UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 8 विश्ववन्द्याः कवयः

By | June 4, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 8 विश्ववन्द्याः कवयः

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 8 विश्ववन्द्याः कवयः

श्लोकों का ससन्दर्भ अनुवाद

वाल्मीकिः

(1) कवीन्दं नौमि ……………………… कोविदाः।।

[ कवीन्दु (कवि +इन्दुम्) = कविरूपी चन्द्रमा क़ो। नौमि – नमस्कार करता हूँ। चन्द्रिकामिव (चन्द्रिकाम् + इव) = चाँदनी के सदृश। चिन्वन्ति = चुनते हैं, चुगते हैं। कोविदाः = विद्वान् लोग।]

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘विश्ववन्द्याः कवयः’ नामक पाठ के ‘वाल्मीकिः’ शीर्षक से उधृत है। इसमें आदिकवि वाल्मीकि की वन्दना की गयी है।

[विशेष – इस पाठ के ‘वाल्मीकिः’ शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

अनुवाद – मैं कवियों में चन्द्रमा के सदृश वाल्मीकि को नमस्कार करता हूँ, जिनकी रामायण की कथा का विद्वान् लोग उसी प्रकार रसपान करते हैं, जैसे चकोर चाँदनी का (रसपान) करते हैं।

(2) वाल्मीकिकविसिंहस्य ………………………. पदम् ।।

[ कवितावनचारिणः = कवितारूपी वन में विचरण करने वाले (सिंह)। शृण्वन् = सुनते हुए। याति = प्राप्त होता है। परं पदम् = मोक्ष को।]

अनुवाद – कवितारूपी वन में विचरण करने वाले कवि वाल्मीकिरूपी सिंह की रामकथारूपी गर्जन (घोष) को सुनकर कौन (ऐसा व्यक्ति है, जो) मोक्ष प्राप्त नहीं करता (अर्थात् रामकथा सुनकर सभी लोग मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं)।

(3) कूजन्तं ………………………. वाल्मीकिकोकिलम् ।।

[कूजन्तम = कूजते (बोलते) हुए। रामरामेति (राम-राम +इति) = राम-राम यह (कूजते हुए)| आरुह्य = चढ़कर। कोकिल = पुस्कोकिल (नर कोयल, इसी का कण्ठ मधुर होता है, मादा का नहीं। मादा को
‘कोकिला’ कहते हैं।)]

अनुवाद – कवितारूपी शाखा (डाली) पर चढ़कर मधुर-मधुर अक्षरों में (मधुर ध्वनि से) ‘राम-राम’ शब्द का कूजन करते हुए वाल्मीकिरूपी कोकिल (नर कोयल) की मैं वन्दना करता हूँ।

विशेष – आशय यह है कि महर्षि वाल्मीकि-रचित ‘रामायण’ कोकिल स्वर के समान मधुर है, जिसमें ‘श्रीराम के नाम-स्मरणपूर्वक उनके सुन्दर चरित्र का गायन किया गया है (कोकिल जिस प्रकार वृक्ष की शाखा पर बैठकर पंचम स्वर में बोलता है, वैसे ही वाल्मीकि ने कवितारूपी शाखा पर बैठकर कूजन किया।)

व्यासः

(1) श्रवणाञ्जलिपुटपेयं ………………………. वन्दे।।

[ श्रवणाञ्जलिपुटपेयम् (श्रवण +अञ्जलिपुट +पेयम्) = कानरूपी अंजलिपुट (दोनों हाथों को मिलाकर बड़े दोने के आकार का रूप देना, जिससे जल आदि पीते हैं) से पीने योग्य विरचितवान् = रचा। भारताख्यममृतम् (भारत + आख्यम् + अमृतम्) – महाभारत नामक अमृता तमहमरागमकृष्णम् (तम् +अहम् +अरागम् +अकृष्णम्) =राग (आसक्ति) और कल्मष या पाप (कृष्णम्) से रहित उन (व्यास) को मैं।]

सन्दर्भ – यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘विश्ववन्द्याः कवयः’ नामक पाठ के ‘व्यासः’ शीर्षक से उद्धृत है। इसमें कृष्णद्वैपायन व्यास की वन्दना की गयी है।

अनुवाद – मैं उन कृष्णद्वैपायन (व्यासदेव) की वन्दना करता हूँ, जो राग (द्वेष) और पाप से रहित हैं तथा जिन्होंने कानरूपी अञ्जलि द्वारा पीये जाने योग्य महाभारत नामक अमृत की सृष्टि की है। (आशय यह है कि जिस प्रकार प्यासा आदमी अंजलि से पानी पीकर पूर्ण तृप्त हो जाता है, उसी प्रकार निष्पाप व्यास जी द्वारा रचित महाभारत भी ऐसा अमृतमय है कि उसे कानों से मन भरकर सुनने से हृदय परम तृप्ति का अनुभव करता है।)

विशेष – कवि ने ‘अकृष्णं कृष्णद्वैपायनं’ में जो कृष्ण (काला या कल्मषयुक्त) नहीं है, फिर भी कृष्ण नामधारी है, में विरोधाभास का चमत्कार प्रदर्शित किया है।

(2) नमः सर्वविदे तस्मै …………………… भारतम्।।

[सर्वविदे = सब कुछ जानने वाले (सर्वज्ञ) को। कविवेधसे = कविरूपी ब्रह्मा को (वेधस् = ब्रह्मा)। सरस्वत्या = वाणी द्वारा, सरस्वती नदी द्वारा (सरस्वती नदी का वेदों में उत्कृष्ट वर्णन है। वह अतीव पुण्यमयी मानी गयी है)। वर्षमिव (वर्षम् +इव) = भारतवर्ष के सदृश। भारतम् = महाभारत को।]

सन्दर्भ – पूर्ववत्।।

अनुवाद – मैं उन सर्वज्ञ कवि ब्रह्मा श्री व्यास जी को नमने करता हूँ, जिन्होंने अपनी वाणी से पुण्यतम ‘महाभारत’ की रचना उसी प्रकार की है, जिस प्रकार ब्रह्मा ने सरस्वती नदी द्वारा भारत को पुण्यभूमि बना दिया है। ( भाव यहें है कि ब्रह्माजी ने जिस प्रकार पुण्यतोया सरस्वती की सृष्टि द्वारा भारत देश को पुण्यभूमि बना दिया, उसी प्रकार व्यास जी ने भी अपनी वाणी के बल पर महाभारत काव्य को पुण्यमय बना दिया।)

विशेष – महर्षि वेदव्यास ने ‘महाभारत’ में धर्म के सच्चे स्वरूप का उद्घाटन किया है, जिसे पढ़कर लोग धर्माचरण करना सीखें और पुण्यसंचय द्वारा मोक्ष प्राप्त करें।

(3) नमोस्तु ते ……………………… प्रदीपः।।

[फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः (फुल्ल +अरविन्द +आयत +पत्रनेत्रः) = खिले हुए कमल की चौड़ी पंखुड़ी के सदृश (विशाल) नेत्र वाले (हे व्यासदेव)! भारत= महाभारत प्रज्वालितः = जलाया। ज्ञानमयः = ज्ञान से परिपूर्ण।]

सन्दर्भ – पूर्ववत्।

अनुवाद – खिले हुए कमल की चौड़ी पंखुड़ियों के सदृश (विशाल) नेत्र वाले विराट् बुद्धि वाले हे व्यासदेव! आपको नमस्कार है, जिन आपने ‘महाभारत’ रूपी तेल से पूर्ण ज्ञानमय दीपक जलाया है। (आशय यह है कि दीपक जिस प्रकार अन्धकार को दूर करके मनुष्य को रास्ता दिखाता है, दीपक में भरा तेल ही उस दीपक द्वारा प्रकाश देता है, उसी प्रकार महाभारत में ज्ञानरूपी तेल है, जो लोगों का हमेशा मार्गदर्शन करता रहेगा। उसी प्रकार बुद्धि वाले श्री व्यासदेव ने ‘महाभारत’ के रूप में सदा तेल से भरे रहने वाले ऐसे दीपक को जलाया है, जो मनुष्यों के अज्ञानान्धकार को दूर कर उन्हें निरन्तर ज्ञानरूपी प्रकाश देता रहेगा)।

विशेष – ‘महाभारत’ एक ऐसे विशाल महासागर के समान है, जिसमें विश्व का सारा ज्ञान भर दिया गया है, इसीलिए इसके विषय में कहा गया है कि यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्’ (जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है), अर्थात् संसार में जो कुछ भी जानने योग्य है, वह सब इसमें है। यह दावा विश्व के किसी भी अन्य ग्रन्थ के लिए नहीं किया जा सकता।

कालिदासः

(1) पुरा कवीनां ………………………… बभूव ।।

[पुरा = प्राचीनकाल में। कवीनां गणनाप्रसङ्ग – कवियों की गिनती के प्रसंग में (अर्थात् कौन कवि सर्वश्रेष्ठ है और कौन द्वितीय स्थान पर है, कौन तृतीय स्थान पर-इस प्रकार की गणना या कवियों के वरिष्ठता-क्रम को तय करने के अवसर पर)। कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः (कनिष्ठिका +अधिष्ठित +कालिदासः) = सबसे छोटी अँगुली पर कालिदास का नाम रखा गया (किसी वस्तु की गणना करते समय सबसे पहली गिनती सबसे छोटी अँगुली पर अँगूठा रखकर ही होती है कि पहला अमुक और तब दूसरे स्थान के लिए अनामिका पर अँगूठा छुआया जाता है। तीसरे के लिए मध्यमा और चौथे के लिए तर्जनी का प्रयोग किया जाता है। यह लोक-व्यवहार से सिद्ध है)। अद्यापि (अद्य + अपि) = आज तक भी। ततुल्यकवेरभावादनामिका (तत् +तुल्य कवेः +अभावात् +अनामिका) =उसके (कालिदास के) तुल्य (बराबरी के) कवि के अभाव के कारण (कनिष्ठिका से अगली अँगुली का नाम) अनामिका (अर्थात् बिना नाम वाली)। सार्थवती = सार्थक। बभूव = हुआ।]

सन्दर्भ – यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के विश्ववन्द्याः कवयः’ नामक पाठ के ‘कालिदासः’ शीर्षक खण्ड से उद्धृत है। इसमें कालिदास की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है।

अनुवाद – (कभी) प्राचीनकाल में कवियों की ( श्रेष्ठता की) गणना के अवसर पर (सबसे पहले) कनिष्ठिका पर कालिदास का नाम गिना गया। आज तक उनके जोड़ के दूसरे कवि के अभाव के कारण (कनिष्ठिका से अगली अँगुली का नाम) अनामिका (बिना नाम वाली) पड़ना सार्थक हुआ अर्थात् आज भी कालिदास के समान दूसरा कवि नहीं है।

विशेष – कनिष्ठिका से अगली अँगुली का नाम ‘अनामिका’ तो प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। कवि की सूझ इसमें है कि उसने कालिदास की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कवियों की गणना के प्रसंग में इस अँगुली का नाम ‘अनामिका’ पड़ने की कल्पना की। यह हेतूत्प्रेक्षा का चमत्कार है।

(2) कालिदासगिरां …………………….. मादृशाः ।।

[कालिदासगिराम = कालिदास की वाणी (या कविता) को। विदुः = जानते हैं। नान्ये (न +अन्ये) = दूसरे नहीं। मादृशाः = मुझ सदृश (अल्पज्ञ)। ]

सन्दर्भ – पूर्ववत्।

अनुवाद – कालिदास की वाणी के सारे (अर्थात् मर्म) को या तो स्वयं कालिदास जानते हैं या (भगवती) सरस्वती या चतुर्मुख (चार मुख वाले) ब्रह्मा। मुझ जैसे अन्य (अल्पज्ञ) नहीं जानते।

विशेष – कालिदास इतनी अलौकिक प्रतिभा से सम्पन्न कवि थे कि उनकी सरल-सी दिखाई पड़ने वाली कविता भी इतने गूढ़ और नित्य नवीन अर्थों की व्यंजना करती है कि उसके मर्म को (अर्थात् कवि के मन्तव्य को) स्वयं कालिदास अथवा सरस्वती या ब्रह्मा ही समझ सकते हैं। वह अन्य किसी के सामर्थ्य की बात नहीं।

(3) निर्गतासु …………………….. जायते।।

[ मधुरसान्द्रासु-मधुर (प्रिय लगने वाली) और सान्द्र (मृदु, कोमल)। मञ्जरीष्विव (मञ्जरीषु +इव)= आम्रमंजरियों के सदृश। सूक्तिषु = सुन्दर वचनों के निर्गतासु = निकलने पर, उच्चरित होने पर।
कस्य वा प्रीतिः न जायते = भला किसको आह्लाद उत्पन्न नहीं होता ? (अर्थात् सभी को होता है।)]

सन्दर्भ – पूर्ववत्।

अनुवाद – नयी निकली हुई (निर्गताः) मधुर (मकरन्द से पूरित) और सान्द्र (घनी सुगन्ध वाली) आम्रमंजरियों के सदृश कालिदास की मधुर (कर्णप्रिय) और सान्द्र (सरस) सूक्तियाँ उच्चारणमात्र से (निर्गतासु) किसे आनन्दित नहीं करतीं। जिस प्रकार सुगन्धित मंजरियाँ; मधुर मकरन्द से पूरित होकर निकलते ही सर्वत्र सुगन्धि फैला देती हैं, वैसे ही कालिदास की मधुर सूक्तियों के उच्चारणमात्र से ही जनसामान्य आनन्दित हो उठता है।

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