UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 3 सदाचारोपदेशः
UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 3 सदाचारोपदेशः
श्लोकों का ससन्दर्भ अनुवाद
(1) सं गच्छध्वं ………………… उपासते।।
[सं गच्छध्वम्-मिलकर चलो। संवदध्वम् = मिलकर बोलो। वः मनांसि-अपने मनों को। सं जानताममिलकर जानो। पूर्वे सञ्जनानां देवाः – प्राचीनकाल में एक मत में रहने वाले देवगण| भागम् = (अपने) कर्तव्य कर्म के अंशों को। उपासते = करते थे।]
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सदाचारोपदेशः’ नामक पाठ से अवतरित है।
[ विशेष – इस पाठ के समस्त श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
अनुवाद – मिलकर चलो (अर्थात् मिलकर कार्य करो)। मिलकर बोलो (अर्थात् काम करने से पहले परस्पर परामर्श करो) तुम सब लोग अपने मनों को मिलकर जानो (अर्थात् आपस में विचारों की एकता स्थापित करो)। जिस प्रकार प्राचीनकाल में देवगण आपस में मिल-जुलकर तथा एक स्थान पर बैठकर (अर्थात् परस्पर परामर्शपूर्वक) अपने-अपने कर्तव्ये कर्म के अंश को करते थे (वैसे ही मिल-जुलकर तुम लोग भी करो)।
(2) कुर्वन्नेवेह ……………………. लिप्यते नरे।।
[कुर्वन्नेवेह (कुर्वन् + एद + इह) – (शास्त्रविहित) कर्म करते हुए। एव = ही। इह = इस संसार में। जिजीविषेच्युतम (जिजीविषेत +शतम्) = सौ (वर्ष तक) जीने की इच्छा करे। समाः = वर्ष! एवम् = इस प्रकार। नान्यथेतोऽस्ति (न +अन्यथा +इतः +अस्ति) = इससे (इतः) भिन्न अन्य कोई उपाय (अन्यथा) नहीं है (न अस्ति)]
अनुवाद – (मनुष्य को) इस संसार में (शास्त्रानुकूल) त्यागपूर्वक कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस प्रकार (धर्मानुसार त्यागपूर्वक कर्म करने से मनुष्य कमों में लिप्त नहीं होता। इसे छोड़ (कर्म-बन्धन से बचने का) अन्य कोई (उपाय) नहीं है।
(3) मधुमन्मे …………………….. मधुसदृशः।।
[ में- मेरा। निष्क्रमणम् = निकलना, जाना (निकटता स्थापित करना)| मधुमत् = माधुर्ययुक्त। परायणं = दूर हटना (किसी से सम्बन्ध तोड़ना)| वाचा = वाणी से। मधुसदृशः = मधुरूप (या सर्वत्र मधु को ही देखने वाला)| भूयासम् = हो जाऊँ।]
अनुवाद – मेरा (किसी व्यक्ति के) निकट जाना (मित्रता स्थापित करना) माधुर्ययुक्त हो अर्थात् किसी के साथ मित्रता आदि का परिणाम मधुर हो। मेरा (किसी से) दूर हटना (सम्बन्ध तोड़ना) भी माधुर्यपूर्ण हो। मैं मीठी बोली बोलू और मधुरूप (सर्वत्र मधु को ही देखने वाला) हो जाऊँ। (आशय यह है कि मेरे कारण कहीं कोई कटुता उत्पन्न न होकर सर्वत्र मधुरता का ही संचार हो और मेरे सम्बन्ध मधुर हों।)
(4) आचाराल्लभते ………………………….. चेह च।।
[ आचारात -सदाचार से। लभते = प्राप्त करता है। ह्यायुः (हि +आयुः) = आयु को। श्रियम् = धन को। प्रेत्य = मरकर परलोक में। चेह (च +इह) – और इस लोक में।]
अनुवाद – सदाचार से मनुष्य (लम्बी) आयु प्राप्त करता है, सदाचार से लक्ष्मी (धन) प्राप्त करता है, सदाचार से इसे लोक और परलोक में कीर्ति (यश) प्राप्त करता है।
(5) ये नास्तिका …………… गतायुषः।।
[नास्तिकाः = ईश्वर को न मानने वाले (मूलतः नास्तिक’ का अर्थ है ‘वेद को न मानने वाला’-नास्तिको वेदनिन्दकः)| निष्क्रियाः = आलसी। गुरुशास्त्रातिलङ्घिनः (गुरुशास्त्र +अतिलङ्घिनः)= गुरु और शास्त्रों (की आज्ञा) का उल्लंघन करने वाले। गतायुषः (गत +आयुषः) = क्षीण आयु वाले। ]
अनुवाद – जो मनुष्य ईश्वर को न मानने वाले, आलसी, गुरु और शास्त्रों के वचनों का उल्लंघन करने वाले, धर्मविहीन एवं दुराचारी होते हैं, उनकी आयु कम हो जाती है और वे मरे हुए के समान होते हैं।
(6) ब्राह्म मुहूर्ते ……………………… कृताञ्जलिः ||
[बुध्येत = जाग जाना चाहिए। धर्मार्थी (धर्म + अथौ) च = धर्म और धन को। अनुचिन्तयेत – चिन्तन करना चाहिए। आचम्य = आचमन (कुल्ला) करके कृताञ्जलिः = हाथ जोड़कर।]
अनुवाद – (मनुष्य को) ब्राह्ममुहूर्त में (सूर्योदय के समय के एक घण्टे पूर्व) जाग जाना चाहिए, धर्म (कर्तव्य) और धन (आय के साधनों) का चिन्तन करना चाहिए। (फिर शय्या से) उठकर तथा आचमन (कुल्ला) करके, हाथ जोड़कर पूर्व सन्ध्या (प्रातः सन्ध्या) के लिए बैठ जाना चाहिए।
(7) अक्रोधनः …………………………. वर्षाणि जीवति।।
[अक्रोधनः = क्रोध न करने वाला भूतानामविहिंसकः (भूतानाम +अविहिंसकः) = जीवों की हिंसा न करने वाला| अनसूयुः = दूसरों से असूया (ईष्र्या, द्वेष) न करने वाला| अजिह्मः = जो जिह्म (कुटिल) न हो,
सरलचित्त।]
अनुवाद – क्रोध न करने वाला, सत्य बोलने वाला, जीवों की हिंसा न करने वाला, दूसरों से ईष्र्या न करने वाला एवं कुटिलता से रहित (सरलचित्त) व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है (अर्थात् दीर्घायु होता है)।
(8) अकीर्तिम् ………….. हन्त्य लक्षणम्।।
[ अनर्थम् = आपत्ति। अलक्षणम् = अशुभ।]
अनुवाद – विनम्रती अपयश को नष्ट करती है, पराक्रम (पुरुषार्थ) अनर्थ (आपत्ति) को नष्ट करता है, क्षमाशीलता सदा क्रोध को नष्ट करती है और सदाचरण (समस्त) अशुभों को नष्ट कर देता है।
(9) अभिवादनशीलस्य ………………… बलम्।।
[अभिवादनशीलस्य = (बड़ों को) प्रणाम करने वाले का। वृद्धोपसेविनः (वृद्ध+उपसेविनः) = बड़े-बूढ़ों की सेवा करने वाला। वर्द्धन्ते = बढ़ते हैं।]
अनुवाद – (अपने से बड़ों को) प्रणाम करने वाले तथा नित्य बड़े-बूढ़ों की सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल-इन चारों की (उत्तरोत्तर) वृद्धि होती है।
(10) वृत्तं यत्नेन ……………….. हतो हतः।।
[वृत्तम् – चरित्र। वित्तमायाति (वित्तम् + आयाति) – धन आता है। याति = चला जाता है। अक्षीणः हानि न होना।]
अनुवाद – चरित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, (क्योंकि) धन तो आता-जाता रहता है। धन नष्ट होने से व्यक्ति की कोई (विशेष) हानि नहीं होती, किन्तु चरित्र नष्ट होने से व्यक्ति मरे हुए के समान हो जाता है। विशेष – अंग्रेजी की सूक्ति से तुलनीय-If wealth is lost nothing is lost, if health is lost something is lost, if character is lost everything is lost.
(11) सत्येन …………………… रक्ष्यते।।
[योगेन – (निरन्तर) प्रयोग से। मृजया = स्वच्छता, सफाई से। वृत्तेन = चरित्र से। ]
अनुवाद – सत्य से धर्म की रक्षा होती है, प्रयोग (निरन्तर अभ्यास) से विद्या की रक्षा होती है, स्वच्छता से रूप की रक्षा होती है, (और) चरित्र से कुल की रक्षा होती है।
(12) श्रूयतां …………………… समाचरेत् ।
[ धर्मसर्वस्वम् = धर्म के सार को। चाप्यवधार्यताम् (च +अपि +अवधार्यताम्) – च-और, अपि – भी, अवधार्यतां = धारण करो। परेषां – दूसरों का। ]
अनुवाद – धर्म का सार सुनो और सुनकर (मन में) धारण करो (कि) जो कार्य अपने विरुद्ध हो, उसका आचरण दूसरों के साथ न करो (अर्थात् जिस बात को तुम अपने लिए हानिकर समझते हो, उससे दूसरों को भी हानि पहुँचेगी, ऐसा समझकर वैसा कार्य दूसरों के प्रति न करो)।
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