UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 Neural Control and Coordination (तन्त्रिकीय नियन्त्रण एवं समन्वय)
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 21 Neural Control and Coordination (तन्त्रिकीय नियन्त्रण एवं समन्वय)
अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
निम्नलिखित संरचनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए–
(अ) मस्तिष्क
(ब) नेत्र
(स) कर्ण।
उत्तर-
(अ) मस्तिष्क की संरचना
मनुष्य में मस्तिष्क कपाल या क्रेनियम (cranium) के भीतर सुरक्षित रहता है। मस्तिष्क तीन आवरणों से ढका रहती है जिन्हें मस्तिष्कावरण (meninges) कहते हैं। ये मस्तिष्कावरण हैं-
1. दृढतानिका (Duramater) – श्वेत तन्तुमय ऊतक की बनी होती है।
2. जालतानिका (Arachnoid mater) – यह मध्य की पर्त है।
3. मृदुतानिका (Piamater) – यह सबसे भीतरी आवरण है, जो मस्तिष्क के सम्पर्क में रहती है।
इस पर्त में रुधिर वाहिनियों का जाल बिछा रहता है।
इन झिल्लियों के बीच एक तरल भरा रहता है जिसे सेरेब्रोस्पाइनल तरल (cerebrospinal fluid) कहते हैं। यह द्रव पोषण, श्वसन तथा उत्सर्जन में सहायक है। यह बाहरी आघातों से कोमल मस्तिष्क की सुरक्षा भी करता है। मस्तिष्क को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
- अग्रमस्तिष्क (Fore brain)
- मध्य-मस्तिष्क (Mid brain)
- पश्चमस्तिष्क (Hind brain)
1. अग्रमस्तिष्क या प्रोसेनसिफैलॉन
अग्र मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं|
(i) घ्राण भाग,
(ii) सेरेब्रम तथा
(iii) डाइएनसिफैलॉन।
(i) मनुष्य में घ्राण भाग अवशेषी होता है तथा अग्रमस्तिष्क का मुख्य भाग सेरेब्रम होता है।
(ii) प्रमस्तिष्क या सेरेब्रम (Cerebrum) – मस्तिष्क का लगभग 2/3 भाग प्रमस्तिष्क होता है। प्रमस्तिष्क दो पालियों में बँटा होता है जिन्हें प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध (cerebral hemispheres) कहते हैं। दोनों प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध तन्त्रिका तन्तुओं की एक पट्टी द्वारा जुड़े रहते हैं जिसे कॉर्पस कैलोसम (corpus callosum) कहते हैं।
प्रमस्तिष्क में तन्त्रिका कोशिकाएँ इस प्रकार स्थित होती हैं कि इनके कोशिकाकाय बाहर की ओर स्थित होते हैं। इस भाग को प्रमस्तिष्क वल्कुट (cerebral cortex) कहते हैं। भीतर की ओर तन्त्रिका कोशिकाओं पर अक्षतन्तु (axon) स्थित होते हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क मध्यांश (cerebral medulla) कहलाता है। बाहरी भाग धूसर (ग्रे) रंग का होता है। इसे धूसर द्रव्य (grey matter) कहते हैं। भीतरी भाग श्वेत (सफेद) रंग का होता है। इसे श्वेत द्रव्य (white matter) कहते हैं।
प्रमस्तिष्क की पृष्ठ सतह में तन्त्रिका तन्तुओं की अत्यधिक संख्या होने के कारण यह सतह अत्यधिक मोटी व वलनों वाली (folded) हो जाती है। इस सतह को नियोपैलियम (neopallium) कहते हैं। नियोपैलियम में उभरे हुए भागों को उभार या गायराई (gyri) तथा बीच के दबे भाग को खाँच या सल्काई (sulci) कहते हैं।
तीन गहरी दरारें प्रत्येक प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध को चार मुख्य पालियों में बाँट देती हैं। इन्हें-
फ्रन्टल पालि (frontal lobe), पैराइटल पालि (parietal lobe), टैम्पोरल पालि (temporal lobe) तथा ऑक्सीपीटल पालि (Occipital lobe) कहते हैं।
प्रमस्तिष्क की गुहाओं को पाश्र्व मस्तिष्क गुहा या पैरासील (paracoel or lateral ventricles) कहते हैं।
(iii) अग्रमस्तिष्क पश्च या डाइएनसिफैलॉन (Diencephalon) – यह अग्रमस्तिष्क का पिछला भाग है। इसका पृष्ठ भाग पतला होता है तथा अधर भाग मोटा होता है जिसे हाइपोथैलेमस (hypothalamus) कहते हैं। हाइपोथैलेमस की अधर सतह पर इन्फन्डीबुलम (infundibulum) से जुड़ी पीयूष ग्रन्थि होती है। डाइएनसिफैलॉन की पृष्ठ सतह पर पीनियल काय (pineal body) तथा अग्र रक्त जालक (anterior choroid plexus) पाया जाता है।
डाइएनसिफैलॉन की गुहा तृतीय निलय (third ventricle) या डायोसील (diocoel) होती है, यह पार्श्व गुहाओं से मोनरो के छिद्र (foramen of Monaro) द्वारा जुड़ी रहती है।
2. मध्यमस्तिष्क या मीसेनसिफैलॉन
यह भाग स्तनियों में बहुत अधिक विकसित नहीं होता है। इसका पृष्ठ भाग चार दृक् पालियों के रूप में होता है, जिन्हें कॉर्पोरा क्वाड़िजेमिना (corpora quadrigemina) कहते हैं। मध्यमस्तिष्क के पाश्र्व व अधर भाग में तन्त्रिका ऊतक की पट्टियाँ होती हैं जिन्हें क्रूरा सेरेब्राई (crura cerebri) कहते हैं। ये पश्चमस्तिष्क को अग्रमस्तिष्क से जोड़ने का कार्य करती हैं। यहाँ दृक् तन्त्रिकाएँ एक-दूसरे को क्रॉस करके, ऑप्टिक कियाज्मा (optic chiasma) बनाती हैं। मध्यमस्तिष्क की संकरी गुहा को आइटर (iter) कहते हैं, जो तृतीय निलय को चतुर्थ निलय (fourth ventricle) से जोड़ती है।
3. पश्चमस्तिष्क या रॉम्बेनसिफैलॉन
यह मस्तिष्क का पश्च भाग है। इसे मस्तिष्क वृन्त (brain stalk) भी कहते हैं। पश्च मस्तिष्क के दो भाग होते हैं-
(i) अनुमस्तिष्क (cerebellum),
(ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा (medulla oblongata)
(i) अनुमस्तिष्क (Cerebellum) – यह प्रमस्तिष्क के पिछले भाग से सटा रहता है। अनुमस्तिष्क दो पाश्र्व गोलाद्घ (lateral hemispheres) का बना होता है। अनुमस्तिष्क में बाहरी धूसर द्रव्य तथा आन्तरिक श्वेत द्रव्य होता है। श्वेत द्रव्य में स्थान-स्थान पर धूसर द्रव्य प्रवेश करके वृक्ष की शाखाओं जैसी रचना बनाता है। इसे प्राणवृक्ष या आरबर विटी (arbor vitae) कहते हैं। अनुमस्तिष्क में गुहा अनुपस्थित होती है। अनुमस्तिष्क के अधर भाग में श्वेत द्रव्य की एक पट्टी होती है जिसे पोंस वेरोली (pons varolli) कहते हैं।
(ii) मस्तिष्क पुच्छ या मेडुला ऑब्लांगेटा (Medulla Oblongata) – यह मस्तिष्क का सबसे पिछला भाग है जो आगे मेरुरज्जु के रूप में कपाल गुहा से बाहर निकलता है। मेडुला की पृष्ठ भित्ति पर पश्च रक्त जालक (posterior choroid plexus) स्थित होता है। मेडुला की गुहा को चतुर्थ निलय या मेटासील (fourth ventricle or metacoel) कहते हैं।
(ब) नेत्र की संरचना
मनुष्य में एक जोड़ी नेत्र चेहरे पर सामने की ओर नेत्र कपाल के नेत्र कोटर (eye orbit) में स्थित होते हैं। प्रत्येक नेत्र एक तरल से भरे गोलक के रूप में होता है। नेत्र गोलक का 4/5 भाग नेत्र कोटर में और लगभग 1/5 भाग नेत्र कोटर के बाहर स्थित होता है।
नेत्र गोलक की भित्ति तीन स्तरों से बनी होती है। सबसे बाहरी दृढ़पटल (sclera), मध्य रक्तकपटल (choroid) तथा भीतरी दृष्टिपटल (retina) है।
1. दृढ़पटल या स्क्ले रोटिक (Sclera or Sclerotic) – यह तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना सबसे बाहरी स्तर है। इसका वह भाग जो नेत्र कोटर से बाहर होता है, पारदर्शी होता है तथा इसे कॉर्निया (cornea) कहते हैं।
2. रक्तकपटल या कोरॉइड (Choroid) – ह नेत्र गोलक की भित्ति का मध्य स्तर है। रक्तकपटल संयोजी ऊतक का बना स्तर है जिसमें रुधिर केशिकाओं का घना जाल होता है। रक्तकपटल में रंगायुक्त कोशिकाएँ होती हैं, जिस कारण नेत्र का रंग काला, भूरा, सुनहरा या नीला दिखाई देता है।
रक्तकपटल का वह भाग जो कॉर्निया के नीचे होता है, थोड़ा पीछे हटकर एक पेशीय पर्दे जैसी रचना (diaphragm like) बनाता है जिसे आइरिस या उपतारा (iris) कहते हैं। आइरिस अरीय (radial) तथा वर्तुल पेशियों (circular muscles) का बना होता है। आइरिस के मध्य में एक गोल छिद्र होता है जिसे तारा या पुतली (pupil) कहते हैं। अरीय पेशियाँ तारे के छिद्र को बड़ा करती हैं; अतः इन्हें प्रसारी पेशियाँ (dilatory muscles) कहते हैं। वर्तुल पेशियाँ तारे के छिद्र को छोटा या संकुचित करती हैं; अतः इन्हें स्फिक्टर (अवरोधिनी) पेशियाँ (sphincter muscles) कहते हैं। तारा नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
आइरिस के आधार पर रक्तकपटल अत्यधिक मोटा व पेशीयुक्त होकर सीलियरी काय (ciliary body) बनाता है।
3. दृष्टिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र भित्ति का सबसे भीतरी प्रकाश संवेदी (light sensitive) स्तर है।
रेटिना में रक्तकपटल की ओर एक पतला वर्णक स्तर (pigmented layer) तथा भीतर की ओर तन्त्रिका संवेदी स्तर होता है। तन्त्रिको संवेदी स्तर (neurosensory layer) प्रकाश के लिए संवेदनशील होता है। यह निम्नलिखित प्रकार की पर्यों से बना होता है-
(i) दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं का स्तर (Layer of Rods and Cones) – शलाकाओं में दृष्टि पर्पल (visual purple) वर्णक रोडोप्सिन (rhodopsin) तथा शंकुओं में दृष्टि वॉयलेट (visual violet) वर्णक आयोडोप्सिन (iodopsin) पाए जाते हैं। शलाकाएँ प्रकाश व अन्धकार में भेद करती हैं, जबकि शंकु रंगों का ज्ञान कराते हैं।
(ii) द्विध्रुवीय न्यूरॉन का स्तर (Layer of Bipolar Neurons) – इसकी तन्त्रिका कोशिकाएँ दृष्टि शलाकाओं एवं शंकुओं के स्तर को गुच्छकीय कोशिकाओं के स्तर से जोड़ती हैं।
(iii) गुच्छकीय कोशिकाओं का स्तर (Layer of Ganglionic Cells) – इसकी कोशिकाओं के एक्सॉन तन्तु मिलकर दृक् तन्त्रिका (optic nerve) बनाते हैं। दृक् तन्त्रिका जिस स्थान से रेटिना से निकलती है, उसे अन्ध बिन्दु (blind spot) कहते हैं, इस स्थान पर प्रतिबिम्ब का निर्माण नहीं होता है।
नेत्र की मध्य अनुलम्ब अक्ष (optical axis) पर स्थित रेटिना के मध्य भाग को मध्य क्षेत्र (area centralis) कहते हैं। इस भाग को पीत बिन्दु (yellow spot) या मैकुला ल्यूटिया (macula lutea) भी कहते हैं। यहाँ उपस्थित एक छोटे से गड्ढे को फोविया सेन्ट्रैलिस (fovea centralis) कहते हैं। इस स्थान पर सबसे स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता है।
लेन्स (Lens) – यह उभयोत्तल (biconvex), पारदर्शी, रंगहीन व लचीला होता है। यह आइरिस के ठीक पीछे स्थित होता है। लेन्स साधक स्नायु (suspensory ligament) द्वारा सीलियरी कार्य (ciliary body) से जुड़ा होता है।
तेजो वेश्म या ऐक्वस वेश्म (aqueous chamber) – कॉर्निया तथा लेन्स के बीच का स्थान होता है। इसमें जलीय तरल तेजोजल या ऐक्वस ह्यूमर (aqueous humor) भरा रहता है।
काचाभ वेश्म या विट्रियस वेश्म (vitreous chamber) – रेटिना व लेन्स के बीच को स्थान है। इसमें जैली सदृश काचाभ जल या विट्रियस ह्यूमर (vitreous humor) भरा रहता है। जलीय तेजोजल तथा जैली सदृश काचाभ जल सीलियरी कार्य द्वारा स्रावित होते हैं। ये नेत्र की गुहा में निश्चित दबाव बनाए रखते हैं जिससे दृष्टिपटल व अन्य नेत्रपटल यथास्थान बने रहें।
पलक (Eye Lids) – नेत्र कोटर के ऊपरी व निचले भागों में त्वचा के पेशीयुक्त भंज (folds) पलकों का निर्माण करते हैं। दोनों पलकें सचल होती हैं तथा नेत्र गोलक के खुले भाग को ढक सकती हैं। पलकों की भीतरी उपचर्म (epidermis) पारदर्शी होकर कॉर्निया के साथ समेकित हो जाती है। इसे
नेत्र श्लेष्मा या कन्जंक्टिवा (conjunctiva) – कहते हैं। पलकों पर बरौनियाँ (eye lashes) पाई जाती हैं।
खरगोश तथा अन्य स्तनियों में एक तीसरी पलक होती है, जिसे निमेषक पटल (nictitating membrane) कहते हैं। यह पलक नेत्रों की सुरक्षा का कार्य करती है। मनुष्य में यह अवशेषी होती है।
अश्रु ग्रन्थियाँ (Lachrymal Glands or Tear Glands) – प्रत्येक नेत्र के बाहरी ऊपरी कोने पर तीन अश्रु ग्रन्थियाँ स्थित होती हैं। इनका स्राव कॉर्निया व कन्जंक्टिवा को नम तथा स्वच्छ बनाए रखता है। नेत्र के भीतरी कोण पर एक अश्रु नलिका (lachrymal duct) होती है जो फालतू स्राव को नासा वेश्म में पहुँचा देती है। जन्म के चार माह पश्चात् मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।
मीबोमियन ग्रन्थियाँ (Meibomian glands) – ये पलकों में स्थित होती हैं तथा एक तैलीय पदार्थ का स्रावण करती हैं। यह तैलीय पदार्थ कॉर्निया पर फैलकर अश्रु ग्रन्थियों के स्रावण को पूरी कॉर्निया पर फैलाता है।
(स) कर्ण की संरचना
कर्ण श्रवण तथा स्थैतिक सन्तुलन (hearing and equilibrium) का अंग है।
प्रत्येक कर्ण के तीन भाग होते हैं-
(i) बाह्य कर्ण,
(ii) मध्य कर्ण तथा
(iii) अन्त:कर्ण।
(i) बाह्य कर्ण
मनुष्य में बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं – कर्ण पल्लवे (pinna) तथा बाह्य कर्ण कुहर (external auditory canal)
कर्ण पल्लव केवल स्तनियों में ही पाए जाते हैं। ये लचीली उपास्थि से बनी पंखेनुमा रचना है। कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को कर्ण कुहर में भेजता है। बाह्य कर्ण कुहर एक अस्थिल नलिका है, जो मध्य कर्ण से जुड़ी रहती है। बाह्य कर्ण कुहरे के अन्तिम सिरे पर एक पर्दे जैसी रचना कर्णपटह (tympanic membrane) होती है।
(ii) मध्य कर्ण
यह करोटि की टिप्पैनिक बुल्ला (tympanic bulla) नामक अस्थि की गुहा में स्थित होता है। मध्य कर्ण कण्ठ कर्ण नलिका या यूस्टेकियन नलिका (eustachian tube) द्वारा ग्रसनी (pharynx) से जुड़ा रहता है। मध्य कर्ण में तीन कर्ण अस्थिकाएँ (ear ossicles) होती हैं। इन्हें मैलियस, इन्कस तथा स्टैपीज (malleus, incus and stapes) कहते हैं। मैलियस कान के पर्दे से सटी रहती है तथा स्टैपीज अन्त:कर्ण की ओर अण्डाकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा ओवेलिस (fenestra ovalis) पर स्थित होती है।
ये तीनों कर्ण अस्थिकाएँ ध्वनि तरंगों को बाह्य कर्ण से अन्त:कर्ण तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। मध्य कर्ण दो छिद्रों द्वारा अन्त:कर्ण की गुहा से जुड़ा होता है, इन्हें अण्डाकार गवाक्ष या फेस्ट्रा ओवेलिस (fenestra ovalis) तथा वृत्ताकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा रोटन्डस (fenestra rotundus) कहते हैं। इन छिद्रों के ऊपर एक झिल्ली उपस्थित होती है।
(iii) अन्तःकर्ण
अन्त:कर्ण करोटि की टैम्पोरल अस्थि के भीतर स्थित होता है। अन्त:कर्ण एक अर्द्धपारदर्शक झिल्ली से बनी जटिल रचना होती है, जिसे कलागहन (membranous labyrinth) कहते हैं। कलागहन अस्थि के बने कोष में स्थित रहता है जिसे अस्थीय लेबिरिन्थ (bony labyrinth) कहते हैं। अस्थीय लेबिरिन्थ में परिलसीका (perilymph) भरा रहता है, जिसमें कलागहन तैरता रहता है। कलागहन के भीतर अन्तःलसीका (endolymph) भरा रहता है। कलागहन के दो मुख्य भाग यूट्रिकुलस (utriculus) तथा सैक्यूलस (sacculus) होते हैं। दोनों भाग एक सँकरी सैक्यूलो-यूट्रिकुलर नलिका (sacculo-utricular duct) द्वारा जुड़े रहते हैं। यूट्रिकुलस से तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ (semicircular canals) निकलकर यूट्रिकुलस में ही खुल जाती हैं। अग्र तथा पश्च अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ एकसाथ सहनलिका (crus commune) के रूप में निकलती हैं। अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं का अन्तिम भाग तुम्बिका (ampulla) के रूप में फूला होता है। सैक्यूलस से स्प्रिंग की तरह कुण्डलित कॉक्लियर नलिका (cochlear duct) निकलती है। इसमें 2 कुण्डलन होते हैं।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित की तुलना कीजिए-
(अ) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र और परिधीय तन्त्रिका तन्त्र
(ब) स्थिर विभव और सक्रिय विभव
(स) कोरॉइड और रेटिना।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए-
(अ) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण
(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विध्रुवीकरण
(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण
(द) रासायनिक सिनेप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन।
उत्तर-
(अ) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण
तन्त्रिका तन्तु के ऐक्सोप्लाज्म में Na+ की संख्या बहुत कम, परन्तु ऊतक तरल में लगभग 12 गुना अधिक होती है। ऐक्सोप्लाज्म में K+ की संख्या ऊतक तरल की अपेक्षा लगभग 30-35 गुना अधिक होती है। विसरण अनुपात के अनुसार Na+ की ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में और K+ के ऐक्सोप्लाज्म से ऊतक तरल में विसरित होने की प्रवृत्ति होती है।
लेकिन तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा (neurilemma) Na+ के लिए कम और K+ के लिए अधिक पारगम्य होती है। विश्राम अवस्था में ऐक्सोप्लाज्म में ऋणात्मक आयनों और ऊतक तरल में धनात्मक आयनों की अधिकता रहती है। तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा की बाह्य सतह पर धनात्मक आयनों और भीतरी सतह पर ऋणात्मक आयनों का जमाव रहता है। तन्त्रिकाच्छद की बाह्य सतह पर धनात्मक और भीतरी सतह पर 70 mV का ऋणात्मक आकेश रहता है। इस स्थिति में तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा विद्युतावेशी या धुवण अवस्था (polarised state) में बनी रहती है। तन्त्रिकाच्छद (neurilemma) के इधर-उधर विद्युतावेशी अन्तर (electric charge difference) के कारण न्यूरीलेमा में बहुत-सी विभव ऊर्जा संचित रहती है। इसी ऊर्जा को विश्राम कला विभव कहते हैं। प्रेरणा संचरण में इसी ऊर्जा का उपयोग होता है।
(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विध्रुवीकरण
जब एक तन्त्रिका तन्तु को श्रेशहोल्ड उद्दीपन (threshold stimulus) दिया जाता है तो न्यूरीलेमा (neurilemma) की पारगम्यता बदल जाती है। यह Na+ के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है और K+ के लिए अपारगम्य हो जाती है। इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु विश्राम कला विभव की ऊर्जा का प्रेरणा संचरण के लिए उपयोग करने में सक्षम होते हैं। तन्त्रिका तन्तु को उद्दीपित करने पर इसके विश्राम कला विभव की ऊर्जा एक विद्युत प्रेरणा के रूप में, तन्तु के क्रियात्मक कला विभव में बदल जाती है। यह विद्युत प्रेरणा तन्त्रिकीय प्रेरणा होती है। Na+ ऐक्सोप्लाज्म में तेजी से प्रवेश करने लगते हैं, इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विध्रुवीकरण होने लगता है। विध्रुवीकरण के फलस्वरूप न्यूरीलेमा की भीतरी सतह पर धनात्मक और बाह्य सतह पर ऋणात्मक विद्युत आवेश स्थापित हो जाता है। यह स्थिति विश्राम अवस्था के विपरीत होती है।
(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण
जब तन्त्रिकाच्छद (न्यूरीलेमा) के किसी स्थान पर तन्त्रिका आवेग की उत्पत्ति होती है तो उत्पत्ति स्थल A पर तन्त्रिकाच्छद Na+ के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है, जिसके फलस्वरूप Na+ तीव्र गति से अन्दर आने लगते हैं तथा न्यूरीलेमा की भीतरी सतह पर धनात्मक और बाह्य सतह पर ऋणात्मक आवेश स्थापित हो जाता है। आवेग स्थल पर विध्रुवीकरण हो जाने को क्रियात्मक विभव कहते हैं। क्रियात्मक विभव तन्त्रिकीय प्रेरणा के रूप में स्थापित हो जाता है।
तन्त्रिकाच्छद से कुछ आगे ‘B’ स्थल पर झिल्ली की बाहरी सतह पर धनात्मक और भीतरी सतह पर ऋणात्मक आवेश होता है। परिणामस्वरूप, तन्त्रिका आवेग A स्थल से ‘B’ स्थल की ओर आवेग का संचरण होता है। यह प्रक्रम सम्पूर्ण एक्सॉन में दोहराया जाता है। इसके प्रत्येक बिन्दु पर उद्दीपन को सम्पोषित किया जाता रहता है। उद्दीपन किसी भी स्थान पर अत्यन्त कम समय तक (0.001 से 0.005 सेकण्ड) तक ही रहता है। जैसे ही भीतरी सतह पर धनात्मक विद्युत आवेश +35mV होता है, तन्त्रिकाच्छद की पारगम्यता प्रभावित होती है। यह पुन: Na’ के लिए अपारगम्य और K’ के लिए अत्यधिक पारगम्य हो जाती है। K+ तेजी से ऐक्सोप्लाज्म में ऊतक तरल में जाने लगते हैं। सोडियम-पोटैशियम पम्प पुनः सक्रिय हो जाता है जिससे तन्त्रिको तन्तु विश्राम विभवे में आ जाता है। अब यह अन्य उद्दीपन के संचरण हेतु फिर तैयार हो जाता है।
(द) रासायनिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों को संवहन
अक्षतन्तु (axon) के अन्तिम छोर पर स्थित अन्त्य बटन (terminal button) तथा अन्य तन्त्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट के मध्य एक युग्मानुबन्ध (synapse) होता है। अत: इस स्थान पर आवेग का संचरण विशेष रासायनिक पदार्थ ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) नामक न्यूरोहॉर्मोन (neurohormone) के द्वारा होता है। आवेग के प्राप्त होने पर अन्त्य बटन में उपस्थित स्रावी पुटिकाएँ (secretory vesicles) ऐसीटिलकोलीन स्रावित करती हैं। यही पदार्थ दूसरी तन्त्रिका कोशिका के डेण्ड्राईट (dendrites) में कार्यात्मक विभव (action potential) को स्थापित कर देता है। अब यही विभव, आवेग के रूप में अगले तन्त्रिका तन्तु की सम्पूर्ण लम्बाई में आगे बढ़ता जाता है। इस प्रकार, ऐसीटिलकोलीन एक रासायनिक दूत (chemical transmitter) की तरह कार्य करता है। बाद में, ऐसीटिलकोलीन कोएन्जाइम-ऐसीटिलकोलीनेस्टेरेज (acetylcholinesterase) द्वारा विघटित कर दिया जाता है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित का नामांकित चित्र बनाइए-
(अ) न्यूरॉन
(ब) मस्तिष्क
(स) नेत्र
(द) कर्ण।
उत्तर-
(अ) न्यूरॉने की संरचना (Structure of Neuron) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए। प्रश्नोत्तर में लघु उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
(ब) मस्तिष्क की संरचना (Structure of Brain) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
(स) नेत्र की संरचना (Structure of Eye) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
(द) कर्ण की संरचना (Structure of Ear) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
(अ) तन्त्रीय समन्वयन
(ब) अग्रमस्तिष्क
(स) मध्यमस्तिष्क
(द) पश्चमस्तिष्क
(ध) रेटिना
(य) कर्ण अस्थिकाएँ
(र) कॉक्लिया
(ल) ऑर्गन ऑफ कॉरटाई
(व) सिनेप्स।
उत्तर-
(अ) तन्त्रीय समन्वयन (Nervous Coordination) – शरीर की विभिन्न क्रियाओं का नियन्त्रण तथा नियमन सूचना प्रसारण तन्त्र (communication system) द्वारा होता है। इसके अन्तर्गत तत्रिका तन्त्र (nervous system) तथा अन्तःस्रावी तन्त्र (Endocrine System) आते हैं। तन्त्रिका निर्माण तन्त्रिका कोशिकाओं (nerve cells) से होता है। ये कोशिकाएँ उत्तेजनशीलता एवं संवाहकता के लिए विशिष्टीकृत होती हैं। ये आवेगों को संवेदांगों से ग्रहण करके केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक और केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होने वाली प्रतिक्रियाओं को अपवाहक (effectors) अंगों तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। अपवाहक अंगों के अन्तर्गत मुख्यतया पेशियाँ तथा ग्रन्थियाँ आती हैं। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र उद्दीपनों की व्याख्या, विश्लेषण करके प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करता है।
(ब) अग्रमस्तिष्क (Fore brain) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 (अ) मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत ‘अग्रमस्तिष्क’ (fore brain) देखिए।
(स) मध्यमस्तिष्क (Mid brain) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 (अ) मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत ‘मध्य मस्तिष्क’ (mid brain) देखिए।
(द) पश्चमस्तिष्क (Hind brain) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 1 (अ) मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत ‘पश्च मस्तिष्क’ (hind brain) देखिए।
(ध) रेटिना (Retina) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में नेत्र की संरचना के अन्तर्गत ‘रेटिना’ देखिए।
(य) कर्ण अस्थिकाएँ (Ear Ossicles) – मध्यकर्ण में तीन कर्ण अस्थिकाएँ चल सन्धियों द्वारा परस्पर जुड़ी रहती हैं। इन्हें क्रमशः मैलियस (malleus), इन्कस (incus) और स्टैपीज (stapes) कहते हैं।
- मैलियस (Malleus) – यह हथौड़ीनुमा होती है। इसका बाह्य सँकरा भाग कर्णपटह से तथा भीतरी चौड़ा सिरा इन्कस से जुड़ा होता है।
- इन्कस (Incus) – यह निहाई (anvil) के आकार की होती है। इसका बाहरी चौड़ा सिरा मैलियस से तथा भीतरी सँकरा भाग स्टैपीज से जुड़ा होता है।
- स्टैपीज (Stapes) – यह रकाब (stirrup) के आकार की होती है। इसका सँकरा सिरा इन्कस से और चौड़ा सिरा फेनेस्ट्रा ओवैलिस (fenestra ovalis) से लगा होता है। कर्ण अस्थिकाएँ कर्णपटह पर होने वाले ध्वनि कम्पनों को अधिक प्रबल करके फेनेस्ट्रा ओवैलिस द्वारा अन्त:कर्ण में पहुँचाती हैं।
(र) कॉक्लिया (Cochlea) – मनुष्य का अन्तःकर्ण यो कलागहन (membranous labyrinth) दो मुख्य भागों से बना होता है। यूट्रिकुलस (utriculus) तथा सैक्यूलस (sacculus)। सैक्यूलस से स्प्रिंग की तरह कुण्डलित कॉक्लिया निकलता है। यह नलिकारूपी होता है। इसमें 2कुण्डलन होते हैं। इसके चारों ओर अस्थिल कॉक्लिया का आवरण होता है। कॉक्लिया की नलिका अस्थिल लेबिरिन्थ की भित्ति से जुड़ी रहती है जिससे अस्थिल लेबिरिन्थ की गुहा दो वेश्मों में बँट जाती है। पृष्ठ वेश्म को स्कैला वेस्टीबुली (scala vestibuli) कहते हैं तथा अधर वेश्म को स्कैला टिम्पैनी (scala tympani) कहते हैं। इन दोनों वेश्म के मध्य कॉक्लिया का वेश्म स्कैला मीडिया (scala media) होता है।
(ल) ऑर्गन ऑफ कॉरटाई (Organ of Corti) – कॉक्लिया नलिका की गुहा स्कैला मीडिया की पतली पृष्ठ भित्ति रीसनर्स कला (Reissner’s membrane) कहलाती है। अधर भित्ति मोटी होती है। इसे बेसीलर कला (basilar membrane) कहते हैं। बेसीलर कला के मध्य में कॉरटाई का अंग (organ of Corti) होता है। इसमें अवलम्ब कोशिकाओं के बीच-बीच में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। प्रत्येक संवेदी कोशिका के स्वतन्त्र तल पर स्टीरियोसीलिया (stereocilia) होते हैं। कॉरटाई के अंग के ऊपर टेक्टोरियल कला (tectorial membrane) स्थित होती है। संवेदी कोशिकाओं से निकले तन्त्रिका तन्तु मिलकर श्रवण तन्त्रिका (auditory nerve) का निर्माण करते हैं। कॉरटाई के अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।
(व) सिनैप्स (Synapse) – प्रत्येक तन्त्रिको कोशिका का अक्षतन्तु (axon) अपने स्वतन्त्र छोर पर टीलोडेन्ड्रिया (telodendria) या एक्सॉन अन्तस्थ (axon terminals) नामक शाखाओं में बँट जाता है। प्रत्येक शाखा का अन्तिम छोर घुण्डीनुमा होता है। इसे सिनैप्टिक बटन (synaptic button) कहते हैं। ये घुण्डियाँ समीपवर्ती तन्त्रिका कोशिका के डेण्ड्राइट्स के साथ सन्धि बनाती हैं। इन संधियों को सिनेप्स या युग्मानुबन्ध कहते हैं। युग्मानुबन्ध पर सूचना लाने वाली तन्त्रिका कोशिका को पूर्व सिनैप्टिक (presynaptic) तथा सूचना ले जाने वाली तन्त्रिका कोशिका को पश्च सिनेप्टिक (post synaptic) कहते हैं। इनके मध्य भौतिक सम्पर्क नहीं होता। दोनों के मध्य लगभग 20 से 40 mµ का दरारनुमा सिनैप्टिक विदर होता है। इसमें ऊतक तरल भरा होता है। सिनैप्टिक विदर से उद्दीपन या प्रेरणाओं का संवहन तत्रिका संचारी पदार्थों; जैसे-ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) के द्वारा होता है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए-
(अ) सिनैप्टिक संचरण की क्रियाविधि
(ब) देखने की प्रक्रिया
(स) श्रवण की प्रक्रिया।
उत्तर-
(अ) सिनैप्टिक संचरण की क्रियाविधि
शेरिंगटन (Sherrington) ने दो तन्त्रिका कोशिकाओं के सन्धि स्थलों को युग्मानुबन्ध (synapsis) कहा। इसका निर्माण पूर्व सिनेप्टिक तथा पश्च सिनैप्टिक तृन्त्रिका तन्तुओं से होता है। युग्मानुबन्ध में पूर्व सिनैप्टिक तन्त्रिका के एक्सॉन या अक्षतन्तु के अन्तिम छोर पर स्थित सिनेप्टिक बटन (synaptic button) तथा पश्च सिनैप्टिक तन्त्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट्स के मध्य सन्धि होती है। दोनों के मध्य सिनैप्टिक विदर (synaptic cleft) होता है, इससे उद्दीपन विद्युत तरंग के रूप में प्रसारित नहीं हो पाता। सिनैप्टिक बटन या घुण्डियों में सिनैप्टिक पुटिकाएँ (synaptic vesicles) होती हैं। ये तन्त्रिका संचारी पदार्थ (neurotransmitters) से भरी होती हैं। उद्दीपन या प्रेरणा के क्रियात्मक विभव के कारण Ca2+ ऊतक द्रव्य से सिनैप्टिक घुण्डियों में प्रवेश करते हैं तो सिनैप्टिक घुण्डियों से तन्त्रिका संचारी पदार्थ मुक्त होता है। यह तन्त्रिका संचारी पदार्थ पश्च सिनैप्टिक, तन्त्रिका के डेन्ड्राइट पर क्रियात्मक विभव को स्थापित कर देता है, इसमें लगभग 0.5 मिली सेकण्ड का समय लगता है।
प्रेरणा प्रसारण या क्रियात्मक विभव के स्थापित हो जाने के पश्चात् एन्जाइम्स द्वारा तन्त्रिका संचारी पदार्थ का विघटन कर दिया जाता है, जिससे अन्य प्रेरणा को प्रसारित किया जा सके। सामान्यतया सिनैप्टिक पुटिकाओं से ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) नामक तन्त्रिका संचारी पदार्थ मुक्त होता है। इसका विघटन ऐसीटिलकोलीनेस्टीरेज (acetylcholinesterase) एन्जाइम द्वारा होता है। एपिनेफ्रीन (epinephrine), डोपामीन (dopamine), हिस्टैमीन (histamine), सोमैटोस्टैटिन (somatostatine) आदि पदार्थ अन्य तन्त्रिका संचारी पदार्थ हैं। ग्लाइसीन (glycine) गामा-ऐमीनोब्यूटाइरिक (gamma aminobutyric acid-GABA) आदि तन्त्रिका संचारी पदार्थ प्रेरणाओं के प्रसारण को रोक देते हैं।
(ब) देखने की प्रक्रिया
नेत्र कैमरे की भाँति कार्य करते हैं। ये प्रकाश की 380 से 760 नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य (wave-length) की किरणों की ऊर्जा को ग्रहण करके इसे तन्त्रिका तन्तु के क्रिया विभव (action potential) में बदल देते हैं।
नेत्र की क्रिया-विधि
जब उचित आवृत्ति की प्रकाश तरंगें कॉर्निया पर पड़ती हैं, तब कॉर्निया तथा तेजोजल प्रकाश किरणों का अपवर्तन (refraction) कर देते हैं। ये किरणें तारे से होकर लेन्स पर पड़ती हैं। लेन्स इनका पूर्ण अपवर्तन कर देता है और उल्टा प्रतिबिम्ब रेटिना पर बना देता है। आइरिस तारे को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा का नियन्त्रण करता है। तीव्र प्रकाश में तारा सिकुड़ जाता है तथा कम प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में तारा फैल जाता है तथा अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है।
नेत्र द्वारा समायोजन
सीलियरी काय तथा निलम्बन स्नाय (suspensory ligaments) लेन्स के फोकस में अन्तर लाकर वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केन्द्रित करते हैं।
सामान्य अवस्था में नेत्र दूर की वस्तु देखने के लिए समायोजित रहता है। इस समय सीलियरी काय शिथिल (relaxed) रहता है तथा निलम्बन स्नायु तना रहता है। इससे लेन्स की फोकस दूरी अधिक हो जाती है और
दूर की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता हैं।
पास की वस्तु देखने के लिए सीलियरी काय में संकुचन तथा निलम्बन स्नायु में शिथिलन होता हैं।
इससे लेन्स छोटा व मोटा हो जाता है तथा इसकी फोकस दूरी कम हो जाती है। इससे पास की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता है।
प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन
जब विशिष्ट तरंगदैर्घ्य वाली प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये शलाकाओं तथा शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं।
जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोडोप्सिन पर पड़ती हैं, तब यह रेटिनीन (retinene) तथा ऑप्सिन (opsin) में टूट जाता है। अन्धकार में शलाकाओं में एन्जाइम्स की सहायता से रेटिनीन तथा ऑप्सिन रोडोप्सिन को, संश्लेषण करते हैं। यही कारण है कि जब हम तीव्र प्रकाश से अन्धकार में जाते। हैं, तब एकदम कुछ दिखाई नहीं देता किन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है।
शंकुओं में आयोडोप्सिन उपस्थित होता है। इसको वर्णक घटक रेटिनीन तथा प्रोटीन घटक फोटोप्सिन होता है। शंकु तीन प्रारम्भिक रंगों को ग्रहण करते हैं, जो लाल, नीला व हरा होते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के शंकुओं द्वारा विभिन्न मात्रा में उद्दीपन ग्रहण से अन्य रंगों का ज्ञान होता है। मनुष्य व दूसरे प्राइमेट्स में दोनों नेत्रों द्वारा एक ही प्रतिबिम्ब बनता है। ऐसी दृष्टि को द्विनेत्री दृष्टि (binocular vision) कहते हैं।
(स) श्रावण की प्रक्रिया
कर्ण के निम्नलिखित प्रमुख दो कार्य होते हैं-
(i) कर्ण का प्राथमिक कार्य शरीर का स्थैतिक तथा गतिक सन्तुलन बनाए रखना तथा
(ii) ध्वनि ग्रहण करना अर्थात् श्रवण क्रिया।
अन्त:कर्ण के कलागहन के कॉक्लिया में स्थित कॉरटाई का अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करने के लिए उत्तरदायी है।
श्रवण क्रिया में कर्ण द्वारा एक विशेष आवृत्ति की ध्वनि कम्पनों को ग्रहण करके कॉरटाई के अंग में स्थित संवेदी कोशिकाओं तक भेजा जाता है। संवेदी कोशिकाएँ इन तरंगों को तन्त्रिका के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देती हैं। मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट (auditory cortex) सुनने का कार्य करता है। मनुष्य का कर्ण 16 से 20,000 साइकिल प्रति सेकण्ड की ध्वनि तरंगों को ग्रहण कर सकता है।
बाह्य कर्ण पल्लव ध्वनि तरंगों को कर्ण कुहर में भेज देता है। ध्वनि तरंगें कर्णपटह में कम्पन उत्पन्न करती हैं।
मध्य कर्ण की कर्ण अस्थिकाओं द्वारा कर्णपटह से कम्पन अण्डाकार गवाक्ष के ऊपर मढ़ी झिल्ली पर पहुँचते हैं। इसके फलस्वरूप अन्त:कर्ण के स्कैला वैस्टीबुली (scala vestibuli) के परिलसीका में कम्पन होने लगता है। यहाँ से कम्पन स्कैला टिम्पैनी (scala tympani) के परिलसीका में पहुँचते हैं।
रीसनर्स कला तथा बेसीलर कला में कम्पन होने से स्कैला मीडिया (scala media) के अन्त:लसीका में कम्पन होने लगता है जिससे कॉरटाई के अंग के संवेदी रोमों में कम्पन होने लगता है। संवेदी रोमों के कम्पन टेक्टोरियल कला में कम्पन उत्पन्न करके ध्वनि संवेदना की प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। श्रवण तन्त्रिका द्वारा ध्वनि संवेदना मस्तिष्क के ध्वनि वल्कुट (auditory cortex) तक पहुँच जाती है। ध्वनि की तीव्रता संवेदी रोमों के कम्पन की तीव्रता से ज्ञात होती है। ध्वनि तरंगों के कम्पन वृत्ताकार गवाक्ष की झिल्ली से टकराकर समाप्त हो जाते हैं।
प्रश्न 7.
(अ) आप किस प्रकार किसी वस्तु के रंग का पता लगाते हैं?
(ब) हमारे शरीर का कौन-सा भाग शरीर का सन्तुलन बनाए रखने में मदद करता है?
(स) नेत्र किस प्रकार रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश का नियमन करते हैं?
उत्तर-
(अ) नेत्र गोलक की रेटिना तन्त्रिको संवेदी (neurosensory) होती है। इसमें दृष्टि शलाकाएँ (rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) पाए जाते हैं। शंकुओं में आयोडोप्सिन (iodopsin) दृष्टि वर्णक पाया जाता है। तीव्र प्रकाश में शंकु विभिन्न रंगों को ग्रहण करते हैं। शंकु तीन प्राथमिक रंगों लाल, हरे व नीले से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। ये इन प्राथमिक रंगों को ग्रहण करते हैं। इन प्राथमिक रंगों के मिश्रण से विभिन्न रंगों का ज्ञान होता है।
(ब) अन्त:कर्ण की अर्द्धचन्द्राकार नलिकाओं के तुम्बिका (ampulla), सैक्यूलस तथा यूट्रिकुलस शरीर का सन्तुलन बनाने का कार्य करती हैं।
यूट्रिकुलस तथा सैक्यूलस के मैकुला तथा अर्द्धचन्द्राकार नलिकाओं के तुम्बिका में स्थित संवेदी कूटों द्वारा गतिक सन्तुलन (dynamic equilibrium) नियन्त्रित होता है। जब शरीर एक ओर को झुक जाती है, तब ऑटोकोनिया उसी ओर चले जाते हैं, जहाँ वे संवेदी कूटों को उद्दीपन प्रदान करते हैं। ‘इससे तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होता है और मस्तिष्क में शरीर के झुकने की सूचना पहुँच जाती है। मस्तिष्क प्रेरक तन्त्रिकाओं द्वारा सम्बन्धित पेशियों को सूचना भेजकर शरीर का सन्तुलन बनाता है।
(स) रेटिना (retina) पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन उपतारा (iris) द्वारा किया जाता है। यह एक मुद्राकार, चपटा, मिलेनिन वर्णकयुक्त तन्तुपट (diaphragm) के रूप में होता है। इसके गोल छिद्र को तारा या पुतली (pupil) कहते हैं। उपतारा (iris) में अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ (radial dilatory muscles) तथा अरेखित वर्तुल अवरोधिनी पेशियाँ (circular sphincter muscles) होती हैं। अरीय पेशियों के संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ जाता है और वर्तुल पेशियों के संकुचन से पुतली का व्यास घट जाता है। इस प्रकार ये पेशियाँ क्रमशः मन्द प्रकाश और तीव्र प्रकाश में संकुचित होकर रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन करती हैं।
प्रश्न 8.
(अ) सक्रिय विभवे उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका का वर्णन कीजिए।
(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca++ की भूमिका का वर्णन कीजिए।
(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
(द) अन्तःकर्ण में ध्वनि द्वारा तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
(अ) सक्रिय विभव उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका (Role of Na+ in the generation of Action Potential) – उद्दीपन के फलस्वरूप तन्त्रिकाच्छद या न्यूरीलेमा की Na+ के लिए पारगम्यता बढ़ जाने से, Na+ ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में तेजी से पहुँचने लगते हैं। इसके फलस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विध्रुवीकरण हो जाता है और तन्त्रिका तन्तु का विश्राम कला विभव क्रियात्मक कला विभव में बदलकर प्रेरणा प्रसारण में सहायता करता है। (विस्तृत विवरण के लिए अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 3 (ब) का उत्तर देखिए।)
(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca++ की भूमिका (Role of Ca++ to release Neurotransmitters of Synapsis) – जब कोई तन्त्रिकीय प्रेरणा क्रियात्मक विभव के रूप में सिनैप्टिक घुण्डी पर पहुँचती है तो Ca++ ऊतक तरल से सिनेप्टिक घुण्डी में प्रवेश कर जाते हैं। इनके प्रभाव से सिनैप्टिक घुण्डी की सिनैप्टिक पूटिकाएँ इसकी कला से जुड़ जाती हैं। इससे सिनैप्टिक पुटिकाओं से तन्त्रिका संचारी पदार्थ (न्यूरोट्रान्समीटर) मुक्त होकर सिनैप्टिक विदर के ऊतक तरल में पहुँच जाता है और पश्चसिनैप्टिक तन्त्रिका कोशिका के ड्रेन्ड्राइट्स पर रासायनिक उद्दीपन द्वारा क्रियात्मक विभव को स्थापित कर देता है।
(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि (Mechanism of generation of Light Impulse in the Retina) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 6 ‘ब’ के अन्तर्गत प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन (photo-chemical changes) का विवरण देखिए।
(द) अन्तःकर्ण में ध्वनि द्वारा तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि (Mechanism through which a Sound produces a Nerve Impulse in the Internal Ear) – अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर में प्रश्न 6 ‘स’ के अन्तर्गत देखिए।
प्रश्न 9.
निम्नलिखित के बीच में अन्तर बताइए-
(अ) आच्छादित और अनाच्छादित तन्त्रिकाक्ष
(ब) दुम्राक्ष्य और तन्त्रिकाक्ष
(स) शलाका और शंकु
(द) थैलेमस तथा हाइपोथैलेमस
(य) प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क।
प्रश्न 10.
(अ) कर्ण का कौन-सा भाग ध्वनि की पिच का निर्धारण करता है?
(ब) मानव मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग कौन-सा है?
(स) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का कौन-सा भाग मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है?
उत्तर-
(अ) कॉरटाई के अंग (organ of Corti) की संवेदनाग्राही कोशिकाएँ ध्वनि की पिच को निर्धारण करती हैं तथा उद्दीपनों को ग्रहण करके श्रवण तन्त्रिका (auditory nerve) में प्रेषित करती हैं।
(ब) प्रमस्तिष्क (cerebrum) मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग है। यह मस्तिष्क का लगभग 80% भाग बनाता है।
(स) मस्तिष्क मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है।
प्रश्न 11.
कशेरुकी के नेत्र का वह भाग जहाँ से दृक तन्त्रिका रेटिना से बाहर निकलती है, क्या कहलाता है-
(अ) फोविया
(ब) आइरिस
(स) अन्ध बिन्द
(द) ऑप्टिक किएज्मा (चाक्षुष किएज्मा)।
उत्तर-
(स) अन्ध बिन्दु (Blind spot)।
प्रश्न 12.
निम्नलिखित में भेद स्पष्ट कीजिए-
(अ) संवेदी तन्त्रिका एवं प्रेरक तन्त्रिका।
(ब) आच्छादित एवं अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु में आवेग संचरण।
(स) ऐक्विअस ह्युमर, (नेत्रोद) एवं विट्रियस ह्युमर (काचाभ द्रव)।
(द) अन्ध बिन्दु एवं पीत बिन्दु।
(य) कपालीय तन्त्रिकाएँ एवं मेरु तन्त्रिकाएँ।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
रोडोप्सिन
(क) एक रंजक है जो नेत्र की रॉड कोशिकाओं में पाया जाता है।
(ख) एक प्रकार का प्रोटीन है जो तन्त्रिका के युग्मानुबंधन में पाया जाता है।
(ग) एक छोटी-सी हड्डी है जो मध्य कान में पायी जाती है ।
(घ) एक प्रकार का रासायनिक पदार्थ है जो अस्थि मज्जा में पाया जाता है।
उत्तर-
(क) एक रंजक है जो नेत्र की रॉड कोशिकाओं में पाया जाता है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन आँखकी वास्तविक तन्त्रिका-संवेदी पटल है?
(क) कॉर्निया
(ख) स्कलीरा या दृढ़ पटल
(ग) दृष्टिपटल
(घ) रक्तके पटल
उत्तर-
(ग) दृष्टिपटल
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
संवेदी एवं प्रेरक तन्त्रिका तन्तुओं के कार्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संवेदी तन्त्रिका तन्तु ग्राही अंगों अर्थात् संवेदांगों से संवेदनाओं की प्रेरणाओं को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में लाते हैं जबकि प्रेरक तन्त्रिका तन्तु प्रतिक्रियाओं की प्रेरणाओं अर्थात् चालक प्रेरणाओं को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से अपवाही अंगों या ऊतकों में लाते हैं।
प्रश्न 2.
अपवाही (संर्वेदी) और अभिवाही (मोटर) तन्त्रिका कोशिका में क्या भेद है?
उत्तर-
संवेदी अंगों से उद्दीपनों को अभिवाही (afferent) तन्त्रिकाएँ मेरुरज्जु या मस्तिष्क में पहुँचाती हैं। मेरुरज्जु या मस्तिष्क से प्रेरणाओं को अपवाही (efferent) तन्त्रिकाएँ पेशी, ऊतक या ग्रन्थि तक पहुँचाती हैं।
प्रश्न 3.
मानव मस्तिष्क के सेरीब्रम के दो कार्य लिखिए।
उत्तर-
- जटिल विचारों व क्रियाओं का अन्दर से नियन्त्रण।
- निर्णय करने की क्षमता।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन की संरचना का वर्णन कीजिए।
या
एक तन्त्रिका कोशिका का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए तथा डेण्ड्राइट एवं एक्सॉन में अन्तर बताइए।
या
बहुध्रुवीय तन्त्रिका कोशिका का एक स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए (वर्णन की आवश्यकता नहीं है)।
उत्तर-
तन्त्रिका कोशिकाएँ या न्यूरॉन्स
तन्त्रिका कोशिकाएँ तन्त्रिका तन्त्र (nervous system) की संरचनात्मक तथा कार्यात्मक इकाइयाँ हैं। मस्तिष्क, सुषुम्ना एवं विभिन्न तन्त्रिकाओं में उपस्थित तन्त्रिका ऊतक (nervous tissue) में ये कोशिकाएँ अति महत्त्वपूर्ण हैं और भ्रूण की न्यूरोब्लास्ट (neuroblast) कोशिकाओं से बनती हैं। भ्रूणीय परिवर्द्धन में एक बार बन जाने के बाद तन्त्रिका कोशिकाएँ शरीर के साथ बड़ी तो होती रहती हैं, किन्तु विभाजित नहीं होती हैं तथा सदैव विभाजनान्तराल अवस्था (interphase) में ही रहती हैं।
संरचना तथा कार्यिकी में तन्त्रिका कोशिकाएँ शरीर की सर्वाधिक जटिल और लम्बी कोशिकाएँ होती हैं। प्रत्येक तन्त्रिका कोशिका की विशेषता उससे निकलने वाले प्रवर्ध (processes) होते हैं तथा इन प्रवर्षों में क्रियात्मक विभेदीकरण (physiological differentiation) होता है। कोशिका से निकलने वाले इन प्रवर्थों की संख्या के आधार पर इन्हें एक ध्रुवीय (unipolar), द्विध्रुवीय (bipolar) अथवा बहुध्रुवीय (multipolar) कहते हैं। अध्रुवीय (nonpolar) तन्त्रिका कोशिकाएँ केवल निम्न श्रेणी के जन्तुओं में पायी जाती हैं। जिनमें प्रवर्ध तो होते हैं, किन्तु प्रवर्षों में क्रियात्मक विभेदीकरण नहीं होता है। इस प्रकार तन्त्रिका कोशिका के अग्र दो प्रमुख भाग होते हैं
1. कोशिकाकाय
यह तन्त्रिका कोशिका का प्रमुख भाग है जो गोल, अण्डाकार या अन्य आकार का हो सकता है। अनुमस्तिष्क (cerebellum) में कोशिकाकाय फ्लास्क (flask) की आकृति के होते हैं और पुरकिन्जे की कोशिकाएँ (Purkinje’s cell) कहलाते हैं। इसमें केन्द्रक (nucleus) प्रायः केन्द्र में, परिमाप में । बड़ा व गोलाकार होता है।
कोशिकाद्रव्य में महीन तन्त्रिको तन्तुक (neurofibrils), माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria), सूक्ष्म नलिकाएँ (microtubules), गॉल्जीकार्य (golgi complex), अन्त:प्रद्रव्यी जालिका (endoplasmic reticulum), वसा बिन्दुक (fat globules) आदि सामान्य संरचनाओं के अतिरिक्त अनियमित
आकार के बड़े-बड़े निसल के कण (Nissl’s granules) पाये जाते हैं।
2. तन्त्रिका कोशिका प्रवर्ध
तन्त्रिको कोशिकाओं में प्रवर्ध निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
(i) वृक्षाभ (Dendrites) – कोशिकाकाय से निकलने वाले ये प्रवर्ध अपेक्षाकृत छोटे, सिरों की ओर क्रमशः सँकरे तथा शाखित होते हैं। कभी-कभी ये निकलने के स्थान से ही अत्यधिक शाखित होकर झाड़ी के समान (bushy) हो जाते हैं। इनमें निसल के कण, तन्त्रिका तन्तुक पाये जाते हैं।
(ii) अक्ष तन्तु (Axon) – यह प्रवर्ध लगभग एक बराबर मोटाई का लम्बा तथा संख्या में एक ही
होता है। यह प्रायः स्वतन्त्र सिरे पर ही शाखित होता है और ये शाखाएँ अन्तिम शाखाएँ (telodendria) कहलाती हैं। अन्तिम शाखाओं पर गोल, घुण्डी की तरह के आकार के बटन (buttons) होते हैं। अक्ष तन्तु में निसल के कण राइबोसोम्स, गॉल्जी काय आदि नहीं होते हैं, किन्तु तन्त्रिका तन्तुक एवं अन्य कई प्रकार के कोशिकांग होते हैं। इसके बाहर आवरण के रूप में एक्सिओप्लाज्म (axioplasm) होता है। अक्ष तन्तु अनेक बार एक या अधिक आच्छदों से घिरा रहता है, तब इसे मज्जावृत (medullated) कहते हैं अन्यथा मज्जारहित (nonmedullated)। अक्ष तन्तु से बाहर उपस्थित कोमल आच्छद को न्यूरीलेमा (netirilemia) या श्वान का आच्छद (sheath of Schwann) कहते हैं, जो श्वन कोशिकाओं (Schwann cells) से बना होता है। इस आच्छद के बाहर एक महीन आधारीय कला (basement membrane) होती है। इसके भी बाहर संयोजी ऊतक से बना हेनले का आच्छद (Henle’s sheath) पाया जाता है। श्वान कोशिकाओं से बना न्यूरीलेमा तथा अक्ष तन्तु के मध्य का आच्छद मायलिन आच्छद (myalin sheath) कहलाता है। मायलिन आच्छद निश्चित दूरियों पर विच्छिन्न (discontinuous) होती है। अतः इन स्थानों पर न्यूरीलेमा अक्ष तन्तु से चिपकी रहती है। इन स्थानों को रैन्वियर के नोड (nodes of Ranvier) कहते हैं।
कार्य
अक्ष तन्तु चेतनाओं को कोशिका से दूर ले जाते हैं। चेतना प्रेरणाओं को दूर-दूर तक ले जाने के लिए तन्तु एवं गुच्छकों (ganglia) में तन्त्रिका कोशिकाएँ अपने-अपने अक्ष तन्तुओं एवं वृक्षाभ की शाखाओं द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित रहते हैं। इन स्थानों को युग्मानुबन्ध (synapse) कहते हैं। कोशिकाकाय तथा इसके वृक्षाभ (dendrites) संवेदनाओं को तन्त्रिका आवेग के रूप में प्राप्त करते अथवा उत्पन्न करते हैं, जबकि अक्ष तन्तु (axon) चेतनाओं के प्रसारण का कार्य करते हैं। इसलिए वृक्षाभों को अभिवाही (afferent) तथा अक्ष तन्तु को अपवाही (efferent) प्रवर्ध कहते हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
तन्त्रिका तन्तु में तन्त्रिका आवेग की उत्पत्ति तथा इसके संचारण का सचित्र वर्णन कीजिए। या एक्सॉन में तन्त्रिका आवेग के समारम्भन (initiation) एवं चालन (conduction) का सचित्र वर्णन कीजिए। समझाइए कि तन्त्रिका आवेग स्वतः प्रचारी (self propagatory) होता है। यो युग्मानुबन्धन की संरचना तथा इसके पार प्रेरणा प्रसारण की क्रियाविधि का सचित्र वर्णन कीजिए। इस क्रिया में ऐसीटिलकोलीन की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
एक्सॉन में तन्त्रिका आवेग का समारम्भन
किसी जन्तु में उपस्थित संवेदी कोशिकाएँ (sensory cells) प्रायः किसी भी प्रकार के उद्दीपन (stimulus) द्वारा उत्तेजित होने पर उद्दीपन को सम्बन्धित तन्त्रिका तन्तुओं (nerve fibres) में प्रेषित कर देती हैं, जिससे इसका आगे संवहन हो सके। तन्त्रिका तन्तुओं का यह उद्दीपन तन्त्रिका संवेग, आवेग या चेता प्रेरणा (nerve impulse) कहलाता है। तन्त्रिका आवेगों का संवहन एक विद्युत-रासायनिक प्रेरणा (electro-chemical impulse) के रूप में होता है। यह आवेग स्वप्रचारी (self propagatory) होता है तथा प्रारम्भ होने पर इसका अन्तिम सिरे तक होना आवश्यक होता है। तन्त्रिका आवेगों में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं।
- बाह्य उद्दीपन से उत्तेजित होने पर तन्त्रिका में आवेगों की लहर उठने लगती है।
- आवेगों का तन्त्रिका में संवहन केवल एक ही दिशा में होता है।
- सामान्यतः एक आवेग एक ही तन्त्रिका तन्तु तक सीमित रहता है।
- शरीर में तन्त्रिका तन्तु कई आवेगों को वहन कर पाते हैं।
- तन्त्रिका तन्तु आवेगों के संवहन की अवधि में अधिक ऊर्जा का उपभोग करते हैं।
- एक बार प्रारम्भ होने के पश्चात् आवेग के एक छोर से दूसरे अन्तिम छोर तक संवहन निश्चित होता है।
तन्त्रिका आवेगों का संवहन या चालन
तन्त्रिका तन्तु द्वारा आवेग का निर्माण तथा संवहन दोनों अत्यन्त जटिल एवं विद्युत-रासायनिक प्रक्रियाएँ। हैं तथा एक्सॉन की निम्नलिखित अवस्थाओं पर निर्भर करते हैं।
(i) एक्सिओप्लाज्म (axioplasm) का रासायनिक संघटन।
(ii) एक्सॉन के बाहर स्थित तरल वातावरण की रासायनिक दशा।
(iii) एक्सॉन की कोशिकाकला, एक्सोलेमा (axolemma) की पारगम्यता (permeability)।
तन्त्रिका आवेगों का विद्युत-रासायनिक संवहन या चालन
तन्त्रिका आवेग के संवहन अथवा प्रसारण विधि की सम्पूर्ण प्रक्रिया को निम्नलिखित दो प्रावस्थाओं में विभक्त किया जा सकता है।
1. सुप्त कला विभव या विश्राम क्षमता
कोशिकाओं के बाह्य कोशिकीय माध्यम में ऊतक द्रव्य होता है। इसी माध्यम से कोशिकाएँ अपना सम्पूर्ण रासायनिक लेन-देन करती हैं। इस माध्यम में प्राय: सोडियम (Na+), क्लोराइड (Cl–) तथा बाइकार्बोनेट (HCO3–) आयन अधिक मात्रा में होते हैं। इसमें पोषक पदार्थ, ऑक्सीजन कोशिकाओं के उपजात पदार्थ तथा कार्बन डाइऑक्साइड भी सामान्य रूप से उपस्थित होते हैं। तन्त्रिका कोशिका के एक्सिओप्लाज्म में प्रोटीन व अन्य कार्बनिक पदार्थों के साथ-साथ पोटैशियम (K+), मैग्नीशियम (Mg++) तथा फॉस्फेट (PO43- ) आयन प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
विद्युत विभव (electric potential) में अन्तर होने पर भी धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युतावेशी आयन्स तन्त्रिका कोशिका की कला अर्थात् तन्त्रिका कला (neurilemma) के इधर-उधर गति करते हैं। जल, अकार्बनिक एवं सरल कार्बनिक अणुओं के लिए तन्त्रिका कला वरणात्मक रूप से पारगम्य (permeable) होती है। विश्रामावस्था में यह पोटैशियम (K+) तथा क्लोराइड (Cl–) आयन्स के लिए पारगम्य, परन्तु सोडियम (Na+) आयन्स के लिए लगभग अपारगम्य होती है। एक्सिओप्लाज्म (axioplasm) में पोटैशियम (K+) आयन्स ऊतक द्रव्य की अपेक्षा लगभग 30 गुना अधिक, परन्तु (Na+) वे क्लोराइड (CI) आयन्स लगभग 15 गुना कम होते हैं। इस प्रकार बनी विसरण प्रवणता के अनुसार K+ आयन्स एक्सिओप्लाज्म में गति करते हैं। चेष्ट आवागमन में आयन्स विसरण प्रवणता के विपरीत गति करते हैं अर्थात् K+ आयन्स ऊतक द्रव्य से एक्सिओप्लाज्म में तथा Na+ आयन्स एक्सिओप्लाज्म से ऊतक द्रव में गति करते हैं। Na+ व K+ आयन्स की इस गति को ही सोडियम-पोटैशियम पम्प (sodium-potassium pump) कहते हैं। इस क्रिया में ऊतक द्रव व एक्सिओप्लाज्म के मध्य परासरणी सन्तुलन (osmotic equilibrium) बना रहता है। ऐक्सोलेमा की यह ध्रुवण अवस्था (polarized state) विश्राम अथवा सुप्त कला विभव कहलाती है।
2. क्रियात्मक विभव अथवा प्रेरणा क्षमता
तन्त्रिका कला की एक विशेषता यह है कि उद्दीपन (stimulation) प्राप्त होने पर इसकी सोडियम (Na+) आयन्स की पारगम्यता में वृद्धि हो जाती है, जो इन कोशिकाओं को आवेशों के प्रसारण के योग्य बनाती है। यह प्रक्रिया निम्नांकित चरणों में पूर्ण होती है-
तन्त्रिका तन्तु में किसी बिन्दु पर उद्दीपन प्राप्त होने से इस स्थान पर तन्त्रिका कला की पारगम्यता बढ़ जाने के कारण Na+ आयन्स बड़ी संख्या में एक्सिओप्लाज्म में प्रवेश करने लगते हैं। इस प्रकार, उद्दीपन के स्थान पर तन्त्रिको कला में भीतर की ओर विपरीत विभव (reverse potential) बन जाता है। विश्रामावस्था से ठीक विपरीत परिवर्तन की इस क्रिया को नि: ध्रुवण (depolarization) कहते हैं। सोडियम-पोटैशियम पम्प लगभग 2-4 मिली सेकण्ड में Na+ व K+ की स्थिति सामान्य कर देता है, जिससे विश्राम क्षमता पुनः स्थापित हो जाती है। 2-4 मिली सेकण्ड का यह समय अनुत्तेजन अवधि (refractory period) कहलाता है। इस समय तन्त्रिका कला के इस बिन्दु पर नयी प्रेरण क्षमता नहीं बन पाती है और आवेग केवल साइटॉन से एक्सॉन की ओर ही चलता है। इसे पुनर्भुवण (repolarization) कहते हैं।
मेड्यूलैटेड (medullated) तन्तुओं में आवेग केवल नोड्स (nodes) पर ही सम्पोषित होता है और यह कई गुनी तीव्र गति से प्रेषित होता है। प्रेषण की यह विधि उच्छ्ल न प्रसारण (saltatory transmission) कहलाती है।
युग्मानुबन्ध पर आवेग का हस्तान्तरण
तन्त्रिका कोशिका की स्वतन्त्र शाखाओं के स्वतन्त्र सिरों पर सिनैप्टिक घुण्डियाँ (synaptic knobs or buttons) होती हैं। इनके और इनसे सम्बन्धित अगली तन्त्रिका की डेण्ड्राइट्स के मध्य तरल पदार्थ से. भरा एक विशेष स्थान होता है जिसे सूत्रयुग्मन या युग्मानुबन्ध (synapse) कहते हैं। सिनैप्टि घुण्डियों में स्रावी पुटिकाएँ (secretory vesicles) होती हैं, जिन्हें सिनैप्टिक पुटिकाएँ (synaptic vesicles) भी कहते हैं। इनसे विशेष रासायनिक पदार्थ ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) स्रावित होता है जो आवेग को सिनैप्टिक घुण्डी से अगले न्यूरॉन की शाखा में संचरित करता है तथा उसमें कार्यात्मक विभव (action potential) का निर्माण करता है। ऐसीटिलकोलीन के निर्माण व स्रावण के लिए कैल्सियम आयन्स (Ca+) की आवश्यकता होती है। क्रिया के पश्चात् इस पदार्थ का निष्क्रियण कोलीनेस्टेरेज (cholinesterase) नामक एन्जाइम के द्वारा होता है।
इस प्रकार आवेग युग्मानुबन्ध पर एक तन्त्रिका कोशिका से दूसरी तन्त्रिका कोशिका में एक ही दिशा में अर्थात् एकदिशात्मक (unidirectional) रूप में स्वसंचारित होता रहता है।
प्रश्न 2.
प्रतिवर्ती क्रिया को परिभाषित कीजिए। इस क्रिया को चित्र की सहायता से समझाइए।
या
प्रतिवर्ती क्रिया क्या है? इसके प्रकार एवं दो उदाहरण लिखिए।
या
प्रतिवर्ती चाप का नामांकित चित्र बनाइए।
या
प्रतिवर्ती क्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर-
प्रतिवर्ती क्रियाएँ तथा उनकी कार्य-विधि
प्रतिवर्ती क्रियाएँ अनैच्छिक क्रियाएँ हैं जिन पर मस्तिष्क का किसी भी प्रकार नियन्त्रण नहीं होता है। इन क्रियाओं में संवेदी प्रेरणा सुषुम्ना अथवा मस्तिष्क में पहुँचने पर तुरन्त ही चालक प्रेरणा के रूप में अपवाहक अंगों में स्थानान्तरित हो जाती है।
इस प्रकार प्रतिवर्ती क्रियाएँ अनायास, अविलम्ब, यन्त्रवत् एवं सहज ही घट्रित होती हैं। इस प्रकार की क्रियाओं का सर्वप्रथम पता हाल (Hall, 1833) ने लगाया था।
सुषुम्ना से प्रत्येक स्पाइनल तन्त्रिका (spinal nerve) दो मूलों के रूप में निकलती है। पहला संवेदी तन्तुओं (sensory fibres) से बना पृष्ठ मूल (dorsal root) तथा चालक तन्तुओं (motor fibres) से बना दूसरा अधर मूल (ventral root) कहलाता है। संवेदना प्राप्त होने पर आवेग (impulse) की लहर पृष्ठ मूल से होकर पृष्ठ मूल गुच्छक (dorsal root ganglion) में स्थित न्यूरॉन तथा उसके एक्सॉन (axon) में होती हुई सुषुम्ना के धूसर द्रव्य (grey matter) में पहुँचती हैं। यहाँ से सिनैप्टिक घुण्डियों (synaptic knobs) से होता हुआ आवेग चालक तन्त्रिका कोशिकाओं (motor nerve cells) के डेण्ड्राइट्स में जाता है। अब यह आवेग ज्यों-का-त्यों चालक प्रेरणा बनकर प्रभावी अंग (effected organ) में पहुँचता है। प्रभावी अंगों की पेशियाँ तुरन्त क्रियाशील होकर इन्हें गति प्रदान करती हैं। संवेदांग से लेकर अपवाहक अंग (effector organ) तक के इस प्रकार के आवेग पथ को प्रतिवर्ती चाप (reflex arc) कहा जाता है।
प्रतिवर्ती क्रियाएँ निम्नांकित दो प्रकार की होती हैं।
1. अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditional Reflex Actions) – इस प्रकार की प्रतिवर्ती क्रियाएँ प्राणियों में जन्म से मूल प्रवृत्ति (instinct) के रूप में होती हैं। ये क्रियाएँ स्पाइनल कॉर्ड (spinal cord) द्वारा नियन्त्रित होती हैं; जैसे-घोंसला बनाना, पक्षियों का देशान्तरण (migration) आदि।
2. प्रतिबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Conditioned Reflex Actions) – ये क्रियाएँ प्राणियों में अनुभव द्वारा विकसित होती हैं। इन क्रियाओं पर प्रारम्भ में तो प्रमस्तिष्क का नियन्त्रण रहता है, परन्तु बाद में ये स्वत: ही होने लगती हैं। नृत्य, तैरना, वाद्य, संगीत आदि इन क्रियाओं के सामान्य उदाहरण हैं।
प्रतिवर्ती क्रियाओं के कुछ सामान्य उदाहरण
1. खाँसना एवं छींकना (Coughing and Sneezing) – श्वसन मार्ग में किसी ठोस कण के पहुँचने पर फेफड़ों से मुख के द्वारा तीव्र गति से वायु बाहर निकलती है, जिससे कि अवांछित कण वायु के दबाव से बाहर निकल जायें। तीव्र उच्छ्वास के कारण स्वर पट्टियों में कम्पन उत्पन्न होने से खाँसी की ध्वनि उत्पन्न होती है। छींकने में भी ऐसा ही होता है, अन्तर केवल इतना है कि इसमें वायु मुख के स्थान पर नाक से बाहर निकलती है।
2. नेत्र प्रतिक्षेप क्रिया (Blinking Reflex of Eye) – किसी वस्तु के अचानक सामने आने पर पलकों का अविलम्ब झपकना नेत्र प्रतिक्षेप क्रिया कहलाता है।
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