UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्ध
UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi सामाजिक व सांस्कृतिक निबन्ध
भारतीय समाज में नारी का स्थान
सम्बद्ध शीर्षक
- भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति
- आधुनिक भारत में नारी का स्थान
- आधुनिक नारी
- स्वातन्त्र्योत्तर भारत में महिलाओं की स्थिति
- भारतीय नारी: आज और कल
- नारी सम्मान: भारतीय संस्कृति की पहचान
- नारी-चिन्तन को बदलता स्वरूप
भारतीय नारी की समस्याएँ
सम्बद्ध शीर्षक
- कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ
- आधुनिक समाज में नारी की समस्याएँ
प्रमुख विचार-बिन्दु
- प्रस्तावना : वैदिक काल में नारी,
- मध्यकाल में नारी,
- आधुनिक काल में नारी,
- संविधान द्वारा दिये गये अधिकार,
- कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ,
- कामकाज से इतर महिलाओं की समस्याएँ,
- उपसंहार
प्रस्तावना : वैदिक काल में नारी-भारत में महिलाओं का स्थान कुछ वर्षों पहले तक घर-परिवार की सीमाओं तक ही सीमित माना जाता रहा है। प्राचीन भारत में नारी के पूर्ण स्वतन्त्र तथा सभी प्रकार के दबावों से पूर्ण मुक्त रहने के विवरण मिलते हैं। उस समय वे अपनी पारिवारिक स्थिति के अनुसार इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त किया करती थीं; क्योंकि तब शिक्षा-प्रणाली आश्रम-व्यवस्था पर आधारित थी। इस कारण नारियाँ भी उन आश्रमों में पुरुषों के समान रहकर ही शिक्षा प्राप्त किया करती थीं। गार्गी, मैत्रेयी, अरुन्धती जैसी महिलाओं के विवरण भी मिलते हैं कि वे मन्त्र-द्रष्टा थीं। अपने पतियों के साथ आश्रमों में रहकरवहाँ की सम्पूर्ण व्यवस्था की, वहाँ रहने वाले अन्य स्त्री-पुरुष व विद्यार्थियों; यहाँ तक कि आश्रमवासी पशु-पक्षियों तक की वे देखभाल किया करती थीं। महर्षि वाल्मीकि और कण्व के आश्रमों में भी नारियों के निवास के विवरणं मिलते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैदिक काल में नारी सुरक्षित तो होती ही थी, प्रत्येक प्रकार से स्वतन्त्र भी हुआ करती थी। फिर भी ऐसे विवरण कहीं नहीं मिलते कि घर-गृहस्थी चलाने के लिए उसे कहीं काम करके धनोपार्जन भी करना पड़ता था। गृहस्वामिनी एवं माँ के रूप में उसे पिता एवं आचार्य से भी उच्च स्थान प्राप्त था। महाभारत में उल्लेख भी है कि “गुरुणां चैव सर्वेषां माता परमं को गुरुः।”
मध्यकाल में नारी–इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट है कि मध्यकाल में आकर नारी पूर्णरूपेण घरपरिवार की चारदीवारी में बन्द होकर रह गयी थी। यह काल नारियों के लिए अवनति का काल था। भोग-विलास की प्रवृत्ति बढ़ जाने के कारण नारी के शारीरिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। मध्यकालीन कुरीतियों में सती–प्रथा, बाल-विवाह और विधवाओं को हेय दृष्टि से देखना प्रमुख थीं । इस काल के सन्तों एवं सिद्ध कवियों ने भी नारी के प्रति अत्यन्त कटु दृष्टिकोण अपनाया—
नारी तो हम भी करी, जाना नहीं बिचार।।
जब जाना तब परिहरी, नारी बड़ा बिकार॥
नारी की झाँई परत, अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की कौन गति, जेनित नारी के संग ।।।
(कबीरदोस)
आधुनिक काल में नारी-अंग्रेजों के आगमन के बाद, कुछ उनके और कुछ उनकी चलाई शिक्षादीक्षा के, कुछ यहाँ चलने वाले अनेक प्रकार के शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों के प्रभाव से भारतीय नारी को घर-परिवार से बाहर कदम रखने का अवसर मिला। इस काल में महान् समाज-सुधारक’राजा राममोहन राय ने सती–प्रथा की समाप्ति, विधवाओं के पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षा आदि पर जोर दिया। महात्मा गाँधी मे अछूतोद्धार की भॉति नारी मुक्ति के लिए भी प्रयास किया। समाज-सुधारकों के सामूहिक प्रयास, देश में सामाजिक और राजनीतिक चेतना के प्रादुर्भाव, पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव तथा प्रगतिशील विचारधा ने नारी दासता की बेड़ियों को काटा और वह मुक्ति की ओर अग्रसर हुई। आज नारी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। वह राजनीतिज्ञ, राजनयिक, विधिवेत्ता, न्यायाधीश, प्रशासक, कवि, चिकित्सकै आदि के रूप में समाज को अपना योगदान दे रही है।
संविधान द्वारा दिये गये अधिकार स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् लागू भारतीय संविधान में (अनुच्छेद 14 और 15) पुरुषों और स्त्रियों की पूर्ण समानता की गारण्टी दी गयी तथा लैंगिक आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न करने की बात कही गयी। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में लड़की को लड़के के समान सह-उत्तराधिकारी बना दिया गया। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1956 ने विशेष आधारों पर विवाह के सम्बन्ध को समाप्त करने की अनुमति दी। दहेज को अवैध घोषित किया गया तथा इसके लिए सजा की व्यवस्था की गयी। दहेज की विकरालता को देखते हुए सन् 1961 में एक दहेज विरोधी कानून बनाया गया।
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नारी ने लगभग प्रत्येक आन्दोलन में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर योगदान दिया है तथा समाज की प्रत्येक समस्या के विरुद्ध अपनी आवाज उठायी है। शोषण की घटनाओं के विरुद्ध तो उसने शक्तिशाली प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की हैं। यह इस बात का संकेत है कि महिलाओं में पर्याप्त जागरूकता आयी है। नारियों को विभिन्न स्तरों पर आरक्षण देने की बातें हो रही हैं, परन्तु संविधान में यह व्यवस्था अभी तक नहीं की जा सकी है।
कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ--अभाव और महँगाई से दो-चार होने के लिए महिलाओं को कुछ मात्रा में स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पहले और अधिकतर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद कई तरह के काम-काज का भी सहारा लेना पड़ा। पुरुषों एवं महिलाओं को एक वर्ग यह समझता है कि कामकाजी नारी की समस्त समस्याएँ समाप्त हो जाती हैं। नौकरी मिलते ही नारी नारीत्व के अभिशापों से मुक्त हो जाती है, परन्तु वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है, यथा—
(1) नारी कामकाजी महिला बनने का निर्णय लेने में स्वतन्त्र नहीं होती है। विवाह के पहले माता-पिता और बाद में ससुरालीजनों की इच्छा पर निर्भर रहता है कि वह कामकाजी बनी रहे अथवा नहीं।
(2) कामकाजी होने पर भी महिला आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र नहीं बन पाती है। उसको अपनी कमाई का हिसाब घरवालों को देना पड़ता है। प्राय: यह भी देखने में आता है कि ससुराल वाले विवाह के पूर्व की जाने वाली उसकी कमाई का भी हिसाब माँगते हैं।
(3) दोहरी जिम्मेदारी कामकाजी महिलाओं को नौकरी से लौटकर घरेलू, कार्य करने पड़ते हैं। अत: एक अतिरिक्त जिम्मेदारी सँभालकर भी कामकाजी महिलाएँ अपनी पूर्व जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पायी हैं।
(4) बच्चों की परवरिश-कामकाजी महिलाओं के पास बच्चों को देने के लिए समय का अभाव होता है। फलतः उनके बच्चे संस्कारित नहीं हो पाते और उनका भविष्य बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है।
(5) समाज में बदनामी-आधुनिक युग में भी स्त्रियों को नौकरी करना उचित नहीं माना जाता। बहू को नौकरी नहीं करने देने के लिए सास-ससुर, देवर-ज्येष्ठ और पति तक भी तनकर खड़े हो जाते हैं।
(6) परिजनों का शक-नौकरी-पेशा करने वाली महिलाएँ चरित्र के प्रति सन्देह की समस्या से कभी नहीं उबर पाती हैं। कार्यालय में किसी भी कारण से थोड़ी भी देर हो जाए तो परिजनों, विशेषकर पति की शक की निगाहें उसे अन्दर तक बेध डालती हैं। यह समस्या उस वक्त और भी बढ़ जाती है, जब महिला कोई स्टेनो या सेक्रेटरी हो।
(7) यौनशुचिता-आज भी स्त्री की सबसे बड़ी समस्या उसकी यौन शुचिता है। ऑफिस में किसी भी मुस्कराहट या स्पर्श से भी वह दूषित हो जाती है। यौन शुचिता का यह परिवेश नारी को खुलकर कार्य करने से रोकता है तथा उसकी प्रतिभा को कुण्ठित करता है।
(8) यौन-शोषण-सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाली महिलाएँ पूर्ण तो नहीं, किन्तु अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। सरकारी कार्यालयों में कार्यरत महिलाओं के भी यौन-शोषण होते हैं, किन्तु निजी संस्थानों में अथवा मजदूरी करने वाली महिलाओं की दशा तो अत्यधिक दारुण है।
(9) वरीयता का मापदण्ड योग्यता नहीं--प्राइवेट संस्थानों के रोजगार विज्ञापनों में स्मार्ट, सुन्दर वे आधुनिक महिलाओं की वरीयता यह प्रश्न खड़ा करती है कि कार्यक्षमता के आधार पर आगे बढ़ने वाले। निजी संस्थानों का काम क्या स्मार्ट, सुन्दर व आधुनिक महिलाएँ ही सँभाल सकती हैं ? योग्यता कोई मापदण्ड नहीं? यह भी एक बीमारे मानसिकता की परिचायक है।
(10) परिधान कामकाजी महिलाओं के लिए परिधान (ड्रेस) बहुत बड़ी समस्या रहती है। वह जरा-सी भी सज-सँवर करके चले तो उस पर फब्तियाँ कसी जाती हैं, उसको तितली अथवा फैशन परेड की नारी कहा जाता है।
(11) पुरुषों की अपेक्षा सौतेला व्यवहार–महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन दिया जाता है। तथा पुरुषों की तुलना में इनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। पहले विमान परिचारिकाओं के गर्भवती होते ही उन्हें सेवा-मुक्त कर दिया जाता था। लम्बे संघर्ष के उपरान्त अब विमान परिचारिकाओं ने माँ बनने का अधिकार पाया है।
(12) बाहरी दौरे कार्य के लिए अपने गृह जिले के बाहर जाना भी कामकाजी महिलाओं की एक प्रमुख समस्या है। घर की जिम्मेदारी, शील व गरिमा की चिन्ता, पति व बच्चों से आत्मीयता आदि उसे दौरे पर जाने से रोक देते हैं।
(13) रात्रि ड्यूटी–कामकाजी महिलाओं के लिए रात्रि ड्यूटी करना बहुत कठिन होता है। लोगों की शक की निगाहें मुसीबत कर देती हैं। अस्पतालों में रात्रि की पारी में काम करने वाली नर्से, बड़े होटलों में काम करने वाली महिलाएँ अपनी ड्यूटी सुरक्षित निकालकर सुकून का अनुभव करती हैं।
(14) नारी की नौकरी यदि पति की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है तो उसको पति की हीन भावना का भी शिकार होना पड़ता है।
(15) नौकरी करते हुए पति-पत्नी एक ही स्थान पर कार्यरत रहें, तब तो कुछ ठीक है, अन्यथा उनको दाम्पत्य तथा गृहस्थ जीवन समाप्त हो जाते हैं, वैसे भी कामकाजी महिलाओं की गृहस्थी अव्यवस्थित तो हो ही जाती है।
(16) कुछ कामकाजी महिलाओं के लिए तो नौकरी अभिशाप बन जाती है। ऐसा प्रायः उन महिलाओं के साथ होता है, जिनके पतियों की आमदनी कम होती है, अथवा पति शराबी व कुमार्गी होते हैं। ऐसे पति अपनी पत्नी की आमदनी को भी उड़ाने के लिए पत्नी को भाँति-भाँति से उत्पीड़ित एवं प्रताड़ित करते हैं।
कामकाज से इतर महिलाओं की समस्याएँ-सुधारों की गर्जना तथा संवैधानिक प्रयास नारी की मौलिक समस्याओं को सुलझा नहीं सके हैं। संविधान ने नारी को मताधिकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार प्राप्त करने का अधिकार दे दिया है, परन्तु समाज की दृष्टि में नारी को आज भी पुरुष की अंकशायिनी और दासी ही माना जाता है। हम आज भी अनेकानेक नारियों के उत्पीड़न, आत्मदाह तथा उनकी हत्या के समाचार सुनते रहते हैं। इनमें नौकरी करने वाली यानी कामकाजी महिलाएँ भी सम्मिलित हैं। आज भी.दहेज का दानव नारी के जीवन को त्रस्त किये हुए है। विधवा-विवाह के नाम पर आज भी लोग नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। नारी की उन्नति के नाम पर हम कितनी भी बातें करें, परन्तु नारी आज भी उपेक्षित है। वह घर-परिवार में एक सामान्य नारी से अधिक कुछ नहीं है। आज भी गर्भ में बच्ची (लड़की) को मार दिया जाता है तथा प्रसूति के समय दूषित प्रकृति का शिकार होना पड़ता है। अपनी रक्षा के लिए मुस्तैद नारी पर लोग तरह-तरह की फब्तियाँ कसते हैं।
उपसंहार–महिला हो या पुरुष, काम करना किसी के लिए भी अनुचित या बुरा नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज की मानसिकता, घर-परिवार और समूचे जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी बनायी जाएँ, ऐसे उचित वातावरण का निर्माण किया जाए कि कामकाजी महिला भी पुरुष के समान व्यवहार और व्यवस्था पा सके। नारियों की समस्याओं के निराकरण के लिए फैमिली कोर्ट बनाये जाने चाहिए और उनके प्रति किये जाने वाले आपराधिक मामलों में तकनीकी नहीं, व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। दहेज, बलात्कार, अपहरण आज की नारी के सामने बहुत बड़ी चुनौतियाँ हैं। नारियों के समर्थन में किये ज़ाने वाले हमारे आन्दोलन पश्चिम के अन्धानुकरण को लेकर नहीं होने चाहिए। उनको भारतीय गृहिणी के आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयास करना चाहिए। पाश्चात्य चिन्तन के अन्धानुकरण से इस देश की नारियों को भी जल्दी-जल्दी तलाक, अवैध शिशु-जन्म आदि समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जब तक नारी के प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आएगा, तब तक नारी का जीवन त्रस्त ही बना रहेगा। भारतीय नारी की मुक्ति के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन की आवश्यकता है, संविधान और कानून तो उसमें सिर्फ मददगार हो सकते हैं।
वर्तमान समाज पर दूरदर्शन
सम्बद्ध शीर्षक
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