UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease (मानव स्वास्थ्य तथा रोग)

By | May 31, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease (मानव स्वास्थ्य तथा रोग)

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease (मानव स्वास्थ्य तथा रोग)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कौन-से विभिन्न जन स्वास्थ्य उपाय हैं जिन्हें आप संक्रामक रोगों के विरुद्ध रक्षा-उपायों के रूप में सुझायेंगे?
उत्तर
संक्रामक रोगों के विरुद्ध हम निम्नलिखित जन-स्वास्थ्य उपायों को सुझायेंगे –

  1. अपशिष्ट व उत्सर्जी पदार्थों का समुचित निपटान होना।
  2. संक्रमित व्यक्ति व उसके सामान से दूर रहना।
  3. नाले-नालियों में कीटनाशकों का छिड़काव करना।
  4. आवासीय स्थलों के निकट जल-ठहराव को रोकना, नालियों के गंदे पानी की समुचित निकासी होना।
  5. संक्रामक रोगों की रोकथाम हेतु वृहद स्तर पर टीकाकरण कार्यक्रम चलाये जाना।

प्रश्न 2.
जीव विज्ञान (जैविकी) के अध्ययन ने संक्रामक रोगों को नियन्त्रित करने में किस प्रकार हमारी सहायता की है?
उत्तर
जीव विज्ञान (जैविकी) के अध्ययन ने संक्रामक रोगों को नियन्त्रित करने में हमारी सहायता निम्नलिखित प्रकार से की है –

    1. जीव विज्ञान रोगजनकों को पहचानने में हमारी सहायता करता है।
    2. रोग फैलाने वाले रोगजनकों के जीवन चक्र का अध्ययन किया जाता है।
    3. रोगजनक के मनुष्य में स्थानान्तरण की क्रिया-विधि की जानकारी होती है।
  1. रोग से किस प्रकार सुरक्षा की जा सकती है, ज्ञात होता है।
  2. बहुत से रोगों के विरुद्ध इन्जेक्शन तैयार करने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित रोगों का संचरण कैसे होता है?

  1. अमीबता
  2. मलेरिया
  3. ऐस्कैरिसता
  4. न्यूमोनिया।

उत्तर
1. अमीबता (Amoebiasis) – अमीबता या अमीबी अतिसार (amoebic dysentery) नामक रोग मानव की वृहद् आंत्र में पाए जाने वाले एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका (Entumoeba histobytica) नामक प्रोटोजोआ परजीवी से होता है। इस रोग के लक्षण कोष्ठबद्धता (कब्ज), उदर पीड़ा और ऐंठन, अत्यधिक श्लेष्म और रुधिर के थक्के वाला मल आदि हैं। इस रोग की वाहक घरेलू मक्खियाँ होती हैं जो परजीवी को संक्रमित व्यक्ति के मल से खाद्य और खाद्य पदार्थों तक ले जाकर उन्हें संदूषित (contaminated) कर देती हैं। संदूषित पेयजल और खाद्य पदार्थ संक्रमण के प्रमुख स्रोत हैं। इससे बचने के लिए स्वच्छता के नियमों का पालन करना चाहिए और खाद्य पदार्थों को ढककर रखना चाहिए।

(ख) मलेरिया (Malaria) – इस रोग के लिए प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक प्रोटोजोआ उत्तरदायी है। मलेरिया के लिए प्लाज्मोडियम की विभिन्न प्रजातियाँ (जैसे–प्ला० वाइवैक्स, प्ला० मैलेरिआई, प्ला० फैल्सीपेरम) तथा प्ला० ओवेल उत्तरदायी हैं। इनमें से प्ला० फैल्सीपेरम (Plasmodium fulsipurum) द्वारा होने वाला दुर्दम (malignant) मलेरिया सबसे गम्भीर और घातक होता है। इसके संक्रमण के कारण रक्त केशिकाओं में थ्रोम्बोसिस हो जाने के कारण ये अवरुद्ध हो जाती हैं और रोगी की मृत्यु हो जाती है।

मादा ऐनोफेलीज रोगवाहक अर्थात् रोग का संचारण करने वाली है। जब मादा ऐनोफेलीज मच्छर किसी. संक्रमित व्यक्ति को काटती है तो परजीवी उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और जब संक्रमित मादा मच्छर किसी अन्य स्वस्थ मानव को काटती है तो स्पोरोज्वाइट्स (sporozoites) मादा मच्छर की लार से मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। मलेरिया में ज्वर की पुनरावृत्ति एक निश्चित अवधि (48 या 72 घण्टे) के पश्चात् होती रहती है। इसमें लाल रक्त कणिकाओं की निरन्तर क्षति होती रहती है।

(ग) ऐस्कैरिसता (Ascariasis) – यह रोग आंत्र परजीवी ऐस्कैरिस (Ascaris) से होता है। इस रोग के लक्षण आन्तरिक रुधिरस्राव, पेशीय पीड़ा, ज्वर, अरक्तता, आंत्र का अवरोध आदि है। इस परजीवी के अण्डे संक्रमित व्यक्ति के मल के साथ बाहर निकल आते हैं और मिट्टी, जल, पौधों आदि को संदूषित कर देते हैं। स्वस्थ व्यक्ति में संक्रमण संदूषित पानी, शाक-सब्जियों, फलों, वायु आदि से होता है। इससे रक्ताल्पता (anaemia), दस्त (diarrhoea), उण्डुकपुच्छ शोध (appendicitis) आदि रोग हो जाते हैं। कभी-कभी ऐस्कैरिस के लार्वा पथ भ्रष्ट होकर विभिन्न अंगों में पहुँचकर क्षति पहुँचाते हैं।

(घ) न्यूमोनिया (Pneumonia) – मानव में न्यूमोनिया रोग के लिए स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनी (Streptococcus pneumoniae) और हिमोफिलस इंफ्लुएन्ज़ी (Haemophilus influenzae) जैसे जीवाणु उत्तरदायी हैं। इस रोग में फुफ्फुस अथवा फेफड़ों (lungs) के वायुकोष्ठ संक्रमित हो जाते हैं। इस रोग के संक्रमण से वायुकोष्ठों में तरल भर जाता है जिसके कारण साँस लेने में परेशानी होती है। इस रोग के लक्षण ज्वर, ठिठुरन, खाँसी और सिरदर्द आदि हैं। न्यूमोनिया विषाणुजनित एवं कवक जनित भी होता है।

प्रश्न 4.
जलवाहित रोगों की रोकथाम के लिये आप क्या उपाय अपनायेंगे?
उत्तर

  1. सभी जल स्रोतों; जैसे- जल कुण्ड, पानी के टैंक इत्यादि की नियमित सफाई करनी चाहिये तथा इन्हें असंक्रमित रखना चाहिये।
  2. वाहित मल एवं कूड़ा-करकट आदि को जलीय स्रोतों में बहाने से रोकना चाहिये।
  3. भोजन बनाने के लिये, पीने के लिये व अन्य घरेलू कार्यों हेतु परिष्कृत (संक्रमण, निलम्बित व घुले हुए पदार्थों से स्वतन्त्र) जल का उपयोग करना चाहिये।

प्रश्न 5.
डी०एन०ए० वैक्सीन के सन्दर्भ में ‘उपयुक्त जीन के अर्थ के बारे में अपने अध्यापक से चर्चा कीजिए।
उत्तर
DNA वैक्सीन में उपयुक्त जीन’ का अर्थ है कि इम्युनोजेनिक प्रोटीन का निर्माण इसे नियन्त्रित करने वाले जीन से हुआ है। ऐसे जीन क्लोन किये जाते हैं तथा फिर वाहक के साथ समेकित करके व्यक्ति में प्रतिरक्षा उत्पन्न करने के लिए उसके शरीर में प्रवेश कराये जाते हैं।

प्रश्न 6.
प्राथमिक और द्वितीयक लसिकाओं के अंगों के नाम बताइये।
उत्तर

  1. प्राथमिक लसिका अंग- अस्थिमज्जा व थाइमस हैं।
  2. द्वितीयक लसिकाएँ- प्लीहा, लसिका नोड्स, टॉन्सिल्स, अपेन्डिक्स व छोटी आँत के पियर्स पैचेज आदि हैं।

प्रश्न 7.
इस अध्याय में निम्नलिखित सुप्रसिद्ध संकेताक्षर इस्तेमाल किये गये हैं। इनका पूरा रूप बताइये –

  1. एम०ए०एल०टी०
  2. सी०एम०आई०
  3. एड्स
  4. एन०ए०सी०ओ
  5. एच०आई०वी०

उत्तर

  1. एम०ए०एल०टी० (MALT) – म्यूकोसल एसोसिएटिड लिम्फॉइड टिशू (Mucosal Associated Lymphoid Tissue)
  2. सी०एम०आई० (CMI) – सेल मीडिएटिड इम्यूनिटी (Cell Mediated Immunity)।
  3. एड्स (AIDS) – एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम (Acquired Immuno | Deficiency Syndrome)।
  4. एन०ए०सी०ओ० (NACO) – नेशनल एड्स कन्ट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (National AIDS Control Organisation)
  5. एच०आई०वी० (HIV) – ह्यमन इम्यूनो डेफिशिएन्सी वायरस (Human Immuno Deficiency Virus)।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में भेद कीजिए और प्रत्येक के उदाहरण दीजिए –
(क) सहज (जन्मजात) और उपार्जिल प्रतिरक्षा
(ख) सक्रिय और निष्क्रिय प्रतिरक्षा। (2009)
उत्तर
(क) सहज (जन्मजात) और उपार्जित प्रतिरक्षा में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease Q.8.1

(ख) सक्रिय और निष्क्रिय प्रतिरक्षा में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease Q.8.2
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease Q.8.3

प्रश्न 9.
प्रतिरक्षी (प्रतिपिण्ड) अणु का अच्छी तरह नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर
प्रतिरक्षी (प्रतिपिण्ड) अणु
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease Q.9

प्रश्न 10.
वे कौन-कौन से विभिन्न रास्ते हैं जिनके द्वारा मानव में प्रतिरक्षान्यूनता विषाणु (एच०आई०वी०) का संचारण होता है?
उत्तर
एच०आई०वी० के संचारण के निम्न कारण हैं –

  1. संक्रमित रक्त व रक्त उत्पादों के आधान से।
  2. संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन सम्बन्ध।
  3. इन्ट्रावीनस औषधि के आदी व्यक्तियों में संक्रमित सुइयों का साझा करके।

प्रश्न 11.
वह कौन-सी क्रियाविधि है जिससे एड्स विषाणु संत व्यक्ति के प्रतिरक्षा तन्त्र का ह्रास करता है?
उत्तर

  1. संक्रमित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने के पश्चात् एड्स विषाणु वृहद् भक्षकाणु (macrophage) में प्रवेश करता है।
  2. यहाँ इसका RNA जीनोम, विलोम ट्रांसक्रिप्टेज विकर (reverse transcriptase enzyme) की मदद से, रेप्लीकेशन (replication) द्वारा विषाणुवीय DNA (viral DNA) बनाता है जो कोशिका में DNA में प्रविष्ट होकर, संक्रमित कोशिकाओं में विषाणु कण निर्माण का निर्देशन करता है।
  3. वृहद् भक्षकाणु विषाणु उत्पादन जारी रखते हैं व HIV की उत्पादन फैक्टरी का कार्य करते हैं।
  4. HIV सहायक T-लसीकाणु में प्रविष्ट होकर अपनी प्रतिकृति बनाता है व संतति विषाणु उत्पन्न करता है।
  5. रक्त में उपस्थित संतति विषाणु अन्य सहायक T-लसीकाणुओं पर आक्रमण करते हैं।
  6. यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती है जिसके परिणामस्वरूप संक्रमित व्यक्ति के शरीर में T-लसीकाणुओं की संख्या घटती रहती है।
  7. रोगी ज्वर व दस्त से निरन्तर पीड़ित रहता है, वजन घटता जाता है, रोगी की प्रतिरक्षा इतनी कम हो जाती है कि वह इन प्रकार के संक्रमणों से लड़ने में असमर्थ होता है।

प्रश्न 12.
प्रसामान्य कोशिका से कैंसर कोशिका किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर

  1. एक प्रसामान्य कोशिका में कोशिका वृद्धि व कोशिका विभेदन अत्यन्त नियन्त्रित व नियमित होते हैं।
  2. प्रसामान्य कोशिका में संस्पर्श संदमन (contact inhibition) नामक गुण होता है जिसके कारण अन्य कोशिकाओं में इसका स्पर्श अनियन्त्रित वृद्धि का संदमन करता है।
  3. इसके विपरीत कैंसर कोशिका में यह गुण समाप्त हो जाता है, अत: इन कोशिकाओं में वृद्धि व विभेदन अनियन्त्रित हो जाते हैं।
  4. इसके परिणामस्वरूप कैंसर कोशिकायें निरन्तर वृद्धि करके कोशिकाओं में एक पिण्ड, रसौली (tumour) बना देती हैं।

प्रश्न 13.
मेटास्टेसिस का क्या मतलब है? व्याख्या कीजिये।
उत्तर

  1. मेटास्टेसिस में कैंसर कोशिकाओं के अन्य ऊतकों व अंगों में स्थानान्तरण से कैंसर फैलता है। परिणामस्वरूप द्वितीयक ट्यूमर का निर्माण होता है।
  2. यह प्राथमिक ट्यूमर की अति वृद्धि के परिणामस्वरूप फैलता है।
  3. अति वृद्धि करने वाली ट्यूमर कोशिकायें रक्त वाहिनियों में से गुजरती हैं या सीधे द्वितीयक बनाती हैं।
  4. दूसरे उपयुक्त ऊतक या अंग पर पहुँचने के बाद, एक नया ट्यूमर बनता है।
  5. यह बना ट्यूमर, जो द्वितीयक बना सकते हैं, घातक ट्यूमर कहलाता है।
  6. वे कोशिकाएँ जो ट्यूमर से फैलने के योग्य होती हैं, घातक (malignant) कोशिकायें होती हैं।

प्रश्न 14.
ऐल्कोहॉल/ड्रग के द्वारा होने वाले कुप्रयोग के हानिकारक प्रभावों की सूची बनाइये।
उत्तर
ऐल्कोहॉल/ड्रग के द्वारा होने वाले कुप्रयोग के हानिकारक प्रभाव निम्नलिखित हैं –

  1. अत्यधिक मात्रा में लेने पर इन पदार्थों से श्वसन निष्क्रियता, हृदय- घात, कोमा व मृत्यु भी हो सकती है।
  2. मादक पदार्थों के व्यसनी पैसे न मिलने पर चोरी का सहारा ले सकते हैं। अत: परिवार/समाज के लिये मानसिक व आर्थिक कष्ट हो सकता है।
  3. ऐल्कोहॉल के चिरकारी प्रयोग से तन्त्रिका तन्त्र व यकृत को क्षति पहुँचती है।
  4. रक्त शिरा में इन्जेक्शन द्वारा ड्रग्स लेने पर एड्स व यकृत शोथ-बी जैसे गम्भीर संक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है।
  5. गर्भावस्था के दौरान मादक पदार्थों का प्रतिकूल प्रभाव भ्रूण पर पड़ता है।
  6. अन्धाधुन्ध व्यवहार, बर्बरता व हिंसा का बढ़ना।
  7. महिलाओं में उपापचयी स्टेराइड के सेवन से पुरुष; जैसे- लक्षण, आक्रामकता, भावनात्मकता स्थिति में उतार-चढ़ाव, अवसाद, असामान्य आर्तवचक्र, मुंह व शरीर पर बालों की अतिरिक्त वृद्धि, आवाज का भारी होना आदि दुष्प्रभाव देखे जा सकते हैं।
  8. पुरुषों में मुहाँसे, आक्रामकता का बढ़ना, अवसाद, वृषणों के आकार का घटना, शुक्राणु उत्पादन की कमी, समय से पूर्व गंजापन आदि लक्षण ड्रग्स सेवन के कुप्रभाव हैं।

प्रश्न 15.
क्या आप ऐसा सोचते हैं कि मित्रगण किसी को ऐल्कोहॉल/डग सेवन के लिये प्रभावित कर सकते हैं? यदि हाँ, तो व्यक्ति ऐसे प्रभावों से कैसे अपने आपको बचा सकते हैं?
उत्तर
मित्रगण किसी को ऐल्कोहॉल/ड्रग लेने के लिये प्रभावित कर सकते हैं। युवा प्रायः ऐसे मित्रों के चंगुल में फंस जाते हैं जो मादक द्रव्यों के आदी हो चुके होते हैं। ऐसे मित्र युवाओं को धीरे-धीरे मादक पदार्थों के सेवन की लत लगा देते हैं तथा युवा इन पदार्थों के चंगुल में बुरी तरह फंस जाते हैं।
स्वयं को इस प्रकार के प्रभाव से बचाने के लिये निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं –

  1. प्रथम माता-पिता व अध्यापकों का विशेष उत्तरदायित्व है। ऐसा लालन-पालन जिसमें पालन-पोषण का स्तर ऊँचा हो व सुसंगत अनुशासन हो।
  2. ऐसे मित्रों के चंगुल में आने पर तुरन्त अपने माता-पिता व समकक्षियों से मदद व उचित मार्गदर्शन लें।
  3. समस्याओं व प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने, निराशाओं व असफलताओं को जीवन का एक हिस्सा समझकर स्वीकार करने की शिक्षा व परामर्श लेना इस प्रकार के प्रभाव से बचने में सहायक होता है।
  4. क्षमता से अधिक कार्य करने के दबाव से बचें।

प्रश्न 16.
ऐसा क्यों है कि जब कोई व्यक्ति ऐल्कोहॉल या ड्रग लेना शुरू कर देता है तो उस आदत से छुटकारा पाना कठिन होता है? अपने अध्यापक से चर्चा कीजिये।
उत्तर

  1. ड्रग/ऐल्कोहॉल लाभकारी है। इसी सोच के कारण व्यक्ति इसे बार-बार लेता है। डुग/ऐल्कोहॉल के प्रति लत मनोवैज्ञानिक आशक्ति है।
  2. ड्रग/ऐल्कोहॉल के बार-बार सेवन से शरीर में मौजूद ग्राहियों का सहन स्तर बढ़ जाता है। जिसके कारण अधिकाधिक मात्रा में ड्रग लेने की आदत पड़ जाती है।
  3. इस प्रकार ऐल्कोहॉल/डूग व्यसनी शक्ति प्रयोग करने वाले को दोषपूर्ण चक्र में घसीट लेती है। तथा व्यक्ति इनका नियमित सेवन करने लगता है और इस चक्र में फंस जाता है।

प्रश्न 17.
आपके विचार से किशोरों को ऐल्कोहॉल या ड्रग के सेवन के लिये क्या प्रेरित करता है और इससे कैसे बचा जा सकता है?
उत्तर

  1. जिज्ञासा, जोखिम उठाने व उत्तेजना के प्रति आकर्षण व प्रयोग करने की इच्छा प्रमुख कारण है जो नवयुवकों को ऐल्कोहॉल/ड्रग्स के लिये अभिप्रेरित करते हैं।
  2. इन पदार्थों के प्रयोग को फायदे के रूप में देखना भी एक अन्य कारण है।
  3. शिक्षा के क्षेत्र या परीक्षा में आगे रहने के दबाव से उत्पन्न तनाव भी नवयुवकों को मादक पदार्थों की ओर खींच सकता है।
  4. युवकों में यह भी प्रचलन है कि धूम्रपान, ऐल्कोहॉल, ड्रग्स आदि का प्रयोग व्यक्ति की प्रगति का सूचक है।
  5. सामाजिक एकाकीपन, कामवासना में वृद्धि का अनुभव, जीवन के प्रति नीरसता, मानसिक क्षमता में वृद्धि की मिथ्या धारणा, क्षणिक स्वर्गिक आनंद की अभिलाषा व कुसंगति का प्रभाव नवयुवकों को इन पदार्थों के प्रति आकर्षित करता है।
  6. इसको नजरअंदाज करने के लिये रोकथाम व नियन्त्रण सम्बन्धी उपाय कारगर हो सकते हैं।
  7. पढ़ाई, खेल-कूद, संगीत, योग के साथ-साथ अन्य स्वास्थ्य गतिविधियों में ऊर्जा लगानी चाहिये।
  8. युवाओं के व्यसनी होने पर योग्य मनोवैज्ञानिक की सहायता ली जानी चाहिये।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
निद्रा रोग किस जन्तु के द्वारा होता है? (2015)
(क) यूग्लीना
(ख) प्लाज्मोडियम
(ग) ट्रिपैनोसोमा
(घ) अमीबा
उत्तर
(ग) ट्रिपैनोसोमा

प्रश्न 2.
चिकनगुनिया विषाणु का वाहक है – (2017)
(क) क्यूलेक्स मच्छर
(ख) एडीज मच्छर
(ग) एनोफिलीज मच्छर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) एडीज मच्छर

प्रश्न 3.
एडिस इजिप्टियाई वाहक है – (2017)
(क) डेंगू बुखार का
(ख) मलेरिया बुखार का
(ग) फाइलेरिया का
(घ) कालाजार का
उत्तर
(क) डेंगू बुखार का

प्रश्न 4.
निम्न में से कौन-सा जीवाणु-जनित मानव रोग है? (2014)
(क) पोलियो
(ख) पायरिया
(ग) अतिसार
(घ) हाथीपाँव
उत्तर
(ग) अतिसार

प्रश्न 5.
निम्न में से कौन-सा रोग विषाणुओं द्वारा नहीं उत्पन्न होता है? (2016)
(क) पोलियो
(ख) चेचक
(ग) एड्स
(घ) टी०बी०
उत्तर
(घ) टी०बी०

प्रश्न 6.
विषाणु संक्रमण से रक्षा के लिए शरीर निम्नलिखित में से किस विशेष प्रकार के प्रोटीन को उत्पन्न करता है? (2014)
(क) हॉर्मोन्स
(ख) एन्जाइम
(ग) प्लाज्मिड्म
(घ) इण्टरफेरॉन
उत्तर
(घ) इण्टरफेरॉन

प्रश्न 7.
लिम्फोसाइट्स का निर्माण निम्नलिखित में से किसमें होता है? (2015)
(क) लसीका में
(ख) यकृत में
(ग) आमाशय में
(घ) वृक्क में
उत्तर
(क) लसीका में

प्रश्न 8.
टी०बी० के टीके का नाम है – (2017)
(क) PAS
(ख) OPV
(ग) DPT
(घ) BCG
उत्तर
(घ) BCG

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य में विषाणु जनित कुछ प्रमुख रोगों के नाम लिखिए। (2010, 15)
उत्तर
चेचक (small pox), हरपीज (herpes), आर्थराइटिस (arthritis) आदि डी०एन०ए० वाइरस (DNA virus) द्वारा तथा पोलियो (polio), डेंगू ज्वर (dengue fever), कर्णफेर (mumps), खसरा (measles), रेबीज (rabies) आदि आर०एन०ए० वाइरस (RNA virus) द्वारा उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
स्वाइन फ्लू के कारक अभिकर्ता का नाम, रोग के लक्षण तथा बचाव के उपाय बताइए। (2017)
उत्तर
स्वाइन फ्लू एक विषाणु जनित रोग है। इसकी अनेक स्ट्रेन्स पायी जाती हैं जिन्हें H1N1, H1N2, H3N1 आदि नामों से जाना जाता है। इस विषाणु का संक्रमण सुअरों के सम्पर्क में रहने से होता है।

इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं, तीव्र सिरदर्द, बुखार, ठण्ड लगना, शरीर में दर्द, मितली आना, वमन, नाक का बहना, गले में जलन व खराश, साँस लेने में कठिनाई, सुस्ती, थकान एवं भूख का न लगना
आदि।

इस रोग से बचाव के लिए हाथों एवं नाखून की उचित सफाई करनी चाहिए, छींकते एवं खाँसते समय मुंख को ढक लेना चाहिए, रोग ग्रसित व्यक्ति से कम-से-कम एक मीटर की दूरी बनाकर रहना चाहिए।

प्रश्न 3.
एस्केरिस के लार्वा में कितने त्वक पतन होते हैं? (2017)
उत्तर
एस्केरिस के लार्वा में चार त्वक पतन होते हैं।

प्रश्न 4.
विसंक्रमण क्या है? (2014)
उत्तर
वह कोई भी प्रक्रिया जिसके द्वारा संक्रामक एजेण्टों; जैसे- कवक, जीवाणु, विषाणु, बीजाणु आदि को मार दिया जाता है, विसंक्रमण कहलाती है। यह क्रिया गर्म करके, ठण्डा करके, रासायनिक प्रक्रिया, उच्च दाब आदि द्वारा सम्पादित की जाती है।

प्रश्न 5.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में अलेक्जेण्डर फ्लेमिंग के योगदान का उल्लेख कीजिए। (2015)
उत्तर
अलेक्जेण्डर फ्लेमिंग ने पेनिसिलिन नामक सर्वप्रथम प्रतिजैविक का निर्माण किया था।

प्रश्न 6.
मानव शरीर की प्राकृतिक विनाशी कोशिकाएँ किन्हें कहते हैं? (2015)
उत्तर
श्वेत रुधिराणु – लिम्फोसाइट्स को मानव शरीर की प्राकृतिक विनाशी कोशिकाएँ कहते हैं।

प्रश्न 7.
यदि मानव शरीर से थाइमस ग्रन्थि निकाल दी जाय तो उसके प्रतिरोधी संस्थान पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (2017)
उत्तर
थाइमस मानव शरीर में प्राथमिक लसीकाभ अंग है, जहाँ अपरिपक्व लसीकाणु, प्रतिजन संवेदनशील लसीकाणुओं में विभेदित होते हैं। यदि शरीर से थाइमस ग्रन्थि को निकाल दिया जाये तो इन लसीकाणुओं का प्रतिजन संवेदनशील लसीकाणुओं में विभेदन नहीं हो पायेगा।।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका तथा एण्टअमीबा जिन्जीवेलिस मानव शरीर में कहाँ पाये जाते हैं? इनसे उत्पन्न मनुष्य में एक-एक रोग का नाम लिखिए। (2013, 14)
उत्तर
एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका – यह मनुष्य की आंत्र में अन्त:परजीवी के रूप में पाया जाता है। यह मनुष्य में अमीबिएसिस या अमीबिक पेचिश (Amoebiasis or Amoebic dycentry) रोग उत्पन्न करता है।

एण्टअमीबा जिन्जीवेलिस – यह मनुष्य के मसूड़ों में परजीवी के रूप में पाया जाता है। यह मनुष्य में पाइरिया रोग उत्पन्न करता है।

प्रश्न 2.
प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होने वाले किन्ही दो रोगों के नाम लिखिये। इनमें से किसी एक रोग के जनक, लक्षण एवं रोकथाम का उल्लेख कीजिए। (2013)
या
अमीबीय पेचिश क्या है? इसके लक्षण, रोकथाम एवं चिकित्सा का उल्लेख कीजिए। (2014, 16)
या
एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका के संक्रमण से बचने के लिए चार महत्त्वपूर्ण उपायों का उल्लेख कीजिए। (2013)
या
पेचिश या अमीबता रोग के रोगजनक का नाम लिखिए तथा इस रोग के लक्षण एवं उपचार बताइए। (2015)
या
अमीबिक पेचिश पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
या
टिप्पणी लिखिए-पेचिश। (2015)
उत्तर
प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होने वाले दो रोगों का नाम निम्नवत् है –
(i) मलेरिया
(ii) अमीबिक पेचिश या अमीबिएसिस

अमीबिएसिस अथवा अमीबिक पेचिश
आमातिसार अथवा अमीबिएसिस नामक बीमारी एक प्रोटोजोआ एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका (Entomoeba histolytica) द्वारा होती है। एण्टअमीबा (Entamoeba) की ट्रोफोजाइट (trophozoite) अवस्था बड़ी आँत में हिस्टोलायटिक (histolytic) विकर स्रावित करके घाव (ulcer) पैदा कर देती है। इन घावों से रक्त, म्यूकस आदि मल के साथ पेचिश के रूप में बाहर आता है। ये परजीवी चतुष्केन्द्रीय पुटिकाओं (cysts) के रूप में रोगी के मल के साथ बाहर आते हैं तथा संक्रमित भोजन एवं जल द्वारा दूसरे मानवों में पहुँचकर रोग फैलाते हैं। इस रोग को फैलाने में घरेलू मक्खियों का भी बड़ा हाथ रहता है। कभी-कभी यह परजीवी फेफड़ों, यकृत व मस्तिष्क में पहुंचकर सूजन व घाव का कारक बनता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease 2Q.2

इस रोग के होने पर पेट में दर्द व ऐंठन रहती है, वमन की इच्छा होती है व पेट भारी रहता है, सिर में दर्द व शरीर कमजोर हो जाता है। श्लेष्मा व रक्तयुक्त दस्त हो जाते हैं। रोगी की आँखों के आस-पास काले घेरे बन जाते हैं व चेहरा मुरझा जाता है। एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका परजीवी अण्डाकार व शरीर 20μ – 30μ व्यास का होता है। इसका शरीर एक मोटे, भौथरे (blunt) पाद युक्त होता है। कोशिकाद्रव्य एन्डोप्लाज्म व एक्टोप्लाज्म में विभाजित रहता है। कुंचनशीलधानी अनुपस्थित होती है, माइटोकॉण्डिया आदि अंगक थोड़े ही होते हैं। यह परजीवी विश्व के लगभग 10% व्यक्तियों में पाया जाता है व सिर्फ 3% को ही प्रभावित करता है।

रोकथाम व उपचार (Control and Treatment) – भोजन को अच्छी तरह से पकाकर खाना चाहिए तथा फल आदि ठीक प्रकार से धोने चाहिए। नियमित रूप से नहाना, नाखून काटना, भोजन से पूर्व हाथ धोने चाहिए। स्वच्छ जल का प्रयोग करना चाहिए। रोगी को स्वस्थ मनुष्यों से अलग रखना चाहिए। रोग हो जाने पर फ्यूमेजिलिन (fumagilin), इरथ्रोमायसिन (erythromycin), बायोमीबिक-D (biomebic-D), डिपेन्डॉल-m (dependal-m), डायडोक्विन (diadoquin), ट्राइडेजॉल (tridazole), मेट्रोजिल (metrogyle), एम्जोल (amzole), ह्यमेटिन (humatin) आदि औषधियों का प्रयोग लाभकारी होता है।

प्रश्न 3.
प्रतिरक्षा तन्त्र से आप क्या समझते हैं? इसकी खोज करने वाले वैज्ञानिक का नाम लिखिए। (2015, 17, 18)
उत्तर
प्रतिरक्षा तन्त्र तथा प्रतिरोधी क्षमता
सामान्य भाषा में किसी प्राणि के शरीर द्वारा किसी रोग विशेष के रोगजनक (pathogen) के प्रति रोग उत्पन्न करने में प्रतिरोध करने की शक्ति को प्रतिरोध क्षमता या प्रतिरक्षा या असंक्राम्यता (immunity) कहा जाता है। जिस प्राणि में यह शक्ति होती है, वह रोधक्षम या प्रतिरक्षित या असंक्राम्य (immune) कहलाता है; जैसे- जिन व्यक्तियों में एक बार चेचक का संक्रमण हो जाता है, उनमें चेचक का संक्रमण पुनः जीवन भर नहीं होता।

इसका कारण यह है कि एक बार संक्रमित मनुष्य के शरीर के रुधिर में चेचक के विषाणु के प्रति प्रतिरोध क्षमता या असंक्राम्यता उत्पन्न करने की शक्ति रहती है, जो असंक्रमित मनुष्य के रुधिर में नहीं होती। एक बार संक्रमित मनुष्य के रुधिर में कुछ ऐसे पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं; जो उसी प्रकार के विषाणु के शरीर पर पुनः संक्रमण की क्रिया को रोकते हैं। यही शक्ति शरीर में रोग न होने देने की क्षमता रखती है अथवा रोग-प्रतिरोध करती है। अत: यह रोगरोधक क्षमता ही प्रतिरक्षा, असंक्राम्यता अथवा प्रतिरोध क्षमता (immunity) कहलाती है।

रूस के वैज्ञानिक एली मैचनीकॉफ (Elie Metchnikoff, 1884) ने सर्वप्रथम भक्षाणुओं द्वारा शरीर में आये सूक्ष्मजीवों की प्रतिरोधक क्षमता या प्रतिरक्षी क्रियाओं का वर्णन ‘फैगोसाइटोसिस (phagocytosis) या कोशिका भक्षण के नाम से प्रस्तुत किया। बाद में मैचनीकॉफ को 1908 ई० में नोबेल पुरस्कार (Noble prize) से भी सम्मानित किया गया।

यद्यपि अनेक बार लुई पाश्चर (Louis Pasteur) को उनके सूक्ष्म जीवों के कार्य के लिए प्रतिरक्षा विज्ञान के जनक’ (father of immunology) के रूप में सम्मानित किया जाता है। यद्यपि अन्य लोग एमिल वॉन बैहरिंग (Emil Von Behring) को ‘फादर ऑफ इम्यूनोलॉजी’ कहते हैं। ऐबामोफ (Abamoff, 1970) के अनुसार, प्रतिरोध क्षमता शरीर की वह क्षमता है, जो अपने से बाहर के पदार्थों को नष्ट कर देती है अथवा बाहर निष्कासित करके रोगजनकों से अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होती है।

प्रश्न 4.
कोशिका भक्षण को संक्षेप में वर्णन कीजिए तथा इसके उपयोग लिखिए। (2014)
या
टिप्पणी लिखिए – भक्षी कोशिका (2015)
उत्तर
श्वेत रुधिराणुओं में पादाभों द्वारा भ्रमण करने की क्षमता पायी जाती है। ये रुधिर के बहाव की उल्टी दिशा में भी भ्रमण कर सकते हैं। यही नहीं ये महीन केशिकाओं की दीवार के छिद्रों से निकलकर ऊतक द्रव्य में भी जाते रहते हैं। ऊतकों में जाकर अधिकांश श्वेत रुधिराणु जीवाणुओं, विषाणुओं, विष पदार्थों, टूटी-फूटी कोशिकाओं तथा अन्य अनुपयोगी निर्जीव कणों का अपने पादाभों द्वारा अन्तर्ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रक्रिया को कोशिका भक्षण तथा श्वेत रुधिराणुओं को भक्षी कोशिका कहते हैं।

इस प्रक्रिया का प्रमुख उपयोग यह है कि इसके द्वारा हमारे शरीर में उपस्थित अनुपयोगी तत्त्वों का निराकरण होता रहता है।

प्रश्न 5.
इण्टरफेरॉन्स (interferons) क्या हैं? प्रतिरक्षी अनुक्रिया में इनका महत्त्व (कार्य) समझाइए। (2017)
या
‘इण्टरफेरॉन्स’ पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
या
‘इण्टरफेरॉन के विषय में आप क्या जानते हैं? उस वैज्ञानिक का नाम बताइए जिसने इसका पता लगाया। इसकी रासायनिक प्रकृति एवं शारीरिक प्रतिरक्षा अनुक्रिया में महत्त्व बताइए। (2014)
या
इण्टरफेरॉन क्या हैं? इनका कार्य लिखिए। (2015)
या
इण्टरफेरॉन की परिभाषा एवं कार्य लिखिए। (2016)
उत्तर
इण्टरफेरॉन्स इण्टरफेरॉन्स (interferons) कशेरुकी जन्तुओं में वाइरस से संक्रमित कोशिकाओं द्वारा स्रावित एक ग्लाइकोप्रोटीन पदार्थ है जो इन कोशिकाओं को वाइरसों से संक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करते हैं। इण्टरफेरॉन का उपयोग वाइरस संक्रमण के लिए रोग निवारक (therapeutic) तथा निरोधक (preventive) औषधियों के रूप में किया जाता है। आइसक्स तथा लिण्डनमैन (Isaacs and Lindenmann) ने सन् 1957 में इस प्रकार की प्रोटीन का पता लगाया और चूँकि इसके द्वारा अन्त:कोशिकीय विषाणुओं के गुणन को रोका (interfere) जाता है इसलिए इसको इण्टरफेरॉन (interferon) कहा गया।

ऐसा समझा जाता है कि इण्टरफेरॉन्स विषाणु केन्द्रकीय अम्ल (nucleic acid) संश्लेषक तन्त्र को बाधित करता है, किन्तु यह किसी प्रकार भी कोशिका के उपापचय (metabolism) में कोई विघ्न नहीं डालता है। यह भी निश्चित हो चुका है कि इण्टरफेरॉन्स कोशिका के बाहर उपस्थित विरिऑन्स (virions) आदि को किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं करते हैं, न ही संक्रमण रोकने में किसी प्रकार सक्षम हैं। ये कोशिका के अन्दर ही क्रिया करते हैं अर्थात् केवल अन्त:कोशिकीय (intracellular) क्रियाएँ ही करते हैं।

प्रश्न 6.
प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया (immune response) का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2010, 12)
या
प्रौढ मानव में T तथा B-लिम्फोसाइट्स कहाँ बनते हैं? T एवं B-लिम्फोसाइट्स के परिपक्वन से आप क्या समझते हैं? (2014)
या
प्रतिरक्षण तन्त्र से आप क्या समझते हैं? प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के दो प्रमुख प्रकार बताइए। (2015, 17, 18)
या
सेल्फ एवं नॉन-सेल्फ की पहचान के संदर्भ में, प्रतिरक्षा तंत्र की विशेषताएँ लिखिए। (2015)
या
प्रतिरक्षण तन्त्र क्या है? प्रतिरक्षण प्रतिक्रिया की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। (2015)
उत्तर
प्रतिरक्षण तन्त्र
अनेक अंग हमारे शरीर में सभी प्रकार के रोगोत्पादक जीवों अर्थात् रोगाणुओं और प्रतिजनों के कुप्रभाव का प्रतिरोध करके समस्थैतिकता बनाए रखने के लिए एक तंत्र की रचना करते हैं, जिसे प्रतिरक्षण तन्त्र कहते हैं।

प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया
प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाएँ प्राणियों में एण्टीबॉडीज का निर्माण करने के लिए प्रेरित करती हैं। इसके लिए रुधिर वे लसीका में पाये जाने वाले लिम्फोसाइट्स शरीर में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं या उनके एण्टीजन के प्रति सुग्राही हो जाते हैं और बाहरी जीवों (रोगाणुओं) को पहचानकर उनको नष्ट करके उनसे जीवनभर सुरक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं –

1. आक्रामक की पहचान करना – प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया का पहला और सबसे प्रमुख कार्य है। आक्रामक की पहचान करना। प्रतिरक्षी तन्त्र की लिम्फोसाइट्स शरीर में आये बाहरी पदार्थों व रोगाणुओं को पहचानने और उनको नष्ट करने का कार्य करती हैं। यह कार्य T और B लिम्फोसाइट्स करती हैं।

2. आक्रामक से बचाव या एण्टीजन को नष्ट करना – एण्टीबॉडीज निम्नलिखित चार प्रकार से बाह्य रोगाणुओं व एण्टीजन को नष्ट करते हैं

  1. निष्प्रभावी करके – एण्टीबॉडीज विषाणुओं से चिपककर उनके चारों ओर एक आवरण – सा बना लेती हैं जिससे विषाणु कायिक कोशिकाओं की प्लाज्मा झिल्ली से नहीं चिपकने पाते हैं और उनमें प्रवेश नहीं कर पाते हैं। इसी प्रकार एण्टीबॉडीज जीवाणुओं के विष को भी निष्प्रभावी कर देती हैं।
  2. समूहन – अकेली एण्टीबॉडी कई एण्टीजन्स से जुड़कर उनको समूह में एकत्र कर देती है। बाद में इन समूहों को मैक्रोफेज कोशिकाएँ निगलकर नष्ट कर देती हैं।
  3. अवक्षेपण – एण्टीबॉडीज विलेय एण्टीजन्स से जुड़कर उनको अविलेय बना देती हैं। फिर ये अवक्षेपित हो जाती हैं और मैक्रोफेज द्वारा नष्ट हो जाती हैं।
  4. पूरक तन्त्र का सक्रियण – एण्टीजन-एण्टीबॉडी कॉम्प्लेक्स अविशिष्ट प्रतिरक्षा तन्त्र के पूरक प्रोटीन अणुओं की श्रृंखला को सक्रिय कर देते हैं। ये प्रोटीन जीवाणु कोशिका की प्लाज्मा झिल्ली में रन्ध्र कर देते हैं जिससे ये फूलकर फट जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

3. आक्रामक को याद रखना – प्रतिरक्षी तन्त्र की कोशिकाएँ शरीर में प्रवेश करने वाले पदार्थों को याद रखने वाली स्मृति कोशिकाओं का निर्माण करती हैं। B तथा T दोनों प्रकार की लिम्फोसाइट्स स्मृति कोशिकाओं को उत्पन्न करती हैं जो रुधिर एवं लसीका में सुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं। शरीर में दूसरी बार उन्हीं एण्टीजन के प्रवेश करते ही उसकी विरोधी सभी स्मृति कोशिकाएँ सक्रिय होकर संक्रमण से शरीर की रक्षा के लिए तत्पर हो जाती हैं। इसे द्वितीयक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कहते हैं।

T-लिम्फोसाइट्स या T-कोशिकाओं की एण्टीजन के प्रति अनुक्रिया – रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न एण्टीजन के सम्पर्क में आने पर T-लिम्फोसाइट्स सक्रिय हो जाती हैं और ये वृद्धि करके समसूत्री विभाजन द्वारा विभाजित होती हैं। विभाजन के बाद निम्नलिखित चार प्रकार की T-लिम्फोसाइट्स बनती हैं –

  1. मारक कोशिकाएँ (Killer T-cells) – ये कोशिकाएँ रोगाणु कोशिकाओं पर सीधे आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर देती हैं।
  2. दमनकारी या निरोधक कोशिकाएँ (Suppressor Cells) – ये शरीर की अपनी कोशिकाओं को नष्ट होने से बचाने के लिए संक्रमण समाप्त होने के बाद T व B कोशिकाओं की सक्रियता को भी समाप्त करती हैं।
  3. सहायक कोशिकाएँ (Helper Cells) – ये कोशिकाएँ B-कोशिकाओं को सक्रिय करती हैं तथा . इनके द्वारा स्रावित इण्टरल्यूकिन-2 विभिन्न प्रकार की T-कोशिकाओं की सक्रियता को बढ़ाकर प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को बढ़ाती हैं।
  4. स्मृति कोशिकाएँ (Memory Cells) – रोगाणुओं के सम्पर्क में आयी कुछ B-कोशिकाएँ संवेदनशील होने के बाद लसीका ऊतक में स्मृति कोशिकाओं के रूप में संगृहीत हो जाती हैं। और आजीवन जीवित रहती हैं। पुनः वही आक्रमण होने पर ये कोशिकाएँ तुरन्त सक्रिय हो जाती हैं।

B-लिम्फोसाइट्स या B-कोशिकाओं की एण्टीजन के प्रति अनुक्रिया – ऊतक द्रव में एण्टीजन के प्रवेश कर जाने पर B-लिम्फोसाइट्स उद्दीप्त होकर एण्टीबॉडीज बनाती हैं। एक विशिष्ट प्रकार के एण्टीजन के लिए विशिष्ट प्रकार की B-कोशिकाएँ होती हैं। कुछ B-लिम्फोसाइट्स सक्रिय होकर प्लाज्मा कोशिकाओं का एक क्लोन बनाती हैं। प्लाज्मा कोशिकाएँ लसीका ऊतक में रहकर एण्टीबॉडीज का निर्माण करती हैं। ये एण्टीबॉडीज लसीका एवं रुधिर में परिवहन करती रहती हैं। कुछ सक्रिय B-लिम्फोसाइट्स स्मृति कोशिकाओं के रूप में लसीका ऊतक में संचित हो जाती हैं। शरीर में पुनः वही संक्रमण होने पर ये अपने जैसी लाखों कोशिकाएँ बनाकर तेजी से विशिष्ट एण्टीबॉडीज का उत्पादन प्रारम्भ कर देती हैं।

प्रश्न 7.
टीकाकरण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2013, 17)
या
टीका एवं टॉक्साइड्स का तुलनात्मक वर्णन कीजिए। (2014, 15)
उत्तर
टीकाकरण
वैक्सीन अथवा टीका (vaccine) प्रायः कोशिका निलम्बन (cell suspension) होता है अथवा यह कोशिका द्वारा उत्सर्जित एक उत्पाद होता है, जो प्रतिरक्षण कर्मक (immunizing agent) के रूप में प्रयोग किया जाता है। वास्तव में, वैक्सीन प्रतिजनों (antigens) का तैयार घोल होता है, जो इन्जेक्शन द्वारा शरीर में प्रविष्ट कराने पर विशिष्ट प्रतिरक्षियों (antibodies) के निर्माण को प्रेरित करके शरीर में सक्रिय कृत्रिम प्रतिरोध क्षमता या प्रतिरक्षा उत्पन्न करता है। यह क्रिया ही टीकाकरण (vaccination) कहलाती है। सबसे पहले सन् 1798 में एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) ने टीकाकरण की तकनीक में गौशीतला विषाणु (cowpoxvirus) को चेचक (smallpox) के विरुद्ध प्रतिरक्षण कर्मक (immunizing agent) के रूप में प्रयोग किया था। एडवर्ड जेनर को प्रतिरक्षा विज्ञान का जनक (father of immunology) माना जाता है।

टीके या वैक्सीन के प्रकार
सामान्यतः ये निम्नांकित प्रकार के होते हैं –
1. जीवित प्रतिजन से निर्मित वैक्सीन – इसमें जीवित जीवाणुओं या विषाणुओं को क्षीणीकृत (attenuated) करके घोल तैयार किया जाता है, जो प्रतिजनयुक्त होता है। इस प्रकार का वैक्सीन अच्छा माना जाता है, क्योंकि इसकी थोड़ी-सी मात्रा शरीर में प्रविष्ट कराने से जीवाणु या विषाणु गुणन करके बहुत अधिक मात्रा में बढ़ जाते हैं। इसमें सूक्ष्म जीवों के अतिरिक्त उनका विष भी रहता है जिससे कि यह अधिक प्रभावशाली होते हैं तथा इनके प्रभाव से उत्पन्न प्रतिरोध क्षमता अधिक लम्बे समय तक शरीर में बनी रहती है।

2. मृत प्रतिजन से निर्मित वैक्सीन – इसमें सूक्ष्मजीवों को मृत करके उनका घोल इन्जेक्शन द्वारा शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। इसका प्रमुख लाभ यह है कि रोगजनक सूक्ष्मजीव रोग का प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाता है। अतः टीकाकरण के बाद इसके दुष्प्रभाव बहुत कम दिखायी। देते हैं। यह वैक्सीन जीवित प्रतिजन से निर्मित वैक्सीन की अपेक्षा कम प्रभावशाली है।

3. प्रतिजन के आविष से निर्मित वैक्सीन – कुछ रोगजनक जीवाणु जो बहि:आविष (exotoxin) उत्पन्न करते हैं, उन्हें प्रतिजन से अलग करके केवल यह आविष (toxin), आविषाभ (toxoid) के रूप में शरीर में प्रविष्ट कराकर प्रतिरक्षी एवं प्रतिआविष (antitoxin) के निर्माण के लिए उत्प्रेरित किया जा सकता है। इस श्रेणी में टिटेनस (tetanus) एवं टायफॉइड (typhoid) के वैक्सीन आते हैं जो इन रोगों के बचाव हेतु बहुत सरल एवं सुरक्षित साधन होते हैं।

4. मिश्रित वैक्सीन – कभी-कभी दो या अधिक विभिन्न प्रकार के रोगों के रोगजनक सूक्ष्मजीव अथवा प्रतिजनों के मिश्रण से एक वैक्सीन तैयार किया जाता है। इसमें सभी वैक्सीन मिलाकर एक वैक्सीन का निर्माण किया जाता है जिससे कि इसमें सभी वैक्सीन के गुण आ जाते हैं और शीघ्र ही कई रोगों के प्रति प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण – डिफ्थीरिया-कुकुर या काली खाँसी-टिटेनस वैक्सीन (diphtheria- pertussis-tetanus vaccine = DPT)।

प्रश्न 8.
विषाणु द्वारा उत्पन्न एक रोग का नाम, लक्षण, उपचार तथा बचाव के उपाय बताइए। (2011, 12, 15)
उत्तर
विषाणु रोग : एड्स
एड्स (AIDS) एक भयंकर, प्रायः लाइलाज तथा अत्यन्त गम्भीर रोग है।
एड्स तथा उसके लक्षण (AIDS and its Symptoms) – HIV जो एड्स (AIDS) रोग उत्पन्न करने वाला विषाणु है, की मुख्य लक्ष्य कोशिकाएँ (target cells) T, लिम्फोसाइट्स (TA lymphocytes) होती हैं। इस प्रकार विषाणु शरीर में पहुँचकर इन कोशिकाओं को संक्रमित करता है और एक प्रोवाइरस (provirus) निर्मित करता है जो पोषद कोशिका (host cell) के डी० एन० ए० में समाविष्ट हो जाता है। इस प्रकार पोषद कोशिका अन्तर्हित संक्रमित (latent infected) हो जाती है। समय-समय पर प्रोवाइरस सक्रिय होकर पोषद कोशिका में सन्तति विरिओन्स (daughter virions) का निर्माण करते रहते हैं, जो पोषद कोशिका से मुक्त होकर नयी T, लिम्फोसाइट्स को संक्रमित करने में पूर्णतः सक्षम होते हैं।

इस प्रकार लिम्फोसाइट की क्षति से मनुष्य की प्रतिरक्षण क्षमता धीरे-धीरे दुर्बल होती जाती है। सामान्यतः 4-12 वर्षों तक तो व्यक्तियों में HIV के संक्रमण का पता तक नहीं चलता। कुछ व्यक्तियों को संक्रमण के कुछ हफ्तों के बाद ही सिरदर्द, घबराहट, हल्का बुखार आदि हो सकता है। धीरे-धीरे प्रतिरक्षण क्षमता कमजोर होने से जब व्यक्ति पूर्ण रूप से एड्स (AIDS) अर्थात् उपार्जित प्रतिरक्षा-अपूर्णता संलक्षण (Acquired Immuno-Deficiency Syndrome) का शिकार हो जाता है तो उसमें भूख की कमी, कमजोरी, थकावट, पूर्ण शरीर में दर्द, खाँसी, मुख व आँत में घाव, सतत ज्वर (persistant fever) एवं अतिसार (diarrhoea) तथा जननांगों पर मस्से हो जाते हैं। अन्ततः इनका प्रतिरक्षण तन्त्र इतना दुर्बल हो जाता है कि व्यक्ति अनेक अन्य रोगों से ग्रसित हो जाता है तथा उसकी मृत्यु हो जाती है।

एड्स रोग का संचरण (Transmission of AIDS) – रोगी के शरीर से स्वस्थ मनुष्य के शरीर के साथ रुधिर स्थानान्तरण, यौन सम्बन्ध, इन्जेक्शन की सूई का परस्पर उपयोग, रोगी माता से उसकी सन्तानों में संचरण आदि एड्स रोग के विषाणु (virus) के संचरण की विधियाँ हैं।

एड्स का रोगनिदान एवं उपचार (Diagnosis and Treatment of AIDS) – अभी तक एड्स (AIDS) के लिए किसी प्रभावशाली स्थाई उपचार की विधि का विकास नहीं हो पाया है। इसीलिए संसार भर में सैकड़ों लोगों की मृत्यु प्रतिदिन इस रोग से हो जाती है।

रुधिर में प्रतिरक्षी प्रोटीन की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति का पता सीरमी जाँच (serological test) द्वारा लगाकर, HIV के संक्रमण के होने या न होने का पता लगाया जाता है। इन प्रतिरक्षियों की सीरमी जाँच के लिए ELISA किट (एन्जाइम सहलग्न प्रतिरोधी शोषक जाँच किट) का निर्माण किया गया है। मुम्बई के कैन्सर अनुसन्धान संस्थान (Cancer Research Institute) ने “HIV-1 तथा HIV-II W. Biot” किट बनाया। लगभग तीस औषधियों में AIDS के इलाज की क्षमता का पता लगाया गया है; जैसे-जाइडोवुडाइन, ऐजोडोथाइमिडीन (Zidovudine, Azodothymidine–AZT), XQ – 9302, ऐम्फोटेरिसीन आदि।

एइस पर नियन्त्रण (Control on AIDS) – एड्स पर नियन्त्रण के लिए अभी तक कोई टीका (vaccine) आदि नहीं बनाया जा सका है। इसे निम्न प्रकार से नियन्त्रित किया जा सकता है –

  1. किसी अनजाने व्यक्ति के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहिए।
  2. एक बार उपयोग की गई इन्जेक्शन की सूई का प्रयोग दोबारा नहीं किया जाना चाहिए।
  3. एड्स संक्रमित व्यक्ति को किसी भी तरह से रुधिर दान नहीं करना चाहिए।
  4. रुधिर आधान से पूर्व रुधिर का HIV मुक्त होना आवश्यक है अर्थात् इसकी पूर्ण जाँच अनिवार्य होनी चाहिए।

प्रश्न 9.
स्टेम कोशिका के बारे में आप क्या जानते हैं? चिकित्सकीय उपचार में उनकी भूमिका की समीक्षा कीजिए। (2017)
उत्तर
बहुकोशिकीय जीवों की ऐसी अभिन्नित कोशिकाएँ (undifferentiated cells) जिनमें विभाजन द्वारा उसी प्रकार की असंख्य कोशिकाएँ उत्पन्न करने की क्षमता हो तथा इन कोशिकाओं के विभिन्नन (differentiation) से अन्य विशिष्ट कोशिकाएँ बन सकें, स्टेम कोशिका कहलाती हैं। एक स्टेम कोशिका अनेक प्रकार की कोशिकाओं एवं ऊतक का निर्माण करने में सक्षम होती है। मानव में विभिन्न रोगों के उपचार हेतु स्टेम कोशिकाओं का अत्यधिक महत्त्व है। इससे सम्बन्धित कुछ उपचार निम्नलिखित हैं –

  1. हृदय रोग (Heart Disease) – पेशी हृदय स्तर रोधगलने (myocardial infraction) रोग के उपचार हेतु अस्थिमज्जा स्टेम कोशिकाओं को उपयोग करके हृदय पेशियों तथा हृदय पेशी कोशिकाओं एवं ऊतकों को बनाया जाता है।
  2. त्वचा निरोपण (Skin Grafting) – आग या अम्ल से झुलसी त्वचा का निरोपण त्वचा की स्टेम कोशिकाओं से तैयार त्वचा द्वारा किया जाता है।
  3. रुधिर कैंसर उपचार (Leukemia Treatment) – रुधिर कैंसर रोगी में कीमोथिरेपी (chemotherapy) से अस्थिमज्जा नष्ट हो जाती है जिसे स्टेम कोशिका प्रत्यारोपण द्वारा सही किया जाता है।
  4. कॉर्निया प्रत्यारोपण (Cornea Transplantation) – कॉर्निया के खराब हो जाने पर स्टेम कोशिकाओं द्वारा विकसित कॉर्निया का प्रत्यारोपण करके इसे ठीक किया जाता है। इस विधि को होलोक्लार (holoclar) कहते हैं।
  5. बहरापन का इलाज (Treatment of Deafness) – निकट भविष्य में स्टेम कोशिकाओं द्वारा बहरेपन (deafness) का भी इलाज किया जा सकेगा।
  6. गर्भनाल रक्त संग्रह (Umblical Cord Blood Storage) – गर्भनाल से रक्त स्टेम कोशिकाओं को प्राप्त करके इसे सुरक्षित किया जाता है। इसका उपयोग रुधिर कणिकाओं एवं प्लेटलेट्स के निर्माण में किया जाता है।
  7. नई दवाइयों के परीक्षण हेतु भी स्टेम कोशिकाओं से ऊतक संवर्धन करके इन पर बीमारी की प्रकृति एवं दवाइयों के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संक्रामक तथा असंक्रामक रोग से आप क्या समझते हैं? प्रत्येक के दो-दो उदाहरण देकर इनके लक्षण, कारक एवं रोकथाम के उपाय लिखिए। (2014)
या
टिप्पणी लिखिए-न्यूमोनिया एवं टाइफॉइड (2015)
या
जुकाम किन विषाणुओं से होता है? जुकाम के दो लक्षण लिखिए। (2017)
या
कैंसर रोग के कारण, रोकथाम एवं बचाव पर प्रकाश डालिए। (2017)
उत्तर
संक्रामक रोग
वे रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे में आसानी से संचारित हो सकते हैं, संक्रामक रोग कहलाते हैं।
1. न्यूमोनिया
कारक – यह रोग मुख्यत: शिशुओं व वृद्धजनों में होता है परन्तु अन्य उम्र के लोगों में भी हो सकता है। फेफड़ों में होने वाला यह संक्रामक रोग स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिआई व हीमोफिलस इन्फ्लुएंजी नामक जीवाणुओं से होता है। इनके अतिरिक्त स्टेफाइलोकोकस पाइरोजीन्स, क्लीष्सीला न्यूमोनिआई तथा चेचक व खसरा उत्पन्न करने वाले विषाणु व माइकोप्लाज्मा भी इस रोग के कारक हो सकते हैं। न्यूमोनिया दो प्रकार का होता है –

  1. विशिष्ट न्यूमोनिया – यह स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिआई नामक जीवाणु से होता है। यह रोग सामान्य श्वसन तंत्र वाले व्यक्तियों में होता है।
  2. द्वितीयक न्यूमोनिया – यह इन्फ्लुएंजा पीड़ित व्यक्ति में स्टेफाइलो कोकाई जीवाणु द्वारा होता है। यह रोग उन व्यक्तियों में होता है जिनके फेफड़े इस रोग से पूर्व प्रभावित होते हैं।

लक्षण 

  1. रोगी को श्वास लेने में बाधा उत्पन्न होती है।
  2. रोगी को तीव्र सर्दी लगती है।
  3. रोगी को तीव्र ज्वर भी होता है।
  4. रोगी की भूख मर जाती है।

रोकथाम के उपाय 

  1. संक्रमित व्यक्ति से दूर रहना चाहिए।
  2. रोगी के द्वारा प्रयोग किये गये गर्म वस्त्र, बर्तन, बिस्तर आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  3. घर तथा पड़ोस में स्वच्छता बनाये रखनी चाहिए।

2. जुकाम या सामान्य ठण्ड
कारक – यह अति संक्रामक रोग पिकोवायरस समूह के रहिनो विषाणु द्वारा होता है। यह विषाणु जल की कणिकाओं तथा नाक के स्राव से एक-दूसरे में फैलता है।
लक्षण – आँखों तथा नाक से पानी आना, खांसी तथा बुखार आना, हाथ-पैर व कमर में दर्द रहना, बेचैनी रहना वे शरीर का कमजोर हो जाना।
रोकथाम के उपाय – इस रोग से बचाव हेतु, संक्रमित व्यक्ति से दूर रहना चाहिए। रोगी को खाँसते या छींकते समय रूमाल से मुंह ढक लेना चाहिए। इस रोग से संक्रमित व्यक्ति की वस्तुओं के उपयोग से बचना चाहिए।

3. टाइफॉइड ज्वर
यह संक्रामक रोग ग्राम नेगेटिव, रॉड की आकृति वाले गतिशील जीवाणु (gram negative, rode shaped motile bacteria) द्वारा होता है। इसे सालमोनेला टायफी (Salmonella typhi) भी कहते हैं। यह जीवाणु छोटी आँत में रहता है व रक्त परिसंचरण द्वारा शरीर के अन्य भागों में फैल जाता है। यह रोग अधिकतर गर्मी में होता है तथा इसका जीवाणु संक्रमित भोजन, जल, मल-मूत्र आदि द्वारा लोगों में पहुँचता है। मक्खियाँ इस रोग को फैलाने में मुख्य भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक आपदाओं; जैसे- बाढ़ आदि के समय भी यह रोग अधिक फैलता है। यह रोग पूरे विश्व में पाया जाता है, प्रायः यह 1-15 वर्ष के बालकों में अधिक होता है।

लक्षण (Symptoms)

  1. रोगी को लम्बे समय तक तेज बुखार रहता है।
  2. पूरे शरीर में दर्द रहता है।
  3. भूख नहीं लगती है तथा आँतों में परेशानियाँ होने लगती हैं।
  4. इसके साथ-साथ रोगी की नाड़ी धीमी हो जाती है तथा शरीर पर चमकीले छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं।
  5. कभी – कभी रोगी की आँतों से रक्त स्रावित होने लगता है। सही समय पर उपचार न होने पर रोगग्रस्त व्यक्तियों में से 10% की मृत्यु हो जाती है।

बचाव के उपाय (Measures of Prevention)

  1. खाद्य पदार्थों को हमेशा ढककर रखना चाहिए, जिससे मक्खियाँ जीवाणुओं को खाने तक न ला सकें।
  2. रोगी को हवादार तथा रोशनीयुक्त कमरे में रखना चाहिए।
  3. रोगी के मलमूत्र, थूक आदि को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
  4. जल व अन्य पदार्थों को उबालकर प्रयोग में लेना चाहिए।
  5. बाजार के खुले खाद्य पदार्थों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  6. वातावरण को स्वच्छ रखना चाहिए तथा कीटनाशकों का नियमित छिड़काव करना चाहिए।
  7. TAB के टीके (TAB vaccine) लगवाने चाहिए।

रोग का उपचार (Treatment of Disease)

  1. इस रोग की जाँच विडाल टेस्ट (widal test) द्वारा की जाती है।
  2. इस रोग में क्लोरोमाइसिटीन, एपिसीलीन (ampicilline) व क्लोरेम्फेनिकोल (chloramphenicol) नामक दवाइयाँ लाभदायक होती हैं।
  3. अब रोगी के शरीर से पित्ताशय को निकालकर भी रोग का उपचार किया जाता है।

असंक्रामक रोग
वे रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे में संचारित नहीं होते हैं, असंक्रामक रोग कहलाते हैं।
1. एलर्जी
कारक – हममें से कुछ लोग पर्यावरण में मौजूद कुछ कणों; जैसे-पराग, चिंचड़ी, कीट आदि के प्रति संवेदनशील होते हैं। इनके सम्पर्क में आने से ही हमारे शरीर में प्रतिक्रियास्वरूप खुजली आदि प्रारम्भ हो जाती है। यही एलर्जी है।
लक्षण 

  1. हमारे शरीर पर लाल दाने या चकते पड़ जाते हैं।
  2. शरीर में खुजली होती है।
  3. छींक आती है।
  4. नाक में से पानी बहता है।

रोकथाम के उपाय – हमें नये स्थान पर जाते समय वहाँ की भौगोलिक दशा के अनुरूप तैयारी करनी चाहिए अर्थात् यदि वहाँ धूल, पराग आदि अधिक होने की संभावना हो तो मुंह पर मास्क लगाकर निकलना चाहिए। शरीर को पूरा ढककर बाहर निकलना चाहिए तथा एलर्जी हो जाने पर प्रति हिस्टैमीन, एड्रीनेलिन और स्टीराइडों जैसी औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

2. कैंसर
कारक – सामान्य कोशिकाओं को कैंसरी कोशिकाओं में रूपान्तरण को प्रेरित करने वाले कारक भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक हो सकते हैं। ये कारक कैंसरजन कहलाते हैं। एक्स किरणें, गामा किरणें, पराबैंगनी किरणें, तम्बाकू के धुएँ में मौजूद कैंसरजन आदि कैंसर उत्पन्न करने के प्रमुख कारण हैं।

लक्षण – कैंसर ग्रस्त रोगी के शरीर में गाँठे पड़ जाती हैं जो बढ़ती रहती हैं।
रोकथाम के उपाय – कैंसरों के उपचार के लिए शल्यक्रिया, विकिरण चिकित्सा और प्रतिरक्षा चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है। आजकल कीमोथैरेपी का प्रचलन बढ़ गया है क्योंकि इससे रोग के समाप्त होने की संभावना अधिक होती है।

प्रश्न 2.
एस्केरिएसिस से आप क्या समझते हैं? इसके बचाव, उपचार और नियंत्रण का उल्लेख कीजिए। (2013, 14)
उत्तर
एस्केरिएसिस
यह रोग मनुष्य की आँत में रहने वाले परजीवी एस्केरिस लुम्ब्रिकॉयड्स (Ascaris lumbricoides) नामक, गोल कृमि से होता है। संक्रमित भोजन के साथ इस परजीवी के अण्डे मनुष्य की आँत में पहुँच जाते हैं। आँत में इसका लार्वा छेद करके हृदय, फेफड़े, यकृत को संक्रमित करता है। यह परजीवी हमारी आँत में पचे हुए भोजन पर निर्भर करता है। आँत में इसकी संख्या 500-5000 तक हो सकती है।

लक्षण व रोग जनकता (Symptoms and Pathogenecity) – इस रोग के मुख्य लक्षण हैं-पेट में दर्द, उल्टियाँ, अपेन्डिसाइटिस (appendicitis), अतिसार (diarrhoea), गैस्ट्रिक अल्सर (gastric ulcer), सन्नित (delirium), घबराहट, ऐंठन (convulsions) आदि। परपोषी की आँत में इस परजीवी के होने का कोई विशेष नुकसान नहीं होता है किन्तु संक्रमित बालक कुपोषण का शिकार होकर दुर्बल हो जाते हैं, इनकी वृद्धि मन्द हो जाती है। रोगी को हमेशा वमन की इच्छा बनी रहती है जिससे मन व मस्तिष्क बेचैन रहते हैं। आँत में एस्केरिस की संख्या अधिक होने पर पेट दर्द, भूख न लगना, अनिद्रा, दस्त, उल्टी आदि लक्षण विकसित हो जाते हैं।

एस्केरिस के द्वारा रोगी का उण्डुक (appendix) अवरुद्ध हो जाता है जिससे उदरशूल (colic pain) व उण्डुक पुच्छशोथ (appendicitis) विकार हो जाते हैं। रोगी के पित्तनली, अग्न्याशयी नाल आदि में एस्केरिस के फँस जाने पर स्थिति गम्भीर हो जाती है। एस्केरिस रोगी के शरीर में घूमता रहता है जिससे फेफड़े, आँत की दीवारें व रक्त केशिकाएँ घायल हो जाती हैं जिससे रक्तस्राव प्रारम्भ हो जाता है, फलस्वरूप रोगी दुर्बलता, सूजन, ऐंठन आदि का शिकार हो जाता है। शिशु एस्केरिस विपथगामी भ्रमण द्वारा रोगी के मस्तिष्क, वृक्क, नेत्र, मेरुदण्ड आदि में प्रवेश कर जाता है जिससे इन अंगों को हानि पहुँचती है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease 3Q.2.1

रोकथाम (Control) – अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखना, मल-मूत्र का खुला विसर्जन न करना, प्रदूषित भोजन व सड़े-गले फल-सब्जी आदि से बचना, भोजन करने से पूर्व हाथों को भली-भाँति धोना, शौचालय की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना व स्वच्छ जल का प्रयोग करना आदि इस रोग की रोकथाम के प्रमुख उपाय हैं। रोग होने पर इस परजीवी को मारने के लिए पाइपराजिन सिट्रेट (piperazin citrate) तथा पाइपराजिन फॉस्फेट (piperazin phosphate) औषधियों का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त मीबेन्डाजोल (mebendazole), पाइरान्टेल पामोएट (pyrantel pamoate) व ऐल्बेन्डाजोल (albendazole) औषधियाँ भी इस रोग के इलाज में प्रयुक्त की जाती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 8 Human Health and Disease 3Q.2.2

निदान एवं चिकित्सा (Diagnosis and Therapy) – एस्केरिस रोग के संक्रमण की पहचान रोगी के मल में इसके अण्डों की उपस्थिति से होती है। एस्केरिस द्वारा होने वाले रोग को एस्केरिएसिस (ascariasis) कहा जाता है। रोगी की आँत से कृमि को निकालने हेतु बथुआ का तेल (oil of chenopodium), डीमेटोड (dematode), मीबेन्डाजोल (mebendazole), जीटोमिसोल-पी (zetomisol-p), हेट्राजान (hetrazan), वर्मिसोल (vermisol), केट्राक्स (ketrax), जेन्टेल (zentel), एन्टीपार (antipar), एल्कोपार (alcopar), डिकैरिस (decaris) आदि औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। वर्तमान में 12 घंटे के उपवास के साथ हैक्सिल रिसॉर्सिनाल (hexylresorcinol) का तथा पाइपराजीन (piperazine), हैल्मेसिड सिना के साथ (halmacid with senna) आदि का उपयोग अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है।

प्रश्न 3.
मलेरिया रोग के रोगजनक, लक्षण तथा उपचार लिखिए। (2014)
या
मलेरिया तथा इसके नियंत्रण पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
या
मलेरिया रोग के रोगजनक तथा रोगवाहक का नाम लिखिए और उसके लक्षण एवं निदान बताइए।
(2015, 17)
उत्तर
रोगजनक – मलेरिया रोग का जनक एक प्रोटोजोआ जीव प्लाज्मोडियम है। प्लाज्मोडियम वाइवैक्स, प्लाज्मोडियम ओवल, प्लाज्मोडियम मलेरी तथा प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम इस जीव की प्रमुख जातियाँ हैं जो मलेरिया रोग के लिए उत्तरदायी हैं।
लक्षण 

  1. इस रोग में रोगी की भूख मर जाती है।
  2. रोगी को तीव्र ज्वर चढ़ जाता है।
  3. रोगी को कब्ज हो जाता है तथा जी मिचलाता है।
  4. रोगी का मुँह सूखने लगता है।
  5. रोगी के सिर, पेशियों और जोड़ो में तीव्र दर्द होता है।

उपचार – मलेरिया के उपचार के लिए 300 वर्षों से कुनैन एक परम्परागत औषधि बनी हुई है। यह डच ईस्ट इण्डीज, भारत, पेरू, लंका आदि देशों में सिन्कोना वृक्ष की छाल के सत से बनाई जाती है। यह रोगी के रुधिर में उपस्थित प्लाज्मोडियम की सभी प्रावस्थाओं को नष्ट कर देती है। कुनैन से मिलती-जुलती कृत्रिम औषधियाँ-ऐटीब्रिन, बेसोक्विन, एमक्विन, मैलोसाइड, मेलुब्रिन, निवाक्विन, रेसोचिन, कामोक्विन, क्लोरोक्विन आदि आजकल प्रचलित हैं। पेल्यूड्रिन, मेपाक्रीन, पैन्टाक्विन, डेराप्रिम, प्राइमाक्विन एवं प्लाज्मोक्विन रोगी के यकृत में उपस्थित प्लाज्मोडियम की प्रावस्थाओं को भी नष्ट करती हैं।

बचाव व नियन्त्रण – मलेरिया से बचाव व इसके नियन्त्रण के निम्नलिखित उपाय हैं –

  1. तालाब व गड्ढों में पानी जमा नहीं रहने देना चाहिए।
  2. घरेलू कुलर आदि में भी पानी की सफाई दो-तीन दिन के उपरान्त करनी चाहिए। नाली व अन्य पानी जमा होने वाले स्थानों पर मच्छरों का जनन रोकने हेतु मिट्टी का तेल डालना चाहिए। मच्छर के लारवा को खाने वाली मछलियों को तथा बतखों को पानी में छोड़ देते हैं। तथा यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) जैसे पादपों को पानी में उगाते हैं।
  3. मच्छर के जनन स्थानों को नष्ट कर देना चाहिए तथा नालियों को खुला नहीं छोड़ना चाहिए।
  4. D.D.T, B.H.C. आदि का प्रयोग मच्छर नष्ट करने हेतु करना चाहिए परन्तु इन दोनों का प्रयोग भारत में प्रतिबन्धित है।
  5. क्लोरोक्विन, प्राइमोक्विन, डाराप्रिम दवाओं का प्रयोग रोगी को स्वस्थ करने में सहायक होता है।
  6. मच्छरों को दूर भगाने हेतु allout तेल व क्रीम तथा मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 4.
निम्न पर टिप्पणी लिखिए –
(क) डेंगू बुखार (2018)
(ख) फाइलेरिंएसिस (2015, 16, 17)
उत्तर
(क) डेंगू बुखार
यह एक विषाणुजनित बुखार है, जिसे हड्डीतोड़ बुखार भी कहते हैं। डेंगू विषाणु की वाहक मादा ऐडीज मच्छर (Aedes aegypti) है। इस रोग का विषाणु फ्लेविवाइरिडी (flaviviridae) कुल का सदस्य है जिसे फ्लेविवाइरस (Flavivirus) कहा जाता है। इसे आर्बोवाइरस (Arbovirus) भी कहते हैं क्योंकि यह विषाणु मच्छरों (arthropod vector) द्वारा संचारित होता है।

डेंगू विषाणु की चार से पाँच स्ट्रेन्स (strains) या सेरोटाइप (serotypes) पायी जाती है जिन्हें क्रमशः DENV-1, DENV-2, DENV-3, DENV-4 आदि कहते हैं। यदि किसी व्यक्ति में इसमें से किसी भी एक स्ट्रेन द्वारा संक्रमण हो जाता है, तो उसे डेंगू बुखार हो जाता है तथा व्यक्ति इस स्ट्रेन के लिए जीवन पर्यन्त प्रतिरक्षा (immunity) विकसित कर लेता है किन्तु दूसरे अन्य स्ट्रेन्स के प्रति प्रतिरक्षण न होने के कारण उनके द्वारा संक्रमण का खतरा बना रहता है।

मादा ऐडीज दिन में (मुख्यत: प्रात: काल एवं सायंकाल) मनुष्य को काटती है। मनुष्य डेंगू विषाणु का प्राथमिक पोषद (primary host) और मादा मच्छर इसका द्वितीयक पोषद (secondary host) है। मनुष्य के शरीर में डेंगू विषाणु प्रवेश से लेकर बुखार का लक्षण प्रकट होने तक के समय को उद्भवन काल (incubation period) कहते हैं। यह 3 से 7 दिन कभी-कभी 10 से 12 दिन का होता है।

डेंगू बुखार के लक्षण (Symptoms of Dengue Fever) – डेंगू बुखार की दो श्रेणियाँ हैं –

  1. साधारण डेंगू बुखार—इसमें तेज ज्वर के साथ तेज सिरदर्द, जोड़ों में दर्द, चक्कर आना, भूख न लगना, मांसपेशियों में ऐंठन आदि हैं।
  2. प्रचण्ड डेंगू बुखार (Severe Dengue Fever) – इसकी दो अवस्थाएँ हैं –
    • डेंगू रक्तस्राव ज्वर (Dengue Haemorrhagic Fever) – इसमें सिरदर्द, बुखार, भूख न लगना, नाक-कान से रक्तस्राव होना, खून की उल्टी होना तथा रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या घट जाना आदि इसके लक्षण हैं।
    • डेंगू घातक लक्षण (Dengue Shock Syndrome) – इसमें बेचैनी, रुधिर दाब का अत्यधिक कम हो जाना तथा शरीर के प्रमुख अंगों में तरल की कमी होना आदि लक्षण हैं।

डेंगू का उपचार (Treatment of Dengue) – डेंगू एक विषाणु जनित रोग है इसके लिए कोई प्रतिजैविक (antibiotic) नहीं है। इसके लिए सहायक उपचार ही मुख्य चिकित्सकीय सहायता है। डेंगू बुखार में पेरासिटामोल तथा दर्द निवारक ऐसिटामिनोफेन एवं कोडीन दिया जाना चाहिए। मैक्सिको की सनोफी (sanofi) फार्मा कम्पनी ने एक वैक्सीन डेंग्वाक्सिया तैयार किया। इसका प्रयोग बहुत जल्द शुरू हो जायेगा।

डेंगू की रोकथाम (Control of Dengue) – डेंगू के रोकथाम एवं उन्मूलन के लिए निम्न प्रमुख उपाय हैं –

  1. सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग।
  2. दिन में मच्छरों से बचाव के लिए मच्छर भगाने वाली क्रीम का प्रयोग।
  3. टंकी, कूलर, गमला आदि में जल संग्रह नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि इसके वाहक मच्छर अपने लार्वा स्वच्छ जल में ही देते हैं।
  4. मच्छरों को मारने हेतु कीटनाशक का छिड़काव, लार्वा खाने वाले कीटों का प्रयोग आदि उपाय किए जाने चाहिए।

(ख) फाइलेरिएसिस
यह रोग क्यूलेक्स (Culex) मच्छर द्वारा फैलता है। यह ऐसे क्षेत्रों में अधिक होता है जहाँ मच्छर अधिक होते हैं व दूषित जल का प्रयोग किया जाता है। यह रोग एक निमेटोड वाउचेरेरिया बैंक्राफ्टी (Wuchereria buncrqfti) नामक परजीवी से होता है जो लसीका बाहिनियों (lymph ducts) में रहता है। इस परजीवी की जीवित व मृत दोनों अवस्थाओं से रोग होता है। जीवित अवस्था में यह ऐलीफेन्टियासिस (elephantiasis) या फाइलेरिएसिस (filariasis) नामक रोग उत्पन्न करता है, इसे हाथी पाँव भी कहते हैं।

इस रोग में लिम्फ वाहिनियों की एन्डोथीलियम कोशिकाएँ विभाजित होकर दीवारों को मोटा कर देती हैं। शुरुआत में रोगी को हल्का बुखार व शरीर में दर्द बना रहता है। लसीका नोड के ऊतक व अन्य अंगों; जैसे- यकृत, प्लीहा, अण्डकोष, टॉगों आदि में सूजन आने से इनको आकार बढ़ जाता है। इन अंगों में सूजन आने व लसीका बहने से ट्यूमर बन जाते हैं। इस रोग की गम्भीर अवस्था में टाँग का आकार सूजकर बढ़ जाता है तथा इस अवस्था को हाथी पाँव (elephantiasis) कहते हैं। इस रोग का संचरण क्यूलेक्स मच्छर द्वारा तीसरे चरण के लार्वा माइक्रोफाइलेरिया (Microfilaria) की अवस्था में होता है। क्यूलेक्स मच्छर द्वारा किसी मनुष्य को काटने पर लार के द्वारा माइक्रोफाइलेरिया लार्वा शरीर में प्रवेश कर जाता है। तत्पश्चात् यह रक्त व लसीका वाहिनियों में पहुंचकर वयस्क में रोग का संक्रमण कर देता है।

मादा क्यूलेक्स संक्रमित व्यक्ति के रुधिर से माइक्रोफाइलेरिया लार्वा को मुख्यतः रात के समय प्राप्त करती है; क्योंकि रात में यह लार्वा संक्रमित व्यक्ति की त्वचा के रुधिर वाहिनियों में आ जाते हैं।

रोकथाम (Control) – इस रोग से बचाव के लिए मच्छर व उनके लार्वा को नष्ट कर देना चाहिए तथा मच्छर के काटने से बचना चाहिए। वयस्क कृमियों को मारने के लिए आर्सेनिक से निर्मित दवा व M.S.Z. का प्रयोग किया जाना चाहिए। माइक्रोफाइलेरिया लार्वा को मारने के लिए डाइमिथाइल कार्बोमोनोजॉइन (dimethyl carbomonozoine) नामक दवी प्रभावी होती है। संक्रामक लार्वा के लिए पैरामेलेमिनाइल-फिनाइलस्टीबोनेट (paramelamynil-phenylstibonate) का प्रयोग किया जाता है। फाइलेरिया को पूर्ण रूप से समाप्त करने व फाइलेरिएसिस रोग की सूचना प्राप्त करने हेतु सरकार ने राष्ट्रीय फाइलेरिया नियन्त्रण कार्यक्रम (National Filaria Control Programme) चलाया है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित के सेवन से होने वाले हानिकारक प्रभावों का वर्णन कीजिए तथा इनसे बचने के उपायों को लिखिए – (2014)
(i) ऐल्कोहॉल (2017)
(ii) ड्रग (नशीली दवाएँ) (2017)
(iii) तम्बाकू
उत्तर-
(i) ऐल्कोहॉल
ऐल्कोहॉल (शराब) का सेवन करने से शरीर पर निम्नलिखित प्रमुख दुष्प्रभाव होते हैं –
1. शराब के प्रभाव से तन्त्रिका तन्त्र; विशेषकर केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र दुर्बल हो जाता है जिससे आत्म-नियन्त्रण समाप्त होना, मस्तिष्क कमजोर होना, स्मरण शक्ति क्षीण होना, विचार शक्ति लुप्त होना, अच्छे-बुरे का ज्ञान समाप्त होना, एकाग्रता की कमी होना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। बाद में ऐसा व्यक्ति अपना आत्मसंयम तथा आत्मसम्मान खो देता है।

2. शराब में ऐल्कोहॉल होता है जो कोशिकाओं से जल और शरीर की आन्तरिक ग्रन्थियों से होने वाले स्रावों को तेजी से अवशोषित करता है। परिणामस्वरूप पहले तो यकृत (लिवर) सिकुड़कर छोटा हो जाता है और इसके बाद उसका आकार सामान्य से अधिक हो जाता है। जिससे उसकी प्राकृतिक क्रियाशीलता नष्ट हो जाती है। पाचन तन्त्र तथा श्वसन तन्त्र में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। शरीर का पोषणे उचित न होने के कारण दुर्बलताएँ और अधिक बढ़ती हैं।

3. ऐल्कोहॉल आमाशय तथा आँतों की श्लेष्मिका झिल्ली को हानि पहुँचाता है। इसके फलस्वरूप पेप्टिक अल्सर हो जाता है। कभी-कभी पेप्टिक अल्सर के फोड़े कैन्सर भी बन जाते हैं।

4. कोशिकाओं से जल अवशोषित होने के कारण वे नष्ट हो जाती हैं और धीरे-धीरे शरीर; विशेषकर मांसपेशियाँ; दुर्बल होकर, शिथिल (ढीला-ढाला) पड़ जाता है।

5. शरीर में विटामिनों की कमी हो जाती है; विशेषकर विटामिन B श्रेणी के विटामिन (थायमीन आदि); और उनका वितरण अनियमित हो जाता है जो शरीर में अनेक प्रकार की विकृतियाँ और रोग उत्पन्न करता है।

6. रुधिर परिसंचरण प्रमुखतः त्वचा की ओर अधिक होने से त्वचा का रंग लाल हो जाता है। वास्तव में, इन स्थानों की रुधिर केशिकाएँ चौड़ी हो जाती हैं, अत: इस स्थान पर ताप अधिक हो जाता है।

7. भावनात्मकता यद्यपि बढ़ी हुई दिखाई देती है किन्तु शीघ्र ही उसमें आक्रामकता झलकने लगती है जो बाद में घृणास्पद हो जाती है।
ऐल्कोहॉल का आदी व्यक्ति अपने समस्त पारिवारिक सम्बन्धों की ओर से उदासीन अथवा कटु हो जाता है, उसमें सामाजिकता का अभाव होता जाता है तथा धीरे-धीरे वह आत्मकेन्द्रित हो जाता है। अनेक प्रकार की जटिलताएँ आयु के साथ (35-40 वर्ष से आगे) बढ़ती ही जाती हैं। कम-से-कम 5 प्रतिशत व्यक्ति हृदय अथवा वृक्कीय (cardiac or renal) जटिलताओं के कारण मर जाते हैं।

(ii) ड्रग (नशीली दवाएँ)
नशीली औषधियों को शरीर पर प्रभाव के आधार पर निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है –
1. शामक व निद्राकारक – ये औषधियाँ केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के उच्च केन्द्रों पर प्रभाव डालती हैं और कुछ क्षण के लिए चिन्ताओं को दूर करती हैं, तनाव व बेचैनी को कम करती हैं, निद्रा लाती हैं; जैसे-लुमिनल, इक्वेनिल, बार्बिट्यूरिक अम्ल आदि।

2. उत्तेजक या एण्टीडिप्रेसेन्ट्स – ये औषधियाँ केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को उत्तेजित करती हैं। इनसे कष्ट से राहत तथा ठीक होने की संवेदना प्राप्त होती है। इनके कारण रक्त चाप बढ़ जाता है। इनकी अत्यधिक मात्रा उग्रता उत्पन्न करती है। इसके प्रयोग से चुस्त होने का अहसास एवं आत्मविश्वास उत्पन्न होता है; जैसे-कैसीन, कोकेन, टॉफरेनिल, मेथिलफेनिडेट आदि।

3. विभ्रमक या साइकेडेलिक औषधियाँ – ये पदार्थ श्रवण तथा दृष्टि भ्रम उत्पन्न करते हैं। इनके प्रयोग से रंग न होते हुए भी रंग का आभास होता है। व्यसनी (drug addict) को रंगीन स्वप्निल दुनिया का आभास होता है। इनके कारण प्रसन्नता को झूठा आभास होता है तथा समय, स्थान व दूरी का उचित सामंजस्य नहीं रहता। एल०एस०डी० (लाइसेर्जिक ऐसिड डाइएथिलैमाइंड = LSD), सीलोसाइविन, चरस, गाँजा, हशीश आदि विभ्रमकारी पदार्थ हैं।

4. ओपिएट – ओपिएट नारकोटिक तथा दर्दनाशक दवाइयों का एक वर्ग है जिसमें अफीम तथा इसके स्राव से बने मॉर्फीन, हेरोइन, कोडीन, मीथाडोन तथा पैथिडीन आते हैं। ये दर्द, चिन्ता तथा तनाव को कम करते हैं। इनसे निद्रा व सुस्ती आती है। व्यसनी स्वयं को अच्छा महसूस करते हैं। इनमें से हेरोइन सबसे खतरनाक है।

(iii) तम्बाकू
तम्बाकू का सेवन पान, बीड़ी, सिगरेट, सिगार, पाइप, पान मसाला आदि किसी भी रूप में किया जाए, इसके सेवन के अनेक दुष्प्रभाव होते हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. तम्बाकू में निकोटिन नामक विष होता है जो फेफड़ों में एकत्रित होकर कैन्सर, दमा, तपेदिक आदि भयंकर रोगों को उत्पन्न होने में सहायता करता है।
  2. तम्बाकू के सेवन से रुधिर परिसंचरण की गति बढ़ जाती है जिससे उच्च रक्त चाप और हृदय सम्बन्धी अन्य रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
  3. धूम्रपान द्वारा तम्बाकू का सेवन अपने मार्ग मुंह, गला, फेफड़े इत्यादि की श्लेष्म कला (mucous membrane) पर हानिकारक प्रभाव डालता है। इससे कैन्सर जैसा भयंकर रोग होने की सम्भावना हो जाती है।
  4. श्लेष्म कला प्रभावित होकर अत्यधिक मात्रा में श्लेष्मक (mucous) स्रावित करती है, जिससे खाँसी, कफ (cough) और बाद में रोगाणुओं की रोकथाम की शक्ति (रोग अवरोधक क्षमता) कम होने से दमा, तपेदिक जैसे संक्रामक रोग भी शरीर में आसानी से घर कर लेते हैं।
  5. तम्बाकू के सेवन से पाचन शक्ति क्षीण होना, आमाशय और आँतों में सूजन आना, गैस अधिक बनना, कब्ज होना, भूख कम लगना, जी मिचलाना (मितली आना), मुँह में छाले होना आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
  6. तम्बाकू सेवन से मस्तिष्क में खुश्की आने से मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और अनिद्रा की स्थिति पैदा होती है। मानसिक शक्ति, विशेषकर विचार करने की क्षमता तथा तार्किकता क्षीण हो जाती है।
  7. धूम्रपान आदि से मांसपेशियों की कार्यक्षमता पर विशेष प्रभाव पड़ता है, उनकी संकुचन शक्ति कम होने से व्यक्ति की कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है।
  8. धूम्रपान के द्वारा तम्बाकू सेवन का प्रभाव आँखों पर भी पड़ता है।
  9. गर्भवती स्त्रियों के लिए धूम्रपान करना विशेष हानिकारक होता है। इससे गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
  10. प्रौढ़ावस्था में धूम्रपान का प्रभाव धीमा होता है किन्तु यौवनावस्था में यह अति तीव्र गति से प्रभावित करता है।
  11. धूम्रपान विशेष रूप से प्रदूषणकारी है। कहते हैं, धूम्रपान करने वाले व्यक्ति से अधिक उसका पड़ोसी प्रभावित होता है।
  12. धूम्रपान तथा अन्य प्रकार से तम्बाकू सेवन तन्त्रिका तन्त्र पर बुरा प्रभाव डालता है।

धुम्रपान एवं तम्बाकू के सेवन से अनेक हानियाँ होती हैं, इसीलिए विश्व के सभी उन्नत देशों में इसका सेवन न करने की निरन्तर चेतावनी दी जाती है। सिगरेट एवं तम्बाकू के प्रत्येक पैकेट पर इस प्रकार की वैधानिक चेतावनी अनिवार्य रूप से लिखी जाती है।
भारत में वर्तमान समय में तम्बाकू तथा तम्बाकू से बनी सभी वस्तुओं के सार्वजनिक विज्ञापन पर पूर्णतया रोक लगी हुई है।

रोकथाम एवं नियन्त्रण
यौवनावस्था में मानव को नशीले पदार्थ व ऐल्कोहॉल के सेवन से रोका जा सकता है जिसमें ऐसे मानव जो नशीला पदार्थ ले रहे हैं, उन्हें उचित शिक्षा व परामर्श देकर तथा योग्य मनोवैज्ञानिक की सहायता लेकर नशीले पदार्थ एवं ऐल्कोहॉल के अतिप्रयोग की रोकथाम व नियन्त्रण किया जा सकता है।

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