UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

By | June 4, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी (रामेश्वर शुक्ल अञ्चल)

प्रश्न 1:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) को संक्षेप में लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ काव्यग्रन्थ की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध उल्लेख कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ के पंचम सर्ग की कथा अपनी भाषा में लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ के अन्तिम सर्ग की कथावस्तु की आलोचना कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में उल्लिखित दिवाकर मित्र की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में वर्णित किसी प्रेरणाप्रद घटना का सोदाहरण उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल द्वारा रचित ‘त्यागपथी ऐतिहासिक खण्डकाव्य की कथा पाँच सर्गों में विभाजित है। इसमें छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्धन के त्याग, तप और सात्विकता का वर्णन किया गया है। सम्राट हर्ष की वीरता का वर्णन करते हुए कवि ने इस खण्डकाव्य में राजनीतिक एकता और विदेशी आक्रान्ताओं के भारत से भागने का भी वर्णन किया है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक अग्रवत् है

प्रथम सर्ग

थानेश्वर के राजकुमार हर्षवर्द्धन वन में आखेट हेतु गये थे। वहीं उन्हें अपने पिता प्रभाकरवर्द्धन के विषम ज्वर-प्रदाह का समाचार मिलता है। कुमार तुरन्त लौट आते हैं। वे पिता के रोग का बहुत उपचार करवाते हैं, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती। हर्षवर्द्धन के बड़े भाई राज्यवर्द्धन उत्तरापथ पर हूणों से युद्ध करने में लगे थे। हर्षवर्द्धन ने दूत के साथ अपने अग्रज को पिता की अस्वस्थता का समाचार पहुँचाया। इधर हर्षवर्द्धन की माता अपने पति की दशा बिगड़ती देख आत्मदाह के लिए तैयार हो जाती हैं। हर्ष ने उन्हें बहुत समझाया, पर वे नहीं मानीं और हर्ष के पिता की मृत्यु से पूर्व ही वे आत्मदाह कर लेती हैं। कुछ समय पश्चात् राजा प्रभाकरवर्द्धन की भी मृत्यु हो जाती है। पिता को अन्तिम संस्कार कर हर्षवर्द्धन शोकाकुल मन से राजमहल में लौट आते हैं। उन्हें इस बात की बड़ी चिन्ता है कि पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर अनुजा (बहन) राज्यश्री तथा अग्रज (भाई) राज्यवर्द्धन की क्या दशा होगी ?

द्वितीय सर्ग

राज्यवर्द्धन हूणों को परास्त कर सेनासहित अपने नगर सकुशल लौट आते हैं। शोकविह्वल हर्षवर्द्धन की दशा देख वे बिलख-बिलखकर रोते हैं। माता-पिता की मृत्यु से शोकाकुल राज्यवर्द्धन वैराग्य लेने का निश्चय कर लेते हैं, किन्तु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मालवराज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री के पति गृहवर्मन को मार डाला है तथा राज्यश्री को कारागार में डाल दिया है। राज्यवर्द्धन वैराग्य को भूल मालवराज का विनाश करने चल देते हैं। राज्यवर्द्धन गौड़ नरेश को पराजित कर देते हैं, परन्तु गौड़ नरेश छलपूर्वक उनकी हत्या करवा देता है। हर्षवर्द्धन को जब यह समाचार मिलता है तो वे विशाल सेना लेकर मालवराज से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं। मार्ग में हर्षवर्द्धन को समाचार मिलता है कि उनकी छोटी बहन राज्यश्री बन्धनमुक्त होकर; विन्ध्याचल की ओर वन में चली गयी है। यह समाचार पाकर हर्षवर्द्धन बहन को खोजने वन की ओर चल देते हैं। वन में दिवाकर मित्र के आश्रम में उन्हें एक भिक्षुक से यह समाचार मिलता है कि राज्यश्री आत्मदाह करने वाली है। वे शीघ्र ही पहुँचकर राज्यश्री को आत्मदाह करने से बचा लेते हैं। वे दिवाकर मित्र और राज्यश्री को अपने साथ ले कन्नौज लौट आते हैं।

तृतीय सर्ग

हर्षवर्द्धन अपनी बहन के छीने हुए राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं। वहाँ अनीतिपूर्वक अधिकार जमाने वाला मालव-कुलपुत्र भाग जाता है। राज्यवर्द्धन का हत्यारा गौड़पति-शशांक भी अपने गौड़-प्रदेश को भाग जाता है। सभी लोग हर्षवर्द्धन से कन्नौज का राजा बनने की प्रार्थना करते हैं, परन्तु हर्ष अपनी बहन का राज्य लेने से मना कर देते हैं। वे अपनी बहन से सिंहासन पर बैठने को कहते हैं, परन्तु बहन भी राज-सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। फिर हर्षवर्द्धन ही कन्नौज के संरक्षक बनकर अपनी बहन के नाम से वहाँ का शासन चलाते हैं।

इसके बाद छह वर्षों तक हर्षवर्द्धन का दिग्विजय-अभियान चलता है। उन्होंने कश्मीर, पञ्चनद, सारस्वत, मिथिला, उत्कल, गौड़, नेपाल, वल्लभी, सोरठ आदि सभी राज्यों को जीतकर तथा यवन, हूण और अन्य विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को अखण्ड और शक्तिशाली बनाकर एक सुसंगठित राज्य बनाया। अपनी बहन के स्नेहवश वे अपनी राजधानी भी कन्नौज को ही बनाते हैं और अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी तथा धर्म, संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हो रही थी।

चतुर्थ सर्ग

राज्यश्री एक बड़े राज्य की शासिका होकर भी दुःखी है। वह सब कुछ छोड़कर गेरुए वस्त्र धारण कर भिक्षुणी बनना चाहती है। वह हर्षवर्द्धन से संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँगने जाती है तो हर्षवर्द्धन उसे समझाते हैं कि तुम तो मन से संन्यासिनी ही हो। यदि तुम गेरुए वस्त्र ही धारण करना चाहती हो तो अपने वचनानुसार मैं भी तुम्हारे साथ ही संन्यास ले लूंगा। तभी दिवाकर मित्र आकर उन्हें समझाते हैं कि वास्तव में आप दोनों भाई-बहन का मन संन्यासी है, किन्तु आज देश की रक्षा एवं सेवा संन्यास-ग्रहण करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। दिवाकर मित्र के समझाने पर दोनों संन्यास का विचार त्याग देशसेवा में लग जाते हैं।

पंचम सर्ग

हर्षवर्द्धन एक आदर्श सम्राट के रूप में शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी है, विद्वानों की पूजा की जाती है। सभी प्रजाजन आचरणवान्, धर्मपालक, स्वतन्त्र तथा सुरुचिसम्पन्न हैं। महाराज हर्षवर्द्धन सदैव जन-कल्याण एवं शास्त्र-चिन्तन में लगे रहते हैं। अपने भाई के ऐसे धर्मानुशासन को देखकर राज्यश्री भी प्रसन्न रहती है। सम्पूर्ण राज्य एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। एक बार हर्षवर्द्धन तीर्थराज प्रयाग में सम्पूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं

हुई थी घोषणा सम्राट की साम्राज्य भर से,
करेंगे त्याग सारा कोष ले संकल्प कर में।

सब कुछ दान करके वे अपनी बहन से माँगकर वस्त्र पहनते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक पाँच वर्ष बाद वे इसी प्रकार अपना सर्वस्व दान करने लगे। इस दान को वे प्रजा-ऋण से मुक्ति का नाम देते हैं। अपने जीवन में वे छह बार इस प्रकार के सर्वस्व-दान का आयोजन करते हैं। हर्षवर्द्धन संसारभर में भारतीय संस्कृति का प्रसार करते हैं। इस प्रकार कर्तव्यपरायण, त्यागी, परोपकारी, परमवीर, महाराज हर्षवर्द्धन का शासन सब प्रकार से सुर्खकर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता है।

प्रश्न 2:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की विवेचना (समीक्षा) कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ नाटक की विशेषता लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ में वर्णित भारत की राजनीतिक उथल-पुथल एवं सांस्कृतिक वैभव का उल्लेख कीजिए। यह भारत के राजनीतिक संघर्ष का एक दस्तावेज है।” सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(1) इतिहास और कल्पना का समन्वय – ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल ने इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय किया है। इस खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन, राज्यश्री, प्रभाकरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन, शशांक आदि सभी पात्र ऐतिहासिक हैं।
हर्षवर्द्धन के माता-पिता, भाई, बहनोई की मृत्यु, राज्यश्री की खोज, राज्यश्री के नाम पर हर्षवर्द्धन की दिग्विजय, राजधानी थानेश्वर से कन्नौज ले जाना, प्रयाग में हर पाँचवें वर्ष सर्वस्व-दान, हर्षवर्द्धन का धर्मानुशासन आदि सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं।
इनके अतिरिक्त यशोमती का चिता-प्रवेश, शोकाकुल हर्षवर्द्धन की व्यथा, राज्यश्री को खोजते-खोजते हर्षवर्द्धन का दिवाकर मित्र के आश्रम में पहुँचना और वहाँ एक भिक्षुक से राज्यश्री के आत्मदाह करने की सूचना प्राप्त करना बाणभट्ट की प्रमुख रचना ‘हर्षचरित’ पर आधारित हैं।
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में माता-पिता और भाई-बहन के प्रति हर्षवर्द्धन की प्रेम-भावाभिव्यक्ति में तथा बौद्ध श्रमण आचार्य दिवाकर मित्र, राज्यश्री, हर्षवर्द्धन के चरित्र-चित्रण में कवि ने कल्पना का प्रयोग किया है। कवि ने इस खण्डकाव्य में ऐतिहासिक एवं काल्पनिक घटनाओं का इतना सुन्दर और सजीव समन्वय किया है। कि सभी घटनाएँ एवं चरित्र बहुत अधिक प्रभावशाली बन गये हैं।

(2) कथा-संगठन की श्रेष्ठता – कुमार हर्षवर्द्धन पर किशोरावस्था में ही दु:खों के पहाड़ टूटने लगते हैं। यहीं से कथानक का आरम्भ होता है। कथा का आरम्भ बहुत ही रोचक एवं प्रभावशाली है। कन्नौज के राजा की मृत्यु का बदला लेने के लिए हर्षवर्द्धन द्वारा ससैन्य प्रयाण तथा उन्हीं पर सम्पूर्ण राज्यभार आ पड़ना कथा का विकास है। हर्षवर्द्धन द्वारा दिग्विजय के बाद तीर्थराज प्रयाग में सर्वस्व त्याग कथानक की चरम सीमा है। यहाँ आकर त्यागपथी हर्षवर्द्धन का लोककल्याण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। इसके पश्चात् हर्षवर्द्धन के सुशासन का वर्णन कथानक का उतार है और उनकी मृत्यु तथा उनके महान् चरित्र से प्रेरणा लेने की कामना के साथ ‘त्यागपथी’ के कथानक का अन्त हो जाता है। इस प्रकार इस खण्डकाव्य का सम्पूर्ण कथानक सुगठित और सुविकसित है। प्रसंगों में प्रवाह है और कथा की तारतम्यता कहीं भी शिथिल या बाधित नहीं होती है।

(3) कौतूहलवर्द्धक – ‘त्यागपथी’ की कथावस्तु कौतूहलवर्द्धक है। आखेट के समय हर्षवर्द्धन को पिता के भयंकर ज्वर-दाह की सूचना, माता यशोमती का आत्मदाह, कन्नौज की घटनाएँ, राज्यवर्द्धन की हत्या, राज्यश्री की खोज तथा कन्नौज का शासन ग्रहण करने की समस्या आदि सभी घटनाएँ पाठकों के मन में कौतूहल जगाती

(4) मार्मिकता – प्रस्तुत काव्य में कवि ने मार्मिक घटनाओं का चयन करने में बड़ी सावधानी से काम लिया है। यशोमती को चितारोहण, राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन का वैराग्य लेने को तैयार होना, राज्यश्री के वैधव्य का समाचार पाकर हर्ष की व्याकुलता, आत्मदाह के लिए उद्यत राज्यश्री का हर्ष से मिलना इत्यादि ऐसी मार्मिक घटनाएँ हैं, जिनके वर्णन को पढ़कर पाठक का हृदय द्रवित हो जाता है। इस प्रकार ‘त्यागपथी’ की कथावस्तु वास्तव में अत्यन्त मार्मिक, सुसम्बद्ध, इतिहास और कल्पना के सुन्दर समन्वय से रमणीय और प्रेरणाप्रद है।

प्रश्न 3:
‘त्यागपथी’ के नायक अथवा प्रमुख पात्र (हर्षवर्धन) का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
” ‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन का चरित्र देशप्रेम का प्रखरतम (आदर्श) उदाहरण है।” उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर हर्ष की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
” ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नायक हर्षवर्द्धन का सम्पूर्ण जीवन सदाचार, उन्नत मानवीय जीवन के प्रति निष्ठा, सहयोग और सदभावना के प्रति जीवन्त आस्था का एक महान् उदाहरण है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘हर्षवर्द्धन मानवीय आदर्शों का प्रतीक है।”त्यागपंथी’ खण्डकाव्य के आधार कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘सोदाहरण सिद्ध कीजिए कि त्यागपथी खण्डकाव्य हर्षवर्द्धन की देशभक्ति, राष्ट्र-रचना और लोक-कल्याणकारी सदवृत्तियों का सम्यक उद्घाटन करता है।’
या
‘हर्षवर्द्धन के चरित्र में लोकमंगल की कामना निहित है। इस कथन के आलोक में ‘त्यागपथी’ के नायक हर्षवर्द्धन का चरित्रांकन कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य महाराजा हर्षवर्द्धन की दानवीरता और राष्ट्रीयता का द्योतक है, कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
थानेश्वर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के छोटे पुत्र हर्षवर्द्धन के चरित्र की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) नायक – हर्षवर्द्धन ‘त्यागपथी’ के नायक हैं। इस खण्डकाव्य की सम्पूर्ण कथा का केन्द्र वही हैं। सम्पूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है। कथा आरम्भ से अन्त तक हर्षवर्द्धन से ही सम्बद्ध रहती है।

(2) आदर्श पुत्र एवं भाई – इस खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भ्राता के रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। अपने पिता के रुग्ण होने का समाचार पाकर वे आखेट से तुरन्त लौट आते हैं और यथासामर्थ्य उनकी चिकित्सा करवाते हैं। पिता के स्वस्थ न होने तथा माता द्वारा आत्मदाह करने की बात सुनकर वे भाव-विह्वल हो जाते हैं। वे अपनी माता से कहते हैं

मुझ मन्द पुण्य को छोड़ न माँ तुम भी जाओ।
छोड़ो विचार यह, मुझे चरण से लिपटाओ।।

आदर्श पुत्र के समान ही वे आदर्श भाई का कर्तव्य भी पूरा करते हैं। वे अपनी बहन राज्यश्री को अग्निदाह करने एवं संन्यास लेने से रोकते हैं

दोनों करों से घेरकर छोटी बहिन के भाल को।
भूल खड़े थे निकट जलती चिता की ज्वाल को ।।

(3) देश-प्रेमी – हर्षवर्द्धन सच्चे देश-प्रेमी हैं। उन्होंने छोटे राज्यों को एक साथ मिलाकर विशाल राज्य की स्थापना की। देश की एकता एवं रक्षा हेतु वे बड़े-से-बड़ा युद्ध करने से भी नहीं हिचकते थे। उन्होंने एक बड़े राज्य की स्थापना ही नहीं की, वरन् धर्मपूर्वक शासन भी किया। देश-सेवा ही उनके जीवन का व्रत है।

(4) अजेय योद्धा – हर्षवर्द्धन एक अजेय योद्धा हैं। विद्रोही उनके तेजबल के आगे ठहर नहीं पाता। कोई भी राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका। भारत के इतिहास में महाराज हर्षवर्द्धन की दिग्विजय, उनका युद्ध-कौशल और उनकी अनुपम वीरता आज भी स्वर्णाक्षरों में लिखी है। उनकी वीरता एवं कुशल शासन का ही यह परिणाम था कि ”उठा पाया न सिर कोई प्रवंचक।”

(5) श्रेष्ठ शासक – महाराज हर्षवर्द्धन एक श्रेष्ठ शासक हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रजा के हितार्थ ही समर्पित है। उनका शासन धर्म-शासन है। उनके शासन में सब जनों को समान न्याय एवं सुख उपलब्ध है।

वे सदैव प्रजा के कल्याण में लगे रहते थे और स्वयं को प्रजा का सेवक समझते थे। उनका मत था

नहीं अधिकार नृप को पास रखे धन प्रजा का,
करे केवल सुरक्षा देश-गौरव की ध्वजा का।

(6) महान् त्यागी – हर्षवर्द्धन महान् त्यागी एवं आत्म संयमी हैं। आत्म संयम एवं सर्वस्व त्याग करने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ के नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई के अधिकार को ग्रहण करना नहीं चाहते। इसी प्रकार कन्नौज का राज्य भी वे अपनी बहन के नाम पर चलाते हैं। प्रयाग में छः बार अपना सर्वस्व प्रजा के लिए दे देना उनके महान् त्याग को प्रमाण है। वे राजकोष को प्रजा की सम्पत्ति मानते हैं। इसीलिए वे उसे प्रजा को ही दान कर देते हैं।

(7) धर्मपरायण – हर्षवर्द्धन के जीवन में धर्मपरायणता कूट-कूटकर भरी हुई है। वे जन-सेवा में ही अपना जीवन लगा देते हैं

रहे कल्याण मानवमात्र का ही धर्म मेरा,
रहे सर्वस्व-त्यागी पुण्य पर विश्वास मेरा।

उन्होंने शैव, शाक्त, वैष्णव और वेद-मत को एक साथ रखा। उन्होंने किसी के प्रति भी भेदभाव नहीं बरता।

(8) कर्त्तव्यनिष्ठ एवं दृढनिश्चयी – सम्राट हर्ष ने आजीवन अपने कर्तव्य का पालन किया। प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी इन्होंने अपने भाई के कहने पर राज्य सँभाला और प्रत्येक संकटापन्न स्थिति में भी अपने कर्तव्य को निभाया। बहन राज्यश्री को वनों में खोजकर वे अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हैं। भाई की छल से की गयी हत्या का समाचार सुनकर उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उससे उनके दृढ़निश्चय का पता चलता है

लेकर चरण रज आर्य की करता प्रतिज्ञा आज मैं,
निर्मूल कर दूंगा धरा से अधर्म गौड़ समाज मैं।

(9) महादानी – त्यागपथी के हर्षवर्द्धन आत्मसंयमी तथा महादानी हैं। महान् त्यागी होने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई का अधिकार ग्रहण नहीं करना चाहते। कन्नौज विजय के बाद भी वे कन्नौज का सिंहासन राज्यश्री को देना चाहते हैं।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि हर्ष का चरित्र एक महान् राजा, आदर्श भाई, आदर्श पुत्र और महान् त्यागी का चरित्र है, जिसके लिए प्रजा की सुख-सुविधा ही सर्वोपरि है और वह अपने मानवीय कर्तव्यों के प्रति भी निष्ठावान् है।

प्रश्न 4:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ में निरूपित राज्यश्री की चारित्रिक छवि पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
उत्तर:
राज्यश्री सम्राट् हर्षवर्द्धन की छोटी बहन है। हर्षवर्द्धन के चरित्र के बाद राज्यश्री का चरित्र ही ऐसा है, जो पाठकों के हृदय एवं मस्तिष्क पर छा जाता है। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है

(1) माता-पिता की लाडली – राज्यश्री अपने माता-पिता को प्राणों से भी प्यारी है। कवि कहता है

माँ की ममता की मूर्ति राज्यश्री सुकुमारी।
थी सदा पिता को, माँ को प्राणोपम प्यारी ॥

(2) आदर्श नारी – राज्यश्री आदर्श पुत्री, आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। वह यौवनावस्था में विधवा हो जाती है तथा गौड़पति द्वारा बन्दिनी बना ली जाती है। भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद वह कारागार से भाग जाती है और वन में भटकती हुई एक दिन आत्मदाह के लिए उद्यत हो जाती है; किन्तु अपने भाई हर्षवर्द्धन द्वारा बचा लेने पर वह तन-मन-धन से प्रजा की सेवा में ही अपना जीवन अर्पित कर देती है। हर्ष द्वारा राज्य सौंपे जाने पर भी वह राज्य स्वीकार नहीं करती। यही है उसका आदर्श रूप, जो सबको आकर्षित करता है

विपुल साम्राज्य की अग्रज सहित वह शासिका थी,
अभ्यन्तर से तथागत की अनन्य उपासिका थी।

(3) देश-भक्त एवं जन-सेविका – राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर वह अपने वैधव्य का दुःख झेलती हुई भी देश-सेवा में लगी रहती है। देशप्रेम के कारण राज्यश्री संन्यासिनी बनने का विचार भी छोड़ देती है तथा शेष जीवन को देश-सेवा में ही लगाने का । व्रत लेती है।

(4) करुणामयी नारी – राज्यश्री ने माता-पिता की मृत्यु तथा पति और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दु:ख झेले। इन दु:खों ने उसे करुणा की मूर्ति बना दिया। अपने अग्रज हर्षवर्द्धन से मिलते समय उसकी कारुणिक दशा अत्यन्त मार्मिक प्रतीक होती है

सतत बिलखती थी बहिने माता-पिता की याद कर।
ले नाम सखियों का, उमड़ती थी नदी-सी वारि भर ॥
था सास्तु अग्रज धैर्य देता माथ उसका ढाँपकर।
रोती रही अविरल बहिन बेतस लता-सी काँपकर ॥

(5) त्यागमयी नारी – राज्यश्री का जीवन त्याग की भावना से आलोकित है। भाई हर्षवर्द्धन द्वारा कन्नौज का राज्य दिये जाने पर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती। वह कहती है

स्वीकार न मुझको कान्यकुब्ज सिंहासन।
बैठो उस पर तुम करो शौर्य से शासन ।

वह राज्य-कार्य के बन्धन में पड़ना नहीं चाहती; क्योंकि वह मन से संन्यासिनी है। हर्षवर्द्धन के समझाने पर भी वह नाममात्र की ही शासिका बनी रहती है। प्रयाग महोत्सव के समय हर्षवर्द्धन के साथ राज्यश्री भी अपना सर्वस्व प्रजा के हितार्थ त्याग देती है।

(6) सुशिक्षिता एवं ज्ञान – सम्पन्न राज्यश्री सुशिक्षिता एवं शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न है। जब आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्त्विक विवेचन करते हुए उसे मानव-कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं तब राज्यश्री इसे स्वीकार कर लेती है और आचार्य की आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करती है।
इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके पातिव्रत-धर्म, देश-धर्म, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श निश्चय ही अनुकरणीय हैं।

प्रश्न 5:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष की विशेषताएँ बताइए।
या
‘त्यागपथी’ की काव्यगत विशेषताओं (काव्य-सौष्ठव) पर प्रकाश डालिए।
या
खण्डकाव्य की दृष्टि से त्यागपथी की समीक्षा (आलोचना) कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ एक ऐतिहासिक खण्डकाव्य है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
काव्य-शिल्प की दृष्टि से त्यागपथी’ खण्डकाव्य की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की काव्य-शैली की विवेचना कीजिए।
या
खण्डकाव्य के लक्षणों (तत्त्वों) के आधार पर ‘त्यागपथी’ के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की काव्य-गुणों की दृष्टि से समीक्षा कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भाषा-शैली की समीक्षा कीजिए।
या
कथावस्तु और चरित्र-चित्रण की दृष्टि से त्यागपथी खण्डकाव्य का मूल्यांकन कीजिए।
या
“त्यागपथी एक सफल खण्डकाव्य है’, इस कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के संवाद शिल्प पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भाषा कथावस्तु के अनुकूल है।” उचित उदाहरण देते हुए सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल’ द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘त्यागपथी’ एक ऐतिहासिक कथानक पर आधारित खण्डकाव्य है। इस रचना में कवि ने अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का प्रयोग अत्यधिक कुशलता से किया है। इस खण्डकाव्य की विशेषताओं का विवेचन अग्रवत् किया जा सकता है।

कथानक की ऐतिहासिकता – ‘त्यागपथी’ में सातवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्द्धन की कथा का वर्णन हुआ है। कवि ने हर्षवर्द्धन के माता-पिता की मृत्यु, भाई और बहनोई की हत्या, कन्नौज में राज्य सँभालना, मालवराज शशांक से युद्ध, दिग्विजय करके धर्म-शासन की स्थापना और हर पाँचवें वर्ष तीर्थराज प्रयाग में सर्वस्व दान करने की ऐतिहासिक घटनाओं को बड़े ही सरल और सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण – ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में प्रभाकरवर्द्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती; उनके दो पुत्र राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन; एक पुत्री राज्यश्री; कन्नौज, मालव, गौड़ प्रदेश के राजाओं के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर, सेनापति भण्ड आदि पात्र हैं। इस खण्डकाव्य का नायक हर्षवर्द्धन है तथा इसकी नायिका होने का गौरव उसकी बहन राज्यश्री को प्राप्त है।

‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(क) भावगत विशेषताएँ

(1) मार्मिकता – इस खण्डकाव्य में कवि ने हर्षवर्द्धन की माता यशोमती का चितारोहण, राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन का वैराग्य लेने को तैयार होना, राज्यश्री के विधवा होने की सूचना पाकर हर्षवर्द्धन की व्याकुलता, राज्यश्री द्वारा आत्मदाह के समय हर्षवर्द्धन के मिलन का वर्णन अतीव मार्मिक है।

(2) रस-निरूपण – ‘त्यागपंथी’ में कवि ने करुण, वीर, रौद्र, शान्त आदि रसों का सुन्दर निरूपण किया है।
करुण रस का निम्नलिखित उदाहरण द्रष्टव्य है

मुझ मन्द पुण्य को छोड़ न माँ तुम भी जाओ।
छोड़ो विचार यह, मुझे चरण से लिपटाओ ।
सँवरो देवि ! यह रूप नहीं देखा जाता।
हो पिता अदय, पर सतत वत्सला है माता॥

(3) प्रकृति-चित्रण – ‘त्यागपथी’ में कवि ने प्रकृति के विभिन्न रूपों का सुन्दर चित्रण किया है। आखेट के समय जब हर्षवर्द्धन को राजा के गम्भीर रूप से रोगग्रस्त होने का समाचार मिलता है तो वे तुरन्त राजमहल को लौट आते हैं। उस समय के वन का चित्रण द्रष्टव्य है

वन-पशु अविरत, खर-शर-वर्णन से अकुलाये।
फिर गिरि-श्रेणी में खोहों से बाहर आये ॥

(ख) कलागत विशेषताएँ

(1) भाषा – भारतीय इतिहास में गुप्तकाल स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता है। उस काल में भारतीय संस्कृति, कला और साहित्य अपनी उन्नति की चरम सीमा पर थे। ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की भाषा भी वैसी ही गरिमामयी है। इस खण्डकाव्य की भाषा प्रभावशाली, भावानुकूल और समयानुकूल है। इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिन्दी है। भाषा में माधुर्य, ओज एवं प्रसाद गुण विद्यमान हैं। प्रारम्भ के दो सर्गों में ओज गुण अधिक है, जब कि अन्त के सर्गों में चित्त की दीप्ति और विस्तार के कारण माधुर्य और प्रसाद गुण अधिक हैं।

उदाहरण – (i) था वस्त्र-कर्मान्तिक सजल-दृग आ गया वल्कल लिए।
(ii) जन-जन वहाँ था साश्रु, जब वल्कल उन्होंने ले लिया।

(2) शैली – त्यागपथी में वर्णनप्रधान चित्रात्मकता लिये हुए संवादात्मक और सुललित सूक्ति-शैली का प्रयोग किया गया है। शब्दों के क्रम और ध्वनियों के संयोजन से जिस लय की रचना होती है, वह लय पूरे खण्डकाव्य में समान रूप से निहित है। अर्थ के साथ-साथ यह लय स्वर के आरोह-अवरोह के कारण और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। पाँचवें सर्ग के अन्त में शैली में एक प्रकार की तीव्रता और आवेग है। इस खण्डकाव्य की शैली में आकर्षण और कौतूहल उत्पन्न करने की क्षमता है, जो खण्डकाव्य के लिए अनिवार्य है।

(3) अलंकार-योजना – ‘त्यागपथी’ में कवि ने स्थान-स्थान पर विभिन्न अलंकारों का प्रयोग किया है। अलंकार-योजना सर्वत्र स्वाभाविक रूप में है। भावोत्कर्ष में अलंकारों का प्रयोग विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण रहा है। कवि ने उपमा, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।

(4) छन्द-विधान – रामेश्वर शुक्ल अञ्चल ने ‘त्यागपथी’ में 26 मात्राओं के ‘गीतिका’ छन्द का प्रयोग किया है। अन्त में आकर कवि ने 34 मात्राओं वाले घनाक्षरी छन्द भी लिखे हैं। अन्त में घनाक्षरी छन्द का प्रयोग रचना की समाप्ति का सूचक ही नहीं, वरन् वर्णन की दृष्टि से प्रशस्ति का भी सूचक है। कवि की छन्द-योजना निस्सन्देह प्रशंसनीय है।
निष्कर्षतः ‘त्यागपथी’ काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से एक सफल खण्डकाव्य है।

प्रश्न 6:
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के रचयिता का मुख्य उद्देश्य अथवा सन्देश क्या है ? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
या
“सच्ची राष्ट्रधर्मिता को उद्भासित करना ‘त्यागपथी’ का प्रमुख उद्देश्य है।” इस उक्ति की दृष्टि से त्यागपथी की आलोचना कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर भारतीय जीवन-शैली और सामाजिक व्यवस्था का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्षकालीन भारतीय समाज एवं जन-जीवन का उदात्त चित्रण मिलता है, सिद्ध कीजिए।
या
“त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्षकालीन जीवन व समाज का उदात्त चित्रण मिलता है।” स्पष्ट कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर उसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्षकालीन भारत सजीव हो उठा है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
खण्डकाव्य ‘त्यागपथी’ के नामकरण की सार्थकता एवं उसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नाम की सार्थकता पर विचार कीजिए।
उत्तर:
[ संकेत- ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं के स्पष्टीकरण के लिए प्रश्न सं० 1 के उत्तर का अध्ययन करें और उसे संक्षेप में लिखें। ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में कविवर रामेश्वर शुक्ल ‘अञ्चल’ ने अनेक प्रयोजनों को पल्लवित किया है। इसके मुख्य उद्देश्य या सन्देश निम्नवत् हैं

(1) प्राचीन भारत का गौरवमय चित्र प्रस्तुत करना – अञ्चल जी ने अपने प्रस्तुत काव्य में प्राचीन भारत के गौरवमय चित्र को प्रस्तुत किया है। उस समय समाज में सभी को समान न्याय और सभी प्रकार के सुख उपलब्ध थे। उन्होंने यह दर्शाया है कि प्राचीन भारत धर्म, संस्कृति, सभ्यता, विद्या, अर्थ और सभी दृष्टियों से वैभवसम्पन्न था।

(2) सम्राट् हर्ष के त्यागमय जीवन का आदर्श प्रस्तुत करना – हर्षवर्द्धन ‘त्यागपथी’ के नायक हैं। प्रजा की सेवा और उसका कल्याण ही सम्राट हर्ष के लिए सर्वोपरि था। सम्पूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है। कवि ने हर्ष के त्यागमय उज्ज्वल चरित्र के माध्यम से यह प्रस्तुत करना चाहा है कि आज के शासक भी उन्हीं की भॉति त्यागमय और सरल जीवन अपनाकर प्रजा के सम्मुख एक आदर्श उपस्थित करें।

(3) मानवीय गुणों की स्थापना करना – कवि ने प्रस्तुत काव्य में बड़ों के प्रति आदर, छोटों से स्नेह, उदारता, विनम्रता के साथ-साथ सांसारिक गरिमा आदि मानवीय गुणों को व्यक्त किया है। उसने हर्षवर्द्धन के माध्यम से सत्य, अहिंसा, त्याग, शान्ति, परोपकार और निष्काम कर्म जैसे गांधीवादी जीवन-मूल्यों की स्थापना की है।

(4) धर्मनिरपेक्षता पर बल देना – अञ्चल जी ने ‘त्यागपथी’ के माध्यम से सर्व-धर्म समभाव की सशक्त अभिव्यंजना की है। कवि ने दिखाया है कि सम्राट हर्ष के समय में सभी धर्मों को अपने प्रचार और प्रसार का समान अवसर प्राप्त था। सभी धर्मावलम्बियों के साथ समान व्यवहार होता था, जिस कारण सर्वत्र सुख और समृद्धि व्याप्त थी।

(5) राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति करना – प्रस्तुत काव्य में कवि ने राष्ट्रप्रेम की सशक्त अभिव्यक्ति की है। सम्राट् हर्ष सच्चे देशप्रेमी हैं। उन्होंने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर विशाल राज्य की स्थापना की। वे देश की एकता और रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे। उन्होंने अपनी बहन राज्यश्री को भी आत्मदाह करने से रोककर; देश-सेवा करने को प्रेरित किया।

(6) मानवतावाद का प्रसार करना – प्रस्तुत खण्डकाव्य की रचना में कवि ने मानवता के प्रसार को सन्देश दिया है। कवि ने युद्ध और हिंसा के स्थान पर प्रेम को बढ़ावा दिया है, जिससे आज शोषित और उत्पीड़ित मानवता दमन-चक्र से मुक्त हो सके।

शीर्षक की सार्थकता – उपर्युक्त सभी सन्देश काव्यकार ने सम्राट हर्षवर्द्धन के चरित्र के माध्यम से दिये हैं। हर्ष ने सर्वस्व त्याग करके ही इन सभी आदर्शों की स्थापना की। उनका त्याग क्षणिक नहीं है और न ही वह भावावेग में लिया हुआ निर्णय है, वरन् उन्होंने इस त्याग-पथ का चयन भली प्रकार सोच-समझकर किया है। प्रति पाँचवें वर्ष अपना सर्वस्व दान कर देने वाले त्याग-पथ के इस अमर पथिक के लिए ‘त्यागपथी’ के अतिरिक्त और कौन नाम उपयुक्त हो सकता है ? इस प्रकार खण्डकाव्य के नायक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने वाला खण्डकाव्य का शीर्षक ‘त्यागपथी’ सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है।

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