UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 11 Revolution of 1857 AD: Struggle for Independence (1857 ई० की क्रान्ति- स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष)
UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 11 Revolution of 1857 AD: Struggle for Independence (1857 ई० की क्रान्ति- स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष)
अभ्यास
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
1857 ई० की क्रान्ति के स्वरूप की विवेचना कीजिए।
उतर:
सन् 1857 ई० में अंग्रेजी शासकों की अत्याचारपूर्ण तथा दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र क्रान्ति की, जिसे भारतीय इतिहास में 1857 की महाक्रान्ति, 1857 ई० की क्रान्ति, प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा सैनिक क्रान्ति आदि नामों से जाना जाता है। कुछ विद्वान 1857 की क्रान्ति को सैनिक क्रान्ति मानते हैं क्योंकि भारतीय सैनिक अंग्रेज अफसरों के व्यवहार से असन्तुष्ट थे इसलिए उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति की थी। परन्तु कुछ विद्वानों ने इसे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम कहा क्योंकि इस क्रान्ति का प्रारम्भ तो सैनिकों ने किया किन्तु शीघ्र ही इसने जन-क्रान्ति का रूप धारण कर लिया था। इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही समान रूप से भाग लिया था। आम जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असन्तोष था, केवल किसी अनुकूल अवसर की आवश्यकता थी, जिसे 1857 ई० की सैनिक क्रान्ति ने पूर्ण किया।
प्रश्न 2.
1857 ई० की क्रान्ति की असफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए।।
उतर:
सन् 1857 ई० की क्रान्ति का प्रभाव सम्पूर्ण भारत में फैला परन्तु यह एक जन आन्दोलन नहीं बन सका। इसकी असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|
- अनुशासन तथा संगठन का अभाव
- योग्य नेतृत्व का अभाव
- रचनात्मक कार्यक्रम का अभाव
- अंग्रेजों के भारतीय सहायक
- जनता के सहयोग की कमी
- क्रान्ति का सामन्ती स्वरूप
- क्रान्ति का स्थानीय स्वभाव
- समय से पूर्व क्रान्ति का प्रारम्भ
प्रश्न 3.
1857 ई० की क्रान्ति का तात्कालिक परिणाम क्या था?
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति भारतीय इतिहास में एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। यद्यपि यह क्रान्ति असफल रही, किन्तु इसके परिणाम अभूतपूर्व, व्यापक और स्थाई सिद्ध हुए। यह क्रान्ति भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाई। संवैधानिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य हमेशा के लिए समाप्त हो गया तथा भारत में महारानी विक्टोरिया का सीधा शासन स्थापित हो गया था। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया। इस क्रान्ति के प्रमुख परिणाम निम्नवत् हैं
- महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र एवं कम्पनी शासन का अन्त
- सेना का पुनर्गठन
- ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का जन्म
- भारतीय रियासतों के प्रति पुरस्कार एवं दण्ड की नीति
- धार्मिक प्रभाव
- भारतीय राष्ट्रवाद का उदय
प्रश्न 4.
भारतीयों को क्यों लगता था कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं?
उतर:
अंग्रेज व्यापारियों के साथ ईसाई धर्म प्रचारक भी भारत में आ बसे। सन् 1850 ई० में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा लार्ड डलहौजी ने हिन्दुओं के उत्तराधिकारी नियमों में परिवर्तन किया। अभी तक यह नियम था कि धर्म परिवर्तन करने की दशा में व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित हो जाता था परन्तु ईसाई धर्म अपनाने पर वह व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी बना रह सकता था। सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता दी गई थी जिससे वे खुले रूप में हिन्दू देवी-देवताओं व मुस्लिम पैगम्बरों की निन्दा करने लगे। ईसाई धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों को उच्च पदों पर प्राथमिकता मिलती थी। बेरोजगारों, अनाथों, वृद्धों व विधवाओं को अनेक प्रलोभन देकर बलपूर्वक ईसाई बना लिया गया था। इस ईसाईयत के माहौल में भारतीयों को लगता था कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है।
प्रश्न 5.
1857 ई० की क्रान्ति का भारत के इतिहास में क्या महत्व है?
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति भारतीय इतिहास की गौरवमीय गाथा है। यह क्रान्ति छल, कपट, नीचता एवं शोषण से स्थापित साम्राज्य के विरुद्ध था। सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुई इस क्रान्ति ने समूचे भारत की जनता, कृषकों, मजदूरों, हस्त-शिल्पियों, जनजातियों, सैनिकों और रजवाड़ों को सम्मिलित कर लिया। इस क्रान्ति से भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन आया। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीयवाद की भावना को प्रभावित किया।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
क्या 1857 ई० का विद्रोह भारत को अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्त कराने का सच्चा प्रयास था? इस विप्लव के क्या परिणाम हुए?
उतर:
1857 ई० के विद्रोह में भाग लेने वाले सभी विद्रोहियों तथा जनसाधारण का एक ही लक्ष्य था- अंग्रेजों को भारत से निकालना। उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष था। तत्कालीन साहित्य जो समाज का दर्पण माना जाता है, में भी अंग्रेज विरोधी भावनाएँ प्रदर्शित की गई थीं। इस प्रकार 1857 ई० के संघर्ष में नि:सन्देह जनभावना अंग्रेजों के विरुद्ध थी। विद्रोहियों को संगठित करने वाला एकमात्र तत्त्व विदेशी शासन को समाप्त करने की भावना थी। अत: इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि 1857 ई० का विद्रोह शासन को समाप्त करने के लिए हुआ था।
1857 ई० के विद्रोह के परिणाम- 1857 ई० का विद्रोह भारतीय इतिहास में एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। यद्यपि यह विद्रोह असफल रहा, किन्तु इसके परिणाम अभूतपूर्व, व्यापक और स्थायी सिद्ध हुए। डॉ० मजूमदार ने लिखा है कि “सन् 1857 ई० का महान् विस्फोट भारतीय शासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाया।” इसके द्वारा संवैधानिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य हमेशा के लिए समाप्त हो गया। भारत में एक शताब्दी से शासन करने वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भी समाप्ति हो गई। भारत में महारानी विक्टोरिया का सीधा शासन स्थापित हो गया। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया। इस सम्बन्ध में लॉर्ड क्रोमर ने कहा था, “काश कि अंग्रेज युवा पीढ़ी भारतीय विद्रोह के इतिहास को पढ़े, ध्यान दे, सीखे और मनन करे। इसमें बहुत-से पाठ और चेतावनियाँ निहित हैं।” इस क्रान्ति के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं
(i) महारानी विक्टोरिया का घोषणा – पत्र और कम्पनी शासन का अन्त- इस विद्रोह के परिणामस्वरूप महारानी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के अनुसार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया और भारत के शासन को सीधे शाही ताज (क्राउन) के अन्तर्गत लिए जाने की घोषणा की गई। इसमें एक भारतीय राज्य सचिव का प्रावधान भी किया गया और उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की सलाह समिति बनाई जानी थी, जिसमें से 8 सरकार द्वारा मनोनीत होने थे और शेष 7 कोर्ट ऑफ डायेक्टर्स द्वारा चुने जाने थे।
यह उद्घोषणा 1 नवम्बर, 1858 को इलाहाबाद में लॉर्ड कैनिंग द्वारा की गई। इस घोषणा के तहत लॉर्ड कैनिंग की भारत में पुनर्नियुक्ति कर उसे शासन का सर्वोच्च अधिकारी बनाया गया। अब उसे गवर्नर जनरल के साथ-साथ वायसराय भी कहा जाने लगा। इस घोषणा में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का क्षेत्रीय विस्तार न करने का आश्वासन दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के अधिकारों, सम्मानों व पदों के प्रति अपनी आस्था प्रकट की तथा गोद लेने की प्रथा को स्वीकार किया गया। महारानी के इस घोषणा-पत्र को भारतीय स्वतन्त्रता का मेग्नाकार्टा (अधिकार देने वाला मूल कानून) कहा जाता है। वास्तव में इस घोषणा से भारतीय जनजीवन को उन्नत करने में कोई लाभ न हुआ, बल्कि व्यवहार में सरकार की नीति आक्रामक, हिंसात्मक, तर्क-विरोधी और पक्षपातपूर्ण रही।
(ii) सेना का पुनर्गठन- अंग्रेजों की सेना में भारी संख्या में भारतीय थे। इन्हीं भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की थी। अतः अब अंग्रेजी सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या भी कम कर दी गई तथा उनकी 77वीं रेजीमेन्ट भंग कर दी गई। विद्रोह से पहले यूरोपीय सैनिकों की संख्या जो 40,000 थी अब 65,000 कर दी गई और भारतीय सेना की संख्या जो पहले 2,38,000 थी अब 1,40,000 निश्चित कर दी गई। तोपखाने पर पूर्णतः अंग्रेजी नियन्त्रण कर दिया गया। भारतीय सैनिकों के पुनर्गठन में जातीयता एवं साम्प्रदायिकता आदि तत्वों को ध्यान में रखकर भारतीय रेजीमेन्टों को गोरखा, पठान, डोगरा, राजपूत, सिक्ख, मराठे आदि में बाँट दिया गया। इस सम्बन्ध में एक अंग्रेज अधिकारी का मत था कि, “भारत में ऐसी सेना होनी चाहिए जो वास्तव में भारतीय न हो।” भारतीयों को सूबेदार की रैंक से ऊपर कोई रैंक नहीं दिए जाने का भी निर्णय किया गया।
(iii) ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का जन्म- अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति घृणा की नीति अपनाते हुए दिल्ली की जामा मस्जिद और फतेहपुर मस्जिद मुसलमानों की नमाज के लिए बन्द कर दी। मुसलमानों को राजनीतिक व आर्थिक लाभ के पदों से वंचित कर सेना, प्रशासनिक सेवाओं और दरबार से उनका वर्चस्व समाप्त कर दिया गया। इस बारे में लॉर्ड एलनबरो ने कहा था, “मैं इस विश्वास से आँखें नहीं मूंद सकता कि यह कौम (मुसलमान) मूलत: हमारी दुश्मन है। और इसलिए हमारी सच्ची नीति हिन्दुओं से मित्रता की है। इस प्रकार अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का पालन कर दोनों जातियों में वैमनस्य पैदा कर दिया, जो राष्ट्रीय आन्दोलन में घातक सिद्ध हुई और जिसके अन्तिम परिणाम स्वरूप देश का विभाजन हुआ।
(iv) भारतीय रियासतों के प्रति पुरस्कार और दण्ड नीति- 1857 ई० के विद्रोह में ग्वालियर, हैदराबाद, नाभा और जींद के शासकों ने पूरी तरह से अंग्रेजों की मदद की थी। जिसे ब्रिटिश सरकार कायम रखना चाहती थी। विक्टोरिया के घोषणापत्र में वफादार राजाओं, नवाबों, जमींदारों को पुरष्कृत करने और विद्रोहियों को सजा देने की नीति अपनाई गई। 1876 ई० में ब्रिटिश संसद ने एक रॉयल टाइटल्स’ अधिनियम पास कर महारानी विक्टोरिया को भारत में समस्त ब्रिटिश प्रदेश और भारतीय रियासतों सहित भारत की साम्राज्ञी’ की उपाधि से विभूषित किया।
(v) आर्थिक प्रभाव- विद्रोह के पश्चात अंग्रेजों द्वारा नियन्त्रित चाय, कपास, कॉफी, तम्बाकू आदि के व्यापार को तो बढ़ावा दिया गया किन्तु भारतीय कुटीर उद्योगों को संरक्षण नहीं दिया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत सरकार पर 3 करोड़ 60 लाख पौण्ड का कर्ज छोड़ गई, जिसकी पूर्ति सरकार ने भारतीयों का शोषण करके ही की। इस शोषण से देश निरन्तर गरीब होता गया।
(vi) भारतीय राष्ट्रवाद का उदय- 1857 ई० के विद्रोह की विफलता ने भारतीयों को यह दिखा दिया कि सिर्फ सेना और शक्ति के बल पर ही अंग्रेजों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी, बल्कि इसके लिए सभी वर्गों का सहयोग, समर्थन और राष्ट्रीय भावना आवश्यक थी। इसलिए 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से इस दिशा में प्रयास आरम्भ कर दिए गए। 1855 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से इस विरोध को एक निश्चित दिशा भी मिल गई।
प्रश्न 2.
1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के स्वरूप का विवेचन कीजिए। इसकी असफलता के क्या कारण थे?
उतर:
1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम का स्वरूप- उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब शिक्षित भारतीयों को फ्रांस की क्रान्ति, यूनान के स्वाधीनता संग्राम, इटली तथा जर्मनी के एकीकरण आदि बातों की जानकारी मिली, तो उनमें भी अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने की भावना उत्पन्न हो गई। अंग्रेजों की दमन व शोषण-नीति से तो भारतीय जनता पहले से ही रुष्ट थी। जनता ने अनेक छोटी-छोटी क्रान्तियों द्वारा अपने असन्तोष का प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अंग्रेज सरकार सैनिक बल से इन क्रान्तियों पर काबू पाने में सफल रही। परन्तु 1806 ई० वेल्लौर (कर्नाटक) में हुई सैनिक क्रान्ति ब्रिटिश शासन के विरुद्ध की गई पहली गम्भीर क्रान्ति थी। 1796 ई० में अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों को आदेश दिया कि वे दाढ़ी न रखें, तिलक न लगाएँ, कानों में बालियाँ न पहने और पगड़ी के स्थान पर टोप पहनें। इस आदेश से रुष्ट होकर भारतीय सैनिकों ने क्रान्ति कर दी।
10 जुलाई, 1806 ई० को हुई इस क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेजों को सफलता अवश्य मिल गई, परन्तु यह क्रान्ति उस महाक्रान्ति की शुरुआत थी, जो 1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम के रूप में प्रकट हुई। सन् 1857 ई० में अंग्रेजी शासकों की अत्याचारपूर्ण तथा दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र क्रान्ति की, जिसे भारतीय इतिहास में 1857 ई० की महाक्रान्ति, 1857 ई० की क्रान्ति, प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा सैनिक क्रान्ति आदि नामों से पुकारा जाता है। सर जॉन लॉरेंस के अनुसार, यह एक सैनिक क्रान्ति थी। दूसरी ओर भारतीय विद्वानों वीर सावरकर, अशोक मेहता, डा० सरकार व दत्ता आदि ने इसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम और प्रथम राष्ट्रीय आन्दोलन बताया है। अतः स्वाधीनता संग्राम के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ प्रख्यात विद्वानों के विभिन्न मतों का अध्ययन करना आवश्यक है
(i) ‘सैनिक क्रान्ति’ थी- जो विद्वान इसे सैनिक क्रान्ति स्वीकार करते हैं, उनके तर्क इस प्रकार हैं
(क) इस क्रान्ति को राजाओं और आम जनता का सहयोग नहीं मिला था, क्योंकि यह केवल असन्तुष्ट सैनिकों द्वारा की गई क्रान्ति थी।
(ख) यह क्रान्ति किसी संगठित योजना का परिणाम नहीं थी।
(ख) इस क्रान्ति को ब्रिटिश सरकार ने सफलतापूर्वक दबा दिया था। यदि यह राष्ट्रीय क्रान्ति होती तो इसे दबाना सरल कार्य न होता।
(ग) भारतीय सैनिक अंग्रेज अफसरों के व्यवहार से बहुत असन्तुष्ट थे इसलिए उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति की थी।
पी०ई० रॉबर्स ने लिखा है- “यह केवल एक सैनिक क्रान्ति थी, जिसका तत्कालीन कारण कारतूस वाली घटना थी। इसका किसी पूर्वगामी षड्यन्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं था।”
सर जॉन सीले के अनुसार- “यह पूर्णतया आन्तरिक क्रान्ति थी, इसका न कोई देशीय नेता था और न इसे सम्पूर्ण जनता का समर्थन ही प्राप्त था।’
विंसेण्ट स्मिथ ने लिखा है- “यह क्रान्ति मुख्य रूप से बंगाल की सेना द्वारा की गई क्रान्ति थी, किन्तु यह सैनिकों तक ही सीमित न रही और शीघ्र ही इसका प्रसार जनता तक हो गया। जनता में असन्तोष और बैचेनी फैली ही थी अतः जनसाधारण ने क्रान्तिकारियों का साथ दिया। इस प्रकार, इसे राष्ट्रीय क्रान्ति न मानकर कुछ वर्गों के असन्तोष का परिणाम माना जाता है।
(ii) प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम था- कुछ भारतीय विद्वानों का मत है कि इस क्रान्ति का प्रारम्भ तो सैनिकों ने किया, किन्तु शीघ्र ही इसने जन-क्रान्ति का रूप धारण कर लिया था। इस क्रान्ति में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने ही समान रूप से भाग लिया था। वास्तव में, आम जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असन्तोष पहले ही विद्यमान था, केवल किसी अनुकूल अवसर की आवश्यकता थी, जिसको 1857 ई० की सैनिक क्रान्ति ने पूर्ण कर दिया।
(क) डा० एस०एन० सेन का कहना है- “यद्यपि इसका प्रारम्भ धार्मिक मनोभावनाओं के संग्रह के रूप में हुआ था, तथापि इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि क्रान्तिकारी विदेशी सरकार से मुक्त होना चाहते थे और पुरानी व्यवस्था लाना चाहते थे, जिसका नेतृत्व दिल्ली के बादशाह ने किया था।
(ख) जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- “यह केवल एक सैनिक क्रान्ति ही नहीं थी। यह भारत में शीघ्र ही फैल गई तथा इसने जनजीवन और स्वाधीनता संग्राम का रूप धारण किया।
(ग) अशोक मेहता व वृन्दावनलाल वर्मा ने इसे मात्र सैनिक क्रान्ति ही नहीं माना है। उनके मतानुसार यह राष्ट्रीय क्रान्ति ही थी।
1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के कारण- 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के कारणों के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न 3.
प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम 1857 ई० के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
एंग्लो-इण्डियन इतिहासकारों ने सैनिक असन्तोषों तथा चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 ई० के महान् विद्रोह का मुख्य तथा महत्वपूर्ण कारण बताया है, परन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया कि चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह का एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं था। विद्रोह के कारण अधिक गूढ़ थे और वे सब जून, 1757 के प्लासी के युद्ध से 29 मार्च, 1857 ई० को मंगल पाण्डे द्वारा अंग्रेज अधिकारी की हत्या तक के अंग्रेजी प्रशासन के 100 वर्ष के इतिहास में निहित हैं। चर्बी वाले कारतूस और सैनिकों का विद्रोह तो केवल एक चिंगारी थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों को जो राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित हुए थे, आग लगा दी और उसने दावानल का रूप धारण कर लिया। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार ने भारतीयों में असन्तोष भर दिया था। यह असन्तोष काफी समय से चला आ रहा था व समय-समय पर छोटे-छोटे विद्रोहों के रूप में परिलक्षित भी हुआ। वास्तव में 1857 ई० की क्रान्ति केवल सैनिक क्रान्ति नहीं थी। इस क्रान्ति के कारणों को छह प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है
(i) राजनीतिक कारण
(ii) सामाजिक कारण
(iii) धार्मिक कारण
(iv) आर्थिक कारण
(v) सैनिक कारण
(vi) तात्कालिक कारण
(i) राजनीतिक कारण- विद्रोह के अधिकांश राजनीतिक कारण डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति से उत्पन्न हुए थे। डलहौजी के गोद-निषेध सिद्धान्त से भारतीय जनता उत्तेजित हो उठी थी। इस नीति के आधार पर सतारा, नागपुर, झाँसी, सम्भलपुर, जैतपुर, उदयपुर इत्यादि राज्यों को जबरदस्ती अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। अवध अंग्रेजों का सर्वाधिक घनिष्ठ मित्र राज्य था, परन्तु उसका भी अपहरण कर लिया गया। जी०बी० मालेसन ने लिखा है कि “अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाए जाने और वहाँ पर नई पद्धति आरम्भ किए जाने से मुस्लिम कुलीनतन्त्र, सैनिक वर्ग, सिपाही और किसान सब अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए और अवध असन्तोष का बड़ा भारी केन्द्र बन गया।”
तन्जौर के राजा और कर्नाटक के नवाब के मरने के बाद उनकी उपाधियाँ समाप्त कर दी गईं। 1831 ई० के बाद मैसूर के राजा को भी पेंशन दे दी गई थी और पेशवा बाजीराव द्वितीय को उसके उत्तराधिकार से वंचित कर दिया। इससे भारतीय राजाओं में असन्तोष और आतंक फैल गया। इतना ही नहीं अनेक राज्यों; जैसे नागपुर में शाही सामान की खुली नीलामी की गई, वहाँ की रानियों को अपमानित किया गया। राजाओं की पेंशन बन्द कर दी गईं। पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को उनके राज्यों से वंचित कर दिया गया। इससे लोगों को लगा कि जब राजा-महाराजाओं का यह हाल है, तो सामान्य जनता का क्या होगा?
अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह द्वितीय को भी कम्पनी की सरकार ने नहीं बख्शा। लॉर्ड एलनबरो ने बहादुरशाह को भेंट देनी बन्द कर दी थी। सिक्कों पर से उसका नाम हटा दिया गया। डलहौजी ने बहादुरशाह को दिल्ली का लाल किला खाली करने और दिल्ली के बाहर कुतुब (महरौली) में रहने के लिए भी कहा। लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों से क्रान्ति की भावना और उग्र हुई। अपनी नीतियों के कारण लॉर्ड डलहौजी ने जिन राज्यों का अपहरण किया, वहाँ के उच्च पदाधिकारियों को बर्खास्त करके अंग्रेजों को नियुक्त कर दिया।
अंग्रेजों की नीति यह थी कि उच्च पदों पर भारतीयों को न बैठाया जाए, इस नीति के कारण लगभग 60,000 सैनिक व राज्य के कर्मचारी बेकार हो गए थे, जो अंग्रेजों के घोर शत्रु बन गए। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने कभी-भी भारतीयता को नहीं अपनाया, यद्यपि प्रारम्भ में मुस्लिमों को विदेशी समझा जाता था परन्तु यह भेद धीरे-धीरे खत्म हो गया था व हिन्दू तथा मुस्लिम केवल भारतीय होने की भावना से परस्पर कार्य करते थे। अंग्रेजों ने हमेशा शासक वर्ग की भाँति कार्य किया, वे केवल अपने राष्ट्र (इंग्लैण्ड) के कल्याण के विषय में सोचते थे। भारतीय शासित वर्ग शनैः शनैः निर्धन होता जा रहा था। भारतीय शासित वर्ग, जैसे- जमींदारों आदि ने विद्रोह के समय क्रान्तिकारियों की धन से सहायता की।
(ii) सामाजिक कारण- अंग्रेजों ने भारतीय रीति-रिवाजों की अवहेलना करके अपनी सभ्यता को जबरन भारतीयों पर थोपने का प्रयास किया। भारत के लोगों में अंग्रेजी शिक्षा को लेकर बहुत अविश्वास था। उन्हें लगता था कि अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से सम्भवतः उन्हें ईसाई बनाने के प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने भारतीय धार्मिक शिक्षा का बहिष्कार किया तथा जाति के नियमों का भी उल्लंघन किया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार द्वारा अंग्रेजों ने एक ऐसा वर्ग निर्मित कर दिया, जो भारतीय होते हुए भी भारतीय रीति-रिवाजों को हेय दृष्टि से देखने लगा। अंग्रेजों ने भारतीय रीति-रिवाजों का अपमान व अवहेलना की। इसके अतिरिक्त तत्कालीन भारत में अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को सुधारने के लिए सतीप्रथा, बाल-विवाह, बाल हत्या आदि कुप्रथाओं के विरुद्ध नियम बनाने प्रारम्भ किए। यद्यपि अंग्रेजों ने इन कुप्रथाओं को हटाकर भारत का कल्याण ही किया तथापि रूढ़िवादी भारतीय अंग्रेजों के प्रत्येक कार्य को संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। इन सुधारों ने भारतीयों के असन्तोष में वृद्धि की।
(iii) धार्मिक कारण- अंग्रेज व्यापारियों के साथ ईसाई धर्म प्रचारक भी भारत में आ बसे, यद्यपि अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों की भाँति अपना धर्म किसी पर थोपा नहीं परन्तु सन् 1850 ई० में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा लार्ड डलहौजी ने हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किए। अभी तक नियम यह था कि धर्म परिवर्तन करने की दशा में व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित हो जाता था परन्तु ईसाई धर्म को अपनाने पर वह व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी बना रह सकता था। सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की आज्ञा मिल गई थी, जिससे वे खुले रूप में हिन्दू देवी-देवताओं व मुस्लिम पैगम्बरों को बुरा-भला कहने लगे। ईसाई धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों को उच्च पदों पर प्राथमिकता मिलती थी। अनेक बार ये धर्म प्रचारक उद्दण्डता का व्यवहार भी करते थे। इसलिए भारतीयों को इन धर्म प्रचारकों से घृणा होने लगी थी। बेरोजगारों, अनाथों, वृद्धों व विधवाओं को प्रलोभन देकर व बलपूर्वक ईसाई बना लिया जाता था।
(iv) आर्थिक कारण- भारत प्रारम्भ से ही धन सम्पन्न देश था। भारत में समय-समय पर अनेक आक्रमणकारी आए, जिन्होंने भारत की धन-सम्पदा को लूटा तब भी भारत में कभी धन का अभाव नहीं रहा। मुगलों के बादशाहों ने भारत का धन अपनी शानो-शौकत पर लुटाया तथा भारत के अपार धन को अपनी विलासिता पर खर्च किया तब भी भारत एक धनी देश बना रहा क्योंकि विदेशियों व मुगलों ने भारत के आय के स्रोतों पर कभी प्रहार नहीं किया। अंग्रेजों ने भारत में ‘मुक्त व्यापार नीति लागू की, जो भारतीय व्यापार व उद्योगों के विरुद्ध थी। इंग्लैण्ड में बना कपड़ा भारत में सस्ते दामों पर बेचा जाने लगा तथा भारत के कच्चे माल काफी कम कीमत पर इंग्लैण्ड भेजे जाने लगे, जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग नष्ट हो गया। देशी रियासतों के अंग्रेजी राज्यों में मिल जाने से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई क्योंकि अंग्रेज उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति नहीं करते थे। भारत में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का निदान करना अंग्रेज अपना कर्त्तव्य नहीं समझते थे। इस प्रकार अंग्रेजों ने भारतीय समाज के आर्थिक ढाँचे को अस्त-व्यस्त कर दिया।
(v) सैनिक कारण- अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों के सहारे से ही भारत में अपनी स्थिति मजबूत की थी। भारतीय सैनिकों की संख्या अंग्रेजी सेना में लगभग 2,50,000 थी जबकि अंग्रेज 90,000 से भी कम थे, परन्तु समस्त उच्च पद केवल अंग्रेजों को ही प्राप्त थे। अंग्रेजी सैनिकों को भारतीयों से अधिक वेतन व अन्य सुविधाएँ मिलती थीं।
एक साधारण सैनिक का वेतन सात या आठ रुपए मासिक होता था और इस वेतन में से ही उनके खाने का खर्च व वर्दी के पैसे काटकर उन्हें मात्र डेढ़ या दो रुपए दिए जाते थे, जिससे उनको पेट पालना भी मुश्किल होता था। इसी प्रकार एक भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपए मासिक था, जबकि अंग्रेज सूबेदार को 195 रुपए मासिक वेतन मिलता था।
युद्ध आदि के अवसरों पर भारतीय सैनिकों को भारत से बाहर भी भेजा जाता था, जिससे उनकी सामाजिक व धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचती थी, क्योंकि उस समय विदेश जाना सामाजिक दृष्टि से खराब माना जाता था तथा उस व्यक्ति को बिरादरी से निष्कासित कर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त भारतीय सैनिक उच्च जाति के थे, किन्तु अंग्रेज उनके साथ अत्यन्त अभद्र व्यवहार करते थे। अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों को भद्दी-भद्दी गालियाँ देते थे तथा उन्हें निग्गर या काला आदमी कहकर मजाक उड़ाते थे। यही कारण था कि भारतीय सैनिकों ने समय-समय पर विद्रोह कर अपनी भावनाओं को स्पष्ट किया।
यद्यपि सरकार ने इनका कठोरतापूर्वक दमन तो कर दिया, किन्तु भारतीय सैनिकों के हृदयों में आक्रोश निरन्तर बढ़ता रहा जो चर्बी वाले कारतूसों की घटना के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इन कारतूसों ने कोई नवीन कारण प्रस्तुत नहीं किया अपितु एक ऐसा अवसर प्रदान किया, जिससे उनके भूमिगत असन्तोष प्रकट हो गए। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने अनेक धर्म विरुद्ध नियम बना दिए थे। उस समय समुद्री यात्रा को धर्म विरोधी माना जाता था। 1856 ई० के General Service Enlistment Act के अनुसार जो सैनिक समुद्र पार के स्थलों पर जाने के लिए मना करेगा उसका सेना से निष्कासन कर दिया जाएगा। सैनिकों ने समझा इन कानूनों से अंग्रेजी सरकार उन्हें धर्मविहीन करना चाहती है।
(vi) तात्कालिक कारण- सैनिकों के असन्तोष का तात्कालिक कारण नए कारतूसों का प्रयोग था। कम्पनी सरकार ने पुरानी ब्राउन बैस बन्दूक की जगह जनवरी, 1857 से नई एनफील्ड राइफल का प्रयोग आरम्भ किया। इस राइफल में जो कारतूस भरी जाती थी, उसे दाँत से काटना पड़ता था। बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि इस कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है। इससे हिन्दू-मुसलमान सैनिकों में भयंकर रोष उत्पन्न हो गया। उनके मन में यह बात बैठ गई कि सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करने पर तुली हुई है और उन्हें ईसाई बनाना चाहती है। इस घटना ने उस आग को जलाया जिसके लिए लकड़ियाँ पहले से ही इकट्टठा हो चुकी थीं। लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि “कम्पनी औरंगजेब की भूमिका में है। और सैनिकों को शिवाजी बनना ही है।” अत: सेना अपने धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गई। 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के परिणाम- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न 4.
1857 ई० की क्रान्ति के आरम्भ तथा दमन का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उतर:
1857 ई० की क्रान्ति का आरम्भ व दमन- कुछ विद्वान 1857 ई० की क्रान्ति को अनियोजित मानते हैं। परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार यह पूर्वनियोजित क्रान्ति थी, जिसका नेतृत्व अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नेताओं ने किया। क्रान्ति का दिन 31 मई, 1857 निर्धारित किया गया था किन्तु कुछ अप्रत्यक्ष कारणों से इसकी शुरुआत 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में सैनिकों द्वारा हो गई थी। क्रान्ति के प्रचार का माध्यम कमल का फूल व चपाती थी। क्रान्तिकारियों ने यह निर्णय भी किया था कि क्रान्ति के शुरू होते ही मुगल बादशाह बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित करके उनके नाम पर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया जाएगा। योजनानुसार 31 मई को अंग्रेज कर्मचारियों की हत्या करके जेलों को तोड़ दिया जाएगा तथा कैदियों को आजाद करा लिया जाएगा। रेल व तार की लाइनें काट दी जाएँगी। सरकारी कोष व तोपखानों पर अधिकार करके प्रमुख दुर्गों को अपने अधीन कर लिया जाएगा। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और क्रान्ति का आरम्भ समय से पहले हो गया। जिनमें प्रमुख क्रान्तियों का विवरण निम्नलिखित है
(i) बैरकपुर में क्रान्ति- सर्वप्रथम बैरकपुर छावनी के सिपाहियों ने 6 अप्रैल, 1857 ई० को चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। लॉर्ड रॉबर्ट ने अपनी पुस्तक ‘भारत में 40 वर्ष में लिखा है- “मिस्टर फोरस्ट की आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि कारतूसों में चर्बी मिली हुई थी, जिसके कारण सिपाहियों को आपत्ति थी। इन कारतूसों के कारण सिपाहियों की धार्मिक भावना भड़की।” इस पर क्रुद्ध होकर अंग्रेज अफसरों ने उनको पदच्युत करने की धमकी दी तथा उनको नि:शस्त्र कर दिया गया।
कुछ सैनिकों ने तो चुपचाप अस्त्र वापस कर दिए किन्तु मंगल पाण्डे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने क्रान्ति कर दी। मंगल पाण्डे को बन्दी बनाने की आज्ञा मिली। किन्तु जो व्यक्ति उसको बन्दी बनाने के लिए आगे बढ़ रहा था, उसको मंगल पाण्डे की गोली का शिकार बनना पड़ा। एक अन्य अफसर की भी मंगल पाण्डे ने हत्या कर डाली, किन्तु अन्त में वह घायल हो गया तथा उसे बन्दी बनाकर उस पर अभियोग चलाया गया और उसे 8 अप्रैल, 1857 ई० को प्राणदण्ड मिला। जिन सैनिकों ने क्रान्ति की थी, उन्हें सार्वजनिक रूप से पदच्युत किया गया, उनकी संगीने छीन ली गईं तथा उन्हें जेल में कैद कर दिया गया। इस प्रकार क्रान्ति की ज्वाला अप्रैल में ही भड़कनी प्रारम्भ हो गई।
(ii) मेरठ में क्रान्ति- बैरकपुर के बाद यह विद्रोह मेरठ में हुआ। 24 अप्रैल, 1857 ई० को मेरठ छावनी के नब्बे सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग से मना कर दिया। परिणामस्वरूप मई की परेड में 85 सैनिकों को सेना से हटा दिया गया और मेरठ जेल में बन्द कर दिया गया था। 10 मई को सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोलियाँ चलाईं। अपने साथियों को मुक्त करवाकर वे लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। जनरल हेविट के पास 2,200 यूरोपीय सैनिक थे, परन्तु उसने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।
(iii) दिल्ली में क्रान्ति- दिल्ली में क्रान्तिकारियों ने 11 मई, 1857 ई० को प्रवेश किया। वहाँ के भारतीय सैनिकों ने क्रान्तिकारियों का स्वागत किया तथा उनसे जा मिले। उन्होंने अंग्रेज अफसरों की हत्या कर डाली तथा दिल्ली पर सफलतापूर्वक क्रान्तिकारियों का अधिकार हो गया। 16 मई तक अंग्रेजों का हत्याकाण्ड चलता रहा। क्रान्तिकारियों के अनरोध पर मगल बादशाह बहादरशाह द्वितीय ने क्रान्तिकारियों द्वारा दिल्ली विजय की घोषणा की। यह समाचार कछ ही दिनों में समस्त उत्तरी भारत में फैल गया। अनेक स्थानों पर बहादुरशाह का हरा झण्डा फहराने लगा और विभिन्न स्थानों से भारतीय सैनिक खजाने सहित दिल्ली की ओर प्रस्थान करने लगे।
24 मई तक अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी और दिल्ली का निकटवर्ती पड़ोसी प्रदेश स्वतन्त्र हो गया। जहाँ क्रान्तिकारियों के प्रमुख गढ़ थे, वहाँ पर क्रान्ति का भयंकर रूप प्रारम्भ हो गया। उदाहरण के लिए मध्य भारत में ताँत्या टोपे, बिहार में कुंवरसिंह साहब, झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई तथा कानपुर में नाना साहब आदि ने क्रान्ति कर दी। क्रान्तिकारियों ने पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार बन्दीगृह तोड़कर बन्दियों के मुक्त। किया, अंग्रेजों की हत्या की तथा उनके कोष एवं शास्त्रागारों पर अधिकार करने का प्रयास किया। दिल्ली के आस-पास के नगरों से क्रान्तिकारी दिल्ली में एकत्रित होने लगे। भारतीय सैनिकों ने दिल्ली की ओर बख्त खाँ के नेतृत्व में प्रस्थान किया। इस समय नाना साहब कानपुर में थे। उन्होंने वहीं अपने को स्वतन्त्र पेशवा घोषित करके क्रान्तिकारियों का नेतृत्व आरम्भ कर दिया। मध्य भारत में क्रान्ति का नेता मराठा सरदार ताँत्या टोपे था तथा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने बुन्देलखण्ड में क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। परन्तु अन्य स्थानों पर जनता का रुख उदासीन रहा। ग्वालियर, हैदराबाद, कश्मीर के शासकों तथा सिक्खों की सहायता से अंग्रेजों ने क्रान्ति का दमन कर दिया।
इस क्रान्ति का दमन सर्वप्रथम दिल्ली से प्रारम्भ हुआ। सेनापति एंसन ने एक सेना लेकर दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। एंसन को मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु पंजाब के कमिश्नर सर जॉन लॉरेंस की सहायता से उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति में बिलकुल भी भाग नहीं लिया तथा पंजाब की सेना ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करने में अंग्रेजों की सहायता की। इस समय तक एंसन तथा उसके पश्चात् बनने वाले सेनापति कर्नाड क्रान्तिकारियों द्वारा समाप्त किए जा चुके थे। विल्सन ने सेनापति का पद ग्रहण करके दिल्ली पर आक्रमण किया किन्तु उसे कई बार भारतीय सेनाओं से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। प्रारम्भ में अंग्रेजी सेना की संख्या कम थी, इसलिए इसने केवल रक्षात्मक नीति ही अपनाई और दिल्ली को घेरे हुए पड़ी रही। दो-तीन महीने के घेरे के बाद सितम्बर 1857 ई० में जनरल निकल्सन के नेतृत्व में पंजाब से एक नई सेना आ जाने पर कम्पनी की सेनाओं में आशा का संचार हुआ और अंग्रेजों ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। कश्मीरी गेट को अंग्रेजी सेना ने बारूद से उड़ा दिया तथा 6 दिनों के भयंकर युद्ध के पश्चात् उन्होंने दिल्ली नगर एवं लाल किले पर अधिकार कर लिया।
(iv) कानपुर तथा झाँसी में क्रान्ति-4 मार्च, 1857 को कानपुर में भी विद्रोह प्रारम्भ हो गया। कानपुर अंग्रेजों के हाथ से 5 जून को निकल गया। नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया गया। जनरल सर ह्यू व्हीलर ने 27 जून को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ यूरोपीय पुरुष, महिलाओं तथा बालकों की हत्या कर दी गई। वहाँ पेशवा नाना साहब को अपने दक्ष तात्या टोपे की सहायता भी प्राप्त हो गई। सर कैम्बल ने कानपुर पर 6 दिसम्बर को पुनः अधिकार कर लिया। तात्याँ टोपे भाग निकले और झाँसी की रानी से जा मिले।
जून 1857 के आरम्भ में सैनिकों ने झाँसी में भी विद्रोह कर दिया। गंगाधर राव की विधवा रानी की रियासत की शासिका घोषित कर दिया गया। कानपुर के पतन के पश्चात् तात्या टोपे भी झॉसी पहुंच गए थे। सर ह्यूरोज ने झाँसी पर आक्रमण करके 3 मार्च, 1858 को पुन: उस पर अधिकार कर लिया।
झाँसी की रानी तथा तात्याँ टोपे ने ग्वालियर की ओर अभियान किया, जहाँ भारतीय सैनिकों ने उनका स्वागत किया, परन्तु ग्वालियर का राजा सिन्धिया राजभक्त बना रहा और उसने आगरा में शरण ली। लेकिन 17 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई बड़ी वीरता से सैनिक वेश में संघर्ष करती हुई वीरगति को प्राप्त हुई।
अंग्रेजों ने सर्वत्र क्रान्ति को दबा दिया था तथा क्रान्ति के प्रमुख नेता समाप्त कर दिए गए थे। केवल ताँत्या टोपे बचा था। उसके पास धन और सेना दोनों का अभाव था। उसने दक्षिण में जाकर वहाँ के राज्यों में क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार प्रारम्भ किया, किन्तु अंग्रेज उसका निरन्तर पीछा करते रहे। दस महीने तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भागता रहा और सेना का संगठन करता रहा। अंग्रेज लोग अथक प्रयास करके भी उसको पकड़ने में असमर्थ रहे, किन्तु अन्त में ताँत्या टोपे के पुराने एवं विश्वासी मित्र ने उसके साथ विश्वासघात किया और उसे अलवर में अंग्रेजों द्वारा पकड़वा दिया। उस पर अभियोग चलाया गया। अन्ततः भारतमाता के वीर सपूत तथा 1857 की क्रान्ति के इस महान् अन्तिम नेता को 18 अप्रैल, 1859 ई० में मृत्युदण्ड दे दिया गया।
इस प्रकार समय से पहले आरम्भ हुई यह नेतृत्वहीन क्रान्ति अंग्रेजों द्वारा दबा दी गई। परन्तु इसके दूरगामी परिमाण हुए।
प्रश्न 5.
1857 ई० का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रथम चरण था। इस कथन से अपनी सहमति का विवरण दीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।