UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 21 World Scenario after Second World War (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्य)
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 21 World Scenario after Second World War (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्य)
विस्तृत उत्तीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध का अर्थ, परिभाषा व लक्षण लिखिए।
उत्तर :
शीतयुद्ध का अर्थ एवं परिभाषा
शीतयुद्ध एक ऐसी स्थिति है जिसे ‘उष्ण शान्ति’ कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में न तो ‘पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही वास्तविक युद्ध होता है, बल्कि शान्ति और युद्ध के बीच ” अस्थिरता बनी रहती है। यह स्थिति युद्ध की प्रथम सीढ़ी है जिसमें युद्ध के वातावरण का निर्माण किया जाता है। इस दौरान महाशक्तियाँ एक-दूसरे से भयभीत रहती हैं। दूसरे शब्दों में, शीतयुद्ध की ऐसी स्थिति होती है जिसमें युद्ध तो किसी भी क्षेत्र में नहीं होता, किन्तु हर समय युद्ध की-सी स्थिति बनी रहती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीतयुद्ध सोवियत संघ तथा अमेरिका के पारस्परिक सम्बन्धों की एक ऐसी शोचनीय दशा थी जिसमें दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध शत्रुता का विचार रखते थे। वे शत्रु-युद्ध न लड़कर मनोवैज्ञानिक युद्ध से एक-दूसरे को निरन्तर नीचा दिखाने का प्रयत्न करते थे। इस युद्ध के लिए रणक्षेत्र के स्थान पर मानव मस्तिष्क का प्रयोग किया गया था। यह वैचारिक युद्ध था। इसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि दृष्टि से नीचा दिखाने के लिए प्रयत्न करते थे।
फ्लेमिंग के अनुसार, “शीतयुद्ध का उद्देश्य शत्रुओं को अलग-थलग रखना (Isolate Policy) और मित्रों को जीतना होता है।”
ग्रीब्स के अनुसार, “शीतयुद्ध परमाणु युग में एक ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है। जो शस्त्र-युद्ध से कुछ हटकर है।”
एम० एस० राजन के अनुसार, “शीतयुद्ध शक्ति संघर्ष की मिली-जुली राजनीति का परिणाम है। दो विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम है, दो परस्पर विरोधी पद्धतियों का परिणाम है, विरोधी चिन्तन-पद्धतियों तथा संघर्षपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति है जो कि समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे के पूरक के रूप में बदलती रही है।” | पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “शीतयुद्ध पुरातन शक्ति सन्तुलन की अवधारणा का नया रूप है। यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो नाभिकीय शक्तियों का पारस्परिक संघर्ष है।”
के० पी० एस० मेनन के अनुसार, “शीतयुद्ध जैसा कि विश्व ने अनुभव किया, दो विचारधाराओं, दो पद्धतियों, दो गुटों, दो राज्यों और जब वह अपनी पराकाष्ठा पर था तो दो व्यक्तियों के मध्य उग्र संघर्ष था; दो विचारधाराएँ थीं—पूँजीवाद तथा साम्यवाद, दो पद्धतियाँ थीं—संसदीय लोकतन्त्र तथा जनवादी जनतन्त्र, बुर्जुआ जनतन्त्र तथा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही। दो गुट थे-नाटो तथा वारसा पैक्ट। दो राज्य थे-संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ। दो व्यक्ति थे-जोसेफ स्टालिन तथा जॉन फॉस्टर डलेस।”
करेन मिंग्स्ट के अनुसार –“शीतयुद्ध का आशय दो महाशक्तियों के बीच उच्चस्तरीय तनावों व प्रतियोगिता से था जिसमें दोनों ने प्रत्यक्ष सैनिक भिड़न्त को दूर रखा। परमाणु यन्त्रों की होड़ ने द्विध्रुवीयता को जन्म दिया जिसमें हर पक्ष ने बड़ी सावधानी से काम किया कि कहीं वे तीसरे विश्व युद्ध के कगार के समीप न आ जाएँ।
इस प्रकार शीतयुद्ध ‘शस्त्र-युद्ध की श्रेणी में न रखकर युद्ध का वातावरण कहा जा सकता है क्योंकि शीतयुद्ध के काल में युद्ध के समान वातावरण बना रहता था। अत: यह एक कुटनीतिक दाँव-पेचों से लड़ा जाने वाला युद्ध है जो कभी भी ‘वास्तविक युद्ध’ के विनाशकारी मार्ग का रूप धारण करने की सम्भावना बनाए रखता है।
शीतयुद्ध के लक्षण
शीतयुद्ध के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
- शीतयुद्ध ऐसा संघर्ष था जो सोवियत संघ तथा अमेरिका जैसी बड़ी शक्तियों के मध्य था।
- शीतयुद्ध प्रचार के माध्यम से तथा वाक् युद्ध के रूप में विश्व राजनीति में व्याप्त हो गया था।
- शीतयुद्ध का प्रभावशाली लक्षण यह था कि इसमें दोनों महाशक्तियों प्रचार, गुप्तचरी, सैनिक हस्तक्षेप, सैनिक सन्धियाँ तथा विभिन्न प्रकार के संगठनों का निर्माण करती रहती थीं। ऐसा करके वे अपनी शक्तियों को सुदृढ़ कर रही थीं।
- दोनों शक्तियों ने विश्व में तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी थी जिसके कारण युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जिसे शीतयुद्ध का नाम दिया गया।
- यह युद्ध भयानक था क्योंकि इसके भड़क उठने का कोई निश्चित समय नहीं था।
- यह युद्ध मस्तिष्क से लड़ा जाने वाला विचारों का युद्ध था। अत: इससे सभी देश भयभीत रहते थे।
- यह वास्तविक युद्ध से भी अधिक भयानक था।
प्रश्न 2.
शीतयुद्ध के प्रमुख कारण क्या थे? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :
विभिन्न विद्वानों ने शीतयुद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित बताए हैं।
1. परमाणु बम के आविष्कार का प्रचार – कुछ विद्वानों का मत है कि शीतयुद्ध के प्रारम्भ होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण परमाणु बम के आविष्कार का प्रचार है। ऐसा कहा जाता है। कि परमाणु बम ने हिरोशिमा तथा नागासाकी का ही सर्वनाश नहीं किया, वरन् युद्धकालीन मित्र राष्ट्रों के हृदय में भी शंका तथा भय की स्थिति उत्पन्न कर दी। संयुक्त राज्य अमेरिका में परमाणु बम बनाने के सम्बन्ध में भी अनुसन्धान का कार्य तो बहुत पहले से चल रहा था। वैसे इस अनुसन्धान में अमेरिका ने ब्रिटेन को सम्मिलित किया था तथा परमाणु बम से सम्बन्धित कुछ तकनीकी बिन्दु उसे भी बता दिए थे, परन्तु सोवियत संघ ने अपने अनुसन्धान को गुप्त रखा। अमेरिका तथा ब्रिटेन द्वारा परमाणु बम बनाए जाने को गुप्त रखने के कारण सोवियत संघ ने क्षोभ व्यक्त किया। अमेरिका के पास परमाणु बम होने की जानकारी ब्रिटेन तथा कनाडा को तो थी परन्तु यह रहस्य सोवियत संघ से छिपाया गया था। इस कारण सोवियत संघ को अपार दुःख हुआ। उसने कहा कि यह विश्वासघात का कार्य है। दूसरी ओर परमाणु बम पर खोज के कारण अमेरिका तथा ब्रिटेन प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे। वे यह बात प्रकट कर रहे थे कि हमें अब सोवियत संघ की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। इस कारण दोनों शक्तियों के बीच वैमनस्य बढ़ गया।
2. सोवियत संघ द्वारा अमेरिका की आलोचना – द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने से कुछ समय पूर्व से ही सोवियत संघ ने अमेरिका की आलोचना करना प्रारम्भ कर दिया था। वहाँ की पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपते थे जिनमें अमेरिकी नीतियों की आलोचना तीव्र शब्दों में की गई थी। इस प्रकार के कार्यों से अमेरिकी प्रशासन तथा जनता दोनों ही सोवियत संघ के विरोधी हो गए। अब अमेरिका ने सोवियत संघ की अमेरिका विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएँ बनानी प्रारम्भ की जिससे साम्यवाद के प्रचार-प्रसार के कार्यों पर अंकुश लगाया जा सके। सोवियत संघ ने अमेरिका में भी अपने प्रजातन्त्र को फैलाना प्रारम्भ किया। सन् 1945 में ‘स्ट्रैटेजिक सर्विस के कार्यकर्ताओं को विदित हुआ कि उनकी संस्था के कुछ प्रपत्र साम्यवादियों को पहुँचाए गए हैं। सन् 1946 में ‘कैनेडियन रॉयल कमीशन’ की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया है कि कनाडा की साम्यवादी पार्टी सोवियत संघ की एक भुजा है। यह सब देखकर अमेरिकी सरकार सोवियत संघ से सावधान हो गई। उसने सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद की आलोचना प्रारम्भ कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि शीतयुद्ध में तीव्रता उत्पन्न हो गई।
3. सोवियत संघ द्वारा पश्चिम की नीति का विरोध करना – द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् एक ओर सोवियत संघ पश्चिम की नीति का विरोध कर रहा था तो दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप के राष्ट्र सोवियत संघ के विरुद्ध प्रचार करने में संलग्न थे। 18 अगस्त, 1946 को बर्नेज | (अमेरिका के सचिव) तथा बेविन (ब्रिटेन के विदेश मन्त्री) ने कहा, “हमें तानाशाही के एक रूप के स्थान पर उसके दूसरे रूप के संस्थान को रोकना चाहिए। इसके पश्चात् 5 मार्च, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल ने कहा, “बाल्टिक में स्टेटिन से लेकर एड्रियाटिक में ट्रीटस्के तक महाद्वीप में एक लौह आवरण क्षेत्र में निवास करने वाली जनता न केवल सोवियत प्रभाव में है वरन् सोवियत नियन्त्रण में भी है। ………. स्वतन्त्रता की दीपशिखा प्रज्वलित रखने तथा ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए अब कुछ करना है।” इस प्रकार ब्रिटेन तथा अमेरिका ने आंग्ल-अमेरिकी गठबन्धन की आवश्यकता पर बल दिया। चर्चिल ने जो भाषण दिया उसके परिणाम दूरगामी हुए। अब दोनों महाशक्तियाँ एक-दूसरे के विरुद्ध विष वमन करने लगीं। दोनों का दृष्टिकोण शत्रुतापूर्ण हो गया।
4. बर्लिन की घेराबन्दी की नीति – सोवियत संघ ने जून, 1948 ई० के प्रोटोकॉल को ताक पर रखकर बर्लिन की घेराबन्दी प्रारम्भ कर दी। इससे पश्चिमी देशों ने सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की शिकायत की। विश्व में इस बात पर प्रचार किया गया कि यह कार्यवाही शान्ति की। पूर्ण स्थापना को शीघ्र ही समाप्त कर देगी।
5. सोवियत संघ द्वारा ‘वीटों’ का प्रयोग – सोवियत संघ ने बात-बात में ‘वीटो का प्रयोग करना प्रारम्भ किया जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र के कार्यों में बाधा पड़ने लगी। सोवियत संघ की दृष्टि में संयुक्त राष्ट्र विश्व-शान्ति तथा सुरक्षा की स्थापना करने वाली एक विश्व संस्था न होकर अमेरिका का एक प्रचार-तन्त्र था। अतः सोवियत संघ ने वीटो की शक्ति का प्रयोग करके पश्चिमी राष्ट्रों के प्रस्तावों को निरस्त करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी स्थिति में यूरोप के पश्चिमी राष्ट्र तथा अमेरिका यह सोचने लगे कि सोवियत संघ संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था को समाप्त करना चाहता है। अब पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की कटु आलोचना करने लगे। इससे विश्व में तनाव का वातावरण व्याप्त हुआ।
6. शक्ति-संघर्ष की राजनीति – मार्गेन्थो ने लिखा है, “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति-संघर्ष की राजनीति है।’ विश्व में जितने भी शक्तिशाली राष्ट्र होते हैं उनमें प्रायः संघर्ष होता रहता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् सोवियत संघ तथा अमेरिका दो शक्तिशाली राष्ट्र विश्व राजनीति में उभरकर आए। इनमें विश्व को अपने प्रभुत्व में लेने का पारस्परिक संघर्ष सभी के समक्ष प्रारम्भ हुआ। कुछ विचारकों की दृष्टि में शीतयुद्ध एक प्रकार से शक्ति सन्तुलन का ही पुराना रूप है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें दोनों शक्तियाँ अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए दिन-रात संलग्न थीं। धीरे-धीरे इसने सैद्धान्तिक रूप धारण कर लिया। शीतयुद्ध प्रमुख रूप से राष्ट्रीय हितों का स्वार्थ था। द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त अनेक मुद्दों पर सोवियत संघ तथा अमेरिका के स्वार्थ आपस में टकराते थे। ये विवादास्पद मुद्दे थे–जर्मनी का प्रश्न, बर्लिन का प्रश्न, पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन की स्थापना करना आदि।
7. यू-2 की घटना एवं शीतयुद्ध का नवीनीकरण – यू-2 अमेरिका का एक जासूसी विमान था जिसे सोवियत संघ ने मार गिराया था। इस जासूसी कार्यवाही से सोवियत संघ अमेरिका से अप्रसन्न हो गया तथा उसने माँग की कि अमेरिका इस असम्मानजनक कार्य के लिए क्षमा माँगे तथा भविष्य में सोवियत संघ में जासूसी न करने का आश्वासन दे। अमेरिका सोवियत संघ की इस माँग के पक्ष में नहीं था। अतः यू-2 की घटना ने एक बार पुन: अमेरिका-सोवियत सम्बन्धों को तनावपूर्ण तथा क्षुब्ध बना दिया।
8. पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता तथा शीतयुद्ध – 16 मई, 1960 में इसी घटना की छाया के नीचे पेरिस शिखर सम्मेलन प्रारम्भ हुआ। इस आश्वासन की अवहेलना करते हुए कि यू-2 की घटना का मामला शिखर सम्मेलन में नहीं उठाया जाएगा, खुश्चेव ने अमेरिका से पुनः माफी माँगने की माँग की तथा विरोध को प्रकट करने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति आइजनहावर से हाथ तक नहीं मिलाया। अत: पेरिस शिखर सम्मेलन विफल हो गया तथा शीतयुद्ध का वातावरण पुनः तीव्र हो गया।
9. 1961 को बर्लिन दीवार का संकट – 1961 ई० के बर्लिन दीवार संकट तथा क्यूबा मिसाइल संकट ने सोवियत संघ तथा अमेरिका को लगभग युद्ध के किनारे लाकर खड़ा कर दिया। अगस्त, 1961 को बर्लिन शहर से पश्चिमी क्षेत्रों को सोवियत अधिकार वाले क्षेत्रों से पृथक् करने के लिए सोवियत संघ द्वारा निर्मित दीवार का अमेरिका ने कड़ा विरोध किया। अमेरिका तथा सोवियत संघ दोनों ने अपने-अपने मोर्चे पर टैंक लाकर खड़े कर दिए थे तथा दोनों के मध्य युद्ध की आशंका प्रबल हो गई थी। परन्तु युद्ध तो नहीं हुआ लेकिन इस क्षेत्र में तनाव व्याप्त रहा।
10. भारत-पाक युद्ध तथा शीतयुद्ध – 1964 ई० में वियतनाम में सैनिक कार्यवाही की स्थिति में वृद्धि करने के विषय में अमेरिकी राष्ट्रपति जानसन के निर्णय का सोवियत संघ ने कड़ा विरोध किया। 1965 ई० में भारत-पाक युद्ध प्रारम्भ हो गया तथा दोनों अमेरिका व सोवियते संघ ने विरोधी पक्ष लिए। भारत तथा पाकिस्तान के बीच सोवियत संघ की मध्यस्थता की भूमिका अमेरिका को अप्रिय लगी। इससे दोनों महाशक्तियों में तनाव और तीव्र हो गया।
11. सन 1969 का बर्लिन दीवार संकट – मार्च, 1969 में बर्लिन एक बार पुनः अमेरिका तथा सोवियत संघ के सम्बन्धों में शीतयुद्ध के तनावों का कारण बन गया। पश्चिमी जर्मनी की सरकार के इस निर्णय को फैडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (प० जर्मनी) के चांसलर का निर्वाचन पश्चिमी बर्लिन में ही किया जाए, सोवियत संघ तथा जर्मनी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पू०जर्मनी) ने इसका कड़ा विरोध किया। इस कारण अमेरिका सोवियत संघ से पुनः अप्रसन्न हो गया।
इस प्रकार शीतयुद्ध को हम राष्ट्रीय हितों का युद्ध कह सकते हैं; क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व में अनेक घटनाएँ घटीं तथा नए-नए मुद्दे उत्पन्न हुए। इन मुद्दों को लेकर सोवियत संघ तथा अमेरिका वाक्युद्ध करते रहते थे। यही वाक्युद्ध आगे चलकर ‘शीतयुद्ध’ के नाम से विख्यात हुआ।
प्रश्न 3.
“शीतयुद्ध के कारण विश्व की राजनीति का स्वरूप द्वि-ध्रुवीय बन गया था।” विवचेना कीजिए।
या
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर शीतयुद्ध के प्रभावों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर शीतयुद्ध का प्रभाव
विश्व की राजनीति को जितना शीतयुद्ध ने प्रभावित किया उतना और किसी तत्त्व ने प्रभावित नहीं किया। इस दृष्टि से शीतयुद्ध के प्रभाव का अध्ययन हम निम्नांकित रूपों में करेंगे
1. विश्व राजनीति का द्वि-ध्रुवीकरण – शीतयुद्ध के कारण विश्व की राजनीति का विभाजन दो शक्ति गुटों अर्थात् सोवियत संघ तथा अमेरिका में हो गया। उसे द्वि-ध्रुवीकरण (Bipolar) का नाम दिया गया। अब विश्व के दो शक्ति सम्पन्न राष्ट्र पृथक्-पृथक् दो गुटों के रूप में विभक्त हो गए और उसी के अनुरूप विश्व के अन्य राष्ट्रों का नेतृत्व करने लगे।
2. आणविक युद्ध की आशंका – अमेरिका ने जापान के विरुद्ध 1945 ई० में आणविक शस्त्र का प्रयोग किया था। शीतयुद्ध के दौरान विश्व के राष्ट्रों ने यह सोचना प्रारम्भ किया कि अगला युद्ध आणविक युद्ध होगा तथा उस युद्ध की भयंकरता के समक्ष किसी भी राष्ट्र की राजनीति निरक्षक सिद्ध होगी। क्यूबा संकट के समय यह सोचा जाने लगा था कि आणविक युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। इस प्रकार आणविक आतंक के कारण सभी राष्ट्र मानसिक रूप से अशान्त रहने लगे। कुछ राष्ट्रों ने आणविक शस्त्रों का निर्माण भी प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार विश्व की परम्परागत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का स्वरूप परिवर्तित होने लगा।
3. शस्त्रीकरण की होड़ में वृद्धि – शीतयुद्ध के कारण शस्त्रीकरण की होड़ को बढ़ावा मिला। अतः विश्व-शान्ति तथा नि:शस्त्रीकरण की सभी योजनाएँ विफलता के गर्त में समा गईं।
4. आतंक तथा अविश्वास की सीमा में वृद्धि – शीतयुद्ध के कारण भी अधिकांश राष्ट्र आशंका की तथा अविश्वास की स्थिति में आ गए। सोवियत संघ तथा अमेरिका की पारस्परिक मतवैभिन्नयता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में तनाव, मनोमालिन्य, कटुता, प्रतिस्पर्धा तथा अविश्वास बढ़ गया। सभी राष्ट्र विचार करने लगे कि किसी भी समय छोटी-सी चिंगारी सम्पूर्ण विश्व में तीसरे महायुद्ध की आग को भड़का सकती हैं। सभी राष्ट्रों की विदेश नीति ठहर-सी गई अर्थात् शीतयुद्ध के कारण युद्ध का वातावरण बना रहा।
5. सैनिक सन्धियों तथा गठबन्धनों को जन्म देना – शीतयुद्ध के कारण विश्व में अनेक प्रकार के सैनिक गठबन्धनों तथा सैनिक सन्धियों का जन्म हुआ। नाटो, सिएटो, सेण्टो तथा वारसा पैक्ट जैसे गठबन्धनों ने तो शीतयुद्ध की ढीली गाँठ को अधिक सुदृढ़ कर दिया। इससे नि:शस्त्रीकरण की समस्या और अधिक जटिल हो गई। वास्तव में सैनिक संगठनों की राजनीति इतनी शंकालु थी कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व में आए दिन कहीं-न-कहीं युद्ध होते रहे।
6. मानव कल्याण का स्वरूप गौण – शीतयुद्ध के कारण विश्व की राजनीति का केन्द्रबिन्दु सुरक्षा की समस्या तक सीमित हो गया। मानव-कल्याण से सम्बन्धित कार्यक्रम उपेक्षित हो गए। विश्व के निर्धन तथा विकासशील राष्ट्रों में भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ापन, राजनीतिक अस्थिरता आदि अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं तथा उनका समाधान खोजने के लिए किसी भी बड़े राष्ट्र ने कोई कदम नहीं उठाया। महाशक्तियाँ अपने-अपने गुटों को मजबूत करने की राजनीति में उलझी रही।
7. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सैनिक दृष्टिकोण – शीतयुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण में वृद्धि हुई। सभी राष्ट्र अपनी सामर्थ्य से अधिक सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहने लगे। सम्पूर्ण विश्व दो गुटों (शिविरों) में विभाजित हो गया। इससे चारों ओर विरोध तथा असमंजस का वातावरण उत्पन्न हो गया।
8. सैनिक-संख्या में वृद्धि – शीतयुद्ध के कारण सभी राष्ट्रों की राजनीति में सैनिकों की वृद्धि करने की अवधारणा शान्ति तथा युद्ध के बीच झूलने लगी। ऐसी स्थिति में शान्तिपूर्ण कार्यक्रमों को जैसे जंग-सा लग गया। सभी राष्ट्र सैनिकों की संख्या में वृद्धि करने लगे।
9. संयुक्त राष्ट्र-संघ के कार्यों में अवरोध – शीतयुद्ध के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संगठन के कार्यों में अवरोध उत्पन्न हो गया। परन्तु महाशक्तियों के पारस्परिक विरोधी दृष्टिकोण के कारण संघ की ओर से किसी भी आक्रमक राष्ट्र के विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं हो सकी। अनेक बार तो संयुक्त राष्ट्र-संघ चुपचाप घटनाक्रमों को देखता रहा परन्तु कुछ नहीं कर सका।
10. सकारात्मक परिणाम – उपर्युक्त सभी परिणाम नकारात्मक माने जाते हैं। परन्तु कुछ सकारात्मक परिणाम भी परिलक्षित हुए; जैसे –
- शीतयुद्ध के कारण गुटनिरपेक्षता को बल मिला।
- तीसरी दुनिया के राष्ट्रों को उपनिवेशवाद से छुटकारा मिला।
- विश्व में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को बल मिला।
- इसके अतिरिक्त शीतयुद्ध के कारण तकनीकी तथा प्राविधिक विकास तीव्र गति से हुआ।
- राष्ट्रों ने अपनी विदेशी नीति में यथार्थवाद को भी स्थान दिया।
प्रश्न 4.
शीतयुद्ध के विकास के विभिन्न चरणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
शीतयुद्ध के विकास के विभिन्न चरण
शीतयुद्ध का प्रथम चरण (1946 से 1953)
- 19 फरवरी, 1947 को अमेरिकी सीनेट के सम्मुख राज्य सचिव डीन एचिसन ने कहा, “सोवियत संघ की विदेश नीति आक्रामक और विस्तारवादी है।”
- ‘ट्रमैन सिद्धान्त–साम्यवाद विरोध के नाम पर अमेरिका ने 12 मार्च, 1947 को विश्व के अन्य देशों के लिए टूमैन सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया।
- ‘मार्शल योजना’–विश्व को साम्यवादी क्रान्ति के खतरे से बचने के लिए 8 जून, 1947 को अमेरिका ने मार्शल योजना की घोषणा की।
- ‘कोमेकोन’ की स्थापना-सोवियत गुट के नौ यूरोपीय देशों ने मार्शल योजना का करारा जवाब देने के लिए 25 अक्टूबर, 1947 को ‘कोमकोन’ का गठन किया।
- ‘नाटो’ का गठन-4 अप्रैल, 1919 को अमेरिका के नेतृत्व में कनाडा और पश्चिम यूरोप के दस देशों-बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, आयरलैण्ड, इटली, लक्जेमबर्ग, हॉलैण्ड, पुर्तगाल, ब्रिटेन और नॉवें–ने ‘नाटो’ नामक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर किए।
- 1 अक्टूबर, 1949 को बीजिंग में राष्ट्रवादी सरकार को हटाकर ‘माओत्से तुंग’ के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार की स्थापना की गई।
- जून, 1950 में चीनी एवं रूसी सैनिक मदद से उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर फौजी हमला किया।
- संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा उत्तरी कोरिया को आक्रमणकारी घोषित किया। अन्त में 8 जून, 1953 को युद्ध विराम हुआ।
शीतयुद्ध का दूसरा चरण (1953 से 1958)
- 1953 में सोवियत संघ ने पहली बार परमाणु परीक्षण किया।
- 1954 में अमेरिका ने तीसरी दुनिया के देशों में साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए ‘सिएटो (SEATO) के साथ सैनिक समझौता किया।
- 1955 में सैनिक समझौते सेण्टो’ (CENTO) की स्थापना।
- अमेरिका द्वारा साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए ‘सिएटो’, ‘सेण्टो’ एवं ‘नाटो’ को जवाब देने के लिए सोवियत रूस द्वारा 14 मई, 1955 को पूर्वी-यूरोपीय देशों को ‘वारसा पैक्ट में शामिल कर सैनिक सुरक्षा की गारन्टी प्रदान की गई।
- 1956 में स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के जवाब में फ्रांस और ब्रिटेन द्वारा मिस्र पर सैनिक हमला किया गया।
- जून, 1957 में अमेरिका द्वारा ‘आइजनहावर सिद्धान्त’ की घोषणा की गई।
शीतयुद्ध का तीसरा चरण (1959 से 1962)
- ‘कैम्प डेविड’ नामक स्थान पर रूसी नेता खुश्चेव और अमेरिकी नेता आइजनहॉवर के बीच 16 मई, 1960 को पेरिस में नि:शस्त्रीकरण की समस्या सुलझाने के लिए एक शिखर सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया गया जिसे ‘कैम्प डेविड की भावना’ के नाम से जाना गया।
- मई, 1960 को यू-2 काण्ड के कारण ‘कैम्प डेविड की भावना’ पर पानी फिर गया।
शीतयुद्ध का चौथा चरण (1963 से 1979)
- नि:शस्त्रीकरण के क्षेत्र में 23 जुलाई, 1963 को मास्को में रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने वायुमण्डल, बाह्य अन्तरिक्ष और समुद्र में परमाणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध सन्धि पर हस्ताक्षर किए।
शीतयुद्ध का अन्त
1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में सामान्य रूप से यह मत व्यक्त किया कि शीत युद्ध का अन्त हो गया है, परन्तु पश्चिमी लेखक ‘Water Lequer’ अपने एक अंक American Journal of Foreign Affairs, 1988 में शीतयुद्ध के अन्त की सम्भावना से इन्कार किया।
जून, 1990 में NATO के सदस्य देशों ने यह औपचारिक रूप से घोषणा की कि शीत युद्ध का अन्त हो गया।
1990 के शुरू के दशक में औपचारिक रूप से ‘वारसा पैक्ट’ का अन्त हो गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के उत्तरार्द्ध से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जिस शीतयुद्ध का प्रारम्भ हुआ वह 1962 के क्यूबा संकट के समय तक उग्र रहा, परन्तु 1962 के बाद अमेरिकी गुट तथा सोवियत गुट के बीच की तनाव की स्थिति में शिथिलता आयी, परन्तु शीतयुद्ध के इतिहास में 1980 वाले दर्शक के उत्तरार्द्ध तक ऐसा समय कभी नहीं आया जब यह कहा जा सके कि शीतयुद्ध का अन्त हो गया है। 1985 में सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता के रूप में ‘गोर्वाचोव’ के उदय के बाद शीतयुद्ध के अवशेषों का क्रमिक रूप से लोप होने लगा और 1980 के दशक के अन्त तक स्वत: शीतयुद्ध का अन्त हो गया। ‘वारसा पैक्ट’ के दशक में तो पहले ही शीतयुद्ध की समाप्ति की घोषणा कर दी थी।
शीत युद्ध के अन्त में उन्हीं तथ्यों ने सहायता पहुँचाई जिन्होंने 1962 के बाद ‘तनाव शैथिल्य’ (Detente) की प्रक्रिया के प्रारम्भ में सहायता पहुँचाई थी। ऐसे तथ्य हैं-सैनिक तैयारी की निरर्थकता, आणविक युद्ध में विजयी एवं विजित के अवधारणा की अप्रसांगिकता दोनों ही महाशक्तियों के हितों के लिए शीतयुद्ध की निरर्थकता तथा गुटीय राष्ट्रों की मित्रता की अवांछनीयता एवं अविश्वसनीयता आदि। परन्तु इन तथ्यों के अतिरिक्त सोवियत संघ में गोर्वाचोव जैसे नेता के रूप में उदय ने, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसा वातावरण तैयार करने में सहायक हुआ जिसमें तनाव की गुंजाइश नहीं थी। सोवियत संघ में आन्तरिक राजनीति में ‘Glasnost and Prestroika’ (खुलेपन एवं पूँजी निर्माण) ने जिस नवीन विचार का समावेश किया उसी के चलते ऐसा वातावरण तैयार हुआ।
सैनिक तैयारी की निरर्थकता एवं वास्तविक अर्थों में नि:शस्त्रीकरण के लिए किये जाने वाले प्रयासों ने शीतयुद्ध के दोनों पक्षों के बीच पारस्परिक विश्वास एवं सद्भावना को आगे बढ़ाने में सहायता पहुँचायी। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि शीतयुद्ध के काल के नाटो तथा वर्साय सन्धि जैसे सैनिक गठबन्धनों की महत्ता कम हो। 1990 के शुरू के दशक में तो औपचारिक रूप से वर्साय सन्धि’ का अन्त हो गया।
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भी ‘नाटो’ का अस्तित्व बना हुआ है एवं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके सैनिक संगठन के स्वरूप में भारी परिवर्तन आ गया।
मई एवं जून, 1997 में नाटो के इस सम्मेलन में सोवियत संघ के शामिल हो जाने पर इसे अन्त समझा जाने लगा है।
प्रश्न 5.
दितान्त’ की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
दितान्त : अर्थ एवं परिभाषाएँ।
‘दितान्त’ फ्रेंच भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है – ‘तनाव में शिथिलता’ या तनाव में कमी’ (Relaxation of Tensions)। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में ‘दितान्त’ से अभिप्राय सोवियत-अमेरिकी तनाव में कमी और उनमें दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई मित्रता, सहयोग और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना से है
ऑक्सफोर्ड इंगलिश शब्दकोश के अनुसार, दितान्त दो राज्यों के तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति (Cessation of strained relations between two states) है।
डॉ० राणा के अभिमत में इस सहयोगी-प्रतिद्वन्द्वी व्यवहार को चार प्रकार की परिस्थितियों में अभिव्यक्त किया जा सकता है किसी संकट की घड़ी में (Crisis Management), विश्व में यथास्थिति बनाए रखने की आवश्यकता (Management of the overall international status quo); आर्थिक सहयोग (Economic management) और परमाणु अस्त्रों के परिसीमन की आवश्यकता के समय (Management of arms control)।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अधुनातन परिप्रेक्ष्य में दितान्त का अर्थ इस प्रकार से किया जा सकता है –
- अमेरिका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य शीतयुद्ध के बजाय सामंजस्यपूर्ण (Reapproachment) सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं।
- अमेरिका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य मतभेद के बजाय शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व (Peace co-existence) के सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं।
- दितान्त का यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों महाशक्तियों के मतभेद, पूर्णत: समाप्त हो गए या उनमें वैचारिक मतभेद नहीं पाए जाते थे या उनमें कोई राजनीतिक, आर्थिक व सैनिक प्रतियोगिता नहीं थी दितान्त की विशेषता यह थी कि सैद्धान्तिक मतभेदों एवं प्रतियोगिता के बावजूद इसने महाशक्तियों में आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग में बाधा प्रस्तुत नहीं होने दी।
वस्तुत: दितान्त का अर्थ शीतयुद्ध की समाप्ति नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं कि महाशक्तियाँ अपना वर्चस्व अथवा सर्वोपरिता बनाए रखने में अभिरूचि नहीं रखतीं। दितान्त का सीधा-सादा अर्थ यह है कि महाशक्तियों (अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ) ने न्यूनाधिक रूप से आपसी प्रतिस्पर्धा के मानदण्डों को आंशिक रूप से संहिताबद्ध करने का प्रयत्न किया था। वस्तुतः दितान्त का सदैव यह मन्तव्य रहा कि सहयोग के साथ भिड़न्त को सन्तुलन बना रहे। “दितान्त (तनाव-शैथिल्य) मित्रता नहीं है, यह सर्वश्रेष्ठ भाव में विरोधाभासी सम्बन्धों का नियन्त्रण है।”
दितान्त की प्रकृति
दितान्त का स्वरूप क्या है? दितान्त सम्बन्ध शीतयुद्ध से भिन्न है किन्तु इसका मतलब पक्की मित्रता भी नहीं है। यह भी नहीं कह सकते कि अमेरिका और सोवियत संघ में उसी प्रकार की मित्रता हो गयी जिस प्रकार अमेरिका और ब्रिटेन में साँठगाँठ और मित्रता है। दितान्त का यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों महाशक्तियों के मतभेद पूर्णत: समाप्त हो गए या उनमें वैचारिक मतभेद नहीं पाए जाते या उनके राष्ट्रीय हितों में कोई विरोध नहीं या उनमें कोई राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक प्रतियोगिता नहीं। वस्तुत: अमेरिका और सोवियत संघ ने वैचारिक मतभेद तब भी बने हुए थे, किन्तु वे अब राजनीतिक और आर्थिक विचार-विनिमय में बाधक नहीं रहे। यद्यपि शस्त्रीकरण की । दौड़ पूर्णतया समाप्त नहीं हुई थी तथापि शस्त्रों का खेल मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की छाया में खेला जाने लगा। सैनिक गुटबन्दियों का अन्त नहीं हुआ तथापि उनका महत्त्व एवं सुदृढ़ता घट-सी गयी। अब अणु-शस्त्रों की भीषणता दुनिया को उतनी नहीं सताती जितनी कि यह पहले आतंकित करती थी।
डॉ० हेनरी कीसिंजर के शब्दों में, “मॉस्को के साथ अब हमारे सम्बन्ध बड़े जटिल (Ambiguous) हैं। वैचारिक धरातल पर अनवरत मतभेद बना रहेगा, किन्तु आणविक शस्त्रास्त्र सह-अस्तित्व के लिए विवश करते हैं।….. भूगोलमूलक राजनीति आवश्यक रूप से तनाव पैदा करेगी किन्तु सैनिक प्रविधि का विकास आवश्यक रूप से विवादास्पद मुद्दों का समाधान खोजने को बाध्य करेगा राष्ट्रपति निक्सन ने अमेरिकी विदेश नीति की व्याख्या करते हुए 9 फरवरी, 1972 को कहा था-“अनेक गहरी बातें हमें (वाशिंगटन और मॉस्को) विभाजित करती रहेंगी। हम विचारधारा के मामले में विरोधी हैं और बने रहेंगे। हम राजनीतिक और सैनिक प्रतियोगी हैं और इनमें से किसी भी क्षेत्र में किसी की प्रगति के प्रति दूसरा पक्ष उदासीन नहीं रह सकता।” दितान्त किसी सुनिश्चित अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था या विश्व-शान्ति का भी द्योतक नहीं है। दितान्त से इतनी उपलब्धि जरूर हुई है कि तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत का भय लोगों के मस्तिष्क से निकल गया क्योंकि शीतयुद्ध के काल में महाशक्तियों में जो शक्ति-संघर्ष और उग्र मतभेद थे, वे दितान्त काल में सहज एवं सतर्कता का रूप धारण कर चुके थे। दोनों महाशक्तियाँ अब सभ्य राष्ट्रों जैसा आचरण एक-दूसरे के प्रति करने लगीं और एक-दूसरे के प्रति उनका रुख सौहार्दपूर्ण तथा सम्मानजनक भी दिखाई देने लगा। संक्षेप में, दितान्त का स्वरूप निम्नांकित रूप से व्यक्त किया जा सकता है –
- दितान्त सम्बन्धों के युग में दोनों महाशक्तियाँ एक-दूसरे से सम्पर्क बनाए रखती थीं।
- दितान्त एक प्रकार से महाशक्तियों में शक्ति-सन्तुलन की स्थापना एवं उसकी स्वीकृति थी।
- दितान्त युग में महाशक्तियाँ अपने विवादों को लेन-देन के आधार पर गरिमापूर्ण आचरण करते हुए हल करने लगीं।
- दितान्त की विशेषता रही कि सैद्धान्तिक मतभेदों के बावजूद महाशक्तियाँ आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, व्यापारिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग करती रहीं।
संक्षेप में, दितान्त से महाशक्तियों के आचरण के नियमों (Rules of Conduct) का विकास हुआ, हितों में जोड़ने वाली कड़ी (Interconnection of Interests) बनी, नीति-निर्माताओं में संचार-व्यवस्था (Communication) स्थापित हुई जिससे संकट की घड़ी में दुर्घटनाओं के खतरे अथवा असन्तुलित निर्णय (Miscalculation) को टाला जा सके।
सन् 1970 ई० के दशक का दितान्त (तनाव शैथिल्य) सन् 1979 ई० तक पहुँचते-पहुँचते काफी कमजोर हो गया था। दोनों महाशक्तियों ने ऐसे कार्य किए तथा ऐसी नीतियों का निर्माण किया जिन्होंने दितान्त को गम्भीर रूप से प्रभावित किया तथा इसके उद्देश्य को संकट में डाल दिया। दोनों महाशक्तियों के कार्यों से फिर से शीतयुद्ध–एक नया शीतयुद्ध, पहले से कहीं व्यापक तथा पहले से कहीं अधिक भयानक विशेषताओं वाला प्रारम्भ हो गया।
प्रश्न 6.
एकध्रुवीय और बहुध्रुवीय विश्व की परिकल्पना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
एकध्रुवीय विश्व की परिकल्पना
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में दो महाशक्तियों का उदय हुआ। ये दो महाशक्ति थीं– अमेरिका व सोवियत संघ। 1945-90 के बीच विश्व द्वि-ध्रुवीय विश्व कहलाता था। शीतयुद्ध के दौरान का यह विश्व दो खेमों में बँटा हुआ था। शक्ति के दो ध्रुव (केन्द्र) थे। अमेरिका ने यूरोपीय देशों को साथ लेकर नाटो का गठन किया तथा बाद में सिएटो, सेण्टो जैसी सैनिक सन्धियाँ की। इस तरह एक सैनिक संगठन तैयार किया गया जो साम्यवाद का विरोधी था। दूसरी ओर तत्कालीन सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देश-पोलैण्ड, हंगरी, चेकोस्लाविया, जर्मनी आदि ने वारसा सन्धि की थी। शुरू में चीन उसके साथ था। इस तरह सोवियत संघ ने अपना अलग सैनिक संगठन तैयार किया। दोनों महाशक्तियों के बीच कोई प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ। दोनों के बीच दावे-प्रतिदावे, धमकियाँ और छिटपुट कार्यवाहियाँ होती रहीं जिस कारण से यह शीतयुद्ध कहलाया। शीतयुद्ध की समाप्ति । तथा सोवियत संघ के विघटन (1991) के बाद का विश्व ‘एकध्रुवीय बन गया। आज विश्व की राजनीति एक महाशक्ति (अमेरिका) की इच्छा पर केन्द्रित हो गई।
उदाहरणार्थ – जब मई, 1998 के बाद अमेरिका ने भारत के खिलाफ तमाम प्रतिबन्ध लगाए थे तो विश्व के अधिकांश देशों ने भी भारत पर प्रतिबन्ध लगा दिए। वहीं, अमेरिका द्वारा नरमी दिखाने के बाद सभी देशों ने भी नरमी दिखाना शुरू कर दिया। एक ध्रुवीय विश्व की सबसे बड़ी कमी यह है कि इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में महाशक्ति अपनी हितों की रक्षा के लिए एकतरफा फैसला करती है। उसकी शक्ति को सन्तुलित करने वाला कोई नहीं होता है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ नाममात्र के लिए कार्य करती हैं। इन संस्थानों में सर्वाधिक शक्तिशाली देश का वर्चस्व बना रहता है। ‘एक ध्रुवीय विश्व कई अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं के लिए की जा रही शान्ति पहल को नुकसान पहुंचाता है तथा यह विश्व-स्थायित्व के लिए उपयुक्त नहीं है।
बहुध्रुवीय विश्व की परिकल्पना
विगत कुछ वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय जगत एकध्रुवीयता विश्व की ओर अग्रसर हो रहा है। सोवियत संघ के अवसान के बाद, साम्यवादी चीन, रूस और अमेरिका का प्रतिद्वन्द्वी बन गया है। वर्तमान में चीन, रूस और अमेरिका तीनों देशों के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक विशाल त्रिकोण का रूप धारण करते जा रहे हैं जो 21वीं सदी में शक्ति सन्तुलन की व्यवस्था पर आधारित बहुध्रुवीय विश्व की परिकल्पना साकार करेगा।
अनेक विद्वानों का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अब एकध्रुवीय नहीं रह गई है, वरन् विश्व में शक्ति के अनेक केन्द्र स्पष्ट रूप से प्रकट हो चुके हैं। एशिया में भारत, चीन और जापान नवीन शक्ति केन्द्र हैं जो विश्व के सन्तुलन को किसी भी ओर मोड़ देने में सक्षम हैं। मध्य पूर्व में तेल उत्पादक देश, यूरोप में फ्रांस और जर्मनी शक्ति के केन्द्र हैं जिनकी उपेक्षा करनी एक बड़ी भूल होगी।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध से क्या आशय है? शीतयुद्ध की प्रकृति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
शीतयुद्ध से आशय
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पश्चात् विश्व में दो महाशक्तियों (संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ) का उदय हुआ। इन दोनों शक्तियों में कुछ मतभेद बने रहे। इन मतभेदों के पीछे तनाव, वैमनस्य, कटुता, मनोमालिन्य आदि परिलक्षित होती थीं। धीरे-धीरे दोनों महाशक्तियों के मध्य राजनीतिक प्रचार का युद्ध छिड़ गया। दोनों एक-दूसरे का विरोध, आलोचना तथा अपनी विचारधारा का प्रचार करने में संलग्न हो गए। सोवियत संघ तथा अमेरिका की इसी कटुतापूर्ण नीति के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दो शक्ति गुटों का उदय हुआ। ये गुट एक-दूसरे के विरुद्ध अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने लगे। दोनों एक-दूसरे को राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा सैनिक मोर्चा पराजित करने की क्रियाएँ करने लगे। अतः सम्पूर्ण विश्व में भय, तनाव तथा अविश्वास का वातावरण व्याप्त हो गया। विद्वानों ने इसी को ‘शीतयुद्ध’ का नाम दिया। सर्वप्रथम अमेरिकी कूटनीतिज्ञ बर्नार्ड बारूक (Bernard Baruch) ने ‘शीतयुद्ध’ नाम दिया। एक प्रसिद्ध पत्रकार वाल्टर लिपमैन (Walter Lippmann) ने अपने लेखों में इसे प्रचारित किया। वाल्टर ने ‘दि कोल्ड वार’ नामक पुस्तक भी लिखी।
शीतयुद्ध की प्रकृति
शीतयुद्ध की प्रकृति को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा समझा जा सकता है –
- शीतयुद्ध की प्रकृति कूटनीतिक युद्ध के सदृश थी क्योंकि इससे किसी भी समय युद्ध होने की सम्भावना थी।
- शीतयुद्ध के काल में सोवियत संघ तथा अमेरिका दोनों बड़े राष्ट्र परस्पर शान्तिकालीन कूटनीतिक सम्बन्धों को प्रमुखता दिए हुए थे। उनमें शत्रुता के भाव बार-बार प्रकट हो जाते थे।
- दोनों राष्ट्र सशस्त्र युद्ध के लिए तैयार नहीं थे परन्तु अन्य प्रकार के कूटनीतिक उपायों द्वारा एक-दूसरे को निर्बल बनाने का हर सम्भव प्रयास कर रहे थे।
- दोनों राष्ट्र अपने-अपने सहयोगी देशों के साथ अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए सैद्धान्तिक विचारधाराओं तथा मान्यताओं पर जोर देते रहे।
- दोनों देश विश्व के निर्बल राष्ट्रों को अपने पक्ष में करने के लिए आर्थिक सहायता देते थे, जासूसी करते थे, सैन्य हस्तक्षेप के लिए तत्पर रहते थे, शस्त्रों की बिक्री भी करते थे, सैन्य गुटबन्दी के लिए कूटनीतिक उपायों का प्रयोग करते थे, प्रादेशिक संगठनों की स्थापना के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देते थे तथा शस्त्रीकरण की नीति की वृद्धि में संलग्न रहते थे।
- यह एक वाक् युद्ध था जिसके कारण अधिकांश राष्ट्र आशंकित रहते थे।
- शीतयुद्ध के सम्पूर्ण काल में तीसरे विश्व में व्यापक घातक मुठभेड़ें होती रहीं। इनमें परोक्ष रूप से महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।
इस प्रकार ‘शीतयुद्ध’ को युद्ध का अन्त न कहकर दो महाशक्तियों के सीधे वाक् युद्ध का एक जाल कहा जा सकता था। इस काल में तीसरे विश्व में विभिन्न प्रकार की छोटी-मोटी मुठभेड़े होती रहीं, जिनका विश्लेषण करने पर विदित होता है, यह गुप्त रूप से दो महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा थी।
हालाँकि वास्तविक युद्ध का कोई भय नहीं था परन्तु इस स्थिति को युद्ध की प्रथम पीढ़ी कहा जा सकता है। इसमें युद्ध का भविष्य छिपा हुआ रहता था। इसाक डोयशर ने लिखा है, “शीतयुद्ध की प्रकृति ट्राटस्की की ब्रेस्तलिस्टोक में की गई प्रसिद्ध घोषणा का स्मरण दिलाने वाली स्थिति थी, जहाँ उन्होंने कहा था – न युद्ध और न शान्ति।”
प्रश्न 2.
क्यूबा मिसाइल संकट पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
क्यूबा मिसाइल संकट
अप्रैल, 1961 में सोवियत संघ के नेताओं को यह चिन्ता सता रही थी कि अमेरिका साम्यवादियों द्वारा शासित क्यूबा पर आक्रमण कर देगा और इस देश के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो का तख्तापलट हो जाएगा। क्यूबा अमेरिका के तट से लगा हुआ एक छोटा-सा द्वीपीय देश है। क्यूबा का जुड़ाव सोवियत संघ से था और सोवियत संघ उसे कूटनयिक तथा वित्तीय सहायता देता था। सोवियत संघ के नेता निकिता खुश्चेव ने क्यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे के रूप में बदलने का फैसला किया। सन् 1962 में ख़ुश्चेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमेरिका के मुख्य भू-भाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर हमला बोल सकता था।
क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु हथियार तैनात करने की भनक अमेरिकियों को तीन हफ्ते बाद लगी। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ० कैनेडी और उनके सलाहकार ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिससे दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए। लेकिन वे इस बात को लेकर दृढ़ थे कि खुश्चेव क्यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा लें। कैनेडी ने आदेश दिया कि अमेरिकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाली सोवियत जहाजों को रोका जाए। इस तरह अमेरिका सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गम्भीरता से चेतावनी देना। चाहता था। ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा। इसी को ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के रूप में जाना गया। इस संघर्ष की आशंका ने पूरी दुनिया को बेचैन कर दिया। यह टकराव कोई आम युद्ध नहीं होता। अन्ततः दोनों पक्षों ने युद्ध टालने का फैसला किया और दुनिया ने चैन की साँस ली। सोवियत संघ के जहाजों ने या तो अपनी गति धीमी कर ली या वापसी का रुख कर लिया। ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिन्दु था।
लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध शुरू होने का मूल कारण क्या था?
उत्तर :
परस्पर विरोधी गुटों में शामिल देशों ने समझ लिया था कि आपसी युद्ध में बड़ा खतरा है; क्योंकि युद्ध की स्थिति में दोनों पक्षों को इतना नुकसान उठाना पड़ेगा कि उनमें से विजेता कौन है-यह निश्चय करना भी असम्भव होगा। अगर अपने शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नष्ट करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास उसे नष्ट करने लायक हथियार बच जाएँगे। इसलिए तीसरा विश्वयुद्ध न होकर विश्व में शीतयुद्ध की स्थिति बनी रही।
प्रश्न 2.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के अर्थ की व्याख्या कीजिए। उत्तर द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण घटना यह घटी कि अधिकांश महाशक्तियाँ कमजोर हो गईं और केवल अमेरिका और रूस ही ऐसे देश बचे जो अब भी शक्तिशाली कहला सकते थे। इस प्रकार युद्ध के दौरान शक्ति का एक नया ढाँचा विश्व स्तर पर उभरा जिसमें केवल दो ही महाशक्तियाँ थीं जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली थीं। ये शक्तियाँ थीं सोवियत रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका।
दो गुटों, ब्लॉक या कैम्प में विभाजित विश्व को द्वि-ध्रुवी विश्व का नाम एक अंग्रेजी इतिहासकार टायनबील ने दिया था।
मॉर्गन्थो के अनुसार, “द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस की अन्य देशों की तुलना में शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वे स्वयं ही एक-दूसरे को सन्तुलित कर सकते थे। इस प्रकार शक्ति सन्तुलन बहु-ध्रुवीय से द्वि-ध्रुवीय में बदल गया था।”
प्रश्न 3.
पुराने व नए शीतयुद्ध में अन्तर बताइए।
उत्तर :
पुराने व नए शीतयुद्ध में अन्तर
पुराने शीतयुद्ध ने पहले यूरोप और बाद में उत्तरी-पूर्वी व दक्षिणी-पूर्वी एशिया को अपनी चपेट में लिया, लेकिन नए शीतयुद्ध ने पश्चिमी एशिया और अफ्रीका को अपनी चपेट में लिया।
पुराने शीतयुद्ध के दौर में दोनों महाशक्तियों (सोवियत राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ) ने अपने सैनिक गुट बनाए और अपने शिविर के देशों को भारी मात्रा में सैनिक व आर्थिक सहायता दी, लेकिन नए शीतयुद्ध के दौर में सैनिक गठबन्धनों की रणनीति का त्याग कर दिया गया
पुराने शीतयुद्ध ने शस्त्रीकरण की प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया, लेकिन नए शीतयुद्ध ने नि:शस्त्रीकरण व शस्त्र नियन्त्रण को अपना लक्ष्य बनाया।
प्रश्न 4.
उत्तर शीतयुद्ध काल से उभर रही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को समझाइए।
उत्तर :
उत्तर शीतयुद्ध काल से उभर रही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की विशेषताओं को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
- अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विश्व समुदाय के सहयोग, सामंजस्य, शान्ति तथा शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना में वृद्धि हुई है।
- शक्ति राजनीति की लोकप्रियता में ह्रास आया है।
- वारसा पैक्ट की समाप्ति के उपरान्त अमेरिका नाटो का विस्तार करने का प्रयास कर रहा है।’ परन्तु ध्रुवीकरण की राजनीति शिथिल पड़ गई है।
- विश्व शान्ति तथा सुरक्षा के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका सुदृढ़ हो रही है। 5. परमाणु नि:शस्त्रीकरण के प्रयास तीव्र हो रहे हैं। CTBT पर अभी तक सभी राष्ट्रों के हस्ताक्षर नहीं हुए हैं।
प्रश्न 5.
9/11 की घटना के बाद भारत ने किस प्रकार की प्रक्रिया व्यक्त की?
उत्तर :
11 सितम्बर, 2001 की अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर तालिबान प्रायोजित आतंकवादी हमला किया गया। भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करते हुए इस हमले की कठोर शब्दों में निन्दा की और बुश प्रशासन को आश्वासन दिया कि भारत हर प्रकार से अमेरिका का साथ देगी। अक्टूबर माह में अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में आतंकवाद के सरगना ओसामा बिन लादेन को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से सैनिक कार्यवाही की गई। भारत ने अमेरिका के इस कदम का समर्थन किया तथा अमेरिका को पुन: यह आश्वासन दिया कि आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में भारत अमेरिका की हर सम्भव सहायता को तैयार है। भारत के इन प्रयासों से दोनों देशों के सम्बन्धों में मधुरता उत्पन्न हुई।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध का प्रारम्भ कब हुआ ?
उत्तर :
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्।।
प्रश्न 2.
शीतयुद्ध की प्रकृति कैसी थी?
उत्तर :
कूटनीतिक युद्ध के समान।
प्रश्न 3.
शीतयुद्ध किन दो महाशक्तियों के मध्य था?
उत्तर :
अमेरिका तथा सोवियत संघ।
प्रश्न 4.
शीतयुद्ध के दौर में सोवियत संघ ने किस विचारधारा की दुहाई की?
उत्तर :
शीतयुद्ध के दौर में सोवियत संघ ने समाजवाद विचारधारा की दुहाई की।
प्रश्न 5.
दि कोल्ड वार’ नामक पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर :
‘दि कोल्ड वार’ नामक पुस्तक वाल्टर लिपमैन ने लिखी।
प्रश्न 6.
1948 में सोवियत संघ ने किस नगर की घेराबन्दी की?
उत्तर :
1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन नगर की घेराबन्दी की।
प्रश्न 7.
किस क्षेत्र में तनाव-शैथिल्य की प्रक्रिया विशेषतया उजागर हुई?
उत्तर :
तनाव-शैथिल्य की प्रक्रिया विशेषतया नि:शस्त्रीकरण के क्षेत्र में उजागर हुई।
प्रश्न 8
‘वीटों का सर्वाधिक प्रयोग किसने किया?
उत्तर :
सोवियत संघ ने।
प्रश्न 9
यू-2 क्या था?
उत्तर :
यू-2 अमेरिका का जासूसी विमान था।
प्रश्न 10.
शीतयुद्ध के कारण विश्व राजनीति कितने गुटों में बँट गई?
उत्तर :
दो गुटों में अमेरिका एवं सोवियत संघ।
प्रश्न 11.
‘दितान्त’ क्या है?
उत्तर :
‘दितान्त’ का शाब्दिक अर्थ है-‘तनाव में शिथिलता’।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध का तात्पर्य है
(क) ऐसी स्थिति जिसमें न तो पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही वास्तविक युद्ध
(ख) ऐसी स्थिति में शान्ति एवं युद्ध के बीच अस्थिरता बनी रहती है।
(ग) ऐसी स्थिति में युद्ध के वातावरण का निर्माण किया जाता है।
(घ) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 2.
शीत युद्ध का आरम्भ कब माना जाता है?
(क) चर्चिल के भाषण से।
(ख) मुनरो के भाषण से
(ग) शुमाँ के भाषण से
(घ) हेनरी किसिंजर के भाषण से
प्रश्न 3.
शीत युद्ध का उद्भव हुआ था
(क) 1945 में
(ख) 1946 में
(ग) 1947 में
(घ) 1940 के दशक में
प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस विद्वान् ने ‘शीतयुद्ध’ का नामकरण किया था?
(क) मॉर्गेन्याऊ ने
(ख) शुमाँ ने।
(ग) वाल्टर लिपमैन ने
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 5.
शीतयुद्ध निम्नलिखित में से किसके बीच कायम था?
(क) महाशक्तियों के गुटों के बीच
(ख) गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के बीच
(ग) पी०एल०ओ० इजराइल के बीच
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 6.
शीतयुद्ध में निम्नलिखित में से किन साधनों का प्रयोग किया जाता है?
(क) समाचार-पत्रों को
(ख) रेडियो का
(ग) टेलीविजन का
(घ) ये सभी
प्रश्न 7.
कैम्प डेविड समझौता कब हुआ?
(क) 15 मई, 1960 को
(ख) 16 मई, 1960 को
(ग) 15 मई, 1962 को
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 8.
शीतयुद्ध निम्नलिखित में से किन दो विचारधाराओं के मध्य दृढ़ संघर्ष था?
(क) पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच
(ख) नाजीवाद और फासीवाद के बीच
(ग) उदारवाद और माक्र्सवाद के बीच
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 9.
“शीतयुद्ध की प्रकृति त्रोत्सकी की बेस्त लितोस्क में की गयी प्रसिद्ध घोषणा की याद दिलाने वाली थी जहाँ उन्होंने कहा था-न युद्ध और न शान्ति।” यह कथन निम्नलिखित कथनों में किस विद्वान का है?
(क) कैप्लान का
(ख) मॉर्गेन्थाऊ का
(ग) रिचर्ड स्नाइडर का
(घ) डोयशर का
प्रश्न 10.
“शीतयुद्ध का उद्देश्य शत्रुओं को अलग-थलग रखना (Isolate Policy) और मित्रों को जीतना होता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किसका है?
(क) फ्लेमिंग का
(ख) महेन्द्र कुमार का
(ग) राबर्ड शुमन का
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 11.
शीतयुद्ध के विकास के प्रथम चरण का काल माना जाता है –
(क) 1935-1944
(ख) 1946-1953
(ग) 1955-1964
(घ) 1970-1979
प्रश्न 12.
टूमैन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया था –
(क) 12 मार्च, 1947 को
(ख) 12 मार्च, 1948 को
(ग) 12 मार्च, 1949 को
(घ) 12 मार्च, 1950 को
प्रश्न 13.
ट्रमैन सिद्धान्त का प्रतिपादन निम्नलिखित में से किसके विरुद्ध किया गया था?
(क) साम्यवाद के विरुद्ध
(ख) पूँजीवाद के विरुद्ध
(ग) लोकतंत्र के विरुद्ध
(घ) फासीवाद के विरुद्ध
प्रश्न 14.
शीतयुद्ध के दूसरे चरण का काल माना जाता है –
(क) 1953-1958
(ख) 1955-1959
(ग) 1960-1968
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 15.
शीतयुद्ध के तीसरे चरण का काल माना जाता है
(क) 1950-1954
(ख) 1956-1960
(ग) 1959-1962
(घ) 1965-1969
प्रश्न 16.
शीतयुद्ध के चौथे चरण का काल माना जाता है
(क) 1960-1965
(ख) 1963-1979
(ग) 1965-1970
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 17.
कैम्प डेविड समझौता निम्नलिखित में से किन देशों के बीच हुआ था?
(क) रूस और अमेरिका के बीच
(ख) अमेरिका और फ्रांस के बीच
(ग) भारत और रूस के बीच
(घ) रूस और फ्रांस के बीच
प्रश्न 18.
एकध्रुवीय शक्ति के रूप में अमेरिकी वर्चस्व की शुरुआत हुई
(क) 1991 में
(ख) 1995 में
(ग) 2000 में
(घ) 2005 में
प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा देश महाशक्ति के रूप में स्थापित है?
(क) अमेरिका
(ख) रूस
(ग) फ्रांस
(घ) ब्रिटेन
प्रश्न 20.
समकालीन विश्व-व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) ऐसी कोई विश्व सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में अमेरिका की चलती है।
(ग) विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल प्रयोग कर रहे हैं।
(घ) जो देश अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्र कठोर दण्ड देता है।
उत्तर :
- (घ) उपर्युक्त सभी
- (क) चर्चिल के भाषण से
- (घ) 1940 के दशक में
- (ग) वाल्टर लिपमैन ने
- (क) महाशक्तियों के गुटों के बीच
- (घ) ये सभी
- (ख) 16 मई, 1960 को
- (क) पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच
- (घ) डोयशर का
- (क) फ्लेमिंग का
- (ख) 1946-1953
- (क) 12 मार्च, 1947 को
- (क) साम्यवाद के विरुद्ध
- (क) 1953-1958
- (ग) 1959-1962
- (ख) 1963-1979
- (क) रूस और अमेरिका के बीच
- (क) 1991 में
- (क) अमेरिका
- (क) ऐसी कोई विश्व सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।