UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज)

By | May 29, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज)

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज कितने प्रकार का होता है ? कुल ब्याज के कौन-कौन से अंग हैं ? समझाइए। [2010]
उत्तर:
ब्याज का अर्थ एवं परिभाषाएँ
ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार से ऋण कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।

विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी ब्याज की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।” कार्वर के अनुसार, “ब्याज वह आय है जो पूँजी के स्वामी को दी जाती है।”
प्रो० विक्सेल के अनुसार, “ब्याज एक भुगतान है जो पूँजी को उधार लेने वाला, उसकी उत्पादकता के कारण त्याग के प्रतिफल के रूप में देता है।”
मेयर्स के अनुसार, “ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।”
प्रो० कीन्स के अनुसार, “ब्याज एक पुरस्कार है जो लोगों को अपने धन को संगृहीत मुद्रा के अतिरिक्त और किसी रूप में रखने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दिया जाता है।’
जे० एस० मिल के अनुसार, “ब्याज केवल आत्म-त्याग का पुरस्कार है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है किब्याज पूँजी अथवा ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दिया जाने वाला भुगतान है। या ब्याज तरलता का परित्याग करने का भुगतान है। या बचत करने में किये जाने वाले त्याग का पुरस्कार है।

ब्याज के भेद या प्रकार
प्रो० मार्शल ने ब्याज दो प्रकार का बताया है
(1) विशुद्ध ब्याज तथा
(2) कुल ब्याज

1. विशुद्ध ब्याज – विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता। विशुद्ध ब्याज के अन्तर्गत केवल पूँजी का पारितोषिक ही सम्मिलित होता है, जिसे प्रतीक्षा का प्रतिफल भी कहा जा सकता है। इसमें किसी अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता।
प्रो० मार्शल ने लिखा है – “अर्थशास्त्र में जब हम ब्याज शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अभिप्राय केवल पूँजी के पारितोषण या प्रतीक्षा से होता है।” संक्षेप में, पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं।

2. कुल ब्याज – कुल ब्याज से अभिप्राय उस रकम या भुगतान से होता है जो एक ऋणी ऋणदाता को देता है। इसके अन्तर्गत विशुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम को प्रतिफल, असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान आदि भी सम्मिलित होता है।
प्रो० चैपमैन के अनुसार, “कुल ब्याज में पूँजी के ऋण के लिए भुगतान तथा व्यक्तिगत व व्यावसायिक जोखिम के लिए भुगतान, विनियोग की असुविधाओं के लिए भुगतान तथा विनियोग की व्यवस्था तथा उसमें निहित चिन्ताओं के लिए भुगतान सम्मिलित होता है।”

कुल ब्याज के अंग
कुल ब्याज में निवल ब्याज के अतिरिक्त अन्य तत्त्व भी सम्मिलित रहते हैं। ये निम्नलिखित हैं

1. निवल ब्याज या आर्थिक ब्याज – निवल ब्याज या शुद्ध ब्याज कुल ब्याज का एक प्रमुख अंग होता है। पूँजी उत्पत्ति का साधन है; अत: राष्ट्रीय आय में से कुछ भाग पूँजी के प्रयोग के प्रतिफल के रूप में लिया जाता है। पूँजी के प्रयोग के बदले में किया जाने वाला यह भुगतान, जिसे शुद्ध ब्याज कहते हैं, कुल ब्याज का ही एक भाग होता है।

2. जोखिम का पुरस्कार – रुपया उधार देना जोखिमपूर्ण व्यवसाय है। ऋणदाता को अपनी रकम डूब जाने का भय रहता है। इस कारण वह विशुद्ध ब्याज से अधिक ब्याज लेता है। जोखिम का यह पुरस्कार कुल ब्याज का ही एक भाग होता है। प्रो० मार्शल के अनुसार जोखिम दो प्रकार की होती है|

(अ) व्यावसायिक जोखिम – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में रकम डूबने का अधिक भय रहता है। तथा कुछ व्यापारिक जोखिम बाजार में होने वाले परिवर्तनों; जैसे – फैशन में परिवर्तन, नये-नये आविष्कारों आदि के कारण वस्तु के उत्पादन से पूर्व ही माँग का गिरना, वस्तु का मूल्य कम होना आदि के कारण उत्पन्न होती है। इस जोखिम के लिए ऋणदाता अतिरिक्त भुगतान प्राप्त करता है।

(ब) व्यक्तिगत जोखिम – व्यक्तिगत जोखिम व्यक्ति-विशेष के स्वभाव के कारण उत्पन्न होती है। ऋणी व्यक्ति बेईमान हो सकता है, जिसके कारण रकम डूब सकती है। इस प्रकार की जोखिम के लिए ऋणदाता कुछ अतिरिक्त भुगतान ब्याज के रूप में लेता है।

3. असुविधा तथा कष्ट के लिए पुरस्कार – कभी-कभी ऋणदाता को ऋण की वापसी में पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऋणी प्राय: समय पर रुपया वापस नहीं लौटाते हैं या ऋण वापस ही नहीं करते हैं। वह ब्याज के साथ ही अपनी असुविधा के लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि उसमें और जोड़ देता है।

4. व्यवस्था तथा प्रबन्ध का प्रतिफल – ऋणदाता को व्यवसाय संचालन के लिए कुछ कर्मचारी रखने पड़ते हैं। कभी-कभी मुकदमेबाजी भी करनी होती है जिसमें वकीलों का व्यय, कोर्ट फीस तथा अन्य खर्च करने होते हैं। ऋणदाता को स्वयं भी कुछ अतिरिक्त कार्य करना पड़ता है। इस व्यवस्था तथा प्रबन्ध को प्रतिफल भी कुल ब्याज में सम्मिलित होता है।

प्रश्न 2
ब्याज-निर्धारण के आधुनिक सिद्धान्त को समझाइए। [2010]
या
क्लासिकल अर्थशास्त्रियों के द्वारा प्रतिपादित ब्याज दर के निर्धारण सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
ब्याज-निर्धारण के माँग और पूर्ति सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
या
ब्याज की दर मुद्रा की माँग व पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। व्याख्या कीजिए। [2011]
उत्तर:
ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त
ब्याज के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन संस्थापित अर्थशास्त्रियों ने किया तथा बाद में इसका विकास मार्शल, पीगु, कैसेल्स, वालरा, टॉजिग तथा नाईट के द्वारा किया गया। ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है। ब्याज की दर एक सन्तुलन स्थापित करने वाला तत्त्व है जो बचत और विनियोग को बराबर करता है।

पूँजी की मॉग – पूँजी की माँग विशेष रूप से उत्पादकों द्वारा उत्पादन कार्यों में विनियोग करने के लिए की जाती है। यद्यपि उपभोग के लिए भी लोग रुपया उधार लेते हैं तथा इस पर ब्याज भी देते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं के अतिरिक्त सरकारें भी निर्माण कार्यों व युद्ध आदि के लिए पूँजी उधार लेती हैं।

उत्पादन कार्यों के लिए जो ऋण लिये जाते हैं, उनके सम्बन्ध में ब्याज की अधिकतम दर पूँजी की उत्पादिता के आधार पर निश्चित होती है। पूँजी की माँग उसकी उत्पादिता के कारण ही की जाती है। अत: पूँजी की सहायता से अधिक उत्पादन किया जा सकता है। उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने के कारण अधिकाधिक मात्रा में पूँजी का प्रयोग किये जाने पर उसकी सीमान्त उत्पादकता घटती जाती है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित ब्याज की दर के बराबर हो जाती है। पूँजी की यह इकाई सीमान्त इकाई (Marginal Unit) होती है। पूँजी की इस अन्तिम इकाई के बाद कोई भी उत्पादक पूँजी का विनियोग नहीं करता, क्योंकि इसके बाद में प्रयोग की जाने वाली पूँजी पर मिलने वाली उत्पादन वृद्धि से अधिक ब्याज देना पड़ता है और उसे हानि होती है। पूँजी पर दिया जाने वाला ब्याज उसकी सीमान्त उत्पादिता के बराबर होता है। अतः ब्याज की अधिकतम सीमा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता है। कोई भी उत्पादक इस सीमा से अधिक ब्याज देने को तैयार नहीं होगा।

इस प्रकार ब्याज की दरे जितनी नीची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही अधिक होगी तथा ब्याज की दर जितनी ऊँची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही कम होगी।

पूँजी की पूर्ति – पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर करती है। जितनी अधिक बचत की जाएगी, पूँजी की पूर्ति उतनी ही अधिक होगी। ब्याज की प्राप्ति के उद्देश्य से ही बचत की जाती है। बचत करने में व्यक्ति को अपनी वर्तमान आवश्यकता को स्थगित करना पड़ता है। व्यक्ति उसी समय पूँजी उधार देता है जब उसे त्याग का प्रतिफल प्राप्त हो। इस प्रकार पूँजी की पूर्ति ब्याज की दर का परिणाम होती है। ऊँची ब्याज दर पर अधिक मात्रा में बचत की जाएगी, इसलिए पूँजी की पूर्ति अधिक होगी। इसके विपरीत नीची ब्याज दर पर कम बचत की जाएगी; अतः पूँजी की पूर्ति कम होगी। इस प्रकार ब्याज की दर और पूँजी की पूर्ति में सीधा सम्बन्ध होता है। ब्याज की निम्नतम दर वह होती है। जिस पर सीमान्त बचत करने वाले को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। दूसरे शब्दों में, पूँजी बाजार में जो अन्तिम पूँजी पूर्तिकर्ता है उसके कष्ट एवं त्याग के लिए जो रकम ब्याज के रूप में दी जाएगी, वही पूँजी की सीमान्त ब्याज दर होगी या सीमान्त उधार देने वाले के त्याग की क्षतिपूर्ति की मात्रा ब्याज की निम्नतम सीमा निर्धारित करेगी।

ब्याज-दर का निर्धारण – पूँजी बाजार में ब्याज की दर पूँजी की मॉग और पूर्ति के सन्तुलन बिन्दु पर निर्धारित होगी। अन्य शब्दों में, जहाँ बचतों का पूर्ति वक्र उसके माँग वक्र को काटता है उसे ब्याज की सन्तुलन दर कहा जाता है। यदि माँग पक्ष में मोलभाव करने की शक्ति अधिक होगी तो ब्याज की दर पूँजी की सीमान्त उत्पादिता के निकट होगी। इसके विपरीत पूर्ति पक्ष के प्रबल होने पर ब्याज-दर पूँजी की सीमान्त लागत के आस-पास होगी। इस प्रकार ब्याज दर उधार देने वालों की न्यूनतम तथा उधार लेने वालों की अधिकतम सीमा के बीच उस स्थान पर निश्चित होती है, जहाँ पूँजी की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – मान लीजिए किसी नगर में ब्याज की विभिन्न दरों पर पूँजी की माँग और पूर्ति निम्न तालिका के अनुसार हैं
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 1

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि ब्याज दर बढ़ने से पूँजी की पूर्ति बढ़ती है तथा माँग कम हो जाती है। जब ब्याज दर 3 प्रतिशत है तब पूँजी की माँग तथा पूर्ति बराबर है। अत: ब्याज दर 3 प्रतिशत निर्धारित होगी।

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निम्नांकित चित्र में Ox-अक्ष पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति (करोड़ रु में) तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर (प्रतिशत ₹ में)। दिखायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र हैं, जो आपस में एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। E बिन्दु जिस पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति बराबर हैं। चित्र में EQ ब्याज की , सन्तुलन दर है। OQ पूँजी की माँग की जाने वाली मात्रा तथा उसकी पूर्ति की मात्रा है। ब्याज की दर इसे सन्तुलन दर से कम या अधिक नहीं हो सकती; अत: बाजार में OR ब्याज की दर ही रहने की प्रवृत्ति रखेगी।

प्रश्न 3
ब्याज-दर निर्धारण के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की सचित्र व्याख्या करें। [2010]
या
तरलता-पसन्दगी (अधिमान) क्या है? इसके द्वारा ब्याज की दर का निर्धारण कैसे होता है?
या
कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2010, 12]
या
कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या चित्र सहित कीजिए। [2013]
या
कीन्स द्वारा दिए गए ब्याज दर के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
प्रो० कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज का सिद्धान्त ‘तरलता-पसन्दगी’ सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। प्रो० कीन्स के अनुसार, ब्याज शुद्ध रूप से मौद्रिक तत्त्व है और वह मुद्रा की माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है। वे ब्याज को नकदी की कीमत’ (Price of Cash) अथवा किसी निश्चित समय के लिए तरलता का त्याग करने का पुरस्कार मानते हैं।

ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है। मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है और इसीलिए लोग अपने धन को तरल नकदी के रूप में रखना पसन्द करते हैं। वे अपनी तरलता-पसन्दगी का परित्याग तभी करेंगे जब उन्हें उसके लिए पर्याप्त पुरस्कार दिया जाए। यह पुरस्कार ब्याज के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए दी जाने वाली कीमत है। लोगों की तरलता-पसन्दगी जितनी अधिक होगी, उन्हें तरलता का परित्याग करने को प्रोत्साहित करने के लिए उतनी ही ऊँची ब्याज की दर देनी होगी।

ब्याज की दर भी अन्य वस्तुओं की कीमत की भाँति नकदी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होतो है। नकदी की माँग लोगों की तरलता-पसन्दगी के द्वारा निर्धारित होती है। लोगों की तरलता-पसन्दगी निम्नलिखित बातों पर निर्भर है

1. सौदा उद्देश्य – व्यक्तियों तथा व्यावसायिक फर्मों के द्वारा अपने दैनिक भुगतानों को निपटाने के लिए नकदी की माँग की जाती है। लोगों की आय कुछ समयावधि के पश्चात् होती है, जबकि उन्हें व्यय निरन्तर करना पड़ता है; इसलिए लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं। प्रो० कीन्स के अनुसार, सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग लोगों की आय तथा निपटाये जाने वाले सौदों की मात्रा पर निर्भर होती है।

2. दूरदर्शिता उद्देश्य – प्रत्येक व्यक्ति अथवा फर्म अपने पास कुछ नकद मुद्रा इसलिये रखना चाहती है कि आवश्यकता पड़ने पर आकस्मिक खर्चा को निपटाया जा सके। बीमारी, मुकदमा, दुर्घटना, बेरोजगारी तथा अन्य किसी आकस्मिक घटना के हो जाने पर नकदी की कमी बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकती है। इसलिए दूरदर्शिता के कारण व्यक्ति अतिरिक्त नकदी अपने पास रखना चाहता है।

3. सट्टा उद्देश्य – लोगों के द्वारा नकदी की माँग इसलिए भी की जाती है जिससे कि वे सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त कर सकें। सट्टे से अभिप्राय ब्याज की दर की अनिश्चितता से लाभ प्राप्त करना है।

नकदी की कुल माँग इन तीनों उद्देश्यों के लिए की जाने वाली माँग का योग होती है। प्रो० कीन्स ने सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग को दूरदर्शिता उद्देश्य की माँग से एक साथ मिलाया है तथा इसे L1 के द्वारा तथा सट्टा उद्देश्य को L2 के द्वारा व्यक्त किया है। इस प्रकार नकदी की कुल माँग L = L1 + L2

मुद्रा की पूर्ति – मुद्रा की पूर्ति सरकार तथा केन्द्रीय बैंक की मुद्रा-सम्बन्धी नीति पर निर्भर होती है, इसलिए मुद्रा की पूर्ति प्रायः निश्चित रहती है और उसमें बहुत कम परिवर्तन होते हैं; अत: उसे एक समानान्तर खड़ी रेखा के द्वारा दिखाया जा सकता है।

ब्याज का निर्धारण – इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है। जहाँ पर नकदी के लिए माँग और नकदी की पूर्ति ठीक एक-दूसरे के बराबर होती है अर्थात् जहाँ पर तरलता-पसन्दगी वक्र नकद मुद्रा के पूर्ति वक्र को काटता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर नकदी की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर दिखायी गयी है। चित्र में MM नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा हैं तथा LP तरलता-पसन्दगी वक्र अथवा नकद मुद्रा का माँग वक्र है। C बिन्दु पर LP वक्र MM वक्र को काटता है, इसीलिए इसे सन्तुलन-बिन्दु कहा जा सकता है। इस बिन्दु पर नकद मुद्रा की माँग और पूर्ति बराबर हैं; अत: ब्याज की दरे CM या OI’ होगी। यदि नकद मुद्रा की माँग बढ़ जाती है और LP वक्र L1 वक्र का स्थान ले लेता है तो ब्याज की दर CM से बढ़कर नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा DM या OI’ हो जाएगी।
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आलोचनाएँ –

  1.  यह सिद्धान्त पूँजी की उत्पादकता को, मुद्रा की माँग को प्रभावित करने वाला तत्त्व नहीं मानता और इसीलिए इस सिद्धान्त के द्वारा किया गया मुद्रा की माँग का विश्लेषण अपूर्ण है।
  2. इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज तरलता का परित्याग करने का पुरस्कार है, किन्तु आलोचकों के अनुसार, ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए नहीं दिया जाता, बल्कि वह इसलिये दिया जाता है क्योंकि पूँजी उत्पादक होती है।
  3.  ब्याज का तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त एकपक्षीय है, क्योंकि वह केवल मुद्रा की माँग अथवा तरलता-पसन्दगी पर जोर देता है।
  4. यह सिद्धान्त मौद्रिक तत्त्वों पर आवश्यकता से अधिक जोर देता है और ब्याज-निर्धारण को प्रभावित करने वाले वास्तविक तत्त्वों की ओर कोई ध्यान नहीं देता।

इन आलोचनाओं के होते हुए भी कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त को सबसे अधिक मान्यता मिली है और उसे ब्याज-निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त समझा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज लेने और देने का आधार क्या है?
या
ब्याज को परिभाषित कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर:
ब्याज की परिभाषा – ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार के ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है। प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूंजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।”

पूँजी पर ब्याज देने का आधार – पूँजी की माँग उसकी उत्पादकता के कारण उत्पन्न होती है। पूँजी की माँग इसलिए की जाती है क्योंकि वह उपभोग की वस्तुएँ उत्पन्न कर सकती है जो हमारे लिए
ब्याज की दर उपयोगी होती हैं; अत: पूँजी पर ब्याज दिया जाता है। पूँजी की माँग विनियोग से उत्पन्न होती है; अतः ब्याज की दर विनिमय से निर्धारित होती है। पूँजी पर ब्याज लेने का आधार-समाज में पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर होती है। बचत प्रतीक्षा और त्याग का परिणाम होती है।

पूँजी को उधार देने में ऋणदाता को पूँजी का त्याग करना पड़ता है तथा पूँजी के वापस आने तक संयम और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अतः वह पूंजी के बदले पारिश्रमिक के रूप में ब्याज प्राप्त करना चाहता है जिससे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। अतः कोई भी ऋणदाता अपनी पूँजी पर त्याग किये जाने वाले सीमान्त त्याग के आधार पर ब्याज लेना चाहता है।

प्रश्न 2
कुल (सकल) ब्याज और शुद्ध ब्याज के अन्तर को बताइए। [2007, 11, 12, 14]
उत्तर:
कुल ब्याज एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर
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प्रश्न 3
ब्याज क्यों दिया जाता है ? कारण बताइए। [2010,2016]
उत्तर:
ब्याज निम्नलिखित कारणों से दिया जाता है

1. पूँजी की उत्पादकता के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए देता है कि पूँजी में उत्पादकता का गुण विद्यमान है। पूँजी की उत्पादकता के कारण ही पूँजी की माँग होती है। ब्याज पूँजी की उत्पादकता के कारण पैदा होता है। श्रम पूँजी की सहायता से अधिक धन उत्पन्न करता है, बिना पूँजीगत वस्तुओं की अपेक्षा के अर्थात् श्रम पूँजीगत वस्तुओं (मशीनें, औजार एवं अन्य पूँजीगत वस्तुओं) को प्रयोग करके उत्पादन में अधिक वृद्धि करता है। जो लोग पूँजी का उपयोग करते हैं उनकी आय बढ़ जाती है। पूँजी का उपयोग उत्पादक है, इसलिए उधार लेने वाले पूँजीपति को ब्याज देने के लिए तैयार रहते हैं।

2. पूंजी के त्याग एवं प्रतीक्षा के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए भी देता है, क्योंकि वह जानता है कि जब कोई व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग बचाता है तो वह अपने उपभोग को कुछ समय के लिए स्थगित करता है। बचत करने में उसे प्रतीक्षा एवं त्याग करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पूँजी का त्याग एवं प्रतीक्षा तब तक नहीं करेगा जब तक उसे किसी प्रकार का लालच न दिया जाए। लालच के रूप में ऋणी उसे ब्याज देता है। इस प्रकार ब्याज प्रतीक्षा के लिए दिया जाने वाला मूल्य है।

3. बचत को प्रोत्साहित करने के लिए – कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो तभी बचत करते हैं जब उन्हें उसके लिए यथेष्ट पुरस्कार मिलता है। ऐसे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु भी ब्याज दिया जाता है।

4. वर्तमान सुख की क्षतिपूर्ति के कारण – पूँजीपति को वर्तमान वस्तुओं के उपभोग को छोड़ना पड़ता है और ये वर्तमान वस्तुएँ भविष्य की वस्तुओं पर एक प्रकार का परितोषण रखती हैं। इस परितोषण की हानि की क्षतिपूर्ति के लिए ही ब्याज दिया जाता है।

प्रश्न 4
क्या ब्याज दर शून्य हो सकती है? [2006, 08, 15]
या
ब्याज दर के शून्य न होने के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए। [2006, 10]
उत्तर:
ब्याज दर की शून्यता
इस विषय में कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि जैसे-जैसे देश को आर्थिक एवं सामाजिक विकास होता जाएगा, ब्याज की दर घटती जाएगी और एक ऐसी स्थिति आ जाएगी कि ब्याज दर शून्य हो जाएगी। विकसित देशों में ब्याज की दरें विकासशील देशों की अपेक्षा कम हैं और प्रायः कम होती जा रही हैं। ब्याज दर कम होते जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय पश्चात् ब्याज की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यह केवल कल्पना है। शुम्पीटर का कहना है कि “ब्याज दर शून्य हो सकती है, परन्तु उस समय जबकि उत्पादन क्रिया रुक जाए और समाज गतिहीन अवस्था में पहुँच जाए।” अत: ब्याज दर का शून्य होना मात्र भ्रामक एवं सैद्धान्तिक है। व्यावहारिक जीवन में यह स्थिति देखने को नहीं मिलती और न भविष्य में ही ऐसी सम्भावना है।

ब्याज-दर शून्य न होने के कारण

  1.  पूँजी की माँग का निरन्तर बने रहना – ज्ञान एवं सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानवीय आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसलिए पूँजी की माँग सदैव बनी रहेगी और ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।
  2.  बचत के लिए प्रलोभन आवश्यक है – उधार देने वालों को यदि संयम और प्रतीक्षा के लिए कुछ भी प्रतिफल न मिले तो वे बचत नहीं करेंगे; अतः उन्हें ब्याज मिलना आवश्यक है। इस कारण ब्याज – दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।।
  3.  ऋण देने की असुविधाओं एवं व्यय के कारण – ऋणदाता को पूँजी उधार देने में जो जोखिम, असुविधाएँ तथा प्रबन्ध व्यय करना पड़ता है, यदि इसके लिए उसे कुछ प्रतिफल नहीं मिलेगी तो कोई भी व्यक्ति पूँजी उधार देने के लिए तैयार नहीं होगा। इस कारण भी ब्याजदर शून्य नहीं हो सकती।
  4.  देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए – आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। यह लगातार चलती रहती है। अतः पूँजी की माँग सर्वदा बनी रहेगी, क्योंकि पूँजी के अभाव में देश की प्रगति नहीं हो सकती। इस कारण भी ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।।
  5.  पूँजी में उत्पादकता का गुण होना – पूँजी में उत्पादकता का गुण होता है। पूँजी की सीमान्त उत्पादकता कभी भी शून्य नहीं हो सकती। इसलिए ब्याज दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।
    स्पष्ट है कि भविष्य में ब्याज-दर शून्य या शून्य से कम हो सकती है, केवल भ्रामक, त्रुटिपूर्ण एवं आधारहीन विचार है।

प्रश्न 5
देश के विभिन्न भागों में ब्याज की दर में भिन्नता के क्या कारण हैं ? समझाइए।
उत्तर:
ब्याज की दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. ऋण का प्रयोजन – ऋणदाता ऋण देते समय यह ध्यान रखता है कि ऋण उत्पादक कार्यों के लिए लिया जा रहा है अथवा अनुत्पादक कार्यों के लिए। उत्पादक कार्यों के लिए ऋण कम ब्याज की दर पर मिल जाता है, क्योंकि ऐसे ऋणों की वापसी की अधिक सम्भावना रहती है। इसके विपरीत अनुत्पादक कार्यों के लिए दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याज की दर अधिक होती है, क्योंकि ऐसे ऋणों में जोखिम अधिक होती है। इस प्रकार ब्याज की दर में भिन्नता पायी जाती है।

2. ऋण की अवधि – ऋण की अवधि के अनुसार भी ब्याज की दरों में भिन्नता होती है। यह अवधि जितनी अधिक लम्बी होती है, ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है। अल्पकालीन ऋणों की अपेक्षा दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर ऊँची होती है। दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर अधिक इसलिए होती है, क्योंकि इन ऋणों के सम्बन्ध में ऋणदाता को अधिक समय के लिए तरलता-पसन्दगी को त्याग करना पड़ता है। भविष्य में अनिश्चितता के कारण इस प्रकार के ऋणों में जोखिम भी अधिक होती है।

3. ऋणी की साख – यदि ऋणी व्यक्ति की साख उत्तम है तो उसे कम ब्याज पर ऋण प्राप्त हो जाता है। इसके विपरीत, यदि ऋणी की साख एवं आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसे ऋण ऊँची ब्याज दर पर प्राप्त होता है।

4. व्यवसाय की प्रकृति – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में ऋण ऊँची ब्याज दर पर ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि ऐसे व्यवसायों में पूँजी डूब जाने का भय बना रहता है। इसके विपरीत कम जोखिम वाले व्यवसायों के लिए ऋण कम ब्याज दर पर प्राप्त हो जाते हैं।

5. ऋण की जमानत – ऋण के रूप में दी जाने वाली धनराशि की सुरक्षा के लिए जमानत ली जाती है। जमानत पर ऋण देने में जोखिम कम होती है। अतः जमानत पर ऋण कम ब्याज दर पर दिये जाते हैं और बिना जमानत पर दिये जाने वाले ऋणों की ब्याज दर ऊँची होती है।

6. बैंकिंग सुविधा में भिन्नता – जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था और सहकारी साख सुविधाओं का विकास अधिक होता है वहाँ पर ब्याज की दर कम होती है तथा जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था व सहकारी साख संस्थाओं का विकास कम होता है वहाँ पर ब्याज दर अधिक होती है। यही कारण है कि भारत में नगरों की अपेक्षा ग्रामों में ब्याज दर ऊँची है।

7. सुविधाओं में अन्तर – जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी सुविधापूर्वक हो जाती है, उन्हें कम ब्याज दर पर ऋण दिया जा सकता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी कठिनाई से होती है, उन्हें अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर पर ऋण दिया जाता है।

8. पूँजी बाजार में प्रतियोगिता – यदि ऋणदाता और ऋण में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। तब ब्याज की देर समान रहेगी, किन्तु भारत में प्राय: प्रतियोगिता का अभाव है, इसी कारण ब्याज की दरों में भिन्नता पायी जाती है। गाँवों में रहने वाले व्यक्तियों को मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता; अतः ऋणदाता इनसे अधिक ब्याज की दर वसूल करने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में बैंकों व साहूकारों में समुचित जमानत पर ऋण देने की प्रतियोगिता होती है; इसीलिए वहाँ ब्याज की दर नीची होती है। अतः पूँजी बाजार में प्रतियोगिता भी ब्याज की दर को प्रभावित करती है।

प्रश्न 6
भारत में ब्याज-दर की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
भारत में ब्याज-दर की निम्नलिखित तीन विशेषताएँ पायी जाती हैं

(अ) ऊँची ब्याज-दर
भारत में ब्याज की दरें विकसित देशों की अपेक्षा बहुत ऊँची हैं। ब्याज की ऊँची दरें होने के निम्नलिखित कारण हैं

1. पूँजी की अधिक माँग – भारत एक विकासशील देश है। नियोजन के माध्यम से अपने आर्थिक विकास में प्रयत्नशील है। इस हेतु पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। प्रत्येक क्षेत्र चाहे वह कृषि है या उद्योग-धन्धे या देश में सड़कों, नहरों व बाँधों का निर्माण, सभी में पूँजी की आवश्यकता होती है। इस कारण पूँजी की माँग अधिक और ब्याज-दरें ऊँची हैं।

2. पूँजी की पूर्ति कम –
 हमारे देश में पूँजी की पूर्ति की कमी है, क्योंकि यहाँ के निवासी निर्धन । एवं अशिक्षित हैं। उनके पास संचय शक्ति का अभाव है। इस कारण भी ब्याज-दर ऊँची है।

3. उन्नत बैकिंग व्यवस्था की कमी – भारत में अब तक भी बैंकिंग व्यवस्था का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी साख संस्थाओं एवं बैंकों का अभाव है। इस कारण ब्याज-दरें ऊँची हैं।

4. निर्धनता एवं अज्ञानता – हमारे देश के अधिकांश निवासी निर्धन एवं अशिक्षित हैं। निर्धनता के कारण वे ऋण प्राप्त करने के लिए अच्छी जमानत नहीं दे पाते। अज्ञानता के कारण वे अनुत्पादक कार्यों; जैसे-विवाह, मृत्यु-भोज, मुकदमेबाजी आदि के लिए भी ऋण लेते हैं, जिससे ब्याज-दरें ऊँची रहती हैं।

5. अत्यधिक ब्याज लेने की प्रवृत्ति – हमारे देश के महाजनों एवं साहकारों की मनोवृत्ति अधिक ब्याज प्राप्त करने की होती है। वे किसानों एवं मजदूरों की विवशता का लाभ उठाकर अधिक-से-अधिक ब्याजदर प्राप्त करना चाहते हैं। इस कारण भी भारत में ब्याज दरें ऊँची हैं।

(ब) ब्याज-दर में स्थानीय भिन्नता

भारत में ब्याज दरों की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता ब्याज दरों में स्थानीय भिन्नता का पाया जाना है। भारत में नगरों की अपेक्षा गाँवों में ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं

  1.  बैंकिंग एवं संगठित साख बाजार का अभाव।
  2. अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेना।
  3.  निर्धनता के कारण उचित जमानत का न होना।
  4.  ग्रामीण जनता का अशिक्षित होना।
  5.  संगठित बाजार के अभाव के कारण महाजनों का मनमाने ढंग से ऋण देना तथा ऊँची ब्याज-दर वसूल करना।

इसके विपरीत शहरों में ब्याज-दरें नीची होती हैं, क्योंकि

  1.  शहरों में बैंकिंग व्यवस्था सुदृढ़ होती है।
  2. पूँजी बाजार अधिक संगठित होता है।
  3. नगरों के लोग अधिकतर उत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेते हैं।
  4. उधार लेने वाले अच्छी जमानत देते हैं।
  5. साख संस्थाओं में प्रतियोगिता पायी जाती है।
  6. नगरों के लोग अपेक्षाकृत शिक्षित होते हैं। इस कारण वे साख बाजार से परिचित होते हैं।

(स) ब्याज-दर में मौसमी भिन्नता।
हमारे देश में ब्याज की दर पर मौसम का प्रभाव भी पड़ता है। किसानों को फसल की बुआई के समय एवं कटाई के समय अधिक ऋण की आवश्यकता होती है। फसल की बुआई के समय खाद, पानी, बीज एवं मजदूरी के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है तथा फसल कटने के समय मण्डी तक पहुँचाने में धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार फसल बुआई एवं कटाई के समय पर ब्याज-दर ऊँची होती है, शेष समय में ब्याज-दर अपेक्षाकृत नीची रहती है। इसी प्रकार शादी-विवाह भी भारत में एक समय-विशेष पर होते हैं। उस समय ब्याज-दरें ऊँची हो जाती हैं। इस कारण भारत में ब्याज-दरों में मौसमी विभिन्नता पायी जाती है।

प्रश्न 7
भारत में कृषकों द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। क्यों ? कारण दीजिए।
उत्तर:
भारतीय कृषक द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दर ऊँची होने के कारण

  1. कृषक को उपभोग कार्यों के लिए ऋण लेना पड़ता है, क्योकि फसल नष्ट होने पर या विवाह-शादी, जन्म-मरण, मुकदमेबाजी के लिए कृषकों को ऋण की आवश्यकता होती है। अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋणों पर जोखिम अधिक होती है; अत: अधिक ब्याज लिया जाता है।
  2. कृषकों के पास ऋण लेने के लिए भूमि के अतिरिक्त कोई जमानत नहीं होती। वह भूमि को भय के कारण जमानत के रूप में नहीं रखता है; अत: जमानत के अभाव में ब्याज अधिक देना पड़ता है।
  3. उन्नत बैंकिंग व्यवस्था की अपर्याप्तता के कारण भी किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ही ऋण प्राप्त होता है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बैंकिंग व्यवस्था का विकास नहीं हो पाया है।
  4. देश में कृषकों को साख प्रदान करने वाली संस्थाएँ; जैसे – सहकारी साख समितियाँ, व्यापारिक बैंक एवं भूमि विकास बैंक, केवल उत्पादन कार्यों के लिए ही ऋण देते हैं। फसल नष्ट होने पर कृषकों को उपभोग हेतु भी ऋण की आवश्यकता होती है जिसके लिए उसे महाजन आदि का सहारा लेना पड़ता है। महाजनों की ब्याज दरें ऊँची होती हैं।
  5. बैंक या साख संस्थाओं से ऋण मिलने में किसान को अधिक समय लगता है। इस देरी से बचने के लिए भी किसान महाजनों के पास ही जाते हैं जहाँ उनका पूर्ण शोषण होता है। महाजन ऊँची ब्याज दर पर ऋण प्रदान करता है।
  6.  अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भी भारतीय कृषक ऊँची ब्याज-दर पर ऋण लेते हैं। उन्हें मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता है।
  7.  गाँवों के किसान थोड़ी मात्रा में प्रायः छोटी आवश्यकताओं हेतु ऋण लेते हैं। ऐसे ऋण देने व वसूल करने में प्रबन्ध व्यय अधिक होता है; अत: ब्याज-दर ऊँची होती है।
  8.  फसलों की बुआई के समय किसानों की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, क्योंकि इस समय उन्हें उत्पादक और उपभोग सम्बन्धी दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है; अतः पूँजी की माँग बढ़ने से ब्याज-दर ऊँची हो जाती है।
  9. ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजी की माँग अधिक होने पर भी पूँजी बहुत कम है। इस कारण किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिए विवश होना पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित तालिका के अनुसार ब्याज की दर क्या होगी ? चित्र बनाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 5
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 6
उपर्युक्त तालिका के अनुसार ब्याज की दर 3 प्रतिशत होगी (देखें संलग्न रेखाचित्र)।

प्रश्न 2
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त ब्याज-निर्धारण के पूर्ति पक्ष का विश्लेषण करता है और यह बताता है कि ब्याज की दर किस प्रकार ‘बचत करने की लागत के द्वारा निश्चित होती है। सीनियर के अनुसार, समस्त पूँजी त्याग का परिणाम है। पूँजी बचत से उत्पन्न होती है, बचत करने के लिए त्याग करना पड़ता है। बचत करने के लिए वर्तमान उपभोग का त्याग करना पड़ता है। ब्याज इसलिए दिया जाता है क्योंकि ऋणदाता बचत करने के लिए अपने वर्तमान उपभोग का त्याग करता है। उपयोग का त्याग करना कष्टपूर्ण होता है जिसके लिए बचत करने वाले को प्रतिफल मिलना चाहिए। अत: ब्याज वह पारितोषण है जो बचत करने वाले को उस संयम या त्याग की क्षतिपूर्ति के लिए दिया जाता है जो उसे बचते करने में करना पड़ता है। ब्याज बचत करने वालों को उनके त्याग अथवी संयम के लिए मिलने वाला पुरस्कार है। बचत करने में जो त्याग करना पड़ता है। उसका द्रव्य मूल्य ‘बचत करने की लागत है’ और ब्याज इस लागत के बराबर होता है। बचत करने में जितना अधिक त्याग करना पड़ता है ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है।

प्रश्न 3
फिशर का समय पसन्दगी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
फिशर ने अपने सिद्धान्त में समय के महत्त्व को माना है और कहा है कि मनुष्य वस्तुओं के वर्तमान उपभोग को भविष्य की अपेक्षा अधिक पसन्द किये जाने का कारण भविष्य का अनिश्चित होना नहीं है, बल्कि मनुष्य में पायी जाने वाली एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य की यह समय पसन्दगी ही ब्याज का कारण है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लोगों की एक समय पसन्दगी होती है। और जब वे बचत करते हैं तो उन्हें इस समय पसन्दगी का त्याग करना होता है। ब्याज समय पसन्दगी के त्याग के लिए पुरस्कार है।

प्रश्न 4
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज के पारितोषिक सिद्धान्त का पूर्ण विकास बॉम बावर्क ने किया। उनके अनुसार, पारितोषिक सिद्धान्त मनोविज्ञान की इस धारणा पर आधारित है कि मनुष्य वर्तमान को भविष्य की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है। बॉम बावर्क के अनुसार, ब्याज को मुख्य कारण वर्तमान वस्तुओं का भविष्य की वस्तुओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है। इस कारण वर्तमान वस्तुओं को भविष्य की वस्तुओं की तुलना में एक प्रकार का परितोषण मिलता है।

प्रश्न 5
कीन्स द्वारा बताये गये तरलता-पसन्दगी के तीन उद्देश्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) सौदा उद्देश्य – लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(2) दूरदर्शिता उद्देश्य – लोग दूरदर्शी होते हैं। भविष्य की आकस्मिकता को ध्यान में रखकर अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(3) सट्टा उद्देश्य – लोग सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त करने के लिए भी अपनी आय को तरल रूप में रखते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विशुद्ध ब्याज किसे कहते हैं? [2007, 08, 10]
उत्तर:
विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता।

प्रश्न 2
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व बताइए।
उत्तर:
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व हैं

  1. विशुद्ध ब्याज,
  2. जोखिम का प्रतिफल,
  3. असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा
  4. ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान।

प्रश्न 3
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के द्वारा ब्याज कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर:
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार पूँजी की उत्पादकता उसके ब्याज को निश्चित करती है और ब्याज की दर पूँजी की उत्पादकता दर के समानुपाती होती है।

प्रश्न 4
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त में प्रो० मार्शल ने क्या सुधार किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त के दोषों को दूर करने के लिए त्याग के स्थान पर प्रतीक्षा शब्द का प्रयोग किया, इसलिए इस सिद्धान्त का वर्तमान रूप ‘प्रतीक्षा सिद्धान्त’ है।

प्रश्न 5
ब्याज का ऋण-योग्य कोष सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री का है ?
उत्तर:
ब्याज का ऋण-योग्य कोष का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ‘नट विकसेल’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 6
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त क्या है?
या
ब्याज का क्लासिकल सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है।

प्रश्न 7
सकल एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 07, 08, 09, 10, 11]
उत्तर:
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं। कुल ब्याज में शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम का प्रतिफल असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य का भुगतान भी सम्मिलित होता है।

प्रश्न 8
ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ? [2008, 10, 11, 12, 15, 16]
उत्तर:
जे० एम० कीन्स ने।

प्रश्न 9
जे० एम० कीन्स के अनुसार ब्याज क्या है ? [2009, 15]
उत्तर:
“ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है।” मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है।

प्रश्न 10
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त
या
एजियो सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन थे ?
उत्तर:
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त सर्वप्रथम जॉन रे के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 11
“ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाष किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल की।

प्रश्न 12
ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
मेयर्स की।

प्रश्न 13
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया था ?
उत्तर:
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन अर्थशास्त्री सीनियर ने किया था।

प्रश्न 14
ब्याज की दर में भिन्नता के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
ब्याज की दर में भिन्नता के दो कारण हैं

  1. व्यवसाय की प्रकृति तथा
  2. ऋण की प्रकृति।

प्रश्न 15
ब्याज निर्धारण के केसीय सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2013]
या
जॉन मेनार्ड कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
ब्याज निर्धारण के केन्सीय सिद्धान्त का नाम तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त है।

प्रश्न 16
ब्याज उत्पत्ति के किस साधन का पुरस्कार है?
उत्तर:
ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में प्राप्त होने वाला पुरस्कार है।

प्रश्न 17
ब्याज-दर निर्धारण के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
(1) ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त तथा
(2) ब्याज का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त।

प्रश्न 18
जोखिम उठाने का पुरस्कार क्या होता है? [2015, 16]
उत्तर:
ब्याज।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी गयी राशि को कहते हैं
(क) लगान
(ख) ब्याज
(ग) मजदूरी
(घ) लाभ
उत्तर:
(ख) ब्याज।

प्रश्न 2
“ब्याज वह कीमत है, जो उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी जाती है। यह परिभाषा है
(क) जे० एम० कीन्स की
(ख) मेयर्स की
(ग) प्रो० मार्शल की
(घ) पीगू की।
उत्तर:
(ख) मेयर्स की।

प्रश्न 3
ब्याज वह पुरस्कार है जो प्राप्त होता है
(क) पूँजीपति को
(ख) भूस्वामी को
(ग) प्रबन्धक को
(घ) उद्यमी को
उत्तर:
(क) पूँजीपति को।

प्रश्न 4
ब्याज की दर के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(क) ब्याज की दर शून्य हो सकती है।
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती
(ग) आर्थिक विकास के साथ-साथ ब्याज की दर में वृद्धि होती रहती है।
(घ) ब्याज की दर ज्ञात नहीं की जा सकती
उत्तर:
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती।

प्रश्न 5
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाने वाला पुरस्कार हैया पूँजी पर पुरस्कार को कहते हैं [2015]
(क) लाभ
(ख) लगान
(ग) ब्याज
(घ) मजदूरी
उत्तर:
(ग) ब्याज।

प्रश्न 6
“ब्याज निश्चित अवधि के लिए तरलता के परित्याग का पुरस्कार है।” यह कथन किसका है? [2006, 07, 10, 13, 14, 15, 16]
(क) मार्शल
(ख) पीगू
(ग) रॉबर्टसन
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

प्रश्न 7
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग निर्भर है
(क) जनसंख्या के आकार पर
(ख) आय-स्तर पर
(ग) रहन-सहन के स्तर पर
(घ) ब्याज की दर पर
उत्तर:
(घ) ब्याज की दर पर।

प्रश्न 8
ब्याज का तात्पर्य है
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल
(ख) पूँजी से प्राप्त होने वाली अतिरिक्त आय
(ग) पूँजीगत लाभ
(घ) पूँजी से प्राप्त होने वाला कमीशन
उत्तर:
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल।

प्रश्न 9
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में मुद्रा का पूर्ति वक्र किस रूप में होता है? [2006]
(क) बाएँ से दाएँ ऊपर की ओर उठता हुआ
(ख) बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ
(ग) क्षैतिज रेखा के रूप में
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।
उत्तर:
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त के प्रतिपादक थे? [2014, 15]
(क) रिकाडों
(ख) एडम स्मिथ
(ग) मार्शल
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

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