्रश्न 3
अनुकरण से आप क्या समझते हैं? अनुकरण की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। अनुकरण द्वारा सीखने को प्रभावित करने वाले आधारभूत कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने में अनुकरण की क्या भूमिका है? अनुकरण की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर।
अनुकरण का अर्थ और परिभाषा | अनुकरण (Imitation) सीखने की एक प्रमुख विधि है जिसे मानव-जाति के बालकों व वयस्कों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों द्वारा भी बहुतायत से अपनाया जाता है।
अनुकरण का सामान्य अर्थ है देखकर या सुनकर कार्य करने की विधि अथवा ‘नकल के माध्यम से सीखना। जब कोई प्राणी किसी अन्य प्राणी को देखकर या उसकी नकल करके किसी विशिष्ट क्रिया को सीखता है तो उसे अनुकरण द्वारा सीखना कहा जाता है। अनुकरण पशु, पक्षी और नुष्यों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह जन्मजात प्रवृत्ति प्रत्येक प्राणी में मिलती है। बच्चों में भी अनुकरण की तीव्र एवं प्रबल प्रवृत्ति मिलती है।
मैक्डूगल ने अनुकरण को इस प्रकार परिभाषित किया है, “अनुकरण एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार की नकल करने को कहते हैं।”
अनुकरण विधि की विशेषताएँ
हम किसी भाषा को बोलना, चलना-फिरना तथा सामान्य जीवन की असंख्य बातें अनुकरण द्वारा ही सीखते हैं। वस्तुतः सीखने की दिशा में मनुष्यों तथा पशुओं द्वारा यही विधि सर्वाधिक अपनाई जाती है।
अनुकरण विधि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- अनुकरण करते समय अनुकरणकर्ता को प्रायः सोच-विचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
- अनुकरणकर्ता के लिए अनुकरण की जाने वाली क्रिया सर्वथा नयी होती है, वह उस क्रिया से परिचित नहीं होता।
- अनुकरण की विधि के अन्तर्गत क्रिया प्रदर्शन पर आधारित होती है।
- अनुकरण करने वाला अनुकरणीय क्रिया को देखते या सुनते ही तत्काल उसकी नकल करना प्रारम्भ कर देता है, वह सीखने की अन्य विधियों का प्रयोग नहीं करता।
- अनुकरण के सिद्धान्तानुसार क्रिया का जटिल होना आवश्यक समझा जाता है।
- अनुकरण में त्रुटियों की बहुत कम सम्भावनाएँ निहित हैं।
- मौलिकता के अभाव के कारण इसके अन्तर्गत क्रिया का स्वरूप अपरिवर्तनीय रहता है।
- अनुकरण योग्य कार्य की कठिनाई व्यक्ति की क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप होनी चाहिए
निष्कर्षत: अनुकरण आत्माभिव्यक्ति (Self-expression) का सशक्त साधन है। इसका उपयोग नृत्य, संगीत तथा खेल आदि के शिक्षण में महत्त्वपूर्ण है। अच्छी आदतों का निर्माण अनुकरण के माध्यम से होता है। अनुकरण से स्पर्धा की भावना जन्म लेती है और बालक का विकास तीव्र गति से होता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य सामाजिक व्यवहार अनुकरण के माध्यम से ही सीखता है।
अनुकरण द्वारा सीखने को प्रभावित करने वाले आधारभूत कारक
अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया को अनेक आधारभूत कारक प्रभावित करते हैं। इनमें प्रमुख कारकों का विवरण निम्नलिखित है|
(1) अभिप्रेरणा- अधिगम या सीखने पर अभिप्रेरणा का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि अनुकरण द्वारा सीखने वाला व्यक्ति या प्राणी अभिप्रेरित नहीं होगा तो सीखने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। प्रायः बच्चे प्रतिभाशाली बच्चों की उपलब्धियों से प्रेरित होकर उनका अनुकरण करते हैं और परिणामत: अधिक लगन से सीखने में जुट जाते हैं। पशु के सीखने में शारीरिक अभिप्रेरणा तथा मनुष्य के सीखने में मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा का अधिक महत्त्व होता है। |
(2) अभ्यास तथा सूझ- अभ्यास से सीखने में दृढ़ता प्राप्त होती है। एक बार अनुकरण करके सीख लेने के उपरान्त उसका बार-बार अभ्यास किया जाना आवश्यक है। सीखने में अभ्यास के साथ-साथ सूझ-बूझे का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ है कि कोई कार्य जितनी ही अधिक बार किया जाता है, कार्यकुशलता और पूर्णता उतनी ही अधिक आती है। अत: अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया में सही अनुक्रियाओं को दोहराकर अभ्यास करना अपरिहार्य है।
(3) अधिगम-धारक- अनुकरण द्वारा सीखना इस बात पर भी निर्भर करता है कि अधिगम-धारक अर्थात् सीखने वाला कैसा है? पशुओं की अपेक्षा मनुष्य अनुकरण द्वारा अधिक अच्छा सीख पाते हैं। अधिगम-धारक की बुद्धि, मानसिक योग्यताएँ, भावनाएँ, इच्छाएँ तथा आकांक्षा-स्तर भी अनुकरण को प्रभावित करते हैं। निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि बुद्धि मानसिक योग्यताएँ तथा आकांक्षा का स्तर आदि अधिक मात्रा में होने पर अनुकरण द्वारा अधिगम में मात्रात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि होती है।
(4) अभिरुचि एवं अभिक्षमता- अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया पर सीखने वाले व्यक्ति की अभिरुचि एवं अभिक्षमता का प्रभाव पड़ता है। किसी कार्य को सीखने में अभिरुचि व्यक्त करने तथा उसके लिए विशेष अभिक्षमता होने पर व्यक्ति अधिक अच्छा अनुकरण कर पाता है और इस भाँति कार्य को जल्दी सीख लेता है। यदि किसी व्यक्ति में यान्त्रिक इंजीनियर बनने में अभिरुचि तथा अभिक्षमता है तो वह कार्य-प्रदर्शन के दौरान मशीन के पुर्जा तथा सम्बन्धित कार्यों को आसानी से सीख लेगा।।
(5) अधिगमधारक की बुद्धि– व्यक्ति की बुद्धि का प्रभाव अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया पर सीधा पड़ता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के परिणाम बताते हैं कि अधिक बुद्धि-लब्धि वाले बच्चों का समूह, कम बुद्धि-लब्धि वाले बच्चों के समूह की अपेक्षा कार्य का सही अनुकरण करता है और सीखने में कम त्रुटि करता है। इस प्रकार सीखने वाले की बुद्धि का स्तर अनुकरण द्वारा सीखने की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
(6) आयु– आयु भी एक ऐसा कारक है जो अनुकरण द्वारा अधिगम को प्रभावित करता है। प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि बच्चे वयस्कों की अपेक्षा अनुकरण द्वारा सबसे ज्यादा सीखते हैं। अनुकरण के दौरान किसी प्रकार के सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती और बच्चे नयी क्रिया को देखते या सुनते ही उसका अनुकरण करने लगते हैं। इसके विपरीत, वयस्क लोग अन्य विधियों के प्रयोग पर विचार कर सकते हैं।
(7) वातावरण- वातावरण से सम्बन्धित अनेक कारक अधिगम की मात्रा तथा गुण को प्रभावित करते हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि शान्त और सुखद वातावरण में अनुकरण की क्रिया प्रोत्साहित होती है, जबकि अशान्त और दु:खद वातावरण अनुकरण पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।
(8) परिपक्वता– सीखने की प्रक्रिया में अनुकरण के लिए व्यक्ति में परिपक्वता का एक निश्चित स्तर अपरिहार्य है। माना कोई बच्चा ‘अ’ लिखने का अनुकरण कर रहा है तो इसके लिए आवश्यक है कि उसके हाथ की अंगुलियाँ इतनी परिपक्व हों कि वह ठीक ढंग से कलम पकड़ सके। इसके साथ ही, उसमें मानसिक परिपक्वता भी इतनी हो कि वह अनुकरणीय वस्तु या व्यवहार की गुणवत्ता की परख कर सके।
(9) पुरस्कार- दण्ड एवं परिणामों का ज्ञान-किसी भी प्रकार की अधिगम प्रक्रिया में प्रयोज्य को यदि पुरस्कार मिलता है तो वह उस क्रिया को जल्दी सीख लेता है, जबकि दण्ड देने से सीखने सम्बन्धी कार्य में त्रुटियाँ कम होती हैं। वस्तुत: पुरस्कार-दण्ड तथा परिणामों का ज्ञाने एक प्रकार के पुनर्बलक हैं। प्रशंसा की भाँति सकारात्मक परिणामों का ज्ञान अनुकरण द्वारा सीखने को अभिप्रेरित करता है।उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि अनुकरण के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 4
प्रयत्न और भूल द्वारा सीखने का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। इसकी पुष्टि थॉर्नडाइक एवं मैक्डूगल के प्रसिद्ध प्रयोगों के माध्यम से कीजिए।
उत्तर
प्रयत्न एवं भूल विधि सीखने की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी गति से चलती है। व्यक्ति किसी भी बात या तथ्य को एकाएक ही नहीं सीख जाता। इसके लिए उसे विविध प्रयास करने पड़ते हैं। इन प्रयासों में हुई भूल को वह सुधारता है तथा फिर से प्रयास करती है। इसी विचार पर आधारित प्रयत्न और भूल’ द्वारा सीखने का सिद्धान्त है जिसे प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त या विधि को सबसे पहले थॉर्नडाइक (Thorndike) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रतिपादित किया था। प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त कहता है कि किसी कार्य को प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति शुरू में बहुत-सी भूलें या त्रुटियाँ करता है, किन्तु शनैः-शनैः प्रयत्न करते रहने पर वह अपनी भूलों को सुधार लेता है।
इसका परिणाम यह निकलता है कि गलत कार्य रुक जाता है और अन्तत: सही प्रतिक्रिया अपना ली जाती है। सीखने की प्रक्रिया के दौरान धीरे-धीरे भूलों तथा त्रुटियों की संख्या घटती जाती है और एक स्थिति ऐसी आती है जब कि वह पहले ही प्रयास में सही प्रतिक्रिया अर्थात् सही ढंग से कार्य कर लेता है। गणित की किसी नयी समस्या को हल करने वाला विद्यार्थी अनेक प्रयास और भूल करता है और इस प्रक्रिया द्वारा धीरे-धीरे एक ही बार में शुद्ध हल निकालना सीख जाता है। जब बच्चा पहली बार पैरों पर खड़ा होकर चलना सीखता है तो अनेक बार चलने के प्रयासों में वह गिरता है, पुनः सँभलकर खड़ा होता है और चलने का प्रयास करता है। अन्त में, वह बिना गिरे या लड़खड़ाये चलने लगता है।
प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त से सम्बन्धित मनोवैज्ञानिक प्रयोग
अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त से सम्बन्धित बहुत-से प्रयोग किये गये। ऐसे प्रमुख प्रयोग निम्नवत् हैं
(1) थॉर्नडाइक का बिल्ली पर प्रयोग- प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त के प्रतिपादक थॉर्नडाइक ने भ्रान्ति-सन्दूक या पिंजरे में एक भूखी बिल्ली को बन्द कर दिया। पिंजरे के बाहर बिल्ली को लुभाने के लिए एक मछली रख दी गयी। पिंजरे की बनावट इस प्रकार की थी कि भीतर स्थित एक बटन के दबाने पर पिंजरे का दरवाजा खुल जाता था। मछली को प्राप्त करने के लिए भूखी बिल्ली बाहर निकलने के लिए व्याकुल हो उठी। बिल्ली ने पिंजरे में उछलकूद मचाई, कई स्थानों पर धक्के मारे, किन्तु बाहर निकलने में सफल न हो
सकी। इसी प्रकार बार-बार प्रयत्न एवं भूल करने की क्रियाओं के कारण थोड़ी देर बाद किसी एक प्रयत्न से अनायास ही बटन दब गया और दरवाजा खुलने पर बिल्ली ने बाहर आकर मछली को ग्रहण कर लिया। अगले दिन फिर यही क्रिया दोहराई गयी जिसके विभिन्न प्रयत्नों में भूलों की कम संख्या से ही दरवाजा खुल गया। कई दिनों तक इस प्रक्रिया को दोहराया जाता रहा। देखने में आया कि हर दिन भूलों की संख्या कम और कम होती जा रही है। आखिर में एक दिन ऐसा भी आया जब बिल्ली ने एक-ही प्रयत्न में बटन दबाकर मछली ग्रहण कर ली और उसने कोई भूल नहीं की। थॉर्नडाइक ने इस प्रयोग के निष्कर्षों के आधार पर सीखने के नियम बनाकर प्रस्तुत किये।
(2) मैक्डूगल का चूहों पर प्रयोग– विख्यात मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल ने चूहों पर प्रयोग करके प्रयत्न एवं भूल विधि का सत्यापन किया। उसने एक ऐसी नाँद में चूहे बन्द किये जिसमें बाहर जाने के दो रास्ते थे। एक रास्ता अन्धकारमय और दूसरा प्रकाशमान था। प्रकाशमान रास्ते से गुजरते समय चूहों को बिजली का झटका लगता था, किन्तु अन्धकारमय रास्ते से नहीं लगता था। चूहे प्रारम्भ में प्रकाशयुक्त मार्ग को ही चुनते थे, लेकिन बिजली का झटका लगते ही वापस मुड़ जाते थे। प्रयोग के दौरान चूहों ने शुरू में अनेक बार भूलें कीं, किन्तु आखिर में अन्धकारयुक्त मार्ग से निकलना सीख लिया। इस प्रयोग को बहुत बार दोहराया गया। नाँद से बाहर आने के प्रयास में चूहों द्वारा की गयी भूलों की संख्या कम और कम होती गयी। अन्तत: वे पहले ही प्रयास में अन्धकारमय मार्ग का चयन करना सीख गये और बिना किसी कष्ट के बाहर निकल आये।।
उपर्युक्त विवरण द्वारा अधिगम की प्रयत्न एवं भूल विधि का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति एवं प्राणी अनेक विषयों को सीखने के लिए इस विधि को अपनाता है, परन्तु बच्चों तथा पशुओं द्वारा इस विधि को अधिक अपनाया जाता है।
प्रश्न 5
सूझ या अन्तर्दृष्टि विधि द्वारा सीखने के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए। अधिगम के इस सिद्धान्त की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
कोहलर द्वारा किये गये प्रयोग का विवरण प्रस्तुत करते हुए अधिगम के अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
या
अधिगम की अवधारणा को गैस्टाल्टवाद के अनुसार स्पष्ट कीजिए।
या
अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने के सम्बन्ध में कोहलर के प्रयोग का वर्णन कीजिए। (2016)
या
अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम सम्बन्धी प्रयोग एवं प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए। (2010)
उत्तर
सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त । गैस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, प्राणी अपनी सूझ या अन्तर्दृष्टि (Insight) के द्वारा ही सीख पाता है और सूझ के अभाव में वह सीखने में असफल रहता है। उविकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत सूझ निम्नस्तर के प्राणियों से उच्च स्तर के प्राणियों की ओर वृद्धि करती है। चूहे, बिल्ली, कुत्ते की अपेक्षा वनमानुष में तथा इन सबसे ज्यादा मनुष्य में सूझ पायी जाती है। सूझ के कारण ही उच्च स्तर के प्राणी जटिल कार्य करने में समर्थ होते हैं। गैस्टाल्टवादियों का कहना है कि सीखने की प्रक्रिया प्रयत्न एवं भूल अथवा सम्बद्ध प्रत्यावर्तन के अनुसार न होकर सूझ द्वारा होती है। इस विचारधारा के प्रवर्तक कोहलरे (Kohler) तथा कोफ्का (Koffka) थे।
सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना
सूझ या अन्तर्दृष्टि मनुष्य जैसे विकसित प्राणी का प्रमुख लक्षण है। मानव के निकटवर्ती विकसित प्राणियों तथा वनमानुष और चिम्पैंजी में भी सूझ की क्षमता निहित होती है। कोहलर तथा कोफ्का के अनुसार, हमारा सीखना सूझ के द्वारा होता है और सीखने की लगभग सभी प्रतिक्रियाओं में सूझ की आवश्यकता पड़ती है। इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता यह है कि सीखने की प्रत्येक क्रिया का कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य होता है तथा सीखने के समस्त प्रयास लक्ष्य द्वारा निर्देशित होते हैं। लक्ष्य में विविध बाधाएँ उत्पन्न होने पर सूझ की आवश्यकता होती है।
प्रत्येक बाधा व्यक्ति को नवीन परिस्थिति से अवगत कराती है और वह उस परिस्थिति के विभिन्न अंगों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है उन्हें समझने की कोशिश करता है। तत्पश्चात् व्यक्ति समूची परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उसके अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। किसी परिस्थिति-विशेष को समझकर उसके अनुसार प्रतिक्रिया करना ही व्यक्ति की सूझ का द्योतक है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति जो व्यवहार सीखता है—उसे सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना कहते हैं
कोहलर का प्रयोग– कोहलर ने एक पिंजरे की छत में कुछ केलों को इस प्रकार टाँग दिया कि वे उस पिंजरे में बन्द भूखे चिम्पैंजी की पहुँच से बिल्कुल बाहर थे। पिंजरे में दो-तीन खाली सन्दूक रख दिये गये थे जिन्हें एक के ऊपर एक रखकर चिम्पैंजी केलों तक पहुँच सकता था। प्रेक्षण के दौरान पाया गया कि चिम्पैंजी ने केलों को पाने की कोशिश में खूब उछल-कूद मचायी लेकिन वह केलों को प्राप्त नहीं कर सका। थोड़ी देर तक वह पिंजरे में चारों ओर दृष्टि डालता रहा और हर चीज को ध्यानपूर्वक देखता रहा। उसने सन्दूकों को बहुत ध्यान से निरीक्षण किया। कुछ देर बाद, उसने पहले एक सन्दूक को केलों के नीचे रखकर उन तक पहुँचने का प्रयास किया। असफल रहने पर उसने दूसरा, फिर तीसरा सन्दूक भी एक के ऊपर एक रख दिया और इस भाँति केलों को प्राप्त कर लिया। प्रयोग से निष्कर्ष निकलता है कि चिम्पैंजी ने सम्पूर्ण परिस्थिति को पूरी तरह समझने के बाद सूझ के माध्यम से यह प्रतिक्रिया सीखी।।
सूझ विधि की विशेषताएँ
सूझ विधि की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
- इस विधि में समझ का प्रयोग होता है और यह उच्च स्तरीय बौद्धिक जीवों में ही मिलती है।
- इसके अन्तर्गत समझ की सर्वाधिक भूमिका रहती है, न कि हस्त-कौशल की।
- यह प्रक्रिया आयु वृद्धि से प्रभावित होती है तथा कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक.आयु के लोगों में सफल रहती है।
- यह एक आकस्मिक (अचानक होने वाली) घटना है।
- सूझ या अन्तर्दृष्टि में पूर्व के अनुभव सहायता करते हैं। |
- सूझ द्वारा सीखना प्रत्यक्षीकरण का परिणाम है और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से किसी परिस्थिति विशेष के तत्त्वों को नवीन संगठन प्रदान किया जाता है।
- सूझ द्वारा सीखने के किसी भी उदाहरण में प्रयत्न एवं भूल का अंश निहित है।
प्रश्न 6
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने के सिद्धान्त का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। या प्राचीन अनुबन्धन सम्बन्धी पैवलोव के प्रयोग
या
एवं अधिगम प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए। (2010)
या
अधिगम के प्राचीन अनुबन्धन सम्बन्धी पैवलोव का प्रयोग लिखिए। (2014)
उत्तर
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त (Conditioned Reflexed Theory) को कई नामों से जाना जाता है; यथा-अनुबन्धित प्रतिक्रिया सिद्धान्त, प्रतिबद्ध अनुक्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त, सम्बद्ध सहज क्रिया सीखना अथवा साहचर्यात्मक सीखना। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह सिद्धान्त मानवीय सीखने की क्रिया को अभिव्यक्त करता है। सिद्धान्त का केन्द्रीय विचार है कि उत्तेजना एवं प्रतिक्रिया का सम्बन्ध होना ही सीखना है।।
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने का सिद्धान्त
व्यक्ति के चारों तरफ के वातावरण में अनेक उत्तेजक हैं। उचित उत्तेजक के सम्मुख आने पर साधारणत: व्यक्ति में कोई विशिष्ट उत्तेजना होती है जिसके परिणामस्वरूप एक विशेष प्रकार की अनुक्रिया होती है। यह अनुक्रिया प्राकृतिक (Natural) अनुक्रिया है और इसे सीखने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि ये प्राकृतिक अनुक्रियाएँ वातावरण के कृत्रिम (अप्राकृतिक) उत्तेजकों (Artificial Stimulus) से सम्बद्ध हो जाती हैं। ऐसी दशा में यदि कोई कृत्रिम उत्तेजक उत्पन्न कर दिया जाता है और प्राकृतिक उत्तेजक के बाद तत्काल ही इस उत्तेजक को यदि अनेक बार दोहराया जाता है तो सिर्फ कृत्रिम उत्तेजक की उपस्थिति ही प्राकृतिक अनुक्रिया को उत्पन्न कर देती है।
इस भाँति प्राकृतिक उत्तेजक को हम कृत्रिम उत्तेजक से प्रतिस्थापित कर देते हैं। जब अभ्यास के बाद मनुष्य की प्राकृतिक अनुक्रिया वातावरण के अन्य कृत्रिम उत्तेजकों से प्राकृतिक रूप से सम्बद्ध हो जाती है तो इस प्रकार के सीखने को हम सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखना कहते हैं। उदाहरण के लिए-मान लीजिए, विज्ञान का अध्यापक विद्यार्थियों को कठोर दण्ड देता है जिसके फलस्वरूप विद्यार्थी उससे अत्यधिक भय खाने लगते हैं। कुछ समय के उपरान्त दण्डित होने वाले बच्चे विज्ञान विषय से भी भय खाने लगते हैं और रुचि लेना बन्द कर देते हैं। धीरे-धीरे विज्ञान के घण्टे का नाम सुनकर ही विद्यार्थियों में भय व्याप्त हो जाता है। स्पष्टत: विज्ञान विषय या उसके घण्टे से बच्चों में जो भय की अप्राकृतिक अनुक्रिया पैदा होती है, वह विज्ञान के उस अध्यापक से सम्बन्धित होने के कारण है।
पैवलोव का प्रयोग– सम्बद्ध प्रत्यावर्तन के सिद्धान्त को समझने के लिए हम पैवलोव (Pavlov) का कुत्ते के साथ किये गये प्रयोग का अध्ययन करेंगे। अपने प्रयोग में पैवलोव ने भोजन के सामने आने पर लार बहने की प्राकृतिक अनुक्रिया को घण्टी बजने के कृत्रिम उत्तेजक से सम्बन्धित कर दिया। भूखे कुत्ते के सामने भोजन लाने पर उसके मुंह में लार आना एक प्राकृतिक अनुक्रिया है जो प्राकृतिक उत्तेजक के द्वारा उत्पन्न हुई है। अब पैवलोव ने भूखे कुत्ते के सामने भोजन लाने से एकदम पहले एक घण्टी बजानी शुरू की।
घण्टी द्वारा भोजन आने की सूचना कुत्ते को मिल जाती है। पैवलोव ने देखा कि कुत्ते के सामने चाहे भोजन लाया जाए या नहीं, सिर्फ घण्टी बजने पर उसके मुँह में लार आ जाती है। प्रयोगकर्ता द्वारा कुत्ते के मुँह से निकली लार को एक नली द्वारा बाहर एक बर्तन में एकत्र करने का प्रबन्ध किया गया था। प्रयोग में लार का प्रकट होना और उसकी एकत्र मात्रा की माप करना पूरी तरह सम्भव था, जिससे आवश्यक निष्कर्ष निकाले जा सके। इस प्रयोग में घण्टी बजने पर कुत्ते के मुँह में लार आना एक ऐसी अनुक्रिया है जो एक अप्राकृतिक उत्तेजक द्वारा उत्पन्न होती है और यही सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त कहलाता है।
1. भोजन (US);– लार (UR)
2. घण्टी (CS) – लार (UR) (कई बार दोहराने या प्रशिक्षण के बाद)
3. घण्टी (cs)– लारे (CR)
यहाँ, स्वाभाविक उत्तेजना-भोजन (US = Natural or Unconditioned Stimulus); अस्वाभाविक उत्तेजना–घण्टी
(CS =Conditioned Stimulus) स्वाभाविक प्रत्युत्तर-लार UR = Natural or Unconditioned Response, अस्वाभाविक प्रत्युत्तर–घण्टी फलस्वरूप लार CR = Conditioned Response.
प्रतिबद्धता को प्रभावित करने वाले कारक
प्रतिबद्धता (Conditioning) को प्रभावित करने वाली प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
- प्राकृतिक और अप्राकृतिक उद्दीपकों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने की दृष्टि से उनमें बीस सेकण्ड से अधिक को अन्तर नहीं होना चाहिए, अन्यथा दोनों में सम्बन्ध स्थापित न हो सकेगा।
- दोनों उद्दीपकों के बीच में कोई अवरोधक (विघ्न पैदा करने वाला तत्त्व) भी नहीं होना चाहिए।
- नवीन उद्दीपक को पुराने उद्दीपक से पहले उपस्थित किया जाए।
- नवीन या अप्राकृतिक उत्तेजना अन्य उत्तेजनाओं से अधिक प्रबल हो।
- इस विधि से सीखने वाला पात्र सामान्य मस्तिष्क का व स्वस्थ व्यक्ति हो।
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त जीवन के प्रारम्भ से ही सीखने की प्रक्रिया में मनुष्य की पर्याप्त रूप से सहायता करता है। इसके अलावा विभिन्न आदतों, रुचियों, अरुचियों तथा तर्कहीन भय (फोबिया) का निर्माण इस विधि द्वारा होता है।
प्रश्न 7
नैमित्तिक अनुबन्धन से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए। या नैमित्तिक अनुबन्धन के अधिगम से सम्बन्धित स्किनर के प्रयोग का वर्णन कीजिए।
उत्तर
मनोविज्ञान में अनुबन्धन (Conditioning) प्रयोगों के माध्यम से यह तथ्य प्रकाशित हुआ है कि अधिगम (Learning); सरलतम रूप में उत्तेजना तथा अनुक्रिया के मध्य साहचर्य स्थापित होने का नाम है। सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि अनुबन्धन क्या है? अनुबन्धन वह प्रक्रिया है। जिसमें एक प्रभावहीन उत्तेजना (अर्थात् वस्तु या परिस्थिति) इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि वांछित । या गुप्त प्रत्युत्तर को प्रकट कर देती है। इसे उत्तेजना के अभाव में वांछित प्रत्युत्तर एक प्राकृतिक या सामान्य प्रत्युत्तर होता है। अनुबन्धन के प्रमुख रूप से दो प्रकार हैं-
- प्राचीन अनुबन्धन (Classical Conditioning) तथा
- नैमित्तिक अनुबन्धन (Instrumental Conditioning)
प्राचीन अनुबन्धन के जनक एवं मुख्य योगदानकर्ता सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक पैवलोव (Pavlov) हैं, जिन्होंने प्राचीन अनुबन्धन के सम्बन्ध में उल्लेखनीय प्रयोग और शोधकार्य किये, किन्तु कुछ परिसीमाओं के कारण इस सिद्धान्त की आलोचना हुई। यहाँ हम नैमित्तिक अनुबन्धन (Instrumental Conditioning) का उल्लेख करेंगे।
नैमित्तिक अनुबन्धन का अर्थ व परिभाषा
नैमित्तिक अनुबन्धन; उत्तेजना एवं उसकी अनुक्रिया के मध्य साहचर्य स्थापित करने की एक विधि है। इस विधि के अनुसार-प्रयोज्य के लिए पुनर्बलन (Reinforcement) या पुरस्कार (Reward)’ की उपलब्धि प्रयोज्य की अनुक्रियाओं पर निर्भर करती है। दूसरे शब्दों में, प्रयोज्य की अनुक्रियाएँ पुनर्बलन का निमित्त (Instrument) बन जाती हैं।
डी’ अमेटो (D’ Amato) के अनुसार, “नैमित्तिक अनुबन्धन वह कोई भी अधिगम (सीखना) है जिसमें अनुक्रिया अवलम्बित पुनर्बलन पर आधारित हो तथा जिसमें प्रयोगात्मक रूप से परिभाषित विकल्पों का चयन सम्मिलित न किया हो। नैमित्तिक अनुबन्धन के प्रकार
(A) नैमित्तिक अनुबन्धन के अन्तर्गत पुनर्बलन या पुरस्कार धनात्मक या निषेधात्मक किसी भी प्रकृति का हो सकता है। इस आधार पर अनुबन्धन के दो प्रकार हैं
- प्रवृत्यात्मक अनुबन्धन (Appetitive Conditioning)- यह ऐसा अनुबन्धन है जिसमें धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) का उपयोग होता है। धनात्मक पुनर्बलन वह उत्तेजना है, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयोज्य प्रयास एवं कार्य करता है।
- विमुखी अनुबन्धन (Aversive Conditioning)- इस अनुबन्धन में निषेधात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) का उपयोग होता है। निषेधात्मक पुनर्बलन वह उत्तेजना है। जिससे बचने के लिए प्रयोज्य कार्य करता है।
(B) कोनोस्क नामक विद्वान् ने नैमित्तिक अनुबन्धन को निम्नलिखित चार प्रकारों में विभाजित किया है
- पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन (Reward Instrumental Conditioning)- पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन को अभिभेदक अनुबन्धन (Non-discriminative Conditioning) भी कहा जाता है। इसमें पुरस्कार (पुनर्बलन) प्रयोज्य को कुछ प्रयास या क्रियाएँ करने हेतु प्रेरित करता है और ये बारम्बार प्रयास पुरस्कार के कारण होते हैं।
- परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन (Avoidance Instrumental Conditioning)- परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन के अन्तर्गत प्रयोज्य संकेत (Cue or Sign) के प्रति प्रतिक्रिया करके पीड़ादायक या दुःखद उत्तेजना का परिहार अर्थात् परित्याग (Avoid),कर देता है। इस अनुबन्धन का ही एक प्रकार पलायन अनुबन्धन (Escape Conditioning) भी है जिसमें प्रयोज्य पीड़ादायी उत्तेजना से पलायन (बचना या भागना) सीख जाता है।
- अकर्म नैमित्तिक अनुबन्धन (Omission Instrumental Conditioning)- अकर्म अनुबन्धन का एक नाम निष्क्रिय अनुबन्धन (Inactive Conditioning) भी है जिसमें प्रयोज्य किसी अनुक्रिया का अकर्म (Omission) करना सीख जाता है।
- दण्ड नैमित्तिक अनुबन्धन (Punishment Instrumental Conditioning)- इसे निषेधात्मक (Prohibitory) अनुबन्धन भी कहा जाता है जिसमें प्रयोज्य की अनुक्रिया पर दण्ड या पीड़ादायक उत्तेजना दी जाती है। यह दण्ड अनुक्रिया को विलुप्त करने या छुड़ाये जाने के लिए दिया जाता है।
नैमित्तिक अनुबन्धन सम्बन्धी स्किनर का प्रयोग
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बी ० एफ ० स्किनर ने 1938 ई० में नैमित्तिक अनुबन्धन के सम्बन्ध में एक प्रयोग किया। स्किनर ने चित्र के अनुसार एक पेटी (Box) तैयार की जिसमें छड़रूपी लीवर लगा हुआ था। इस उपकरण में लीवर को दबाने से घण्टी की आवाज होती थी और रखा हुआ भोजन एक प्लेट में गिरता था। उपकरण में प्रयोज्य लीवर को दबाने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र है। जितनी बार भी लीवर दबेगा उतनी ही बार घण्टी की आवाज के साथ प्लेट में भोजन आ गिरेगा। स्किनर ने एक भूखे चूहे को उपकरण में बन्द कर दिया और उसकी गतिविधियों की जाँच की। शुरू में चूहा पेटी में इधर-उधर चक्कर लगाता रहा और जब-तब पेटी में लगी छड़ियों पर भी खड़ा हुआ। ऐसे अनेक प्रयासों में एक प्रयास में छड़ वाला लीवर दब गया और उसकी गतिविधियाँ यथावत् चलती रहीं, किन्तु थोड़ी देर बाद उसे भोजन दिखाई पड़ गया और भूखे चूहे ने भोजन को देखते ही उसे खा लिया। चूहे ने इस तरह के बहुत-से प्रयास किये। |
इन प्रयासों में यह पाया गया कि चूहे ने छड़रूपी लीवर के पास ज्यादा समय बिताया और अनेक बार अपनी पिछली टाँगों की सहायता से खड़ा हो गया। अगले कुछ प्रयासों में चूहे ने लीवर दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया। स्किनर के इस प्रयोग में अधिगम का मापन समयान्तर के माध्यन से किया जाता है और जाँच की जाती है कि एक निश्चित अवधि में चूहा कितनी बार लीवर को दबाकर भोजन के टुकड़े गिरासा है। प्रयोग में जैसे-ही-जैसे प्रयास बढ़ते हैं, वैसे-ही-वैसे चूहे की लीवर दबाने की आवृत्ति भी बढ़ती जाती है। इस भाँति, प्रयोग के परिणामों से निष्कर्ष निकलता है कि पूनर्बलन या पुरस्कार ने चूहे को कुछ क्रियाएँ करने हेतु प्रेरित किया और चूहे के एक के बाद एक प्रयास पुनर्बलन या पुरस्कार की वजह से हुए।
यह प्रयोग अधिगम को एक क्रमिक प्रक्रिया सिद्ध करता है। इस प्रक्रिया में प्रयासों के साथ-साथ वृद्धि होती है और साथ ही यह अधिक मजबूत भी होती है। स्किनर के इस प्रयोग में चूहा पुरस्कार
(भोजन) पाने के लिए छड़रूपी लीवर को दबाता है। अत: इस प्रकार के अधिगम को ।। नैमित्तिक अधिगम कहा जाता है।
प्रश्न 8
सीखने के विभिन्न नियमों का वर्णन कीजिए। इसके द्वारा शिक्षण को किस प्रकार प्रभावी बनाया जा सकता है?
या
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के नियमों को स्पष्ट कीजिए।
या
थॉर्नडाइक की तैयारी के नियम (तत्परता का नियम) से आप क्या समझते हैं? (2018)
उत्तर
थॉर्नडाइक के सीखने के नियम सीखना एक उद्देश्यपूर्ण सार्वभौमिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से प्राणी के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाये जाते हैं। सीखने की यह प्रक्रिया किन्हीं नियमों द्वारा संचालित होती है। थॉर्नडाइक (Thorndike) नामक मनोवैज्ञानिक ने सीखने के नियमों को सुव्यवस्थित किया और इन्हें निर्धारित करने के लिए पशुओं पर प्रयोग किये।
उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों की आलोचना हुई, जिसके परिणामतः उसने मनुष्यों पर परीक्षण करके नियमों को सत्यापित करने का पुनः प्रयास किया। थॉर्नडाइक के अनुसार, सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों को स्पष्टतया एवं बार-बार यह बताने की आवश्यकता है कि मनुष्य का शिक्षण प्रायः तैयारी, अभ्यास तथा परिणाम के नियमों का कार्य है।
थॉर्नडाइक ने सीखने के तीन प्रधान नियम प्रतिपादित किये। इन नियमों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
(1) तत्परता का नियम (Law of Readiness)– तत्परता का नियम बताता है कि जब कोई भी व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तत्पर होता है (अर्थात् तैयार रहता है) तो सीखने की क्रिया सरलता और शीघ्रता से सम्पन्न होती है। व्यक्ति जिस समय किसी कार्य को सीखने की धुन में रहता है तो वह सीखने में आनन्द का अनुभव करता है। बालक में किसी नवीन ज्ञान या क्रिया को सीखने की तत्परता तभी आती है जब उसमें रुचि होती है और उसके अन्दर सीखने के लिए प्रेरणा उत्पन्न कर दी जाए; अत: शिक्षक को पाठ शुरू करने से पूर्व बालक की रुचि और जिज्ञासा पर ध्यान देना चाहिए तथा उन्हें सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कुछ विद्यार्थियों की किसी विशेष विषय में रुचि नहीं होती जिसकी वजह से तत्परता के नियम की अवहेलना हो सकती है। तत्परता का नियम कुछ निष्कर्षों को महत्त्व देता है—प्रथम, इस नियम के अनुसार सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने
की दशा में विद्यार्थी को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता और सीखने की प्रक्रिया सन्तोषजनक रहती है। द्वितीय, यदि व्यक्ति सीखने के लिए विवश नहीं है और पूर्ण रूप से भी तत्पर है तो सीखने में अत्यधिक सन्तुष्टि प्राप्त होगी। तृतीय, सीखने के लिए बलपूर्वक विवश किये जाने पर अरुचि के कारण कार्य असन्तोषजनक होगा। इस भाँति कहा जा सकता है-“जब कोई बन्धन किसी कार्य को करने के लिए होता है तो वह प्रक्रिया आनन्द देती है और जब सीखने की इच्छा नहीं होती और व्यक्ति सीखने को तैयार नहीं होता तथा उसे बाध्य किया जाता है, तब क्रोध उत्पन्न होता है।”
(2) अभ्यास का नियम (Law of Exercise)— इसे उपयोग–अनुपयोग का नियम (Law of Use-Disuse) भी कहते हैं। थॉर्नडाइक का विचार है कि अन्य बातें समान रहने पर सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास के द्वारा शक्ति में वृद्धि होती है, जबकि अभ्यास की कमी स्थिति और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को कमजोर बना देती है। हमारी बहुत-सी प्रतिक्रियाओं में उपयोग तथा अनुपयोग के नियम साथ-साथ कार्य करते हैं। हम स्वतन्त्र भाव से उन्हीं उपयोगी क्रियाओं को दोहराते हैं जिनसे हमें आनन्द मिलता है तथा उन अनुपयोगी क्रियाओं को नहीं दोहराते जिनसे हमें दुःख होता है।
अभ्यास के नियम से स्पष्ट है कि जिस काम को जितना अधिक दोहराया जाएगा, जितनी ही उसकी पुनरावृत्ति की जाएगी, उतनी ही दृढ़ता से वह हमारे मन में बैठ जाता है और उसके करने में उतनी ही कुशलता आ जाती है। गायन, खेल, कविता, पहाड़े तथा गणित आदि से सम्बन्धित नियम सिखाने के उपरान्त बालकों को उनका अभ्यास अवश्य करा देना चाहिए।
(3) प्रभाव का नियम (Law of Effect)- प्रभाव के नियम को सन्तोष और असन्तोष का नियम भी कहते हैं। थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित इस नियम में प्रभाव से तात्पर्य ‘परिणाम’ से है। जिन कार्यों का परिणाम व्यक्ति को सन्तोष प्रदान करता है तथा उसे सुखद अनुभव देता है, उन कार्यों को मनुष्य सरलता से एवं शीघ्र ही सीख जाता है। इसके विपरीत जिन कार्यों का परिणाम असन्तोषजनक तथा दु:खद अनुभव वाला होता है, उन्हें व्यक्ति भुला देना चाहता है और बार-बार दोहराना नहीं चाहता।
इसी सन्दर्भ में जिस कार्य को करने से व्यक्ति को प्रशंसा एवं पुरस्कार मिले अर्थात् जिस कार्य का अच्छा प्रभाव (परिणाम) निकले, उसे बालक शीघ्रतापूर्वक सीख जाता है। इसी कारण से शिक्षा में दण्ड एवं पुरस्कार का बहुत अधिक महत्त्व है। बुरा कार्य करने पर बालक दण्ड पाता है, किन्तु अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाता है। प्रभाव का नियम विद्यालय तथा परिवार में पर्याप्त रूप से प्रयोग किया जाता है।
सीखने के अन्य नियम
सीखने के उपर्युक्त मुख्य नियमों के अतिरिक्त कुछ अन्य नियम भी हैं। इन्हें सीखने के गौण । नियम भी कहा जाता है। इन नियमों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
- पुनरावृत्ति का नियम (Law of Frequency)- इस नियम के अनुसार, जिस कार्य की व्यक्ति अनेक बार पुनरावृत्ति करता है, उसे वह जल्दी ही सीख जाता है।
- नवीनता का नियम (Law of Recency)- अभ्यास जितना नवीन या ताजा होता है, उतना ही जल्दी व्यक्ति उसे सीख लेता है।
- प्राथमिकता का नियम (Law of Primacy)- सर्वप्रथम होने वाला अनुभव या क्रियाएँ मस्तिष्क पर एक गहरी छाप छोड़ देती हैं। ये शीघ्र ही सीख लिये जाते हैं।
विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित तथा उपर्युक्त वर्णित ये समस्त नियम-तत्परता, अभ्यास, प्रभाव, पुनरावृत्ति, नवीनता तथा प्राथमिकता का नियम–सीखने की प्रक्रिया को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 9
सीखने के वक्र से आप क्या समझते हैं? सीखने में पठार को वक्र रेखा की सहायता से स्पष्ट कीजिए। (2012, 15)
या
सीखने की वक्र रेखा की क्या विशेषताएँ हैं? (2018)
या
सीखने का पठार क्या है? सीखने के पठार के उत्तरदायी कारक कौन-कौन से हैं? (2009)
या
चित्र की सहायता से सीखने का वक्र स्पष्ट कीजिए। (2014)
या
सीखने के पठार को कैसे दूर किया जा सकता है? (2007)
या
सीखने के पठार को रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर
सीखने का वक्र
सीखने की प्रक्रिया में किसी नवीन क्रिया का ज्ञान या अनुभव को ग्रहण किया जाता है। सीखने के कार्य और उसकी प्रगति को समझने के लिए सीखने के अंकों के आधार पर सीखने की वक्र रेखा (Learning Curve) का निर्माण किया जाता है। ये वक्र रेखाएँ तीन प्रकार की होती हैं—सकारात्मक वक्र रेखा, नकारात्मक वक्र रेखा और एस (S) आकार की वक्र रेखा। सीखने की सकारात्मक वक्र रेखा उस समय बनती है जब सीखने के साथ-साथ उन्नति की गति धीमी होने लगती है।
इस रेखा की उन्नति तेज गति से शुरू होती है। कार्य के सरल होने या व्यक्ति के अधिक प्रेरित होने के कारण ऐसा सम्भव होता है। नकारात्मक वक्र रेखा प्रेरणा की कमी तथा कठिन कार्यों के सीखने से बनती है। इसी प्रकार एस (S) के आकार की वक्र रेखा उस समय बनती है जब सीखने की क्रियाओं में एक समान उन्नति न हो रही हो अथवा सीखने की क्रियाएँ पुरानी होने लगती हों। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि प्रत्येक सीखने की वक्र रेखा धीरे-धीरे क्रमशः समतल होती जाती है।
सीखने का पठार
किसी व्यक्ति के सीखने की प्रगति को ग्राफ पर प्रदर्शित किया जा सकता है। नि:सन्देह अभ्यास के फलस्वरूप सीखने की क्रिया में तीव्रता आती है और सीखने वाला व्यक्ति शुरू में तीव्र गति से सीखता है, किन्तु यह तीव्रता अनवरत रूप से वृद्धि नहीं करती। कुछ समय उपरान्त एक दशा ऐसी आ जाती है जब प्रगति कम हो जाती है। इस दशा को ग्राफ में आधार रेखा के लगभग समानान्तर रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। शुरू में ऊपर जाती हुई रेखा प्रारम्भिक तीव्रता दिखाती है तथा आधार के समानान्तर रेखा ‘सीखने का पठार’ प्रदर्शित करती है। उन्नति की स्थिति कुछ समय तक रुकी रहती है। तथा पठार की स्थिति कहलाती है। इस भाँति, सीखने के उस समय को, जिसमें सीखने की गति एक समान बनी रहती है, अर्थात् उसमें वृद्धि नहीं होती या सीखने की प्रगति अल्प होती है, ‘सीखने को पठार’ (Plateau of Learning) कहते हैं।
सीखने के पठार संगीत, चित्रकला, टाइप, मोबाइल पर लम्बे मैसेज देना आदि सीखने की क्रियाओं में प्रकट होते हैं। पठार के दौरान उन्नति रुक जाने से विद्यार्थी का निराश होना स्वाभाविक, किन्तु अमनोवैज्ञानिक है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में भाग लेने वाले लोगों को सीखने के इन पठारों से हतोत्साहित नहीं होना चाहिए, क्योंकि उन्नति में पठार का आना प्राकृतिक और अनिवार्य है। जिस प्रकार से भोजन ग्रहण करने के उपरान्त उसे पचाये बिना पुनः दूसरा भोजन ग्रहण नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार से हमारा मस्तिष्क बिना एक बात को ठीक से सीखे आगे बढ़ना नहीं चाहता।। सत्यता तो यह है कि पठार का काल एक प्रकार का ‘पाचन-काल’ (Consolidation Period) है।
पठार के कारण
वैसे तो सीखने के पठार के अनेकानेक कारण हो सकते हैं, परन्तु सामान्यतया सीखने के पठार के निम्नलिखित तीन प्रमुख कारण हैं
(1) ज्ञानावरोध– ज्ञानावरोध से अभिप्राय है-एक विधि द्वारा अधिक ज्ञान के विकास न होने की सीमा आ पहुँचना या ज्ञान के विकास में अवरोध आना। प्राय: देखने में आता है कि सीखने के अन्तर्गत किसी एक विधि का अनुसरण करने के उपरान्त एक ऐसी सीमा आ जाती है कि उस विधि से ज्ञान के विकास की अधिक सम्भावना नहीं रह जाती और व्यक्ति सीखने में अधिक उन्नति नहीं कर पाता।
(2) उत्साहावरोध— यह स्वाभाविक ही है कि सीखने की सफलता के साथ-साथ प्रारम्भिक उत्साह, जोश, लगन तथा रुचि आदि ठण्डे पड़ने लगते हैं। इस प्रकार उत्साहावरोध के कारण सीखने में पठार आ जाता है। इसे रोकने के लिए सीखने वाले को लगातार उत्साहित करते रहना चाहिए।
(3) शारीरिक क्षमतावरोध/शारीरिक सीमा- हर व्यक्ति के सीखने की योग्यता उसके शरीर एवं मस्तिष्क की कार्यक्षमता पर निर्भर करती है। प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक क्षमता सीमित होती है। यद्यपि किसी व्यक्ति की शारीरिक सीमा (Physiological Limit) को दृढ़ता से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता तथापि यह वह सीमा है जब कि सीखने की क्रिया की गति आगे बढ़ने से रुक जाती है। वस्तुत: व्यक्ति अपनी शारीरिक-मानसिक कार्यक्षमता की सीमा तक तो शीघ्र उन्नति कर लेता है। लेकिन तत्पश्चात् उसकी प्रगति तब तक अवरुद्ध रहती है जब तक कि सीखने का उतना कार्य करने की उसे आदत न हो जाए। अपनी प्रकृति के अनुसार व्यक्ति को कष्टों से भय लगता है। प्रायः वह अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा तक पहुँचे बिना ही अभ्यास छोड़ बैठता है। अतः पठार के कारण को ठीक-ठीक समझना परमावश्यक है।
(4) पठार के अन्य कारण– पठार निर्मित होने के अन्य कारण इस प्रकार हैं-
- अवधान का अभाव
- ध्यान परिवर्तन
- विषय-वस्तु को सीखने की अधिक मात्रा
- सीखने की दोषपूर्ण एवं अनुपयुक्त विधियाँ
- स्नायुमण्डल सम्बन्धी दोष
- मानसिक एवं संवेगात्मक तनाव
- जिज्ञासा, रुचि और उत्साह में कमी आना
- निराशाजनक मन:स्थिति
- दूषित वातावरण
- प्रेरणा एवं उत्साह का अभाव तथा
- शारीरिक-मानसिक थकान।।
‘सीखने के पठार’ को दूर करने के उपाय
कुछ मनोवैज्ञानिके सीखने में पठारों के बनने की क्रिया को पूर्णतया स्वाभाविक मानते हैं। उनके मतानुसार इन पठारों को समाप्त करना हानिकारक हो सकता है; क्योंकि कुछ समय बाद निरन्तर अभ्यास एवं अपनी अस्थायी प्रकृति के कारण ये स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। फिर भी, किसी व्यक्ति की सीखने की उन्नति के लिए प्रगति में आने वाले पठार की अवस्था को दूर किया जाना आवश्यक है। सीखने के पठार की अवस्था का निराकरण निम्नलिखित उपायों द्वारा सम्भव है
(1) पठार का ज्ञान एवं क़ारण की खोज- यदि कोई व्यक्ति नवीन कला या कौशल सीख रहा है। तो उसके शिक्षक या प्रशिक्षक को ध्यान रखना होगा कि उसके सीखने की प्रगति में कहीं पठार की अवस्था तो नहीं आ गयी है। यदि ऐसा है तो पठार के कारण की खोज करके उसका पता लगाना चाहिए।
(2) प्रेरणा द्वारा रुचि में वृद्धि– शिक्षक को चाहिए कि वह विद्यार्थी को समय-समय पर प्रेरित करता रहे। इससे रुचि में आने वाली कमी पूरी होगी और विद्यार्थी उसी गति से सीखता रहेगा।
(3) शिक्षण विधि— कभी-कभी पुरानी शिक्षण विधि के कारण भी पठार की अवस्था आ जाती है। उस दशा में शिक्षक को पुरानी व अनुपयुक्त विधि को आवश्यकतानुसार परिवर्तित या संशोधित कर लेना चाहिए।
(4) सहायक सामग्री- सहायक सामग्री के प्रयोग से शिक्षण कार्य में प्रभावकारिता आती है। अतः आवश्यकतानुसार दृश्य-श्रव्य सामग्री और शिक्षण-अधिगम सम्बन्धी समुचित उपकरण प्रयोग किये जाने चाहिए।
(5) शारीरिक क्षमता वृद्धि– सीखने वाले की सीखने की शारीरिक सीमा आने पर पौष्टिक आहार तथा व्यायाम द्वारा उसकी शारीरिक क्षमता में वृद्धि लायी जाए। उसे शारीरिक श्रम के लिए भी प्रेरित किया जाए।
(6) उत्साहवर्द्धन- सीखने वाले व्यक्ति के उत्साह में कमी आने पर विभिन्न उपायों एवं विधियों से उसका उत्साह बढ़ाया जाए।
निष्कर्षतः सीखने के पठारों को वक्र रेखा में से हटाने या दूर करने के लिए पठार के उ कारणों का विश्लेषण आवश्यक समझा जाता है जिनके कारण से इन पठारों की उत्पत्ति हुई थी। कारण जानने के पश्चात् उसका समुचित निराकरण किया जाना चाहिए।
प्रश्न 10
अधिगम के स्थानान्तरण से आप क्या समझते हैं? अधिगम के स्थानान्तरणमें सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने के स्थानान्तरण को स्पष्ट कीजिए। (2013)
उत्तर
अधिगम का स्थानान्तरण
अधिगम- स्थानान्तरण या ‘शिक्षण का स्थानान्तरण (Transfer of Learning) अधिगम (सीखने) की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। अधिगम-स्थानान्तरण के क्षेत्र में अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में और एक अंग से दूसरे अंग में ‘अधिगम का स्थानान्तरण हो सकता है। विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक पाठ्यक्रम निर्मित करते समय स्थानान्तरण के नियम एवं सिद्धान्त उपयोगी सिद्ध होते हैं; अतः शिक्षा के क्षेत्र में अधिगम-स्थानान्तरण का विशेष महत्त्व तथा योगदान है।
अधिगम-स्थानान्तरण का अर्थ एवं परिभाषा
अर्थ- अधिगम की प्रक्रिया में जब किसी पाठ्य-सामग्री को सीखा जाता है तो उस पर उससे पहले सीखी गयी सामग्री या पाठ का प्रभाव पड़ता है। हो सकता है कि पहले सीखा गया पाठ, तत्काल सीखे जा रहे पाठ में सहायता करे और यह भी सम्भव है कि वह इसमें कठिनाई पैदा करे। इस भाँति, वर्तमान में सीखने पर पहले सीखी गयी सामग्री के प्रभाव को अधिगम-स्थानान्तरण या शिक्षण-अन्तरण का नाम दिया जाता है।
मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम- स्थानान्तरण से सम्बन्धित अध्ययनों के दौरान अनुभव किया कि एक कार्य का प्रभाव दूसरे कार्य पर अवश्य पड़ता है और अधिगम की प्रक्रिया में पूर्व ज्ञान (Previous Knowledge), वर्तमान समय में ग्रहण किये जा रहे ज्ञान को प्रभावित करता है। यदि किसी व्यक्ति को सीखने के लिए कुछ स्मरण करता है। उदाहरण के लिए-यदि दो व्यक्तियों जिनमें से पहले व्यक्ति को कई भाषाओं का ज्ञान है और दूसरे व्यक्ति को केवल एक ही भाषा का ज्ञान है, को कोई नयी भाषा सीखने के लिए दी जाए तो अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि पहला व्यक्ति नयी भाषा को दूसरे व्यक्ति से जल्दी सीख जाता है।
कई भाषाओं का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को एक भाषा के ज्ञाता की अपेक्षा नयी भाषा के अधिगम में कम कठिनाई अनुभव होती है। वस्तुत: पहले से सीखा गया ज्ञान, वर्तमान की अधिगम प्रक्रिया में सहायता करता है। दूसरे शब्दों में, अधिगम एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरित हो गया। यही अधिगम का स्थानान्तरण है।
परिभाषा- अधिगम-स्थानान्तरण को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है|
- हिलगार्ड एवं एटकिन्सन के मतानुसार, “अधिगम-स्थानान्तरण में एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर पड़ता है।
- अण्डरवुड के अनुसार, “अधिगम-स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान क्रिया पर पूर्व-अनुभवों का प्रभाव होता है।
- कैण्डलैण्ड की राय में, “स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान में सीखे गये व्यवहार पर पूर्व में सीखे गये व्यवहार के प्रभाव से है।”
- क्रो तथा क्रो के अनुसार, “जब शिक्षण के एक क्षेत्र में प्राप्त विचार, अनुभव या कार्य की आदत, ज्ञान या निपुणता की दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है तो वह शिक्षण का स्थानान्तरण कहलाता है।”
उपर्युक्त विवरण द्वारा अधिगम के स्थानान्तरण की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक परिस्थिति में सीखे गये कार्य को किसी अन्य परिस्थिति में उपयोग में लाना ही अधिगम का स्थानान्तरण है। उदाहरण के लिए-गणित का ज्ञान अर्जित करने | के उपरान्त जब कोई बालक बाजार में सामान खरीदकर रुपये-पैसे का लेन-देन सफलतापूर्वक कर लेता है तो यह अधिगम का स्थानान्तरण ही होता है।
अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक
अधिगम का स्थानान्तरण व्यक्ति के जीवन का एक स्वाभाविक पक्ष है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अधिगम का स्थानान्तरण कम या अधिक मात्रा में अवश्य होता है। यह सत्य है कि अधिगम का स्थानान्तरण जितना अधिक तथा प्रबल होगा, व्यक्ति को उतना ही अधिक लाभ होगा। वास्तव में, कुछ कारक ऐसे भी हैं जो अधिगम के स्थानान्तरण को प्रबल बनाते हैं। इन कारकों को अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक माना जाता है। अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारकों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है
(1) सीखने के लिए अपनायी गयी उत्तम विधि- यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को सीखने के लिए किसी उत्तम विधि को अपनाता है तो उस स्थिति में व्यक्ति के मस्तिष्क में सम्बन्धित कार्य को स्पष्ट एवं स्थायी संस्कार अंकित हो जाते हैं। इस प्रकार के स्पष्ट एवं स्थायी संस्कार बन जाने के उपरान्त अन्य सम्बन्धित कार्य को सरलता से सीखा जा सकता है अर्थात् अधिगम का स्थानान्तरण सुगम हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सीखने की उत्तम विधि अधिगम के स्थानान्तरण में एक सहायक कारक है।
(2) पहले सीखे गये विषय की शिक्षण-मात्रा- यह एक सत्यापित तथ्य है कि यदि किसी विषय को पर्याप्त मात्रा में तथा भली-भाँति सीख लिया जाता है तो उस विषय के स्पष्ट एवं गहरे संस्कार व्यक्ति के मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं। इस दशा में अधिगम का स्थानान्तरण सुगम भी होता है तथा प्रबलं भी।
(3) सम्बन्धित विषय के प्रति अनुकूल मनोवृत्ति- यदि कोई व्यक्ति किसी विषय को सीखने के लिए पूरी तरह से तत्पर हो तो उस स्थिति में उसके गत अनुभव भी सहायक कारक के रूप में कार्य करते हैं अर्थात् व्यक्ति की मनोवृत्ति का भी अधिगम के स्थानान्तरण पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सीखे जाने वाले कार्य या विषय के प्रति व्यक्ति की अनुकूल मनोवृत्ति भी अधिगम के स्थानान्तरण में एक सहायक कारक है।
(4) सामान्यीकरण की क्रिया- अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक एक अन्य कारक है-‘सामान्यीकरण की क्रिया’। सामान्यीकरण की क्रिया से आशय है-अधिगम की प्रक्रिया के आधार पर क्रिया सम्बन्धी कुछ सामान्य सिद्धान्तों को निगमित कर लेना। यदि व्यक्ति द्वारा किसी कार्य या विषय के अधिगम के समय सामान्यीकरण कर लिया जाए तो सम्बन्धित विषय या कार्य का अधिगम-स्थानान्तरण उत्तम एवं प्रबल होता है।
(5) व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि एवं समझ- अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारकों में व्यक्ति की कुछ अपनी विशेषताएँ एवं क्षमताएँ भी सहायक सिद्ध होती हैं। यदि किसी व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि एवं समझे पर्याप्त विकसित हो तो वह व्यक्ति अधिगम के स्थानान्तरण में अधिक सफल होता है। गहन अन्तर्दृष्टि वाला व्यक्ति अपने गत अनुभवों को नये विषयों को सीखने में सरलता से उपयोग में ला सकता है।
(6) अधिगम के स्थानान्तरण के लिए किये जाने वाले प्रयास- यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को सीखने के उपरान्त अर्जित ज्ञान को अन्य परिस्थितियों में उपयोग में लाने का भरपूर प्रयास करता है। तो निश्चित रूप से अधिगम का स्थानान्तरण सुगम एवं प्रबल होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के अभीष्ट प्रयास भी अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक होते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
‘सीखने’ या ‘अधिगम की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने या अधिगम की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
- किसी भी नवीन परिस्थिति के उत्पन्न होने पर आवश्यकता पूर्ति के लिए क्रियाशील होना अधिगम की एक अनिवार्य विशेषता है।
- यह एक समायोजन करने की प्रक्रिया है। अधिगम के अन्तर्गत किसी भी परिस्थिति में मायोजन किया जाता है।
- समायोजन की प्रक्रिया में पुराने अनुभव एवं क्रिया असफल हो जाते हैं।
- अधिगम में समायोजन के लिए नये मार्ग को खोजा जाता है।
- सफल खोज के फलस्वरूप समायोजन होता है।
- समायोजन से पूर्व व्यवहार में परिवर्तन होता है।
- सफल अनुभव को समान परिस्थिति में दोहराया जाता है।
- सफल अनुभव के परिणामस्वरूप नवीन व्यवहार में स्थायित्व आना ही सीखना है।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम एक विशिष्ट मानसिक प्रक्रिया । निससे व्यक्ति के स्वाभाविक व्यवहार में उन्नतिशील परिवर्तन अथवा परिमार्जन होता है।
प्रश्न 2
परिपक्वता से क्या आशय है?
उत्तर
सीख़ने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में परिपक्वता (Maturation) का उल्लेख करना अनिवार्य है। परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया का एक अनिवार्य कारक है।
परिपक्वतो, से अभिप्राय है ‘समुचित शारीरिक विकास’, जिसके कारण मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंग का समानुपातिक विकास होता है तथा उसकी देहदृष्टि सुसंगठित होकर बढ़ती है। एक नवजात शिशु शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था को पार कर युवावस्था में कदम रखता है। विकास को यह प्रक्रिया व्यक्ति के शरीरांगों को पुष्ट तथा सबल बनाती है और उसकी कार्यक्षमता में
अभिवृद्धि होती है। मनुष्य के शरीरांगों के आधार पर उसकी शारीरिक क्रियाएँ तथा मस्तिष्क के आधार र मानसिक क्रियाएँ संचालित होती हैं। इस प्रकार परिपक्वता व्यक्ति की स्वाभाविक अभिवृद्धि है जो बिना किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों; जैसे–शिक्षा एवं अभ्यास आदि के अनवरत रूप से चलती रहती है। उदाहरण के लिए सभी बच्चे अपनी एक निश्चित अवस्था में बैठना, पैरों पर खड़े होना, चलना, बोलना तथा अनेकानेक दूसरे कार्य करना सीखते हैं। एक नन्हें से बच्चे को चाहे कितनी ही शिक्षा या अभ्यास क्यों न प्रदान किया जाए’ वह कम्प्यूटर चलाना नहीं सीख सकता। एक निश्चित उम्र पर पहुंचकर वह इसके लिए परिपक्व हो जाता है तथा इसे सुगमता से सीख लेता है। बोरिंग ने परिपक्वता को इस प्रकार परिभाषित किया है, “हम परिपक्वता शब्द का प्रयोग उस बुद्धि और विकास के लिए करेंगे जो किसी बिना सीखे हुए व्यवहार से या किसी विशिष्ट व्यवहार के सोखने से पहले आवश्यक होता है।”
प्रश्न 3
परिपक्वता तथा सीखने में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर
हमें ज्ञात है कि सीखना, व्यवहार परिवर्तन या व्यवहार अर्जन की एक प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति का व्यवहार परिवर्तन या तो परिपक्वता के कारण होता है या किसी नयी बात को ग्रहण करने के कारण। परिवर्तन की प्रक्रिया में नयी-नयी क्रियाएँ और व्यवहार प्रदर्शित तथा विकसित होते रहते हैं। परिपक्वता शारीरिक विकास की प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत बढ़ती हुई आयु के साथ, शरीर व स्नायुमण्डल का विकास सीखने की सामर्थ्य को जन्म देता है। स्पष्टतः सीखने के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है। परिपक्वता की प्रक्रिया सीखने से पूर्व की स्थिति है तथा यह सीखने का आधार है। परिपक्वता के अभाव में किसी क्रिया का सीखना न केवल दुष्कर पेतु असम्भव है। वस्तुत: परिपक्वता किसी व्यवहार को अर्जित करने (सीखने) की एक पूर्व आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव के विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता और सीखना दोनों की सशक्त भूमिका है। यदि परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं है तो सीखने के अभाव में व्यक्ति की परिपक्वता भी निरर्थक है। समुचित परिपक्वता ग्रहण कर यदि कोई मनुष्य व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी व्यवहार या क्रियाएँ सीखता है तो इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझा जाएगा। इस भाँति परिपक्वता और सीखने में गहरी सम्बन्ध है।
प्रश्न 4
परिपक्वता तथा सीखने में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर
परिपक्वता और सीखने में निम्नलिखित अन्तर हैं
प्रश्न 5
टिप्पणी लिखिए–“अर्जित निस्सहायता” या “अधिगमित विवशता’। (2017)
उतर
अधिगम की प्रक्रिया के अध्ययन के सन्दर्भ में अर्जित निस्सहायता का भी अध्ययन किया जाता है। इसे ‘अधिगमित विवशता’ भी कहा जाता है। इस विषय में सर्वप्रथम सन् 1967 ई० में सैलिगमैन एवं मायर ने व्यवस्थित अध्ययन किया। इस अध्ययन के निष्कर्ष में स्पष्ट किया गया कि जब कोई प्राणी अनियन्त्रित विकर्णात्मक घटनाओं का सामना करता है तो उसमें प्रारम्भिक अनुभव अनेक बार यह भावना उत्पन्न कर देते हैं कि उसके कार्यों या व्यवहार का सम्बन्धित परिस्थितियों या वातावरण पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं है।
इस स्थिति में प्राणी या व्यक्ति में एक प्रकार की विवशता या बेबसी की भावना विकसित हो जाती है। इस स्थिति को ही मनोवैज्ञानिक भाषा में ‘अर्जित निस्सहायता’ या अधिगमित विवशता कहा जाता है। जिन परिस्थितियों या वातावरण के कारण प्राणी में इस प्रकार की विवशता की भावना विकसित होती है तथा सम्बन्धित परिस्थितियों में प्राणी को यदि कोई विषय सिखाया जाता है तो प्रायः व्यक्ति के अधिगम पर ऋणात्मक प्रभाव ही पड़ता है। सामान्य रूप से
अर्जित निस्सहायता के शिकार प्राणी या व्यक्तियों में समुचित प्रेरणा का अभाव होता है। यह भी पाया गया कि अधिगमित विवशता के लिए संवेगात्मक कारक जिम्मेदार होते हैं। वास्तव में, अधिगमित विवशता की स्थिति कुछ हद तक अवसाद की स्थिति के समान होती है। अधिगमित विवशता की निम्नलिखित तीन मुख्य विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है
- अर्जित निस्सहायता या अधिगमित विवशता की भावना सम्बन्धित परिस्थिति के प्रति विशिष्ट होती है।
- अनेक बार व्यक्ति अपनी अधिगमित विवशता को स्थायी समझ लेता है।
- प्रायः व्यक्ति अपनी अर्जित निस्सहायता के सम्बन्ध को आन्तरिक तथा कुछ बाहरी कारकों से जोड़ लेता है।
प्रश्न 6
सीखने की अविराम तथा विराम विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अविराम तथा विराम विधि में निम्नलिखित अन्तर हैं
प्रश्न 7
सीखने की अविराम तथा विराम विधि में कौन-सी श्रेष्ठ है?
उत्तर
कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर सीखने की विराम विधि, अविराम विधि से अच्छी होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर श्रेष्ठता के मानदण्ड निम्न प्रकार बताये जा सकते हैं
- जब कार्य कठिन हो, उसमें सूझ-बूझे व बुद्धिमत्ता की आवश्यकता हो और साथ ही वह लम्बा भी हो तो ऐसी परिस्थिति में विराम विधि, अविराम विधि से उत्तम है।
- जब कार्य सामान्य, छोटा एवं यान्त्रिक प्रकार का हो और उसे रटकर सीखा जा सके तो अविराम विधि, विराम विधि से अच्छी है।
- विराम विधि में विश्राम का मूल उद्देश्य किसी कार्य को सीखने से उत्पन्न थकान को दूर करना है; अतः विश्राम के लिए इतना समय अवश्य दिया जाना चाहिए कि इससे व्यक्ति में उत्पन्न थकान दूर हो जाए। विश्राम की अवधि अलग-अलग व्यक्तियों तथा अलग-अलग तरह के कार्यों के लिए अलग-अलग हो सकती है; जैसे–भारी पेशीय कार्य करने में सामान्यतः विश्राम की अवधि लम्बी होनी चाहिए।
- कार्य के दौरान, दूसरी कितनी बार अभ्यास के उपरान्त विश्राम देना चाहिए अर्थात् कितने प्रयासों के उपरान्त विश्राम उपयुक्त है, इसके विषय में विद्वानों का मत है कि जब सीखने के वक्र में गिरने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर हो तो वहाँ अास को रोक देना चाहिए और व्यक्ति को विश्राम देना चाहिए। सीखने की प्रक्रिया में कमी आना या वक्र में गिरने की प्रवृत्ति कार्य की प्रकृति तथा सीखने वाले व्यक्ति की अभिरुचि व अभिप्रेरणा पर निर्भर होती है।
- हिलगार्ड नामक विद्वान् ने बताया है कि विराम विधि का एक खास दोष यह है कि अधिक विश्राम की स्थिति में व्यक्ति के मन में अनेक पुरानी बातें या घटनाएँ स्वयं ताजा हो जाती हैं। यक्ति उनमें खो जाता है जिससे पुनः कार्य शुरू करने या पाठ सीखने में बाधा उत्पन्न होती है। उपर्युक्त विवरण द्वारा यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सीखने की विराम विधि सर्वश्रेष्ठ है तथा अविराम विधि व्यर्थ। वास्तविकता यह है कि जब कोई कार्य या पाठ छोटा, सामान्य, रटने लायक होता है। जिसमें समझ की अधिक आवश्यकता नहीं होती तो अविराम विधि विराम विधि से अच्छी होती है, किन्तु जब कार्य या पाठ कठिन व लम्बा हो और उसमें समझदारी की आवश्यकता हो तो ऐसी दशा में विराम विधि की सहायता लेनी चाहिए।
प्रश्न 8
अधिगम की पूर्ण तथा अंश विधि में से कौन-सी विधि अधिक उपयोगी है?
उत्तर
पूर्ण तथा अंश विधि की उपयोगिता के सम्बन्ध में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोग किये तथा तुलनात्मक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि दोनों ही विधियाँ स्वयं में गुणकारी व लाभदायक हैं, किन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में कोई एक विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है। होवलैण्ड नामक विद्वान् ने पूर्ण तथा अंश विधि की उपयोगिता के मूल्यांकन हेतु कुछ कारक बताये, जो निम्नलिखित हैं-
(1) कार्य की प्रकृति- यदि कार्य का स्वरूप ऐसा है कि कार्य सरल है, उसमें तार्किक क्रम है। और वह ज्यादा लम्बा नहीं है तो पूर्ण विधि बेहतर सिद्ध होती है, किन्तु यदि कार्य अधिक जटिल व लम्बा है तथा उसमें तार्किक क्रम बना रहना जरूरी नहीं है तो ऐसी दशा में अंश विधि द्वारा अधिक अच्छे ढंग से सीखा जा सकता है।
(2) आयु- अधिक आयु के व्यक्ति पूर्ण विधि से तथा कम-से-कम आयु के व्यक्ति अंश विधि से अच्छा सीख सकते हैं। अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि वयस्क व्यक्ति पूर्ण विधि से तथा कम आयु के व्यक्ति अंश विधि से ज्यादा सीख पाते हैं।
(3) बुद्धि- जिन व्यक्तियों की बुद्धि-लब्धि अधिक होती है वे पूर्ण विधि से सीखते हैं, जबकि सामान्य या कम बुद्धि-लब्धि के व्यक्ति अंश विधि से अधिक सीखते हैं।
(4) अधिगम- अवस्था साधारणतयाः सीखने की प्रारम्भिक अवस्था में व्यक्ति अंश विधि से सीखने में सफल रहता है, किन्तु पर्याप्त रूप से सीखने के बाद वह सीखने की अन्तिम अवस्था में होता है तो वैसी परिस्थिति में सीखने की पूर्ण विधि से अधिक सफलता प्राप्त होती है।
(5) अभिप्रेरणा– यदि कार्य को सीखने की प्रेरणा व्यक्ति में अधिक है तो पूर्ण विधि, अंश विधि से अधिक अच्छी समझी जाती है। इस भाँति स्पष्ट है कि पूर्ण विधि तथा अंश विधि अलग-अलग एवं विशिष्ट परिस्थितियों में उपयोगी सिद्ध होती हैं। जब कार्य अधिक लम्बा नहीं है, छोटा है और उसमें तार्किक क्रम आवश्यक है। तो ऐसी परिस्थिति में पूर्ण विधि, अंश विधि से अधिक लाभप्रद है, किन्तु जब कार्य बहुत लम्बा होता है। तथा उसमें कोई तार्किक क्रम भी नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में अंश विधि, पूर्ण विधि से अधिक गुणकारी सिद्ध होती है।
अंश विधि एक अन्य प्रकार से भी लाभकारी है। अंश विधि द्वारा कार्य सीखने में व्यक्ति में अभिरुचि तथा उत्साह बना रहता है। वस्तुत: एक अंश या एक भाग को सीख लेने पर व्यक्ति को प्रसन्नता का अनुभव होता है और यह अनुभूति व्यक्ति में अगले भाग को सीखने में अभिरुचि तथा उत्साह बनाये रखती है। निष्कर्ष यह निकलता है कि परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति को पूर्ण विधि तथा अंश विधि दोनों का समुचित उपयोग सीखने के लिए करना चाहिए।
प्रश्न 9
‘प्रयत्न एवं भूल विधि तथा सूझ विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर
प्रयत्न एवं भूल विधि’ तथा ‘सूझ विधि’ में अग्रलिखित अन्तर हैं
प्रश्न 10
अधिगम-स्थानान्तरण के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अधिगम-स्थानान्तरण की प्रक्रिया कुछ सिद्धान्तों पर आधारित है। इस विषय में निम्नलिखित दो प्रमुख सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं
(1) औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त (Theory of Formal Discipline)- उन्नीसवीं शताब्दी तक,प्रचलित ‘औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त’, ‘सामान्य अन्तरण का सिद्धान्त या विजय का सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, कठिन सामग्री के अधिगम से व्यक्ति के मस्तिष्क का उचित प्रशिक्षण होता है और इससे उसे अपने दिन-प्रतिदिन की दूसरी क्रियाओं को सीखने में भी सहायता मिलती है। यह सिद्धान्त स्वीकार करता है कि व्यक्ति की विभिन्न मानसिक शक्तियों; जैसे-तर्क, निर्णय, कल्पना एवं स्मृति को शिक्षण के माध्यम से विकसित तथा शक्तिशाली बनाया जा सकता है। इस भाँति विकसित तथा प्रबल हुई मानसिक शक्तियाँ व्यक्ति के अन्य कार्यों को भी प्रभावित करती हैं। |
(2) प्रविधियों की समानता का सिद्धान्त (Theory of Indentical Techniques)— इसे अंशों का सिद्धान्त या थॉर्नडाइक का सिद्धान्त भी कहते हैं जिसके अनुसार अधिगम-स्थानान्तरण का कारण प्रविधियों की समानता है तथा दोनों परिस्थितियों में उद्दीपन तथा अनुक्रियाएँ भी एक समान होती हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, एक कार्य का दूसरे कार्य पर स्थानान्तरण कितना होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों कार्यों में साहचर्यपरक तत्त्वों में कितनी समानता है। कम समानता में कम स्थानान्तरण तथा अधिक समानता में अधिक स्थानान्तरण होगा।
प्रश्न 11
अधिगम-स्थानान्तरण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। (2013)
उत्तर
मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम-स्थानान्तरण के तीन प्रमुख प्रकार बताये हैं
(1) धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण (Positive Transfer of Learning)- यदि पहले से सीखा हुआ व्यवहार, वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार में सहायता देता है तो इस तरह का स्थानान्तरण, धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति कार चलाना जानता है और अब बस चलाना सीख रहा है तो उसे पहले सीखे गये व्यवहार से (अर्थात् कार चलाना से) दूसरी परिस्थिति (अर्थात् बस चलाने) में सहायता मिलती है। इसका अर्थ है कि धनात्मक
अधिगम-स्थानान्तरण में उद्दीपक तो बदल जाते हैं किन्तु अनुक्रिया समान होती है। उद्दीपक कार (N1) से बदलकर बस (N2) हो जाती है, किन्तु अनुक्रिया दोनों ही परिस्थितियों में एक जैसी रहती है। धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है–
प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1
धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण का एक प्रकार द्विपाश्विक अधिगम-स्थानान्तरण । (Bi-lateral Transfer of Learning) भी है जिसमें धनात्मक स्थानान्तरण व्यक्ति के शरीर के एक अंग से दूसरे अंग में पाया जाता है। उदाहरण के लिए–कभी-कभी देखने में आता है कि व्यक्ति किसी कार्य को किसी एक हाथ से करना सीखता है और उसके बाद उसी कार्य को दूसरे हाथ से करना सीखता है तो पहली परिस्थिति में अधिगम की वजह से उसे दूसरी परिस्थिति में तीखने में सहायता मिलती है।
(2) ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण (Negative Transfer of Learning)– यदि पहले से सीखा हुआ व्यवहार वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार में बाधा उत्पन्न करता है तो इस प्रकार के स्थानान्तरण को ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण कहते हैं। उदाहरण के लिए हमेशा बायें हाथ की। कलाई में घड़ी पहनने वाला व्यक्ति यदि संयोगवश किसी दिन दायें हाथ की कलाई में घड़ी पहन ले तो समय देखने के लिए उसका ध्यान प्रायः बायें हाथ की तरफ हो जाएगा, यद्यपि घड़ी इस समय व्यक्ति । की दायें हाथ की कलाई में बँधी है। स्पष्ट होता है कि इस तरह के अधिगम-स्थानान्तरण में उद्दीपक (S) हो तो दोनों परिस्थितियों में एक जैसा रहता है, किन्तु अनुक्रिया (R) भिन्न हो जाती है। ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण के लिए निम्नलिखित सूत्र है
प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1
(3) शून्य अधिगम-स्थानान्तरण (Zero Transfer of Learning)- जिन अधिगम परिस्थितियों में पहले से सीखे हुए व्यवहार का वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसे शून्य अधिगम-स्थानान्तरण केहो जाता है। यह स्थानान्तरण तब होता है जब स्थानान्तरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ स्थानान्तरण के अनुकूल नहीं होतीं। यह उस समय भी होता है जब धनात्मक व ऋणात्मक दोनों ही प्रकार की परिस्थितियाँ एक ही साथ उपस्थित हो जाएँ। इसका सूत्र निम्नलिखित है।
प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
सीखने की सक्रिय तथा निष्क्रिय विधि की तुलना कीजिए।
उत्तर
सीखने के लिए अपनायी जाने वाली दो विधियाँ हैं क्रमशः सीखने की सक्रिय विधि तथा सीखने की निष्क्रिय विधि। इन दोनों विधियों का सापेक्ष महत्त्व है। सक्रिय तथा निष्क्रिय विधि द्वारा सीखने के तुलनात्मक अध्ययन के दौरान गेट्स (Gates) नामक मनोवैज्ञानिक ने निष्कर्ष निकाला कि सक्रिय विधि, निष्क्रिय विधि से तीन बातों में अधिक अच्छी है-
- सक्रिय विधि द्वारा सीखने में व्यक्ति की अभिप्रेरणा तथा अभिरुचि अधिक होती है।
- व्यक्ति को सीखे गये कार्य के परिणाम का ज्ञान होता रहता है जिससे उसे यह बोध होता है। कि अगले प्रयास में पाठ के किस अंश पर ज्यादा बल दिया जाना चाहिए।
- सक्रिय सीखने की शुरुआत कार्य को सीखने के प्रारम्भ से ही होनी चाहिए, क्योंकि इससे अधिगम अधिक प्रबल तथा दक्ष होता है।
अध्ययन से पता चलता है कि सक्रिय विधि उस समय अधिक उपयोगी है जबकि बाह्य वातावरण में ध्यान को विचलित करने वाले कारक उपस्थित होते हैं। निष्क्रिय विधि तब अधिक उपयोगी है जबकि अधिगम सामग्री कठिन हो और उसके लिए अधिक ध्यान की आवश्यकता हो।
प्रश्न 2
शाब्दिक सीखना का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर
सुन कर तथा बोलकर भाषा के माध्यम से सीखने की सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया को ‘शाब्दिक सीखना’ कहते हैं। मनुष्यों में अधिकांश सीखना ‘शाब्दिक सीखना ही होता है।
प्रश्न 3
प्राचीन अनुबन्धन के चार अवयवों के नाम लिखिए।
उत्तर
प्राचीन अनुबन्धन के चार अवयव इस प्रकार हैं-
- प्रबल ‘प्रेरक का विद्यमान होना
- विभिन्न उद्दीपनों में समय का सम्बन्ध
- उद्दीपन अनुक्रिया का बार-बार दोहराना तथा
- ध्यान बँटाने वाले उद्दीपनों का अभाव।
प्रश्न 4
अनुकरण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने की एक मुख्य विधि अनुकरण है। अनुकरण के विभिन्न प्रकार हैं जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है|
(1) सप्रयास अनुकरण- जब हम किसी व्यक्ति-विशेष के क्रियाकलापों की यत्नपूर्वक तथा जानबूझकर नकल करते हैं तो इसे सप्रयास अनुकरण कहते हैं।
(2) सहज अनुकरण- इस प्रकार के अनुकरण में कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता; बल्कि यह स्वतः ही हो जाता है। विद्वानों का मत है कि अधिक संवेदनशील व्यक्ति ही सहज अनुकरण करने में समर्थ होते हैं। आमतौर पर, हँसी के माहौल में एक व्यक्ति दूसरों के साथ सम्मिलित होकर स्वत: ही हँसने लगता है और शोकाकुल लोगों के मध्य व्यक्ति स्वतः ही शोकमग्न भी हो जाता है।
(3) विचारात्मक अनुकरण- विचारात्मक अनुकरण का सम्बन्ध व्यक्ति-विशेष के विचारों की नकल से है। |
(4) विचाररहित अनुकरण- जिसे अनुकरण की प्रक्रिया में किसी विचार का अनुगमन न किया जाता हो और यह विचारविहीन अवस्था से उत्पन्न होता हो, उसे विचाररहित अनुकरण का नाम दिया जाएगा।
(5) निरर्थक अनुकरण- निरर्थक क्रियाओं, जिनका कुछ भी अभिप्राय न हो, की नकल निरर्थक अनुकरण है। इसे प्रायः बच्चों द्वारा अपनाया जाता है।
प्रश्न 5
अनुकरण के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। उत्तर यद्यपि सीखने की अनेकानेक विधियाँ हैं, किन्तु मनुष्य अपने जीवन में अनुकरण के माध्यम से बहुत अधिक सीखता है। मानव जाति में अनुकरण द्वारा सीखने का महत्त्व बालकों के लिए सर्वाधिक है। बालक खेल-खेल में अनुकरण द्वारा नवीन क्रियाओं को अल्पकाल में ही सीख जाते हैं। उदाहरणार्थ– व्यवहार के तरीके, अच्छी-बुरी आदतें, शब्दों का उच्चारण, वाचन तथा लेखन की कला एवं बहुत-सी सृजनात्मक क्रियाएँ अनुकरण के माध्यम से जल्दी सीखी जाती हैं। बोल्टन नामक मनोवैज्ञानिक का विचार है कि जिस बालक में अनुकरण करने की सर्वाधिक शक्ति होती है, उसमें सीखने की सर्वाधिक शक्ति होती है। बच्चे जाने-अनजाने अपने बुजुर्गों से अनेकानेक बातें सीख लेते हैं। बच्चों को सिखाने की प्रक्रिया में वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अच्छे वातावरण से बच्चों का अच्छा आचरण होता है और वे बुरे वातावरण से भी जल्दी ही प्रभावित हो जाते हैं। वस्तुत: अनुकरण द्वारा सीखने से मनुष्य में चतुराई आती है।
प्रश्न 6
प्रयत्न एवं भूल विधि से सीखने की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने की ‘प्रयत्न एवं भूल’ विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- इस विधि के अन्तर्गत किसी नयी परिस्थिति (समय) का जन्म होता है।
- इसे नयी परिस्थिति के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया विकसित होती है।
- प्रयासों के परिणामस्वरूप अनायास ही सफलता मिलती है।
- शनैः शनैः होने वाली भूलों की संख्या घटती जाती है।
- सफल प्रतिक्रिया को बार-बार दोहराने से उसका स्थायीकरण हो जाता है और इस प्रकार प्राणी नये विषय सीखता है।
प्रश्न 7
सीखने की सूझ विधि के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विश्व के समस्त उच्च स्तर के बुद्धिप्रधान जीवों में सीखने की क्रिया सूझ या अन्तर्दृष्टि की सहायता से सम्पन्न होती है। व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में नयी-नयी परिस्थितियों तथा बाधाओं को पातां है और उनका अभीष्ट समाधान खोजने में सूझ की सहायता लेता है। शिक्षार्थी भी सूझ की विधि का सहारा लेकर गणित, ज्यामिति, सांख्यिकीय तथा वैज्ञानिक समस्याओं को हल करते हैं। ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में होने वाले आविष्कार एवं खोजों में अन्तर्दृष्टि की प्रमुख भूमिका रही है। घर-परिवार, स्कूल, कार्यालय, कारखाने, व्यापार आदि जीवन के विविध क्षेत्रों से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान, सूझ के द्वारा ही सम्भव होता है। निष्कर्षत: मनुष्य के जीवन में सूझ यो अन्तर्दृष्टि का अत्यधिक महत्त्व है।
प्रश्न 8
अधिगम-स्थानान्तरण के मापन की विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अधिगम-स्थानान्तरण के मापन के लिए दो बातों का ज्ञान आवश्यक है-एक, प्रयोगात्मक समूह की सही अनुक्रियाओं का मध्यमान (E = Experimental Groups Mean) तथा दो, नियन्त्रित समूह की सही अनुक्रियाओं का अध्ययन (C = Control Groups Mean)। प्रयोगात्मक समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान तथा नियन्त्रित समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान के अन्तर को नियन्त्रित समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान से विभाजित कर प्राप्त अंक को 100 से गुणा करने पर स्थानान्तरण प्रतिशत ज्ञात हो जाता है। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I : निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए
- अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसे…………..कहते हैं।
- अनुभव और प्रशिक्षण के फलस्वरूप व्यवहार को अपेक्षाकृत स्थायी और प्रगतिपूर्ण परिवर्तन ही……..”है।
- वुडवर्थ के अनुसार अपने पूर्व व्यवहार में ……………. करना ही ‘सीखना’ कहलाती है।
- अधिगम की प्रक्रिया ………..चलती है।
- अधिगम की प्रक्रिया पर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का ………….
- प्रतिकूल वातावरण सीखने की प्रक्रिया में ………….. होता है।
- दण्ड एवं निन्दा का सीखने की प्रक्रिया पर ………… प्रभाव पड़ता है।
- पुरस्कार और प्रशंसा का सीखने की प्रक्रिया पर………… प्रभाव पड़ता है।
- परिपक्वता के लिए …………आवश्यक नहीं है। (2008)
- परिपक्वता के अभाव में सीखने की प्रक्रिया…….।
- परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं तथा सीखने के अभाव में परिपक्वता ….. है।
- किसी व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार को देखकर सीखने की विधि को………..कहते हैं।
- अनुकरण विधि द्वारा सीखने में ……….की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
- सीखने की प्रयास एवं भूल विधि का सर्वप्रथम प्रतिपादन ने किया था।
- प्रयास एवं भूल विधि को सत्यापित करने के लिए थॉर्नडाइक ने अपना प्रयोग …… पर किया था।
- मैक्डूगल ने प्रयास एवं भूल विधि को दर्शाने के लिए अपना प्रयोग………पर किया था।
- गैस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सीखने की प्रक्रिया ………. द्वारा सम्पन्न होती है।
- कोहलर तथा कोफ्का ………….. मनोवैज्ञानिक थे।
- कोहलर ने चिम्पैंजी पर प्रयोग करके सीखने के……….. सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
- कोहलर ने ‘अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने’ विषयक प्रयोग………..पर किया था। (2011, 17)
- व्यवहारवादियों द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धान्त को ………………कहते हैं।
- प्राचीन अनुबन्धन के सिद्धान्त का प्रतिपादन……….. ने किया। (2016)
- प्राचीन अनुबन्धन पर प्रयोग किया था (2013)
- प्राचीन अनुबन्धन के स्थापित होने में ………..तथा का महत्त्व है। (2013)
- पैवलोव ने अपने सीखने के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए…………पर प्रयोग किया था।
- किसी उद्दीपक से होने वाली प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुक्रिया जब उससे भिन्न किसी अन्य उद्दीपक वस्तु या परिस्थिति से उत्पन्न होने लगे तो उस प्रक्रिया को …………….कहते हैं।(2018)
- सीखने के नैमित्तिक अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन…………… ने किया है।
- सीखने के नियमों के प्रमुख प्रतिपादक………… माने जाते हैं।
- थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के प्राथमिक नियमों की संख्या ………….हैं। (2012)
- सीखने की प्रक्रिया में वह अवस्था जब सीखने में प्रगति नहीं होती है कहलाती है। (2008)
- यदि सीखने के वक्र में सीखने की प्रगति कुछ दूर तक रुकी हुई दिखाई देती है तो इससे ………का पता चलता है(2011)
- किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक परिस्थिति में सीखे गये कार्य को किसी अन्य परिस्थिति में
उपयोग में लाना ………… कहलाता है। । - यदि पूर्व में किया गया अधिगम बाद में किये जा रहे अधिगम अन्तरण में बाधक हो रहा हो, तो इस प्रकार के अधिगम अन्तरण को कहा जाता है।
- ……………ऋणात्मक और शून्य स्थानान्तरण अधिगम स्थानान्तरण के प्रकार हैं। (2017)
- पशुओं का अधिकांश सीखना…………प्रकार का होता है, जबकि मानव का अधिकांश सीखना वाचिक प्रकार का होता है। (2017)
उत्तर
1. सीखना या अधिगम, 2. अधिगम, 3. परिवर्तन, 4. जीवन-पर्यन्त, 5. प्रभाव पड़ता है, 6. बाधक, 7. प्रतिकूल, 8. अनुकूल, 9. अधिगम, 10. सुचारु रूप से नहीं चल सकती, 11. व्यर्थ, 12. अनुकरण, 13. सूझ-बूझ, 14. थॉर्नडाइक, 15. बिल्ली, 16. चूहों, 17. सूझ या अन्तर्दृष्टि, 18. गैस्टाल्टवादी, 19. सूझ या अन्तर्दृष्टि, 20. चिम्पैंजी, 21. सम्बद्ध प्रत्यावर्तन, 22. पैवलोव, 23. पैवलोव ने, 24. उद्दीपन, अनुक्रिया, 25. कुत्ते, 26. सम्बद्धता, 27. स्किनर, 28. थॉर्नडाइक, 29. तीन, 30. पठार, 31. सीखने के पठार, 32. अधिगम का स्थानान्तरण, 33. ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण, 34. धनात्मक, 35. क्रियात्मक।
प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए
प्रश्न 1.
वुडवर्थ द्वारा प्रतिपादित सीखने की परिभाषा लिखिए।
उत्तर
वुडवर्थ के अनुसार, “सीखना वह कोई भी क्रिया है जो बाद की क्रिया पर अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव डालती है।”
प्रश्न 2.
व्यवहारवाद के अनुसार सीखना क्या है?
उत्तर
व्यवहारवाद के अनुसार, सीखना मानव-व्यवहार में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।
प्रश्न 3.
प्रयोजनवाद के अनुसार सीखना क्या है?
उत्तर
प्रयोजनवाद के अनुसार, सीखना मानव-जीवन के लक्ष्य अथवा प्रयोजन से। सम्बन्धित है तथा यह लक्ष्योन्मुख उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।
प्रश्न 4.
परिपक्वता की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर
बोरिंग के अनुसार, हम परिपक्वता शब्द का प्रयोग उस वृद्धि और विकास के लिए करते हैं जो किसी बिना सीखे हुए व्यवहार से या किसी विशिष्ट व्यवहार के सीखने से पहले आवश्यक होता है।”
प्रश्न 5.
परिपक्वता तथा सीखने में क्या सम्बन्ध है? एक वाक्य में लिखिए।
उत्तर
परिपक्वता की प्रक्रिया सीखने से पूर्व की स्थिति है तथा यह सीखने का आधार है, परिपक्वता के अभाव में सम्बन्धित कार्य को सीखना सम्भव नहीं है।
प्रश्न 6.
परिपक्वता तथा सीखने में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर
परिपक्वता एक जन्मजात और स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह स्वतः संचालित होती है। इससे भिन्न सीखना एक अर्जित प्रक्रिया है। यह व्यक्ति के अर्जित व्यवहार से सम्बन्ध रखती है।
प्रश्न 7.
अनुकरण की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर
मेक्डूगल के अनुसार, “अनुकरण एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार की नकल करने को कहते हैं।”
प्रश्न 8.
अनुकरण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
- सप्रयास अनुकरण,
- सहज अनुकरण,
- विचारात्मक अनुकरण
- विचाररहित अनुकरण तथा
- निरर्थक अनुकरण।
प्रश्न 9.
कोहलर तथा कोफ्का नामक मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के किस सिद्धान्त का प्रतिपादन | किया है?
उत्तर
कोहलर तथा कोफ्को नामक मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के सूझ या अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
प्रश्न 10.
सीखने के सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त के प्रतिपादक का नाम लिखिए।
उत्तर
पैवलोव (I.P Pavlov)।
प्रश्न 11.
नैमित्तिक अनुबन्धन के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
कोनोस् नामक विद्वान् ने नैमित्तिक अनुबन्धन के चार प्रकारों का उल्लेख किया है–
- पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन
- परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन
- अकर्म नैमित्तिक अनुबन्धन तथा
- दण्ड नैमित्तिक अनुबन्धन।।
प्रश्न 12.
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम कौन-कौन से हैं?
उत्तर
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम हैं—
- तत्परता का नियम
- अभ्यास का नियम तथा
- प्रभाव का नियम।
प्रश्न 13.
सीखने के पठार से क्या आशय है?
उत्तर
जब व्यक्ति के सीखने की गति की वृद्धि रुक जाती है, तो उस स्थिति को सीखने का पठार कहा जाता है।
प्रश्न 14.
सीखने के पठार को समाप्त करने का एक मुख्य उपाय बताइए।
उत्तर
सीखने के पठार को समाप्त करने का एक मुख्य उपाय है-प्रबल प्रेरक उपलब्ध कराना।।
प्रश्न 15.
अधिगम के स्थानान्तरण की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर
क्रो तथा क्रो के अनुसार, “जब शिक्षण के एक क्षेत्र में प्राप्त विचार, अनुभव या कार्य की आदत, ज्ञान या निपुणता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है तो वह अधिगम का स्थानान्तरण कहलाता है।
प्रश्न 16.
अधिगम के स्थानान्तरण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
- धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण,
- ऋणात्मक, अधिगम-स्थानान्तरण तथा ।
- शून्य अधिगम-स्थानान्तरण।।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
अनुभव और प्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन कहलाता है (2017)
(क) सीखना
(ख) व्यक्तित्व
(ग) प्रत्यक्षीकरण
(घ) स्मृति
उत्तर
(क) सीखना
प्रश्न 2.
सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप किसमें परिवर्तन होता है?
(क) व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में
(ख) व्यक्ति के व्यवहार में
(ग) व्यक्ति के सौन्दर्य एवं हाव-भाव में
(घ) व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियों में
उत्तर
(ख) व्यक्ति के व्यवहार में
प्रश्न 3.
सीखने की प्रक्रिया में सहायक कारक है
(क) व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
(ख) आयु एवं परिपक्वता
(ग) प्रशंसा एवं पुरस्कार
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी
प्रश्न 4.
परिपक्वता तथा सीखने में सम्बन्ध है
(क) सीखने के लिए परिपक्वता का कोई महत्त्व नहीं है।
(ख) सीखने के लिए समुचित परिपक्वता अनिवार्य है।
(ग) सीखने से परिपक्वता की जाती है।
(घ) उपर्युक्त सभी कथन असत्य हैं।
उत्तर
(ख) सीखने के लिए समुचित परिपक्वता अनिवार्य है।
प्रश्न 5.
परिपक्वता तथा अधिगम में अन्तर है
(क) परिपक्वता एक जन्मजात प्रक्रिया है जब कि अधिगम एक अर्जित प्रक्रिया
(ख) परिपक्वता पर अभ्यास का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जबकि अधिगम पर अभ्यास का प्रभाव पड़ता है।
(ग) परिपक्वता एक आन्तरिक एवं अचेतन प्रक्रिया है, जबकि अधिगम एक सचेतन प्रक्रिया है, जिसे मनुष्य जानबूझकर चलाता है।
(घ) उपर्युक्त सभी अन्तर
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी अन्तर
प्रश्न 6.
बच्चों द्वारा सीखने के लिए सर्वाधिक किस विधि को अपनाया जाता है?
(क) सूझ अथवा अन्तर्दृष्टि विधि को
(ख) प्रयास एवं भूल विधि को
(ग) अनुकरण विधि को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) अनुकरण विधि को
प्रश्न 7.
अनुकरण द्वारा सीखने का उदाहरण है
(क) परीक्षा में नकल करना ।
(ख) किसी नेता के चलने व बोलने के ढंग को अपनाना
(ग) भीड़ में जाकर क्रुद्ध होना
(घ) परिवार के सदस्यों को अच्छी-अच्छी बातें सिखाना
उत्तर
(ख) किसी नेता के चलने व बोलने के ढंग को अपनाना
प्रश्न 8.
प्रयास तथा त्रुटि द्वारा अधिगम प्रस्तावित किया (2013, 17)
(क) एबिंगहॉस ने
(ख) थॉर्नडाइक ने
(ग) कोहलर ने
(घ) पैवलोव ने
उत्तर
(ख) थॉर्नडाइक ने
प्रश्न 9.
थॉर्नडाइक के अधिगम सिद्धान्त का नाम नहीं है
(क) नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धान्त
(ख) प्रयत्न एवं भूल सिद्धान्त
(ग) उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त |
(घ) उद्दीपक-अनुक्रिया सम्बन्ध सिद्धान्त
उत्तर
(क) नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धान्त
प्रश्न 10.
कोहलर तथा कोफ्का के अनुसर अधिगम
(क) प्रयत्न एवं भूल द्वारा होता है।
(ख) सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा होता है।
(ग) अनुकरण द्वारा होता है।
(घ) अभ्यास द्वारा होता है।
उत्तर
(ख) सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा होता है।
प्रश्न 11.
सीखने के अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ।
(क) थॉर्नडाइक ने
(ख) पैवलॉव ने
(ग) कोहलर ने
(घ) स्किनर ने
उत्तर
(ग) कोहलर ने
प्रश्न 12.
अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने के सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रयोग किसने किया है? (2010, 12)
(क) गुंग ने
(ख) वुण्ट ने
(ग) कोहलर ने
(घ) वाटसन ने
उत्तर
(ग) कोहलर ने
प्रश्न 13.
प्राचीन अनुबन्धन सिद्धान्त’ से सम्बन्धित है (2008, 12, 15)
(क) स्किनर
(ख) आलपोर्ट
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) पैवलोव
उत्तर
(ग) थॉर्नडाइक
प्रश्न 14.
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक हैं
(क) पैवलोव
(ख) कोहलर
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) मैक्डूगल
उत्तर
(क) पैवलोव
प्रश्न 15.
नैमित्तिक अनुबन्धन सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं (2009, 16, 18)
(क) बी०एफ०स्किनर
(ख) थॉर्नडाइक
(ग) पैवलोव
(घ) कोहलर
उत्तर
(क) बी०एफ०स्किनर
प्रश्न 16.
सीखने के नियम दिये गये हैं (2015)
(क) थॉर्नडाइक द्वारा
(ख) मैक्डूगल द्वारा
(ग) फ्रॉयड द्वारा
(घ) वुण्ट द्वारा
उत्तर
(क) थॉर्नडाइक द्वारा
प्रश्न 17.
निम्नलिखित में कौन सीखने का प्राथमिक नियम नहीं है?
(क) प्रभाव का नियम
(ख) तत्परता का नियम
(ग) आंशिक क्रिया का नियम
(घ) अभ्यास का नियम
उत्तर
(ग) आंशिक क्रिया का नियम
प्रश्न 18.
थॉर्नडाइक के अनुसार सीखने के लिए आवश्यक नहीं है|
(क) अभ्यास ।
(ख) प्रभाव या परिणाम
(ग) तैयारी ।
(घ) सूझ
उत्तर
(घ) सूझ
प्रश्न 19.
सीखने की गति में होने वाली वृद्धि की दर रुक जाने की स्थिति कहलाती है
(क) सीखने का पठार
(ख) कुशलता की क्षति
(ग) विस्मरण
(घ) अयोग्यता
उत्तर
(क) सीखने का पठार
प्रश्न 20.
सीखने के पठार में सीखने का स्तर (2014)
(क) कुछ कम हो जाता है।
(ख) उसी स्तर पर रुक जाता है।
(ग) लगातार कम होता जाता है।
(घ) तेजी से बढ़ता है।
उत्तर
(ख) उसी स्तर पर रुक जाता है।
प्रश्न 21.
अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक है
(क) सीखने के लिए अपनायी गयी उत्तम विधि
(ख) पहले सीखे गये विषय की शिक्षण-मात्री
(ग) अधिगम के स्थानान्तरण के लिए किये जाने वाले प्रयास
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी
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