UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi शैक्षिक निबन्ध
UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi शैक्षिक निबन्ध
शैक्षिक निबन्ध
नयी शिक्षा-नीति
सम्बद्ध शीर्षक
- आधुनिक शिक्षा-प्रणाली : एक मूल्यांकन
- हमारी शिक्षा-व्यवस्था
प्रमुख विचार विन्दु
- प्रस्तावना,
- अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति,
- स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति,
- शिक्षा नीति का उद्देश्य,
- नयी शिक्षा नीति की विशेषताएँ,
- नयी शिक्षा नीति की समीक्षा
- उपसंहारा ।
प्रस्तावना – शिक्षा मानव-जीवन के सर्वांगीण विकास का सर्वोत्तम साधन है। प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था मानव को उच्च-आदर्शों की उपलब्धि के लिए अग्रसर करती थी और उसके वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के सम्यक् विकास में सहायता करती थी। शिक्षा की यह व्यवस्था प्रत्येक देश और काल में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन-सन्दर्भो के अनुरूप बदलती रहनी चाहिए। भारत की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है, जिसे सन् 1835 ई० में लागू किया गया था। अंग्रेजी शासन की गलत शिक्षा-नीति के कारण ही हमारा देश स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी पर्याप्त विकास नहीं कर सका।।
अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति – सन् 1835 ई० में जब वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की नींव रखी गयी थी तब लॉर्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य भारत में प्रशासन को बिचौलियों की भूमिका निभाने तथा सरकारी कार्य के लिए भारत के लोगों को तैयार करना है।’ इसके फलस्वरूप एक सदी तक अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के प्रयोग में लाने के बाद भी सन् 1835 ई० में भारत साक्षरता के 10% के आँकड़े को भी पार नहीं कर सका। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय भी भारत की साक्षरता मात्र 13% ही थी। इस शिक्षा-प्रणाली ने उच्च वर्गों को भारत के शेष समाज से पृथक् रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसकी बुराइयों को सर्वप्रथम गांधी जी ने सन् 1917 ई० में ‘गुजरात एजुकेशन सोसाइटी के सम्मेलन में उजागर किया तथा शिक्षा में मातृभाषा के स्थान और हिन्दी के पक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर तार्किक ढंग से रखा।
स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति – स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन के कुछ प्रयास किये गये। इनमें सन् 1968 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति उल्लेखनीय है। सन् 1976 ई० में भारतीय संविधान में संशोधन के द्वारा शिक्षा को समवर्ती-सूची में सम्मिलित किया गया, जिससे शिक्षा का एक राष्ट्रीय और एकात्मक स्वरूप विकसित किया जा सके। भारत सरकार ने विद्यमान शैक्षिक व्यवस्था का पुनरावलोकन किया और राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श के बाद 26 जून, सन् 1986 ई० को नयी शिक्षा-नीति की घोषणा की।
शिक्षा-नीति का उद्देश्य – इस शिक्षा नीति का गठन देश को इक्कीसवीं सदी की ओर ले जाने के नारे के अंगरूप में ही किया गया है। नये वातावरण में मानव संसाधन के विकास के लिए नये प्रतिमानों तथा नये मानकों की आवश्यकता होगी। नये विचारों को रचनात्मक रूप में आत्मसात् करने में नयी पीढ़ी को सक्षम होना चाहिए। इसके लिए बेहतर शिक्षा की आवश्यकता है। साथ ही नयी शिक्षा नीति का उद्देश्य आधुनिक तकनीक की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए उच्चस्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त श्रम-शक्ति को जुटाना है; क्योंकि इस शिक्षा नीति के आयोजकों के विचार से इस समय देश में विद्यमान श्रम-शक्ति यह आवश्यकता पूरी नहीं कर सकती।
नयी शिक्षा-नीति की विशेषताएँ
- नवोदय विद्यालय – नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत देश के विभिन्न भागों में विशेषकर ग्रामीण अंचलों में नवोदय विद्यालय खोले जाएँगे, जिनका उद्देश्य प्रतिभाशाली छात्रों को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करना होगा। इन विद्यालयों में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम लागू होगा।
- रोजगारपरक शिक्षा – नवोदय विद्यालयों में शिक्षा रोज़गारपरक होगी तथा विज्ञान और तकनीक उसके आधार होंगे। इससे विद्यार्थियों को बेरोजगारी का सामना नहीं करना पड़ेगा।
- 10+2+3 का पुनर्विभाजन – इन विद्यालयों में शिक्षा 10+2+3 पद्धति पर आधारित होगी। ‘त्रिभाषा फॉर्मूला चलेगा, जिसमें अंग्रेजी, हिन्दी एवं मातृभाषा या एक अन्य प्रादेशिक भाषा रहेगी। सत्रार्द्ध प्रणाली (सेमेस्टर सिस्टम) माध्यमिक विद्यालयों में लागू की जाएगी और अंकों के स्थान पर विद्यार्थियों को ग्रेड दिये जाएँगे।
- समानान्तर प्रणाली – नवोदय विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की एक समानान्तर शिक्षा-प्रणाली शुरू की जाएगी।
- उच्च शिक्षा में सुधार – अगले दशक में महाविद्यालयों से सम्बद्धता समाप्त करके उन्हें स्वायत्तशासी बनाया जाएगा। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधारा जाएगा तथा शोध के उच्च स्तर पर बल दिया जाएगा।
- अवलोकन – व्यवस्था – केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् शिक्षा-संस्थानों पर दृष्टि रखेगी। एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा संस्था का गठन होगा। माध्यमिक शिक्षा के लिए एक अलग संस्था गठित होगी।
- आवश्यक सामग्री की व्यवस्था – प्राथमिक विद्यालयों में ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड (Operation Blackboard) लागू होगा। इसके अन्तर्गत प्रत्येक विद्यालय के लिए दो बड़े कमरों का भवन, एक छोटा-सा पुस्तकालय, खेल का सामान तथा शिक्षा से सम्बन्धित अन्य साज-सज्जा उपलब्ध रहेगी। शिक्षा मन्त्रालय ने प्रत्येक विद्यालय के लिए आवश्यक सामग्री की एक आकर्षक और प्रभावशाली सूची भी बनायी है। प्रत्येक कक्षा के लिए एक अध्यापक की व्यवस्था की गयी है।
- मूल्यांकन और परीक्षा सुधार – प्राथमिक स्तर पर किसी को भी अनुत्तीर्ण नहीं किया जाएगा। परीक्षा में अंकों के स्थान पर ग्रेड प्रणाली प्रारम्भ की जाएगी। छात्रों की प्रगति का आकलन क्रमिक मूल्यांकन द्वारा होगा।
- शिक्षकों को समान वेतनमान – देशभर में अध्यापकों को समान कार्य के लिए समान वेतन के आधार पर समान वेतन मिलेगा। प्रत्येक जिले में शिक्षकों के प्रशिक्षण-केन्द्र स्थापित किये जाएँगे।
- मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना – नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश के पैमाने पर एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया है। इस मुक्त विश्वविद्यालय का दरवाजा सबके लिए खुला रहेगा; न तो उम्र का कोई प्रतिबन्ध होगा और न ही समय का कोई बन्धन।
- नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत निजी क्षेत्र के व्यवसायी यदि चाहें तो आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण-संस्थान खोल सकेंगे।
नयी शिक्षा-नीति की समीक्षा – वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में जो अनेकशः दोष हैं उनकी अच्छी-खासी चर्चा सरकारी परिपत्र ‘Challenges of Education : A Policy Perspective’ में की गयी है। इस शिक्षा प्रणाली से संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं का भविष्य अन्धकारमय होकर रह गया है। इसके अन्तर्गत केवल अंग्रेजी का ही बोलबाला होगा; क्योंकि इसके लागू होने के साथ-साथ पब्लिक स्कूलों को समाप्त नहीं किया गया है। फलतः इस नीति की घोषणा के बाद देश में अंग्रेजी माध्यम वाले मॉण्टेसरी स्कूलों की गली कूचों में बाढ़-सी आ गयी है। शिक्षा पर अयोग्य राजनेता दिनोंदिन नवीन प्रयोग कर रहे हैं, जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो रही है। शिक्षा के प्रश्न को लेकर बहुधा अनेकों गोष्ठियाँ, सेमिनार आदि आयोजित किये जाते हैं किन्तु परिणाम देखकर आश्चर्य होता है कि शिक्षा-प्रणाली सुधरने के बजाय और अधिक निम्नकोटि की होती जा रही है। वस्तुत: भ्रष्टाचार के चलते अच्छे व समर्पित शिक्षा अधिकारी जो संख्या में इक्का-दुक्का ही हैं; उनके सुझावों का प्रायः स्वागत नहीं किया जाता। शिक्षा नीति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम भी कुछ इस प्रकार का निर्धारित किया गया है कि एक के बाद दूसरी पीढ़ी के आ जाने तक भी न उसमें कुछ संशोधन होता है, न ही परिवर्तन। पिष्टपेषण की यह प्रवृत्ति विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति अश्रद्धा जगाती है।
निश्चित ही हमारी अधुनातन शिक्षा-नीति, पद्धति, व्यवस्था एवं ढाँचा अत्यन्त दोषपूर्ण सिद्ध हो चुका है। यदि इसे शीघ्र ही न बदला गया तो हमारा राष्ट्र हमारे मनीषियों के आदर्शों की परिकल्पना तक नहीं पहुँच सकेगा।
उपसंहार – नयी शिक्षा नीति के परिपत्र में प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्तराल पर शिक्षा-नीति के कार्यान्वयन और मानदण्डों की समीक्षा की व्यवस्था की गयी है; किन्तु सरकारों में जल्दी-जल्दी हो रहे परिवर्तनों से इस नयी शिक्षा-नीति से नवीन अपेक्षाओं और सुधारों की सम्भावनाओं में विशेष प्रगति नहीं हो पायी है। साथ ही यह शिक्षा-नीति एक सुनियोजित व्यवस्था, साधन सम्पन्नता और लगन की माँग करती है। यदि नयी शिक्षा नीति को ईमानदारी और तत्परता से कार्यान्वित किया जाए तो निश्चय ही हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ सकेंगे।
यदि मैं शिक्षामन्त्री होता
प्रमुख विचार-बिन्दु
- प्रस्तावना,
- धर्म निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था,
- सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था,
- मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण,
- ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था,
- शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा प्रणाली,
- प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना,
- अध्यापकों की मनोवृत्ति परिवर्तन,
- उपसंहार।
प्रस्तावना – आज भारत को अंग्रेजी शासन-श्रृंखला से मुक्त हुए छ: दशकों से भी अधिक समय हो चुका है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में आज तक देश में विविध प्रयोगों से, देश की भावी पीढ़ी के साथ खिलवाड़ ही हुआ है। अभी तक हम न सभी को साक्षर कर पाये हैं, न ही राष्ट्र-भाषा हिन्दी को अपना यथोचित स्थान दिला पाये हैं। शिक्षा भी ऐसी दी गयी है कि जिसे ठोस रूप में न सांस्कृतिक कह सकते हैं और न ही वैज्ञानिक। इस शिक्षा ने केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाई है और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है। यदि मैं शिक्षामन्त्री होता तो मैं सबसे पहले शिक्षा को राष्ट्रीय, वैज्ञानिक, कर्मप्रधान तथा सर्वसुलभ बनाने को प्राथमिकता देता।
धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था – आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की निजी संस्थाओं के अन्तर्गत सारे देश में ऐसे स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं जिसमें उन धर्मों की जातियों को प्रश्रय दिया जाता है, जिनके विचार संकुचित होते हैं। ये राष्ट्रीय भावना के स्थान पर साम्प्रदायिक तथा जातिगत श्रेष्ठता को महत्त्व देकर, नयी पीढ़ी को अनुदार विचारों वाला बनाते हैं। इस प्रकार की शिक्षा का परिणाम हम पहले ही देश-विभाजन के रूप में देख चुके हैं। हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है। संविधान में ऐसा माना जा चुका है, फिर भी सनातनी, आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिशनरियों द्वारा क्यों अलग-अलग शिक्षा संस्थान चलाये जा रहे हैं? यदि मैं शिक्षामन्त्री पद को प्राप्त कर लें तो मैं इन संस्थाओं को प्रेरित करूंगा कि भले ही वे अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दें, परन्तु राष्ट्रीय चरित्र की उपेक्षा करके निश्चित रूप से नहीं।
सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था – धार्मिक भेदभावों के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षा-संस्थान भी इस देश में पब्लिक स्कूल चला रहे हैं। इन स्कूलों में बहुत अधिक फीस होती हैं, अत: बड़े-बड़े अमीरों और ऊँचे पदों पर विराजमान नेताओं-अफसरों के बच्चे ही इनमें स्थान पा सकते हैं। देश का गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग का योग्य बच्चा भी इनमें प्रवेश नहीं पा सकता। इन महँगे शिक्षा-संस्थानों में अंग्रेजी को माध्यम भाषा का स्थान देकर देश की नयी पीढ़ी में वर्गभेद के अनुचित संस्कार पैदा किए जा रहे हैं। शिक्षामन्त्री बनने के बाद मैं इन पब्लिक स्कूलों तथा अन्य स्कूलों को समान स्तर पर लाने की नीति अपनाऊँगा।
मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण – इसके बाद प्रश्न आता है–शिक्षा के माध्यम का। यह सच है कि भारत की सभी भाषाओं में सर्वाधिक बोली, लिखी व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी ही है। परन्तु खेद है, अभी तक इसे व्यावहारिक रूप में समुचित स्थान नहीं दिया जा रहा है, दो-तीन प्रतिशत अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही अपनी अंग्रेजियत लाद रखने की तानाशाही चला रहे हैं। इन्हीं के कारण आज साधारण किसानों व मजदूरों की सन्ताने शिक्षा से दूर हैं। उन्हें अनपढ़ ही रहने दिया जा रहा है। यदि मैं शिक्षामन्त्री बना तो समस्त देश में प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में दिलवाने का प्रबन्ध करूंगा। स्कूली शिक्षा में हिन्दी प्रथम भाषा रहेगी। अन्य विषय भी हिन्दी माध्यम से पढ़ाये जाने की व्यवस्था करूंगा।
ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था – हमारा देश कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 75% आबादी गाँवों में बसती है। मैं चाहता हूँ कि गाँववाले शहर की ओर न देखकर पहले खुद के जीवन को उन्नत एवं गतिशील करें। इसके लिए उनकी शिक्षा-व्यवस्था और शहर की शिक्षा-व्यवस्था में अन्तर रखना ही पड़ेगा। यदि मैं शिक्षामन्त्री बना तो गाँवों की जरूरतों के अनुसार, वहीं पर ऐसे शिक्षण व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करूंगा जो गाँववासियों को आत्मनिर्भर बनाएँ, उनके परम्परागत कार्य को आधुनिक युग के अनुरूप ढालें, जैसे खेती के लिए खाद-निर्माण, नलकूपों की व्यवस्था करना, बीजों की उन्नत किस्में तैयार करना, वैज्ञानिक विधि से करके उत्पादन बढ़ाना, पशुओं की नस्लों का स्तर सुधारना, सूत कातना, कपड़े बुनना, घरेलू सामान तैयार करना आदि। इन अनगिनत कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु उचित ज्ञान व प्रशिक्षण देना उन शिक्षा केंद्रों का कार्य होगा। इसके लिए गाँधी जी द्वारा स्वीकृत बेसिक शिक्षा प्रणाली बहुत उपयुक्त रहेगी।
शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली – शहरी विद्यार्थियों के लिए भी ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध होगा जो केवल बाबुओं का निर्माण न करे, बल्कि प्रतिभाशाली छात्रों को समुचित शिक्षा-सुविधाएँ दे। शिक्षा महँगी न हो। स्कूल-स्तर की सम्पूर्ण शिक्षा नि:शुल्क रहे। उस शिक्षा में विज्ञान को प्राथमिकता होगी। उसमें से योग्य डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री, व्यापारी व उच्चाधिकारी के योग्य निकलेंगे जिन्हें उच्च शिक्षण-संस्थानों में उपयुक्त पदों पर पहुँचने का समुचित शिक्षण व प्रशिक्षण दिया जाएगा। मैं शिक्षामन्त्री होकर यह नियम भी अनिवार्य कर देंगी कि प्रत्येक सुशिक्षित डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री आदि बहुसंख्यक व्यक्ति गाँवों में कम-से-कम तीन वर्षों तक कार्य करें। इससे शहर और गाँवों की दूरी कम की जा सकेगी।
प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना – प्रायः यह देखने में आता है कि धन, प्रतिष्ठा व अन्य प्रलोभनों के वशीभूत होकर अनेक उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक विदेशों को चले जाते हैं। मैं शिक्षामन्त्री बनूंगा तो उनको अपने देश में ही ऐसी सुविधाएँ प्रदान करूंगा, जिससे वे विदेशों की ओर मुँह न करें ताकि देश की प्रतिभा देशवासियों के लाभ में काम करे।
अध्यापकों की मनोवृत्ति परिवर्तन – शिक्षा की कैसी भी श्रेष्ठतम प्रणाली क्यों न स्वीकृति की जाए, यदि उसको लागू करने में ढील रहेगी अर्थात् योग्य, ईमानदार, परिश्रमी अध्यापकों, प्राध्यापकों, प्रशिक्षकों का अभाव रहेगा तो वह प्रणाली केवल कागजों एवं फाइलों में ही शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह जाएगी। उससे देश की नई पीढ़ी का कुछ भी भला नहीं होगा। अध्यापकों या शिक्षकों की मनोवृत्ति को बदलना भी जरूरी है। उन्हें समाज में सम्मानित व प्रतिष्ठित करना होगा। उन पर अध्यापन-कार्यक्रम के अतिरिक्त दूसरे व्यवस्थागत कार्यों का बोझ लादना उचित नहीं है। मैं अपने शिक्षामन्त्रित्व काल में देश के निर्माता शिक्षकों की सुविधाएँ, उनके वेतनमान, उनकी पदोन्नति में न्याय तथा औचित्य का ध्यान रखेंगा।
उपसंहार – यह सच है कि उक्त शिक्षा-योजनाओं के लिए बहुत धन की आवश्यकता पड़ेगी। धन की इतनी मात्रा एक विकासशील देश के लिए जुटा पाना सम्भव नहीं जान पड़ता। पर यह भी सच है कि अन्य क्षेत्रों में लगाये जाने वाले धन की कटौती करके, फिलहाल शिक्षा-क्षेत्र में नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए खर्च करना देश के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए जरूरी है। शुरू की कठिनाइयाँ बाद के लिए लाभकारी सुविधाएँ ही सिद्ध होंगी।
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