UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 10 मदनमोहनमालवीयः (गद्य – भारती)
UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 10 मदनमोहनमालवीयः (गद्य – भारती)
परिचय
पं० मदनमोहन मालवीय एक अच्छे वकील, सफल कथावाचक, कुशल सम्पादक और सच्चे देशभक्त थे। इनकी मानसिक तथा वैचारिक श्रेष्ठता को देखकर ही महात्मा गाँधी इन्हें ‘महामना’ कहकर सम्बोधित करते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। ये शिक्षक बने, सम्पादक रहे और इन्होंने वकालत भी की, परन्तु इनके मन को शान्ति नहीं मिली। अन्ततः ये स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। अशिक्षा को भारतीयों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानकर इन्होंने वाराणसी में गंगा के तट पर ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए इन्होंने धनी-निर्धन सभी से यथाशक्ति आर्थिक सहायता माँगी। यह विश्वविद्यालय आज शिक्षा के क्षेत्र में अपना अनुपम योगदान देते हुए इनकी धवल कीर्ति को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित कर रहा है। प्रस्तुत पाठ में मालवीय जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
पाठ-सारांश (2006,07, 08, 09, 10, 11, 12, 13]
वेशभूषा गौरवर्ण एवं कान्तिमय शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में दुपट्टा, सिर पर सफेद पगड़ी, मस्तक पर कुंकुम मिश्रित सफेद चन्दन का तिलक और सफेद उपानह; मालवीय जी के भारतीय चरित्र और हृदय की निर्मलता को प्रकट करते थे। वस्तुत: भारतीय संस्कृति ही इनमें सम्पूर्ण रूप में रूपायित थी।
जन्म पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म सन् 1861 ई० में 25 दिसम्बर को प्रयाग के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनके पूर्वज मालव देश से आकर प्रयाग में रहने लगे थे, इस कारण ये ‘मालवीय’ कहलाये। धन से सम्पन्न न होने पर भी धार्मिक होने के कारण ये समाज में समादृत थे।
शिक्षा मालवीय जी की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग की एक संस्कृत पाठशाला में हुई थी। संस्कृत के अध्ययन से इनके हृदय में भारतीय आदर्श चरित्रों, भारतीय संस्कृति एवं देश के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। बाद में इनकी शिक्षा राजकीय हाईस्कूल’ तथा ‘म्योर सेण्ट्रल कॉलेज’ में हुई। पारिवारिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होने के कारण इन्होंने अध्यापन-कार्य प्रारम्भ किया और पर्याप्त समय बाद एल-एलबी० की परीक्षा उत्तीर्ण करके उच्च न्यायालय, प्रयाग’ में वकालत प्रारम्भ कर दी।
प्रतिभा मालवीय जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस दल के कलकत्ता अधिवेशन में व्यवस्थापिका सभा विषय पर विचारपूर्ण और गम्भीर भाषण दिया। उस समय इनकी आयु मात्र पच्चीस वर्ष की थी। इनके विशद् विचारों को सुनकर उच्चकोटि के नेता और देशसेवक स्तब्ध रह गये और इन्होंने राष्ट्रीय नेताओं की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बना लिया। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने इनसे ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक के सम्पादन का अनुरोध किया।
हिन्दी-सेवा और राष्ट्र-सेवा ‘हिन्दुस्तान’ पत्र का सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने राष्ट्रीय भावना और हिन्दी भाषा का प्रचार किया। ‘हिन्दुस्तान’ के अतिरिक्त अन्य पत्रों का सम्पादन करते समय भी राष्ट्र-सेवा और हिन्दी भाषा की सेवा ही इनका प्रमुख लक्ष्य था। न्यायालयों में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग हो, इसके लिए मालवीय जी ने पर्याप्त प्रयास किया।
वकालत मालवीय जी के विचार स्पष्ट, गम्भीर और युक्तिसंगत होते थे। अंग्रेजों की आलोचना करते हुए भी ये भयभीत नहीं होते थे। पत्र-सम्पादन में मन न लगने के कारण इन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की और एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रयाग के उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। थोड़े ही दिनों में इन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर न्याय के क्षेत्र में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली। ये कभी झूठे मुकदमों की पैरवी नहीं करते थे।
देश की स्वतन्त्रता में योगदान अध्यापक रहते हुए और पत्रों का सम्पादन करते हुए भी मालवीय जी को शान्ति नहीं मिली। देश की परतन्त्रता से इनका मन बहुत खिन्न रहा करता था। ये देश को स्वतन्त्र कराने की चिन्ता में लग गये। तीन बार ये अखिल भारतीय कांग्रेस दल के सभापति बने। सन् 1931 ई० में अंग्रेजों के साथ सन्धि वार्ता करने के लिए गाँधी जी के साथ इंग्लैण्ड गये। आंग्लभाषा में व्यक्त किये गये इनके विचारों से अंग्रेज बहुत प्रभावित हुए।
रचनात्मक कार्य मालवीय जी ने राष्ट्र-सेवा में लगे रहकर प्रयाग में ‘मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास और ‘मिण्टो पार्क का निर्माण कराया। देश की उन्नति के लिए शिक्षा को विशेष साधन मानकर वाराणसी में गंगा के तट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के परिसर में अनेक महाविद्यालय हैं, जिनमें विदेशी भाषा, विज्ञान, कला आदि का ज्ञान कराते हुए भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन और इतिहास की भी शिक्षा दी जाती है। मालवीय जी विभिन्न पर्वो के अवसरों पर भागवत् और पुराणों की कथा सुललित और मधुर भाषा में छात्रों और अध्यापकों को स्वयं सुनाते थे। भारतीय आचार-विचारों से छात्रों को परिचित कराना ही इनका उद्देश्य था। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से ही ये उसके कुलपति रहे। ये छात्रों को अपने प्रिय पुत्र-सा मानते थे। किसी छात्र के बीमार पड़ने पर पितृवत् वात्सल्य प्रदान करते थे और आर्थिक संकट पड़ने पर सहायता करते थे।
मालवीय जी देश के असहायजनों के कष्टों को देखकर अत्यन्त दु:खी रहते थे। इन्होंने देश की एकता और अखण्डता के लिए महान् प्रयास किये। सन् 1944 ई० में भारत में साम्प्रदायिक झगड़े हुए जिसमें हजारों लोग मारे गये। मालवीय जी का हृदय इसको देखकर बहुत दुःखी हुआ और उन्होंने प्राण त्याग दिये। उनका यश आज भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में स्थित है।
गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद
(1)
गौरं कान्तिमयं वपुः, धवलं परिधानं, गले लम्बितमुत्तरीयं, शिरसि धवलोष्णीषं, ललाटे कुङ्कुमगर्भितधवलचन्दनतिलकं, धवले चोपानहौ एतत्सर्वं मदनमोहनमालवीयस्य भारतीयचारित्र्यं हृदयस्य च विमलत्वं निदर्शयति स्म। वस्तुतस्तु, भारतीयसंस्कृतिस्तस्मिन् रूपायिता जाता।
शब्दार्थ कान्तिमयम् = कान्ति से युक्त। वपुः = शरीर। परिधानम् = वस्त्र। लम्बितमुत्तरीयम्= लटकता हुआ दुपट्टा। धवलोष्णीषम् = सफेद पगड़ी। कुङ्कुमगर्भित = केसर मिश्रित। उपानही = जूते। चारित्र्यम् = चरित्र को। विमलत्वं = विमलता को। निदर्शयति स्म = बतलाते थे। वस्तुतस्तु = वास्तव में। रूपायिता जाता = साकार हो गयी थी। सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘मदनमोहनमालवीयः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की वेशभूषा एवं व्यक्तित्व के विषय में बताया गया है।
अनुवाद गौरवर्ण कान्तियुक्त शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में लटकता हुआ दुपट्टा, सिर पर सफेद पगड़ी, मस्तक पर कुमकुम मिला सफेद चन्दन का तिलक, सफेद जूते; ये सभी मदनमोहन मालवीय के भारतीय चरित्र और हृदय की पवित्रता को बतलाते थे। वास्तव में भारतीय संस्कृति इनमें साकार हो गयी थी।
(2)
पण्डितमदनमोहनमालवीयस्य जन्म एकषष्ट्युत्तराष्टादशशततमे खीष्टाब्दे दिसम्बरमासस्य पञ्चविंशति दिनाङ्के (25-12-1861) तीर्थराजे प्रयागे एकस्मिन् ब्राह्मणकुलेऽभवत्। अस्य जनकः। पण्डितव्रजनाथचतुर्वेदः संस्कृतभाषायाः विश्रुतो विद्वानासीत्। निर्धनोऽपि धर्मकर्मणि सततरतोऽयं विद्वान् समाजे समादृत आसीत्। एतस्य पूर्वजा मालवदेशादागत्योत्तरभारते न्यवसन्नतस्ते ‘मालवीय’ इति पदेन सम्बोध्या अभवन्।
शब्दार्थ एकषष्ट्युत्तराष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। विश्रुतः = प्रसिद्ध, जाने-माने। एतस्य = इनके। न्यवसन्नतस्ते = बसे, इसलिए वे। सम्बोध्याः = सम्बोधन करने योग्य।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी के जन्म का वर्णन किया गया है।
अनुवाद पण्डित मदनमोहन मालवीय का जन्म सन् 1861 ई० में दिसम्बर महीने की 25 तारीख को तीर्थराज प्रयाग के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता पण्डित ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् थे। निर्धन होते हुए भी धर्म के कार्य में निरन्तर लगा हुआ यह विद्वान् समाज में सम्माननीय था। इनके पूर्वज मालव देश से आकर उत्तर भारत में रहते थे; अत: लोग उनको ‘मालवीय’ कहकर पुकारते थे।
(3)
मदनमोहनमालवीयस्य प्रारम्भिक शिक्षा प्रयागे एवैकस्यां संस्कृतपाठशालायां जाता। संस्कृताध्ययनेन बाल्य एव तस्य मनसि भारतीयादर्शचरितानां कृते भारतीयसंस्कृतेश्च कृते बह्लादरः समजायत। स्मृतिपुराणमहाभारतभागवतादिभारतीयग्रन्थानामनुशीलनेन भारतदेशं प्रति तस्य हृदि श्रद्धा समुत्पन्ना। दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनं स कामयते स्म। अतः बाल्यकाले एव तस्य हृदि देशभक्तेः मानवसेवायाः मानवजीवनस्याभ्युदयस्य बीजान्युप्तानि जातानि यानि काले विकसितभूतानि फलितानि।
मदनमोहनमालवीयस्य ……………………………………………… कामयते स्म। [2007]
शब्दार्थ बह्लादरः = अत्यधिक आदर। समजायत = उत्पन्न हो गया था। भारतीयादर्शचरितानां = भारत के आदर्श पुरुषों के चरित्रों के अनुशीलनेन = अध्ययन और मनन से। प्राणिनाम् = प्राणियों के। आर्तिनाशनम् = दुःख दूर करना। कामयते स्म = चाहते थे। बीजान्युप्तानि = बीज बोये गये थे।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की भारतीय संस्कृति के प्रति आदर-भावना का वर्णन किया गया है।
अनुवाद मदनमोहन मालवीय जी की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में ही एक संस्कृत पाठशाला में हुई। संस्कृत के अध्ययन से बचपन में ही उनके मन में भारत के आदर्श चरित्रों के लिए और भारतीय संस्कृति के लिए बहुत आदर उत्पन्न हो गया था। स्मृति, पुराण, महाभारत, भागवत् आदि भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन-मनन से भारत देश के प्रति उनके हृदय में श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। वे दुःख से पीड़ित प्राणियों के दुःख का नाश करना। चाहते थे; अत: बचपन में ही उनके हृदय में देश-भक्ति, मानव-सेवा और मानव-जीवन की उन्नति के बीज बोये गये थे, जो समय आने पर विकसित और फलित हो गये।
(4)
कालान्तरे सः प्रयागे प्रथमसंस्थापिते राजकीय हाईस्कूल नाम्नि विद्यालये पठन् ‘इण्ट्रेन्स परीक्षामुदतरत्। ततः म्योर सेण्ट्रल कालेजेऽधीयानः बी0ए0 परीक्षायाः पारं गतः। अग्रे पठितुमिच्छन्तमप्यर्थकोयँ तमबाधत। कर्त्तव्यसङ्घाते किं पूर्वं करणीयमिति विशिष्टकर्तव्यनिर्धारणमेव विवेकशालिनां वैशिष्ट्यम्। अतः जीवननिर्वाहार्थं तेनाध्यापनवृत्तिः स्वीकृता।
शब्दार्थ परीक्षामुदतरत् = परीक्षा उत्तीर्ण की। अधीयानः = पढ़ते हुए। पारं गतः = पार गया, उत्तीर्ण की। पठितुमिच्छन्तमप्यर्थकार्यम् (पठितुम् + इच्छन्तम् + अपि + अर्थकार्यम्) = पढ़ने की इच्छा करने वाले को भी। धन की कमी। तम् = उनको। अबाधत = बाधा पहुँचायी। कर्त्तव्यसङ्घाते = बहुत-से कर्तव्य होने पर निर्धारणम् एव = निश्चय करना ही।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की शिक्षा और जीविकोपार्जन प्रारम्भ करने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद कुछ समय बाद उन्होंने प्रयाग में सबसे पहले स्थापित राजकीय हाईस्कूल नाम के विद्यालय में पढ़ते हुए इण्ट्रेन्स परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में पढ़ते हुए बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे पढ़ना चाहते हुए भी उन्हें आर्थिक कमी ने बाधा पहुँचाई। अनेक कर्तव्य होने पर पहले क्या करना है’ इस विशेष कर्तव्य का निश्चय करना ही विवेकशील पुरुषों की विशेषता है। अत: जीवन-निर्वाह के लिए उन्होंने अध्यापन की जीविका स्वीकार की।
(5)
तदैव कलिकातानगरे अखिलभारतीयकॉग्रेसदलस्य अधिवेशनमभूत्। मालवीय महोदयस्तत्र गतः। व्यवस्थापिकासभाविषयमवलम्ब्यातीव गम्भीरं विचारपूर्ण भाषणं चाकरोत्। पञ्चविंशतिवर्षीयस्य यूनः मालवीयस्य मनोहारिण्या शैल्या विशदविचारान् संश्रुत्य नेतार इतरे चोपस्थिता जनाः देशसेवकाश्च चकिता अभवन्। एकेनैव भाषणेनासौ राष्ट्रमञ्चस्थानां पङ्क्तौ स्वमुपावेशयत्। तस्याध्ययनस्य तस्य सदाशयतादिगुणानां तस्य च विनयस्येदं प्रतिफलमासीत्। तत्रैव प्रतापगढस्थकालाकाङ्करस्य देशभक्तो राजारामपालसिंहस्तस्य वैशिष्ट्येनाकृष्टः ‘हिन्दुस्तान’ दैनिकपत्रस्य सम्पादनायानुरोधं कृतवान्।
शब्दार्थ अधिवेशनमभूत् = अधिवेशन हुआ। विषयमवलम्ब्य = विषय का सहारा लेकर। पञ्चविंशति = पच्चीस। विशदविचारान् = स्पष्ट विचारों को। संश्रुत्य = सुनकर। एकेनैव = एक से ही। उपावेशयत् = प्रवेश करा लिया। सदाशयता = उच्च विचारों वाले भाव। वैशिष्ट्येनाकृष्टः = विशेषता से आकर्षित। कृतवान् = किया।
प्रसग प्रस्तुत पद्यांश में मालवीय जी के तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व को प्रभावित करने और कांग्रेस में सम्मिलित होने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद तभी (उसी समय) कलकत्ता नगर में अखिल भारतीय कांग्रेस दल का अधिवेशन हुआ। मालवीय जी वहाँ गये। व्यवस्थापिका सभा के विषय को लेकर (उन्होंने) अत्यन्त गम्भीर और विचारपूर्ण भाषण किया। पचीस वर्षीय युवा मालवीय जी की मनोहर शैली में स्पष्ट विचारों को सुनकर नेता और दूसरे उपस्थित लोग और देशसेवक चकित हो गये। एक ही भाषण से उन्होंने राष्ट्रीय मंच पर बैठने वाले नेताओं की श्रेणी में अपने को बैठा दिया। यह उनके अध्ययन का, उनकी सदाशयता आदि गुणों का और उनकी विनय का परिणाम था। वहीं पर प्रतापगढ़ के कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह ने उनकी विशेषता से आकर्षित होकर ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक पत्र के सम्पादन के लिए उनसे अनुरोध किया।
(6)
‘हिन्दुस्तान’ पत्रस्य सम्पादनं कुर्वता मालवीयमहोदयेन तदानीम् आङ्ग्लशासकैराक्रान्ते देशे चाङ्ग्लभाषायाऽऽक्रान्तायां शिक्षायां राष्ट्रियभावस्य हिन्दी-भाषायाश्च दृढतया प्रचारः कृतः। हिन्दुस्तानपत्रमतिरिच्येतरेषामनेकपत्राणामपि सम्पादनं तेन कृतं परं सर्वत्र राष्ट्रसेवा हिन्दीभाषासेवा च तस्य मुख्यलक्ष्ये आस्ताम्। न्यायालयेषु हिन्दीभाषायाः प्रयोगनिर्णये मालवीयमहोदयस्य विशिष्टमवदानं विद्यते।
शब्दार्थ कुर्वता = करते हुए। तदानीम् = उस समय। आक्रान्ते = दबाये जाने पर। अतिरिच्य = अतिरिक्त आस्ताम् = थे। अवदानम् = योगदान।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की हिन्दी-सेवा करने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद ‘हिन्दुस्तान’ पत्र का सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने उस समय देश को अंग्रेज शासकों द्वारा दबाये जाने पर और शिक्षा के अंग्रेजी भाषा के द्वारा दबाये जाने पर राष्ट्रीय भावना का और हिन्दी भाषा का दृढ़ता से प्रचार किया। ‘हिन्दुस्तान’ पत्र के अतिरिक्त उन्होंने दूसरे अनेक पत्रों का भी सम्पादन किया, परन्तु सभी जगह राष्ट्र की सेवा और हिन्दी भाषा की सेवा उनके मुख्य लक्ष्य थे। न्यायालयों में हिन्दी भाषा के प्रयोग के निर्णय में मालवीय जी का विशेष योगदान है।
(7)
पुत्राणां सम्पादनावसरे प्रकटिता अस्य विचाराः सुस्पष्टा, गम्भीरा, युक्तियुक्ताश्चाभवन्। अतः विरोधिनोऽपि तं प्रशंसन्ति स्म। आङ्ग्लशासनस्यालोचनां कुर्वन् मालवीयमहोदयो न भयमनुभूतवान् नाऽपि संकोचं कृतवान्। न दैन्यं, न पलायनमिति तस्य जीवनसूत्रामासीत्। पत्रसम्पादनकर्मणि तस्य मनो नारमत। गुरुजनानां परामर्शमनुसृत्यासौ एल-एल०बी० कक्षायां पठितुमारब्धवान् ससम्मानं च तां परीक्षामुदतरत्। एल-एल०बी० पदव्या विभूषितः सन् प्रयागस्थोच्चन्यायालये अधिवक्तृकर्म कर्तुं प्रारभत। स्वल्पैरेवाहोभिः न्यायालये न्यायक्षेत्रे च परां ख्यातिमवाप। मृषावादानसौ न स्वीकरोति स्म, अतः सत्यं प्रति तस्य दृढो विश्वासः अधिवक्तृकर्मनिरतानां कृतेऽद्यापि आदर्शभूतः सन्तिष्ठते।
शब्दार्थ युक्तियुक्ताश्चाभवन् = और युक्तियुक्त थे। प्रशंसन्ति स्म = प्रशंसा करते थे। अनुभूतवान् = अनुभव किया। दैन्यम् = दीनता। पलायनम् = पलायन, भागना। जीवनसूत्रम् = जीवन के मुख्य उद्देश्य नारमत (न + अरमत) = नहीं लगा। परामर्श = सलाह। अनुसृत्यासौ = अनुसरण करके इन्होंने। अधिवक्तृकर्म = वकालतं का कार्य। स्वल्पैरेवाहोभिः (स्वल्पैः + एव + अहोभिः) = थोड़े ही दिनों में। ख्यातिम् अवाप = प्रसिद्धि को प्राप्त किया। मृषावादानसौ = झूठे मुकदमों को ये। सन्तिष्ठते = स्थित है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा राष्ट्र-सेवा और वकालत किये जाने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद पत्रों के सम्पादन के अवसर पर प्रकट किये गये इनके विचार अत्यन्त स्पष्ट, गम्भीर और युक्तिसंगत होते थे; अत: विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे। अंग्रेजी शासन की आलोचना करते हुए मालवीय जी ने न भय का अनुभव किया, न ही संकोच किया। ने दीनता (दिखाना), न (कर्तव्य-पथ) पलायन करना उनके जीवन का सत्र था। पत्रों के सम्पादन के काम में उनका मन नहीं लगा। गरुजनों की सलाह के अनुसार उन्होंने एल-एल०बी० की कक्षा में पढ़ना आरम्भ किया और सम्मानसहित परीक्षा उत्तीर्ण की। एल-एल०बी० की उपाधि से विभूषित होते ही उन्होंने प्रयाग के उच्च न्यायालय में वकालत करना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही दिनों में न्यायालय में और न्याय के क्षेत्र में अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। ये झूठे मुकदमे स्वीकार नहीं करते थे; अत: सत्य के प्रति उनका दृढ़ विश्वास वकालत के काम में लगे हुए लोगों के लिए आज भी आदर्श रूप में स्थित है।
(8)
मदनमोहनमालवीयोऽध्यापकोऽभवत्, पत्रकारकर्म चानुष्ठितवान् परं सः सन्तुष्टि शान्ति च नालभत। देशस्य पारतन्त्र्येण तस्य मनः भृशमदूयत। कथं वा देशः पारतन्त्रशृङ्खलामुच्छिद्य स्वतन्त्रो भविष्यतीति चिन्ताचिन्तितः सन् मालवीयः अखिलभारतीयकॉग्रेसदलमाध्यमेन पृथक्रूपेण मातृभूमेः मुक्तिकर्मणि संलग्नो जातः। स्वकार्येण स्वविचारेण चासौ कॉग्रेसदलस्य त्रिवारं सभापतिपदमलङ्कृतवान्। हिमगिरिमिव तस्योत्तुङ्गं मनो दृष्ट्वा महात्मा गान्धी तं ‘महामना’ इत्यवोचत्। एकत्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1931) आङ्ग्लशासकैः सह सन्धिवार्ता कर्ती महात्मना गान्धिना सह अयमपि इङ्ग्लैण्डे-देशं जगाम्। आङ्ग्लभाषायां व्यक्तान् तस्य विचारान् संश्रुत्य इङ्ग्लैण्डवासिनः अपि मुग्धा अभवन्।
मदनमोहनमालवीयो ……………………………………………… संलग्नो जातः।
शब्दार्थ अनुष्ठितवान् = किया। नालभत = प्राप्त नहीं हुई। पारतन्त्र्येण = परतन्त्रता से। भृशंम् = अत्यधिक अदूयते = दुःखी हुआ। शृङ्खलां = जंजीर को। उच्छिद्य = तोड़कर। मुक्तिकर्मणि = स्वतन्त्रता के काम में। त्रिवारं = तीन बार। सभापतिपदमङ्कृतवान् = सभापति का पद सुशोभित किया। उत्तुङ्गम् = ऊँचा। इत्यवोचत् = ऐसा बोले। एकत्रिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे = उन्नीस सौ इकतीस में। सन्धिवार्ताम् = समझौते की बात को। मुग्धाः = प्रभावित, प्रसन्न।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त कराने में किये गये योगदान का वर्णन किया गया है।
अनुवाद मदनमोहन मालवीय जी अंध्यापक हुए और पत्रकार का कार्य किया, परन्तु उन्हें सन्तोष और शान्ति प्राप्त न हुई। देश की परतन्त्रता से उनका मन बहुत दुःखी हुआ। हमारा देश परतन्त्रता की श्रृंखला को तोड़कर कैसे स्वतन्त्र होगा, इस चिन्ता से चिन्तित होते हुए मालवीय जी अखिल भारतीय कांग्रेस दल के माध्यम से पृथक् रूप से मातृभूमि की स्वतन्त्रता के कार्य में लग गये। अपने कार्य से और अपने विचार से इन्होंने कांग्रेस दल के सभापति पद को तीन बार सुशोभित किया। हिमालय के समान ऊँचे उनके मन को देखकर महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘महामना’ कहा। सन् 1931 ई० में अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता करने के लिए मुहात्मा गाँधी के साथ ये भी इंग्लैण्ड देश गये। अंग्रेजी भाषा में प्रकट किये गये उनके विचारों को सुनकर इंग्लैण्डवासी (अंग्रेज) भी प्रभावित हुए।
(9)
राष्ट्रसेवाकर्मणि निरतोऽपि महामना मालवीयोऽन्येष्वपि रचनात्मककर्मसु प्रवृत्त आसीत्। प्रयागे जनान् धनं याचित्वा मैक्डॉनलहिन्दूछात्रावासस्य निर्माणमसौ अकारयत्। तस्यैवोद्योगेन प्रयागस्य प्रख्यातस्य मिण्टोपार्क इत्यस्यापि निर्माणं जातम्। समग्रे च देशे शिक्षायाः ह्रासदशामवलोक्य अशिक्षैवास्माकं पारतन्त्र्यस्य हेतुरिति सोऽमन्यत। अतो देशस्योन्नत्यै क्रियमाणैरन्यैरुद्योगैः सह शिक्षायाः विकासायापि प्रयत्नो विधेय इति तस्य दृढा मतिरासीत्। सततं चिन्तयन् सः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य संस्थापनायाः सङ्कल्पं हृदि निदधौ। षोडशोत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे (1916) वसन्तपञ्चमीपर्वदिने काश्यां पुण्यसलिलायाः गङ्गायास्तटे लोकोत्तरमिदं कार्यं संवृत्तम्। भिक्षावृत्या जनान्, श्रेष्ठिनो, राज्ञो, महाराजान्, वैदेशिकशासनमपि धनं याचित्वा विश्वविद्यालयस्य संस्थापनं तस्यापूर्वमनोबलस्य सङ्कल्पदृढतायाश्च द्योतकं वर्तते। पञ्चक्रोशपरिमिते क्षेत्रेऽभिव्याप्ते विश्वविद्यालयपरिसरे निर्मितानि विविधविद्यामहाविद्यालयभवनानि दृष्ट्वा कस्य वा भारतीयस्य मनो नाऽऽह्लादते को वा वैदेशिको विस्मितो न जायते। इयति विस्तृते भूखण्डे कस्यचिदपि विश्वविद्यालयस्य जगति स्थितिः न श्रूयते।
राष्ट्रसेवाकर्मणि ……………………………………………… सोऽमन्यत।
शब्दार्थ निरतोऽपि = लगे हुए भी। प्रवृत्तः = लगा हुआ। याचित्वा = माँगकर। अकारयेत् = कराया। प्रख्यातस्य = प्रख्याता ह्रासदशाम् = घटने की हालत को। अवलोक्य = देखकर। अशिक्षेवास्माकम्=अशिक्षा ही हमारी। अमन्यत = मानते थे। देशस्योन्नत्यै = देश की उन्नति के लिए। क्रियमाणैरन्यैरुद्योगैः सह = किये जाते हुए अन्य उद्योगों के साथ। विधेय = करना चाहिए। मतिरासीत् = बुद्धि थी, विचार था। निदधौ = धारण किया। षोडशोत्तरैकोनविंशतिशततमे = उन्नीस सौ सोलह में। पुंण्यसलिलायाः = पवित्र जल वाली। लोकोत्तरमिदम् = लोक से श्रेष्ठ यह। संवृत्तम् = पूरा हुआ। द्योतकं = सूचका अभिव्याप्ते = फैले हुए। परिसरे = चहारदीवारी में। आह्लादते = प्रसन्न होता है। इयति = इतने। न श्रूयते = नहीं सुनी जाती है।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में देश की उन्नति के लिए मालवीय जी द्वारा विशाल विश्वविद्यालय की स्थापना किये जाने का वर्णन है।
अनुवाद राष्ट्र-सेवा के कार्य में लगे हुए महामना मालवीय जी दूसरे रचनात्मक कार्यों में भी लगे रहते थे। उन्होंने प्रयाग के लोगों से धन माँगकर मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास का निर्माण कराया। उन्हीं के परिश्रम से प्रयाग के प्रसिद्ध मिण्टो पार्क का भी निर्माण हुआ। सम्पूर्ण देश में शिक्षा की हीन दशा देखकर ‘अशिक्षा ही हमारी परतन्त्रता का कारण है ऐसा उन्होंने माना। इसलिए देश की उन्नति के लिए किये गये अन्य प्रयत्नों के साथ शिक्षा के विकास के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए, यह उनका दृढ़ विचार था। निरन्तर चिन्तन करते हुए उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प हृदय में धारण किया। सन् 1916 ई० में वसन्तपंचमी के त्योहार के दिन काशी के पवित्र जल वाली गंगा के तट पर यह अलौकिक कार्य सम्पन्न हुआ। भिक्षावृत्ति से, लोगों से, सेठों से, राजाओं से, महाराजाओं से, विदेशी सरकार से भी धन माँगकर विश्वविद्यालय की स्थापना करना उनके अद्भुत मनोबल और संकल्प की दृढ़ता का सूचक है। पाँच कोस की सीमा-क्षेत्र में फैले हुए विश्वविद्यालय के अहाते में बने हुए विभिन्न विद्या के महाविद्यालय भवनों को देखकर किसे भारतीय का मन प्रसन्न नहीं हो जाता है अथवा कौन विदेशी आश्चर्यचकित नहीं हो जाता है। इतने विशाल क्षेत्र में संसार में किसी भी विश्वविद्यालय की स्थिति नहीं सुनी जाती है।
(10)
अस्मिन् विश्वविद्यालयेऽध्ययनरताछात्राः वैदेशिक भाषा-विज्ञान-कला-कौशल-प्रभृतिविषयेषु निष्णाताः सन्तः भारतीय संस्कृतिं धर्मदर्शनमितिहासं च न विस्मरेयुरिति तस्य प्रयासोऽभूत्। अतोऽध्यापनावसरे भारतीयाचारान् स छात्रानशिक्षयत्। विभिन्नपर्वावसरेषु च भारतस्य प्राणभूतभागवतमहापुराणस्य कथां सुललितभाषया मधुरेण च स्वरेण छात्रान् प्राध्यापकांश्चाश्रावयत्। विविधविषयज्ञानसम्पादनसममेव छात्रा भारतीयाचारविचारेण च परिचितास्तिष्ठेयुरिति तस्य लक्ष्यमासीत्। स भारतीयस्वातन्त्र्यमपि भारतीयतामधिकृत्यैव भवेदिति कामयते स्म। सः पूर्णभारतीय आसीत्। [2015]
शब्दार्थ निष्णाताः = निपुण, विद्वान्। विस्मरेयुः = भूलना चाहिए। छात्रानशिक्षयत् = छात्रों को सिखाया। प्राणभूतभागवतमहापुराणस्य = मन में बसे भागवत महापुराण की। सुललितभाषया = अत्यन्त सुन्दर भाषा द्वारा प्राध्यापकान् = प्राध्यापकों को। अश्रावयत् = सुनाते थे। सममेव = साथ ही। अधिकृत्य = ग्रहण करके। कामयते स्म = कामना करता था।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भारतीयता की शिक्षा देने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद इस विश्वविद्यालय में अध्ययन में लगे हुए छात्र विदेशी भाषा, विज्ञान, कला-कौशल आदि में विद्वान् होते हुए भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन और इतिहास को न भूलें, यह उनका प्रयास था; अत: अध्यापन के समय वे छात्रों को भारतीय आचारों की शिक्षा देते थे। विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर भारत के प्राणस्वरूप भागवत् महापुराण की कथा को सुन्दर भाषा में और मधुर स्वर में छात्रों और प्राध्यापकों को सुनाते थे। विविध विषयों के ज्ञान की प्राप्ति के साथ ही छात्र भारतीय आचार और विचार से भी परिचित रहें, यह उनका लक्ष्य था। भारत की स्वतन्त्रता भी भारतीयता को ग्रहण करके ही हो, ऐसा वे चाहते थे। वे पूर्ण रूप से भारतीय थे।
(11)
विश्वविद्यालयस्य संस्थापनानन्तरमेव स कुलपतिपदमलङ्कृतवान्। कुलपतिपदमलङ्कुर्वन् स छात्रान् प्रियपुत्रानिवामन्यत। अर्थसङ्कटे देहसङ्कटे ग्रस्तः कश्चित् छात्र इति ज्ञात्वा तस्य सङ्कटमचिरमसौ पितृवदपानयत्। कुलपतिस्तु स पदेनासीत् व्यवहारेण च कुलपिता अभवत्। [2006, 12]
शब्दार्थ अलङ्कुर्वन्=अलंकृत करते हुए। अमन्यत=मानते थे। अचिरम्=तुरन्त अपानयत्=दूर करते थे।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी के द्वारा विश्वविद्यालय के कुलपति रूप में किये गये कार्यों का वर्णन किया गया है।
अनुवाद विश्वविद्यालय की स्थापना करने के बाद ही उन्होंने कुलपति के पद को सुशोभित किया। कुलपति के पद को सुशोभित करते हुए, वे छात्रों को प्रिय पुत्रों के समान मानते थे। धन के संकट या शारीरिक कष्ट में कोई छात्र ग्रस्त है, यह जानकर वे उसके संकट को पिता की तरह तुरन्त दूर करते थे। वे पद से कुलपति थे और व्यवहार से कुलपिता थे।
(12)
काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य विकासाय सततं प्रयत्नरतोऽपि मालवीयमहोदयः देशस्य असहायजनानां महान्तं क्लेशं दशैं दशैं परमः खिन्नो अभवत्। भारतस्याखण्डतायाः तस्यैकत्वस्य च निदर्शनं विश्वविद्यालयरूपेण तेन पुरःकृतम्। तन्निमित्तं तेन गुरुः प्रयासो विहितः। चतुश्चत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतितमे वर्षे (1944) साम्प्रदायिको झञ्झावातः समुत्थितः। देशस्यानेकेषु भागेषु प्रज्वलितः साम्प्रदायिकताग्निः भारतस्य सांस्कृतिकं प्रासादं भस्मसादकरोत्। ब्रिटिशशासनप्रयुक्तकुटिलनयेनोत्थितो झञ्झावातो मालवीयमहोदयस्य मनः स्थितं भारतस्य चित्रं विकृतमकरोत्। कुटिलराजनीतिमुग्धा धर्मम्प्रति भ्रान्ताः नेतारो यथा ताण्डवमरचयन् तत्स्मृत्वाऽद्यपि हृदयं प्रकामं प्रकम्पते। सहस्रशः प्राणास्तदनले हुताः। सहस्रशोजना गृहहीनाः जाताः। लक्षाधिकाः शरणार्थिनोऽभवन्। मालवीयमहोदयस्य चित्तमतयँ तद्दुःखं सोढुं नाशक्नोत्। विश्वविद्यालयस्थे कुलपतिभवने स प्राणानत्यजत्। मालवीयमहोदयस्य विपुलं यशः विश्वविद्यालयरूपेण जगति शाश्वतं स्थास्यति।
शब्दार्थ असहायजनानां = निस्सहाय लोगों की। दशैं दर्शम् = देख-देखकर) खिन्नः = दुःखी। तस्यैकत्वस्य = उसकी एकता का निदर्शनम् = उदाहरण, दृष्टान्त पुरः = सामने। गुरुः = महान्। चतुश्चत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतितमे = उन्नीस सौ चवालीस में। झञ्झावातः = तूफान। समुत्थितः = उठा। प्रज्वलितः = जली हुई। साम्प्रदायिकताग्निः = जातिगत और वर्गगत-भेद की अग्निा प्रासादम् = महल को। भस्मसादकरोत् = जलाकर खाक कर दिया। विकृतमकरोत् (विकृतम् + अकरोत्) = बिगाड़ दिया। प्रकामम् = अत्यधिक प्रकम्पते = काँप उठा। तदनले (तत् + अनले) = उस अग्नि में। हुताः = जल गये। शरणार्थिनः अभवन् = शरणार्थी (शरण पाने के इच्छुक) हो गये। अतर्व्यम् = तर्क न किया जाने योग्य सोढुं = सहने के लिए। विपुलं = अत्यधिक शाश्वतं = सदैव, हमेशा। स्थास्यति = स्थित रहेगा।
प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मालवीय जी की संवेदनशीलता के बारे में बताया गया है कि मालवीय जी ने देश में उठे हुए साम्प्रदायिकता के तूफान से अत्यधिक दुःखी होकर प्राण त्याग दिये।
अनुवाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विकास के लिए निरन्तर प्रयत्न में लगे हुए भी मालवीय जी देश के असहायसनों के अत्यन्त कष्ट को देख-देखकर अत्यधिक दु:खी होते थे। भारत की अखण्डता का और उसकी एकता का उदाहरण उन्होंने विश्वविद्यालय के रूप में सामने रख दिया। उसके लिए उन्होंने महान् प्रयास किया। सन् 1944 ई० में साम्प्रदायिक तूफान उठा। देश के अनेक भागों में जलती हुई साम्प्रदायिकता की आग ने भारत के सांस्कृतिक महल को भस्मीभूत कर दिया। ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीति से उठे हुए तूफान ने मालवीय जी के मन में स्थित भारत के चित्र को बिगाड़ दिया। कुटिल राजनीति पर मुग्ध हुए, धर्म के प्रति भटके हुए नेताओं ने जैसा ताण्डव रचा,उसे याद करके आज भी हृदय अत्यधिक काँप उठता है। हजारों प्राण उस आग में जल गये। हजारों लोग बेघर हो गये। लाखों से अधिक शरणार्थी हो गये। मालवीय जी का मन अचिन्तनीय उस दु:ख को सहन नहीं कर सका। उन्होंने विश्वविद्यालय में स्थित कुलपति भवन में प्राण त्याग दिये। मालवीय जी का अत्यधिक यश विश्वविद्यालय के रूप में संसार में सदैव स्थित रहेगा, ‘अर्थात् अमर रहेगा।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मदनमोहन मालवीय जी के सम्बन्ध में संस्कृत में पाँच वाक्य लिखिए।
उत्तर :
- मदनमोहनमालवीयस्य जन्म प्रयागे एकस्मिन् ब्राह्मणकुले अभवत्।
- मालवीयः कलिकातानगरे अखिलभारतीयकॉग्रेसदलस्य अधिवेशने गम्भीरं विचारपूर्णं भाषणम् अकरोत्।।
- मालवीय: राजा रामपालसिंहस्य अनुरोधेन हिन्दुस्तान’ पत्रस्य सम्पादनम् अकरोत्।
- एल-एल०बी० परीक्षामुत्तीर्य सः प्रयागस्थे उच्चन्यायालये अधिवक्तृकर्म कर्तुं प्रारभत।
- मालवीयः 1916 वर्षे काश्यां गङ्गायास्तटे काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य स्थापनामकरोत्।
- मालवीय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालयस्य कुलपतिः आसीत्।
प्रश्न 2. मदनमोहन मालवीय का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2009]
उत्तर :
पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म सन् 1861 ई० में 25 दिसम्बर को प्रयाग के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता ब्रजनाथ चतुर्वेदी संस्कृत भाषा के विद्वान् थे। उनके पूर्वज मालव देश के मूल निवासी थे और वहाँ से आने के कारण ‘मालवीय’ कहलाये।
प्रश्न 3.
मदनमोहन मालवीय द्वारा किये गये रचनात्मक कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007]
या
मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास, मिण्टो पार्क और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण किसके प्रयास से हुआ?
उत्तर :
मालवीय जी ने राष्ट्र-सेवा में लगे रहकर प्रयाग में मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास’ और ‘मिण्टो पार्क का निर्माण कराया। देश की उन्नति के लिए शिक्षा को विशेष साधन मानकर काशी में गंगा के तट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।
प्रश्न 4.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कब, कहाँ और किसने की? [2008, 10, 11, 12]
या
मदनमोहन मालवीय के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय का नाम लिखिए। [2006,11]
या
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कब हुई? [2010, 11]
उत्तर :
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना श्री मदनमोहन मालवीय ने सन् 1916 ई० में वसन्तपंचमी के दिन काशी में पवित्र जल वाली गंगा के तट पर की।
प्रश्न 5.
मदनमोहन मालवीय के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2008]
या
मालवीय जी के दो महत्त्वपूर्ण कार्य लिखिए। [2007, 09, 13, 14]
उत्तर :
मदनमोहन मालवीय जी का व्यक्तित्व गौरवर्ण एवं कान्तिमय शरीर, श्वेत वस्त्र, गले में उत्तरीय, सिर पर श्वेत पगड़ी, मस्तक पर श्वेत चन्दन-तिलक और श्वेत उपानह आदि से युक्त था। वस्तुतः इनके व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति पूर्णरूपेण रूपायित थी। मालवीय जी के कर्तृत्व में निहित हैं–
- ‘हिन्दुस्तान दैनिक पत्र का सम्पादन,
- वकालत करना किन्तु असत्य पर आधारित मुकदमे स्वीकार न करना,
- अखिल भारतीय कांग्रेस दल का सभापति बनना और गाँधी जी के साथ अंग्रेजों से सन्धि-वार्ता के लिए इंग्लैण्ड जाना,
- प्रयाग में मैक्डॉनल हिन्दू छात्रावास’ तथा ‘मिण्टो पार्क’ का निर्माण कराना,
- काशी में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करना; जिसके कारण उनकी कीर्ति चिरकाल तक अमर रहेगी।
प्रश्न 6.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति कौन थे? [2007,11]
उत्तर :
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति महामना मदनमोहन मालवीय थे।
प्रश्न 7. मालवीय जी द्वारा सम्पादित समाचार-पत्र का नाम लिखिए। [2008, 12, 13]
या
पत्र के सम्पादन का उद्देश्य बताइए। [2010]
उत्तर :
मालवीय जी द्वारा मुख्य रूप से सम्पादित समाचार-पत्र का नाम ‘हिन्दुस्तान’ है। इसके अतिरिक्त भी इन्होंने अनेक पत्रों का सम्पादन किया। पत्र को सम्पादन करते हुए मालवीय जी ने राष्ट्रीय भावनाओं और हिन्दी का प्रचार किया। इनका प्रमुख उद्देश्य हिन्दी को न्यायालयों में स्थान दिलाना था।
प्रश्न 8.
मदनमोहन मालवीय का जीवन-परिचय दीजिए। [2006]
उत्तर :
[संकेत प्रश्न 2 व 5 के उत्तर को मिलाकर अपने शब्दों में लिखिए।]
प्रश्न 9.
अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता हेतु मालवीय जी किसके साथ इंग्लैण्ड गये? [2010]
उत्तर :
अंग्रेज शासकों के साथ सन्धि-वार्ता हेतु मालवीय जी सन् 1931 में महात्मा गाँधी के साथ इंग्लैण्ड गये।