UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 5 Attention (अवधान)
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 5 Attention (अवधान)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
अवधान या ध्यान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। अवधान की प्रमुख विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
अवधान को परिभाषित कीजिए।
अवधान का अर्थ
(Meaning of Attention)
सामान्य दृष्टिकोण से ‘अवधान या ‘ध्यान का अर्थ है-‘किसी काम में मन लगाना। भारतीय दर्शन में अवधान (ध्यान) को एक विलक्षण या अद्भुत शक्ति माना गया है। प्रत्येक कार्य को करते समय व्यक्ति अपनी चेतना, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को लगाती है। उसका अपनी मानसिक शक्तियों या चेतना का वातावरण की किसी विशेष उत्तेजना पर केन्द्रित करना तत्कालीन आवश्यकता अथवा लक्ष्य सिद्धि पर निर्भर करता है। अपनी चेतना या मानसिक शक्तियों को जब व्यक्ति किसी विषय-वस्तु पर केन्द्रित करता है तो केन्द्रीकरण की यह प्रक्रिया या अवस्था अवधान कहलायेगी। वस्तुतः अवधान की यह प्रक्रिया व्यक्ति के उस कार्य-व्यापार की सफलता का आधार है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अवधान एक सामान्य मानसिक प्रक्रिया है।
अवधान की परिभाषा
(Definition of Attention)
प्रमुख विद्वानों ने अवधान को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है –
- जे० एस रॉस के अनुसार, “अवधान किसी विचार की वस्तु को मन के सम्मुख स्पष्ट रूप में रखने की प्रक्रिया है।”
- मैक्डूगल के अनुसार, “ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर अवधान एक चेष्टा या प्रयास-भर है।”
- डूमवाइल के अनुसार, “यह (अवधान) किन्हीं अन्य वस्तुओं की अपेक्षा किसी एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण है।”
- एन० एल० मन के कथनानुसार, “हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, अन्तिम विश्लेषण में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।”
अवधान के अर्थ एवं उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि “अवधान (ध्यान) किसी एक विचार को मानव मस्तिष्क में स्पष्टत: अंकित करने से सम्बन्धित या मानव चेतना की चुनाव सम्बन्धी अवरत एवं सुव्यवस्थित प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मानव के मस्तिष्क में मौजूद विविध वस्तुओं में से कभी एक तो कभी अन्य को चेतना के ध्यान केन्द्र में पहुँचाती है।”
अवधान की विशेषताएँ
(Characteristics of Attention)
अवधान के अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर हम अवधान की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डाल सकते हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) चंचलता – अवधान की प्रकृति चंचल है। हमारा अवधान हमेशा एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर परिवर्तित होता रहता है। यह निरन्तर खिसकता रहता है। अवधान की चंचलता पर हुए प्रयोगों से सिद्ध होता है कि हमारा ध्यान किसी वस्तु या विचार पर अधिक समय तक नहीं टिकता। ध्यान परिवर्तन की अवधि 9 से 10 सेकण्ड तक बतायी गयी है।
(2) चयनात्मक प्रक्रिया – व्यक्ति अपने चारों तरफ के वातावरण में विभिन्न तत्त्वों से घिरा है. किन्तु वह एक समय पर उनमें से सिर्फ एक तत्त्व की ओर ही ध्यान केन्द्रित कर सकता है। इसीलिए अवधान की वस्तु का चयन किया जाता है। हमारी चेतना की सीमा के भीतर की विभिन्न वस्तुओं में से हमारा मस्तिष्क एक वस्तु को चुन लेता है और वही चेतना के ध्यान-केन्द्र में पहुँच जाती है। चयन की यह प्रक्रिया हर समय चलती रहती है।
(3) मानसिक सक्रियता – किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करते समय हमारा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है और वह कोई-न-कोई क्रिया अवश्य करता है। इस प्रकार अवधान में मानसिक प्रक्रियाएँ सक्रिय रहती हैं।
(4) संकुचित क्षेत्र – अवधान का क्षेत्र काफी संकीर्ण अथवा संकुचित होता है। मानव-मस्तिष्क एक साथ अनेक वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता।
(5) प्रयोजनशीलता – अवधान एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। अवधान का कोई-न-कोई लक्ष्य या प्रयोजन अवश्य होता है। जिसकी प्रेरणावश व्यक्ति का ध्यान उस वस्तु या उद्दीपक की ओर केन्द्रित होता है। यह उद्देश्य या लक्ष्य बौद्धिक हो सकता है; जैसे–किसी अमूर्त विचार की ओर ध्यान केन्द्रित होना; अथवा संवेदनात्मक हो सकता है; जैसे-गाने, दृश्य या सुगन्ध की तरफ ध्यान लगना; और बौद्धिक एवं संवेदनात्मक दोनों भी हो सकता है, जैसे-शतरंज के खेल में ध्यान का केन्द्रण।
(6) तत्परता – तत्परता का गुण अवधान की प्रक्रिया में सहायता करता है। अवधान के लिए व्यक्ति का मानसिक रूप से तत्पर होना आवश्यक है। यदि व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान लगाने के लिए मानसिक रूप से तत्पर (तैयार) नहीं है तो उस वस्तु पर शीघ्र ध्यान न लग सकेगा।
(7) अन्वेषणात्मकता – अवधान में अन्वेषणात्मकता की विशेषता पायी जाती है। जिस नवीन वस्तु की ओर हमारा अवधान खिंचता है, उसके विषय में हम अन्वेषण या खोज करने लगते हैं तथा उसकी अच्छाई-बुराइयों की छानबीन का प्रयास करने लगते हैं।
(8) शारीरिक समायोजन – अवधान की प्रक्रिया समायोजन (Adjustment) से सम्बन्धित है। मानसिक समायोजन के साथ-साथ अवधान में शारीरिक समायोजन भी होता है। इसके यह तीन प्रकार है :
(i) ग्राहक समायोजन – जब व्यक्ति किसी उत्तेजना के प्रति ध्यान लगाता है तो उससे जुड़े ग्राहक अंग या ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा) उस उत्तेजना से सम्बद्ध हो जाते हैं और विशिष्ट रूप से समायोजित हो जाते हैं।
(ii) शरीर-मुद्रा समायोजन – अवधान की प्रक्रिया में जिस तरफ से उत्तेजना प्राप्त होती है, व्यक्ति अपना शरीर झुका लेता है। ध्यानपूर्वक कोई खास बात सुनते समय नेत्र श्रोता की ओर टकटकी लगाते हैं, गर्दन उस ओर झुक जाती है तथा शरीर के अंग हिलना-डुलना बन्द कर देते हैं।
(iii) मांसपेशीय समायोजन – अवधान के दौरान मांसपेशियाँ एक तनाव की दशा में आ जाती हैं और इस वजह से अधिक सक्रिय हो जाती हैं। इससे ध्यान केन्द्रित करने में मदद मिलती है।
(9) त्रिपक्षीय प्रक्रिया – एक मानसिक प्रक्रिया होने के कारण अवधान का सीधा सम्बन्ध मन से है। मन के तीन विभिन्न पक्ष हैं-ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है, उसके भीतर भावनाओं का उदय होता है और किसी-न-किसी क्रिया का जन्म भी होता है।
(10) विश्लेषणात्मकता और संश्लेषणात्मकता – अवधान के अन्तर्गत उत्तेजनाओं के विविध पक्षों का विश्लेषण एवं संश्लेषण होता रहता है। किसी वस्तु-विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित होने पर मस्तिष्क उससे सम्बन्धित विभिन्न तत्त्वों या पक्षों का विश्लेषण करता है; जैसे—किसी पौधे के सामने आने पर उसके तने, पत्तियों, शाखाओं, प्रशाखाओं, पुष्पों तथा फलों की ओर अलग-अलग ध्यान जाता है। तत्पश्चात् इन सभी अंगों को मिलाकर पौधे का सम्पूर्ण स्वरूप यानी पौधे के संश्लेषित पक्ष की ओर भी ध्यान देते हैं।
प्रश्न 2.
अवधान में सहायक मुख्य दशाओं अथवा अवधान के निर्धारक कारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
या
अवधान की बाह्य या वस्तुगत दशाओं तथा आन्तरिक या आत्मगत दशाओं का उल्लेख कीजिए।
या
अवधान के किन्हीं दो वस्तुगत निर्धारकों को स्पष्ट कीजिए।
या
अवधान के निर्धारकों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अवधान की मुख्य सहायक दशाएँ (ध्यान के कारण अथवा निर्धारक)
(Favourable Conditions/Causes or Determinants of Attention)
अवधान या ध्यान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना के केन्द्र में लाने के लिए तत्पर रहता है। अवधान की प्रक्रिया के अन्तर्गत व्यक्ति अनेक उपस्थित उद्दीपकों में से किसी विशिष्ट उद्दीपक को चुनता है तथा उसे अपनी चेतना के केन्द्र में लाता है। अवधान की सहायक दशाओं में या निर्धारकों से ज्ञात होता है कि हम किसी वस्तु पर ध्यान क्यों देते है?
वे सभी दशाएँ जो एक वस्तु या उत्तेजना को हमारे अवधान का केन्द्र बनाती हैं, अवधान की मुख्य सहायक दशाएँ कहलाती हैं। हमारा ध्यान किसी एक विशेष वस्तु की ओर क्यों केन्द्रित होता है, यह अवधान की दशाओं द्वारा निर्धारित होता है। अवधान की इन निर्धारक दशाओं को हम अवधान का कारण भी कह सकते हैं। ये दशाएँ मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं–(अ) बाह्य या वस्तुगत दशाएँ तथा (ब) आन्तरिक या आत्मगत दशाएँ।
(अ) अवधान की बाह्य या वस्तुगत दशाएँ
(External or Objective Conditions of Attention)
जब किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की ओर व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित करने का कारण स्वयं उस वस्तु में ही मौजूद होता है तो इस प्रकार की दशाएँ बाह्य या वस्तुगत दशाएँ कहलाती हैं। ये बाह्य दशाएँ अनेक बाह्य उत्तेजनाओं पर निर्भर करती हैं, जिनमें से प्रमुख उत्तेजनाएँ निम्नलिखित हैं –
(1) उत्तेजना को व्यवस्थित रूप – अनिश्चित एवं अस्पष्ट रूप वाली वस्तुओं की अपेक्षा निश्चित तथा व्यवस्थित रूप वे आकार वाली वस्तुएँ हमारे ध्यान को जल्दी और अधिक आकर्षित करती हैं। उदाहरणार्थ-पूर्णिमा की रात्रि को पूर्णचन्द्र के आसपास तैरते बादलों की अपेक्षा चन्द्रमा की ओर हमारा ध्यान जल्दी जाता है। बादलों का रूप अनिश्चित है, जबकि चन्द्रमा का रूप निश्चित। पृष्ठभूमि की अन्य वस्तुओं की अपेक्षा ताजमहल हमें अपनी ओर अधिक आकर्षित करता है।
(2) उत्तेजना का आकार – अवधान को आकर्षित करने में किसी वस्तु का आकार भी महत्त्वपूर्ण है। छोटे आकार की वस्तु पर हमारी चेतना जल्दी केन्द्रित नहीं हो पाती, किन्तु बड़े आकार की वस्तुएँ अपेक्षाकृत हमारे अवधान को जल्दी आकर्षित कर लेती हैं। उदाहरण के लिए-छोटे आकार के चित्र की अपेक्षा बड़े चित्र की ओर ध्यान आसानी से केन्द्रित होता है। प्रत्येक दुकानदार बड़े-से-बड़ा साइनबोर्ड लगवाना चाहता है।
(3) तीव्रता – अधिक तीव्रता वाले उत्तेजक कम तीव्रता वाले उत्तेजक की अपेक्षा हमारा ध्यान शीघ्र ही आकर्षित कर लेते हैं। जलते हुए दीपक की अपेक्षा विद्युत बल्ब का प्रकाश जल्दी ध्यान आकर्षित करता है। रेलवे प्लेटफार्म पर जोर से आवाज लगाने वाले हॉकर की ओर अन्यों की तुलना में अधिक ध्यान जाता है।
(4) स्थिति – उत्तेजना की स्थिति हमारा ध्यान आकर्षित करने में एक महत्त्वपूर्ण दशा है। किसी विशेष स्थान अथवा स्थिति में उपस्थित उत्तेजना अपनी ओर हमारा ध्यान शीघ्रता से खींच लेती है। अखबार में अलग-अलग अभिप्राय के समाचार अपने विशिष्ट स्थानों पर छपते हैं और वहीं से हमारा ध्यान खींच लेते हैं। किसी कार्यालय में एक अधिकारी पद के अनुसार अपनी विशिष्ट स्थिति के आधार पर हमारे ध्यान को अपनी ओर खींच लेता है।
(5) गति – स्थिर वस्तुओं की तुलना में गतिशील वस्तुओं की ओर जल्दी ध्यान जाता है। विवह, नुमाइश या प्रदर्शनी के मौके पर गति करता हुआ बिजली का जलता-बुझता’प्रकाश हमारे अवधान को जल्दी एवं अधिक आकर्षित कर लेता है। असंख्य स्थिर तारों के बीच टूटा हुआ और पृथ्वी की ओर गति करता हुआ तारा अधिक ध्यान आकर्षित करता है।
(6) स्वरूप – ध्यान केन्द्रित करने में उत्तेजना का स्वरूप भी अपनी विशेष भूमिका निभाता है। जब उत्तेजक अथवा वस्तु के स्वरूप में कोई विशिष्टता होती है तो इससे हमारा ध्यान जल्दी आकर्षित होता है, लेकिन साधारण स्वरूप की वस्तुओं पर अधिक ध्यान नहीं जाता। साधारण प्रकार के वस्त्र पहने हुए अनेक लोगों के बीच यदि कोई चटकीले-भड़कीले वस्त्र पहने हुए है तो हमारा ध्यान उस एक व्यक्ति की ओर ही आकर्षित होगा।
(7) नवीनता – नवीनता ध्यान की अत्यधिक अनुकूल दशा है। पुरानी पृष्ठभूमि में किसी नवीन वस्तु या परिस्थिति की ओर अनायास ही ध्यान चला जायेगा। यदि कोई व्यक्ति पुराने वस्त्रों को बदलकर नये वस्त्र पहनकर आये तो हमारा ध्यान सहज ही उसकी ओर आकृष्ट हो जायेगा। नवीन ध्वनि, गन्ध, स्वाद या फैशन की ओर जल्दी ध्यान केन्द्रित होता है।
(8) परिवर्तनशीलता – वस्तु या उत्तेजना के परिवर्तन के कारण भी सहज ही ध्यान आकर्षित होता है। अपरिवर्तनशील या स्थिर वस्तुएँ ऐसा नहीं कर पातीं। सत्य ही, लगातार एक जैसी उत्तेजना या वस्तु से हमारा मन ऊब जाता है और हम उसकी ओर आकर्षित नहीं हो पाते। हेयर कटिंग कराने के बाद व्यक्ति कुछ बदला-बदला नजर आता है और यह परिवर्तन उसमें आकर्षण भर देता है जिसके प्रति बरबस ध्यान चला जाता है। परिवर्तनशीलता एक महत्त्वपूर्ण दशा है।
(9) विषमता – विषम या विरोधी गुण वाली वस्तु सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित कर लेती है। गोरे रंग के व्यक्तियों के बीच एक काले रंग का व्यक्ति सभी लोगों का ध्यान खींच लेता है।
(10) रहस्यमयता – रहस्यमय परिस्थितियाँ या वस्तुएँ मानव मन की जिज्ञासाओं के केन्द्र बनते हैं और हमारा ध्यान आसानी से व जल्दी आकृष्ट कर लेते हैं। यदि किसी इमारत के सभी कमरों के दरवाजे खुले हों और सिर्फ कमरे के दरवाजे पर ताला पड़ा हो तो दर्शकों के लिए वही एक कमरा रहस्य की वस्तु बन जायेगा जिसे देखने के लिए हर कोई लालायित होगा।
(11) अवधि य उपस्थिति-काल – उत्तेजना की अवधि या उसका उपस्थिति-काल भी अवधान को प्रभावित करता है। लम्बी अवधि तक रहने वाली उत्तेजना अपनी ओर शीघ्र ध्यान केन्द्रित करती है, किन्तु थोड़ी अवधि तक रहने वाली अथवा क्षणिक उत्तेजना हमारे ध्यान को उतनी शीघ्र आकर्षित नहीं कर पाती। किसी फैक्ट्री या मिल से लम्बे समय तक बजने वाला भोंपू या सायरन हमारे ध्यान को सहज ही अपनी तरफ खींच लेता है। सड़क पर वाहनों के ड्राइवर अक्सर सामने आये किसी वाहन को देर तक हॉर्न बजाकर हटने के लिए मजबूर कर देते हैं।
(12) पुनरावृत्ति – जब कोई उत्तेजना बार-बार प्रकट होती है और जिन वस्तुओं के वातावरण में पुनरावृत्ति होती रहती है, उनकी तरफ तत्काल ही ध्यान आकृष्ट हो जाता है। यदि रात में घर का कुत्ता बार-बार भौंके तो गृहस्वामी उसे खतरे का संकेत समझता है और उस स्थिति की ओर तुरन्त ध्यान देता है।
(ब) अवधान की आन्तरिक या आत्मगत दशाएँ
(Internal or Subjective Conditions of Attention)
अवधान की कुछ ऐसी दशाएँ भी हैं जिनका निर्धारण आन्तरिक दशाओं द्वारा होता है। ये दशाएँ व्यक्ति के अन्दर स्थित होती हैं तथा उसकी अभिप्रेरणाओं से उत्पन्न होती हैं। इन्हें अवधान की आत्मगत दशाएँ भी कहते हैं। अवधान को प्रभावित करने वाली कुछ प्रमुख आन्तरिक या आत्मगत दशाएँ निम्न प्रकार हैं
(1) मनोवृत्ति – प्रत्येक व्यक्ति के मन की एक वृत्ति होती है। यह अवधान की आन्तरिक दशाओं में से एक महत्त्वपूर्ण दशा है। जिस वस्तु के कारण हमें मूल-प्रवृत्तात्मक उत्तेजना प्राप्त होती है, उस वस्तु की ओर हमारा ध्यान आकर्षित हो जाता है। धार्मिक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति आम प्रचलित फिल्मों के पोस्टरों की ओर आकर्षित नहीं होगा, किन्तु यदि ‘सम्पूर्ण रामायण’ फिल्म का पोस्टर उसे कहीं लगा मिल जाये तो वह तत्काल आकृष्ट हो जायेगा।
(2) संवेग – संवेग का अवधान पर काफी प्रभाव पड़ता है। अन्धकार में जब हम भयकी संवेगावस्था से प्रेरित होते हैं तो साधारण-सी आहट भी हमें अपनी ओर आकर्षित करती है। यदि व्यक्ति किसी से नफरत करता है तो उसकी जरा-सी भूल भी उस व्यक्ति का ध्यान आकर्षित कर लेती है, किन्तु प्रसन्नता की संवेगावस्था में इन्हीं जरा-जरा सी भूलों पर व्यक्ति का ध्यान नहीं जाता। संवेग अवधान की महत्त्वपूर्ण आन्तरिक दशा है।
(3) रुचि – अवधान के लिए रुचि का बड़ा महत्त्व है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न रुचियाँ होती हैं और वे विषयों का अवलोकन भी व्यक्तिगत रुचि के आधार पर ही करते हैं। जो व्यक्ति जिस प्रकार की रुचि रखता है उसी से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति उसका ध्यान जाता है। सट्टेबाजों का ध्यान समाचार-पत्र के बाजार भावों में रहता है, छात्र का पुस्तकों में, संगीतशास्त्री का संगीत में तथा क्रिकेट प्रेमी का ध्यान टी० वी० पर आ रहे टेस्ट मैच पर ही केन्द्रित होगा।
(4) जिज्ञासा – जिज्ञासा भी अवधान की एक आंतरिक दशा है। किसी वस्तु या उत्तेजना के बारे में व्यक्ति की जितनी तीव्र जिज्ञासा होगी। उसके बारे में परिचय पाने की दृष्टि से उसकी ओर ध्यान भी उतना ही अधिक जायेगा।
(5) अनुभव – अनुभव का अवधान से गहरा सम्बन्ध है। विगत अनुभव के आधार पर हमारा ध्यान उस वस्तु की ओर चला जाता है। पहले से अनुभव की गई वस्तुओं, घटनाओं या उत्तेजनाओं की तरफ हमारा ध्यान जल्दी तथा सहज रूप से चला जाता है। यदि राम, मोहन से पहले कभी मिला है तो भविष्य में किसी अवसर पर मोहन को देखकर राम का ध्यान उसकी तरफ खिंच जाएगा। किसी व्यक्ति ने आपत्ति के समय हमें नि:स्वार्थ मदद दी हो तो संमान परिस्थितियों में उस व्यक्ति की ओर ध्यान चला जाएगा। ऐसा पिछली अनुभूतियों के कारण है।
(6) आवश्यकताएँ – आवश्यकता व्यक्ति के अवधान की मुख्य सहायक दशा है। इस दृष्टि से ये दो प्रकार की होती हैं—शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ। दोनों ही प्रकार की आवश्यकताएँ अवधान केन्द्रण में हमारी मदद करती हैं। प्यासे व्यक्ति का ध्यान पानी की ओर जाता है, क्योंकि उसे पानी की आवश्यकता है।
(7) उद्देश्य यो लक्ष्य – हम प्रायः उन्हीं वस्तुओं या व्यक्तियों की ओर ध्यान देते हैं जिनसे हमारा उद्देश्य या लक्ष्य पूरा होता है, किन्तु जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं हैं उनकी तरफ ध्यान भी आकृष्ट नहीं होता है। माना किसी पुलिस अधिकारी का लक्ष्य एक हत्यारे की खोज करना है, तो अधिकारी हत्यारे से सम्बन्धित छोटे-से-छोटे तथ्य की ओर भी ध्यान देगा।
(8) आदत – आदत को अवधान की सबसे अनुकूल दशा माना गया है। व्यक्ति को जब जिस विषय-वस्तु की आदत होती है उससे सम्बन्धित पदार्थ की ओर एक निर्धारित समय पर उसका ध्यान अवश्य चला जायेगा। यदि किसी को दोपहर बाद तीन बजे चाय पीने की आदत है तो निश्चित समय पर उसका ध्यान चाय की ओर केन्द्रित हो जाएगा।
(9) मानसिक तत्परता – मानसिक तत्परता से अभिप्राय है व्यक्ति के मन का झुकाव। किसी व्यक्ति के मन का झुकाव जिस वस्तु या उत्तेजना की ओर जिस समय होता है, उसका ध्यान भी उसी ओर आकर्षित हो जाता है। परीक्षाकाल में विद्यार्थियों का ध्यान वातावरण के अन्य आकर्षणों से हटकर परीक्षा से सम्बन्धित बातों की ओर ही लगा रहता है।
(10) अर्थ – सार्थक विषय-वस्तुओं की ओर हमेशा ध्यान जल्दी आकर्षित होता है, किन्तु जिन चीजों के अर्थ का हमें ज्ञान नहीं होता उनकी ओर हमारा ध्यान भी नहीं जाता। यदि कोई व्यक्ति शतरंज का खेल जानता है और उसकी चालों को भी बखूबी पहचानता है तो उसका ध्यान शतरंज के खेल की तरफ जाएगा, परन्तु जो इस खेल से अनभिज्ञ है वह शतरंज के खेल की तरफ ध्यान नहीं देगा।
उपर्युक्त विवेचन में हमने अवधान की बाह्य और आन्तरिक सहायक दशाओं का ज्ञान प्राप्त किया है। ये दशाएँ व्यक्ति के ध्यान को पर्याप्त रूप से प्रभावित करती हैं और इन्हीं के कारण व्यक्ति किसी वस्तु-विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित करता है, जबकि उसके चारों ओर वातावरण में अनेक उत्तेजनाएँ मौजूद होती हैं।
प्रश्न 3.
रुचि का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। रुचि एवं ध्यान
या
अवधान का सम्बन्ध भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
रुचि का अर्थ व परिभाषा
(Meaning and Definition of Interest)
अवधान के प्रत्यय की व्याख्या करते समय रुचि’ की महत्त्वपूर्ण अवधारणा को भी समझना आवश्यक है। अवधान और रुचि का गहरा मेल है और दोनों ही विचार एक-दूसरे की परिपूर्ति करते हैं। जिन कार्यों में हम रुचि लेते हैं उन्हें करने में हमें सुख और सन्तोष मिलता है-आनन्द की प्राप्ति होती है। ऐसे कार्यों को करने के लिए हम प्रेरित होते हैं और ध्यान लगाकर अथक रूप से उन्हें पूरा करते हैं। वस्तुतः हम उन्हीं वस्तुओं या कार्यों की ओर उन्मुख होते हैं जो हमारे भीतर रुचि उत्पन्न करते हैं।
रुचि को एक ऐसी प्रवृत्ति अथवा प्रेरक-शक्ति के रूप में जाना जा सकता है जो हमें वातावरण के कुछ विशिष्ट तत्त्वों की ओर ध्यान देने की प्रेरणा प्रदान करती है। इसे प्रभावपूर्ण अनुभव भी कह सकते हैं जो स्वयं अपनी सक्रियता से उत्तेजित होता है। इस अर्थ में यह एक व्यक्ति के अनुभव की पुकार है और इसका तात्पर्य–व्यक्तिगत तात्पर्य है। कुछ विद्वानों के अनुसार “रुचि किसी उत्तेजना, वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति की ओर आकर्षित होने की प्राकृतिक, जन्मजात या अर्जित प्रवृत्ति है।” लैटिन भाषा में रुचि शब्द का अर्थ है-“यह आवश्यक होती है” (It Matters.) या यह सम्बन्धित होती है’ (It Concerns.)। दूसरे शब्दों में, हमारे अन्दर, रुचि पैदा करने वाली वस्तु हमारे लिए आवश्यक होती है और हमसे सम्बन्धित भी होती है।
रुचि का आधार प्रायः मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। सच तो यह है कि मनुष्य की आवश्यक रुचियाँ स्वयं उसकी मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं अर्थात् आरम्भिक अवस्थाओं में मनुष्य की रुचियाँ मूल प्रवृत्त्यात्मक कही जाती हैं। रुचि एक अस्थायी तथा सामाजिक प्रकार की शक्ति है जो अपना कार्य पूर्ण करने के बाद विलीन हो जाती है। बच्चे की रुचि खिलौने में होती है, कुछ बड़े बालकों का आकर्षण हम उम्र साथियों के प्रति होता है, किशोर विपरीत-लिंगी व्यक्ति की ओर आकर्षित होता है तथा किसान खेती-बाड़ी में रुचि रखता है। रुचि की विरोधी प्रवृत्ति उपेक्षा है।
रुचि की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
- जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “रुचि अपने में ही एक गत्यात्मक वृत्ति है।”
- क्रो एवं क्रो के अनुसार, “रुचि उस प्रेरक शक्ति को कहते हैं जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।”
- मैक्डूगल का कथन है, “रुचि गुप्त अवधान होता है और अवधान रुचि का क्रियात्मक रूप है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार-रुचि को गत्यात्मक वृत्ति, प्रेरक शक्ति गुप्त तथा अवधान के रूप में समझा गया है। अवधान की ही भाँति रुचि के भी तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और भावात्मक।
रुचि और अवधान का सम्बन्ध (रुचि का अवधान में महत्त्व)
(Relationship between Attention and Interest)
रुचि और अवधान के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों एक ही वस्तु का प्रत्यक्ष करने के दो भिन्न दृष्टिकोण हैं और एक-दूसरे के पूरक समझे जाते हैं। व्यक्ति की जन्मजात एवं अर्जित रुचियाँ परस्पर मिलकर कार्य करती हैं और अवधान केन्द्रित करने में सहायता करती हैं। इसी प्रकार किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने से शनैः-शनैः उसमें रुचि विकसित हो जाती है।
रुचि और अवधान सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक मत-रुचि और अवधान के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से निम्नलिखित तीन मत अभिव्यक्त होते हैं
(1) अवधान रुचि पर आधारित है – कुछ विद्वानों का मत है कि अवधान रुचि पर आधारित होता है। सामान्य रूप से व्यक्ति उन्हीं घटनाओं, पदार्थों या कार्यों पर ध्यान देता है जिनमें उसकी रुचि होती है। यदि किसी व्यक्ति की संगीत में गहरी रुचि है तो अन्य क्रियाओं में व्यस्त रहते हुए भी उसका ध्यान दूर से सुनाई पड़ रहे संगीत की और चला जाएगा, किन्तु यदा-कदा ऐसा भी देखा गया है कि किसी चीज में रुचि होने के बावजूद भी हम उसकी ओर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते और कोई अन्य तीव्र उत्तेजना अपनी तरफ हमारा ध्यान खींच लेती है। यदि बालक पाठ में रुचि लेकर पढ़ रहा है, किन्तु गली में भालू वाला डुगडुगी बजाकर भालू का खेल दिखा रहा है तो निश्चय ही बालक को ध्यान भालू की ओर जाएगा, लेकिन यह भी सत्य है कि यदि बालक की पाठ में तीव्र रुचि होगी तो थोड़े-बहुत भटकाव के बाद उसका ध्यान पुनः पाठ में अवस्थित हो जाएगा।
(2) अवधान रुचि को प्रभावित करता है – एक ओर यदि अवधान रुचि पर आधारित है तो दूसरी ओर रुचि अवधान पर आधारित होती है अर्थात् अवधान रुचि को प्रभावित करता है। किसी वस्तु के प्रति ध्यान केन्द्रित करने से उसके प्रति रुचि स्वतः ही बढ़ जाती है। यह सम्भव है कि प्रारम्भ में किसी वस्तु या घटना में हमारी रुचि न हो, किन्तु यदि उसकी ओर लगातार जबरन अवधान केन्द्रित किया जाए तो अन्ततः उसमें रुचि उत्पन्न हो ही जाती है। यदि किसी व्यक्ति को प्रतिदिन सुबह चार बजे जबरदस्ती जगा दिया जाए तो शुरू में यह प्रक्रिया उसे अरुचिपूर्ण तथा पीड़ादायक ही महसूस होगी, किन्तु एक दिन उस निश्चित समय पर जागने की उसे आदत पड़ जाएगी, जिसे बाद में वह रुचि के साथ करने लगेगा।
(3) समन्वयवादी विचारधारा – समन्वयवादी विचारधारा के अनुसार रुचि और अवधान दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और एक-दूसरे को समान रूप से प्रभावित करते हैं।
रुचि गुप्त अवधान और अवधान एक क्रियाशील रुचि-यहाँ हम विख्यात मनोवैज्ञानिक विलियम मैक्डूगल के कथन का विवेचन करते हुए अवधान एवं रुचि के मध्य सम्बन्ध स्थापित करेंगे। जिस प्रकार एक संरचना (Structure) क्रिया (Action) से सम्बन्धित होती है, उसी प्रकार रुचि अवधान से जुड़ी है। किसी प्रत्यय के सम्पूर्ण एवं व्यवस्थित ज्ञान के लिए उसका संरचनात्मक एवं क्रियात्मक अध्ययने आवश्यक है। इसी कारणवश विज्ञान के विद्यार्थी पहले विद्युत घण्टी की संरचना (बनावट) का ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर उसकी क्रियाविधि के विषय में जानने का प्रयास करते हैं। मानव मन से सम्बन्धुित व्यापार में भी मानसिक संरचना तथा मानसिक क्रिया दोनों महत्त्वपूर्ण हैं तथा । दोनों का समान रूप से योगदान है। मानसिक संरचना रुचि है और मानसिक क्रिया ‘अवधान है। संरचना क्रिया को संचालित करती है अर्थात् रुचि अवधान का संचालन करती है। दूसरे शब्दों में, मानव की रुचि का अभिप्रकाशन उसके अवधान के रूप में होता है। यह कहना एक भूल होगी कि जिस वस्तु में मनुष्य की रुचि नहीं है उसमें अवधान नहीं होगा तथा जिस वस्तु की ओर अवधान केन्द्रित होता है, उसमें रुचि भी अवश्य होती है। परीक्षा की तैयारी के लिए विद्यार्थी पाठ में रुचि न होने पर भी ध्यान देता है। कुछ विद्वानों का यह मत उचित नहीं कहा जा सकता कि अवधान रुचि का परिणाम होता है। रुचि एक मानसिक संस्कार है जो अवधान के लिए एक अत्यन्त आवश्यक तत्त्व या दशा है। अवधान के विभिन्न आन्तरिक प्रेरक हैं और उनमें से सबसे बलवान प्रेरक रुचि है। सामान्यतः व्यक्ति किसी वस्तु-विशेष के प्रति रुचि रखता है। उसे बलात् कुछ अन्य कार्य भी करने पड़ते हैं जिनमें उसका अवधान केन्द्रित रहता है, किन्तु यह अवधान उसकी रुचि में छिपा रहता है। इसी प्रकार किसी वस्तु पर ध्यान देने का अभिप्राय है उसमें सक्रिय रुचि को प्रकट करना। निष्कर्षत: मैक्डूगल का यह कथन कि “रुचि गुप्त अवधान है तथा अवधान एक क्रियाशील रुचि है”-सत्य प्रतीत होता है।
प्रश्न 4.
अवधान या ध्यान के विस्तार (Span of Attention) से क्या आशय है? अवधान के विस्तार को निर्धारित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
अवधान के विस्तार का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
अवधान के विस्तार का अर्थ एवं परीक्षण
हम जानते हैं कि अवधान या ध्यान एक मानसिक प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी मानसिक शक्तियों को अभीष्ट विषय-वस्तु पर केन्द्रित करता है। अवधान नामक मानसिक प्रक्रिया के सन्दर्भ में अवधान के विस्तार (Span of Attention) का भी व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है।
अवधान के विस्तार का सम्बन्ध अवधान के क्षेत्र या व्यापकता से है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में अधिक-से-अधिक जितने बाहरी उद्दीपकों को ध्यान का विषय बनाया जाता है, उसे ही अवधान का विस्तार माना जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्दीपकों के सन्दर्भ में व्यक्ति के अवधान का विस्तार भी भिन्न-भिन्न होता है। इस सन्दर्भ में वुडवर्थ तथा श्लासबर्ग ने व्यवस्थित अध्ययन किया तथा निष्कर्ष स्वरूप बताया कि यदि उद्दीपक बिन्दुओं के रूप में हों तो अवधान का विस्तार सर्वाधिक होता है। इससे कम अक्षरों का अवधान विस्तार होता है। जहाँ तक ज्यामितिक आकृतियों का प्रश्न है, उनको अवधान-विस्तार सबसे कम होता है।
अवधान के विस्तार के निर्धारण के लिए हेमिल्टन नामक मनोवैज्ञानिक ने सर्वप्रथम कुछ व्यवस्थित अध्ययन आयोजित किये। उसने 1859 ई० में छात्रों के अवधान के विस्तार को जानने के लिए एक अध्ययन का आयोजन किया। इस अध्ययन के अन्तर्गत उसने विषय-पात्रों के सम्मुख संगमरमर के कुछ टुकड़ों को बिखेर दिया तथा उन्हें बिखरे हुए टुकड़ों पर तुरन्त ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया। इस परीक्षण के दौरान हेमिल्टन ने देखा कि सामान्य रूप से छात्र एक साथ अधिक-से-अधिक संगमरमर के 6-7 टुकड़ों पर अवधान को केन्द्रित करने में सफल हुए। इस प्रकार निष्कर्षस्वरूप बताया गया कि छात्रों के अवधान का विस्तार 6-7 विषयों तक है। इस परीक्षण से ही मिलता-जुलती एक अन्य परीक्षण 1871 ई० में जेवोन्स द्वारा आयोजित किया गया। उसने अपने विषय-पात्रों के सम्मुख रखी लकड़ी की ट्रे में मटर के कुछ दानों को बिखेर दिया तथा उन्हें मटर के अधिक-से-अधिक दानों पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया। इस परीक्षण में देखा गया कि सामान्य विषय-पात्र एक समय में 3-4 मटरों पर सरलता से ध्यान केन्द्रित करने में सफल रहा। 5 से अधिक मटरों पर ध्यान केन्द्रित करने के प्रयास में अधिक त्रुटियाँ पायी गयीं। वास्तव में अवधान का विस्तार एक मानसिक प्रक्रिया होने के साथ-साथ व्यक्तिगत क्षमता भी है। सभी व्यक्तियों का अवधान-विस्तार समान नहीं होता। कुछ का सामान्य से कम तथा कुछ का सामान्य से अधिक भी हो सकता है। अवधान के विस्तार को अभ्यास एवं प्रयास द्वारा कुछ हद तक बढ़ाया भी जा सकता है।
अवधान के विस्तार को निर्धारित करने वाले कारक
यह सत्य है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के अवधान का विस्तार भिन्न-भिन्न होता है। यही नहीं, एक ही व्यक्ति का अवधान-विस्तार भी भिन्न-भिन्न काल एवं परिस्थिति में भिन्न-भिन्न हो सकता है। वास्तव में अवधान के विस्तार पर विभिन्न कारकों का अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अवधान के विस्तार को प्रभावित करने वाले ये कारक ही अवधान-विस्तार के निर्धारक कारक कहलाते हैं। अवधान के विस्तार के मुख्य निर्धारक कारकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है –
(1) उद्दीपन सम्बन्धी कारक – अवधान के विस्तार के निर्धारकों में मुख्यतम कारक हैउद्दीपन सम्बन्धी कारक। अवधान-विस्तार के इस निर्धारक कारक को प्रतिप्रादित करने का कार्य हण्टर तथा सिंगलर नामक मनोवैज्ञानिकों ने किया था। विभिन्न परीक्षणों के आधार पर इन मनोवैज्ञानिकों ने निष्कर्ष प्राप्त किया कि विषय-वस्तु को प्रस्तुत करने की अवधि तथा वातावरण में विद्यमान प्रकाश की तीव्रता व्यक्ति के अवधान के विस्तार को प्रभावित करने वाले उद्दीपन सम्बन्धी मुख्य कारक हैं। यदि समुचित प्रकाश में पर्याप्त समय-अवधि के लिए किसी विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया जाए तो व्यक्ति के अवधान का विस्तार अधिक होता है। इसके विपरीत, यदि सामान्य से कम प्रकाश में कम समय के लिए विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया जाए तो निश्चित रूप से व्यक्ति के अवधान का विस्तार कम होता है।
(2) उद्दीपकों की सार्थकता – व्यक्ति के अवधान के विस्तार को प्रभावित एवं निर्धारित करने वाला एक कारक है–सम्बन्धित उद्दीपकों की सार्थकता। विभिन्न अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किया गया है कि सरल एवं सार्थक उद्दीपकों के सन्दर्भ में व्यक्ति के अवधान का विस्तार सामान्य रूप से अधिक होता है। यदि उद्दीपक का स्वरूप कठिन तथा निरर्थक हो तो व्यक्ति के अवधान का विस्तार सामान्य से कम होता है। व्यवहार में भी हम देख सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति अधिक संख्या में सार्थक शब्दों पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है, परन्तु अधिक संख्या में निरर्थक शब्दों पर ध्यान को : केन्द्रित कर पाना प्रायः कठिन होता है।
(3) उद्दीपकों की पृष्ठभूमि – व्यक्ति के अवधान के विस्तार को निर्धारित करने में सम्बन्धित विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि द्वारा भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। इसे कारक के स्पष्टीकरण के लिए पैटर्सन तथा टिचनर नामक मनोवैज्ञानिकों ने एक परीक्षण का आयोजन किया तथा निष्कर्षस्वरूप बताया कि यदि विषय-वस्तु की पृष्ठभूमि में अधिक विरोध हो तो उस स्थिति में व्यक्ति के अवधान का विस्तार सामान्य से अधिक होता है।
(4) उद्दीपकों के मध्य पायी जाने वाली दूरी – अवधान के विस्तार के निर्धारक कारकों में एक अन्य कारक है—उद्दीपकों के मध्य पायी जाने वाली दूरी। इस कारक को जानने के लिए 1938 ई० में वुडरो नामक मनोवैज्ञानिक ने एक परीक्षण का आयोजन किया तथा निष्कर्षस्वरूप स्पष्ट किया कि यदि उद्दीपकों के मध्य दूरी कम हो तो उस स्थिति में व्यक्ति के अवधान का विस्तार प्रायः कम होता है, क्योंकि इस स्थिति में विभिन्न उद्दीपकों को पहचानने में कुछ कठिनाई होती है। इससे भिन्न यदि सम्बन्धित उद्दीपकों के मध्य पर्याप्त दूरी हो तो उन्हें सरलता से पहचाना जा सकता है। इस दशा में व्यक्ति के अवधान का विस्तार बढ़ जाता है।
(5) उद्दीपकों से पूर्व-परिचय – यदि व्यक्ति को सम्बन्धित उद्दीपकों से पूर्व-परिचय हो तो उस दशा में अवधान का विस्तार उस स्थिति से अधिक हो सकता है, जिसमें व्यक्ति का उद्दीपकों से किसी प्रकार का पूर्व परिचय न हो।
(6) व्यक्ति की आयु – व्यक्ति के अवधान के विस्तार को प्रभावित एवं निर्धारित करने वाले कारकों में एक कारक है व्यक्ति की आयु। छोटे बच्चों को अवधान का विस्तार वयस्क व्यक्तियों की तुलना में कम होता है। आयु के आधार पर अवधान के विस्तार के इस अन्तर का मुख्य कारण है आयु के साथ-साथै व्यक्ति की मानसिक क्षमताओं में वृद्धि होना। जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे उसकी बुद्धि, स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन शक्ति भी बढ़ती है तथा ये सभी क्षमताएँ अवधान के विस्तार में सहायक होती हैं।
(7) व्यक्ति की रुचि – व्यक्ति की रुचि का भी उसके अवधान के विस्तार पर अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है, अर्थात् रुचि भी अवधान के विस्तार का एक निर्धारक कारक है। जो विषय व्यक्ति के लिए रुचिकर होता है, उसके सन्दर्भ में व्यक्ति का अवधान-विस्तार अधिक होता है तथा अरुचिकर विषय के सन्दर्भ में व्यक्ति को अवधान-विस्तार अपेक्षाकृत रूप से कम होता है।
(8) व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अभ्यास – अवधान-विस्तार के निर्धारक कारकों में व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अभ्यास भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यदि किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक प्रकार की विषय-वस्तु पर पुनः-पुनः अवधान केन्द्रित करने का अभ्यास किया जाता है तो व्यक्ति के अवधान-विस्तार में क्रमशः वृद्धि हो जाती है। इससे भिन्न यदि किसी विषय-वस्तु के प्रति प्रथम बार ध्यान केन्द्रित किया जाता है, उस स्थिति में व्यक्ति के अवधान का विस्तार कम भी हो सकता है।
प्रश्न 5.
अनवधान या ध्यान-भंग से क्या आशय है? विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा आयोजित अनवधान सम्बन्धी परीक्षणों तथा उनसे प्राप्त होने वाले निष्कर्षों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अनवधान या ध्यान-भंग का अर्थ
अवधान या ध्यान की स्थिति में किसी प्रकार की बाधा का उत्पन्न हो जाना ही अनवधान या ध्यान-भंग है। अवधान में किसी बाधात्मक कारक का प्रभाव पड़ना ही अनवधान है। अनवधान की दशा में व्यक्ति का ध्यान अपने विषय से हटकर कहीं ओर चला जाता है। ध्यान में बाधा पड़ जाना ही अनवधान है। सामान्य रूप से कोई प्रबल कारक ही व्यक्ति के ध्यान को भंग करता है। यह कारक कोई प्रबल उद्दीपक हो सकता है। इस प्रकार के बाधात्मक कारक को ध्यान-भंजक कहते हैं।
अनवधान सम्बन्धी परीक्षण तथा अनेक निष्कर्ष
अनवधान या ध्यान-भंग अपने आप में एक असामान्य स्थिति है तथा व्यक्ति के कार्यकलापों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अनवधान सम्बन्धी विभिन्न परीक्षणों का आयोजन किया तथा महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त किये हैं। इस प्रकार के मुख्य परीक्षणों तथा प्राप्त निष्कर्षों का विवरण निम्नलिखित है –
(1) मॉर्गन द्वारा किया गया प्रयोग तथा प्राप्त निष्कर्ष – अनवधान अथवा ध्यान-भंग के विषय में व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए मार्गन ने एक परीक्षण आयोजित किया। इस परीक्षण के अन्तर्गत उसने टाइप का कार्य करने के लिए दो प्रयोज्यों का चयन किया। इस कार्य के लिए पहले पूर्ण रूप से शान्त वातावरण उपलब्ध कराया गया तथा बाद में ऐसे वातावरण में टाइप का कार्य करवाया गया जिसमें अवधान-भंग करने वाले कारक विद्यमान थे।
इस परीक्षण का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि कार्य करते समय यदि ध्यान में बाधक कोई कारक प्रबल हो जाता है तो तुरन्त व्यक्ति की कार्य करने की दर घट जाती है, परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, वैसे-वैसे व्यक्ति की कार्य करने की दर में क्रमशः वृद्धि होने लगती है तथा बाद में अवधान-भंजक कारक के होते हुए भी व्यक्ति सामान्य गति से कार्य करने लगता है। इस परीक्षण के आधार पर मॉर्गन ने एक निष्कर्ष भी प्राप्त किया जोकि सामान्य के विपरीत था। यदि किसी व्यक्ति को प्रबल अवधान-भंजक कारक की उपस्थिति में पर्याप्त समय तक कार्य करने का अभ्यास हो और यदि उसे एकाएक पूर्ण रूप से शान्त वातावरण उपलब्ध करा दिया जाए तो इस परिवर्तित दशा में भी व्यक्ति की कार्य करने की दर घट जाती है।
(2) स्मिथ द्वारा किया गया प्रयोग एवं प्राप्त निष्कर्ष – स्मिथ नामक मनोवैज्ञानिक ने अनवधान सम्बन्धी एक प्रयोग के अन्तर्गत कुछ विषय-पात्रों को अंकों की जाँच को कार्य सौंपा तथा इस दौरान किसी प्रबल ध्यान-भंजक कारक का पदार्पण किया गया। इस प्रयोग के अन्तर्गत जो निष्कर्ष प्राप्त हुए वे इस प्रकार थे-ध्यान-भंजक कारक की उपस्थिति में अर्थात् अनवधान की दशा में व्यक्ति ने अपना कार्य सामान्य से कुछ तीब्र गति से पूरा कर लिया, परन्तु कार्य में होने वाली त्रुटियाँ सामान्य दशा में होने वाली त्रुटियों से कुछ अधिक थीं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अनवधान की दशा में व्यक्ति की कार्य-कुशलता घट जाती है।
(3) केण्डरिक पैरेसे द्वारा किया गया प्रयोग एवं प्राप्त निष्कर्ष – केण्डरिक पैरेसे ने ध्यान-भंजक कारक के प्रभाव को जानने के लिए एक प्रयोग आयोजित किया। उसने चुने हुए विषय-पात्रों को कोई विषय पढ़ने का कार्य सौंपा तथा वहाँ पहले कोई साधारण गीत बजवाया तथा फिर किसी अत्यधिक लोकप्रिय संगीत को बजवाया। इस परीक्षण के दौरान पाया गया कि साधारण गीत बजने की दशा में सम्बन्धित व्यक्तियों की पढ़ने की क्रिया पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, परन्तु लोकप्रिय संगीत बजने की दशा में पढ़ने की क्रिया पर किसी प्रकार प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया।
(4) फोर्ड द्वारा किया गया प्रयोग तथा प्राप्त निष्कर्ष – फोर्ड ने अपने विषय-पात्रों से पहले विभिन्न कार्य साधारण परिस्थितियों में करवाये तथा बाद में उन्हीं कार्यों को किसी ध्यान-भंजक कारक की उपस्थिति में करवाया। इस परीक्षण के आधार पर फोर्ड ने अनवधान की दशा में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का उल्लेख किया। उसने बताया कि ध्यान-भंजक कारकों की प्रबलता की दशा में व्यक्ति की पेशीय गतियों में उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है।
(5) होवे द्वारा किया गया प्रयोग तथा प्राप्त निष्कर्ष – होवे ने भी एक परीक्षण का आयोजन किया तथा विषय-पात्र से पहले शान्त दशाओं में कार्य करवाया तथा इसके उपरान्त ध्यान भंजक कारक की उपस्थिति में कार्य करवाया। दोनों दशाओं का विश्लेषण करने से ज्ञात हुआ कि अनवधान की अवस्था में उत्पादन की दर में कुछ कमी हुई।
प्रश्न 6.
ध्यान-विचलनसे क्या आशयै है? ध्यान-विचलन के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
ध्यान-विचलन से आशय
ध्यान अथवा अवधान की प्रक्रिया का व्यवस्थित अध्ययन करते समय ध्यान सम्बन्धी एक स्थिति देखने को मिलती है, जिसे ध्यान का विचलन (Fluctuation of Attention) कहते हैं। ध्यान सम्बन्धी इस दशा में व्यक्ति का ध्यान किसी एक विषय पर केन्द्रित न होकर बारी-बारी दो या अधिक विषयों (उद्दीपकों) के प्रति आकृष्ट होता रहता है। हम कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति को ध्यान कुछ क्षण एक उद्दीपक पर केन्द्रित हो तथा कुछ क्षण किसी अन्य उद्दीपक पर केन्द्रित होने के बाद पुनः प्रथम उद्दीपक पर केन्द्रित हो जाता है तो इस दशा को अवधान का विचलन ही कहा जाएगा। वास्तव में, ध्यान या अवधान की प्रकृति ही ऐसी है कि उसमें चंचलता पायी जाती है। ध्यान का निरन्तर अधिक समय तक किसी एक विषय पर केन्द्रण सम्भव नहीं होता है। किसी उद्दीपक के प्रति व्यक्ति के ध्यान-केन्द्रण की तीव्रता स्वाभाविक रूप से ही कम या अधिक होती रहती है। ध्यान में पूर्ण एकाग्रता नहीं पायी जाती है। ध्यान की एकाग्रता का घटना-बढ़ना ही ध्यान का विचलन कहलाता है। ध्यान के विचलन का व्यवस्थित अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों ने यह भी ज्ञात करने का प्रयास किया कि कोई व्यक्ति किसी एक उद्दीपक या विषय पर अधिक-से-अधिक कितने समय तक ध्यान को एकाग्र कर सकता है। इस प्रकार का सर्वप्रथम परीक्षण विलिंग्स द्वारा 1914 ई० में आयोजित किया गया तथा उसने निष्कर्ष प्राप्त किया कि व्यक्ति केवल दो सेकण्ड तक ही ध्यान को एकाग्र कर सकता है। दो सेकण्ड के उपरान्त ध्यान-विचलन हो जाता है। इससे भिन्न वुडवर्थ ने अपने अवधान-विचलन सम्बन्धी परीक्षण के आधार पर घोषित किया कि यदि अवधान सम्बन्धी उद्दीपक जटिल हो तो व्यक्ति अपने ध्यान को उसके प्रति 5 सेकण्ड से भी अधिक अवधि तक केन्द्रित कर सकता है। यहाँ एक अन्य स्पष्टीकरण भी प्रस्तुत किया गया। वुडवर्थ के अनुसार, जब किसी विषय के प्रति ध्यान का केन्द्रण 5 सेकण्ड या अधिक समय तक होता है तो उस अवधि में व्यक्ति का ध्यान सम्बन्धित उद्दीपक के ही भिन्न-भिन्न भागों पर विचलित हो सकता है। उदाहरण के लिए किसी सुन्दर फूल पर ध्यान का केन्द्रण करते समय उसकी भिन्न-भिन्न पंखुड़ियों या भागों पर ध्यान का केन्द्रण हो सकता है। वुडवर्थ की मान्यता से भिन्ने कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों के आधार पर स्पष्ट किया है कि व्यक्ति के ध्यान का केन्द्रण 6 सेकण्ड तक भी हो सकता है।
ध्यान-विचलन के मुख्य कारण
ध्यान या अवधान अपनी प्रकृति का चंचल होता है तथा निरन्तर रूप से ध्यान का विचलन होता रहता है। ध्यान की इस चंचलता या विचलन के कारणों को ज्ञात करने के लिए भी कुछ परीक्षण किये गये तथा ध्यान-विचलन के कुछ कारणों को खोजा गया। ध्यान-विचलन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं
(i) थकान अथवा सांवेदिक अनुकूलन – ध्यान-केन्द्रण अपने आप में एक विशिष्ट मानसिक प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न मानसिक क्षमताओं को अभीष्ट विषय पर केन्द्रित किया जाता है। मानसिक क्षमताओं के इन केन्द्रण से एक विशेष प्रकार की थकान होती है। इस थकान अथवा सांवेदिक अनुकूलन के कारण भी ध्यान का विचलन होता है अर्थात् थकान या सांवेदिक अनुकूलन ध्यान के विचलन को एक कारण है। ध्यान की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया गया है कि ध्यान-केन्द्रण के समय व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों को निरन्तर रूप से कार्य करना पड़ता है तथा इस प्रकार से निरन्तर कार्य करने से ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनात्मक समायोजन में कुछ बाधा उत्पन्न होती है। ध्यान-केन्द्रण की प्रक्रिया में हमारे शरीर के वे समस्त न्यूरॉन्स थक जाते हैं, जिनके माध्यम से संवेदनाएँ ग्रहण की जाती हैं। इस प्रकार से होने वाली थकान ही ध्यान-विचलन का एक कारण है।
(ii) आँखों की गतिः – अवधान-विचलन का एक कारण आँखों की गति भी माना गया है। इस कारक का स्पष्टीकरण जानने के लिए विभिन्न परीक्षण किये गये तथा देखा गया कि आँखों की स्वाभाविक गति के कारण बार-बार सम्बन्धित उद्दीपक की प्रतिमा आँख के रेटिना के एक निश्चित भाग से हट जाती है तथा तुरन्त ही किसी अन्य स्थान पर बनने लगती है। इस प्रकार के होने वाले परिवर्तन के कारण ध्यान या अवधान का विचलन हो जाता है। इससे भिन्न एक अन्य स्पष्टीकरण के अन्तर्गत रॉबर्टसन ने अवधान के विचलन का कारण उद्दीपक के भिन्न-भिन्न भागों पर भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रकाश का पड़ना माना है। उसके अनुसार उद्दीपक के किसी एक भाग पर अन्य भागों की तुलना में कम या अधिक प्रकाश पड़ सकता है। उद्दीपक पर प्रकाश के इस असमान वितरण के कारण अवधान का विचलन हो सकता है।
(iii) रक्त-संचालन में होने वाले विचलन – यह एक शरीरशास्त्रीय तथ्य है कि हमारे शरीर में होने वाले रक्त-संचालन में निरन्तर रूप से कुछ हल्के तथा साधारण विचलन होते रहते हैं। रक्त-संचालन में होने वाला यह विचलन ‘Traube-Hearing Wave’ कहलाता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, रक्त-संचालन में होने वाला यह विचलन भी अवधान-विचलन का ही एक कारण है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
अवधान के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
या
अवधान के प्रकार सोदाहरण समझाइए।
उत्तर :
अवधान मुख्यत: तीन प्रकार का होता है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –
(1) ऐच्छिक अवधान – ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति प्रयास करके और स्वेच्छा से किसी उत्तेजना या वस्तु की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। बाजार से पसन्द की वस्तु खरीदते समय ऐच्छिक अवधान का सहारा लिया जाता है। ऐच्छिक अवधान दो प्रकार का होता है –
(अ) अविचारित अवधान – अविचारित अवधान के अन्तर्गत साधारण-सा प्रयास करके ही व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित हो जाता है। इस प्रक्रिया में उसे अधिक विचारपूर्ण नहीं होना पड़ता।
(ब) सविचारित अवधान – सविचारित अवधान के अन्तर्गत व्यक्ति को काफी सोच-विचार की आवश्यकता होती है। वह वस्तु की ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रयास करता है। गणित के प्रश्नों को हल करने के लिए सविचारित अवधान चाहिए।
(2) अनैच्छिक अवधान – अनैच्छिक अवधान में किसी उत्तेजना या वस्तु की ओर व्यक्ति का ध्यान अनिच्छा से या बिना विशेष प्रयास के चला जाता है। वातावरण में होने वाला कोई धमाका हमारे ध्यान को जबरदस्ती और बिना चाहे अपनी ओर खींच लेता है। यह भी दो प्रकार का होता है
(अ) सहज अवधान – सहज अवधान में किसी वस्तु की ओर व्यक्ति का ध्यान उसकी रुचियों अथवा मूल प्रवृत्तियों के कारण आकृष्ट होता है।
(ब) बाध्य अवधान – जब हमारा ध्यान किसी उत्तेजना या वस्तु की ओर आकृष्ट होने के लिए बाध्य (विवश) हो जाए तो ऐसा अवधान, बाध्य अवधान होगा। इसके लिए उद्दीपक की प्रबल तीव्रता आवश्यक है।
(3) अनभिप्रेत अवधान – अनभिप्रेत अवधान एक विशेष प्रकार का अवधान है जिसमें व्यक्ति को विशिष्ट प्रयास की जरूरत होती है। यह अवधान ऐच्छिक होकर भी ऐच्छिक अवधान से भिन्न होता है। अनभिप्रेत अवधान के अन्तर्गत व्यक्ति किसी उत्तेजना या वस्तु पर अपनी इच्छा तथा रुचि के विरुद्ध जाकर ध्यान केन्द्रित करता है, लेकिन ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति उस उत्तेजना या वस्तु की ओर अपनी इच्छा और रुचि के अनुकूल ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ-माने लीजिए एक कवि अपनी इच्छा एवं रुचि के अनुकूल काव्य रचना में लगा है और उसी समय उसे किसी बीमार आदमी के लिए जरूरी तौर पर दवा लाने जाना पड़े तो कविता से हटकर उसका जो ध्यान दवाइयों की दुकान पर केन्द्रित होगा, उसे अनभिप्रेत अवधान कहेंगे।
प्रश्न 2.
अनवधान या ध्यान-भंग के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अनवधान या ध्यान-भंग के मुख्य रूप से दो प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें क्रमशः निरन्तर अनवधान या निरन्तर ध्यान-भंग (Continuous Distraction) तथा अनिरन्तर अनवधान या अनिरन्तर ध्यान-भंग (Discontinuous Distraction) के रूप में जाना जाता है। इन दोनों प्रकार के अनवधानों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है –
(1) निरन्तर अनवधान – जो अनवधान कुछ समय के लिए निरन्तर बना रहता है, उसे निरन्तर अनवधान कहते हैं। उदाहरण के लिए-तेज गति से चलने वाली रेलगाड़ी में यात्रा करने वाले यात्री रेलगाड़ी से होने वाले शोर से प्रभावित होते हैं। यह दशा निरन्तर अनवधान की दशा होती है। इसी प्रकार से औद्योगिक स्थल पर चलने वाली मशीनों के निरन्तर शोर से होने वाला अनवधान भी निरन्तर अनवधान ही होता है। निरन्तर अनवधान का व्यक्ति के कार्यों आदि पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में, निरन्तर अनवधान की उपस्थिति में व्यक्ति शीघ्र ही अपने पर्यावरण के साथ आवश्यक समायोजन स्थापित कर लेता है। इस प्रकार का समायोजन स्थापित हो जाने की दशा में व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले उत्पादन पर कोई विशेष प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। हम जानते हैं कि सभी कल-कारखानों में सदैव ही निरन्तर रूप से शोर होता रहता है, परन्तु वहाँ के श्रमिक एवं कर्मचारी अपनी स्वाभाविक गति एवं क्षमता के अनुसार कार्य करते रहते हैं।
(2) अनिरन्तर अनवधान – जब अनवधान में बाधा डालने वाला कोई कारक रुक-रुक कर सक्रिय होता रहता है तब उस स्थिति में होने वाले अनवधान को अनिरन्तर अनवधान कहते हैं। अनिरन्तर अनवधान एक असामान्य दशा होती है तथा इसका अधिक प्रतिकूल प्रभाव व्यक्ति के कार्यों एवं उत्पादन-क्षमता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए-रुक-रुक कर बजने वाला हॉर्न, टेलीफोन की घण्टी, किसी द्वारा पुकारा जाना या मच्छर द्वारा डंक मारना अनिरन्तर अनवधान के कारक हैं। वास्तव में, अनवधान के अनिरन्तर बाधक कारकों के साथ व्यक्ति तुरन्त समायोजन स्थापित नहीं कर पाता; अतः उस स्थिति में व्यक्ति के कार्यों एवं उत्पादन-क्षमता पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
अनवधान या ध्यान-भंग से बचने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं?
उतर :
अनवधान या ध्यान-भंग से बचने के लिए या उसके प्रभाव को कम करने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं –
(1) अधिक सक्रियता से कार्य करना – यदि सामान्य से अधिक सक्रियतापूर्वक कार्य किया जाए तो अवधान-मंजक कारकों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। वैसे यह एक सत्यापित तथ्य है। कि यदि व्यक्ति अधिक सक्रियतापूर्वक कार्य करता है तो उसे सामान्य से अधिक शक्ति खर्च करनी पड़ती है।
(2) उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना – यदि व्यक्ति ध्यान-भंजक कारक के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण विकसित कर ले तो उस स्थिति में भी अनवधान के प्रतिकूल प्रभाव कुछ कम हो जाते हैं।
(3) ध्यान-भंजक कारक को कार्य का अंग मान लेना – यदि ध्यान-भंजक कारक को व्यक्ति अपने द्वारा किये जाने वाले कार्य के एक परिस्थितिजन्य अंग के रूप में स्वीकार कर ले तो उस स्थिति में ध्यान-भंजक कारक का प्रतिकूल प्रभाव या तो घट जाता है अथवा समाप्त ही हो जाता है।
(4) अभ्यास – अनवधान या ध्यान-भंग की दशा को प्रभावहीन बनाने का एक उपाय व्यक्ति द्वारा अभीष्ट परिस्थिति में व्यक्ति द्वारा किये जाने वाला अभ्यास भी है। यदि व्यक्ति ध्यान-भंजक कारक की उपस्थिति में निरन्तर कार्य करने का अभ्यास कर ले तो वह अनवधान के प्रतिकूल प्रभावों से बच सकता है।
प्रश्न 2.
रुचि के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रुचि मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं –
(1) जन्मजात रुचि एवं
(2) अर्जित रुचि।
(1) जन्मजात रुचि – जन्मजात रुचि, मूल प्रवृत्तियों (Instincts) पर आधारित होती है और मनुष्य के स्वभाव तथा प्रकृति में निहित होती है। इनका स्रोत व्यक्ति के अन्दर जन्म से ही विद्यमान होता है। भोजन में हमारी रुचि भूख की जन्मजात प्रवृत्ति के कारण है। काम-वासना में रुचि होने के कारण हमारा ध्यान विपरीत लिंग की ओर आकृष्ट होता है। चिड़िया दाना खाने, गाय तथा भैंस हरा चारा खाने तथा हिंसक पशु मांस खाने में रुचि रखते हैं। जन्मजात रुचियों के कारण हैं।
(2) अर्जित रुचि – अर्जित करने का अर्थ है-उपार्जित करना (अर्थात् कमाना)। अर्जित रुचियों को व्यक्ति अपने वातावरण से ग्रहण करता है। इनका निर्माण मनुष्य के अनुभव के आधार पर होता है। मनुष्य के मन की भावनाएँ तथा आदतें इनकी आधारशिला हैं। अतः भावनाओं तथा आदतों में परिवर्तन के साथ ही इनमें परिवर्तन आता रहता है। अपने हितं या लाभ की परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति की रुचियाँ बढ़ : जाती हैं। किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण के कारण उसके प्रति हमारी रुचि पैदा हो जाती है। एक फोटोग्राफर की अच्छे कैमरे में रुचि होती है तथा बच्चों की रुचि नये-नये खिलौनों में।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –
- मानसिक शक्तियों के लिए किसी विषय-वस्तु पर केन्द्रित करने की प्रक्रिया को ……………………. कहते हैं।
- मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अवधान एक ……………………. है।
- अवधान अपने आप में एक ……………………. होती है।
- जब कोई व्यक्ति किसी विषय-वस्तु के प्रति अपना ध्यान स्वयं केन्द्रित करता है तो उसे ……………………. कहते हैं।
- जब किसी उत्तेजना के प्रति व्यक्ति का ध्यान बरबस केन्द्रित हो जाता है तो उसे ……………………. कहते हैं।
- मानसिक तत्परता अवधान के केन्द्रण में ……………………. होती है।
- रुचि के अभाव में विषय-वस्तु के प्रति ध्यान का केन्द्रण ……………………. होता है।
- समन्वयवादी विचारधारा के अनुसार रुचि और अवधान में ……………………. का सम्बन्ध है।
- किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में अधिक-से-अधिक जितने बाहरी उद्दीपकों को ध्यान का विषय बनाया जाता है, उसे ही ……………………. माना जाता है।
- रुचिकर विषयों के सन्दर्भ में व्यक्ति का अवधान-विस्तार ……………………. होता है।
- अवधान की स्थिति में किसी प्रकार की बाधा को उत्पन्न हो जाना ही ……………………. कहलाता है।
- रेलगाड़ी में यात्रा करते समय शोर के कारण होने वाले अनवधान को ……………………. कहते हैं।
- रुक-रुक कर बजने वाले सायरन के कारण होने वाले अनवधान को ……………………. कहते हैं।
- अधिक सक्रियता से कार्य करने पर अनवधान को प्रतिकूल प्रभाव ……………………. जाता है।
- रुचि छिपा हुआ ……………………. है।
- अवधान तथा रुचि परस्पर ……………………. होते हैं।
उत्तर :
- अवधान का ध्यान
- मानसिक प्रक्रिया
- मानसिक प्रक्रिया
- ऐच्छिक अवधान
- अनैच्छिक अवधान
- सहायक
- कठिन
- अन्योन्याश्रितता
- अवधान का विस्तार
- अधिक
- अनवधान
- निरन्तर अनवधान
- अनिरन्तर अनवधान
- घट
- अवधान
- पूरक
प्रश्न II.
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
ध्यान अथवा अवधान से क्या आशय है?
उत्तर :
ध्यान अथवा अवधान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न मानसिक शक्तियों को अभीष्ट विषय-वस्तु पर केन्द्रित किया जाता है तथा इस स्थिति में अन्य विषय-वस्तुओं की अवहेलना की जाती है।
प्रश्न 2.
अवधान की प्रक्रिया की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
- चंचलता
- चयनात्मकता
- मानसिक सक्रियता तथा
- संकुचित क्षेत्र।
प्रश्न 3.
अवधान की प्रक्रिया के कौन-कौन से पक्ष होते हैं?
उत्तर :
अवधान की प्रक्रिया एक त्रिपक्षीय प्रक्रिया है। इसके तीन विभिन्न पक्ष हैं-ज्ञानात्मक पक्ष, भावात्मक पक्ष तथा क्रियात्मक पक्ष।
प्रश्न 4.
अवधान के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
अवधान के मुख्य प्रकार हैं-ऐच्छिक अवधान, अनैच्छिक अवधान तथा अनभिप्रेत अवधान।
प्रश्न 5.
अवधान में सहायक चार बाह्य या वस्तुगत दशाओं का उल्लेख कीजिए।
या
अवधान के किन्हीं दो वस्तुगत निर्धारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवधान में सहायक चार वस्तुगत दशाएँ हैं-उत्तेजना का आकार, उत्तेजना की तीव्रता, उत्तेजना का स्वरूप तथा उत्तेजना की परिवर्तनशीलता।
प्रश्न 6.
अवधान में सहायक चार आन्तरिक या आत्मगत दशाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवधान में सहायक चार आत्मगत दशाएँ हैं—मनोवृत्ति, संवेग, रुचि तथा जिज्ञासा।
प्रश्न 7.
रुचि से क्या आशय है?
उत्तर :
रुचि किसी उत्तेजना, वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति की ओर आकर्षित होने की प्राकृतिक, जन्मजात या अर्जित प्रवृत्ति है।
प्रश्न 8.
‘रुचि की एक स्पष्ट एवं सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “रुचि उस प्रेरक शक्ति को कहते हैं जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।”
प्रश्न 9.
कोई ऐसा कथन लिखिए जो रुचि एवं अवधान के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है।
उत्तर :
मैक्डूगल के अनुसार, “रुचि गुप्त अवधान होता है और अवधान रुचि का क्रियात्मक रूप है।”
प्रश्न 10.
रुचि के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रुचियाँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं –
(i) जन्मजात रुचि तथा
(ii) अर्जित रुचि।
प्रश्न 11.
अवधान के विस्तार से क्या आशय है?
उत्तर :
किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में अधिक-से-अधिक जितने बाहरी उद्दीपकों को ध्यान का विषय बनाया जाता है, उसे ही अवधान का विस्तार माना जाता है।
प्रश्न 12.
अनवधान या ध्यान-भंग के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
अवधान या ध्यान की स्थिति में किसी प्रकार की बाधा का उत्पन्न हो जाना ही अनवधान या ध्यान-भंग है।
प्रश्न 13.
अनवधान या ध्यान-भंग के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
अनवधान या ध्यान-भंग के मुख्य प्रकार हैं-निरन्तर अनवधान तथा अनिरन्तर अनवधान।
प्रश्न 14.
अनवधान या ध्यान-भंग से बचने के उपाय क्या हैं?
उत्तर :
- अधिक सक्रियता से कार्य करना
- उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना
- ध्यान-भंजक कारक को कार्य का अंग मान लेना तथा
- अभ्यास।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
व्यक्ति द्वारा अपनी मानसिक शक्तियों को अभीष्ट कार्य या विषय पर केन्द्रित करने को कहते हैं –
(क) स्मृति
(ख) चिन्तन
(ग) अवधान
(घ) प्रेरणा
प्रश्न 2.
उद्दीपक या उद्दीपकों का चयन करके उसे चेतना के मुख्य केन्द्र में लाने की प्रक्रिया को कहते हैं –
(क) अवधान
(ख) अधिगम
(ग) प्रत्यक्षीकरण
(घ) संवेदना
प्रश्न 3.
अवधान को केन्द्रित करने के लिए आवश्यक होता है –
(क) पौष्टिक आहार.
(ख) उत्तम स्वास्थ्य
(ग) मानसिक तत्परता
(घ) मधुर संगीत
प्रश्न 4.
अवधान अथवा ध्यान की प्रक्रिया की विशेषता है –
(क) चुनाव
(ख) चंचलता
(ग) मानसिक तत्परता
(घ) ये सभी
प्रश्न 5.
अवधान के प्रकार हैं –
(क) ऐच्छिक अवधान
(ख) अनैच्छिक अवधान
(ग) अनभिप्रेत अवधान
(घ) ये सभी
प्रश्न 6.
निरन्तर अनवधान की दशा में –
(क) व्यक्ति कोई कार्य नहीं कर सकता
(ख) उत्पादन की दर घट जाती है
(ग) परिस्थिति से समायोजन स्थापित करना पड़ता है।
(घ) व्यक्ति पूर्ण रूप से असामान्य हो जाता है।
प्रश्न 7.
अनिरन्तर अनवधान की दशा में
(क) उत्पादन की दर बढ़ जाती है।
(ख) उत्पादन की दर घट जाती है।
(ग) उत्पादन पूर्ण रूप से ठप हो जाता है।
(घ) उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
प्रश्न 8.
अनवधानं या ध्यान-भंग से बचने का उपाय है –
(क) अधिक सक्रियता से कार्य करना
(ख) उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना
(ग) अभ्यास
(घ) ये सभी
प्रश्न 9.
ध्यान-विचलन की दशा में
(क) व्यक्ति का ध्यान भिन्न-भिन्न विषयों के प्रति आकृष्ट होता है।
(ख) व्यक्ति के ध्यान का कोई विषय नहीं होता
(ग) व्यक्ति का ध्यान भंग हो जाता है।
(घ) व्यक्ति का ध्यान पूर्ण रूप से एकाग्र हो जाता है।
प्रश्न 10.
ध्यान-विचलन का कारण है
(क) थकान अथवा सांवेदिक अनुकूलन
(ख) आँखों की गति
(ग) रक्त-संचालन में होने वाले विचलन
(घ) ये सभी
उत्तर :
- (ग) अवधान,
- (क) अवधान,
- (ग) मानसिक तत्परता,
- (घ) ये सभी,
- (घ) ये सभी,
- (ग) परिस्थिति से समायोजन स्थापित करना पड़ता है,
- (ख) उत्पादन की दर घट जाती है,
- (घ) ये सभी,
- (क) व्यक्ति का ध्यान भिन्न-भिन्न विषयों के प्रति आकृष्ट होता है,
- (घ) ये सभी।
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