up board class 9th hindi | रहीम

By | May 9, 2021

up board class 9th hindi | रहीम

 
                              जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
 
प्रश्न रहीम के जीवन-वृत्त और कृतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर― जीवन-परिचय―हिन्दी-साहित्य के मुसलमान कवियों में रहीम का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। इनका जन्म सन् 1556 ई० (सं0 1613 वि०) के आस-पास
लाहौर नगर (आजकल पाकिस्तान में) में हुआ था। ये अकबर के संरक्षक बैरम खाँ के पुत्र तथा अकबर के
प्रधान सेनापति, मन्त्री तथा दरबार के नवरत्नों में से थे। ये वीर योद्धा और सेना के सफल संचालक भी थे।
रहीम संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दी के ज्ञाता थे। ये अपनी दानशीलता और उदारता के
लिए भी पर्याप्त प्रसिद्ध रहे। अकबर ने इन्हें ‘खानखाना’ की उपाधि से विभूषित किया था। अकबर की मृत्यु
के बाद जहाँगीर ने इन्हें राजद्रोह के अभियोग में कैद कर इनकी जागीरें छीन ली। इसके बाद रहीम ने
अत्यधिक कष्टमय जीवन व्यतीत किया। इन्होंने कई स्थानों पर अपने सुख-दुःखमय जीवन का चित्रण अपने
दोहों में किया है―
                     रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
                      सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥
रहीम अपने ‘नीति के दोहों’ के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके दोहों का सूक्ति रूप में प्रयोग होता है। सन्
1627 ई० (सं0 1684 वि०) में इनकी मृत्यु हो गयी।
कृतियाँ―रहीम ने अवधी और ब्रजभाषा में काव्य-रचना की है। इन्हें हिन्दी से बड़ा प्रेम था। हिन्दी
में इनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) रहीम सतसई―इसमें रहीम के नीति और उपदेश सम्बन्धी 300 दोहे संगृहीत हैं।
(2) बरवै नायिका भेद वर्णन―इसमें 116 बरवै अवधी भाषा में हैं। यह श्रृंगार प्रधान रचना है।
(3) श्रृंगार-सोरठा―इसमें शृंगार रसप्रधान 6 ही सोरठे उपलब्ध हैं।
इनके अतिरिक्त (4) मदनाष्टक, (5) रासपंचाध्यायी, (6) दीवाने फारसी, (7) रहीम रत्नावली
आदि रहीम की अन्य रचनाएँ भी हैं।
साहित्य में स्थान―जनसाधारण में अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध रहीम ने हिन्दी में नीति, भक्ति,
वैराग्य और शृंगार विषयों पर मार्मिक काव्य-रचना की है। निश्चय ही हिन्दी साहित्य में रहीम का विशेष
महत्त्वपूर्ण स्थान है।
 
                             पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
 
◆ दोहा
(1) जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
      चंदन बिष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।।
[प्रकृति = स्वभाव। कुसंग = बुरी संगति। भुजंग = सर्पी]
सन्दर्भ―प्रस्तुत दोहा रहीम द्वारा रचित ‘रहीम रत्नावली’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी‘ के
‘काव्य-खण्ड’ में संकलित दोहा’ शीर्षक से अवतरित है।
[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले शेष सभी दोहों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग―रहीम ने उच्चकोटि के नीति सम्बन्धी दोहों की रचना की है। प्रस्तुत दोहे में उत्तम प्रकृति
तथा चरित्र की दृढ़ता पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या―कवि रहीम का कहना है कि जो व्यक्ति उत्तम स्वभाव और दृढ़ चरित्र वाले होते हैं, बुरी
संगति में रहने पर भी उनके चरित्र में विकार उत्पन्न नहीं होता। जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर चाहे कितने ही
विषैले सर्प क्यों न लिपटे रहें, परन्तु उस पर सर्पो के विष का प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् चन्दन का वृक्ष अपनी
सुगन्ध और शीतलता के गुण को छोड़कर जहरीला नहीं हो जाता। इसी प्रकार सज्जन भी अपने सद्गुणों को
कभी नहीं छोड़ते।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि का मन्तव्य है कि दृढ़ चरित्र और उत्तम स्वभाव वाले व्यक्तियों के
चरित्र पर बुरे चरित्र वाले व्यक्ति के आचरण का प्रभाव नहीं होता। (2) भाषा―ब्रजा (3) शैली―
उपदेशात्मक व मुक्तक। (4) रस―शान्ता (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―दृष्टान्त और अनुप्रास।
(7) गुण―प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा।
 
       (2) रहिमन प्रीतिसराहिये,मिले होत रंगदून।
             ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
[प्रीति = प्रेम। सराहिये = सराहना कीजिए। दून = दुगुना। जरदी = पीलापन। चून = चूना।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में सच्ची प्रीति की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि उसी प्रेम की प्रशंसा करनी चाहिए, जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम
मिलकर दुगुना हो जाता है, अर्थात् दोनों प्रेमी अपना अलग-अलग अस्तित्व भूलकर एक-दूसरे में समाहित
हो जाते हैं जैसे हल्दी पीली होती है और चूना सफेद, परन्तु दोनों मिलकर एक नया (लाल) रंग बना देते हैं।
हल्दी अपने पीलेपन को और चूना सफेदी को छोड़कर एकरूप हो जाते हैं। सच्चे प्रेम में भी ऐसा ही होता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) सच्चे प्रेम का स्वरूप, दोनों प्रेमियों को स्वयं का अस्तित्व भुलाकर
एकरूप हो जाना है। (2) भाषा―ब्रजा (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा।
(6) अलंकार―अनुप्रास एवं दृष्टान्त। (7) गुण–प्रसाद। (8) भाव-साम्य―कबीर के अनुसार प्रेम की
सँकरी गली में ‘मैं’ और ‘तू’ दोनों एकाकार होकर ही आ सकते हैं―
                             प्रेम-गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं।
 
       (3) टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
             रहिमन फिरि-फिरि पोइये, टूटे मुक्ताहार ॥
[टूटे = रुष्ट हुए। सुजन = सज्जन। पोइये = पिरोइए। मुक्ताहार = मोतियों का हार।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में रहीम ने सज्जनों के महत्त्व पर विचार प्रकट किया है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि यदि सज्जन मनुष्य रूठ भी जाएँ तो उन्हें शीघ्र मना लेना चाहिए।
यदि वे सौ बार भी नाराज हों तो उन्हें सौ बार भी मना लेना चाहिए, क्योंकि वे जीवन के लिए बहुत उपयोगी
होते हैं। जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हार टूट जाने पर उसे बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार सज्जनों
को भी मनाकर रखना चाहिए; क्योंकि वे मोतियों के समान ही मूल्यवान होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने सज्जन व्यक्तियों को मोती के समान बहुमूल्य माना है और
उनका साथ बनाये रखने का परामर्श दिया है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त।
(5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―अनुप्रास, दृष्टान्त और पुनरुक्तिप्रकाश। (7) गुण–प्रसादा (8) भाव-
साम्य―गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी सज्जनों के महत्त्व पर विचार प्रकट करते हुए कहा है―
                          बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
 
(4) रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करे।।
      जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि दे।
[अँसुआ = आँसू। ढरि = निकलते ही। जिय = हृदय के। प्रगट करेइ = बता देते हैं। जाहि = जिसे। गेह=
घर। कस = क्यों।]
प्रसंग―कवि रहीम का मत है कि घर से निकाला जाने वाला हर व्यक्ति घर का भेद खोल देता है।
व्याख्या―रहीमदास जी कहते हैं कि आँसू, आँखों से निकलते ही मन के सारे दुःख को प्रकट कर
देते हैं। कवि का कथन है कि जिस व्यक्ति को घर से निकाला जाएगा, वह घर के सारे भेद क्यों न कह देगा?
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर से निकाले जाने पर घर के सारे भेद दूसरों के सामने खोल
देता है, उसी प्रकार आँखरूपी घर से निकाले जाने पर आँस भी मन के सारे भेद प्रकट कर देता है; अर्थात्
यह प्रकट कर देता है कि इस व्यक्ति के हृदय में दुःख है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने जीवन का सच्चा अनुभव प्रकट किया है। वह कहना चाहता है
कि अपने घर के भेद को बचाये रखने के लिए घर-परिवार में एकता का होना आवश्यक है। (2) इस सम्बन्ध
में एक अन्य लोकोक्ति भी प्रचलित है―’घर का भेदी लंका ढाए’। (3) भाषा―ब्रजा (4) शैली―
मुक्तक। (5) रस―शान्त। (6) अलंकार―अनुप्रास, दृष्टान्त एवं मानवीकरण। प्रस्तुत दोहे में आँसुओं का
मानवीकरण हुआ है। (7) छन्द―दोहा। (8) गुण―प्रसाद। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा तथा लक्षणा।
 
(5) कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
      बिपति-कसौटी जे कसे, तेही साँचे मीत।।
[सगे= सम्बन्धी, मित्र। बहु रीति = अनेक प्रकार से। बिपति-कसौटी = विपत्ति के समय परीक्षा। कसे =
परखे। साँचे = सच्चे। मीत = मित्र।]
प्रसंग―इस दोहे में कवि ने सच्चे मित्र की पहचान बतायी है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि जब व्यक्ति के पास सम्पत्ति होती है तो अनेक लोग तरह-तरह से
उसके सगे-सम्बन्धी बन जाते हैं, किन्तु जो विपत्ति के समय भी मित्रता नहीं छोड़ते, वे ही सच्चे मित्र होते हैं।
तात्पर्य यह है कि सच्चा मित्र ही विपत्ति की कसौटी पर सदैव खरा उतरता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) संकट में साथ देना ही मित्रता की वास्तविक परीक्षा है। (2) भाषा―ब्रज।
(3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―अनुप्रास तथा रूपक।
(7) गुण–प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं व्यंजना। (9) भाव-साम्य―गोस्वामी तुलसीदास जी
ने भी निम्नलिखित पंक्ति में यही भाव व्यक्त किया है―
                        धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपति काल परखिए चारी।
 
(6) जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
      रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह ॥
[तजि = छोड़कर। मीनन को = मछलियों का। तऊ = तब भी। छोह = वियोग।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में मछली के माध्यम से सच्चे प्रेम का आदर्श बताया गया है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि जब मछली पकड़ने के लिए नदी में जाल डाला जाता है, तब
मछली तो जाल में फँस जाती है और पानी अपनी सहेली मछली का मोह त्यागकर आगे निकल जाता है;
परन्तु मछली को जल से इतना प्रेम है कि वह पानी के बिना तड़प-तड़पकर मर जाती है। तात्पर्य यह है कि
सच्चा प्रेम करने वाला कभी अपने साथी का साथ नहीं छोड़ता।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने मछली के प्रेम द्वारा सच्चे प्रेम के आदर्श स्वरूप; जिसमें आत्म
त्याग की भावना होती है; को प्रस्तुत किया है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त।
(5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार-अन्योक्ति और अनुप्रास। (7) गुण–प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति-
अभिधा एवं व्यंजना। (9) भाव-साम्य―श्री रामनरेश त्रिपाठी जी ने भी यही बात कही है―
                         त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर।
 
(7) दीनन सबको लखत हैं,दीनहिं लखै न कोय।
       जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबन्धु सम होय॥
[सब = सभी। लखत हैं = देखते हैं। दीनहिं = दीनों को। लखै न कोय = कोई नहीं देखता। दीनबन्धु =
भगवान्।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि द्वारा सामान्य जन को दीन-दुःखियों की सहायता करने के लिए प्रेरित
किया गया है और कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति ईश्वर-तुल्य होता है।
व्याख्या―रहीमदास जी कहते हैं कि दीन-हीन निर्धन लोग सभी लोगों की ओर इस आशा से देखते
हैं कि वे हमारी कुछ सहायता करेंगे, किन्तु विडम्बना यह है कि उन दीन-हीनों को कोई नहीं देखता अर्थात्
उनकी सहायता कोई नहीं करता। कवि रहीम कहते हैं कि जो दीनों की ओर देखता है अर्थात् उनकी
सहायता करता है, वह उनके लिए भगवान् के समान होता है।
 
काव्यगत सौन्दर्य―(1) सभी को दीन-दुःखियों की सहायता करनी चाहिए, इस भाव को
अभिव्यक्ति दी गयी है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) छन्द―दोहा। (5) रस―शान्त।
(6) अलंकार―उपमा तथा अनुप्रास। (7) गुण–प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा।
 
(8) प्रीतम छबि नैननि बसी, पर छबि कहाँ समाय।
      भरी सराय रहीम लखि, पथिक आपु फिरि जाय॥
[छबि = रूपा पर छबि = दूसरों की सुन्दरता। सराय = यात्रियों के ठहरने का सार्वजनिक स्थान। फिरि
जाय = लौट जाता है।
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि ने ईश्वर के प्रति अपने प्रेम की अनन्यता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि मेरे नेत्रों में परमात्मारूपी प्रियतम का सौन्दर्य समाया हुआ है.
अत: दूसरे के सौन्दर्य के लिए मेरे नेत्रों में कोई स्थान नहीं है। यदि कोई सराय यात्रियों से भरी रहे तो पथिक
उसमें स्थान न पाकर स्वयं लौटकर अन्यत्र चला जाता है। तात्पर्य यह है कि हृदय में ईश्वर की भक्ति उत्पन्न
हो जाने पर अन्य मोह स्वयं समाप्त हो जाते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रेम एकनिष्ठ होना चाहिए, इस भाव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की गयी
है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शृंगार या शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―
अनुप्रास एवं दृष्टान्त। (7) गुण―प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा। (9) भाव-साम्य―सन्त कबीर भी
यही कहते हैं कि जब तक मन में संसार के प्रति आसक्ति है, तब तक उस मन में प्रभु की भक्ति कैसे हो
सकती है―
                   जब लगि नाता जगत का, तब लगि भगति न होय।
 
(9) रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय।
      टूटे से फिरि ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय॥
[तोरेउ = तोड़ना चाहिए। चटकाय = झटक कर। जुरै = जुड़ने पर।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि ने कहा है कि प्रेम के सम्बन्धों को दुष्टता के व्यवहार से समाप्त नहीं
करना चाहिए।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि प्रेमरूपी धागे को कभी झटक देकर नहीं तोड़ना चाहिए। जिस
प्रकार धागा एक बार टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ता और यदि वह जुड़ भी जाता है तो उसमें गाँठ पड़ जाती है,
उसी प्रकार प्रेम-सम्बन्ध यदि एक बार टूट जाए तो फिर उसका जुड़ना कठिन होता है। इसको जोड़ने की
कोशिश करने पर उसमें दरार अवश्य पड़ जाती है, पहले जैसी बात नहीं रहती; क्योंकि सम्बन्ध सामान्य होने
पर भी व्यक्ति को पुरानी याद आती ही है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) धागे के माध्यम से प्रेम अथवा स्नेह की व्याख्या अत्यधिक औचित्यपूर्ण ढंग
से की गयी है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) गुण–प्रसाद। (5) रस―शान्त। (6) छन्द―
दोहा। (7) अलंकार―‘धागा प्रेम का’ में रूपक तथा अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं
व्यंजना।
 
(10) कदली सीप भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।
        जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन।।
[कदली = केला। भुजंग = सपी स्वाति = सत्ताईस नक्षत्रों में से एक नक्षत्र का नाम। तैसोई = वैसा ही!]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में सत्संगति के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या―कवि रहीम का कहना है कि स्वाति नक्षत्र की बूंदों में पानी एक-सा होता है, परन्तु
प्रभाव अलग-अलग वस्तु में अलग-अलग होता है। वह स्वाति-बूंद केले के पत्ते पर गिरकर कपूर बन जाती
है अथवा कपूर के दाने के समान दिखाई देती है। सीप में पड़कर मोती का रूप धारण कर लेती है और सर्प
के मुख में पड़कर विष बन जाती है। इसी प्रकार मनुष्य भी जैसी संगति में बैठता है, उसके ऊपर उस संगति
का वैसा ही प्रभाव पड़ता है। तात्पर्य यह है कि अच्छी संगति में बैठने पर व्यक्ति सज्जन और दुर्जनों की
संगति पाकर दुर्जन बन जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है, व्यावहारिक दृष्टि से कवि का मत अनु-
करणीय है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―
दृष्टान्त और अनुप्रास। (7) गुण–प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा। (9) भाव-साम्य―संगति के
प्रभाव को अन्यत्र भी इस प्रकार दर्शाया गया है―
                             “संगति ही गुन ऊपजै, संगति ही गुन जाय।”
 
(11) तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।
        कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहिं सुजान।।
[तरुवर = वृक्षा । सरवर = तालाब। पान = पानी। पर = दूसरे। सँचहि = संचित करते हैं। सुजान =
सज्जन।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि ने परोपकार की महत्ता का वर्णन किया है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं। तालाब भी अपने पानी को
स्वयं नहीं पीता है। फल और जल का उपयोग तो दूसरे लोग ही करते हैं। इसी प्रकार सज्जनों की सम्पत्ति
परोपकार के लिए ही होती है। आशय यह है कि वे अपनी सम्पत्ति को दूसरों के हित में लगा देते हैं।
काव्यगतसौन्दर्य―(1) वृक्ष और तालाब के दृष्टान्त द्वारा कवि ने मानव को परोपकार की प्रेरणा प्रदान
की है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―संपति
सँचहिं सुजान’ में अनुप्रास और रूपक। (7) गुण–प्रसाद। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा। (9) भाव-
साम्य―‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ में यही सत्य प्रकट हुआ है।
 
        (12) रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
                 जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवारि॥
[लघु = छोटा। न दीजिए डारि = तिरस्कृत मत कीजिए। तरवारि = तलवार।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि ने समझाया है कि समय और आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक वस्तु का
महत्त्व होता है, चाहे वह बहुत मामूली ही क्यों न हो।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों को देखकर छोटों का निरादर नहीं करना चाहिए,
उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि जिस स्थान पर सुई काम आती है, उस स्थान पर तलवार काम
नहीं कर सकती। इसलिए छोटी चीजें या छोटे लोग भी समय आने पर बड़े काम के होते हैं। कवि का आशय
यह है कि छोटे और बड़े दोनों ही अपने-अपने स्थान पर उपयोगी और महत्त्वपूर्ण होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) सुई और तलवार का दृष्टान्त देते हुए रहीम ने समाज में छोटे और बड़े
व्यक्तियों के पृथक्-पृथक् महत्त्व पर प्रकाश डाला है। (2) भाषा-ब्रज। (3) शैली-मुक्तक। (4) गुण-
प्रसाद। (5) रस―शान्त। (6) छन्द―दोहा। (7) अलंकार―अनुप्रास और दृष्टान्त। (8) शब्द-शक्ति―
अभिधा और लक्षणा।
 
(13) यों रहीम सुख होत है, बढ़त देख निज गोत।
        ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि,आँखिन को सुख होत॥
[गोत = गोत्र, परिवार। बड़री = बड़ी। निरखि = देखकर।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि रहीम ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने गोत्र अर्थात् परिवार की
वृद्धि देखकर बहुत प्रसन्नता होती है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर व्यक्ति की
आँखों को सुख मिलता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार को बढ़ता हुआ देखकर प्रसन्न होता
है और उसे समृद्ध देखकर अपार सुख का अनुभव करता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) मानव के इस स्वभाव का मनोवैज्ञानिक चित्रण अत्यधिक काव्यात्मक ढंग
से किया गया है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) गुण–प्रसाद। (5) रस―शान्त।
(6) छन्द―दोहा। (7) अलंकार―दृष्टान्त और अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा।
 
(14) रहिमन ओछे नरन ते, तजौ बैर अरु प्रीति।
        काटे-चाटे स्वान के, दुहूँ भाँति बिपरीति॥
[ओछे = नीच, क्षुद्र। नरन = मनुष्या तजौ = छोड़ देना चाहिए। बैर = दुश्मनी। प्रीति = प्रेम। स्वान =
कुत्ता। दुहूँ = दोनों ही। बिपरीति = कष्टकारक।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कवि ने नीच व्यक्तियों से दूर रहने का उपदेश दिया है।
व्याख्या―कवि रहीम कहते हैं कि तुच्छ विचार वाले अथवा नीच मनुष्य से प्रेम और द्वेष नहीं करना
चाहिए; उससे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए क्योंकि उससे दोनों ही प्रकार से हानि होने
की उसी प्रकार सम्भावना रहती है जिस प्रकार कुत्ते के काट लेने से पीड़ा होती है और विष फैलता है अथवा
प्रेम से चाट लेने के कारण अपवित्रता। आशय यह है कि दोनों प्रकार से हानि ही होती है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने नीच एवं दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों को कुत्ते के समतुल्य बताते
हुए उनकी मित्रता-शत्रुता दोनों को ही हानिकारक बताया है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक।
(4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―दृष्टान्त और अनुप्रास। (7) गुण―प्रसाद। (8) शब्द-
शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा। (9) भाव-साम्य―ऐसे ही भाव किसी कवि ने अन्यत्र भी प्रकट किये हैं―
जे नर नीच अहैं जग में तिनके संग प्रीति न रारि बढ़ावौ।
—————————————————————॥
प्रीति में चाँटिके बैर में, डाँटिके, काम निकारे वे क्यों हरसावो।
———————————————————————॥
 
                    काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
 
प्रश्न 1 निम्नलिखित में प्रयुक्त अलंकारों का लक्षण सहित नामोल्लेख कीजिए―
(क) गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते काढ़ि।
        कूपहु से कहुँ होत है, मन काहू को बाढ़ि ॥
उत्तर― यहाँ ‘गुन’ शब्द के एक से अधिक अर्थ (सद्गुण, रस्सी) होने के कारण श्लेष अलंकार है।
श्लेष अलंकार का लक्षण निम्नवत् है―
जिस स्थान पर एक शब्द एक से अधिक अर्थों में प्रयुक्त होता है, वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
 
(ख) कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान।
उत्तर― यहाँ पर ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है। इसका लक्षण निम्नवत् है―
जहाँ पर एक वर्ण की पुनरावृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
 
प्रश्न 2 सोरठा और बरवै छन्दों के लक्षण बताइए।
उत्तर― सोरठा-जिस छन्द के प्रथम और तृतीय चरणों में 11-11 तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में
13-13 मात्राएँ होती हैं, वह सोरठा छन्द कहलाता है। यह दोहा का उल्टा छन्द है।
बरवै―इस छन्द के प्रथम एवं तृतीय चरणों में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में 7-7
मात्राएँ होने के साथ दोनों के अन्त में जगण (151) होता है।
 
प्रश्न 3 ‘गाँठ पड़ना’ और ‘मन लगाना’ दो मुहावरे हैं। रहीम ने इन दोनों का बड़ा सुन्दर प्रयोग किया
है। उन पंक्तियों को उद्धृत कीजिए, जिनमें इनका प्रयोग हुआ है।
उत्तर― गाँठ पड़ना–टूटे से फिरि ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय।
           मन लगाना–रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।
 
प्रश्न 4 निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखकर उनका वाक्य में प्रयोग कीजिए-
अपना उल्लू सीधा करना, आँखों में धूल डालना, आड़े हाथ लेना, अंगुली उठाना,
टांँग
अड़ाना।
उत्तर― मुहावरों के अर्थ एवं वाक्य-प्रयोग निम्नलिखित हैं―
अपना उल्लू सीधा करना (स्वार्थ सिद्ध करना)―आजकल के नेता केवल वोट के लिए जनता की
खुशामद करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।
आँखों में धूल डालना (धोखा देना)―अनेक व्यापारी खाद्य-सामग्री में मिलावट करके ग्राहकों की
आँखों में धूल डाल रहे हैं।
आड़े हाथ लेना (शर्मिन्दा करना)―राजेश बहुत बढ़-चढ़कर बातें कर रहा था, किन्तु जब प्रदीप ने
उसे आड़े हाथों लिया तो उसकी बोलती बन्द हो गयी।
अंगुली उठाना (आक्षेप लगाना)―न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर कभी किसी को सन्देह नहीं था,
परन्तु अब तो उन पर भी अंगुलियाँ उठने लगी हैं।
टाँग अड़ाना (दखल देना)―राजेश को कुछ आता जाता तो है नहीं, किन्तु वह हर बात में टाँग
अड़ाता रहता है।
 
प्रश्न 5 निम्नलिखित शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए―
         भुजंग, मछली, फूल, आँख।
उत्तर―भुजंग―विषधर, सर्प, पन्नग आदि।
         मछली―अण्डज, मीन, मत्स्य आदि।
          फूल―पुष्प, कुसुम, सुमन आदि।
         आँख―दृग, लोचन, चक्षु आदि।
 
प्रश्न 6 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रसों को बताइए―
(क) प्रीतम छबि नैननि बसी, पर छबि कहाँ समाय।
      भरी सराय रहीम लखि, पथिक आपु फिर जाय ॥
(ख) उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान।
       सावन दिन मनभावन, करत पवान॥
उत्तर― (क) शान्त रस, (ख) शान्त रसा

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