UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 7 Major Tribes of India (भारत की प्रमुख जनजातियाँ)
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 7 Major Tribes of India (भारत की प्रमुख जनजातियाँ)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
नागा जनजाति के निवास-क्षेत्र एवं अर्थव्यवस्था का वर्णन कीजिए। [2008]
या
नागा जनजाति के निवास-क्षेत्र और आर्थिक क्रियाकलाप का वर्णन कीजिए।
या
टिप्पणी लिखिए-नागा जनजाति।
उत्तर
नागा Nagas
यह जनजाति मुख्यत: भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित नागालैण्ड राज्य में निवास करती है। नागा राष्ट्र की उत्पत्ति कुछ विद्वानों के अनुसार संस्कृत में प्रचलित ‘नग’ (पर्वत) शब्द से हुई। डॉ० एल्विन के मतानुसार, नागा की उत्पत्ति नाक अथवा लोंग से हुई। ये इण्डो-मंगोलॉयड प्रजाति से सम्बन्ध रखते हैं।
निवास-क्षेत्र – नागा जाति का मुख्य निवास-क्षेत्र नागालैण्ड है। पटकोई पहाड़ियों, मणिपुर के पठारी भाग, असम व अरुणाचल प्रदेश में भी कुछ नागा वर्ग निवास करते हैं।
प्राकृतिक वातावरण – नागालैण्ड के पूर्व में पटकोई तथा दक्षिण में मणिपुर व अराकान पर्वतश्रेणियाँ स्थित हैं। यहाँ उच्च एवं विषम धरातल, उष्णार्द्र जलवायु तथा अधिक वर्षा (200 से 250 सेमी) पायी जाती है। यहाँ सघन वनों में साल, टीक, बाँस, ओक, पाइन तथा आम, जैकफूट (कटहल), केले, अंजीर एवं जंगली फल भी प्रचुरता से पाये जाते हैं। इन वनों में हाथी, भैंसे, हिरण, सूअर, रीछ, तेंदुए, चीते, बैल (बिसन), साँभर, भेड़िये, लकड़बग्घे आदि तथा वन्य जन्तु चूहे, साँप, गिलहरियाँ, गिद्ध आदि पाये जाते हैं।
शारीरिक लक्षण – नागाओं के शारीरिक लक्षणों में मंगोलॉयड तत्त्व की अधिकता है, किन्तु डॉ० हट्टन इन्हें ऑस्ट्रेलॉयड मानते हैं। इनकी त्वचा का वर्ण हल्के पीले से गहरा भूरा, बाल काले व सुंघराले तथा लहरदार, आँखें गहरी भूरी, गालों की हड्डियाँ उभरी हुईं, सिर मध्यम चौड़ा, नाक मध्यम चौड़ी, कद मध्यम व छोटा होता है। नागाओं के अनेक उपवर्ग पाये जाते हैं। नागाओं के पाँच बड़े उपवर्ग निम्नवत् हैं –
- उत्तरी क्षेत्र में रंगपण व कोन्याक नागा;
- पश्चिम में अंगामी, रेंगमा व सेमा;
- मध्य में आओ, ल्होटा, फीम, चेंग, सन्थम;
- दक्षिण में कचा व काबुई तथा
- पूर्वी क्षेत्र में टेंगरखुल व काल्पो-केंगु नागा।
निवास – अधिकांश नागा पाँच-सात झोंपड़े बनाकर ग्रामों में रहते हैं। एक ग्राम में एक कुटुम्ब ही निवास करता है। झोंपड़ियों का निर्माण करने के लिए यहाँ के वनों में उगने वाले बाँस एवं लकड़ी का प्रयोग अधिक किया जाता है। नागा लोग अपने गृहों का निर्माण ऊँचे भागों में करते हैं, जहाँ वर्षा के जल से रक्षा हो सके। ये लोग अपने घरों को हथियारों एवं नरमुण्डों से सजाते हैं। सामान्यतः एक गाँव में 200 से 250 मकान तक होते हैं। एक मकान में बहुधा दो छप्पर होते हैं।
जिस स्थान पर नागा लोग नृत्य करते हैं, वहाँ वृत्ताकार ईंटों का घेरा बना होता है। मारम नागा अपने मकानों के दरवाजे पश्चिम दिशा की ओर नहीं बनाते, क्योंकि पश्चिम दिशा से शीतल वायु प्रवाहित होती है। अंगामी नागाओं में प्रत्येक गाँव कई भागों में बँटा होता है। इनके आपसी झगड़ों को निपटाने वाले मुखिया को टेबो कहते हैं।
वेशभूषा – सामान्यत: नागा बहुत कम वस्त्र पहनते हैं। आओ नागा एक फीट चौड़ा कपड़ा कमर पर लपेटते हैं तथा स्त्रियाँ ऊँचे लहँगे पहनती हैं। पुरुष सिर पर रीछ या बकरी की खाल की टोपी, हार्नबिल के पंख व सींग तथा हाथी-दाँत व पीतल के भुजबन्ध पहनते हैं। स्त्रियाँ उत्सवों तथा पर्यों पर पीतल के गहने, कौड़ियों, मँगे व मोती की मालाएँ तथा आकर्षक रंग-बिरंगे वस्त्र पहनती हैं। नागाओं में शरीर गुदवाने (Tattooing) का अधिक प्रचलन है।
भोजन – चावले नागाओं का प्रिय भोजन है, परन्तु यह कम मात्रा में प्राप्त होता है। इसी कारण ये लोग शिकार एवं जंगलों से प्राप्त होने वाले कन्दमूल-फल आदि पर निर्भर करते हैं। नागा लोग बकरी, गाय, बैल, साँप, मेंढक आदि का मांस खाते हैं। चावल से निकाली गयी शराब का उपयोग विशेष उत्सवों पर करते हैं। भोजन के सम्बन्ध में इनके यहाँ कुछ निषेध भी हैं; जैसे–मारम नागाओं में सूअर का मांस खाना वर्जित है, जबकि तेंडुल नागा बकरी के मांस का सेवन नहीं करते। बिल्ली का मांस सभी के लिए वर्जित है। कपड़ा-बुनकर नागाओं में नर-पशु का मांस कुंआरी लड़कियों को नहीं परोसा जाता। नागा लोग बिना दूध की चाय का सेवन करते हैं।
आर्थिक विकास एवं अर्थव्यवस्था – भारत की सभी जनजातियों में नागाओं ने पर्याप्त आर्थिक विकास किया है। इनके मुख्य व्यवसाय आखेट तथा झूमिंग कृषि करना है। इनके आर्थिक व्यवसाय निम्नलिखित हैं –
1. आखेट – पहाड़ी एवं मैदानी नागाओं की शिकार करने की विधियाँ भिन्न-भिन्न हैं। जंगली पशुओं को खदेड़कर नदी-घाटियों में लाकर भालों से उन्हें मारना सभी नागाओं में प्रचलित है। शिकार करने के लिए ये तीरकमान, भालों, दाव आदि का प्रयोग करते हैं। विष लगे तीरों का प्रयोग करना मणिपुर के मारम नागाओं में प्रचलित है। आखेट के नियमों का पालन सभी नागा कठोरता से करते हैं।
2. मछली पकड़ना – मछली पकड़ने का कार्य पर्वतों के निचले भागों, नदियों एवं तालाबों के किनारे जालों, टोकरों एवं भालों की सहायता से किया जाता है।
3. कृषि-कार्य – मणिपुर एवं नागा पहाड़ियों में निवास करने वाली आदिम नागी जाति ने। पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि-कार्य में काफी प्रगति कर ली है, परन्तु उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्रों में झूमिंग पद्धति से कृषि की जाती है, अर्थात् वनों को आग लगाकर साफ करे प्राप्त की गयी भूमि पर, दो या तीन वर्षों तक खेती की जाती है, फिर इसे परती छोड़ दिया जाता है। ये लोग बाग भी लगाते हैं। यहाँ पर प्रमुख फसलें धान, मॅडवा, कोट तथा मोटे अनाज हैं। चाय की झाड़ियाँ प्राकृतिक रूप से उगती हैं। कुछ भागों में कपास भी उगायी जाती है।
4. कुटीर उद्योग-धन्धे – उत्तरी-पूर्वी भारत की अधिकांश आदिम जातियों में छोटे करघों पर बुनाई की कला उन्नत अवस्था में है। यहाँ मुख्य रूप से मोटा कपड़ा बुना जाता है। नागाओं द्वारा मिट्टी के बर्तन भी तैयार किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त सभी नागा टोकरियाँ एवं चटाई बनाने का व्यवसाय करते हैं। लोहार द्वारा गाँव में ही शिकार के लिए औजार तथा कृषि के उपकरण बनाये जाते हैं। नागा लोग टोकरियाँ, चटाइयाँ, मछली, पशु, लकड़ी का कोयला आदि वस्तुओं का व्यापार करते हैं।
सामाजिक व्यवस्था – अधिकांश नागाओं में संयुक्त परिवार-प्रथा तथा प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था लागू है। इनके गाँव में एक मुखिया या पुरोहित होता है, जो धार्मिक संस्थाओं का संचालन करता है। कोन्यक नागाओं में सामन्तवादी व्यवस्था प्रचलित है, वहाँ मुखिया शासक के रूप में होता है जो वंशानुगत होता है। नागाओं में किसी व्यक्ति का विवाह अपने गोत्र में नहीं हो सकता।
नागा युवकों के सोने के लिए ‘मोरूग’ (कुमार गृह) बने होते हैं, जहाँ सभी कुंआरे युवक तथा युवतियाँ होते हैं। इनमें समगोत्री विवाह वर्जित है; अत: एक मोरूग में निवास करने वाला लड़का, दूसरे मोरूग में प्रवासित लड़कियों से शादी कर सकता है। मोरूंग में नाच-गाने एवं मनोरंजन की सभी सुविधाएँ होती हैं।
धार्मिक विश्वास – नागाओं का विश्वास है कि खेतों, पेड़ों, नदियों, पहाड़ियों, भूत-प्रेतों आदि विभिन्न रूपों में आत्माएँ पायी जाती हैं। आत्मा की शक्ति क्षीण होने पर बाढ़, दुर्भिक्ष, तूफान, बीमारियों आदि के प्राकृतिक प्रकोप होते हैं। फसलें नष्ट हो जाती हैं, स्त्रियों में बाँझपन होता है, पशु नष्ट हो जाते हैं, शिकार उपलब्ध नहीं होता। अतएव आत्मा की तुष्टि के लिए पशु बलि, मदिरा, मछली आदि की भेंट चढ़ाई जाती है। जादू-टोने में इनका बहुत विश्वास है। ईसाई मिशनरियों के सम्पर्क में आने से अधिकांश नागाओं ने ईसाई धर्म अपना लिया।
प्रश्न 2
भोटिया जनजाति के निवास-क्षेत्र, आर्थिक व्यवसाय एवं सामाजिक रीति-रिवाजों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
भोटिया Bhotia
क्रुक के अनुसार, ‘भोटिया’ शब्द की उत्पत्ति ‘भोट’ अथवा ‘भूट’ से हुई है। उत्तराखण्ड राज्य में तिब्बत व नेपाल की सीमा से संलग्न त्रिभुजाकार पर्वतीय क्षेत्र ‘भूट’ या ‘भोट’ नाम से विख्यात है। इसके अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले में उत्तर-पूर्व में स्थित आसकोट व दरमा तहसीलें, पिथौरागढ़ तथा चमोली जिले सम्मिलित हैं।
शारीरिक रचना – शारीरिक रचना की दृष्टि से भोटिया मंगोलॉयड प्रजाति से सम्बन्धित हैं। यह मध्यम व छोटे कद, सामान्य चपटी वे चौड़ी नाक, चौड़ा चेहरा, उभरी हुई गाल की हड्डियों, बादामी आकारयुक्त आँखें, शरीर पर कम बाल, त्वचा का प्रायः गोरा वर्ण आदि शारीरिक लक्षणों वाली जनजाति है।
प्राकृतिक वातावरण – भोट क्षेत्र समुद्रतल से 3,000 से 4,000 मीटर ऊँचा है। इस क्षेत्र में गंगा व शारदा की सहायक नदियाँ-कृष्णा, गंगा, धौली, गौरी, दरमा व काली प्रवाहित होती हैं। समतल भूमि केवल सँकरी घाटियों में उपलब्ध होती है। निचली घाटियों में उष्णार्द्र जलवायु पायी जाती है, किन्तु पर्वतीय ढालों पर ठण्डी जलवायु मिलती है।
अर्थव्यवस्था – प्राकृतिक साधनों के अभाव में भोटिया लोगों ने पशुचारण को आजीविका का मुख्य साधन बनाया है। सँकरी घाटियों के समतल भागों में बिखरे क्षेत्रों में तथा पर्वतीय ढालों पर सँकरी सोपानी पट्टियों में मोटे खाद्यान्नों व आलू की खेती होती है।
कृषि – पर्वतीय ढालों पर शीतकाल में हिमपात होने के कारण केवल ग्रीष्मकाल में 4 माह की अवधि में कृषि की जाती है। यहाँ गेहूँ, जौ, मोटे अनाज व आलू मुख्यत: उगाये जाते हैं। पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाये जाते हैं। यहाँ पर झूम प्रणाली की तरह ‘काटिल’ विधि से वनों को आग लगाकर भूमि को साफ करके बिना सिंचाई खेती कर ली जाती है। नदियों के किनारे सिंचाई द्वारा खेती की जाती है।
पशुचारण : मौसमी प्रवास – भोटिया लोगों की अर्थव्यवस्था पशुचारण पर आधारित है। इस क्षेत्र में 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई तक मुलायम घास आती है। यहाँ भोटिया लोग भेड़, बकरियाँ व ‘जीबू’ (गाय की भाँति पशु) चराते हैं। भेड़-बकरियों से मांस, दूध व ऊन की प्राप्ति होती है तथा जीबू बोझा ढोने के काम आता है। पशुचारण मौसमी-प्रवास पर आधारित है। ग्रीष्मकाल में निचली घाटियों में तापमान काफी ऊँचे हो जाते हैं तब उच्च ढालों पर पशुचारण किया जाता है। अक्टूबर (शीत ऋतु के आरम्भ) में पुन: ये निचले ढालों व घाटियों में उतर आते हैं।
कुटीर-शिल्प – पशुचारण से ऊन, खाल आदि पशु पदार्थ बड़ी मात्रा में प्राप्त होते हैं। भोटिया स्त्रियाँ सुन्दर डिजाइनदार कालीन, दुशाले, दरियाँ, कम्बल आदि बनाती हैं। इसके अतिरिक्त वे ऊनी मोजे, बनियान, दस्ताने, मफलर, टोपे, थैले आदि भी बुनती हैं। भोटिया स्त्रियाँ अत्यन्त मेहनती व कुशल कारीगर होती हैं। वे गेहूँ, जौ, मंडुए के भूसे से चटाइयाँ व टोकरे भी बनाती हैं।
व्यापार – भोटिया अपने तिब्बती पड़ोसियों से शताब्दियों से परस्पर लेन-देन का व्यापार करते रहे हैं। ये तिब्बत से ऊन लेकर उन्हें बदले में वस्त्र, नमक खाद्यान्न आदि देते हैं। किन्तु राजनीतिक कारणों से भारत व तिब्बत के मध्य सम्पर्क प्रायः ठप्प हो जाने के कारण अब भोटिया लोग ऊनी वस्त्र, सस्ते सौन्दर्य आभूषण, जड़ी-बूटियों का व्यापार मैदानी भागों में करते हैं तथा अपनी आवश्यकता की सामग्री नमक, शक्कर, तम्बाकू, ऐलुमिनियम के बर्तन आदि खरीदते हैं।
भोजन – भोटिया लोगों का मुख्य भोजन भुने हुए गेहूं का आटा (‘सत्तू’) है। मंडुआ व जौ भी इनका प्रिय खाद्यान्न है। भेड़-बकरी का मांस व दूध एवं विशेष अवसरों पर मदिरा का प्रयोग व्यापक रूप से होता है।
वेशभूषा – ठण्डी जलवायु के कारण पशुओं की खाल व ऊन से निर्मित वस्त्र अधिक प्रचलित हैं। पुरुष ऊनी पाजामा, कमीज व टोपी पहनते हैं। स्त्रियाँ पेटीकोट की तरह का ऊनी घाघरा तथा कन्धों से कमर तक लटकता हुआ ‘लवा’ नामक विशिष्ट वस्त्र पहनती हैं। शिक्षित वर्गों में बाह्य सम्पर्को व आर्थिक समृद्धि के कारण आधुनिक फैशन के वस्त्रों का प्रचलन बढ़ गया है। भोटिया स्त्रियाँ आभूषणप्रिय होती हैं। ये ताबीज, हँसुली, मँगे, पुरानी चौवन्नियों की माला, बेसर, नाथ, अँगूठियाँ आदि पहनती हैं। कलाई व ठोड़ी पर गुदना भी कराती हैं।
बस्तियाँ व मकान – मौसमी प्रवास पर आधारित पशुचारण अपनाने के कारण भोटिया लोगों के आवास अर्द्ध-स्थायी होते हैं। प्रायः प्रत्येक परिवार के दो घर होते हैं। ग्रीष्मकाल में ये उच्च ढालों पर एवं शीतकाल में घाटियों में निर्मित घरों में रहते हैं। मकान में दो या तीन कमरे होते हैं। ये पत्थर, मिट्टी, घास-फूस, स्लेट आदि से निर्मित होते हैं। इनकी छतें ढालू होती हैं। ये मकान प्रायः जल के निकट बनाये जाते हैं। मकानों में प्रायः खिड़की, दरवाजे नहीं होते।
समाज – भोटिया लोग हिन्दू रीति-रिवाजों को अपनाते हैं। इनमें एकपत्नी प्रथा (Monogamy) प्रचलित है। विवाह सम्बन्ध माता-पिता द्वारा तय किये जाते हैं। विवाह के अवसर पर नृत्य, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, मदिरा आदि का आयोजन होता है। भोटिया लोग अन्धविश्वासी भूत-प्रेत के पूजक होते। हैं। घुमक्कड़ कठोर जीवन के बावजूद ये हँसमुख, साहसी, परिश्रमी, निष्कपट, सहनशील एवं धार्मिक प्रकृति के होते हैं, किन्तु शारीरिक स्वच्छता के प्रति लापरवाह होते हैं।
प्रश्न 3
“संथाल जनजाति के पर्यावरण, व्यवसाय तथा संस्कृति की भिन्नता उनके निवास-गृहों और रीति-रिवाजों से स्पष्ट हो जाती है।” इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
या
भारत में संथाल जनजाति के निवास-क्षेत्र (वितरण), अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन को वर्णन कीजिए। [2010, 15]
उत्तर
संथाल अथवा गोंड
Santhal or Gond
संथाल भारत की सबसे बड़ी जनजाति है। इनका प्रमुख क्षेत्र बिहार के छोटा नागपुर के पठार का पूर्वी भाग (संथाल परगना) है। यह पश्चिमी बंगाल के वीरभूमि, बांकुड़ा, माल्दा, मिदनापुर व चौबीस परगना, ओडिशा के मयूरभंज जिले तथा असम में भी पाये जाते हैं। ये लोग ऑस्ट्रिक वर्ग की मुण्डा भाषा बोलते हैं। बंगाल, असम व अन्य क्षेत्रों में सम्पर्को के कारण बिहारी, बंगाली व असमी भी बोलते हैं; अतः ये बहुभाषी हो गये हैं। गुहा के अनुसार, इनमें प्रोटो-ऑस्ट्रेलॉयड प्रजाति तत्त्व की प्रधानता है। मध्यम कद, गहरा भूरा वर्ण, काली आँखें, काले सीधे घंघराले बाल, लम्बा सिर, मध्यम, चौड़ी व चपटी नाक, मोटे होंठ, शरीर पर कम बाल इनके प्रमुख शारीरिक लक्षण हैं।
प्राकृतिक वातावरण – संथाल परगना विषम तथा निम्न पठारी क्षेत्र है जिसे मौसमी नदी-नालों ने बहुत काट-छाँट दिया है। यहाँ शीतकाल में 30°C व ग्रीष्मकाल में 45°C तापमान पाये जाते हैं। वार्षिक वर्षा का औसत 150 सेमी रहता है। साल, महुआ, कदम, पीपल, कुसुम, पलास आदि के सघन वन पाये जाते हैं। इनमें सूअर, गीदड़, तेंदुए, हिरण, चीता आदि वन्य जन्तु पाये जाते हैं।
अर्थव्यवस्था– संथाल मूलतः कृषक हैं। ये वनों से आखेट एवं वस्तु-संग्रह, नदियों, पोखरों आदि से मछली पकड़ने का कार्य व मजदूरी भी करते हैं।
कृषि – कृषि इनका प्रमुख व्यवसाय है। ये वनों को साफ करके एक ही खेत को लगातार बोते हैं। धान, मोटे अनाज, दालें व कपास उगाते हैं। सिंचाई, उर्वरक, फसलों के हेर-फेर पर ध्यान न देने के कारण भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। मकान के पिछवाड़े खुली जगह में ये शाक-सब्जियाँ, फली, चारा आदि उगाते हैं।
वस्तु-संग्रह – वनों से महुआ फल, छालें, जड़, गाँठे, फल-फूल, कोंपले आदि एकत्रित करके संथाले लोग भोजन की पूर्ति करते हैं। मकान बनाने के लिए सामग्री भी एकत्रित करते हैं।
आखेट – जंगली सूअर का शिकार संथाल लोगों का प्रिय मनोरंजन तथा भोजन का अतिरिक्त साधन है। ये लोग जाल, फन्दे, तीर आदि के द्वारा तालाब, नदी व पोखर से मछली भी पकड़ते हैं।
पशुपालन – भोजन पूर्ति के लिए संथाल लोग गाय, बैल, सूअर, बकरी, मुर्गी व कबूतर पालते हैं।
मजदूरी – प्राकृतिक साधनों से पर्याप्त आजीविका प्राप्त न होने के कारण ये लोग असम के चाय के बागानों, बंगाल की जूट व कपड़ा-मिलों, बिहार व ओडिशा की खानों में श्रमिकों का भी कार्य करते हैं।
भोजन – उबला हुआ चावल व उसकी शराब, महुए का आटा व पशु का मांस संथाल लोगों का प्रिय भोजन है। मछली, वनों से एकत्रित फल, जड़े, गाँठे, फूल, कोंपल आदि तथा पक्षियों का मांस भी उनके भोजन में सम्मिलित है। ये तम्बाकू के बहुत शौकीन होते हैं।
वेशभूषा – संथाल पुरुष कमर से ऊपर प्रायः नग्न रहते हैं। कमरे के नीचे लँगोटीमात्र पहनते हैं। स्त्रियाँ धोती-ब्लाउज पहनती हैं। बालों के जूड़े में फूल व पक्षियों के पंख आदि लगाती हैं। पुरुष भी बालों में पक्षियों के पंख, फूल-पत्तियाँ, गाय की पूँछ के बाल आदि लगाते हैं। स्त्रियाँ चाँदी व पीतल के आभूषण, हँसली, कर्धनी, कड़े, झुमके, अँगूठी आदि पहनती हैं। स्त्रियाँ शरीर पर गुदना कराती हैं।
बस्तियाँ व मकान – प्राय: 20 या 25 परिवारों का एक गाँव होता है। किसी सड़क मार्ग के सहारे रेखीय प्रतिरूप में गाँव बसते हैं। झोंपड़ी बनाने में साल के शहतीर, बाँस, पत्तियों, मिट्टी व गोबर का प्रयोग होता है। इनमें खिड़कियाँ नहीं होतीं, केवल एक प्रवेशद्वार होता है। दीवारों को मिट्टी व गोबर से लीपकर चित्रकारी व माँडने बनाये जाते हैं। प्रत्येक गाँव में एक मांझी स्थान होता है, जो गाँव के संस्थापक का स्थान होता है।
समाज – संथाल परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं। इनमें संयुक्त परिवार प्रणाली पायी जाती है। प्राय: एक पत्नी प्रथा प्रचलित है, किन्तु सन्तान न होने पर बहुपत्नी विवाह होते हैं। विधवा विवाह भी प्रचलित है। इनके समाज में माता-पिता द्वारा तय विवाह का अधिक प्रचलन है। इनमें विवाह की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं, जिनमें बपला, घर्दी जवाई, इतुत, नीरबोलोक, किरिन जवाई, संगा आदि प्रमुख हैं।
संथाल लोग अनेक देवी-देवताओं को पूजते हैं। ठाकुर इनका सबसे बड़ा देवता, सृष्टि, प्रकृति एवं जीवन का नियन्त्रक है। ये लोग वनों, पहाड़ों, नदियों आदि में देवताओं व आत्माओं का वास मानते हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए बलि देते हैं व पूजा करते हैं। अशिक्षा व अज्ञान के कारण जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि में विश्वास करते हैं। रोगों व प्राकृतिक प्रकोपों को शान्त करने के लिए झाड़-फूक, जादू-टोना करते हैं। संथाल लोग अब हिन्दू देवी-देवताओं को भी मानते हैं। बाह्य, सोहरई तथा सकरात इनके प्रमुख त्योहार हैं।
संथाल समाज में ‘टोटम’ (Totem–प्राकृतिक प्रतीक) व्यवस्था प्रचलित है। प्रत्येक उपवर्ग का एक निश्चित प्रतीक होता है। समान प्रतीकों में परस्पर विवाह निषिद्ध होते हैं। संथालों का प्रादेशिक संगठन ‘परहा’ प्रणाली पर आधारित है, जिसमें गाँव के मुखिया द्वारा प्रशासन होता है। बड़े गाँवों में पंचायत व्यवस्था पायी जाती है।
प्रश्न 4
टोडा जनजाति के प्राकृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जनजीवन पर एक सारगर्भित निबन्ध लिखिए।
उत्तर
टोडा Todas
टोडा दक्षिणी भारत में नीलगिरी पर्वतीय क्षेत्र में निवास करने वाली एक प्रमुख जनजाति है। गोरी व सुन्दर मुखाकृति, सुगठित शरीर, पतले होंठ, लम्बी नाक, बड़े नेत्र, लम्बा कद, काले लहरदार बालों वाली यह जनजाति अन्य दक्षिण भारतीय वर्गों से अलग दिखाई देती है।
प्राकृतिक वातावरण – नीलगिरी के पूर्वी ढालों पर समुद्रतल से लगभग 2,000 मीटर ऊँची पहाड़ियों से घिरे 200 वर्ग किमी क्षेत्र में टोडा जनजाति का निवास पाया जाता है। यह क्षेत्र ‘टोडरनाद कहलाता है। इस वृष्टिछाया प्रदेश में वर्षा का औसत 100 सेमी से कम रहता है। उच्च प्रदेश होने के कारण तापमान कम रहते हैं। यहाँ घास प्रमुख वनस्पति है। वनों में हिरन, सांभर, तेंदुए, चीते, सूअर, जंगली कुत्ते आदि भी पाये जाते हैं।
अर्थव्यवस्था – टोडा जनजाति स्वयं को टोडरनाद प्रदेश का ‘भूस्वामी मानती है। ये कृषि व्यवसाय को नीचा समझते हैं। आखेट, वनोद्योग और मजदूरी भी इन्हें पसन्द नहीं है; अतः इन्होंने पशुपालन को अपनाया है। ये केवल भैंस पालते हैं। अपनी आवश्यकता के लिए पड़ोसी बदागा वर्ग से कृषि कराते हैं। आवश्यक शिल्प (बढ़ईगिरि व लोहारी) भी अन्य वर्गों से कराते हैं।
भोजन – टोडा लोग विशुद्ध शाकाहारी होते हैं। इनके भोजन में दुग्ध पदार्थों की प्रधानता है। उत्सव तथा विशेष पर्वो को छोड़कर ये कभी भी मांस-मछली का सेवन नहीं करते। विशेष पर्वो पर ये भैंसे की बलि देते हैं तथा उसको प्रसाद-रूप में ग्रहण करते हैं। बदागा जनजाति से प्राप्त चावल, कोराली, थिनई आदि खाद्यान्न, शहद, फल, शाक-सब्जियाँ इनका प्रमुख भोजन है।।
वेशभूषा – टोडा स्त्री व पुरुष ढीला लम्बा, बिना सिला चोगानुमा वस्त्र पहनते हैं जो कन्धों से पैर तक शरीर को ढकता है। नये सम्पर्को के कारण अब स्त्रियों में धोती-ब्लाउज एवं पुरुषों में कमीज, कुते का प्रचलन हो गया है। वृद्ध-पुरुष अब भी नंगे सिर एवं बिना सिले वस्त्र पहनते हैं। स्त्रियाँ कौड़ी व चाँदी की मालाएँ, नथ, झुमके आदि पहनती हैं। ठोड़ी, बॉह व शरीर पर गुदना कराती हैं।
बस्तियाँ व मकान – टोडा लोगों की बस्तियाँ ‘मण्ड’ कहलाती हैं। तमिल भाषा में ‘मण्ड’ का अर्थ ‘मध्य स्थिति है। ये बस्तियाँ सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों एवं चरागाहों के मध्य स्थापित की जाती हैं। प्राय: एक बस्ती में आठ या दस परिवारों के झोंपड़े होते हैं, जो ‘अर्स’ कहलाते हैं। ये ‘अर्स’ अर्द्ध-ढोलक के आकार के (Half barrel shaped) होते हैं। इन्हें बनाने में बाँस, खजूर व घास का प्रयोग होता है। मकानों में खिड़की व रोशनदान नहीं होते, छोटा-सा प्रवेशद्वार होता है। 6 x 3 मीटर आकार के कमरे के भीतर ही शयनकक्ष, रसोई व अग्नि स्थान की व्यवस्था होती है। निवास-कक्ष से पृथक् एक ‘दुग्ध मन्दिर बनाया जाता है। इस दुग्ध मन्दिर की देखभाल एक अविवाहित पुरुष करता है, जिसे पलोल कहते हैं।
सामाजिक जीवन – टोडा लोगों को सम्पूर्ण जीवन एवं दिनचर्या भैसपालने में व्यतीत होती है। समस्त कार्य पुरुषों द्वारा किये जाते हैं। टोडा परिवार पितृसत्तात्मक एवं बहुपति प्रणाली पर आधारित होता है। राजनीतिक व धार्मिक समारोहों, उत्सवों, पर्वो आदि में स्त्री का सक्रिय भाग लेना वर्जित होता है। भूमि एवं पशु-सम्पत्ति पर बड़े लड़के का अधिकार होता है। टोडा लोग आदिवासी धर्म का पालन करते हैं। इनके देवी-देवताओं में ‘तैकिर जी’ व ‘ओन’ प्रमुख हैं। नदियों, पहाड़ों व दुग्ध गृह के भी देवता होते हैं। प्राकृतिक प्रकोप, बीमारी, भैंसों के दूध सूखने को देवता का प्रकोप माना जाता है। पशुबलि देकर देवताओं को प्रसन्न किया जाता है।
प्रश्न 5
भारत की थारू प्रजाति के निवासस्थान, अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक जीवन का विवरण लिखिए।
उत्तर
सामान्य परिचय – उत्तर प्रदेश व बिहार में नेपाल की सीमा से संलग्न 25 किमी चौड़ी व 600 किमी लम्बी तराई व भाबर की सँकरी पट्टी में थारू जनजाति निवास करती है। इस क्षेत्र में नैनीताल जिले के किच्छा, खटिमा, रामपुरा, सितारगंज, नानक-भट्टा, बनवासा आदि क्षेत्र, पीलीभीत व खीरी जिलों से लेकर बिहार में मोतीहारी जिले तक के क्षेत्र सम्मिलित हैं।
‘थारू’ शब्द की उत्पत्ति काफी विवादास्पद है। कुछ विद्वानों के अनुसार, ये पहले ‘अथरु कहलाते थे, बाद में थारू कहलाये। थारू’ का अर्थ है ‘ठहरे हुए’–कठिन भौगोलिक वातावरण के बावजूद ये सदियों से इस क्षेत्र में विद्यमान हैं, कदाचित इसलिए थारू कहलाते हैं। एक अन्य मतानुसार, ‘थारू’ नामक मदिरा का सेवन करने तथा ‘थारू’ नामक अपहरण विवाह प्रथा अपनाने के कारण भी इन्हें ‘थारू’ कहा जाता है।
इनके शारीरिक लक्षण मंगोलॉयड प्रजाति से मिलते हैं। तिरछे नेत्र, उभरी गालों की हड्डियाँ, पीली त्वचा, शरीर वे चेहरे पर कम बाल, सीधे सपाट केश, मध्यम नाक व कद इनके प्रमुख लक्षण हैं। वास्तव में इनमें मंगोलॉयड व अन्य प्रजातियों का मिश्रण हो गया है।
प्राकृतिक वातावरण – हिमालय की तलहटी में स्थित इस क्षेत्र में पर्वतीय ढालों से उतरते हुए नदी-नालों तथा अधिक वर्षा के कारण यत्र-यत्र बाढ़ व दलदल उत्पन्न होती है। इसलिए मच्छरों का अधिक प्रकोप रहता है। प्राय: ये क्षेत्र मलेरियाग्रस्त रहते हैं। यहाँ ग्रीष्मकाल में 38°C से 44°C एवं शीतकाल में 12°C से 15°C ताप पाये जाते हैं। मानसूनी वर्षा का औसत 125 से 150 सेमी रहता है। यहाँ सघने मानसूनी वनों में हल्दू, ढाक, तनु, शीशम, सेमल, खैर, तेन्दू आदि की प्रधानता रहती है। नरकुल, बैंत, मुंज घास की भी प्रचुरता होती है। वनों में चीता, भेड़िया, तेन्दुआ, हिरण, सूअर, सियार, लकड़बग्घा आदि जन्तु पाये जाते हैं।
जलवायु – सामान्यतः इस क्षेत्र की जलवायु तथा प्राकृतिक वातावरण अस्वास्थ्यकर हैं, किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् वनों को साफ कर कृषि-फार्म बना लिये गये। दलदलों को सुखाकर कृषि योग्य बनाया गया। मलेरिया उन्मूलन के भी प्रयास किये गये। वनों पर आधारित लघु उद्योगों की भी स्थापना की गयी।
अव्यदध – थारु लोग स्थायी कृषक हैं। यहाँ भूमि अपरदन की बहुत समस्या है, तथापि विभिन्न उपायों द्वारा थारूः लोग चावल, मक्का, गेहूँ, चना, दालें, आलू, प्याज, शाक-सब्जियाँ आदि उगाते हैं। कृषि-कार्य में स्त्रियाँ भी सक्रिय योग देती हैं।
सामाजिक व्यवस्था – थारुओं में स्त्रियों की प्रतिष्ठा पुरुषों से अधिक है तथा वे पर्याप्त स्वतन्त्र हैं। स्त्रियाँ अपने को रानी तथा पुरुषों को सेवक या सिपाही समझती हैं। विवाह तय करते समय लड़के एवं लड़की की सहमति आवश्यक होती है। विवाह-संस्कार चार चरणों में सम्पन्न होता है, जो क्रमश: अपना-पराया, बटकाही, भाँवर तथा चाल हैं।
थारुओं में विवाह पूर्व यौन स्वच्छन्दता पायी जाती है। पत्नी के विनिमय तथा तलाक प्रथा का प्रचलन है। धार्मिक दृष्टिकोण से थारू हिन्दुओं के अधिक निकट हैं। ये स्वयं को सूर्यवंशी राजपूतों के वंशज समझते हैं तथा सीता एवं राम की आदरपूर्वक पूजा करते हैं। ये जादू-टोनों में विश्वास करते हैं। इसी कारण इनमें व्यवस्थित धर्म नहीं मिलता। इनमें पशुओं की बलि देने की प्रथा भी पायी जाती है।
प्रश्न 6
भील जनजाति के निवास-क्षेत्र, अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक व्यवस्था (रीति रिवाजों) का वर्णन कीजिए।
या
टिप्पणी लिखिए- भारत की भील जनजाति।
उत्तर
भील Bhils
भील एक प्राचीन ऐतिहासिक जनजाति है। परम्परा से आखेटक व तीरन्दाज जनजाति का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, किन्तु अब ये स्थायी कृषक के रूप में जाने जाते हैं। वास्तव में यह जनजाति विकास के विभिन्न चरणों में है। मध्य प्रदेश के भील घुमक्कड़ जरायमपेशा हैं। खान देश के भील स्थायी कृषक हैं। गुजरात के भील आखेटक व कृषक हैं। राजस्थान व महाराष्ट्र के भील घुमक्कड़, आखेटक, स्थायी कृषक अथवा श्रमिक हैं।
भील’ शब्द की उत्पत्ति तमिल भाषा के ‘विल्लवर’ (धनुर्धारी) शब्द से बतायी जाती है। विभिन्न मानवशास्त्रियों के अनुसार, यह प्राक्द्रविड़ या मेडिटरेनियन प्रजाति से सम्बद्ध है। अधिक मान्य मतानुसार, भील भारत के मूल निवासी हैं। औसत मध्यम कद, मध्यम चौड़ी नाक, भूरे से गहरा काला त्वचा वर्ण, काले बाल, मध्यम मोटे होंठ, शरीर पर कम बाल तथा सुगठित शरीर इस जनजाति के मुख्य शारीरिक लक्षण हैं।
निवास-क्षेत्र – भील लोगों का निवास-क्षेत्र मध्य प्रदेश के धार, झाबुआ, रतलाम व निमाड़ जिले; राजस्थान के डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, उदयपुर व चित्तौड़गढ़ जिले, गुजरात के पंचमहल, साबरकांठा, बनासकाठा व बड़ोदरा जिले हैं। भीलों का निवास-क्षेत्र ‘भीलवाड़ा’ के रूप में विख्यात है। इसके अतिरिक्त बिखरे हुए रूप में यह जनजाति महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व कर्नाटक के अन्य भागों में भी पायी जाती है।
प्राकृतिक वातावरण – भीलों का निवास ऊँचे (1,000 मीटर) असमतल पठारी व पहाड़ी प्रदेश में है, जहाँ अनेक बरसाती नदी-नाले प्रवाहित होते हैं। यहाँ माही, ताप्ती व नर्मदा ने पठारों को काटकर गहरी घाटियाँ बनायी हैं। यहाँ वर्ष भर उच्च तापमान एवं 50 से 125 सेमी वार्षिक वर्षा के कारण महुआ, आम, सागौन, बाँस वे पलास के सघन वन उगते हैं। वनों में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी पाये जाते हैं।
अर्थव्यवस्था – परम्परागत रूप से भील घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करते हैं। आखेट उनकी आजीविका का प्रमुख साधन रहा है। वातावरण के अनुरूप अब भी अरावली, विन्ध्या तथा सतपुड़ा पहाड़ियों के भील निवासी आखेटक हैं। ये तीर-कमान, फन्दे, जाल, गोफन आदि द्वारा जंगली सूअर व पशु-पक्षियों का शिकार करते हैं। कई भील वर्ग अब स्थायी कृषक हो गये हैं। मैदानी क्षेत्रों में भूमि साफ करके चावल, मक्का, गेहूँ, मोटे अनाज, रतालू, कद्दू व शाक-सब्जियाँ बोते हैं। इस प्रकार की कृषि ‘दजिआ’ कहलाती है। पहाड़ी क्षेत्रों में वनों को जलाकरे वर्षाकाल में खाद्यान्न, दालें व सब्जियाँ उगाई जाती हैं।
इस प्रकार की कृषि ‘चिमाता’ कहलाती है। तीन-चार फसलें प्राप्त करने के पश्चात् इस भूमि को परती छोड़ दिया जाता है। स्थायी कृषि के साथ-साथ भील लोग पशुपालन भी करने लगे हैं। ये गाय, बैल, भैंस, भेड़-बकरियाँ तथा मुर्गी पालते हैं। इनसे दूध, मांस व अण्डे प्राप्त करते हैं। कुछ भील वनोपज एकत्रण द्वारा भी आजीविका प्राप्त करते हैं। मानसूनी वनों से विविध प्रकार की व्यावसायिक महत्त्व की गौण उपजे तथा खाद्य-पदार्थ प्राप्त होते हैं।
बच्चे व स्त्रियाँ वनों से खाने योग्य जड़े, वृक्षों की पत्तियाँ, फल, कोंपलें, गाँठे, शहद, गोंद, छाले, जड़ी-बूटियाँ व अन्य पदार्थ एकत्रित करते हैं। तालाबों, पोखरों व नदियों से मछलियाँ भी प्राप्त की जाती हैं। आजीविका के इन विविध साधनों के अतिरिक्त कुछ भील खानों, कारखानों तथा सड़क निर्माण आदि कार्यों में श्रमिक के रूप में भी कार्य करते हैं। ये वनों में लकड़ी काटने का कार्य तथा शहरों में मजदूरी भी करते हैं।
भोजन – भील लोग मुख्यत: शाकाहारी हैं। गेहूँ, चावल, मक्का, कोदो, दाल, सब्जियाँ इनका प्रमुख भोजन हैं। विशेष पर्वो तथा उत्सवों के अवसरों पर अथवा शिकार प्राप्त होने पर ये बकरे या भैंस का मांस, मछली, अण्डा आदि भी खाते हैं। महुए की शराब, ताड़ी का रस, तम्बाकू व गाँजा इन्हें विशेष रुचिकर है। वनों से एकत्रित जंगली बेर, आम, महुआ फल व शहद भी इनके भोजन में सम्मिलित हैं।
वेशभूषा – उष्ण जलवायु एवं निर्धनता के कारण भील लोग अल्प व सूती वस्त्र पहनते हैं। भील पुरुष लँगोटी या घुटनों तक लम्बा वस्त्र, अंगोछा, कमीज व साफा पहनते हैं। स्त्रियाँ लहँगा, कुर्ती व चोली पहनती हैं। चाँदी की हँसुली, बालियाँ, छल्ले, पैजनियाँ इनके प्रिय आभूषण हैं। पुरुष भी कड़ा, बालियाँ व हँसुली पहनते हैं। मुंह व हाथ पर गुदना कराने का प्रचलन है।
बस्तियाँ व मकान – 20 से 200 झोंपड़ियों की भील बस्तियाँ किसी नियोजित क्रम में नहीं बसायी जातीं। गाँव की सीमा के बाहर ‘देवरे’ (पूजा-स्थल) होते हैं। मकान या आयताकार झोंपड़ियाँ ऊँचे चबूतरे पर निर्मित होती हैं। यह पत्थर, बाँस, मिट्टी, खपरैल, घास-फूस से निर्मित होती हैं। खपरैल या छप्पर पर कद्दू, तोरी या लौकी की बेलें चढ़ायी जाती हैं। झोंपड़ी के भीतर खाना पकाने के बर्तन, अन्न भण्डार, चटाइयाँ, टोकरी, डलिया आदि सामान की व्यवस्था होती है।
समाज – भील समाज अत्यन्त संगठित है। ये अपने विशिष्ट रीति-रिवाज अपनाते हैं। ये बहुत साहसी, निर्भीक, मेहनती, आदर-सत्कार करने वाले, सहृदय व ईमानदार होते हैं। घर का बुजुर्ग व्यक्ति ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लेता है। प्रायः एक गाँव में एक ही वंश के लोग रहते हैं। प्रत्येक गाँव का निजी पण्डित, पुजारी, चरवाहा, कोतवाल आदि होता है। एक ही उपसमूह में अन्तर्विवाह निषिद्ध माना जाता है। प्रत्येक उपसमूह का एक निश्चित प्रतीक (Totem) होता है। इनमें बाल-विवाह जैसी कुरीति नहीं है। गन्धर्व विवाह, अपहरण विवाह तथा विधवा विवाह इनमें प्रचलित हैं। ‘गोल गाथेड़ो’ नामक विशिष्ट विवाह-प्रथा के अनुसार किसी युवक को वीरतापूर्ण साहसिक कार्य करके अपनी पसन्द की वधू छाँटने का अधिकार होता है।
ये अनेक हिन्दू देवी-देवताओं को पूजते हैं। जादू-टोने में भी बहुत विश्वास करते हैं। रोगों व कष्टों को दूर करने के लिए झाड़-फूक, टोना-टोटका आदि का सहारा लेते हैं। बलि भी चढ़ाते हैं। हिन्दुओं के समान अपने मृतकों का दाह-संस्कार करते हैं।
भील एक विकासोन्मुख जनजाति है। भारत सरकार ने इनके विकास के लिए शिक्षा, शिल्प, रोजगार, अस्पताल आदि की सुविधाएँ प्रदान की हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
नागा जनजाति के निवास क्षेत्र एवं आर्थिक क्रियाओं का वर्णन कीजिए। [2008]
उत्तर
निवास क्षेत्र – नागा जनजाति का निवास क्षेत्र मुख्य रूप से नागालैण्ड है। इसके अतिरिक्त यह लोग असम, मेघालय, मिजोरम, राज्य के पठारी भागों तथा अरुणाचल प्रदेश में भी निवास करते हैं। नागालैण्ड राज्य में लगभग 80% नागा निवास करते हैं। इनका सम्बन्ध इण्डो-मंगोलॉयड प्रजाति से है।
आर्थिक क्रियाएँ – भारत की अन्य आदिम जातियों की अपेक्षा नागाओं ने आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा सरकार ने इन लोगों के आर्थिक विकास के लिए सामुदायिक विकास खण्डों की स्थापना की है। इस क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएँ कृषि उत्पादन एवं उद्योग-धन्धों के विकास पर अधिक ध्यान दिया गया है। नागा लोगों की आय के प्रमुख स्रोत-जंगली पशुओं का आखेट, मछली पकड़ना, कृषि करना तथा कुटीर उद्योग; जैसे मोटा कपड़ा, चटाई तथा टोकरियाँ आदि बनाने का कार्य है।
प्रश्न 2
भारत में थारू के वास्य क्षेत्र का वर्णन कीजिए। [2008]
उत्तर
भारत में थारू के वास्य क्षेत्र
थारू जनजाति के लोग भारत के उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड राज्यों के तराई और भाबर क्षेत्रों में निवास करते हैं। यह क्षेत्र एक संकरी पट्टी के रूप में शिवालिक हिमालय के नीले भाग में पूर्व से पश्चिम दिशी तक फैला है। पश्चिम में इस क्षेत्र का विस्तार नैनीताल जिले के दक्षिण-पूर्व से लेकर पूर्व में गोरखपुर और नेपाल की सीमा के सहारे-सहारे लगभग 600 किमी लम्बी और 25 किमी चौड़ाई में है, थारु जनजाति के अधिकांश लोग उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ भाग में रहते हैं जिसमें ऊधमसिंहनगर जिले के किच्छा, खटीमा, सितारगंज व बनबसा क्षेत्र सम्मिलित हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, खीरी, गोरखपुर, गोण्डा एवं बस्ती जिलों से लेकर बिहार में मोतीहारी जिले के उत्तरी भाग तक थारू जनजाति का निवास क्षेत्र है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
भारत में कौन-कौन-सी जनजातियाँ निवास करती हैं?
उत्तर
भारत में नागा, संथाले, भील, भोटिया, थारू, टोडा आदि प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं।
प्रश्न 2
भील शब्द से क्या आशय है?
उत्तर
भील शब्द की उत्पत्ति तमिल भाषा के ‘विल्लावर’ शब्द से हुई है, जिसका आशय धनुष-बाण धारण करने वाला, आखेटक या धनुर्धारी होता है।
प्रश्न 3
नागाओं के प्रमुख देवता कौन हैं?
उत्तर
नागाओं के प्रमुख देवता लकीजुंगवा तथा गवांग हैं। अनेक नागा बौद्ध एवं ईसाई धर्म भी मानने लगे हैं।
प्रश्न 4
संथालों का निवास-क्षेत्र कौन-सा है?
उत्तर
संथालों का निवास-क्षेत्र झारखण्ड राज्य का संथाल परगना जनपद है।
प्रश्न 5
संथालों की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?
उत्तर
संथालों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें बहुपत्नी अथवा बहुपति विवाह प्रथा नहीं है।
प्रश्न 6
संथालों द्वारा मनाये जाने वाले त्योहार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
संथालों द्वारा मनाये जाने वाले प्रमुख त्योहार हैं- बाह्य, सोहरई तथा सकरात।
प्रश्न 7
भारत में नागा जनजाति का मुख्य निवास-क्षेत्र कहाँ है तथा इनका मुख्य व्यवसाय क्या है?
उत्तर
भारत में नागा जनजाति का मुख्य निवास-क्षेत्र नागालैण्ड है; पटकोई पहाड़ियों, मणिपुर के पठारी भाग, असम व अरुणाचल प्रदेश में भी कुछ नागा वर्ग निवास करते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय आखेट तथा झूमिंग कृषि करना है।
प्रश्न 8
थारू समाज में स्त्रियों की दशा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर
थारुओं में स्त्रियों की प्रतिष्ठा पुरुषों से अधिक है तथा वे पर्याप्त रूप से स्वतन्त्र हैं। स्त्रियाँ अपने को रानी तथा पुरुषों को सिपाही या सेवक समझती हैं।
प्रश्न 9
भारत की सबसे बड़ी जनजाति के नाम का उल्लेख कीजिए। इसका निवास-क्षेत्र भी बताइए।
उत्तर
संथाल भारत की सबसे बड़ी जनजाति है। इसकी जनसंख्या 25 लाख से अधिक है। इसका प्रमुख निवास-क्षेत्र झारखण्ड के छोटा नागपुर के पठार को पूर्वी भाग, सन्थाल परगना है।
प्रश्न 10
भील जनजाति भारत के किन क्षेत्रों में निवास करती है?
उत्तर
भील जनजाति के लोगों के निवास-क्षेत्र मध्य प्रदेश के धार, झाबुआ, रतलाम व निमाड़ जिले; राजस्थान के डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, उदयपुर व चित्तौड़गढ़ जिले; गुजरात के पंचमहल, साबरकाठा, बनासकांठा व बड़ोदरा जिले हैं।
प्रश्न 11
उत्तर भारत की किन्हीं दो जनजातियों के नाम लिखिए। [2007, 08, 11]
उत्तर
- नागा जनजाति (नागालैण्ड)।
- भील जनजाति (मध्य प्रदेश, राजस्थान)।
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1 किस जनजाति के लोग घर को ‘कू’ के नाम से पुकारते हैं?
(क) संथाल
(ख) नागा
(ग) भील
(घ) थारू
उत्तर
(ग) भील।
प्रश्न 2
किस जनजाति के लोग प्रकृतिपूजक होते हैं और मारन बुरू नामक देवता की पूजा करते हैं?
(क) थारू
(ख) संथाल
(ग) नागा
(घ) भील
उत्तर
(ख) संथाले।
प्रश्न 3
निम्नांकित में से कौन गोंड जनजाति का निवास-क्षेत्र है? [2010, 13, 15]
(क) झारखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) ओडिशा
(घ) बिहार
उत्तर
(ख) छत्तीसगढ़
प्रश्न 4
‘अर्स किस जनजाति के निवास-क्षेत्र हैं?
(क) बढू
(ग) टोडा
(ग) टोडा
(घ) नागा
उत्तर
(ग) टोडा।
प्रश्न 5
वह जनजाति जो मौसमी स्थानान्तरण करती है –
(क) नागा
(ख) संथाल
(ग) भील
(घ) भोटिया
उत्तर
(घ) भोटिया।
प्रश्न 6
निम्नलिखित में से थारू जनजाति किस देश में निवास करती है?
(क) दक्षिण अफ्रीका
(ख) भारत
(ग) ऑस्ट्रेलिया
(घ) दक्षिण अमेरिका
उत्तर
(ख) भारत।
प्रश्न 7
निम्नलिखित में से थारू जनजाति कहाँ निवास करती है? [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
(क) थार मरुस्थल में
(ख) नीलगिरि की पहाड़ियों में
(ग) तराई प्रदेश में
(घ) सुन्दरवन में
उत्तर
(ग) तराई प्रदेश में।
प्रश्न 8
निम्नांकित में से किसमें टोडा जनजाति का निवास है? [2012, 16]
(क) आन्ध्र प्रदेश
(ख) कर्नाटक
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु
उत्तर
(घ) तमिलनाडु।
प्रश्न 9
निम्नलिखित में से संथाल जनजाति कहाँ निवास करती है? [2008, 10, 11, 14]
(क) ब्राजील
(ख) ऑस्ट्रेलिया
(ग) भारत
(घ) दक्षिण अफ्रीका
उत्तर
(ग) भारत।
प्रश्न 10
भोटिया जनजाति निम्नलिखित में से कहाँ निवास करती है? [2010, 11, 13, 14, 15]
(क) छत्तीसगढ़
(ख) बिहार
(ग) उत्तराखण्ड
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर
(ग) उत्तराखण्ड।
प्रश्न 11
किस जनजाति के प्रत्येक उप-समूह एक या एक निश्चित प्रतीक (Totem) होता है?
(क) भोटिया
(ख) भील
(ग) टोडा
(घ) संथाल
उत्तर
(ख) भील।
प्रश्न 12
किस जनजाति के लोग विशुद्ध शाकाहारी होते हैं तथा इनके भोजन में दुग्ध पदार्थों की प्रधानता होती है?
(क) भोटिया
(ख) संथाल
(ग) टोडा
(घ) भील
उत्तर
(ग) टोडा।
प्रश्न 13
किस जनजाति के लोगों का मुख्य भोजन भुने हुए गेहूँ (जौ) का आटा (सत्) है?
(क) एस्किमो
(ख) भोटिया
(ग) टोडा
(घ) भील
उत्तर
(ख) भोटिया।
प्रश्न 14
निम्नलिखित में से किस प्रदेश में भील जनजाति का निवास-क्षेत्र है? [2016]
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) बिहार
(ग) राजस्थान
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर
(घ) मध्य प्रदेश।
प्रश्न 15
निम्नलिखित में से कौन-सा थारू जनजाति का प्रमुख निवास क्षेत्र है ? [2009]
(क) मेघालय
(ख) उत्तरी बंगाल
(ग) उत्तर प्रदेश व बिहार
(घ) नागालैण्ड
उत्तर
(ग) उत्तर प्रदेश व बिहार।
प्रश्न 16
निम्नलिखित में से कौन भारत की जनजाति है? [2016]
(क) एस्किमो
(ख) पिग्मी
(ग) बद्दू
(घ) टोडा
उत्तर
(घ) टोडा।
प्रश्न 17
संथाल जनजाति निवास करती है – [2010, 11, 13, 14]
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) असम में
(ग) झारखण्ड में
(घ) आन्ध्र प्रदेश में
उत्तर
(ग) झारखण्ड में।
प्रश्न 18
टोडा जनजाति निवास करती है – [2012, 16]
(क) अरावली पहाड़ियों में
(ख) कुमाऊँ पहाड़ियों में
(ग) नीलगिरि पहाड़ियों में
(घ) विन्ध्य पहाड़ियों में
उत्तर
(ग) नीलगिरि पहाड़ियों में।
प्रश्न 19
निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में गोंड जनजाति के लोग पाए जाते हैं? [2013]
(क) बिहार
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) नागालैण्ड
(घ) पश्चिम बंगाल
उत्तर
(ख) छत्तीसगढ़।
प्रश्न 20
भोटिया जनजाति निवास करती है – [2013]
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) बिहार में
(ग) उत्तराखण्ड में
(घ) हिमाचल प्रदेश में
उत्तर
(ग) उत्तराखण्ड में।
प्रश्न 21
खासी जनजाति निवास करती है – [2013]
(क) छत्तीसगढ़ में
(ख) झारखण्ड में
(ग) मणिपुर में
(घ) मेघालय में
उत्तर
(घ) मेघालय में।
प्रश्न 22
निम्नलिखित में से कौन-सी जनजाति छोटा नागपुर पठार पर पायी जाती है? [2014]
(क) भोटिया
(ख) संथाल
(ग) टोडा
(घ) भील
उत्तर
(ख) संथाल