UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 12 National Renaissance and Foundation of Indian National Congress (राष्ट्रीय जनजागरण व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना)
UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 12 National Renaissance and Foundation of Indian National Congress (राष्ट्रीय जनजागरण व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना)
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी? उसके प्रारम्भिक उद्देश्य क्या थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ऐलेन ऑक्ट्रेनियन ह्यूम (ए०ओ० ह्यूम) ने सन् 1885 ई० में की थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक उद्देश्य निम्नलिखित थे
- साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में देश-हित के लिए लगन से काम करने वालों की आपस में घनिष्ठता तथा मित्रता बढ़ाना।
- राष्ट्रीय एकता की भावना बढ़ाना और जाति, धर्म या प्रादेशिकता के आधार पर उपजे भेदभाव को दूर करना।
- महत्वपूर्ण एवं आवश्यक सामाजिक प्रश्नों पर भारत के शिक्षित लोगों में चर्चा करने के बाद परिपक्व समितियाँ तथा प्रामाणिक तथ्य स्वीकार करना।
- उन उपायों और दिशाओं का निर्णय करना, जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देश-हित के लिए कार्य करें। कांग्रेस का अपने प्रथम काल में प्रमुख उद्देश्य प्रशासनिक सुधारों की मांग करना था, जिसकी प्राप्ति वे संवैधानिक साधनों से करना चाहते थे।
प्रश्न 2.
कांग्रेस के संघर्ष के इतिहास को कितने कालों में विभक्त किया जाता है?
उतर:
कांग्रेस के संघर्ष के इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया जाता है
- प्रथम काल (उदारवादी काल) सन् 1885 से 1905 ई० तक।
- द्वितीय काल (गरम विचारधारावादी तथा क्रान्तिकारी काल) सन् 1906 से 1919 तक।
- तृतीय काल (राष्ट्रीयता का गाँधीवादी युग) सन् 1920 से 1947 तक।
प्रश्न 3.
शिक्षा के प्रसार ने राष्ट्रीय जनजागरण में क्या भूमिका निभाई?
उतर:
भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में अंग्रेजी शिक्षा ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजों का शासन होने के कारण भारत के प्रत्येक कोने में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे देश में भाषा की एकता स्थापित हो गई तथा इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के प्रबुद्ध लोगों को आपस में (अंग्रेजी भाषा के माध्यम से) विचारविमर्श करने में सहायता मिली। इस प्रकार अनजाने में अंग्रेजी शासन की शिक्षा नीति से भारतीयों को भाषायी बन्धनों से मुक्त होकर एकता की भावना को प्रचारित व प्रसारित करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्हें इस कटु सत्य का आभास हुआ कि उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक शोषण का जिम्मेदार ब्रिटिश शासन ही है। इस राष्ट्रीय चेतना के फलस्वरूप ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।
अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार ने राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, विपिनचन्द्र पाल, चितरंजन दास, लाला लाजपतराय आदि ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण कर उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान अर्जित किया और राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम योगदान दिया।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत में राष्ट्रीय जनजागरण व उसके कारणों को सविस्तार उल्लेख कीजिए।
उतर:
भारत में राष्ट्रीय जनजागरण- भारत में अंग्रेजी राज्य के दौरान देशी शिक्षा, संस्कृति पर हुए प्रहार के कारण अनेक धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलन हुए। परम्परागत रूढ़िवादी संकीर्ण विचारों वाले वर्ग के अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षक के फलस्वरूप एक नए प्रबुद्ध वर्ग का भी उदय हुआ, जिसने सदियों से चलती आ रही रूढ़िवादी विचारधारा को बदलने का प्रयास किया।
नए शिक्षित समाज और उसके पश्चिमी प्रभाव वाले विचारों के फलस्वरूप भारत में राष्ट्रीय जागरण का सूत्रपात हुआ और भारतीयों में एक नवचेतना ने जन्म ले लिया। इस राष्ट्रीय जागरण ने राष्ट्र में एकता का संचार किया। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हुए धार्मिक व सामाजिक आन्दोलन ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नई राजनीतिक चेतना का प्रसार कर दिया। पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों में एक नई चेतना को पल्लवित कर दिया। अतः भारतीय अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने हेतु संघर्षरत हो गए। भारत में राष्ट्रीय जागरण की शुरूआत कुछ हद तक उपनिवेशवादी नीतियों के कारण ही हुई।
अंग्रेजी गवर्नर जनरलों के राष्ट्र में सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सुधारों ने भारतीयों में एक बौद्धिक चेतना की नींव रख दी। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण न अपनाते हुए उन्हें देश से बाहर करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। इन सब गतिविधियों के कारण भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1885 ई० तक यह राष्ट्रीय आन्दोलन उग्र हो गया और भारतीयों ने अपनी माँगों को स्वीकृत कराने हेतु ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपनी गतिविधियों को तीव्र कर दिया। दिन-प्रतिदिन इस आन्दोलन ने एक नया रूप लेना आरम्भ कर दिया और एक राजनीतिक संगठन की उत्पत्ति हुई।
इस राष्ट्रीय जागरण का प्रथम श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है, जिन्होंने युवा पीढ़ी को एकत्र किया तथा उन्हें एक नवीन भावना से भर दिया। उन्होंने उन्हें बताया कि हम पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण करके भी अपने देश, धर्म व समाज की रक्षा कर सकते हैं। राजा राममोहन राय के बाद तो अनेक समाज सुधारकों ने देश में नवीन विचारधाराओं की बाढ़-सी ला दी। भारतीयों का पुनरुत्थान हुआ तथा राष्ट्रीयता की भावना जागृत हो गई। उन्होंने समाज में फैली रूढ़िवादी परम्पराओं को विनष्ट कर दिया तथा व्याप्त कुरीतियों को काफी हद तक दूर करने का प्रयास किया। उनका अनुगमन करके नई पीढ़ी उत्साह से परिपूर्ण हो गई और उन्होंने स्वाधीनता के आन्दोलनों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देना आरम्भ कर दिया।
राष्ट्रीय जनजागरण के कारण- भारतीय राष्ट्रीय जागरण एक ऐतिहासिक परम्परा का पुनरागमन तथा जनता की आत्मा की जागृति का प्रतिबिम्ब था। भारतीयों में यह नवीन चेतना अनेक कारणों से उत्पन्न हुई। इनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(i) धार्मिक व सामाजिक पुनर्जागरण- 19वीं शताब्दी में हुए धर्म एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीय जागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सुधार आन्दोलन के प्रणेताओं में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द आदि ने भारतीयों के हृदय में देशभक्ति तथा स्वतन्त्रता की भावना का संचार किया। राजा राममोहन राय ने भारतीयों को तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों से अवगत कराया तथा उन्हें त्यागने के लिए प्रेरित किया। राजा राममोहन राय ने विलियम बैंटिंक के सहयोग से 1829 ई० में सती प्रथा के विरुद्ध कानून पारित करवाया। दयानन्द सरस्वती ने कहा है कि ‘जो स्वदेशी राज्य होता है यह सर्वोपरि उत्तम होता है’, ‘भारत भारतीयों के लिए है। विवेकानन्द के अनुसार, “हमारे देश को दृढ़ इच्छा वाले ऐसे लौह-पुरुषों की आवश्यकता है, जिनका प्रतिरोध नहीं किया जा सके।” एनी बेसेण्ट ने “स्वतन्त्र व्यक्ति द्वारा ही स्वतन्त्र देश का निर्माण किया जा सकता है’ आदि नारों का उद्घोष कर लोगों में राष्ट्रीय जागरण की भावना का विकास किया।
(ii) राजनीतिक एकता की स्थापना- ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। अतः भारतीयों में राष्ट्रीय एकता का अभाव था। अंग्रेजों ने साम्राज्यवाद की नीति का अनुसरण कर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया। इस नीति से सम्पूर्ण भारत एक शासन-सूत्र में आबद्ध हो गया। एक राज्य की जनता दूसरे राज्य की जनता के निकट आई व उनमें राष्ट्रीयता का भाव जागृत हुआ। अंग्रेजों को जब तक यह ज्ञात हुआ कि उनकी साम्राज्यवादी नीति उनका ही अहित कर रही है तब तक भारतीय संगठित हो चुके थे तथा उनमें राष्ट्रीय जागरण की भावना का संचार हो चुका था।
(iii) साहित्यिक प्रभाव- साहित्य व समाचार-पत्रों ने भी राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारम्भ में सभी समाचार-पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होते थे परन्तु कुछ तत्कालीन बुद्धिजीवियों के कठिन प्रयत्न से समाचार-पत्रों का प्रकाशन हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी होना प्रारम्भ हो गया। इन समाचार-पत्रों में पायनिर, पेट्रीयाट, इंडियन मिरर, बंगदूत, दि पंजाबी, दि केसरी व अमृत बाजार पत्रिका आदि प्रमुख थे। इन समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय प्रेम, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की भावना से ओत-प्रोत लेख, कविताएँ और भावोत्पादक भाषण व उपदेश प्रकाशित होते थे। इन समाचार-पत्रों का मूल्य बहुत कम रखा जाता था, जिससे अधिक से अधिक लोग उसे पढ़ सकें। इन समाचार-पत्रों ने साधारण जनता को जागृत करने में विशेष सहयोग किया।
(iv) लॉर्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ- लॉर्ड लिटन की तात्कालिक नीतियों ने भी राष्ट्रभावना जगाने का कार्य किया। भारतीय नागरिक सेवा की उम्र घटाने का कार्य भारतीय युवाओं को ठेस पहुँचाने का कार्य था। 1877 ई० में भीषण अकाल के समय दिल्ली में एक भव्यशाली दरबार लगाकर लाखों रुपया नष्ट करना एक ऐसा कार्य था जिस पर एक कलकत्ता (कोलकाता) के समाचार-पत्र ने कहा था, “नीरों बंशी बजा रहा था। उसने दो अन्य अधिनियम, भारतीय भाषा समाचार-पत्र अधिनियम तथा भारतीय शस्त्र अधिनियम भी पारित किए जिससे कटुता और भी बढ़ गई। फलस्वरूप भारत में अनेक राजनीतिक संस्थाएँ बनीं ताकि सरकार विरोधी आन्दोलन चला सकें।
(v) आर्थिक असन्तोष- अंग्रेजों ने भारतीयों के प्रति आर्थिक शोषण की नीति का अनुसरण किया। उन्होंने भारतीयों के उद्योग-धन्धों को प्रायः नष्ट कर दिया। लॉर्ड लिटन के शासनकाल में आयात कर समाप्त कर मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई। इस नीति के पीछे अंग्रेजों का एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश आयात को बढ़ावा देना तथा भारतीय व्यापार को नष्ट करना था। अंग्रेजों को अपने इस उद्देश्य में सफलता मिली तथा भारतीय व्यापार नष्ट होने लगा। अनेक उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए। ऐसी स्थिति में बेरोजगार व्यक्तियों ने कृषि को उद्योगों के रूप में अपनाना चाहा लेकिन अंग्रेजों ने कृषि की उन्नति की ओर भी ध्यान नहीं दिया, जिससे भारतीय कृषक और कृषि, दोनों की दशा शोचनीय हो गई। भारतीय जनता में दरिद्रता बढ़ने लगी। भारतीयों में फैले इस आर्थिक असन्तोष ने उनमें राष्ट्रीय जागरण की भावना का संचार किया।
(vi) विभिन्न देशों से प्रेरणा- भारतीय शिक्षित वर्ग पर विश्व के अन्य देशों में हुए स्वतन्त्रता आन्दोलनों का भी व्यापक प्रभाव हुआ। भारतीयों ने देखा व पढ़ा कि किस प्रकार जर्मनी व इटली जैसे देशों की जनता ने अथक प्रयत्नों से अपने-अपने देश का एकीकरण किया। इसके साथ ही अमेरिका ने जिन परिस्थितियों में स्वतन्त्रता प्राप्त की थी, उससे भारतीयों को भी अपने अधिकारों व देश के प्रति जागृत होने की प्रेरणा मिली। फ्रांस की क्रान्तियों ने भी भारतीयों को प्रभावित किया तथा धीरे-धीरे भारत में भी राष्ट्रवाद की भावना पनपने लगी। इस सम्बन्ध में डॉ० मजूमदार ने ठीक ही लिखा है, “विदेशों में स्वतन्त्रता प्राप्ति की घटनाओं ने भारतीय राष्ट्रवादी धारा को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया।”
(vii) शिक्षित भारतीयों में असन्तोष की भावना- अंग्रेजों की विभिन्न पक्षपाती एवं दोषयुक्त नीतियों के कारण शिक्षित भारतीयों में असन्तोष की भावना व्याप्त हो गई थी। भारतीय नागरिक सेवा की परीक्षा केवल इंग्लैण्ड में ही आयोजित की जाती थी। बिना किसी ठोस कारण के भारतीयों को भारतीय नागरिक सेवा की नौकरी से निकाल दिया जाता था। अंग्रेजों ने भारतीय नागरिक सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। अंग्रेजों की इन नीतियों से भारतीयों में असन्तोष की भावना फैल गई। क्योंकि इसका स्पष्ट उद्देश्य भारतीयों को नागरिक सेवा से दूर रखना था। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कथन है कि अंग्रेजों का यह कार्य भारतीय विद्यार्थियों को भारतीय नागरिक सेवा से वंचित रखने की एक चाल है।
सुरेन्द्रनाथ के इस वक्तव्य का भारतीयों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। अत: जब 1877 ई० में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भारत के विभिन्न स्थानों-आगरा, दिल्ली, अलीगढ़, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, लाहौर, इलाहाबाद, वाराणसी, अमृतसर, पूना, मद्रास (चेन्नई) आदि का भ्रमण किया और शिक्षित भारतीयों को अंग्रेजों के षड्यन्त्रकारी उद्देश्य से अवगत कराया तो विभिन्न जाति एवं धर्म के लोग अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने लगे। अब शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रीय जागरण की भावना का व्यापक संचार हुआ।
(viii) तीव्र परिवहन तथा संचार साधनों का विकास- अंग्रेजों ने परिवहन एवं संचार साधनों का व्यापक पैमाने पर विकास किया। भारत के विशाल भाग में रेल लाइनें बिछाई गईं। यद्यपि अंग्रेजों ने यह सब अपने लाभ के लिए किया था, किन्तु इन साधनों ने भारतीयों को एक-दूसरे के काफी नजदीक ला दिया, परिणामस्वरूप राष्ट्रीय जागरण की भावना में द्रुतगति से विकास हुआ।
(ix) अंग्रेजों की जाति-सम्बन्धी भेदभाव की नीति- अंग्रेजों ने जाति के सम्बन्ध में भेदभाव की नीति अपनाई। उन्होंने महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति की तथा भारतीयों को इन पदों से दूर रखा। रेल में प्रथम श्रेणी के डिब्बों में भारतीयों की यात्रा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। प्रथम श्रेणी के डिब्बे में केवल अंग्रेज ही यात्रा कर सकते थे। अगर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में कोई भारतीय चढ़ भी जाता था, तो अंग्रेज यात्रियों द्वारा उसके साथ बेहद अपमानजनक व्यवहार किया जाता था। साथ ही उसे रेल के डिब्बे से उतार दिया जाता था। दरबार तथा उत्सवों में एक निश्चित सीमा तक ही भारतीय जूते पहन सकते थे, जबकि अंग्रेज जूते पहनकर कहीं भी आ-जा सकते थे। अंग्रेजों की इस भेदभावपूर्ण नीति से भारतीयों के आत्मसम्मान को काफी ठेस पहुंची थी। अत: वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए और उनमें राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई जिसने एक राष्ट्रीय जनजागरण को जन्म दिया।
(x) धर्म तथा समाज सुधार आन्दोलन- उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के फलस्वरूप भारत में नवजागरण हुआ। इस नवजागरण के अग्रदूतों राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि ने भारतीय समाज व हिन्दू धर्म की कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। भारतीय समाज और हिन्दू धर्म के दोष (जाति प्रथा, छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, रूढ़िवादिता आदि), ब्रिटिश शासन का प्रभाव (लॉर्ड विलियम बैंटिंक द्वारा सती प्रथा का उन्मूलन), अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव, पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव, ईसाई धर्म के प्रचार का प्रभाव, वैज्ञानिक तथा परिवहन के साधनों के आविष्कारों (रेल, तार, टेलीफोन, डाक आदि का प्रभाव) तथा राष्ट्रीय चेतना के विकास ने देश में धर्म व सुधार आन्दोलनों का वातावरण तैयार कर दिया।
(xi) पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार- ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होने के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में अपनी शिक्षा का प्रसार करना प्रारम्भ कर दिया। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पीछे यह तर्क दिया था कि पाश्चात्य शिक्षा व संस्कृति के प्रचार से भारतीयों को गुलाम बनाया जा सकता है, शारीरिक बल प्रयोग से नहीं। मैकाले ने इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया। उसे अपने उद्देश्य में सफलता भी मिली, परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार ने राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, विपिनचन्द्र पाल, चितरंजन दास, लाला लाजपतराय आदि ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण कर उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान अर्जित किया और राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम योगदान दिया। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में अंग्रेजी शिक्षा ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।
शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजों का शासन होने के कारण भारत के प्रत्येक कोने में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे देश में भाषा की एकता स्थापित हो गई तथा इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के प्रबुद्ध लोगों को आपस में (अंग्रेजी भाषा के माध्यम से) विचार-विमर्श करने में सहायता मिली। इस प्रकार अनजाने में अंग्रेजी शासन की शिक्षा नीति से भारतीयों को भाषायी बन्धनों से मुक्त होकर एकता की भावना को प्रचारित व प्रसारित करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्हें इस कटु सत्य का आभास हुआ कि उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक शोषण का जिम्मेदार ब्रिटिश शासन ही है। इस राष्ट्रीय चेतना के फलस्वरूप ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।
प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई० में हुई थी। इसने 1885 ई० से 1947 ई० तक भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया। समय और परिस्थितियों के अनुसार इसके लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों तथा साधनों में अन्तर होता चला गया। इसी के आधार पर कांग्रेस के इतिहास को निम्नलिखित तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है
- प्रथम काल (उदारवादी काल) सन् 1885 से 1905 ई० तक।
- द्वितीय काल (गरम विचारधारावादी तथा क्रान्तिकारी काल) सन् 1906 से 1919 ई० तक।
- तृतीय काल (राष्ट्रीयता का गाँधीवादी युग) सन् 1920 से 1947 ई० तक।
कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 ई० के दिन 11 बजे गोकुलदास तेजपाल संस्कृत पाठशाला’ बम्बई में हुआ। इस अधिवेशन में 72 प्रतिनिधि थे। इस प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष कलकत्ता के प्रसिद्ध बैरिस्टर व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे। इन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस के निम्नलिखित उद्देश्यों का उल्लेख किया था
- साम्राज्य के विभिन्न भागों में देश-हित के लिए लगन से काम करने वालों में आपस में घनिष्ठता एवं मित्रता को बढ़ाना।
- सभी देश-प्रेमियों के हृदय में प्रत्यक्ष मैत्रीपूर्ण व्यवहार के द्वारा वंश, धर्म और प्रान्त सम्बन्धी सभी पहले के संस्कारों को मिटाना और राष्ट्रीय एकता की सभी भावनाओं का पोषण एवं परिवर्द्धन करना।
- महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक सामाजिक प्रश्नों के सम्बन्ध में भारत में शिक्षित लोगों में अच्छी तरह चर्चा के पश्चात् परिपक्व सम्मतियों का प्रामाणिक संग्रह करना।
- उन तरीकों और दिशाओं का निर्णय करना, जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देशहित में कार्य करें। कांग्रेस का अपने प्रथम काल में प्रमुख प्रशासनिक सुधारों की माँग करना था तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति वे संवैधानिक साधनों द्वारा करना चाहते थे। इस काल में कांग्रेस के सभी नेताओं का विश्वास ब्रिटिश सरकार की ईमानदारी तथा न्यायप्रियता में था।
प्रश्न 3.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप कैसा था?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सरकार के अवकाश प्राप्त अधिकारी ए०ओ० ह्यूम ने की थी। ह्यूम ने इसकी स्थापना का स्पष्टीकरण देते हुए बताया था कि पश्चिमी विचारों, शिक्षा, आविष्कारों और यन्त्रों से उत्पन्न हुई उत्तेजना को यहाँ-वहाँ फैलने की बजाय संवैधानिक ढंग से प्रचार करने के लिए यह कदम आवश्यक था। छूम महोदय जानते थे कि भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध घोर असन्तोष है और इस असन्तोष का भयंकर विस्फोट हो सकता है। अत: ह्यूम भारतीयों की क्रान्तिकारी भावनाओं को वैधानिक प्रवाह में परिणित करने के लिए अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करना चाहता था। किन्तु लाला लाजपतराय ने कांग्रेस की स्थापना के बारे में लिखा है, “कांग्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को खतरे से बचाना था, भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करना नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य का हित प्रमुख था और भारत का गौण।”
आधुनिक अनुसन्धानों ने यह सिद्ध कर दिया कि ह्यूम एक जागरूक साम्राज्यवादी था। वह शासक और शासित वर्ग के बीच बढ़ती हुई खाई से चिन्तित था। कांग्रेस की स्थापना का दूसरा पहलू यह भी है कि उस समय की राष्ट्रव्यापी हलचलें, देशभक्ति की भावना, विभिन्न वर्गों में व्याप्त बेचैनी, ब्रिटेन की लिबरल पार्टी से भारतीयों को निराशा और विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने इसकी भूमिका तैयार करने में योगदान दिया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य गुप्त योजना था, किन्तु कांग्रेस की पृष्ठभूमि के आधार पर यह तर्कपूर्ण मत नहीं है।
कांग्रेस की स्थापना में ह्यूम को लॉर्ड रिपन और लॉर्ड डफरिन का भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था। डफरिन अथवा रिपन के उद्देश्य जो भी कुछ रहे हों, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि छूम महोदय एक सच्चे उदारवादी थे और वे एक राजनीतिक संगठन की आवश्यकता तथा वांछनीयता अनुभव करते थे। उन्होंने एक खुला पत्र कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय के स्नातकों को लिखा। इसमें उन्होंने लिखा था, “बिखरे हुए व्यक्ति कितने ही बुद्धिमान तथा अच्छे आशय वाले क्यों न हों, अकेले तो शक्तिहीन ही होते हैं। आवश्यकता है संघ की, संगठन की और कार्यवाही के लिए एक निश्चित और स्पष्ट प्रणाली की।” ह्यूम ने इण्डियन नेशनल कांग्रेस के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी व्यक्तियों की सहानुभूति तथा सहायता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह इंग्लैण्ड तथा भारत के सम्मिलित मस्तिष्क की उपज थी।
प्रथम अधिवेशन में देश के विभिन्न भागों से आए हुए 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिसमें सभी जातियों, सम्प्रदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व था। कुछ समय पश्चात् ही सरकार से कांग्रेस का टकराव हो गया और लॉर्ड डफरिन ने कांग्रेस को ‘पागलों की सभा’, ‘बाबुओं की संसद’, ‘बचकाना’ कहना प्रारम्भ किया। कर्जन (1899-1905 ई०) ने कांग्रेस की आलोचना करते हुए लिखा है कि “मेरा यह अपना विश्वास है कि कांग्रेस लड़खड़ाती हुई पतन की ओर जा रही है और एक महान् आकांक्षा यह है। कि भारत में रहते समय उसकी शान्तिमय मौत में मैं सहायता दे सकें।” हालाँकि कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य के लिए रक्षा नली (Safety valve) के रूप में हुई थी, किन्तु जल्दी ही इसकी राजभक्ति राजद्रोह में बदल गई। समाज सुधार के नाम पर यह राजनीति माँगों को लेकर आगे बढ़ी और इसका परिणाम देश की आजादी के रूप में हुआ।