UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 4 गोस्वामी तुलसीदास

By | June 4, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 4 गोस्वामी तुलसीदास

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 4 गोस्वामी तुलसीदास

कवि-परिचय एवं काव्यगत विशेषताएँ

प्रश्न:
तुलसीदास का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
या
तुलसीदास जी की काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
तुलसीदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का नामोल्लेख कीजिए एवं साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय – गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532) भाद्रपद, शुक्ल एकादशी को राजापुर (जिला बाँदा) के सरयूपारीण ब्राह्मण-कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। जन्म के थोड़े दिनों बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया और अभुक्त मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण पिता ने भी इनको त्याग कर दिया। पिता द्वारा त्याग दिये जाने पर वे अनाथ के समान घूमने लगे। इन्होंने कवितावली में स्वयं लिखा है-“बारे तै ललात बिललात द्वार-द्वारे दीन, चाहते हो चारि फल चारि ही चनक को।” इसी दशा में इनकी भेंट रामानन्दीय सम्प्रदाय के साधु नरहरिदास से हुई, जिन्होंने इन्हें साथ लेकर विभिन्न तीर्थों का भ्रमण किया। तुलसीदास जी ने अपने इन्हीं गुरु का स्मरण इस पंक्ति में किया है-‘बन्दी गुरुपद कंज कृपासिन्धु नर-रूप हरि।’ तीर्थाटन से लौटकर काशी में इन्होंने तत्कालीन विख्यात विद्वान् शेषसनातन जी से 15 वर्ष तक वेद, शास्त्र, दर्शन, पुराण आदि का गम्भीर अध्ययन किया। फिर अपने जन्म-स्थान के दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से विवाह किया। तुलसी अपनी सुन्दर पत्नी पर पूरी तरह आसक्त थे। पत्नी के ही एक व्यंग्य से आहत होकर ये घर-बार छोड़कर काशी में आये और संन्यासी हो गये।

लगभग 20 वर्षों तक इन्होंने समस्त भारत का व्यापक भ्रमण किया, जिससे इन्हें समाज को निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ये कभी चित्रकूट, कभी अयोध्या और कभी काशी में निवास करते रहे। जीवन का अधिकांश समय इन्होंने काशी में बिताया और यहीं संवत् 1680(सन् 1623 ई०) में असी घाट पर परमधाम को सिधारे। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह दोहा प्रचलित है-

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ॥

कृतियाँ – गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित 37 ग्रन्थ माने जाते हैं, किन्तु प्रामाणिक ग्रन्थ 12 ही मान्य हैं, जिनमें पाँच प्रमुख है – श्रीरामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली। अन्य ग्रन्थ हैं—बरवै रामायण, रामलला नहछु, कृष्ण गीतावली, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामाज्ञा प्रश्नावली।

काव्यगत विशेषताएँ

भावपक्ष की विशेषताएँ
युगीन परिस्थिति एवं गोस्वामी जी का योगदान – तुलसीदास जिस काल में उत्पन्न हुए, उस समय हिन्दू-जाति धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक अधोगति को पहुँच चुकी थी। हिन्दुओं का धर्म और आत्म-सम्मान यवनों के अत्याचारों से कुचला जा रहा था। सब ओर निराशा का वातावरण व्याप्त था। ऐसे समय में अवतरित होकर गोस्वामी जी ने जनता के सामने भगवान् राम का लोकरक्षक रूप प्रस्तुत किया, जिन्होंने यवन शासकों से कहीं अधिक शक्तिशाली रावण को केवल वानर-भालुओं के सहारे ही कुलसहित नष्ट कर दिया था।

रामराज्य के रूप में एक आदर्श राज्य की कल्पना – तुलसीदास ने एक आदर्श राज्य की कल्पना रामराज्य के रूप में लोगों के सामने रखी। इस आदर्श राज्य का आधार है-आदर्श परिवार। मनुष्य को चरित्र-निर्माण की शिक्षा परिवार में ही सबसे पहले मिलती है। उन्होंने ‘श्रीरामचरितमानस के द्वारा व्यक्ति के स्तर से लेकर, समाज और राज्य तक के समस्त अंगों का आदर्श रूप प्रस्तुत किया और इस प्रकार निराश जनसमाज को प्रेरणा देकर रामराज्य के चरम आदर्श तक पहुँचने का मार्ग दिखाया।

लोकभाषा को ग्रहण – तुलसीदास ने पण्डितों की भाषा संस्कृत के स्थान पर जनता की भाषा में अपना ग्रन्थ रची, जिससे राजा से रंक तक सबको अपना जीवन सुधारने का सम्बल (सहारा) प्राप्त हुआ। ‘मानस’ में समस्त वेद, पुराण, शास्त्र एवं काव्यग्रन्थों का निचोड़ सरल-से-सरल रीति से प्रस्तुत किया गया है। धर्म की दृष्टि से यदि यह महान् धर्मग्रन्थ है तो साहित्य की दृष्टि से यह एक अतीव रोचक एवं मनोरंजक कथा भी है। ऐसे अद्भुत ग्रन्थ संसार के साहित्य में विरल ही हैं।

भक्ति-भावना – गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति दास्यभाव की थी, जिसमें स्वामी को पूर्ण समर्पित एवं अनन्य भाव से भजा जाता है। तुलसी के राम शक्ति, शील और सौन्दर्य तीनों के चरम उत्कर्ष हैं। तुलसी ने चातक को प्रेम का आदर्श माना है

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

समन्वय-भावना – तुलसी द्वारा राम के चरित्र-चित्रण में मानव-जीवन के सभी पक्षों एवं सूक्ष्म-से- सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने भक्ति, ज्ञान और कर्म तीनों में सामंजस्य स्थापित किया। शिव और राम को एक-दूसरे का उपास्य-उपासक बताकर इन्होंने उस काल में बढ़ते हुए शैव-वैष्णव-विद्वेष को समाप्त किया।

तुलसी का वैशिष्ट्य – यद्यपि नम्रतावश तुलसी ने अपने को कवि नहीं माना, पर काव्यशास्त्र के सभी लक्षणों से युक्त इनकी रचनाएँ हिन्दी का गौरव हैं। प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों की रचना में इन्हें अद्वितीय सफलता मिली है। ‘मानस’ में कथा-संघटन, चरित्र-चित्रण, मार्मिक स्थलों की पहचान, संवादों की सरसता आदि सभी कुछ अद्भुत हैं।

रस-योजना – तुलसी के काव्य में नव-रसों की बड़ी हृदयग्राही योजना मिलती है। श्रृंगार का जैसा मर्यादित वर्णन इन्होंने किया है, वैसा आज तक किसी दूसरे कवि से न बन पड़ा। जनक-वाटिका में राम-सीता का प्रथम मिलन द्रष्टव्य है

अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा। सिय-मुख-ससि भये नयन चकोरा ।।
भये बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल ॥

स्वामी-सेवक भाव की भक्ति में विनय और दीनता का स्वाभाविक योग रहता है। विनय और दीनता का भाव तुलसी में चरम सीमा तक पहुँच गया है। अत्यन्त दीन भाव से वे राम को विनय से पूर्ण पत्रिका लिखते हैं। वीर रस का उल्लेख भरत के चित्रकूट जाते समय निषादराज के वचन में मिलता है। रौद्र रस का वर्णन कैकेयी-दशरथ-प्रसंग में एवं भरत के चित्रकूट पहुँचने के समाचार पर लक्ष्मण के कोप के रूप में मिलता है। इसके अतिरिक्त ‘कवितावली’ के सुन्दरकाण्ड और युद्धकाण्ड में इसकी प्रभावशाली व्यंजना हुई है।

प्रकृति-वर्णन – अपने काव्य में तुलसी ने प्रकृति के अनेक मनोहारी दृश्य चित्रित किये हैं। इनके काव्य में प्रकृति उद्दीपन, आलम्बन, उपदेशात्मक, आलंकारिक एवं मानवीय रूपों में उपस्थित हुई है। प्रकृति का एक रमणीय चित्र देखिए

बोलत जल कुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥

कल्याण-भावना एवं स्वान्तःसुखाय रचना – तुलसीदास ने अपने सुख के लिए काव्य-रचना की है। उन्हें क्योंकि श्रीराम प्रिय थे, इसलिए उन्होंने अपने मन के सुख के लिए राम और उनके चरणों का गुणगान अपने काव्य में किया।

संगीतज्ञता – राग-रागिनियों में गाये जाने योग्य अगणित सरस पदों की रचना करके तुलसी ने अपने उच्चकोटि के संगीतज्ञ होने का प्रमाण भी दे दिया।

कलापक्ष की विशेषताएँ

भाषा – गोस्वामी जी ने अपने समय की प्रचलित दोनों काव्य भाषाओं-अवधी और ब्रज में समान अधिकार से रचना की है। यदि ‘श्रीरामचरितमानस’, ‘रामलला नहछु’, ‘बरवै रामायण’, ‘जानकी मंगल’ और ‘पार्वती मंगल’ में अवधी की अद्भुत मिठास है तो विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’ में मॅझी हुई ब्रजभाषा का सौन्दर्य देखते ही बनता है। भाषा शुद्धं, संस्कृतनिष्ठ तथा प्रसंगानुसारिणी है।

संवाद-योजना – गोस्वामी जी ने अपने काव्य को नाटकीयता प्रदान करने के लिए जिन साधनों का उपयोग किया है, उनमें संवाद-योजना सबसे प्रमुख है। अयोध्याकाण्ड संवादों की दृष्टि से विशेष समृद्ध है, जिसमें कैकेयी-मन्थरा-संवाद, कैकेयी-दशरथ-संवाद, राम-कौशल्या-संवाद, राम-सीता-संवाद, राम-लक्ष्मणसंवाद, केवट-राम-संवाद तथा चित्रकूट के मार्ग में ग्रामवधूटियों का संवाद। इन सभी संवादों में विभिन्न परिस्थितियों में पड़े भिन्न-भिन्न पात्रों के मनोभावों के सूक्ष्म उतार-चढ़ाव का बड़ी विदग्धता से चित्रण किया गया है। कैकेयी-मन्थरा-संवाद तो अपनी मनोवैज्ञानिकता के लिए विशेष विख्यात है।

शैली – गोस्वामी जी के समय तक जिन पाँच प्रकार की शैलियों में काव्य-रचना होती थी, वे थीं-
(1) भाटों की कवित्त-सवैया शैली,
(2) रहीम की बरवै शैली,
(3) जायसी की दोहा-चौपाई शैली,
(4) सूर की गेय-पद (गीतिकाव्य) शैली,
(5) वीरगाथाकाल की छप्पय शैली। गोस्वामी जी ने अद्भुत अधिकार से सभी शैलियों में सफल काव्य-रचना की।

रसानुरूप शैली के प्रयोग की दृष्टि से तुलसी अनुपम हैं। रति, करुणा आदि कोमल भावों की व्यंजना में उन्होंने प्रायः समासरहित, मधुर, कोमलकान्त पदावली का व्यवहार किया है, जब कि वीर, रौद्र, वीभत्स आदि रसों के प्रसंग में समासयुक्त एवं कठोर पदावली का प्रयोग किया है। शब्दों की ध्वनिमात्र से तुलसी कठोर-से-कठोर एवं मृदुल-से-मृदुल भावों एवं दृश्यों का साक्षात्कार कराने में बड़े कुशल हैं।

छन्द-प्रयोग – तुलसीदास छन्दशास्त्र के पारंगत विद्वान् थे। उन्होंने विविध छन्दों में काव्य-रचना की है। ‘अयोध्याकाण्ड में गोस्वामी जी ने दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका छन्दों का प्रयोग किया है। चौपाई छन्द कथा-प्रवाह को बढ़ाते चलने के लिए बहुत उपयोगी होता है। दोहा या सोरठा इस प्रवाह को सुखद विश्राम प्रदान करते हैं। हरिगीतिका छन्द वैविध्य प्रदान करे वातावरण की सृष्टि में सहायक सिद्ध होता है।

अलंकार-विधान – अलंकारों का विधान वस्तुत: रूप, गुण, क्रिया का प्रभाव तीव्र करने के लिए होना चाहिए न कि चमत्कार-प्रदर्शन के लिए। गोस्वामी जी का अलंकार-विधान बड़ा ही सहज और हृदयग्राही बन पड़ा है, जो रूप, गुण व क्रिया का प्रभाव तीव्र करता है। निम्नांकित उद्धरण में अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है

कलिकाल बेहाल किये मनुजा। नहिं मानत कोई अनुजा तनुजा॥

अलंकारों में गोस्वामी जी के सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं-उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक। संस्कृत में कालिदास की उपमाएँ विख्यात हैं। तुलसी अपनी कुछ श्रेष्ठ उपमाओं में कालिदास से भी बाजी मार ले गये हैं

अबला कच भूषण भूरि छुधा। धनहीन दुःखी ममता बहुधा।।

इसके अतिरिक्त इन्होंने सन्देह, प्रतीप, उल्लेख, व्यतिरेक, परिणाम, अन्वय, श्लेष, असंगति, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग भी किये हैं।

साहित्य में स्थान – इस प्रकार रस, भाषा, छन्द, अलंकार, नाटकीयता, संवाद-कौशल आदि सभी दृष्टियों से तुलसी का काव्य अद्वितीय है। कविता-कामिनी उनको पाकर धन्य हो गयी। हरिऔध जी की निम्नलिखित उक्ति उनके विषय में बिल्कुल सत्य है

“कविता करके तुलसी न लसे। कविता लसी पा तुलसी की कला॥”

पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न-निम्नलिखित पद्यांशों के आधार पर उनसे सम्बन्धित दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

भरत-महिमा

प्रश्न 1:
भायप भगति भरत आचरनू । कहत सुनत दुख दूषन हरनू ।।
जो किछु कहब थोर सखि सोई । राम बंधु अस काहे न होई ।।
हम सब सानुज भरतहिं देखें । भइन्हें धन्य जुबती जन लेखें ।।
सुनि गुनि देखि दसा पर्छिताहीं । कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं ।।
कोउ कह दूषनु रानिहि नहिन । बिधि सबु कीन्ह हमहिं जो दाहिन ।।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी ।. लघु तिय कुल करतूति मलीनी ।।
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा । कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा ।।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा । जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ।।
तेहि बासर बसि प्रातहीं, चले सुमिरि रघुनाथ ।
राम दूरस की लालसा, भरत सरिस सब साथ ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) भरत किसे मनाने के लिए पैदल ही फलाहार करते हुए जा रहे हैं?
(iv) किसके आचरण का वर्णन करने और सुनने से दुःख दूर हो जाते हैं।
(v) भरत को देखकर कैसा आश्चर्य और आनन्द गाँव-गाँव में हो रहा है?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत पद्य भक्तप्रवर गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘भरत-महिमा’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम – भरत-महिमा।
कवि का नाम – तुलसीदास।
[संकेत-इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।]
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही रघुनाथ जी का स्मरण करके भरत जी चले। साथ के सभी लोगों को भी भरत जी के समान ही श्रीराम जी के दर्शन की लालसा लगी हुई है। इसीलिए सभी लोग शीघ्रातिशीघ्र श्रीराम के समीप पहुँचना चाहते हैं।
(iii) भरत राम को मनाकर अयोध्या वापस लौटा लाने के लिए पैदल ही फलाहार करते हुए चित्रकूट जा रहे
(iv) भरत के प्रेम, भक्ति भ्रात-स्नेह का सुन्दर वर्णन करने और सुनने से दु:ख दूर हो जाते हैं।
(v) भरत को देखकर ऐसा आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रही है मानो मरुभूमि में कल्पतरु उग आया हो।

प्रश्न 2:
तिमिरु तरुन तरनिहिं मकु गिलई । गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी । सहज छमा बरु छाड़े छोनी ।।
मसक फूक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमद् भरतहिं पाई ।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना । सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता । मिलई रचइ परपंचु बिधाता ।।
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा ।।
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी । निज जस जगत कीन्हि उजियारी ।।
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ । पेम पयोधि मगन रघुराऊ ।।

सुनि रघुबर बानी बिबुध, देखि भरत पर हेतु।
सकल संराहत राम सो, प्रभु को कृपानिकेतु ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) श्रीराम लक्ष्मण से उनकी और पिता की सौगन्ध खाकर क्या कहते हैं?
(iv) सूर्यवंशरूपी तालाब में हंसरूप में किसने जन्म लिया है?
(v) श्रीराम की वाणी सुनकर तथा भरत जी पर उनका प्रेम देखकर देवतागण उनकी कैसी सराहना करने लगे?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – श्रीराम लक्ष्मण को समझाते हुए कहते हैं कि अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए, आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए, गौ के खुर जितने जल में चाहे अगस्त्य जी डूब जाएँ, पृथ्वी चाहे अपमी स्वाभाविक सहनशीलता को छोड़ दे और मच्छर की फेंक से सुमेरु पर्वत उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को रोजमर्द कभी नहीं हो सकता।
(iii) गुरु वशिष्ठ के आगमन का समाचार सुनकर श्रीराम उनके दर्शन के लिए वेग के साथ चल पड़े।
(iv) राम का सखा जानकर वशिष्ठ जी ने निषादराज को जबरदस्ती गले से लगा लिया।
(v) श्रीराम की सराहना करते हुए देवतागण कहने लगे कि श्रीरघुनाथ जी का हृदय भक्ति और सुन्दर मंगलों का मूल है।

कवितावली

लंका-दहन

प्रश्न 1:
बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है ।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उघारी है ।।
तुलसी सुरेस चाप, कैधौं दामिनी कलाप,
कैंधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है ।
देखे जातुधान जातुधानीः अकुलानी कहैं,
“कानन उजायौ अब नगर प्रजारी है ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किसे देखकर लगता है मानो लंका को निगलने के लिए काल ने अपनी जील्ला फैलाई है।
(iv) हनुमान जी के विकराल रूप को देखकर निशाचर और निशाचरियाँ व्याकुल होकर क्या कहती
(v) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस रस में मुखरित हुई हैं।
उत्तर:
(i) प्रस्तुत पद कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘कवितावली’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘लंका-दहन’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम – लंका-दहन।
कवि का नाम – तुलसीदास।
[संकेत – इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।]

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी की विशाल पूँछ से अग्नि की भयंकर लपटें उठ रही थीं। अग्नि की उन लपटों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो लंका
को निगलने के लिए स्वयं काल अर्थात् मृत्यु के देवता ने अपनी जिह्वा फैला दी हो। ऐसा प्रतीत होता था जैसे आकाश-मार्ग में अनेकानेक पुच्छल तारे भरे हुए हों।
(iii) हनुमान जी की विशाल पूँछ से निकलती हुई भयंकर लपटों को देखकर लगता है मानो लंका को निगलने के लिए काल ने अपनी जिह्वा फैलाई है।
(iv) हनुमान जी के विकराल रूप को देखकर निशाचर और निशाचरियाँ व्याकुल होकर कहती हैं कि इस वानर ने अशोक वाटिका को उजाड़ा था, अब नगर जला रहा है; अब भगवान ही हमारा रक्षक है।
(v) प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘भयानक रस’ में मुखरित हुई हैं।

प्रश्न 2:
लपट कराल ज्वाल-जाल-माल दहूँ दिसि,
अकुलाने पहिचाने कौन काहि रे ?
पानी को ललात, बिललात, जरे’ गात जाते,
परे पाइमाल जात, “भ्रात! तू निबाहि रे” ।।
प्रिया तू पराहि, नाथ नाथ तू पराहि बाप
बाप! तू पराहि, पूत पूत, तू पराहि रे” ।
तुलसी बिलोकि लोग ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे’ ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किस कारण कोई किसी को नहीं पहचान रहा है?
(iv) चारों ओर भयंकर आग और धुएँ से परेशान लोग रावण से क्या कहते हैं?
(v) ‘पानी को ललात, बिललात, जरे गात जाता’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – लंकानिवासी राजा रावण को कोसते हुए कह रहे हैं कि हे दस मुखों वाले रावण! अब तुम अपने सभी मुखों से लंकानगरी के विनाश का यह स्वाद स्वयं चखकर देखो। इस विनाश को अपनी बीस आँखों से भलीभाँति देखो और अपने मस्तिष्क से विचार करो कि तुम्हारे द्वारा बलपूर्वक किसी दूसरे की स्त्री का हरण करके कितना अनुचित कार्य किया गया है। अब तो तुम्हारी आँखें अवश्य ही खुलं जानी चाहिए, क्योंकि तुमने उसके पक्ष के एक सामान्य से वानर के द्वारा की गयी विनाश-लीला का दृश्य अपनी बीस आँखों से स्वयं देख लिया है।
(iii) दसों दिशाओं में विशाल अग्नि-समूह की भयंकर लपटें तथा धुएँ के कारण कोई किसी को नहीं पहचान रही है।
(iv) चारों ओर आग और धुएँ से परेशान लोग रावण से कहते हैं कि हे रावण! अब अपनी करतूत का फल बीसों आँखों से देख ले।
(v) अनुप्रास अलंकार।

गीतावली

प्रश्न 1:
मेरो सब पुरुषारथ थाको ।
बिपति-बँटावन बंधु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको ?
सुनु सुग्रीव साँचेहूँ मोपर फेर्यो बदन बिधाता ।।
ऐसे समय समर-संकट हौं तज्यो लखन सो भ्राता ।।
गिरि कानन जैहैं साखामृग, हौं पुनि अनुज सँघाती ।
हैहैं कहा बिभीषन की गति, रही सोच भरि छाती ।।
तुलसी सुनि प्रभु-बचन भालु कपि सकल बिकल हिय हारे ।
जामवंत हनुमंत बोलि तब औसर जानि प्रचारे ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किस कारण विलाप करते हुए श्रीराम अपना पुरुषार्थ थका हुआ बताते हैं?
(iv) हनुमान जी को सुषेण वैद्य को लाने की सलाह किसने दी?
(v) ‘बिपति-बँटावन बंधु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको?” पंक्ति में कौन-सा अलंकार होगा?
उत्तर:
(i) यह पद तुलसीदास जी द्वारा विरचित ‘गीतावली’ नामक रचना से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘गीतावली’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम – गीतावली।
कवि का नाम –  तुलसीदास।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – श्रीराम कहते हैं कि मेरे हृदय में यही सोच भरा हुआ है कि विभीषण | की क्या गति होगी? जिस विभीषण को शरण देकर मैंने उसे लंका का राजा बनाने का निश्चय किया था, मेरी वह प्रतिज्ञा कैसे पूरी होगी?
(iii) लक्ष्मण श्रीराम की दायीं भुजा के समान थे किन्तु उनके शक्ति लगने के कारण श्रीराम विलाप करते हुए अपना पुरुषार्थ थका हुआ बताते हैं।
(iv) हनुमान जी को सुषेण वैद्य को लाने की सलाह जामवंत ने दी।
(v) अनुप्रास अलंकार।

दोहावली

प्रश्न 1:
हरो चरहिं तापहिं बरत, फरे पसारहिं हाथ ।
तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ ॥

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पशु-पक्षी कैसे वृक्षों को चरते हैं?
(iv) संसार के लोग कैसा व्यवहार करते हैं?
(v) तुलसीदास ने किसे परमार्थ का साथी बताया है।
उत्तर:
(i) प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘दोहावली’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है। इसके रचयिता भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।
अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम – दोहावली।
कवि का नाम – तुलसीदास।
[संकेत-इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में सभी मित्र और सम्बन्धी स्वार्थ के कारण ही सम्बन्ध रखते हैं। जिस दिन हम उनके स्वार्थ की पूर्ति में असमर्थ हो जाते हैं, उसी दिन सभी व्यक्ति हमें त्यागने में देर नहीं लगाते। इसी प्रसंग में तुलसीदास ने कहा है कि श्रीराम की भक्ति ही परमार्थ का सबसे बड़ा साधन है और श्रीराम ही बिना किसी स्वार्थ के हमारा हित-साधन करते हैं।
(iii) पशु-पक्षी हरे वृक्षों को चरते हैं।
(iv) संसार के लोग स्वार्थपूर्ण व्यवहार करते हैं।
(v) तुलसीदास जी ने श्रीरघुनाथ जी को एकमात्र परमार्थ का साथी बताया है।

प्रश्न 2:
बरषत हरषत लोग सब, करषत लखै न कोइ ।
तुलसी प्रजा-सुभाग ते, भूप भानु सो होइ ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) राजा को किसके समान होना चाहिए?
(iv) सूर्य के द्वारा किसका कर्षण किया जाता है?
(v) ‘भूप भानु सो होइ’ पद्यांश में कौन-सा अलंकार होगा?

उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – प्रायः राजा अपने सुख और वैभव के लिए जनता से कर प्राप्त करते हैं। प्रजा अपने परिश्रम की गाढ़ी कमाई राजा के चरणों में अर्पित कर देती है, किन्तु वही प्रजा सौभाग्यशाली होती है, जिसे सूर्य जैसा राजा मिल जाए। जिस प्रकार सूर्य सौ-गुना जल बरसाने के लिए ही धरती से जल ग्रहण : करता है, उसी प्रकार से प्रजा को और अधिक सुखी करने के लिए ही श्रेष्ठ राजा उससे कर वसूल करता है।
(iii) राजा को सूर्य के समान अर्थात् प्रजापालक होना चाहिए।
(iv) सूर्य द्वारा पृथ्वी से जल का कर्षण किया जाता है।
(v) उपमा अलंकार।

विनय-पत्रिका

प्रश्न 1:
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगी।
श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपा ते संत सुभाव गहौंगो ।
जथालाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो ।
परहित-निरत निरंतर मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ।
परुष बचन अतिदुसह स्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो ।
बिगत मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो ।।
परिहरि देहजनित चिंता, दु:ख सुख समबुद्धि सहौंगो ।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि भक्ति लहौंगो ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइट।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) तुलसीदास जी कैसा स्वभाव ग्रहण करना चाहते हैं?
(iv) तुलसीदास जी कैसे वचन सुनने के बाद भी क्रोध की आग में नहीं जलना चाहते?
(v) ‘संतोष’ शब्द का संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तर:
(i) प्रस्तुत पद भक्त कवि तुलसीदास द्वारा विरचित ‘विनय-पत्रिका’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘विनय-पत्रिका’ शीर्षक से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखिए
शीर्षक का नाम –  विनय-पत्रिका।
कवि का नाम – तुलसीदास
[संकेत-इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि क्या कभी वह दिन आएगा, जब मैं सन्तों की तरह जीवन जीने लगूंगा? क्या तुलसीदास इस मार्ग पर चलकर कभी अटल भगवद्भक्ति प्राप्त कर सकेंगे; अर्थात् क्या कभी हरि-भक्ति प्राप्ति का मेरा मनोरथ पूरा होगा?
(iii) तुलसीदास जी रघुनाथ जी की कृपा से संत स्वभाव ग्रहण करना चाहते हैं।
(iv) तुलसीदास जी कठोर वचन सुनने के बाद भी क्रोध की आग में नहीं जलना चाहते।
(v) संतोष’ शब्द का संधि-विच्छेद है–सम् + तोष।

प्रश्न 2:
अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं ।।
पायो नाम चारु चिंतामनि, उर-कर तें न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं ।
परबस जानि हँस्यौ इन इंद्रिन, निज बस है न हँसैहौं ।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद-कमल बसैहौं ।।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम बताइए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) तुलसीदास जी अब अपने जीवन को किसमें नष्ट नहीं करना चाहते?
(iv) तुलसीदास रामनामरूपी चिन्तामणि को कहाँ बसाना चाहते हैं?
(v) तुलसीदास का कब तक इन्द्रियों ने उपहास किया?
उत्तर:
(i) रेखांकित अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मैंने अब तक अपनी आयु को व्यर्थ के कार्यों में ही नष्ट किया है, परन्तु अब मैं अपनी आयु को इस प्रकार नष्ट नहीं होने दूंगा। उनके कहने का भाव यह है। कि अब उनके अज्ञानान्धकार की राज्ञि समाप्त हो चुकी है और उन्हें सद्ज्ञान प्राप्त हो चुका है; अत: अब वे मोह-माया में लिप्त होने के स्थान पर ईश्वर की भक्ति में ही अपना समय व्यतीत करेंगे और ईश्वर से साक्षात्कार करेंगे। श्रीराम जी की कृपा से संसार रूपी रात्रि बीत चुकी है; अर्थात् मेरी सांसारिक प्रवृत्तियाँ दूर हो गयी हैं; अतः अब जागने पर अर्थात् विरक्ति उत्पन्न होने पर मैं फिर कभी बिछौना न बिछाऊँगा; अर्थात् सांसारिक मोह-माया में न फैंसँगा।
(iii) तुलसीदास जी अब अपना जीवन विषयवासनाओं में नष्ट नहीं करना चाहते।
(iv) तुलसीदास जी रामनामरूपी चिन्तामणि को अपने हृदय में बसाना चाहते हैं।
(v) तुलसीदास जी का मन जब तक विषयवासनाओं का गुलाम रहा तब तक इन्द्रियों ने उनका उपहास किया।

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