UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी

By | June 4, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 3 रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)

प्रश्न 1:
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्यको कथावस्तु (कथानक) का संक्षेप में परिचय लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ के तृतीय सर्ग में कृष्ण और कर्ण के संवाद में दोनों के चरित्र की कौन-सी प्रमुख विशेषताएँ प्रकट हुई हैं ? स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी के सप्तम सर्ग की कथावस्तु का संक्षेप में सोदाहरण वर्णन कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ के पंचम सर्ग में वर्णित कुन्ती-कर्ण के संवाद का सारांश लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ के तृतीय सर्ग के आधार पर श्रीकृष्ण और कर्ण के संवाद को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए।
या
” रश्मिरथी’ के प्रत्येक सर्ग में संवादात्मक स्थल ही सबसे प्रमुख है।” इस कथन का सतर्क विश्लेषण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण और अर्जुन के युद्ध का वर्णन कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के अन्तिम सर्ग की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ की कथा महाभारत से ली गयी है। इस काव्य में परमवीर एवं दानी कर्ण की कथा है। ‘रश्मिरथी के प्रत्येक सर्ग के संवादों में नाटकीयता के गुण विद्यमान हैं। यह नाटकीयता का गुण प्रारम्भ से अन्त तक नाटक के प्रत्येक सर्ग में विद्यमान है। इसमें सरलता, सुबोधता, सुग्राह्यता एवं स्वाभाविकता के साथ-साथ प्रभावशीलता का गुण भी विद्यमान है। कवि ने इस नाटक के संवादों में घटनाओं और परिस्थितियों को भावात्मक धरातल पर सँजोया है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित है, जो संक्षेप में निम्नवत् है

प्रथम सर्ग : कर्ण का शौर्य-प्रदर्शन

प्रथम सर्ग के आरम्भ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुन्ती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसलिए कुन्ती ने लोकलाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान्, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र-मर्मज्ञ बने।

एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र-कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाण-विद्या पर मुग्ध हो गये, किन्तु तभी धनुष-बाण लिये कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उसने अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनौती दी

आँख खोलकर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार।
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार ॥

कर्ण की इस चुनौती से सम्पूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह गयी, तभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत-पुत्र बतलाया। फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं। और उधर कुन्ती भाग्य की दुःखद विडम्बना पर मन मसोसती लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुँचती है।

द्वितीय सर्ग : आश्रमवास

द्वितीय सर्ग का आरम्भ परशुराम के आश्रम-वर्णन से होता है। पाण्डवों के विरोध के कारण द्रोणाचार्य ने जब कर्ण को अपना शिष्य नहीं बनाया तो कर्ण परशुराम के आश्रम में धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण के कवच और कुण्डल देखकर परशुराम ने उसे ब्राह्मण कुमार समझा और अपना शिष्य बना लिया।

एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक विषैला कोट कर्ण की जंघा को काटने लगा। गुरु की निद्रा न खुल जाए, इस कारण कर्ण अपने स्थान से हिला तक नहीं। जंघा से बहते रक्त की धारा के स्पर्श से परशुराम की निद्रा टूट गयी। कर्ण की इस अद्भुत सहनशक्ति को देखकर परशुराम ने कहा कि ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं होती, इसलिए तू अवश्य ही क्षत्रिय या अन्य जाति का है। कर्ण स्वीकार कर लेता है कि मैं सूत-पुत्र हूँ। क्रुद्ध परशुराम ने उसे तुरन्त अपने आश्रम से चले जाने को कहा और शाप दिया कि मैंने तुझे जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलायी है, तू अन्त समय में उसे भूल जाएगा

सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा।
है यह मेरा शाप समय पर, उसे भूल तू जाएगा।

कर्ण गुरु की चरणधूलि लेकर आँसू-भरे नेत्रों से आश्रम छोड़कर चल देता है।

तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश

कौरवों से जुए में हारने के कारण पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास तथा एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा। तेरह वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण कौरवों से सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाते हैं। श्रीकृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परन्तु दुर्योधन ने सन्धि-प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उल्टे श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का असफल प्रयास किया।

दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परन्तु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो; क्योंकि तुम कुन्ती-पुत्र हो। अब तुम ही इस भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग्यपूर्वक पूछता है कि आप आज मुझे कुन्तीपुत्र बताते हो। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति-गोत्रहीन सूत-पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है।

फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को न बताना; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज्य दुर्योधन को दे डालूंगा

धरती की तो है क्या बिसात ?
आ जाये अगर बैकुण्ठ हाथ।
उसको भी न्यौछावर कर दें,
कुरुपति के चरणों पर धर हूँ॥

इतना कहकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है।

इस सर्ग की कथा से जहाँ हमें श्रीकृष्ण के महान् कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्तिसम्पन्न होने की विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है वहीं कर्ण के अन्दर हमें सच्चे मित्र और मित्र के प्रति कृतज्ञ होने के गुण दिखाई पड़ते हैं।

चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा

इस सर्ग में कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया गया है। कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचकों को दान देता था। श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि जब तक कर्ण के पास सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल हैं, तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने आये और कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में माँग लिये। यद्यपि कर्ण ने छद्मवेशी इन्द्र को पहचान लिया, तथापि उसने इन्द्र को कवच और कुण्डल भी दान दे दिये। कर्ण की इस अद्भुत दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन पड़ गया

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला ।
देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला॥

इन्द्र ने कर्ण की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा तथा स्वयं को प्रवंचक, कुटिल वे पापी बताया और कर्ण को एक बार प्रयोग में आने वाला अमोघ एकघ्नी अस्त्र प्रदान किया।

पंचम सर्ग : माता की विनती

इस सर्ग का आरम्भ कुन्ती की चिन्ता से होता है। कुन्ती इस कारण चिन्तित है कि रण में मेरे पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। कुन्ती व्याकुल हो कर्ण से मिलने जाती है। उस समय कर्ण सन्ध्या कर रहा था, आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। उसने कुन्ती को प्रणामकर उसका परिचय पूछा। कुन्ती ने बताया कि तू सूत-पुत्र नहीं मेरा पुत्र है। तेरा जन्म मेरी कोख से तब हुआ था, जब मैं अविवाहिता थी। मैंने लोकलज्जा के भय से तुझे मंजूषा (पेटी) में रखकर नदी में बहा दिया था, परन्तु अब मैं यह सहन नहीं कर सकती कि मेरे ही पुत्र एक-दूसरे से युद्ध करें; अतः मैं तुझसे प्रार्थना करने आयी हूँ कि तुम अपने छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो। कर्ण ने कहा कि मुझे अपने जन्म के विषय में सब कुछ ज्ञात है, परन्तु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ सकता। असहाय कुन्ती ने कहा कि तू सबको दान देता है, क्या अपनी माँ को भीख नहीं दे सकता ?

कर्ण ने कहा कि माँ! मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूँ। मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी पुत्र को नहीं मारूंगा। यदि अर्जुन के हाथों मैं मारा गया तो तुम पाँच पुत्रों की माँ रहोगी ही, परन्तु यदि मैंने युद्ध में अर्जुन को मार दिया तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तब भी तुम पाँच पुत्रों की ही माँ रहोगी। कुन्ती निराश मन लौट आती है

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, दो बिन्दु अश्रु के गिरे दृगों से चूकर।
बेटे का मस्तक सँघ बड़े ही दुःख से, कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से ।

षष्ठ सर्ग : शक्ति-परीक्षण

युद्ध में आहत भीष्म शरशय्या पर पड़े हुए हैं। कर्ण उनसे युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म पितामह उसे नर-संहार रोकने के लिए समझाते हैं, परन्तु कर्ण नहीं मानता और भीषण युद्ध आरम्भ हो जाता है। कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है, किन्तु श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ कर्ण के सामने ही नहीं आने देते; क्योंकि उन्हें भय है कि कर्ण एकघ्नी का प्रयोग करके अर्जुन को मार देगा। अर्जुन को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने भीम-पुत्र घटोत्कच को युद्धभूमि में उतार दिया। घटोत्कच ने घमासान युद्ध किया, जिससे कौरव-सेना त्राहि-त्राहि कर । उठी। अन्ततः दुर्योधन ने कर्ण से कहा

हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का अचिर किसी विधि त्राण करो,
जब नहीं अन्य गति, आँख मूंद एकघ्नी का सन्धान करो।
अरि का मस्तक है दूर, अभी अपनों के सीस बचाओ तो,
जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम, उसमें से हमें छुड़ाओ तो ॥

कर्ण ने भारी नरसंहार करते हुए घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग कर दिया, जिससे घटोत्कच मारा गया। घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से अर्जुन अभय हो गया। आज युद्ध में विजयी होने पर भी कर्ण एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से स्वयं को मन-ही-मन पराजित-सा मान रहा था।

सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा

‘रश्मिरथी’ का यह अन्तिम सर्ग है। कौरव सेनापति कर्ण ने पाण्डवों की सेना पर भीषण आक्रमण किया। कर्ण की गर्जना से पाण्डव सेना में भगदड़ मच जाती है। युधिष्ठिर युद्धभूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है, किन्तु कुन्ती को दिये वचन का स्मरण कर युधिष्ठिर को छोड़ देता है। इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव को भी पकड़-पकड़कर छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य उसके रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण-प्रहार से अर्जुन मूर्च्छित हो जाता है। चेतना लौटने पर श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्तेजित करते हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फँस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। इसी समय श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण-प्रहार करने के लिए कहते हैं

खड़ा है देखता क्या मौन भोले!
शरासन तान, बस अवसर यही है,
घड़ी फिर और मिलने की नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।

कर्ण धर्म की दुहाई देता है तो श्रीकृष्ण उसे कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर देखकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है और कर्ण की मृत्यु हो जाती है। अन्त में युधिष्ठिर आदि सभी कर्ण की मृत्यु पर प्रसन्न हैं, किन्तु श्रीकृष्ण दु:खी हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि क्जिय तो अवश्य मिली, पर मिली मर्यादा खोकर। वास्तव में चरित्र की दृष्टि से तो कर्ण ही विजयी रहा। आप लोग कर्ण को भीष्म और द्रोणाचार्य की भाँति ही सम्मान दीजिए। यहाँ पर इस खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।

विशेष – मुझे इस सर्ग की कथा सर्वाधिक रुचिकर प्रतीत हुई। इस सर्ग में वर्णित कर्ण के शौर्य व साहस की तुलना इतिहास में विरल है। व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किस प्रकार पतित हो जाता है, भले ही वह ‘धर्मराज’ कहलाता हो अथवा ‘भगवान्। यह यहाँ इतनी कलात्मकता से दर्शाया गया है कि मन नि:स्पन्द हो जाती है। अन्त में कर्ण की मृत्यु को जीवन’ और ‘विजय’ से कहीं ऊँचा सिद्ध करते हुए कृष्ण कहते हैं

दया कर शत्रु को भी त्राण देकर, खुशी से मित्रता करे प्राण देकर,
गया है कर्ण भू को दीन करके, मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।
    Χ                              Χ                    Χ
समझकर द्रोण मन में भक्ति भरिए, पितामह की तरह सम्मान कारिए
मनुजता का नया नेता उठा है, जगत् से ज्योति का जेता उठा है।

वस्तुतः कर्ण जैसा व्यक्ति और व्यक्तित्व स्रष्टा ने अभी तक कोई अन्य बनाया ही नहीं। वह अपनी तुलना आप है।]

प्रश्न 2:
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के कथा-संगठन की समीक्षा कीजिए।
या
” ‘रश्मिरथी’ में कवि द्वारा आधुनिक युग की सामाजिक विसंगतियों; जातिवाद और वर्णाश्रम; पर करारा प्रहार किया गया है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के कथा संयोजन पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी’ एक उदात्त और आदर्श भावनाओं का काव्य है। इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में दिनकर ने महाभारतकालीन संगतियों तथा विसंगतियों का सच्चा लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।” स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के कथानक में ऐतिहासिकता और धार्मिकता दोनों हैं। तर्कसहित उत्तर दीजिए।
या
किन विशेषताओं के आधार पर ‘रश्मिरथी’ को उच्चकोटि का काव्य माना जाता है?
उत्तर:
कविवर रामधारी सिंह दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में परमवीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध कुछ प्रसंगों को लेकर कथा का संगठन किया है। रश्मिरथी’ की कथावस्तु की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) प्रभावशाली कथावस्तु – रश्मिरथी’ का आरम्भ शस्त्र-विद्या के प्रदर्शन से होता है। इस प्रदर्शन में कर्ण का जाति व गोत्र के नाम पर अपमान किया जाता है। इस प्रकार कथा का आरम्भ बड़ा ही प्रभावशाली है। इसके बाद परशुराम भी जाति के आधार पर कर्ण को शाप देकर अपने आश्रम से निकाल देते हैं। श्रीकृष्ण और कुन्ती कर्ण को अपनी ओर करना चाहते हैं। यहाँ आकर कथा की चरम सीमा आ जाती है। इसके बाद कर्ण युद्ध में युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को पकड़ कर छोड़ देता है और घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग करता है। यहाँ कथा का उतार है। इसके बाद कर्ण के रथ का पहिया धंस जाता है और अर्जुन निहत्थे कर्ण पर बाण-वर्षा करके मार डालता है। अन्त में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के वार्तालाप के साथ रश्मिरथी’ का अन्त हो जाता है। इस प्रकार रश्मिरथी’ में कवि ने सभी घटनाओं को बड़े कौशल के साथ प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया है। वास्तव में इस काव्य की कथावस्तु पाठक के हृदय और मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव छोड़ती है।

(2) ऐतिहासिकता – ‘रश्मिरथी की कथा महाभारत से ली गयी है। महाभारत में भी यह कथा इसी प्रकार है। दिनकर जी ने अपने रचना-कौशल से कथा को अत्यन्त मार्मिक व हृदयस्पर्शी बना दिया है। इस प्रकार ‘रश्मिरथी की सम्पूर्ण कथा ऐतिहासिक है।

(3) प्रेरणाप्रद (उद्देश्य) – ‘रश्मिरथी की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसमें कवि ने भारतवर्ष में व्याप्त जाति-पाँतिगत भेदभाव, कौमार्यावस्था में सन्तानोत्पत्ति, राजलिप्सा हेतु परस्पर युद्ध आदि देशगत अन्य समस्याओं का संकेत किया है। कवि आधुनिक भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत ऊँच-नीच के भेदभावों को मिटाकर मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त करता है

धंस जाए वह देश अतल में, गुण की नहीं जहाँ पहचान।
जाति गोत्र के बल से ही, आदर पाते हैं जहाँ सुजान ॥

इसके अतिरिक्त कवि ने युद्ध की समस्या, कुँवारी माताओं के शील की समस्या के माध्यम से आधुनिक भारतीय समाज के ज्वलन्त प्रश्नों, उनके दुष्परिणामों को नयी व्याख्या दी है। इसके साथ ही इस खण्डकाव्य में अदम्य वीरता, असाधारण दानशीलता, सत्यनिष्ठा, अटल मित्रता, कृतज्ञता, सर्वस्व दान, उदारता, सहृदयता आदि महान् गुणों की प्रतिष्ठा हुई है। इससे पाठक महान् बनने की प्रेरणा प्राप्त करता है।

(4) मार्मिकता – कवि ने इस काव्य में अनेक मार्मिक प्रसंगों का चित्रण किया है; जैसे–कर्ण का शौर्य-प्रदर्शन और अपमान, मन मसोसती हुई कुन्ती का रथ की ओर गमन, परशुराम के आश्रम से कर्ण का निष्कासन; कुन्ती का कर्ण से वार्तालाप आदि। ये स्थल इतने अधिक मार्मिक हैं कि पाठक या श्रोता अपने आपको भी भूल जाता है।

इस प्रकार ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु उत्कृष्ट कोटि की है। ‘दिनकर’ का पूरा प्रकाश कथावस्तु को आलोकित रखता है।

प्रश्न 3:
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के प्रमुख पुरुष पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ में कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शीलपक्ष, मैत्रीभाव तथा शौर्य का चित्रण है। सिद्ध कीजिए।
या
” ‘रश्मिरथी’ काव्य में कर्ण के चरित्र-चित्रण में धर्मनिष्ठा और अडिग निष्ठा दिखाई पड़ती है।” स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ में वर्णित वीर कर्ण के गुणों (दानवीरता) पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी के आधार पर कर्ण के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व की समीक्षा कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में आधार पर नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
कर्ण के चरित्र में ऐसे कौन-से गुण हैं, जो उसे महामानव की कोटि तक उठा देते हैं ?
या
रश्मिरथी कर्ण धनुर्धर होने के साथ ही महान धर्मनिष्ठ भी था। इस दृष्टि से कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘रश्मिरथी कर्ण के चरित्र पर आधारित खण्डकाव्य है। कर्ण का चरित्र शील की प्रतिमूर्ति, शौर्य व पौरुष का अगाध सिन्धु, शक्ति का स्रोत, सत्य-साधना-दाने-त्याग का तपोवन तथा आर्य-संस्कृति का आलोकमय तेज है। कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) नायक – कर्ण ‘रश्मिरथी’ का नायक है। काव्य की सम्पूर्ण कथा कर्ण के ही चारों ओर घूमती है। काव्य का नामकरण भी कर्ण को ही नायक सिद्ध करता है। रश्मिरथी’ का अर्थ है-वह मनुष्य, जिसका रथ रश्मि अर्थात् पुण्य का हो। इस काव्य में कर्ण का चरित्र ही पुण्यतम है। कर्ण के आगे अन्य किसी पात्र को चरित्र नहीं ठहर-पाता। कर्ण के सम्बन्ध में कवि के ये शब्द द्रष्टव्य हैं

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी।
जाति गोत्र का नहीं, शील का पौरुष का अभिमानी ॥

(2) साहसी और वीर योद्धा – इस खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कर्ण हमें एक वीर योद्धा के रूप में दिखाई देता है। शस्त्र-विद्या-प्रदर्शन के समय वह प्रदर्शन-स्थल पर उपस्थित होकर अर्जुन को ललकारता है तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। जब इस पर कृपाचार्य कर्ण से उसकी जाति-गोत्र आदि पूछते हैं तो कर्ण उन्हें सटीक उत्तर देता है

पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुज बल से।
रवि-समान दीपित ललाट से, और कवच कुण्डल से ।।

(3) सच्चा मित्र – दुर्योधन ने जाति-अपमान से कर्ण की रक्षा उसे राजा बनाकर की, तभी से कर्ण दुर्योधन का अभिन्न मित्र बन गया। कृष्ण और कुन्ती के समझाने पर भी कर्ण दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता। वह स्पष्ट शब्दों में कह देता है

धरती की तो है क्या बिसात ? आ जाये अगर बैकुण्ठ हाथ,
उसको भी न्यौछावर कर दें, कुरुपति के चरणों पर धर हूँ ॥

और अन्त समय तक कर्ण अपनी मित्रता के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।

(4) सच्चा गुरुभक्त – कर्ण गुरु के प्रति परम विनयी एवं श्रद्धालु है। कीट कर्ण की जाँघ काटकर भीतर घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, पर कर्ण पैर नहीं हिलाता; क्योंकि हिलने से उसकी जाँघ पर सिर रखकर सोये गुरु की नींद खुल जाएगी। आँखें खुलने पर गुरु को वह अपनी जाति-गोत्र बता देता है तो वे क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, परन्तु कर्ण अपनी विनय नहीं छोड़ता और जाते समय गुरु की चरणधूलि लेता है–

परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा से विकल, टूटा हुआ-सा, किसी गिरि-शृंग से छूटा हुआ-सा,

(5) परम दानवीर – कर्ण के चरित्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह धन-सम्पत्ति की लिप्सा से मुक्त है। इसलिए प्रतिदिन प्रात:काल सन्ध्या-वन्दन करने के बाद वह याचकों को दान देता है। ब्राह्मण-वेश में आये इन्द्र को वह अपने जीवन-रक्षक कवच और कुण्डल तक दान में दे देता है। अपनी माता कुन्ती को युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को न मारने का अभयदान देता है। कर्ण की दोनशीलता के सम्बन्ध में कवि कहता है

रवि-पूजन के समय सामने, जो भी याचक आता था।
मुँह माँगा वह दान कर्ण से, अनायास ही पाता था।

(6) महान् सेनानी – कौरवों की ओर से कर्ण महाभारत के युद्ध में सेनापति है। वह शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह से युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म उसके विषय में कहते हैं

अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे । तुम मिले कौरवों को वैसे ॥

युद्ध में कर्ण ने अपने रण-कौशल से पाण्डवों की सेना में हाहाकार मचा दिया। उसकी वीरता की प्रशंसा करते . हुए श्रीकृष्ण कहते हैं

दाहक प्रचण्ड इसका बल है। यह मनुज नहीं कालानल है॥

(7) जाति-प्रथाका विरोधी – कर्ण को जाति और गोत्र के कारण ही भरी सभा में अपमानित होना पड़ा था। इसी कारण उसके मन में जाति और गोत्र के प्रति गहरा विषाद था। इस सम्बन्ध में कर्ण की तिलमिलाहट बड़ी मार्मिक हैं

ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले।
शरमाते हैं नहीं जगत् में, जाति पूछने वाले ॥

(8) कृतज्ञ – कर्ण के चरित्र में कृतज्ञता का बड़ा गुण विद्यमान है। जब उसे यह पता लग जाता है कि उसकी माता राजरानी कुन्ती है तो भी वह निम्न जाति राधा के उपकौर को नहीं भुलाता; जिसने उसका पालन-पोषण किया था। दुर्योधन ने उसे अंगदेश को राज्य देकर राजपुत्रों के साथ युद्ध का अधिकारी बनाया था, उसके उपकार को भी वह जीवनभर नहीं भुला पाता।

(9) मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त – आरम्भ से अन्त तक कर्ण को मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से जूझना पड़ता है। जीवन के प्रत्येक पग पर उसके सामने एक ही प्रश्न खड़ा होता है कि वह अब क्या करे ? शस्त्र-कौशल के समय उसका नाम, जाति तथा गोत्र पूछने पर, द्रोण द्वारा अपना शिष्य न बनाये जाने पर, परशुराम की सेवा करते समय अपनी सहनशक्ति के प्रदर्शन पर, गुरु परशुराम द्वारा शाप देने पर वह दुविधाग्रस्त हो जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा उसको उसके जन्म का रहस्य समझाने पर और पाण्डवों के पक्ष में कौरवों का साथ छोड़ देने के लिए कहने पर, माता कुन्ती द्वारा जन्म का रहस्य समझाने तथा कौरवों का साथ छोड़ अपने भाइयों से मिल जाने के लिए कहने आदि अनेक अवसरों पर कर्ण भयंकर अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है; किन्तु वह प्रत्येक अवसर पर विवेक और धैर्य से अपने अन्तर्द्वन्द्व पर विजय प्राप्त कर; अन्ततः सही निर्णय लेकर अपना मार्ग प्रशस्त करता है।

(10) अन्य विशेषताएँ – कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा जाता है, किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् श्रीकृष्ण उसकी चारित्रिक विशेषताओं का गुणगान करते हुए युधिष्ठिर से कहते हैं

हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, दलित हारक, समुद्धारक क्रिया का।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था, युधिष्ठिर कर्ण का अदभुत हृदय था।
X                               X                              X
समझकर द्रोण मन में भक्ति भरिए, पितामह की तरह सम्मान करिए।
मनुजता का नया नेता उठा है, जगत् से ज्योति का जेता उठा है ॥

इस प्रकार हम पाते हैं कि कवि का मुख्य मन्तव्य कर्ण के चरित्र के शीलपक्ष, मैत्रीभाव एवं शौर्य का चित्रण करना रहा है, जिसके लिए उसने कर्ण को राज्य और विजय की गलत महत्त्वाकांक्षाओं से पीड़ित न दिखाकर षड्यन्त्रों, परीक्षाओं और प्रलोभनों की स्थितियों में उसे अडिग चित्रित किया है। यही स्थिति उसको खण्डकाव्य का महान् नायक बना देती है।

प्रश्न 4:
रश्मिरथी’ के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई देती हैं-

(1) युद्ध-विरोधी – पाण्डवों के वनवास से लौटने के बाद श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध टालने का भरसक प्रयास करते हैं, किन्तु हठी दुर्योधन नहीं मानता। इसके बाद वे कर्ण को भी समझाते हैं, परन्तु कर्ण भी अपने प्रण से नहीं हटता। अन्त में श्रीकृष्ण कहते हैं

यश मुकुट मान सिंहासन ले ले, बस एक भीख मुझको दे दे।
कौरव को तज रण रोक सखे, भू का हर भावी शोक सखे ॥

(2) निर्भीक एवं स्पष्टवादी – श्रीकृष्ण केवल अनुनय-विनय ही करना नहीं जानते, वरन् वे निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता भी हैं। जब दुर्योधन समझाने से नहीं मानता तो वे उसे चेतावनी देते हुए कहते हैं

तो ले मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।

(3) शीलवान व व्यावहारिक – श्रीकृष्ण के सभी कार्य उनके शील के परिचायक हैं। वास्तव में वे एक सदाचारपूर्ण समाज की स्थापना करना चाहते हैं। वे शील को ही जीवन का सार मानते हैं

नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है, विभा का सार शील पुनीत में है।

साथ ही वह सांसारिक सिद्धि और सफलता के सभी सूत्रों से भी अवगत हैं।

(4) गुणों के प्रशंसक – श्रीकृष्ण अपने विरोधी के गुणों का भी आदर करते हैं। कर्ण उनके विरुद्ध लड़ता है, परन्तु श्रीकृष्ण कर्ण का गुणगान करते नहीं थकते

……….. वीर शत बार धन्य, तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य।

(5) महान् कूटनीतिज्ञ – श्रीकृष्ण महान् कूटनीतिज्ञ हैं। पाण्डवों की विजय श्रीकृष्ण की कूटनीति के कारण ही हुई। वे पाण्डवों की ओर से कूटनीतिज्ञ का कार्य कर दुर्योधन की बड़ी शक्ति कर्ण को उससे अलग करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता का प्रमाण कर्ण से कहा गया उनका यह कथन है

कुन्ती का तू ही तनय श्रेष्ठ, बलशील में परम श्रेष्ठ।
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम ॥

(6) अलौकिक शक्तिसम्पन्न – कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र में जहाँ मानव-स्वभाव के अनुरूप अनेक साधारण विशेषताओं का समावेश किया है, वहीं उन्हें अलौकिक शक्ति-सम्पन्न रूप देकर लीलापुरुष भी सिद्ध किया है। जब दुर्योधन उन्हें कैद करना चाहता है, तब वे अपने विराट् स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं-

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप विस्तार किया।
डगमग डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले
‘जंजीर बढ़ाकर साध मुझे, हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।”

इस प्रकार इस खण्डकाव्य में श्रीकृष्ण को श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ, किन्तु महान् लोकोपकारक के रूप में चित्रित करके कवि ने उनके पौराणिक चरित्र को युगानुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है। कवि के इस प्रस्तुतीकरण की विशेषता यह है कि इससे कहीं भी उनके पौराणिक स्वरूप को क्षति नहीं पहुँची है। कृष्ण का यह व्यक्तित्व कवि की कविता में युगानुसार प्रकट हुआ है।

प्रश्न 5:
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
“कुन्ती के चरित्र में कवि ने मातृत्व के भीषण अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि की है।” इस कथन के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के किसी प्रमुख नारी पात्र के चरित्र का चित्रण कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती के मातृत्व रूप पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी’ खाण्डकाव्य के प्रधान नारी पात्र का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर:
कुन्ती पाण्डवों की माता है। अविवाहिता कुन्ती के गर्भ से सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुन्ती के पाँच नहीं वरन् छ: पुत्र थे। कुन्ती की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) वात्सल्यमयी माता – कुन्ती को जब यह ज्ञात होता है कि कर्ण का उसके अन्य पाँच पुत्रों से युद्ध होने वाला है तो वह कर्ण को मनाने उसके पास पहुँच जाती है। उस समय कर्ण सूर्य की उपासना कर रहा था। अपने पुत्र कर्ण के तेजोमय रूप को देख कुन्ती फूली नहीं समाती। सन्ध्या से आँखें खोलने पर कर्ण स्वयं को राधा का पुत्र बताता है तो कुन्ती यह सुनकर व्याकुल हो जाती है

रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारुण शर से ।
राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है।।

कर्ण के पास से निराश लौटती हुई कुन्ती कर्ण को अपने अंक में भर लेती है, जो उसके वात्सल्य का प्रमाण है।

(2) अन्तर्द्वन्द्वग्रस्त – जब कुन्ती के ही पुत्र परस्पर शत्रु बने खड़े हैं, तब कुन्ती के हृदय में अन्तर्द्वन्द्व की भीषण आँधी उठ रही थी। वह इस समय बड़ी ही उलझन में पड़ी हुई है। पाँचों पाण्डवों और कर्ण में से किसी की हानि हो, पर वह हानि तो कुन्ती की ही होगी। वह अपने पुत्रों का सुख-दु:ख अपना सुख-दु:ख समझती है

दो में किसका उर फटे, फहूँगी मैं ही।
जिसकी भी गर्दन कटे, कहूँगी मैं ही ॥

(3) समाजभीरु – कुन्ती लोक-लाज से बहुत अधिक भयभीत एक भारतीय नारी की प्रतीक है। कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न नवजात शिशु (कर्ण) को वह लोक-निन्दा के भय से गंगा की लहरों में बहा देती है। इस बात को वह कर्ण के समक्ष भी स्वीकार करती है

मंजूषा में धर वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।

कर्ण को युवा और वीरत्व की प्रतिमूर्ति बने देखकर भी अपना पुत्र कहने का साहस नहीं कर पाती। जब युद्ध की विभीषिका सम्मुख आ जाती है, तो वह कर्ण से अपनी दयनीय स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त करती है-

बेटा धरती पर बड़ी दीन है नारी,
अबला होती, सचमुच योषिता कुमारी।
है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,
सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

(4) निश्छल – कुन्ती का हृदय छलरहित है। वह कर्ण के पास मन में कोई छल रखकर नहीं, वरन् निष्कपट भाव से गयी थी। यद्यपि कर्ण उसकी बातें स्वीकार नहीं करता, किन्तु कुन्ती उसके प्रति अपनी ममत्व कम नहीं करती।

(5) बुद्धिमती और वाक्पटु – कुन्ती एक बुद्धिमती नारी है। वह अवसर को पहचानने तथा दूरगामी परिणाम का अनुमान करने में समर्थ है। कर्ण-अर्जुन युद्ध का निश्चय जानकर वह समुचित कदम उठाती है

सोचा कि आज भी चूक अगर जाऊँगी,
भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।
फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,
अब आ क्षणभर मैं तुझे अंक में भर लें ॥

इस प्रकार कवि ने ‘रश्मिरथी’ में कुन्ती के चरित्र में कई उच्चकोटि के गुणों के साथ-साथ मातृत्व के भीषण अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि करके, इस विवश माँ की ममता को महान् बना दिया है।

प्रश्न 7:
‘रश्मिरथी’ के काव्य-सौष्ठव (काव्य-सौन्दर्य) पर प्रकाश डालिए।
या
‘खण्डकाव्य’ की दृष्टि से ‘रश्मिरथी की समीक्षा कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ उच्चकोटि का खण्डकाव्य है-इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ काव्य का भाषा-शैली की दृष्टि से मूल्यांकन कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ का काव्यगुणों के आधार पर विवेचन कीजिए।
या
रचना-शैली की दृष्टि से ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य का मूल्यांकन कीजिए।
या
रश्मिरथी के संवाद-कौशल की विशेषताएँ बताइए।
या
सिद्ध कीजिए कि ‘रश्मिरथी’ एक प्रगतिशील और सफल खण्डकाव्य है।
या
खण्डकाव्य के लक्षणों के आधार पर ‘रश्मिरथी’ की आलोचना कीजिए।
या
कलापक्ष और भावपक्ष की दृष्टि से ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की लेखनी सदैव देशप्रेम एवं मानवतावादी दृष्टिकोण की समर्थक रही है। प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ भी इस बात का अपवाद नहीं है। इसकी विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) कथानक – ‘रश्मिरथी’ को कथानक महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण के जीवन-प्रसंग पर आधारित है, किन्नु लेखक ने इन प्रसंगों को एक मौलिक स्वरूप देकर कर्ण के व्यक्तित्व की एक नयी छवि प्रस्तुत की है। कथानक का संगठन बड़ा सुनियोजित है। प्रसंगों का समय भिन्न-भिन्न है और उनमें पर्याप्त अन्तराल है; किन्तु उन्हें इस प्रकार श्रृंखलाबद्ध किया गया है कि कथा के प्रवाह में कहीं कोई बाधा नहीं पड़ती और उसका क्रमबद्ध विकास होता रहता है। कथा का अन्त इस प्रकार किया गया है कि वह कर्ण की विशेषताओं को विभूषित करते हुए समाप्त हो जाती है।

(2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण – इस खण्डकाव्य में कर्ण के सामाजिक स्तर पर उपेक्षित जीवन की पीड़ा का मर्म उजागर करना और उसकी चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालना ही कवि का उद्देश्य रहा है। इसलिए अन्य पात्रों का चुनाव इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कथानक में एक भी अनावश्यक पात्र को स्थान नहीं दिया गया है। कर्ण के चरित्र में वर्तमान युग के सामाजिक रूप से उपेक्षित व्यक्तियों एवं कुन्ती के रूप में समाज के नियमों से प्रताड़ित नारियों की व्यथा को स्वर दिया गया है। इस प्रकार इसे खण्डकाव्य में पात्रों का चरित्र-चित्रण अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से हुआ है।

काव्यगत विशेषताएँ

‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(अ) भावगत विशेषताएँ

(1) ऐतिहासिकता – रश्मिरथी’ की कथा महाभारत से ली गयी है। उसकी सभी घटनाएँ एवं पात्र ऐतिहासिक हैं। अविवाहित कुन्ती अपने नवजात शिशु को त्याग देती है। आगे चलकर वही पुत्र कर्ण के नाम से असाधारण पराक्रमी बनकर कुन्ती-पुत्रों के समक्ष उनके शत्रु एवं महान् दानी के रूप में आता है। पग-पग पर उसके साथ छल किया जाता है और अन्त में निहत्थे कर्ण को अर्जुन युद्ध की मर्यादा के विरुद्ध मार देता है। महाभारत के इस आख्यान को ही रश्मिरथी’ काव्य में कवि ने प्रस्तुत किया है।

(2) रस एवं संवाद-योजना – रश्मिरथी’ में करुण, भयानक, रौद्र एवं वीर रसों का निरूपण हुआ है, किन्तु यह खण्डकाव्य वीर रसप्रधान है। ‘दिनकर जी’ की रस-योजना को सफल बनाने में खण्डकाव्य की संवादात्मक शैली का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है; क्योंकि इन रसों का आलम्बन और उद्दीपन खण्डकाव्य के पात्र ही हैं। पात्रों के भावों का प्रकटीकरण कवि ने उनके संवादों के माध्यम से करके जहाँ उनके चरित्रों को निखारा है, वहीं प्रभाव एवं शैली की दृष्टि से खण्डकाव्य को सशक्त भी बनाया है। खण्डकाव्य में प्रयुक्त संवाद भावों से प्रेरित, स्वाभाविक, पैने और व्यंग्य से परिपूर्ण हैं; उदाहरणार्थ

वीर रसपूर्ण संवाद – धनु की डोरी तन जाने दें,
                             संग्राम तुरत ठन जाने दें।
                            ताण्डवी तेज लहराएगा,
                                संसार ज्योति कुछ पाएगा।

(3) प्रकृति-चित्रण – यद्यपि ‘रश्मिरथी’ काव्य में प्रकृति-चित्रण कवि का विषय नहीं है, तथापि यत्र-तत्र प्रसंगवश प्रकृति-चित्रण हुआ है। रश्मिरथी’ का प्रकृति-चित्रण बहुत ही सजीव है; यथा

हँसती थीं रश्मियाँ रजत से, भरकर वारि विमल को।

परशुराम के आश्रम का एक चित्र द्रष्टव्य है

बैठे हुए सुखद आतप में, मृग रोमन्थन करते हैं।
वन के जीव विवर से बाहर, हो विश्रब्ध विचरते हैं।

(ब) कलागत विशेषताएँ।

(1) भाषा – रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिन्दी है, किन्तु उसमें साधारण बोलचाल के शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग किया गया है। भाषा में प्रभावात्मकता, प्रवाहमयता तथा विषयानुरूपता है। भाषा ओजगुण प्रधान है। भाषा की स्पष्टता व सुबोधता सर्वत्र देखी जा सकती है। उदाहरणार्थ

तब किसी तरह हिम्मत समेटकर सारी।
आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी ॥

‘रश्मिरथी की संस्कृतनिष्ठ भाषा का भी एक उदाहरण द्रष्टव्य है

तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था।
दीपक ललाट अपराकै सदृश लगता था।

सभी स्थलों के उपयुक्त भाषिक शब्दावली की रचना में कवि सिद्धहस्त है। कवि ने अनेक लोकोक्तियों व मुहावरों का भी उचित स्थल पर प्रयोग किया है; जैसे – हृदय फटना, पुण्य लूटना, मन मसोसना, वज्र गिरना आदि।।

(2) शैली – रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में मुख्य रूप से वर्णनात्मक प्रबन्ध शैली की चित्रोपमता, सूक्ति शैली, संवाद शैली और व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया गया है। कवि ने वर्णनात्मक शैली में घटनाओं और परिस्थितियों को भावात्मक धरातल पर सँजोया है। वस्तुत: कवि ने प्रभाववादी शैली का अनुगमन करते हुए वर्णनात्मक शैली की कमियों का पूर्णतः निराकरण कर दिया है

पाकर प्रसन्न आलोक नया, कौरव सेना का शोक गया
आशा की नवल तरंग उठी, जन जन में नयी उमंग उठी।

(3) छन्द-विधान – कवि ने प्रत्येक सर्ग में अलंग-अलग छन्दों का प्रयोग किया है। ये छन्द-परिवर्तन मात्र परिवर्तन के लिए ही नहीं किये गये हैं, वरन् विषय और मानसिक परिस्थितियों तथा घटनाओं की संवेदनात्मक पकड़ को दृष्टि में रखते हुए ही इन छन्दों का आयोजन किया गया है। एक ही सर्ग में अनुभव के संवेदनात्मक तनाव के परिवर्तित होने पर कवि ने छन्द-योजना ही परिवर्तित कर दी है। ‘रश्मिरथी’ में कवि ने ‘सुमेरु’ (एक प्रकार का मात्रिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं, अन्त में यगण होता है, 12 मात्राओं पर यति होती है तथा पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं मात्राओं का लघु होना आवश्यक होता है।), ‘हरिगीतिका’, ‘पद्धरी (एक मात्रिक छन्द, जिसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं और अन्त में जगण होता है।) आदि मात्रिक छन्दों का सफल प्रयोग किया है।

(4) अलंकार-योजना – ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है; उदाहरणार्थ

उपमा ”वन्य कुसुम-सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर।”
उत्प्रेक्षा – “लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो अर्थ अंशुमाली।”
रूपक – ‘फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक, भभक उठी उनके तन में।”

कवि ने व्यर्थ के आलंकारिक प्रयोगों से भाषा को बोझिल नहीं बनाया है। अलंकारों का प्रयोग इतना स्वाभाविक और वास्तविक लगता है कि वह पाठकों को आलंकारिक भूल-भुलैया में नहीं ले जाता। इस प्रकार ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से एक सफल खण्डकाव्य है, जो आज के समाज की विकृतियों को दूर करने का सशक्त सन्देश देता है तथा वर्तमान युग के लिए अत्यन्त उपयोगी भी है।

प्रश्न 8:
‘रश्मिरथी’ शीर्षक की सार्थकता पर विचार कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
या
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य में वर्णित उद्देश्य में कवि कितना सफल हुआ है ? अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘रश्मिरथी’ के माध्यम से कवि समाज को क्या सन्देश देना चाहता है ?
या
‘रश्मिरथी की कथा प्राचीन कलेवर में आधुनिक भारतीय समाज का चित्रण है, पर प्रकाश डालिए।
या
‘रश्मिरथी’ शीर्षक का अर्थ स्पष्ट करते हुए सिद्ध कीजिए कि कर्ण का यह नाम सर्वथा उपयुक्त है।
या
” रश्मिरथी’ खण्डकाव्य जातिवाद के विष से पीड़ित वर्तमान भारतीय समाज के लिए परोक्ष रूप से एक निदान प्रस्तुत करता है।” इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
शीर्षक की सार्थकता – राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ ने इस खण्डकाव्य का नामकरण सर्वथा उचित और उपयुक्त आधार पर किया है। पौराणिक कथा के आधार पर कर्ण सूर्य का पुत्र है; अतः सूर्य की रश्मियों (किरणों) को उसका पुत्र कहना उचित है। इसके अतिरिक्त कर्ण का व्यक्तित्व सूर्य जैसा ही तेजस्वी है। निश्चय ही वह चारित्रिक प्रखर किरणों वाले रथ का रथी है; अत: उसे रश्मिरथी’ कहा जा सकता है। कर्ण की प्रतिभा सूर्य की किरणों के समान दीप्तिमान थी। वह प्रतिभा के इस रथ का रथी था, इसलिए भी उसे ‘रश्मिरथी’ कहा जा सकता है। यदि हम कर्ण को समाज के उपेक्षित वर्ग के प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व का प्रतीक मान लें तो ऐसी प्रतिभा को किरणों की संज्ञा दी जा सकती है और उस प्रतिभावान् को ‘रश्मिरथी’ कहा जा सकता है। अतः, ‘रश्मिरथी’ ही एक ऐसा उपयुक्त शीर्षक है, जो कर्ण के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की पूर्णता को समेटने में समर्थ है।

उद्देश्य – कथानक के पौराणिक होने के पश्चात् भी इस खण्डकाव्य की रचना में कवि का उद्देश्य असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न, किन्तु उपेक्षित जनों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित करना रहा है। कहीं जन्म के आधार पर, कहीं जाति, वर्ण और कुल के आधार पर जो व्यक्तित्व का हनन होता रहा है, उन अवधारणाओं पर कवि ने प्रकाश डाला है और स्पष्ट किया है कि उपेक्षित प्रतिभाएँ कुण्ठित होकर कुसंगति में पड़ती हैं और समाज के विनाश का कारण बनती हैं। यदि कर्ण को बचपन से यथोचित सम्मान प्राप्त होता तो वह कदाचित् दुर्योधन का साथ देने को विवश न होता और सम्भवतः ऐसी स्थिति में महाभारत का विनाशकारी युद्ध भी न होता। इसके अतिरिक्त भारतीय समाज में नारियों की मनोदशा एवं समाज में उनकी स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है।
संकेत – प्रश्न 2 में इसी शीर्षक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री का भी अध्ययन करें]

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