up board class 9th hindi | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

By | May 12, 2021

up board class 9th hindi | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

 
                               जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
प्रश्न  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन-परिचय तथा कृतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर― जीवन-परिचय―हिन्दी-साहित्य गगन के इन्दु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म सन् 1850 ई०
में काशी के एक सम्भ्रान्त वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू गोपालचन्द्र गिरधरदास’
उपनाम से ब्रज भाषा में कविता करते थे। इन्होंने पाँच वर्ष की अवस्था में ही एक दोहा (लै ब्यौढ़ा ठाढ़े भए,
श्री अनिरुद्ध सुजान। बाणासुर की सैन को, हनन लगे भगवान।) रचकर अपने कवि पिता से ‘सुकवि’ होने
का आशीर्वाद प्राप्त किया था। दुर्भाग्य से 5 वर्ष की अवस्था में माता और 10 वर्ष की अवस्था में इनके पिता
का स्वर्गवास हो गया। इन्होंने स्वाध्याय से ही उर्दू, फारसी, हिन्दी, संस्कृत और बांग्ला भाषाओं का अच्छा
ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
भारतेन्दु जी पर लक्ष्मी और सरस्वती की समान कृपा थी। ये साहित्यकारों और कवियों का बड़ा आदर करते
थे और उन्हें मुक्तहस्त से दान देते थे। हिन्दी के प्रति इनका अटूट प्रेम था। ये अपनी विपुल धनराशि को
परोपकार, दान, संस्थाओं को मुक्तहस्त से चन्दा देने तथा साहित्यकारों की सहायता में व्यय किया करते थे।
इन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया और हिन्दी-साहित्य की समृद्धि के लिए धन को पानी की
तरह बहा दिया। 35 वर्ष की अल्पायु में ही सन् 1885 ई० में ये दिवंगत हो गये।
कृतियाँ ( रचनाएँ)―भारतेन्दु जी की काव्य-कृतियों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा
सकता है―
(1) भक्तिभावना-प्रधान काव्य―‘भक्त सर्वस्व,’ ‘भक्तमाल,’ ‘प्रेम मलिका,’ ‘दानलीला,
‘प्रेम-तरंग,’ ‘प्रेम-माधुरी, कृष्णचरित’ आदि भक्तिभावना से पूर्ण काव्य हैं।
(2) शृंगारप्रधान काव्य―सतसई शृंगार,’ ‘प्रेम फुलवारी,’ ‘प्रेमाश्रु वर्णन’, ‘प्रेम सरोवर’ आदि
शृंगार रस की रचनाएँ हैं।
(3) देशप्रेम और राष्ट्र-चेतनाप्रधान काव्य―विजय वैजयन्ती’, ‘भारत-वीरत्व,’ ‘विजय वल्लरी’,
‘सुमनांजलि’, ‘विजयिनी’, विजय पताका’।
(4) हास्य-व्यंग्यप्रधान काव्य―‘बन्दर सभा,’ ‘बकरी विकल्प’ आदि हास्य-व्यंग्यप्रधान रचनाएँ हैं।
(5) अन्य काव्य रचनाएँ―होली वर्षा विनोद,’ ‘राजसंग्रह,’ ‘मधुमुकुल,’ ‘वसन्त,’ ‘श्री रामलीला
प्रबोधिनी’ आदि।
साहित्य में स्थान―पाश्चात्य साहित्यकार ग्रियर्सन ने लिखा है―“हरिश्चन्द्र ही एक मात्र ऐसे
सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, जिन्होंने अन्य किसी भी भारतीय लेखक की अपेक्षा देशी बोली में रचित साहित्य
को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया।” निश्चित ही हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में
भारतेन्दु का योगदान अविस्मरणीय है।”
 
                      पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
 
◆  प्रेम-माधुरी
(1) कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि
                             धोये-धोये पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि
                            देखि के सँजोगी-जन हिय हरसै लगे।
हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी
                            लखि ‘हरिचंद’ फेरि प्रान तरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि
                              बादर निगोरे झुकि-झुकि बरसै लगे॥
[सरसै लगै = सरस प्रतीत होने लगे। दादुर = मेंढक। सँजोगी = प्रिय से मिले हुए। हिय = हृदय। हरसै
लगै = हर्षित होने लगे। सीरी = शीतल । फेरि = फिर से। तरसै लगै = तरसने लगे। निगोरे = निगोड़े
(अभागा, निराश्रित, निकम्मा)।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित तथा आधुनिक
हिन्दी-साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘प्रेम-माधुरी‘ कविता-शीर्षक से अवतरित है।
[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली सभी व्याख्याओं के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग―इस पद्यांश में कवि ने वर्षा के आगमन का मोहक चित्रण किया है।
व्याख्या―कवि कहता है कि कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर फिर से कोयलें कूकने लगी हैं। वर्षा के
जल से धुले पत्ते हिल-हिलकर वृक्षों पर सरस प्रतीत होने लगे हैं। अब मेंढक फिर बोलने लगे हैं तथा मोर
नाचने लगे हैं। यह सब देखकर अपने प्रिय के समीप होने के कारण संयोगीजन अपने हृदय में हर्षित होने लगे
हैं और दूसरी ओर सारी धरती हरी-भरी हो गयी है। शीतल मन्द पवन चलने लगी है। इसे देखकर वियोगी
व्यक्ति के मन अपने प्रिय के दर्शनों को तरसने लगे हैं। लो यह वर्षा ऋतु झूम-झूमकर फिर से आ गयी है
और ये निगोड़े बादल झुक-झुककर फिर से बरसने लगे हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ पर वर्षा ऋतु का सजीव और मनोहारी चित्रण हुआ है। (2) प्रकृति का
उद्दीपन रूप में वर्णन हुआ है। वर्षा के आगमन पर संयोगीजन हर्षित हो रहे हैं और वियोगी दु:खी।
(3) भाषा―ब्रज । (4) शैली―मुक्तक! (5) गुण―माधुर्य। (6) रस―शृंगार। (7) छन्द―मनहरण
कविता (8) अलंकार―‘कूकै लगी कोइलैं कदम्बन’ में अनुप्रास तथा ‘धोये-धोये’, ‘हिलि-हिलि’, ‘झूमि-
झूमि’, ‘झुकि-झुकि’ में पुनरुक्तिप्रकाश। पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का चमत्कार छन्द के नाद-सौन्दर्य और
लय को बढ़ाने वाला है। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा और लक्षणा।
 
(2) जिय पै जु होइ अधिकार तो बिचार कीजै
                              लोक-लाज, भलो-बुरो, भले निरधारिए।
नैन, श्रौन , कर, पग, सबै पर-बस भए
                                 उतै चलि जात इन्हें कैसे कै सम्हारिए।
‘हरिचंद’ भई सब भाँति सों पराई हम
                                  इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे कै निबारिए।
मन में रहै जो ताहि दीजिए, बिसारि, मन
                                   आपै बसै जामैं ताहि केसे कै बिसारिए।।
[निरधारिये = निश्चित कीजिए। नैन = नयन। श्रौन = श्रवण, कान। कर = हाथ । पग = पैर। पर- बस =
दूसरे के वश में। उतै = उधर (श्रीकृष्ण की ओर)। चलि जात = चले जाते हैं। कैसे कै = किसी
तरह। सँभारिए = सँभाला जाए। निबारिये = रोका जाए। दीजिए बिसारि = भुला दें। जामैं = जिसमें।
बिसारिये = भुलाना।]
प्रसंग―इस कवित्त में गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए आये हुए उद्धव से अपनी विरह
दशा का वर्णन करती हैं―
व्याख्या―हे उद्धव! यदि हमारा अपने मन अर्थात् हृदय पर अधिकार होता तो हम तुम्हारी बातों पर
विचार भी करती; लोक-लाज, भलाई अथवा बुराई का भी अच्छी तरह निश्चय करतीं, किन्तु हमारा अपने
मन पर अधिकार नहीं है। हमारे नेत्र, कान, हाथ, पैर आदि सभी अंग श्रीकृष्ण के वश में हो गये हैं, इन पर
हमारा अधिकार नहीं रहा है। ये सब कृष्ण की ओर स्वयं ही चले जाते हैं, बताइए, इन्हें कैसे सँभाला जा
सकता है? यदि ये सब अंग हमारे अधीन होते तो हम तुम्हारे कथनानुसार कार्य कर लेतीं। गोपियाँ पुनः कहती
हैं कि हे उद्धव! हम गोपियाँ सभी प्रकार से परायेवश अर्थात् कृष्ण के वश में हो गयी हैं। इन्हें ज्ञान का उपदेश
देकर प्रेम के मार्ग से कैसे रोका जा सकता है ? यदि कोई हमारे मन में निवास करता हो, तो उसे हम भुला भी
सकती हैं, परन्तु जब अपना ही मन किसी दूसरे के हृदय में जाकर रहने लगा हो, तब बताओ उसे कैसे
भुलाया जा सकता है? अत: हमारे लिए कृष्ण को भुलाना सम्भव नहीं है। आप हमें व्यर्थ ही ज्ञान का उपदेश
दे रहे हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रस्तुत पद्यांश में कृष्ण के प्रति गोपियों का अनन्य प्रेम तथा वाक्-पटुता
प्रदर्शित हुई है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―मुक्तक। (4) गुण―माधुर्य। (5) रस―वियोग शृंगार।
(6) छन्द―मनहरण कवित्त। (7) अलंकार―अनुप्रास। (8) भाव-साम्य―सूरदास जी ने भी ऐसे ही भाव
व्यक्त किये हैं―
                  अँखियाँ हरि दरसन की भूखी।
                  कैसे रहति रूप-रस राँची, ये बतियाँ सुनि रूखी॥
 
(3) यह संग में लागियै डोलैं सदा, बिन देखे न धीरज आनती हैं।
      छिनहू जो वियोग परै ‘हरिचंद’ तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं।
      बरुनी में थिरै न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।
      पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना,अँखियाँ, दुखियाँ नहिं मानती हैं।
[डोलैं-घूमती हैं। छिनहू = क्षणभर में। प्रलै = प्रलयकाल। बरुनी = पलकें। थिरै = स्थिर रहती हैं। झपैं
= झपकती हैं। उझपैं = खुलती हैं। पल = पलकें। समाइबो = समाना। निहारे = देखे।]
प्रसंग―इस पद्यांश में कृष्ण के वियोग में गोपियों के नेत्रों की दयनीय दशा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या―गोपियाँ कृष्ण के विरह से पीड़ित होकर अपने नेत्रों की व्यथा उद्धव को सुनाती हुई कहती
हैं कि हे उद्धव! हमारे नेत्र कृष्ण के वियोग में तथा उनकी खोज में सदा इधर-उधर घूमते रहते हैं और उन्हें
देखे बिना धैर्य धारण नहीं करते हैं। यदि क्षणभर के लिए भी इन नेत्रों को कृष्ण का वियोग मालूम पड़े तो ये
प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित कर देते हैं अर्थात् प्रलयकाल के बादलों के समान निरन्तर आँसुओं की वर्षा
करते हैं। ये आँखें क्षणभर के लिए भी बरौनियों के बीच में स्थिर रहना नहीं जानतीं, कभी झपकती है तो कभी
तत्काल खुल जाती हैं। पलकों में समाना तो ये जानती ही नहीं। इसलिए हे उद्धव! तुम श्रीकृष्ण से यह कहना
कि उन्हें (कृष्ण को) देखे बिना दुखियारी गोपियों की आँखें मानती ही नहीं हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रस्तुत सवैये में गोपियों के कृष्ण के दर्शनों की तीव्र लालसा व्यक्त
हुई है। (2) गोपियों की विरह-काल की स्वाभाविक अवस्था को आँखों के माध्यम से कलात्मक रूप में
प्रस्तुत किया गया है। (3) भाषा― ब्रजा (4) शैली―मुक्तक एवं वर्णनात्मक। (5) गुण―माधुर्य
(6) रस―वियोग शृंगार। (7) छन्द―सवैया। (8) अलंकार―‘पिय-प्यारे तिहारे-निहारे’ में ‘प’ और ‘र’
वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास तथा अतिशयोक्ति। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
(10) ‘धीरज न आना’, ‘चाल प्रले की ठानना’ मुहावरों का सुन्दर प्रयोग। (11) भावसाम्य―इसी प्रकार का
वर्णन सूरदास जी ने भी अपने काव्य में किया है―
                          निसि दिन बरषत नैन हमारे।
                          सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब से श्याम सिधारे॥
भारतेन्दु ने भी अन्यत्र एक कवित्त में लिखा है―
                                           इन दुखियान को न चैन सपनेहूँ मिल्यो,
                                           तासों सदा ब्याकुल बिकल अकुलाएँगी।
 
(4) पहिले बहु भाँति भरोसो दियो, अब ही हम लाइ मिलावती हैं।
       ‘हरिचंद भरोसे रही उनके सखियाँ जो हमारी कहावती हैं।
       अब वेई जुदा है रहीं हम सौं, उलटो मिलि के समुझावती हैं।
       पहिले तो लगाइ कै आग अरी! जल कों अब आपुर्हि धावती हैं।
[लाइ मिलावती = लाकर मिलातीं। कहावती हैं = कहलाती हैं। वेई = वे ही। मिलि कैं = मिलकर।
धावती हैं = दौड़ती हैं।]
प्रसंग―इस पद्यांश में श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल एक गोपी अपनी सखियों के समझाने पर उन्हें
उपालम्भ देती है।
व्याख्या―हे सखी! पहले तो तुम हमें तरह-तरह से भरोसा दिलाती थीं कि हम अभी श्रीकृष्ण को
लाकर तुमसे मिला देती हैं। जो मेरी अपनी सखियाँ कहलाती हैं, मैं उनके ही विश्वास पर बैठी रही, लेकिन
अब वही मुझसे अलग हो गयी हैं। श्रीकृष्ण को मिलाने की अपेक्षा वे अब इकट्ठी होकर उल्टा मुझे ही
समझाती हैं। अरी सखी! इन्होंने पहले तो मेरे हृदय में प्रेम की आग लगा दी और अब उसे बुझाने के लिए
स्वयं ही जल लेने को दौड़ी जाती हैं?
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने अपनी सखियों के प्रति गोपी की खीझ का सुन्दर चित्रण
किया है। (2) इस प्रकार की उक्ति नायिका-भेद की दृष्टि से खण्डिता नायिका की मानी जाती है।
(3) भाषा―ब्रजा (4) शैली―मुक्तक। (5) गुण–प्रसाद एवं माधुर्य। (6) रस―विप्रलम्भ शृंगार।
(7) छन्द―सवैया। (8) अलंकार―अनुप्रास। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
(10) ‘भरोसा देना’, ‘आग लगाकर पानी को दौड़ना’ आदि मुहावरों-कहावतों का सुन्दर प्रयोग किया
गया है।
 
(5) ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
      कोऊनहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।
      ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मंडली ही बिगरी है।
      एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइये कूपहि में यहाँ भाँग परी है।
[सूधो = सीधा (रास्ता)। गहो = पकड़ो। गुदरी = गुदड़ी। सिख मानिहै = शिक्षा मानेंगी। प्रीति = प्रेम।
प्रतीति = विश्वास। खरी = पक्की। बिगरी है = बिगड़ी हुई है। कूप = कुएँ।]
प्रसंग―इस पद्यांश में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे किसी प्रकार भी उनके निराकार ब्रह्म के
उपदेश को ग्रहण नहीं कर सकतीं।
व्याख्या― गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! तुम उस मार्ग पर सीधे चले जाओ, जहाँ तुम्हारे ज्ञान की
गुदड़ी रखी हुई है। यहाँ पर तुम्हारे उपदेश को कोई गोपी ग्रहण नहीं करेगी; क्योंकि सभी गोपियाँ श्रीकृष्ण के
प्रेम में विश्वास रखती हैं। हे उद्धव! ये सभी ब्रजबालाएँ एक-सी हैं, कोई भी भिन्न प्रकृति की नहीं है। इनकी
तो पूरी मण्डली ही बिगड़ी हुई है। यदि किसी एक गोपी की बात होती तो तुम उसे ज्ञान का उपदेश भी देते,
किन्तु यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है अर्थात् सभी श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर हो गयी हैं। इसलिए
तुम्हारा उपदेश देना व्यर्थ होगा।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अनन्य प्रेम प्रकट किया है।
(2) ज्ञानमार्ग का खण्डन कर भक्तिमार्ग की पुष्टि बड़े ही काव्यात्मक ढंग से की गयी है। (3) भाषा―सरस
ब्रज। ‘कुएँ में भाँग पड़ना’ मुहावरे का सुन्दर प्रयोग हुआ है। (4) शैली―मुक्तक। (5) गुण―माधुर्य।
(6) रस―शृंगार एवं भक्ति। (7) छन्द―सवैया। (8) अलंकार―अनुप्रास, रूपक (ज्ञान की गुदरी)।
(9) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा।
 
(6) सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहूँ दिसि फूलि रही सरसों।
      बर सीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।
      अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।
      परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।
[रितून को कंत = ऋतुओं का स्वामी वसन्त। चहूँ दिसि = चारों दिशाओं में। बर = श्रेष्ठ। समीर = वायु।
सतावन हार = सताने वाली। भयो = हो गयी है। गर सों = गले तक, पूरी तरह। परसों = आने वाले कल
के बाद का दिन। तरसों = तरसती हूँ। परसों = स्पर्श करूँगी।]
प्रसंग―इस पद्यांश में वसन्त ऋतु के आगमन पर गोपियों की विरह-व्यथा का चित्रण किया गया
है।
व्याख्या―कृष्ण-विरह से पीड़ित एक गोपी दूसरी गोपी से अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करती हुई
कहती है कि हे सखी! ऋतुओं का स्वामी वसन्त आ गया है। चारों दिशाओं में पीली-पीली सरसों फूल रही
है। अत्यन्त सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बह रही है, किन्तु वसन्त ऋतु का मादक वातावरण
श्रीकृष्ण के बिना मुझे पूर्ण रूप से कष्टदायक प्रतीत हो रहा है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमसे यह बताकर गये थे
कि मैं परसों तक मथुरा से लौट आऊँगा, परन्तु उन्होंने परसों के स्थान पर न जाने कितने वर्ष व्यतीत कर दिये
और अभी तक लौटकर नहीं आये। मैं तो अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों का स्पर्श करने के लिए तरस रही
हूँ, पता नहीं कब उनके दर्शन हो सकेंगे?
काव्यगत सौन्दर्य―(1) वसन्त ऋतु का सुहावना वातावरण गोपियों की विरह-व्यथा को और भी
अधिक बढ़ा रहा है। इसका सजीव एवं मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है। (2) भाषा―ब्रज। (3) शैली―
वर्णनात्मक व मुक्तक। (4) गुण―माधुर्य। (5) रस―वियोग शृंगार। (6) छन्द―सवैया। (7) अलंकार―
यमक और अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
 
(7) इन दुखियान को न चैन सपनेहूँ मिल्यो,
                                 तासों सदा ब्याकुल बिकल अकुलायँगी।
प्यारे हरिचंदजू की बीती जानि औधि, प्रान्,
                                  चाहत चलै पै ये तो संग ना समायँगी।
देखौ एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातें
                                  जौन-जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।
बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय,
                                   मरेहू पै आँखें ये खुली ही रहि जायेंगी।
[दुखियान को = दुखियारी आँखों को। चैन = शान्ति, सुख। बिकल = बेचैन। औधि = अवधि।
जौन-जौन = जिस-जिस]
प्रसंग―इस पद्यांश में श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों के नेत्रों की व्यथा का मार्मिक चित्रण
किया गया है।
व्याख्या―विरहिणी गोपी कहती है कि प्रियतम श्रीकृष्ण के विरह में आकुल इन नेत्रों को स्वप्न में
भी शान्ति नहीं मिल पाती है; क्योंकि इन्होंने कभी स्वप्न में भी श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं किये। इसलिए ये सदा
प्रिय-दर्शन के लिए व्याकुल होती रहेंगी। प्रियतम के लौट आने की अवधि को बीतती हुई जानकर मेरे प्राण
इस शरीर से निकल जाना चाहते हैं, परन्तु मेरे मरने पर भी ये नेत्र प्राणों के साथ नहीं जाना चाहते; क्योंकि
इन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण को जी भरकर देखा ही नहीं है। इसलिए जिस किसी भी लोक में ये नेत्र जाएँगे,
वहाँ पश्चात्ताप ही करते रहेंगे। हे उद्धव! तुम श्रीकृष्ण से कहना कि उनके दर्शन किये बिना हमारे नेत्र मृत्यु
के पश्चात् भी तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा में खुले रहेंगे।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) इस पद्यांश में श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम की उत्कृष्ट व्यजना हुई है।
(2) आँखों की दशा के सजीव वर्णन में कवि की काव्यात्मक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। (3) भाषा―ब्रज
‘सपने में भी चैन न मिलना’, ‘आँख भरकर देखना’ मुहावरों का उत्कृष्ट प्रयोग हुआ है। (4) शैली―
मुक्तक। (5) रस―वियोग शृंगार। (6) छन्द―मनहरण कवित्त। (7) अलंकार―अनुप्रास, अतिशयोक्ति
और पुनरुक्तिप्रकाश। (8) गुण―माधुर्या (9) शब्द-शक्ति―अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
 
                           काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
 
प्रश्न 1  निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नामों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए कि
उनमें वह अलंकार कहाँ और कैसे हैं ?
(क) कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि।
(ख) पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अँखियाँ, दुखियाँ नहीं मानती हैं।
(ग) परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।
उत्तर―(क) ‘क’ वर्ण की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
(ख) ‘प’, ‘र’ के अतिरिक्त ‘य’ तथा ‘न’ वर्गों की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
(ग) यहाँ प्रथम ‘परसों’ का अर्थ कल के बाद आने वाला दिन तथा द्वितीय ‘परसों’ का अर्थ
स्पर्श करना है; अत: इसमें यमक अलंकार है। ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार
भी है।
 
प्रश्न 2 ‘प्रेम-माधुरी’ में किन छन्दों का प्रयोग किया गया है?
उत्तर― ‘प्रेम-माधुरी’ में कवित्त और सवैया छन्दों का प्रयोग किया गया है।
 
प्रश्न 3 इस पाठ में से श्रृंगार रस से युक्त एक पंक्ति लिखिए।
उत्तर―शृंगार रस से युक्त पंक्ति निम्नलिखित है―
                                “देखि के सँजोगी-जन हिय हरसै लगे।”
 
प्रश्न 4 “निगोड़ा’ शब्द के प्रयोग द्वारा किसी को उपालम्भ दिया जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने
बादल को निगोड़ा कहकर जो उपालम्भ दिया है, उसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर― लोक-व्यवहार में उस व्यक्ति को निगोड़ा कहकर उपालम्भ दिया जाता है, जो कि मन की
पीड़ा को बढ़ाने वाला हो। बादलों के कारण गोपियों की विरह-पीड़ा बढ़ जाती है; अत: वे उसे निगोड़ा
कहकर उपालम्भ दे रही हैं।
 
प्रश्न 5 भारतेन्दु जी ने ‘प्रेम-माधुरी कविता के अन्तर्गत ‘प्रलय ढाना’, “पलकों में न
समाना’ मुहावरों और ‘कुएँ में भाँग पड़ी होना’ लोकोक्ति का सुन्दर प्रयोग किया है। उन
पंक्तियों को लिखिए जिनमें इनका प्रयोग हुआ है। साथ ही इन मुहावरों और लोकोक्ति का
वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर―प्रलय ढाना―‘छिनहू जो वियोग परै ‘हरिचंद’ तो चाल प्रलै की सुठानती हैं।’
पलकों में न समाना―‘बरुनी में थिरै न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।’
कुएँ में भाँग पड़ी होना―एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए कूप ही में यहाँ भाँग परी है।’
इन पंक्तियों के अर्थ के आधार पर वाक्य-प्रयोग स्वयं कीजिए।
 
प्रश्न 6 निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए―
         प्रलय ढाना, धीरज न आना, पलकों में न समाना, आग लगाना।
उत्तर―मुहावरों के अर्थ और वाक्य-प्रयोग निम्नलिखित हैं―
प्रलय ढाना (संहार करना, नष्ट-भ्रष्ट करना)―युद्ध के पश्चात् विजयी देश की सेना विजित देश
पर प्रलय ढा देती है।
धीरजनआना (धैर्य न रखना)―युवा पुत्र की असमय मृत्यु हो जाने के कारण सम्बन्धियों के लाख
समझाने पर भी उसके माता-पिता को धीरज न आ सका।
पलकों में न समाना (अत्यधिक प्रसन्न या दुःखी होना)—पुत्र के आई० ए० एस० की परीक्षा में
सफलता मिलने की खबर उसके माता-पिता की पलकों में न समायी।
आग लगाना (क्रोध या ईर्ष्या भड़काना)―संकुचित मानसिकता के लोग आगे बढ़ने के लिए अपने
से योग्य व्यक्ति के विरुद्ध सदैव आग लगाते रहते हैं।
 
प्रश्न 7 निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए―
                                    जोग, प्रवीन, जदपि, जुद्ध, श्रीन।
उत्तर―योग्य, प्रवीण, यद्यपि, युद्ध, श्रवण।
 
प्रश्न 8 निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए―
(क) पहिले तो लगाइ कै आग अरी! जल कों अब आपुहिं धावती हैं।
(ख) परसों को बिताय दियो बरसों! तरसों कब पाँय पिया परसों।
उत्तर― संकेत–‘पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या’ के अन्तर्गत पद संख्या 4 और 6 का काव्यगत
सौन्दर्य देखें।

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