UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 14 Dalton Method (डाल्टन पद्धति)
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 14 Dalton Method (डाल्टन पद्धति)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शिक्षा की डाल्टन पद्धति का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
या
डाल्टन शिक्षण पद्धति के क्या सिद्धान्त हैं ?
उतर:
हाल्टन पद्धति का अर्थ
(Meaning of Dalton Method)
शिक्षा की आधुनिक पद्धतियों में डाल्टन पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा की इस नयी पद्धति को अमेरिका की मिस हैलन पार्कहर्ट ने जन्म दिया है। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के डाल्टन नगर में हुआ था, इसलिए इस पद्धति को डाल्टन पद्धति के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति का पहला विद्यालय सन् 1920 में स्थापित हुआ। मिस पार्कहर्स्ट को डॉ० मॉण्टेसरी के साथ कुछ समय तक कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ था, जिसके कारण विचारों में कुछ समानता होने के कारण मॉण्टेसरी और डाल्टन पद्धति में भी कुछ समानता पाई जाती है। मॉण्टेसरी पद्धति के समान ही डाल्टन पद्धति भी बच्चों में पाई जाने वाली व्यक्तिगत विभिन्नता पर विशेष बल देती है। 11 और 12 वर्ष की आयु के बालकों के लिए डाल्टन पद्धति बड़ी उपयोगी और सफल मानी जाती है।
इस पद्धति को ‘प्रयोगशाला पद्धति” भी कहा जाता है। इस पद्धति के द्वारा शिक्षा देने वाले विद्यालयों में प्रत्येक विषय की प्रयोगशालाएँ होती हैं। इनमें अनेक विषयों के अध्यापक रहते हैं और बालकों के ऊपर समय का कोई बन्धन नहीं होता। बालकों की रुचि और इच्छाओं को ध्यान में रखकर बालकों को एक सप्ताह या एक महीने का कार्य करने को दिया जाता है। जब बालक अपना काम पूरा कर लेता है तो उसे आगे काम मिल जाता है। इस प्रकार इस पद्धति में कला-शिक्षण और व्यक्तिगत शिक्षण का प्रबन्ध होता है। और बालक की स्वतन्त्रता का भी ध्यान रखा जाता है।
इस प्रकार “डाल्टन का तात्पर्य उस पद्धति से है जिसमें बालकों को उनकी रुचियों और इच्छाओं के अनुकूल कार्यों को, सुविधायुक्त प्रयोगशालाओं में दिए गए समय में पूरा करते हुए, अपने व्यक्तित्व का उत्तरदायित्वपूर्ण समुचित विकास करने का अवसर प्राप्त होता है।” डाल्टन पद्धति की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
- मिस हैलन पार्कहर्ट के अनुसार, “डाल्टन पद्धति एक यान्त्रिक व्यवस्था है जिसमें कि वैयक्तिक कार्य के सिद्धान्त को व्यवहार में लाया जाता है। यह शिक्षालयों का सरल एवं आर्थिक पुनसँगठन है, जहाँ शिक्षक एवं शिक्षार्थी को अधिक उपयोगी एवं समय से कार्य करने के लिए अवसर प्राप्त होते हैं।”
- ग्रेव्ज (Graves) के अनुसार, “डाल्टन पद्धति में एक ऐसी ‘निर्दिष्ट कार्य व्यवस्था निहित है जिसमें कि बालक एक दिए गए समय में कार्य को पूरा करने को स्वीकार करता है और जिसमें उस कार्य को पूरा । करने के साधन एवं भागों के चयन करने का कार्य उसी पर छोड़ दिया जाता है।”
डाल्टन पद्धति के उद्देश्य
(Aims of Dalton Method)
मिस हैलन पार्कहर्ट ने डाल्टन पद्धति के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “इस योजना का उद्देश्य बालकों को साधारण कक्षा में मिलने वाली जीवन की परिस्थितियों से बिल्कुल भिन्न परिस्थितियों में रखकर एक नए प्रकार के शैक्षिक समाज को जन्म देना तथा विद्यालय के सामाजिक जीवन का पुनर्सगठन करना
डाल्टन पद्धति के सिद्धान्त
(Principles of Dalton Method)
डाल्टन पद्धति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं–
1. बाल-केन्द्रित शिक्षा-मनोवैज्ञानिक विचारधारा के प्रवेश से पूर्व शिक्षा में बालक का कोई स्थान नहीं था और शिक्षा देते समय बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। मिस हैलेन ने इस परिपाटी को बदल दिया। उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति में बालक डाल्टन पद्धति के सिद्धान्त को प्रधान बनाया। शिक्षक को उसकी शिक्षा में सहायता देने वाला एक सहायक समझा गया जो बालक का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके बालक को उसकी योग्यता के अनुसार उसे सीखने के लिए आवश्यक सामग्री जुटाता है। मिस पार्कहर्स्ट के शब्दों में, “फलस्वरूप उसका पूर्ण स्वतन्त्रता विकास प्राकृतिक संगति से होता है और प्रयास से प्राप्त की जाने वाली शिक्षक पथ-प्रदर्शक के रूप में योग्यता वास्तविक एवं सुदृढ़ होती है।”
2. स्वशिक्षा का सिद्धान्त-कक्षा शिक्षण में बालक को यह स्वतन्त्रता नहीं होती कि वह जितनी देर चाहे एक विषय का अध्ययन में व्यक्तिगत करे, लेकिन डाल्टन पद्धति में स्वशिक्षा के सिद्धान्त की पूर्ति होती है। विशेष परीक्षा की व्यवस्था इसके अनुसार बालक जितनी देर तक चाहे एक विषय का अध्ययन कर सकता है। वह अपनी शिक्षा के लिए किसी पर पूर्णरूप से आश्रित नहीं होता। स्वाध्याय के लिए बालक को सुविधाएँ दे दी जाती हैं। प्रयोगशालाओं में सब प्रकार की सामग्री तथा पुस्तकें उपस्थित रहती हैं। वह स्वयं अध्ययन करती है। इस प्रकार प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्थायी होता है। इससे बालक में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के गुण का विकास होता है।
3. पूर्ण स्वतन्त्रता-इस पद्धति में बालकों को अपनी रुचि, योग्यता तथा गति के अनुसार कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। वह समय के बन्धन से मुक्त रहता है। इस पद्धति में इस बात की सुविधा है कि यदि किसी तीव्र बुद्धि वाले बालक ने अपना कार्य शीघ्र ही समाप्त कर लिया है तो उसे दूसरा कार्य प्रदान कर दिया जाता है। इसके विपरीत मन्दबुद्धि के बालकों को अधिक समय दिया जाता है। जब बालक काम में लगा रहता है तो अनुशासन की समस्या नहीं रहती।
4. शिक्षक पथ-प्रदर्शक के रूप में इसके अन्तर्गत यद्यपि प्रयोगशालाओं में विभिन्न विषयों के शिक्षक रहते हैं, लेकिन वे बालकों के कार्य तथा अध्ययन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते। उनका कार्य बालक का पथ-प्रदर्शन करना होता है। शिक्षक बालक को उसके कार्य से सम्बन्धित निर्देश दे देता है। वह बालकों को यह बता देता है कि उसे किन-किन पुस्तकों की सहायता लेनी चाहिए तथा किस प्रकार से काम करना चाहिए। शिक्षक बालक की कठिनाइयों को दूर करता है। बालकों के कार्य करते समय शिक्षक बालकों का निरीक्षण करता है और पास आने पर पथ-प्रदर्शन करता है।
5. सामूहिक शिक्षा- यद्यपि इस शिक्षा पद्धति में व्यक्तिगत शिक्षा पर बल दिया गया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसमें बालकों के सामाजिक पक्ष की अवहेलना की जाती है। दिन में कम-से-कम दो बार सभी बालक एक जगह एकत्र होकर पारस्परिक वाद-विवाद, परामर्श, वार्ता आदि करके विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से कार्य करते समय भी आवश्यकता पड़ने पर वे दूसरों की सम्मति ले सकते हैं। इस प्रकार बालकों को सहयोग से काम करने का अवसर मिल जाता है और उनमें सहकारिता तथा सामाजिकता की भावना का विकास होता है।
6. मनोवैज्ञानिकता- इस पद्धति में बालक सर्वप्रथम अपने सारे कार्य पर दृष्टिपात करता है। फिर वह उसको करने के लिए प्रत्येक दृष्टिकोण से प्रयत्नशील होता है। वह अपनी गलती स्वयं पकड़ता है और उसे सुधारने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार से उसका दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक हो जाता है।
7. व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान-इस पद्धति में बालक की व्यक्तिगत योग्यता की अवहेलना नहीं की जाती, बल्कि उनकी व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखकर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाता है। बालक अपनी योग्यता के अनुसार अपने कार्य का चुनाव करता है और अपनी गति से कार्य को करता है। मन्दबुद्धि के बालक को सामूहिक खिंचाव में विवश होकर नहीं बहना पड़ता। इसी प्रकार से कुशाग्र बुद्धि वाले बालक आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें कमजोर बालकों के साथ घिसटने की आवश्यकता नहीं रहती। .
8. विशेष परीक्षा की व्यवस्था- आजकल की दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली से यह पद्धति मुक्त है। इस पद्धति में साधारण परीक्षा प्रविधि को नहीं अपनाया गया है। इसमें बालक के कार्य का प्रतिदिन मूल्यांकन किया जाता है। यदि कोई बालक निश्चित समय में अपना कार्य पूरा नहीं कर सकता तो वह दूसरा कार्य नहीं ले सकता। शिक्षक प्रतिदिन के कार्य का निरीक्षण करता है और उसी की प्रकृति के आधार पर बालक को अगली कक्षा में भेजता है। पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त बालक के व्यावहारिक ज्ञान को भी महत्त्व दिया जाता है।
प्रश्न 2.
शिक्षा की डाल्टन पद्धति की शिक्षण-विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
डाल्टन पद्धति की शिक्षण विधि
(Teaching Technique of Dalton Method)
डाल्टन पद्धति की शिक्षण विधि को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है
1. पाठ का ठेका- जिस प्रकार एक ठेकेदार किसी काम को निश्चित अवधि में पूरा करता है, उसी प्रकार इस पद्धति में बालक भी निर्दिष्ट कार्य को करने का ठेका लेता है। वर्ष के प्रारम्भ में ही शिक्षक सम्पूर्ण सत्र के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर लेता है, जिससे विद्यार्थी इस डाल्टन पद्धति की शिक्षण विधि | बात से परिचित हो जाता है कि वर्ष भर में उसे कितना काम करना है। उनका सम्पूर्ण सत्र के लिए निर्धारित पाठों को बारह भागों में विभाजित कर , निर्दिष्ट पत्र दिया जाता है और उस काम को निश्चित अवधि में पूरा करने का कार्य इकाई उत्तरदायित्व बालक का होता है। इस प्रकार बालक किसी भी काम को . प्रयोगशालाएँ ठेके के रूप में स्वीकार करता है। बालक इस ठेके को पूरा करने में स्वतन्त्र होता है। वह अपनी सुविधा के अनुसार समय के अन्दर काम को पूरा करता है।
2. निर्दिष्ट पाठ- कार्य की सुविधा के लिए शिक्षक मासिक कार्य को साप्ताहिक कार्य में बाँट देता है। शिक्षक यह निश्चित कर देता है कि किस सप्ताह में बालक को मासिक कार्य का कितना काम करना है। इस प्रकार का विभाजन बालक की योग्यता को ध्यान में रखकर किया जाता है। शिक्षक यह विभाजन बड़ी योग्यता से करता है, जिससे कार्य न तो बिल्कुल आसान होता है। और न ही काफी कठिन। इस प्रकार शिक्षक बालक के महीनेभर के कार्य को चार भागों में विभाजित कर देता है और बालक पर निर्दिष्ट कार्य को एक सप्ताह में पूरा करने का उत्तरदायित्व रहता है। इस प्रकार एक सप्ताह के कार्य को निर्दिष्ट पाठ कहा जाता है और निर्दिष्ट पाठों के सम्मिलित रूप को वह ठेका कहता है।
3. कार्य इकाई- कार्य की दृष्टि से प्रत्येक पाठ के पाँच भाग किए जाते हैं और प्रत्येक भाग को इकाई कहा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक निर्दिष्ट पाठ में पाँच और महीने के ठेके में बीस इकाइयाँ होती हैं। इस प्रकार एक दिन के कार्य को इकाई कहते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक बालक प्रतिदिन प्रत्येक विषय की इकाई को पूरा कर ले। उसे अपनी गति के अनुसार कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है। यदि कोई बालक अपने सभी विषयों के कार्य को एक महीने से पहले कर लेता है तो उसे अगले माह का ठेका दे दिया जाता है। शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक बालक अपने ठेके के अनुसार अपने एक महीने के कार्य को उसी महीने में यथासम्भव पूरा कर दे।
4. प्रयोगशालाएँ- डाल्टन पद्धति में कक्षाओं सम्बन्धी प्रयोगशाला में उस विषय से सम्बन्धित पुस्तकें व चित्र इत्यादि होते हैं। इसके अलावा प्रत्येक प्रयोगशाला में प्रत्येक कक्षा के बालकों के लिए स्थान निश्चित होते हैं। इससे कक्षा-प्रबन्ध में सुविधा रहती है। इस प्रकार बालक निर्दिष्ट कार्य की इकाई के अनुसार विभिन्न प्रयोगशालाओं में जाकर अध्ययन कार्य करता है। जिस बालक को जिस विषय से सम्बन्धित कठिनाई दूर करनी होती है, वह उसी प्रयोगशाला में चला जाता है।
5. सम्मेलन तथा विमर्श सभा- सम्मेलन तथा विमर्श सभा डाल्टन पद्धति के अंग हैं। ठेके के अनुसार कार्य में जो कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं उन्हें दूर करने के लिए कक्षा की विमर्श सभाएँ होती हैं, जो प्रात:काल होती हैं। उसमें शिक्षक बालकों को आवश्यक सूचनाएँ देता है। दूसरी सभा शाम को होती है, जिसमें विद्यार्थी – अपने अनुभवों का वर्णन सुनाता है। इस प्रकार प्रात:काल शिक्षक निर्देश देता है और विद्यार्थी अपने अनुभव सुनाता है। सम्मेलन और विमर्श सभा विद्यार्थियों के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होते हैं।
6. प्रगतिसूचक रेखाचित्र- विद्यार्थी अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे हैं या नहीं, यह जानने के लिए प्रगतिसूचक रेखाचित्रों का प्रयोग किया जाता है। ये रेखाचित्रयाग्राफ तीन प्रकार के होते हैं
- प्रत्येक बालक अपने पास एक रेखाचित्र रखता है, जिसमें वह प्रत्येक विषय में जितना कार्य करता है, उसे अंकित कर देता है। इससे बालक को यह पता चलता है कि उसने कितनी इकाइयाँ पूरी कर ली हैं।
- दूसरा रेखाचित्र शिक्षक के पास रहता है, जिसमें विषय विशेषज्ञ बालक की अपने विषय में की गई प्रगति को अंकित करता है। इससे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को पता रहता है कि उनके कार्य की क्या स्थिति
- तीसरा रेखाचित्र सम्पूर्ण कक्षा का होता है। इसमें कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी सम्पूर्ण विषयों में कितना कार्य करते हैं, उसे अंकित कर दिया जाता है। इस आधार पर यह ज्ञात किया जा सकता है कि किस विद्यार्थी का कार्य कैसा है।
यह ग्राफ मार्गदर्शन के कार्य में शिक्षक की बड़ी सहायता करता है। इसके द्वारा विद्यार्थियों के कार्य की तुलना की जा सकती है। जिस विषय में बालक कमजोर होता है, उस विषय का शिक्षक बालक पर विशेष ध्यान देता है और उसे आगे बढ़ाने की चेष्टा करता है।
7. सामाजिक क्रियाएँ- मूल रूप से डाल्टन पद्धति में सामाजिक क्रियाओं को यथोचित स्थान दिया गया, लेकिन बाद में इनको कुछ कारणों से हटा देना पड़ा। फिर भी कुछ समर्थकों ने तीसरे प्रहर कुछ खेल, जिमनास्टिक व सामाजिक योजनाओं को स्थान दिया है।
प्रश्न 3.
शिक्षा की डाल्टन पद्धति के गुणों अथवा विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
डाल्टन प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
डाल्टन:पद्धति के गुण या विशेषताएँ
(Merits or Features of Dalton Method)
डाल्टन पद्धति में कुछ विशिष्ट गुण पाए जाते हैं, जिनका विवेचन निम्नलिखित है
1. योग्यतानुसार प्रगति का अवसर- इस पद्धति का प्रमुख गुण यह है कि इसमें प्रत्येक बालक को अपनी योग्यता, रुचि, शक्ति तथा गति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता होती है। किसी भी विद्यार्थी को दूसरे विद्यार्थियों की तीव्र गति होने के कारण न तो शीघ्रता से आगे बढ़ना पड़ता है और न ही मन्दबुद्धि सहपाठियों के कारण ठहरना पड़ता है।
2. कार्य की निरन्तरता- इस पद्धति के अनुसार ज्ञानार्जन का कार्य निरन्तर होता रहता है। उसका क्रम भंग नहीं होता। यदि विद्यार्थी किसी कारण से विद्यालय में उपस्थित नहीं रह पाता, तो वह अपनी कमी को व अपने पिछड़े कार्य को स्वयं प्रयत्न करके पूरा करता है। इसमें किसी विद्यार्थी का कार्य अन्य विद्यार्थियों पर निर्भर नहीं होता।
3. समय का सदुपयोग- चूंकि प्रत्येक बालक अपना कार्य समय से करता है, इसलिए इस पद्धति में समय का दुरुपयोग नहीं होता। इस पद्धति में विद्यार्थियों के अनुत्तीर्ण होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
4. सभी विषयों का यथोचित अध्ययन- इस पद्धति में विद्यार्थियों को विषयों का चयन करने की पूर्ण । स्वतन्त्रता होती है। वह किसी विषय को जितना चाहे पढ़ सकता है। इससे बालक किसी भी विषय को गहन अध्ययन कर सकता है।
5. अपने स्रोतों से ज्ञान संचय करने का अवसर- इस पद्धति में बालकों को स्वयं शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है। विद्यार्थी अपने पाठ स्वयं तैयार करते हैं और अन्य कार्य भी स्वतन्त्रतापूर्वक अकेले रहकर करते हैं। इसके लिए वे प्रयोगशालाओं में विभिन्न पुस्तकें और साधनों का अध्ययन करते हैं। इससे बालकों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, स्वावलम्बन आदि गुणों का विकास होता है। इसके द्वारा बालक श्रम का महत्त्व समझने लगते हैं।
6. उत्तरदायित्व की शिक्षा- इस पद्धति में बालक पर ही अपने पाठ को पूरा करने का उत्तरदायित्व रहता है। वे अपने ठेके को पूरा करने के लिए विभिन्न विषयों एवं उपभागों को पढ़ते हैं और अपनी योग्यतानुसार आगे बढ़ते हैं। इसमें बालक को यह ज्ञात रहता है कि उसे क्या कार्य करना है। अपने उत्तरदायित्व को निभाने की उसे चिन्ता रहती है। इससे उसे उत्तरदायित्व के मूल्य का ज्ञान रहता है।
7. शिक्षक एवं विद्यार्थी का परस्पर सम्बन्ध- इस पद्धति में। शिक्षक और विद्यार्थियों को पारस्परिक सम्बन्ध बड़ा मधुर रहता है। में शिक्षक विद्यार्थियों के मित्र एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में योग्यतानुसार प्रगति का अवसर उन्हें आवश्यक सहायता देते हैं। विद्यार्थी भी बिना किसी डर या। संकोच के शिक्षकों की आवश्यक सहायता लेते रहते हैं।
8. गृह-कार्य का अनिवार्य न होना इस पद्धति में गृह- कार्य को अनिवार्य नहीं बताया गया है। विद्यार्थी द्वारा सम्पूर्ण कार्य विद्यालय अध्ययन की प्रयोगशालाओं में पूरा करने का प्रयास किया जाता है। घर पर अपने स्रोतों से ज्ञान संचय करने अध्ययन करना उनकी इच्छा पर निर्भर करता है।
9. स्वतन्त्र वातावरण- इस पद्धति में बालकों को पूर्णरूप से स्वतन्त्र वातावरण में पढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। उन पर शिक्षक एवं विद्यार्थी का परस्पर टाइम-टेबिल व कक्षा का कोई बन्धन नहीं होता। बालक जिस कक्षा में सम्बन्ध चाहे प्रवेश कर सकता है। शिक्षक विद्यार्थियों पर विश्वास करके उन्हें गृह-कार्य का अनिवार्य न होना । बिना डराए-धमकाए पढ़ाने का प्रयास करते हैं।
10. अन्वेषण की प्रेरणा- इस पद्धति में बालक स्वयं अध्ययन करते हैं और स्वयं ही अपनी समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं। इससे बालकों की अन्वेषण शक्ति का विकास होता है। वह शिक्षण में समन्वय अध्ययन के दौरान नई-नई बातों की खोज करने लगती है।
11. कक्षा शिक्षण एवं वैयक्तिकं शिक्षण में समन्वय- इस अवसर पद्धति में कक्षा शिक्षण और वैयक्तिक शिक्षण में समन्वय किया जा सकता है। बालक वैयक्तिक रूप से कार्य करके अपने ठेके को पूरा कक्षा शिक्षण और परीक्षा प्रणाली करते हैं, परन्तु ठेके पर विचार-विमर्श तथा उसके पूर्ण होने पर के दोषों से मुक्त उसका मूल्यांकन सामूहिक रूप से करते हैं। अतः उनका व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार का विकास होता है।
12. पारस्परिक सहायता देने का अवसरे- इस पद्धति में सम्मेलनों तथा विचार-विमर्श सभाओं को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। इससे बालक एक-साथ बैठकर एक-दूसरे की समस्याओं का समाधान करते हैं और एक-दूसरे को उचित सुझाव देते हैं। इस प्रकार इस पद्धति में बालकों को पारस्परिक सहायता देने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
13. ग्राफ रिकॉर्डों का महत्त्व- इस पद्धति में ग्राफ रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था है, जिससे विद्यार्थी की प्रगति को मापा जाता है। इन रिकॉर्डों में बालकों के कार्यों एवं समय के सदुपयोग आदि का लेखा-जोखा रहता है। इन रिकॉर्डों के द्वारा विद्यार्थियों को प्रेरणा भी मिलती है।
14. कक्षा शिक्षण और परीक्षा प्रणाली के दोषों से मुक्त- यह पद्धति कक्षा शिक्षण के दोषों से मुक्त है, क्योंकि इसमें बालक की वैयक्तिक भिन्नता पर काफी ध्यान दिया जाता है। इस पद्धति में बालक के सिर पर परीक्षा का भूत भी सवार नहीं होता, क्योंकि इसमें परीक्षा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। वर्षभर का ठेका पूरा करने के बाद बालक को नई कक्षा में प्रवेश दिया जाता है।
15. अनुशासन की समस्या का समाधान कार्य करने के लिए पूर्णरूप से स्वतन्त्र होने और रुचिपूर्ण कार्य करने के कारण बालकों के मन की भावनाओं का दमन नहीं होता और वे अनुशासनहीनता उत्पन्न करने के लिए तनिक भी प्रेरित नहीं होते। इस पद्धति में बालक पर विश्वास किया जाता है और विश्वास की भावना अनुशासन स्थापना में बहुत सहायक होती है।
प्रश्न 4.
डाल्टन पद्धति के मुख्य दोषों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
डाल्टन पद्धति के दोष।
(Demerits of Dalton Method)
इस पद्धति के प्रमुख दोष निम्न प्रकार हैं
1.वैयक्तिक शिक्षण पर विशेष बल- इस पद्धति में वैयक्तिक शिक्षण पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, जिसके कारण बालकों में सामूहिक भावना का विकास नहीं हो पाता है।
2. शिक्षकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध- इस पद्धति के द्वारा। डाल्टन पद्धति के दोष शिक्षा देने से बालकों को तो स्वतन्त्रता मिल जाती है, लेकिन शिक्षकों की स्वतन्त्रता सीमित रह जाती है।
3. शिक्षकों के प्रभाव में कमी- इस पद्धति में बालक वैयक्तिक। रूप से अध्ययन करते हैं जिससे शिक्षकों को कम काम करना पड़ता है। और उनका प्रभाव घट जाता है। इसके अतिरिक्त बालकों पर शिक्षकों के व्यक्तित्व तथा चरित्र की छाप नहीं पड़ती, फलस्वरूप उनके व्यक्तित्व तथा चरित्र का कोई मूल्य नहीं रह जाता है।
4. योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- इस पद्धति के अनुकूल शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित और योग्य शिक्षकों की कमी है। इसी कमी के कारण बालकों के शिक्षण का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं किया जा सकता।
5. विशेषीकरण पर बल- इस पद्धति में विशेषीकरण पर बल संगीत तथा विज्ञान की शिक्षा देना दिया जाता है। यह असंगत प्रतीत होता है। विशेषीकरण से बालक को असम्भव सर्वतोन्मुखी विकास नहीं हो पाता है। छोटी आयु में सर्वांगीण विकास अनैतिक कार्य होने की आशंका न होने के कारण बालक का व्यक्तित्व एकांगी रह जाता है। पुस्तकीय निर्भरता का भय
6. सामूहिक शिक्षा का अभाव इस पद्धति में वैयक्तिक शिक्षा, पाठान्तर क्रियाओं का अभाव पर इतना अधिक बल दिया जाता है कि सामूहिक शिक्षा का सर्वथा व्ययशील पद्धति अभाव हो जाता है। इस पद्धति में अभिनय, संगीत, खेल आदि के दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली माध्यम से शिक्षा नहीं दी जाती, जब कि ये सामूहिक शिक्षा के स्वरूप
7, मौखिक कार्य का अभाव- इस पद्धति में बालकों को लिखने का काम अधिक करना पड़ता है, इसलिए उन्हें मौखिक कार्य के अभ्यास के लिए अवसर नहीं मिल पाता। इसके परिणामस्वरूप बालक की भाषा को विकास भी सन्तुलित रूप में नहीं हो पाता है।
8. उत्तम पुस्तकों का अभाव डाल्टन पद्धति को कार्यान्वित करने के लिए उपयुक्त पुस्तकों का होना अति आवश्यक है, परन्तु अभी हमारे देश में भी विभिन्न विषयों पर इस पद्धति के ढंग की पुस्तकों का अभाव पाया जाता है। इसी कारण यह पद्धति भारत में कार्यान्वित नहीं की जा सकी है।
9. विषयों में सानुबन्ध का अभाव- इस पद्धति में जो शिक्षक कार्य करते हैं, वे अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनके द्वारा जो विषय पढ़ाए जाते हैं उनमें सानुबन्ध नहीं होने पाता। चूंकि प्रत्येक विषय का अध्ययन अलग-अलग होता है। इस कारण विभिन्न विषयों का समन्वय करना कठिन है। | 10. संगीत तथा विज्ञान की शिक्षा देना असम्भव-कुछ विषयों में शिक्षक को अधिक बताने की आवश्यकता होती है। ऐसे विषयों में विद्यार्थी बिना शिक्षक की सहायता के आगे नहीं बढ़ सकते। इसी कारण इस पद्धति से सब विषयों की शिक्षा नहीं दी जा सकती, विशेष रूप से संगीत और विज्ञान की शिक्षा देना तो सम्भव ही नहीं है।
10. अनैतिक कार्य होने की आशंका- इस पद्धति में शिक्षा सम्बन्धी कुछ अनैतिक कार्य होने की सम्भावना भी रहती है। इस पद्धति में यह भी आशंका रहती है कि बालक अपना कार्य किसी दूसरे विद्यार्थी की सहायता से न करा ले या उसके कार्य की नकल कर ले। चारित्रिक तथा मानसिक विकास की दृष्टि से यह कार्य अनुचित है।
12. पुस्तकीय निर्भरता का भय- इस पद्धति के द्वारा शिक्षा देने से बालक किताबी कीड़े बन जाते हैं। इसका कारण यह है कि इसमें व्यावहारिक शिक्षा का अभाव रहता है और पुस्तकीय शिक्षा की प्रधानता है।
13. पाठान्तर क्रियाओं का अभाव- इस पद्धति में पिकनिक, निरीक्षण, भ्रमण आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया है। इससे बालकों के संर्वतोन्मुखी विकास में बाधा पड़ती है।
14. व्ययशील पद्धति- इस पद्धति के अनुसार शिक्षा देने में प्रत्येक विषय के लिए एक प्रयोगशाला, विषय-विशेषज्ञ, उपयुक्त पुस्तकों तथा शिक्षण यन्त्रों की आवश्यकता होती है। इनकी व्यवस्था के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है, परन्तु भारत जैसे निर्धन देश में वर्तमान स्थितियों को देखते हुए इतनी व्ययशील पद्धति कार्यान्वित नहीं की जा सकती है।
15. दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली- इस पद्धति में वार्षिक कार्य के आधार पर बालक को अगली कक्षा में चढ़ाया जाता है। इससे बालक की सही योग्यता का मापन नहीं होता। कार्य तो वह अन्य किसी से भी करा सकता है। फिर कार्य कर लेने से यह नहीं समझा जा सकता है कि बालक ने उसे सीख लिया है और उसे धारण कर लिया है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
समुचित तर्क के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा की डाल्टन प्रणाली शिक्षा की अन्य प्रचलित शिक्षा-प्रणालियों से भिन्न है।
उत्तर:
डाल्टन प्रणाली की विशिष्टता
(Characteristics of Dalton Method)
मिस हैलन पार्कहर्ट द्वारा प्रतिपादित डाल्टन शिक्षा-प्रणाली शिक्षा की अन्य प्रचलित प्रणालियों से पर्याप्त भिन्न है। यह शिक्षा प्रणाली सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों ही दृष्टिकोणों से एक प्रयोगात्मक प्रणाली है। डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत शिक्षण कार्य सदैव सम्बन्धित विषय की सुव्यवस्थित प्रयोगशाला में ही सम्पन्न होता है। इस शिक्षा-प्रणाली की आधारभूत मान्यता के अनुसार बच्चों द्वारा स्वयं कार्य करके ज्ञान अर्जित किया जाता है। किसी भी विषय का ज्ञान शिक्षक द्वारा कक्षा-शिक्षण विधि द्वारा प्रदान नहीं किया जाता। शिक्षक ही सामान्य रूप से बच्चों के लिए मात्र पथ-प्रदर्शक ही होता है।
बच्चों को कुछ कार्य सौंपे जाते हैं तथा सौंपे गए कार्य को पूरा करने का दायित्व बच्चों का ही होता है। जैसे-जैसे बच्चे अपना कार्य पूरा कर लेते हैं, वैसे-वैसे ही उन्हें आगे का कार्य सौंप दिया जाता है। बच्चा अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार दिए गए कार्य को निर्धारित समय से पूर्व भी पूरा कर सकता है। डाल्टन प्रणाली के अन्तर्गत किसी व्यवस्थित परीक्षा-पद्धति का प्रावधान नहीं है। बच्चों को उनके द्वारा पूरे किए गए कार्य को ध्यान में रखते हुए ही अगली कक्षा में भेज दिया जाता है। इस शिक्षा प्रणाली में अनुशासन की समस्या भी प्रायः नहीं होती तथा शिक्षक एवं शिष्य के सम्बन्ध भी मधुर होते हैं। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं। कि डाल्टन प्रणाली अन्य शिक्षा-प्रणालियों से भिन्न एवं विशिष्ट है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली के मुख्य उद्देश्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली का प्रतिपादन कुछ विशेष उद्देश्यों को ध्यान में रख कर किया गया है। वास्तव में इस शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन पूर्व प्रचलित शिक्षा के दोषों को समाप्त करने के लिए किया गया था। इस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य शिक्षा को अधिक व्यावहारिक तथा जीवन से सम्बद्ध बनाना था। इस शिक्षा-प्रणाली का उद्देश्य एक नए शैक्षिक समाज का निर्माण करना था। डाल्टन प्रणाली के उद्देश्य को पार्कहर्ट ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “इस योजना का उद्देश्य बालकों को साधारण कक्षा में मिलने वाली
जीवन की परिस्थितियों से बिल्कुल भिन्न परिस्थितियों में रखकर एक नए प्रकार के शैक्षिक समाज को जन्म : देना तथा विद्यालय के सामाजिक जीवन का पुनसँगठन करना था।’
प्रश्न 2.
तर्कसहित स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा की डाल्टन प्रणाली एक बाल-केन्द्रित शिक्षा-प्रणाली है?
उत्तर:
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली में शिक्षण की सम्पूर्ण व्यवस्था बालक पर केन्द्रित है। इस प्रणाली में बालक के बहुपक्षीय विकास को प्राथमिकता दी गई है। बालक को अधिक महत्त्व दिया गया है तथा शिक्षक की भूमिका गौण है। इस शिक्षा प्रणाली में बालक को जो कार्य सौंपे जाते हैं वे उसकी योग्यता, क्षमता, स्वभाव एवं कार्य के अनुकूल होते हैं। यही नहीं सौंपे गए कार्यों को करने में भी बालक पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होता है। वह अपनी इच्छा से कार्य को निर्धारित समय से पूर्व भी पूरा कर सकता है। डाल्टन शिक्षा-प्रणाली की इन समस्त मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए, हम कह सकते हैं कि यह शिक्षा प्रणाली बाल-केन्द्रित शिक्षा-प्रणाली है।
प्रश्न 3.
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली में शिक्षक का क्या स्थान है ?
उत्तर:
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली अपने आप में एक विशिष्ट शिक्षा-प्रणाली है। इस शिक्षा-प्रणाली में बालक या छात्र का स्थान मुख्य है तथा उसी के बहुपक्षीय विकास को शिक्षा का मुख्य उद्देश्य स्वीकार किया गया है। इस सैद्धान्तिक मान्यता को ध्यान में रखते हुए नि:सन्देह रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रणाली में शिक्षक का स्थान गौण ही है। डाल्टन प्रणाली में शिक्षक केवल पथ-प्रदर्शक की ही भूमिका निभाता है। इस शिक्षा प्रणाली में कक्षा-शिक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। अतः शिक्षक के व्यक्तित्व को बच्चों पर प्रभाव भी पड़ने की कोई गुंजाइश नहीं होती। डाल्टन प्रणाली में शिक्षक द्वारा किसी रूप में नियन्त्रक की भूमिका नहीं निभाई जाती, वह तो बालकों का मित्र एवं सहायक ही होता है।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली के प्रतिपादक का नाम क्या है ?
उत्तर:
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली के प्रतिपादक का नाम है–मिस हैलन पार्कहर्ट।
प्रश्न 2.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली को प्रयोगशाला प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न 3.
मिस हैलन पार्कहर्स्ट द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-प्रणाली को ‘डाल्टन शिक्षा-प्रणाली’ का नाम क्यों दिया गया है ?
उत्तर:
मिस हैलन पार्कहर्ट ने अपनी शैक्षिक अवधारणा के आधार पर प्रथम विद्यालय अमेरिका के डाल्टन नगर में स्थापित किया था। इसी कारण से इस शिक्षा प्रणाली को डाल्टन शिक्षा प्रणाली’ नाम दिया गया है।
प्रश्न 4.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत अध्ययन के किस स्वरूप को अपनाया गया है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत अध्ययन के प्रयोगात्मक स्वरूप को अपनाया गया है।
प्रश्न 5.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत किस आयु-वर्ग के बच्चों को विद्यालय में प्रवेश दिया जाता
उत्तर:
ल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत सामान्य रूप से 11-12 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है।
प्रश्न 6.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत अपनाई जाने वाली शिक्षण-विधि क्या कहलाती है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत अपनाई जाने वाली शिक्षण-विधि ‘कार्य की ठेका पद्धति कहलाती है।
प्रश्न 7.
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली में शिक्षक की भूमिका क्या है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा प्रणाली में शिक्षक द्वारा बालकों के मित्र, सहायक तथा पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाई जाती है।
प्रश्न 8.
“डाल्टन पद्धति एक यान्त्रिक व्यवस्था है, जिसमें कि कार्य के सिद्धान्त को व्यवहार में लाया जाता है। यह शिक्षालयों को सरल एवं आर्थिक पुनसँगठन है, जहाँ शिक्षक एवं शिक्षार्थी को अधिक उपयोगी ढंग से कार्य करने के अवसर प्राप्त होते हैं।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन मिस हैलन पार्कहर्स्ट का है।
प्रश्न 9.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के चार मुख्य सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के मुख्य सिद्धान्त हैं-
- बाल-केन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त,
- स्व-शिक्षा का सिद्धान्त,
- पूर्ण स्वतन्त्रता का सिद्धान्त तथा
- व्यक्तिगत शिक्षा का सिद्धान्त।
प्रश्न 10.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत ‘निर्दिष्ट पाठ’ से क्या आशय है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत बालक द्वारा एक सप्ताह में किए जाने वाले कार्य को निर्दिष्ट पाठ कहते हैं।
प्रश्न 11.
डाल्टन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत कार्य इकाई’ से क्या आशय है ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत बालक द्वारा एक दिन में समाप्त किए जाने वाले कार्य को ‘कार्य इकाई’ कहते हैं।
प्रश्न 12.
कार्य का ठेका और निर्दिष्ट कार्य किस शिक्षा-प्रणाली के सिद्धान्त हैं ?
उत्तर:
डाल्टन शिक्षा प्रणाली के।
प्रश्न 13.
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली किलपैट्रिक/हैलेन पार्कहर्ट ने प्रारम्भ की।
उत्तर:
शिक्षा की डाल्टन प्रणाली हैलेन पार्कहर्ट ने प्रारम्भ की।
प्रश्न 14 निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य
- डाल्टन प्रणाली का प्रादुर्भाव मॉण्टेसरी प्रणाली के विरोधस्वरूप हुआ है।
- डाल्टन शिक्षा-प्रणाली में प्रयोगात्मक कार्यों की पूर्ण अवहेलना की जाती है।
- डाल्टने शिक्षा-प्रणाली छोटे शिशुओं की शिक्षा के लिए एक उपयोगी प्रणाली है।
- डाल्टन शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक द्वारा सहायक एवं पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाई जाती है।
- डाल्टन प्रणाली व्यक्तिवादी विचारधारा पर आधारित है।
- डाल्टन शिक्षा प्रणाली में त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाओं की व्यवस्था की जाती है।
- भारत में डाल्टन प्रणाली के प्रयोग में अनेक कठिनाइयाँ हैं।
उत्तर
- असत्य,
- असत्य,
- असत्य,
- सत्य,
- सत्य,
- असत्य,
- सत्य।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
डाल्टन शिक्षण पद्धति के प्रवर्तक का नाम क्या है?
(क) मैडम हैलन पार्कहर्स्ट
(ख) फ्रॉबेल
(ग) जॉन डीवी
(घ) मार्टिन
प्रश्न 2.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली में अधिक बल दिया जाता है
(क) सैद्धान्तिक अध्ययन पर
(ख) प्रयोगात्मक अध्ययन पर ध्ययन पर
(घ) कक्षा-अध्ययन पर
प्रश्न 3.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली में प्रावधान नहीं है
(क) प्रयोगात्मक कार्यों को
(ख) नियमित परीक्षाओं का
(ग) कार्य करने की स्वतन्त्रता का
(घ) उपर्युक्त सभी का।
प्रश्न 4.
मूल रूप से डाल्टन शिक्षा-प्रणाली है–
(क) शिक्षक-केन्द्रित प्रणाली
(ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली
(ग) उत्पादन-केन्द्रित प्रणाली
(घ) प्रदर्शन-केन्द्रित प्रणाली
प्रश्न 5.
डाल्टन शिक्षा-प्रणाली में बालक को आगे बढ़ने का अवसर दिया जाता है–
(क) आयु के अनुसार
(ख) समय के अनुसार।
(ग) योग्यता के अनुसार
(घ) शिक्षक की सिफारिश के अनुसार
प्रश्न 6.
“डाल्टन पद्धति में एक ऐसी ठेका व्यवस्था निहित है, जिसमें बालक को एक दिए हुए समय में कार्य पूरा करने के साधन एवं मार्गों के चयन का कार्य उसी पर छोड़ दिया जाता है।” यह कथन किसका है?
(क) हैलन पार्कहर्स्ट
(ख) ग्रेव्ज
(ग) फ्रॉबेल
(घ) जॉन डीवी
प्रश्न 7.
किस शिक्षा विधि में बालक प्रयोगशालाओं में कार्य करते हैं?
(क) मॉण्टेसरी
(ख) बेसिक शिक्षा
(ग) डाल्टन प्लान
(घ) किण्डरगार्टन विधि
उत्तर:
1. (क) मैडम हैलन पार्कहर्स्ट,
2. (ख) प्रयोगात्मक अध्ययन पर,
3. (ख) नियमित परीक्षाओं का,
4. (ख) बाल-केन्द्रित प्रणाली,
5. (ग) योग्यता के अनुसार,
6. (ख) ग्रेव्ज,
7. (ग) डाल्टन प्लान।
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