साहित्य के विकास और समाज से उसके संबंध के बारे में अपनी सुनिश्चित दृष्टि के कारण साधार
साहित्य का इतिहास लिखने वालों को काल-विभाजन करना चाहिये। वैसे साहित्य के इतिहास के लेखन में
काल-विभाजन जितना आवश्यक है, उतना ही कठिन भी । यों साहित्य के इतिहास में सुसंगत और सुविचारित
साधार काल-विभाजन अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इससे साहित्य के विकास की दिशा, विकास को प्रभावित
करनेवाले तत्वों और विकास के दौरान घटित होने वाले परिवर्तनों तथा मोड़ों के वास्तविक स्वरूप का बोध होता
है। काल-विभाजन के अभाव में साहित्य का इतिहास महज कविवृत्त-संग्रह, काव्य-संग्रह, कवि-कीर्तन-संग्रह
और आलोचना लेखों का संग्रह मात्र बनकर रह जाता है। ऐसे संग्रह कभी कालक्रम के अनुसार होते हैं और
कभी वर्णक्रम के अनुसार । कभी-कभी वे लेखक के निजी मन के अनुसार भी होते हैं। वास्तव में काल-विभाजन की सुसंगत दृष्टि के अभाव में साहित्य का इतिहास कभी रचना-प्रवृत्तियों की क्रिया प्रतिक्रिया
का सिलसिला मात्र होता है और कभी परंपराओं, साहित्य-विधाओं और धाराओं का शाश्वत प्रवाह । प्रसिद्ध
पाश्चात्य चिंतक रेने वेलेक ने ठीक ही लिखा है कि काल-विभाजन के बिना साहित्य का इतिहास घटनाओं की
अंधव्यवस्था का समूह, मनमाना नामकरण और साहित्य का दिशाहीन प्रवाह हो जाता है। सुसंगत काल-विभाजन
की कठिनाई का प्रमाण तो हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद के अनेक
इतिहासकारों के काल-विभाजन के प्रयासों की असफलता में मिल जाता है। इस कठिनाई के कारण ही साहित्य
के इतिहास-लेखन के स्वरूप पर विचार करने वाले कुछ विद्वान साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन को ही
अनावश्यक घोषित करते हैं।
आचार्य शुक्ल का काल-विभाजन पिछले लगभग सात दशकों से किसी प्राथमिक और सुसंगत विकल्प
के अभाव में व्यापक पाठक वर्ग के इतिहास-बोध और साहित्य-विवेक का अंग बन चुका है
शुक्ल के पहले के हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों के काल-विभाजन की अव्यवस्था और असंगति को ध्यान
में रखकर आचार्य शुक्ल के सुसंगत काल-विभाजन पर विचार करें तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी
कि आचार्य शुक्ल ने पहली बार हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक ठोस और व्यवस्थित रूप निर्मित किया था।
आचार्य शुक्ल ने अपने सुसंगत काल-विभाजन के लिये पूर्व के प्रयत्नों की सिर्फ आलोचना ही नहीं की, काफी
कुछ सीखा भी।
शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन दो आधारों पर किया है : पहला, कालक्रम के आधार
पर और दूसरा, साहित्यिक प्रवृत्तियों की प्रधानता के आधार पर । कालक्रम के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास
को आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा गया है। साहित्यिक प्रवृत्ति की
प्रधानता के आधार पर किया गया काल-विभाजन ही विशेष महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय हुआ है । साहित्यिक
प्रवृत्तियों की प्रधानता के अनुसार ही इन कालों का नामकरण भी हुआ है। किसी साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रधानता
का निर्णय कई बातों के आधार पर हुआ है। पहली बात है, विशेष ढंग की एक तरह की रचनाओं की प्रचुरता ।
आचार्य शुक्ल इतिहास लिखते समय इस तथ्य से अपरिचित न थे कि किसी काल विशेष में एक विशेष प्रकार
की रचना-प्रवृत्ति की प्रधानता के साथ-साथ दूसरी कई तरह की रचना-प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय रहती हैं। साहित्य
के इतिहास में किसी भी काल में संस्कृति और विचारधाराओं की विविधता और अंतर्विरोधों के अस्तित्व के
कारण अनेक रचना-प्रवृत्तियाँ साथ-साथ चल सकती हैं।
आचार्य शुक्ल के अनुसार किसी युग की एक साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रधानता को निश्चित करने वाली
दूसरी बात है विशेष प्रकार की रचनाओं की प्रसिद्धि । रचनाओं की प्रसिद्धि की कसौटी शुक्ल जी साहित्य शास्त्र
या अभिजनों की अभिरुचि को नहीं मानते । उन्होंने लिखा है-“प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की
प्रतिध्वनि है।” उनके अनुसार रचनाओं की श्रेष्ठता की कसौटी लोकरुचि है और उनके स्थायित्व का प्रमाण
जनता में उसकी लोकप्रियता है। यह आचार्य शुक्ल की लोकवादी इतिहास-दृष्टि का एक प्रमाण है।
साहित्य के कुछ इतिहासकार काल-विभाजन के बदले विभिन्न रचनात्मक धाराओं के प्रवाह को महत्व
देते हैं । हिन्दी में ऐसे प्रयोग हुए हैं। आचार्य शुक्ल ने साहित्य के इतिहास की इस विशेषता पर प्रकाश डालते
हुए लिखा है-“हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह रही है कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप
की जो काव्य-सरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी पर नौ सौ वर्षों के
हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सूखी नहीं पाते । (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-60) हिन्दी
साहित्य के इतिहास की इस विशेषता से पूरी तरह परिचित होने के बावजूद धारावाहिक इतिहास-लेखन की
असंगतियों को समझने के कारण ही आचार्य शुक्ल ने इसे विशेष महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने विभिन्न कालों के
साहित्य के विवेचन और मूल्यांकन के दौरान मुख्य प्रवृत्तियों के साथ-साथ गौण प्रवृत्तियों पर भी ध्यान दिया
है। प्रत्येक काल के अंत में फुटकल रचनाओं पर विचार करते हुए उन्होंने यह काम विशेष रूप से किया है।
फिर भी उनका मुख्य ध्यान इतिहास की अव्यवस्था में व्यवस्था खोजने और व्यवस्था पैदा करने पर था।
इसीलिये उन्होंने काल-विभाजन की अनिवार्यता भी महसूस की।
आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन की बार-बार आलोचना हुई है मगर कोई नया प्रामाणिक और स्वीकार्य
विकल्प न दे सकने की विवशता में परवर्ती इतिहासकारों ने आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन को ही स्वीकार
किया है। ध्यातव्य है कि आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन की आलोचना करते हुए जिन लोगों ने ‘वीरगाथा
काल’ को ‘चारण-काल’ या ‘रीतिकाल’ को शृंगार-काल’ नाम दिया है, सच तो यह है कि उन्होंने भी आचार्य
शुक्ल के इतिहास से ही संकेत-सूत्र लेकर मौलिक बनने का प्रयास किया है। जो इतिहासकार हिन्दी साहित्य
के विकास को प्राणि-शास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर समझने का प्रयत्न करते हुए आदिकाल को बाल्यावस्था,
मध्यकाल को किशोरावस्था और आधुनिक काल को युवावस्था कहते है, वे यह भूल जाते हैं कि इन अवस्थाओं
के बाद नियमत: हिन्दी साहित्य को वयस्कवस्था या अति प्रौढ़ावस्था और फिर वृद्धावस्था के दौर से भी गुजरते
हुए मृत्यु का भी शिकार होना पड़ेगा, क्योंकि यही इस विचार प्रक्रिया की स्वाभाविक परिणति भी है। ऐसे ही
कुछ विद्वानों ने वीरगाथा काल, भक्तिकाल और रीतिकाल की काल सीमाओं को घटाने बढ़ाने का प्रयास किया
है परन्तु इससे आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन का महत्त्व कम नहीं हो जाता । राहुल सांकृत्यायन ने नई खोजों
के आधार पर सिद्धों के साहित्य से हिन्दी साहित्य का आरंभ मानते हुए “हिन्दी काव्य धारा” (सन् 1945)
में आदि काल को सिद्ध-सामंत-काल कहा। राहुल जी रीतिकाल को ‘दरबारी युग’ कहते हैं। यों शुक्ल जी
ने भी रीति काव्य को दरबारी काव्य कहकर उसकी आलोचना की थी। संभवत: सबसे पहले राहुल जी ने ही
आधुनिक हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल को ‘नवजागरण युग’ कहा था। बाद में इस नवजागरण-युग के
स्वरूप और साहित्य पर राम विलास शर्मा ने विस्तार से विचार किया।
आचार्य द्विवेदी शुक्ल जी के दिये नाम आदिकाल को स्वीकार करते हैं और उसकी काल-सीमा को भी;
लेकिन वे वीरगाथा-काल नाम से असहमत हैं। वास्तव में द्विवेदी जी ने शुक्ल जी के काल-विभाजन के
सैद्धांतिक आधार से अपना मतभेद प्रकट करते हुए लिखा है-“वस्तुत: किसी काल-प्रवृत्ति का निर्णय प्राप्त ग्रंथों की संख्या द्वारा नहीं निर्णीत हो सकता; बल्कि उस काल की मुख्य प्रेरणादायक वस्तु के आधार पर ही
हो सकता है। प्रभावोत्पादक और प्रेरणा संचारक तत्व ही साहित्यिक काल के नामकरण का उपयुक्त निर्णायक
हो सकता है। “हिन्दी साहित्य का आदिकाल-पृ. 24) द्विवेदी जी प्रभावोत्पादक और प्रेरणा संचारक तत्व को
जब साहित्य के काल के नामकरण का कारण मानते हैं तो वे प्रकारांतर से समाज के स्वरूप और लोक भावना
को ही महत्त्व देते हैं। साहित्यिक काल के नामकरण का आधार शुक्ल जी के साहित्य के इतिहास-दर्शन के
अनुकूल है, प्रतिकूल नहीं । ग्रंथों की प्रचुरता और ग्रंथों की प्रसिद्धि को काल-प्रवृत्ति का निर्णायक मानने से
लेखक-पाठक का संबंध प्रकट लेता है, समाज के स्वरूप और साहित्य के स्वरूप का व्यापक संबंध नहीं।
द्विवेदी जी ने वीरगाथा काल नाम से अपना मतभेद प्रकट करते हुए राहुल जी के समास नाम ‘सिद्ध-सामंत काल’
को उस काल की साहित्यिक प्रवृत्ति को बहुत दूर तक स्पष्ट करने वाला माना है।
आदिकाल के नामकरण से जुड़ी हुई समस्या उस काल की रचनाओं के स्वरूप पर विचार करने की हैं।
द्विवेदी जी ने ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में लिखा है कि इस काल में दो प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं-
राजस्तुति परक ऐहिकतामूलक शृंगारी काव्य और नाथों-सिद्धों की शास्त्र निरपेक्ष उग्र विचारधारा, झाड़फटकार,
अक्खड़पनों सहज शून्य की साधना, योग पद्धति से भरी तथा भक्ति मूलक रचनाएँ । वैसे तो आचार्य शुक्ल ने
भी इन दो प्रकार की रचनाओं की चर्चा की है। उन्होंने पहले प्रकार की रचनाओं के आधार पर ही इस काल
का नाम ‘वीरगाथाकाल’ दिया था और दूसरे प्रकार की रचनाओं को वे साहित्यिक कोटि में शामिल करने से
इन्कार करते हैं। फिर आचार्य द्विवेदी भी दूसरे प्रकार की रचनाओं को विशुद्ध काव्य की कोटि में नहीं गिनते
लेकिन उसकी विचारधारा के कारण और संतसाहित्य की परंपरा के एक स्रोत के रूप में उसका अध्ययन
आवश्यक मानते हैं। द्विवेदी जी इन दो प्रकार की रचनाओं को दो जाति यों; पश्चिमी प्रदेशों के आर्य और पूर्वी
प्रदेशों के आर्य की रचनाएँ मानते हैं। आदिकाल की दो प्रकार की रचनाओं को दो जातियों की रचनाएँ मानने
की धारणा किंतु नितांत गलत और अतार्किक है।
शुक्ल जी ने आदिकाल और आधुनिक काल के बीच के काल को मध्य काल कहा है शुक्ल जी से
पहले मिश्रबंधुओं ने भी माध्यमिक काल को ‘पूर्व’ और ‘उत्तर’ में बाँटकर देखा था। शुक्ल जी के बाद
भक्तिकाल और रीति-काल का मिला-जुला कालपरक नाम ‘मध्यकाल’ लगभग सर्वमान्य हो गया है। द्विवेदी
जी ने भी ‘मध्ययुग’ नामका उपयोग किया है। किन्तु बाद में सन् 1952 में अपने ‘हिन्दी साहित्य’ नामक
ऐतिहासिक ग्रंथ से मध्यकाल’ नाम हटा दिया क्योंकि तब से वे उसे पतनोन्मुख और जबदी हुई मनोवृत्ति का
सूचक मानने लगे थे।
आचार्य द्विवेदी का शुक्ल जी से दूसरा मुख्य मतभेद भक्तिकाल के प्रसंग में था। भक्ति काल के उद्भव
को लेकर जहाँ शुक्ल जी इसे अपने पौरुष से हताश और उदास जाति’ की चिंता और भावना की अभिव्यक्ति
मानते हैं वहीं आचार्य द्विवेदी इसे भारतीय जनता की चिंता का स्वाभाविक विकास, भारतीय साहित्य की परंपरा
का विकसित रूप और अपने समय के समाज और व्यापक जन समुदाय की भावनाओं की अभिव्यक्ति सिद्ध करते हैं। द्विवेदी जी ने भक्ति साहित्य को मध्यकाल के संपूर्ण भारतीय साहित्य से जोड़कर देखने का भी आग्रह किया
है। उन्होंने भक्तिकालीन साहित्य पर इस्लाम के प्रभाव को स्वीकार किया है लेकिन उसे इस्लाम की प्रतिक्रिया
में लिखा गया साहित्य मानने की धारणा का खंडन किया है। वस्तुतः द्विवेदी जी भक्ति-आंदोलन को व्यापक
जनांदोलन और भक्ति साहित्य को लोक साहित्य कहते हैं। इस काव्य को जनांदोलन की अभिव्यक्ति करने वाला
जन-काव्य मानते हैं। स्पष्ट है, भक्ति साहित्य को वे लोक भाषा का काव्य तथा सामंती चेतना का विरोधी
काव्य मानते हैं।
जो हो, आज तो स्थिति पूर्णत: बदली हुई है इस अर्थ में कि साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन और नामकरण से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक मूल्यांकन को माना जा रहा है।