UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution: Meaning and Theory (वितरण : अर्थ और सिद्धान्त)
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 8 Distribution: Meaning and Theory (वितरण : अर्थ और सिद्धान्त)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)
प्रश्न 1
वितरण से आप क्या समझते हैं ? वितरण की समस्याएँ समझाइए।
उत्तर:
वितरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ-उत्पादन के विभिन्न उपादानों में संयुक्त उपज को बाँटने की क्रिया को वितरण कहते हैं।
वितरण की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से की है
प्रो० चैपमैन के अनुसार, “वितरण का अर्थशास्त्र इस प्रकार की व्याख्या करता है कि समाज द्वारा उत्पन्न की गयी आय का, उन साधनों में अथवा साधनों के मालिकों में जिन्होंने उत्पादन में भाग लिया, किस प्रकार का बँटवारा होता है।”
प्रो० निकोलस के अनुसार, “आर्थिक दृष्टि से वितरण राष्ट्रीय सम्पत्ति को विभिन्न वर्गों में बाँटने की क्रिया की ओर संकेत करता है।”
प्रो० विक्स्टीड के शब्दों में, “अर्थशास्त्र में हम वितरण के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों का अध्ययन करते हैं जिनके अनुसार किसी विशेष औद्योगिक संगठन की संयुक्त उत्पत्ति व्यक्तियों में बाँटी जाती है। जो उसे प्राप्त करने में सहायक होते हैं।”
संक्षेप में, वितरण के अन्तर्गत उन नियमों व सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके द्वारा सामूहिक उत्पादन व राष्ट्रीय लाभांश को उत्पादन के उपादानों में बाँटा जाता है अर्थात राष्ट्रीय लाभांश को उपादानों में बाँटने की क्रिया को वितरण कहते हैं।”
वितरण की समस्या
आधुनिक औद्योगिक युग में उत्पादन प्रक्रिया जटिल होती जा रही है। आज प्रतिस्पर्धा के युग में उत्पादन बड़े पैमाने पर, श्रम-विभाजन व मशीनीकरण द्वारा सम्पादित किया जा रहा है। उत्पादन कार्य में उत्पादन के साधन-भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन व साहस-अपना सहयोग देते हैं। चूँकि उत्पादन समस्त उत्पत्ति के साधनों का प्रतिफल है; अत: यह प्रतिफल सभी उत्पत्ति के साधनों में उनके पुरस्कार के रूप में वितरित किया जाना चाहिए अर्थात् कुल उत्पादन में से श्रम को उसके पुरस्कार के रूप में दी जाने वाली मजदूरी, भूमिपति को लगान, पूँजीपति को ब्याज, संगठनकर्ता को वेतन तथा साहस को लाभ मिलना चाहिए।
अब प्रश्न यह है कि उत्पत्ति के साधनों को उनका पुरस्कार कुल उत्पादन में से किस आधार पर दिया जाए, यह वितरण की केन्द्रीय समस्या है। आज उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों में २ष्ट्रीय उत्पादन में से अधिक पुरस्कार प्राप्त करने के लिए एक प्रकार की प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गयी है। कि राष्ट्रीय उत्पादन (लाभांश) में से कौन अधिक भाग प्राप्त करे ? यही प्रतिस्पर्धा वितरण की समस्या बन जाती है। इस कारण वितरण की समस्या बड़े पैमाने के सामूहिक उत्पादन के कारण उत्पन्न हुई है। यदि एक ही व्यक्ति उत्पादन के सभी साधनों का स्वामी होता तो वितरण की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती, क्योंकि वही व्यक्ति समस्त उत्पादन का अधिकारी होता। वितरण की समस्या उत्पन्न होने के निम्नलिखित कारण हैं
- सामूहिक उत्पादन के कारण उत्पादन के सभी उपादानों के सहयोग का अलग-अलग मूल्यांकन करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस कारण वितरण की समस्या उत्पन्न होती है।
- उत्पादन के उपादानों के स्वामी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तथा प्रत्येक अपने सहयोग के लिए अधिक-से-अधिक भाग प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है।
- वितरण की समस्या को बढ़ाने में राजनीतिक व आर्थिक विचारधाराओं ने भी अपना पूर्ण सहयोग दिया है। पूँजीवादी विचारधारा के समर्थक राष्ट्रीय उत्पादन में से पूँजीपतियों के अधिक भाग का समर्थन करते हैं। दूसरी ओर साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा में उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिक केन्द्रीय धुरी होता है। अतः श्रमिकों को राष्ट्रीय लाभांश में से अधिक भाग मिलना चाहिए। इस कारण वितरण की समस्या विवादास्पद बन जाती है।
वितरण के समय कौन-कौन सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं?
वितरण की निम्नलिखित प्रमुख समस्याएँ हैं
- वितरण किसका होता है या किसका होना चाहिए ?
- वितरण किस-किसके मध्य होता है या किस-किसके मध्य होना चाहिए ?
- वितरण का क्रम क्या रहता है या क्या होना चाहिए ?
- वितरण में प्रत्येक उत्पादन के उपादान का भाग किस प्रकार निर्धारित किया जाता है या किया जाना चाहिए ?
1. वितरण किसका होता है या किसका होना चाहिए ? – वितरण में सर्वप्रथम यह समस्या उत्पन्न होती है कि वितरण कुल उत्पादन का किया जाए या शुद्ध उत्पादन का। वितरण कुल उत्पादन गाता, वरन् कुले उत्पादन में से अचल सम्पत्ति पर ह्रास व्यय, चल पूंजी का प्रतिस्थापन व्यय, करों के भुगतान का व्यय तथा बीमे की प्रीमियम आदि व्यय को घटाने के पश्चात् जो वास्तविक या शुद्ध उत्पादन बचता है उसका वितरण किया जाता है। फर्म की दृष्टि से भी वास्तविक या शुद्ध उत्पत्ति का ही वितरण हो सकता है, कुल उत्पत्ति का नहीं अर्थात् कुल उत्पत्ति में से चल पूँजी के प्रतिस्थापन व्यय, अचल पूँजी के ह्रास, मरम्मत और प्रतिस्थापन व्यय, सरकारी कर तथा बीमा प्रीमियम निकाल देने के बाद जो शेष बचता है उसे वास्तविक उत्पत्ति (Net Produce) कहते हैं। यह वास्तविक उत्पत्ति ही उत्पत्ति के साधनों के बीच बाँटी जानी चाहिए। राष्ट्र की दृष्टि से राष्ट्रीय आय अथवा राष्ट्रीय लाभांश (National Dividend) का वितरण उत्पत्ति के समस्त साधनों में होता है।
2. वितरण किस-किसके मध्य होता है या किस – किसके मध्य होना चाहिए ? – दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह है कि वितरण किस-किसके मध्य होना चाहिए ? इस समस्या का समाधान सरल है-उत्पादन में उत्पत्ति के जिन उपादानों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और साहस) ने सहयोग किया है, शुद्ध उत्पादन का विभाजन या वितरण उन्हीं को किया जाना चाहिए। उत्पादन के उपादानों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन एवं साहस) के स्वामी क्रमशः भूमिपति, श्रमिक, पूँजीपति, प्रबन्धक एवं साहसी कहलाते हैं। इन्हीं को राष्ट्रीय लाभांश में से भाग मिलता है। राष्ट्रीय लाभांश में से भूमिपति को लगान, श्रमिक को मजदूरी, पूँजीपति को ब्याज, प्रबन्धकं को वेतन तथा साहसी को प्राप्त होने वाला प्रतिफल लाभ कहा जाता है। अतः वास्तविक उत्पत्ति का वितरण उत्पादन के विभिन्न उपादानों में किया जाना चाहिए।
3. वितरण का क्रम क्या रहता है या क्या होना चाहिए ? – प्रत्येक उद्यमी उत्पादन के पूर्व यह अनुमान लगाता है कि वह जिस वस्तु का उत्पादन करना चाहता है उसे उस व्यवसाय में कितनी शुद्ध उत्पत्ति प्राप्त हो सकेगी। इन अनुमानित वास्तविक उत्पत्ति में से उत्पत्ति के चार उपादानों को अनुमानित पारिश्रमिक देना पड़ेगा। जब उद्यमी उत्पादन कार्य आरम्भ करने का निश्चय कर लेता है तो वह उत्पत्ति के उपादानों के स्वामियों से उसके पुरस्कार के सम्बन्ध में सौदा तय कर लेता है और अनुबन्ध के अनुसार समय-समय पर उन्हें पारिश्रमिक देता रहता है।
समस्त उपादानों को उनका पारिश्रमिक देने के उपरान्त जो शेष बचता है, वह उसका लाभ होता है। लेकिन यह भी सम्भव है कि शुद्ध आय विभिन्न उपादानों पर व्यय की जाने वाली राशि से कम हो। ऐसी स्थिति में साहसी को हानि होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि साहसी को छोड़कर उत्पादन के अन्य उपादानों का पारिश्रमिक तो उत्पादन कार्य आरम्भ होने से पूर्व ही निश्चित कर उन्हें दे दिया जाता है। उद्यमी का भाग अनिश्चित रहता है। उद्यमी का यह प्रयास रहता है कि उसे अपने व्यवसाय में हानि न हो। इस कारण वह उत्पत्ति के अन्य साधनों को पारिश्रमिक कम-से-कम देने का प्रयास करता है। उत्पादन के अन्य उपादानों का अनुमान ऐसा रहता है। कि उद्यमी उनका शोषण करके अधिक लाभ अर्जित करने का प्रयास कर रहा है। इस कारण वितरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। अत: उत्पादन के उपादानों को लाभ में सहभागिता प्राप्त होनी चाहिए।
4. वितरण में प्रत्येक उत्पादन के उपादान का भाग किस प्रकार निर्धारित किया जाता है। या किया जाना चाहिए ? – संयुक्त उत्पादन में से प्रत्येक उपादान का भाग किस आधार पर निश्चित किया जाए, इस सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रो० एडम स्मिथ तथा रिका ने ‘वितरण का परम्परावादी सिद्धान्त’ दिया है जिसके अनुसार, राष्ट्रीय आय में से सर्वप्रथम भूमि का पुरस्कार अर्थात् लगान दिया जाए, उसके बाद श्रमिकों की मजदूरी, अन्त में जो शेष बचता है वह पूँजीपतियों को ब्याज व साहसी को लाभ के रूप में दिया जाना चाहिए। रिका के अनुसार, लगान का निर्धारण सीमान्त व अधिसीमान्त भूमि के उत्पादन के द्वारा निर्धारित होना चाहिए तथा मजदूरों को ‘मजदूरी कोष’ (Wage Fund) से पुरस्कार प्राप्त होना चाहिए। जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड एवं वालरस ने वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
इनके अनुसार, “किसी साधन का पुरस्कार अथवा उसकी कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है अर्थात् एक साधन का पुरस्कार उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना एक दुष्कर कार्य है। वितरण का आधुनिक सिद्धान्त माँग व पूर्ति का सिद्धान्त है। इसके अनुसार संयुक्त उत्पत्ति में उत्पत्ति के किसी उपादान का भाग उस उपादान की माँग और पूर्ति की शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ पर उपादान की माँग और पूर्ति दोनों ही बराबर होते हैं। उपर्युक्त इन चारों सिद्धान्तों के द्वारा वितरण की समस्या को हल करने का प्रयास किया गया है।
प्रश्न 2
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। [2015, 16]
या
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त क्या है? इसकी मान्यताएँ लिखिए। [2006, 07]
या
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2011, 14, 16]
या
सीमान्त उत्पादकता से आप क्या समझते हैं? वितरण के सीमान्त उत्पादन सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2013]
उत्तर:
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त – इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड, वालरस, श्रीमती जॉन रॉबिन्सन और हिक्स हैं। इनके अनुसार, उत्पादन के किसी साधन की कीमत उसको उत्पादकता पर निर्भर करती है। उद्यमी को छोड़कर उत्पादन के अन्य उपादानों को पारिश्रमिक उनकी सीमान्त उत्पादिता के आधार पर निश्चित किया जाता है। सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार, “किसी साधन का पुरस्कार अर्थात उसकी कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है।”
सीमान्त उत्पादकता क्या है ? – उपादान की एक इकाई में कमी या वृद्धि करने से कुल उत्पादन में जो कमी या वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त उत्पादिता कहते हैं। सीमान्त उत्पादिता किसी उपादान विशेष की अन्तिम (सीमान्त) इकाई की उत्पत्ति (सीमान्त उत्पत्ति-Marginal Product) के बराबर होती है। उस साधन का पुरस्कार उसी के आधार पर निर्धारित किया जाता है।
सीमान्त उत्पादकता; साधन की एक अतिरिक्त इकाई को प्रयोग में लाने से कुल उत्पादन की मात्रा में हुई वृद्धि के बराबर होती है अर्थात् सीमान्त उत्पादकता उत्पादन के अन्य साधनों को स्थिर मानकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग करने से कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कहते हैं।
उत्पत्ति के साधनों की सीमान्त उत्पादकता उनकी कीमतों को निर्धारित करती है। उत्पत्ति के साधनों की माँग उनकी उत्पादिता से निर्धारित होती है। जिन साधनों की उत्पादकता अधिक होती है, उनकी माँग अधिक होती है, इसके दूसरी ओर जिन साधनों की उत्पादकता कम होती है, उनकी कीमत कम होगी।
सीमान्त उत्पादिता के आधार पर ही उत्पादन में प्रतिस्थापन का नियम (Law of Substitution) लागू होता है। प्रबन्धक तब तक उत्पत्ति के साधनों का प्रतिस्थापन करता रहता है जब तक कि प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादिता उसे दिये जाने वाले पारिश्रमिक के लगभग बराबर न हो जाए। यदि किसी साधन का पारिश्रमिक सीमान्त उत्पादकता से कम होता है, तो उत्पादक उस साधन की इकाइयों को तब तक बढ़ाता जाएगा जब तक उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कम होकर उसके पारिश्रमिक के समान नहीं हो जाती। इसके विपरीत, यदि पारिश्रमिक सीमान्त उत्पादकता से अधिक है तो उत्पादक को उस साधन के प्रयोग से हानि होगी। अत: उत्पादक उस उपादान की इकाइयों को तब तक कम रखता जाएगा जब तक कि उसकी सीमान्त उत्पादित बढ़कर पारिश्रमिक के बराबर न हो जाए। इस प्रकार सीमान्त उत्पादिता का सिद्धान्त यह बताता है कि दीर्घकाल में उत्पादन के प्रत्येक उपादान को दिया जाने वाला प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादिता के बराबर होता है।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में Ox – अक्ष पर साधन की मात्रा तथा OY-अक्ष पर सीमान्त भौतिक उत्पादकता दर्शायी गयी है। सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र अंग्रेजी के उल्टे U-आकार के समान है, जिसे चित्र में MPP वक्र द्वारा दर्शाया गया है जिससे स्पष्ट होता है कि उत्पादन में उत्पत्ति के सीमान्त भौतिक नियम क्रियाशील हैं अर्थात् प्रारम्भ में उत्पादन में उत्पत्ति वृद्धि उत्पादकता वक्र या MPP नियम लागू हो रहा है, उत्पादन बढ़ रहा है तथा यह उत्पादन धीरे-धीरे अधिकतम सीमा पर पहुँचने के पश्चात् नीचे की ओर गिरने लगता है।
चित्र में क से य बिन्दु तक उत्पादकता में वृद्धि, य बिन्दु पर उत्पादन अधिकतम और य बिन्दु के ६ पश्चात् उत्पादन में कमी होनी प्रारम्भ हो जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि उत्पत्ति वृद्धि होने पर भौतिक उत्पादकता में वृद्धि
साधन की मात्रा होती है तथा उत्पादन के उपादान के पुरस्कार में वृद्धि हो । जाती है, परन्तु ह्रास नियम लागू होने के पश्चात् पुरस्कार गिरना (घटना) प्रारम्भ हो जाता है।
सिद्धान्त की मान्यताएँ
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है
- साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- साधन के द्वारा उत्पादित वस्तु के बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- साधन की प्रत्येक इकाई समान रूप से कुशल तथा विभिन्न इकाइयाँ एक-दूसरे की पूर्ण स्थापन्न (Perfect substitutes) होती हैं।
- अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर एक साधन की मात्रा को घटाना-बढ़ाना सम्भव है।
- प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से कार्य करती है।
- समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।
- क्रमागत उत्पत्ति द्वारा नियम लागू होता है।
सीमान्त भौतिक उत्पादकता
सिद्धान्त की आलोचनाएँ सीमान्त उत्पादिता सिद्धान्त की मान्यताओं के अवास्तविक होने के आधार पर उनकी कड़ी आलोचना की गयी है। इस सिद्धान्त की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं
- उत्पादन संयुक्त प्रयत्न का परिणाम होता है। अत: उत्पत्ति में किसी उत्पादन-विशेष के योगदान को ज्ञात करना अर्थात् प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना कठिन होता है।
- सीमान्त उत्पादिता उत्पत्ति के किसी साधन के सहयोग का सही मापक नहीं है, क्योंकि उत्पादन के किसी साधन की एक इकाई की वृद्धि अथवा कमी से उसकी उत्पादिता ज्ञात नहीं की जा सकती।
- उत्पादन में स्नों की सभी इकाइयाँ एक-सी नहीं होतीं, उनमें भिन्नता पायी जा सकती है। वे एक-दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न भी नहीं होती हैं।
- यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति नहीं पायी जाती।
- पूर्ण रोजगार की मान्यता ठीक नहीं है। उत्पत्ति के साधनों में बेरोजगारी सामान्यतया पायी जाती है। साधनों के बाजार में पूर्ण रोजगार पाये जाने के कारण एक साधन का प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादकता से कम हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह सिद्धान्त अव्यावहारिक हो जाता है।
- यह सिद्धान्त केवल माँग पक्ष को प्रस्तुत करता है और पूर्ति पक्ष को स्थायी मानकर चलता है। अतः यह सिद्धान्त एकपक्षीय है।
- यह सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि यह उत्पादन के सभी उपादानों, विशेषकर श्रमिक और मशीन आदि को एकसमान मानकर चलता है। श्रमिकों के पारिश्रमिक का निर्धारण केवल सीमान्त उत्पादिता के आधार पर ही नहीं, अपितु श्रम की सौदा करने की शक्ति से भी प्रभावित होता है। इसी प्रकार ब्याज की दर, पूँजी की सीमान्त उत्पादिता से प्रभावित होती है।
- इस सिद्धान्त के आधार पर उद्यमी का पुरस्कार ज्ञात नहीं किया जा सकता।
- उत्पादन में वर्द्धमान प्रतिफल नियम (Law of Increasing Returns) के लागू होने की सम्भावनाएँ भी होती हैं।
उपर्युक्त आलोचनाओं से स्पष्ट होता है कि सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त साधनों की कीमत-निर्धारण का अधूरा सिद्धान्त है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)
प्रश्न 1
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
या
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त को रेखाचित्र की सहायता से समझाइए।
या
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2012]
उत्तर:
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त – आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, उत्पादन के साधनों की कीमत का निर्धारण वस्तुओं की कीमत-निर्धारण का विस्तार एवं विशिष्ट रूप है। उत्पत्ति के साधन की कीमत एक वस्तु की भाँति उसकी माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। वितरण के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार, संयुक्त उत्पत्ति में उत्पत्ति के किसी उपादान का भाग उस उपादान की माँग और पूर्ति की शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ पर उत्पादन के उपादानों की माँग और पूर्ति दोनों ही बराबर होती हैं। इस प्रकार वितरण का आधुनिक सिद्धान्त-माँग और पूर्ति का सिद्धान्त ही है।
सिद्धान्त की मान्यताएँ
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि साधन-बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप हैं तथा वे एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
- उत्पत्ति ह्रास नियम की क्रियाशीलता सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण मान्यता है।
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य होता है।
सिद्धान्त की व्याख्या
1. साधन की माँग – किसी उत्पत्ति के साधन की माँग उसकी सीमान्त उत्पादिता पर निर्भर होती है। एक फर्म उत्पत्ति के साधन को उस सीमा तक प्रयोग करेगी जहाँ पर उसकी सीमान्त उत्पादकता सीमान्त साधन लागत के बराबर हो। यदि साधन की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य सीमान्त साधन लागत से अधिक होता है तो फर्म के लिए उस साधन की अधिक इकाइयों का प्रयोग करना लाभपूर्ण होगा। फर्म तब तक साधन की अधिकाधिक इकाइयों का प्रयोग करती जाएगी जब तक साधन की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य सीमान्त साधन लागत के बराबर नहीं हो जाता। कोई भी फर्म साधन के लिए उसकी सीमान्त उत्पादकता से अधिक मूल्य नहीं देगी। इस प्रकार सीमान्त उत्पादकता साधन की कीमत की अधिकतम सीमा निर्धारित करती है।
2. साधन की पूर्ति – साधन के पूर्ति पक्ष उत्पत्ति के उपादान के स्वामी होते हैं। किसी साधन की पूर्ति उसकी उपादान लागत पर निर्भर करती है, परन्तु यहाँ पर उत्पादन लागत से अभिप्राय ‘अवसर लागत’ (Opportunity Cost) अथवा हस्तान्तरण आय (Transfer Earning) से है। साधन की हस्तान्तरण आय वह आय होती है जो वह दूसरे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग से प्राप्त कर सकता है। एक साधन को अपने वर्तमान व्यवसाय में कम-से-कम उतनी आय अवश्य प्राप्त होनी चाहिए जितनी कि वह किसी दूसरे सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय में प्राप्त कर सकता हो। इस प्रकार हस्तान्तरण आय’ साधन की उत्पादन लागत होती है जो उस न्यूनतम सीमा को निर्धारित करती है जिससे नीचे उसकी कीमत नहीं गिर सकती। उत्पत्ति के उपादान को स्वामी कम-से-कम उतने मूल्य पर उपादान को बेचने के लिए। तैयार होगा जितना उसकी सीमान्त इकाई की लागत है। यह सीमा पूर्तिकर्ता की न्यूनतम सीमा है।
3. साधन मूल्य का निर्धारण – उत्पत्ति के उपादान का मूल्य उस साधन की माँग तथा पूर्ति की। शक्तियों के अनुसार उस स्थान पर निर्धारित होता है जहाँ उसकी सीमान्त उत्पादिता तथा उसके स्वामी के सीमान्त त्याग या हस्तान्तरण आय अर्थात् सीमान्त लागत बराबर होती है। यही साधन बाजार की सन्तुलन की स्थिति होती है। जिस कीमत पर माँग और पूर्ति में सन्तुलन स्थापित होता है उसे साधन की सन्तुलन कीमत कहा जाता है। इस प्रकार किसी साधन की कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर उसकी माँग ठीक उसकी पूर्ति के बराबर होती है।।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की माँग और पूर्ति (इकाइयों में) तथा OY-अक्ष पर साधन की सीमान्त उत्पादिता (₹ में) दर्शायी गयी है।
चित्र में DD साधन की माँग रेखा है, ss साधन कीपूर्ति रेखा है। E सन्तुलन बिन्दु है, क्योंकि यहाँ पर साधन की माँग व पूर्ति दोनों बराबर हैं। EQ या OP साधन की कीमत या पुरस्कार है।
चित्र से स्पष्ट होता है कि एक साधन की कीमत या पुरस्कार EO या OP होगा, क्योंकि यहाँ पर साधन की माँग व पूर्ति दोनों बराबर हैं।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)
प्रश्न 1
वितरण का क्या अर्थ है? [2012]
या
अर्थशास्त्र में वितरण से आप क्या समझते हैं? [2007, 14]
या
वितरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2012]
उत्तर:
अर्थशास्त्र के उस भाग को जिसमें धन को उत्पन्न करने वाले सहयोगियों में बाँटने के नियमों, सिद्धान्तों एवं इससे सम्बन्धित बातों का अध्ययन किया जाता है, ‘वितरण’ कहते हैं। संक्षेप में, अर्थशास्त्र का वह विभाग जो हमें वितरण की समस्या की जानकारी देता है, ‘वितरण’ कहलाता है।
कुछ विद्वानों ने वितरण को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
विक्स्टीड के अनुसार, “वितरण में राजनीतिक अर्थव्यवस्था की शाखा के रूप में उन सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके अधीन किसी जटिल औद्योगिक संगठन द्वारा की गयी संयुक्त उत्पत्ति का विभाजन उन व्यक्तियों के मध्य किया जाता है जिन्होंने उत्पादन में किसी प्रकार का सहयोग प्रदान किया है।”
चैपमैन के अनुसार, “वितरण का अर्थ किसी समुदाय द्वारा उत्पादित धन को उन साधनों अथवा साधनों के स्वामियों के मध्य वितरित करना है जो उसके उत्पादन में सक्रिय सहयोग प्रदान करते हैं।”
प्रश्न 2
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त किन मान्यताओं पर आधारित है ? लिखिए। [2009]
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है
- उत्पादन के उपादानों की सभी इकाइयाँ समान होनी चाहिए।
- विभिन्न उपादानों का एक-दूसरे से प्रतिस्थापन सम्भव होना चाहिए।
- अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर, एक साधन की मात्रा को घटाना-बढ़ाना सम्भव है। अर्थात् प्रत्येक उपादान की उपयोग की मात्रा में परिवर्तन सम्भव होना चाहिए।
- उत्पादन व्यवसाय में ह्रासमान प्रतिफल नियम (Law of Diminishing Returns) लागू होना चाहिए।
- साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता होनी चाहिए अर्थात् साधन के क्रेताओं व विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है।
- प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से कार्य करती है।
- समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।
प्रश्न 3
सीमान्त भौतिक उत्पादकता क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
सीमान्त भौतिक उत्पादकता (Marginal Physical Productivity) – जब किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता को उत्पन्न की गयी वस्तु की भौतिक मात्रा के रूप में व्यक्त किया जाता है तो उसे साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) कहा जाता है।
अन्य साधनों को स्थिर रखकर किसी साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल भौतिक उत्पादन में जो वृद्धि होती है, वह उस साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता होती है। परिवर्तनशील अनुपातों के नियम (Law of variable MPP Proportions) के कार्यशील होने के कारण आरम्भ में परिवर्तनशील साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता बढ़ती है,साधन की मात्रा किन्तु एक बिन्दु पर अधिकतम होने के पश्चात् वह गिरना आरम्भ (Quantity of Factors) हो जाती है। इसलिए सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र उल्टे U-आकार को होता है।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की मात्रा तथा OY-अक्ष पर सीमान्त भौतिक उत्पादकता को दिखाया गया है। चित्र में MPP वक्र सीमान्त भौतिक उत्पादकता वक्र है, जो उल्टे U के आकार का है।
प्रश्न 4
औसत आय उत्पादकता एवं सीमान्त आय उत्पादकता को समझाइए।
उत्तर:
औसत आय उत्पादकता-किसी साधन से उत्पादित होने वाले कुल भौतिक उत्पादन को बेचकर जो कुल आय प्राप्त होती है, उसे साधन की कुल इकाइयों की मात्रा से भाग देकर उस साधन की औसत आय उत्पादकता ज्ञात की जाती है।
सीमान्त आय उत्पादकता-अन्य साधनों की मात्रा स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल आगम (आय) में जो वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त आय उत्पादकता कहा जाता है।
सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) को सीमान्त आय (MR) से गुणा करके भी सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) को ज्ञात किया जा सकता है।
MRP = MPP x MR
प्रश्न 5
साधन की औसत लागत व सीमान्त लागत से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
एक साधन की आय फर्म के लिए लागत होती है।
साधन की औसत लागत – एक फर्म किसी साधन के लिए जो कुल व्यय करती है, उसे कुल लागत कहते हैं। उस कुल लागत को साधन की सम्पूर्ण इकाइयों से भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, वह साधन की औसत लागत कहलाती है।
सीमान्त लागत – एक फर्म किसी साधन की अन्तिम इकाई पर जो व्यय करती है वह साधन की सीमान्त लागत कहलाती है। एक फर्म की अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल लागत में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त लागत कहते हैं।
पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता के अन्तर्गत फर्म की औसत साधन लागत रेखा (Average factor cost curve) और सीमान्त साधन लागत रेखा (Marginal factor cost curve) एक ही होती है। यह रेखा एक पड़ी। हुई रेखा (Horizontal line) होती है।
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर साधन की इकाइयाँ सीमान्त साधन लागत रेखा तथा OY-अक्ष पर साधन की लागत दिखायी गयी है। चित्र में सीधी रेखा औसत साधन लागत रेखा AFC तथा सीमान्त । साधन लागत रेखा MFC है। यह रेखा OX-अक्ष के साधन की इकाइयाँ समान्तर है।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1
‘सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त इस बात की सामान्य व्याख्या करता है कि उत्पत्ति के साधनों को पुरस्कार अर्थात् उनकी कीमतें किस प्रकार निर्धारित होती हैं। सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार किसी साधन की कीमत उसकी उत्पादकता के अनुसार होती है।
प्रश्न 2
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्रियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री जे० बी० क्लार्क, विक्स्टीड, वालरा, श्रीमती जॉन रॉबिन्सन और हिक्स हैं।
प्रश्न 3
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को किस नाम से पुकारा जाता है ?
उत्तर:
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को वितरण का सामान्य सिद्धान्त भी कहा जाता है, क्योंकि इस सिद्धान्त की सहायता से उत्पत्ति के सभी साधनों की कीमत-निर्धारण की समस्या का अध्ययन किया जा सकता है।
प्रश्न 4
उत्पत्ति के साधनों की कीमत का निर्धारण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
उत्पत्ति के साधनों की कीमत साधनों की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है।
प्रश्न 5
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की दो आलोचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) एक साधन की सीमान्त उत्पादकता को अलग करना कठिन है; क्योंकि सभी उत्पत्ति के साधनों की उत्पादकता सामूहिक होती है।
(2) उत्पत्ति के साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप नहीं होती हैं; अतः सीमान्त उत्पादकता ज्ञात करना कठिन हो जाता है।
प्रश्न 6
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री द्वारा प्रतिपादित किया जाता है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल के द्वारा।
प्रश्न 7
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार किसी साधन की कीमत भी उसकी माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। साधन की कीमत उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर उसकी माँग और पूर्ति बराबर होती हैं।
प्रश्न 8
वितरण के दो सिद्धान्त बताइए। [2007]
उत्तर:
(1) वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त।
(2) वितरण का आधुनिक सिद्धान्त।
प्रश्न 9
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की चार मान्यताएँ बताइए। [2006]
उत्तर:
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- साधनों की सभी इकाइयाँ एकरूप हैं तथा वे एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
- उत्पत्ति द्वारा नियम की क्रियाशीलता सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण मान्यता है।
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य होता है।
प्रश्न 10
सीमान्त उत्पादकता क्या है ? [2009, 10]
उत्तर:
अन्य साधनों को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, उसे साधन की सीमान्त उत्पादकता कहा जाता है।
प्रश्न 11
किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता कितने प्रकार की हो सकती है ?
उत्तर:
किसी साधन की सीमान्त उत्पादकता तीन प्रकार की हो सकती है
- सीमान्त भौतिक उत्पादकता,
- सीमान्त आगम उत्पादकता तथा
- औसत उत्पादकता।
प्रश्न 12
औसत उत्पादकता कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर:
औसत उत्पादकता दो प्रकार की होती है
- औसत भौतिक उत्पादकता तथा
- औसत आय उत्पादकता।
प्रश्न 13
औसत आय उत्पादकता को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
औसत आय उत्पादकता को ‘सकल आय उत्पादकता’ भी कहा जाता है।
प्रश्न 14
सीमान्त आय उत्पादकता और औसत आय उत्पादकता के सम्बन्ध को बताइए।
उत्तर:
- जब औसत आय उत्पादन बढ़ता है तो सीमान्त आय उत्पादन उससे कम होता है।
- जब औसत आय उत्पादन स्थिर होता है तब सीमान्त आय उत्पादन उसके बराबर होता है।
- जब औसत आय उत्पादन गिरता है तो सीमान्त आय उत्पादन उससे कम होता है।
प्रश्न 15
वितरण का आधुनिक सिद्धान्त किन मान्यताओं पर आधारित है ?
उत्तर:
- बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील होता है।
- साधन की सभी इकाइयाँ एक रूप तथा एक-दूसरे के लिए पूर्ण स्थानापन्न हैं।
- प्रत्येक साधन पूर्णतया विभाज्य है।
प्रश्न 16
वितरण किस-किस के मध्य होता है? [2007]
उत्तर:
उत्पादन में उत्पत्ति के जो उपादान (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और साहस) सहयोग करते हैं, शुद्ध उत्पादन का विभाजन या वितरण उन्हीं के मध्य होता है।
प्रश्न 17
आर्थिक क्रिया से क्या अभिप्राय है? [2015]
उत्तर:
वे क्रियाएँ जो वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण और उपभोग को समाज के सभी स्तरों पर शामिल होती हैं, आर्थिक क्रियाएँ कहलाती हैं।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1
वितरण के परम्परावादी सिद्धान्त के जन्मदाता कौन हैं ?
(क) एडम स्मिथ
(ख) मार्शल
(ग) जे० एस० मिल
(घ) जे० के० मेहता
उत्तर:
(क) एडम स्मिथ।
प्रश्न 2
वितरण में उद्यमी का हिस्सा प्राप्त होता है
(क) सबसे बाद में
(ख) सबसे पहले
(ग) बीच में
(घ) कभी नहीं
उत्तर:
(क) सबसे बाद में।
प्रश्न 3
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के जन्मदाता कौन हैं ? [2007,09]
(क) जे० बी० क्लार्क
(ख) रिकार्डो
(ग) मार्शल
(घ) कीन्स
उत्तर:
(क) जे० बी० क्लार्क।
प्रश्न 4
वितरण में उद्यमी के हिस्से को कहते हैं [2010, 12]
(क) ब्याज
(ख) लाभ
(ग) वेतन
(घ) मजदूरी
उत्तर:
(ख) लाभ।