UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 6 Shivaji (शिवाजी)
UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 6 Shivaji (शिवाजी)
अभ्यास
प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1627 ई०
2.1659 ई०
3.1674ई०
4.1680 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 118 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 118 का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 119 का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 119 का अवलोकन कीजिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मराठों के उदय के चार कारण लिखिए।
उतर:
मराठों के उदय के चार कारण निम्नवत हैं
- महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति
- मराठा धर्म सुधारकों का प्रभाव
- मराठों की सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्षता
- औरंगजेब की दक्षिण नीति।
प्रश्न 2.
पुरन्दर की सन्धि के बारे में आप क्या जानते हैं?
उतर:
पुरन्दर की सन्धि शिवाजी और मुगलों के मध्य हुई थी। शिवाजी ने इस सन्धि में 35 में से 23 दुर्ग मुगलों को दे दिए। शिवाजी ने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया परन्तु अपने स्थान पर अपने पुत्र शम्भाजी को 5000 घुड़सवारों के साथ मुगलों की सेवा में भेज दिया। शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान के विरुद्ध मुगलों को सैनिक सहायता देना स्वीकार किया। इस सन्धि से मुगलों को बहुत लाभ पहुँचा।
प्रश्न 3.
शिवाजी के राजनैतिक आदर्श क्या थे?
उतर:
हिन्दू-पद-पादशाही, धर्मशास्त्र की पुस्तकें और कोटिल्य का अर्थशास्त्र’ शिवाजी के राजनैतिक आदर्श थे।
प्रश्न 4.
शिवाजी की किन्हीं दो विजयों का वर्णन कीजिए।
उतर:
- जावली विजय- सन् 1656 ई० में शिवाजी ने जावली पर विजय प्राप्त की। जावली एक मराठा सरदार चन्द्रराव के अधिकार में था। वह शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर राज्य से मिला हुआ था। शिवाजी ने चन्द्रराव की हत्या कर किले पर अधिकार कर लिया। इससे उनका राज्य–विस्तार दक्षिण-पश्चिम की ओर सम्भव हो सका।।
- कोंकण विजय- जावली की विजय के उपरान्त शिवाजी ने कोंकण की ओर दृष्टिपात किया और उत्तरी कोंकण तथा भिवण्डी के दुर्गों पर अधिकार करके उन्होंने कोंकण में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। उत्तरी कोंकण के पश्चात दक्षिणी कोंकण पर भी उनका अधिकार हो गया जिससे उनका राज्य समुद्री तटों तक विस्तृत हो गया।
प्रश्न 5.
शिवाजी ने अफजल खाँ की हत्या क्यों की?
उतर:
अफजल खाँ शिवाजी को छलपूर्वक परास्त करना चाहता था। शिवाजी अफजल खाँ के मन्तव्य को जान चुका था। जब शिवाजी,
अफजल खाँ के व्यक्तिगत मुलाकात के निमन्त्रण पर उससे मिलने के लिए उनके पास पहुँचा तो उसने आगे बढ़कर शिवाजी का स्वागत किया और शिवाजी को अपनी बाँहों में दबोचकर तलवार से वार किया। शिवाजी ने अफजल खाँ के कुचक्र को समझते
हुए बहुत ही चालाकी और साहसिक ढंग से अफजल खाँ का वध कर दिया।
प्रश्न 6.
शिवाजी ने शाइस्ता खाँ पर आक्रमण क्यों कर दिया?
उतर:
औरंगजेब ने दक्षिण में मराठों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ को आदेश दिए। शाइस्ता खाँ ने बीजापुर के साथ मिलकर शिवाजी से पूना, चाकन और कल्याण को छीनने में सफलता प्राप्त की। इन पराजयों से शिवाजी की शक्ति कमजोर पड़ गई। मराठा सेना का उत्साह बढ़ाने के लिए शिवाजी ने एक दिन रात्रि के समय पूना में शाइस्ता खाँ के शिविर पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया।
प्रश्न 7.
शिवाजी के अष्टप्रधान के विषय में आप क्या समझते हैं?
उतर:
शिवाजी ने अपनी शासन-व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए आठ मन्त्रियों की एक परिषद् का गठन किया जो ‘अष्टप्रधान’ के नाम से सम्बोधित की जाती थी। केवल सेनापति के अलावा अन्य सभी मन्त्रिगण ब्राह्मण होते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट के द्वारा की जाती थी तथा वे सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। इन मंत्रियों द्वारा कार्य कराने का भार भी सम्राट पर ही था।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मुगलकाल में मराठों को एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफलता क्यों मिली?
उतर:
मुगलकाल में मराठों को एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफलता मिलने के निम्नलिखित कारण हैं
1. महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति- महाराष्ट्र की भौगोलिक परिस्थितियों ने मराठा शक्ति के उत्कर्ष में उल्लेखनीय सहायता की। महाराष्ट्र का अधिकांश भाग पठारी है। जहाँ जीवन की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता है। इस कारण वहाँ के निवासी परिश्रमी और साहसी होते हैं। वहाँ आक्रमणकारी के लिए बहुत कठिनाइयाँ थीं तथा सेना को लेकर चलना तथा उसके लिए रसद प्राप्त करना कठिन था, जबकि सुरक्षा के लिए वहाँ अनेक सुविधाएँ थीं। स्थान-स्थान पर सरलता से पहाड़ी किले बनाए जा सकते थे, जिनकी सुरक्षा करना सरल था, परन्तु उनको जीतना कठिन था। गुरिल्ला युद्ध-पद्धति अथवा छापामार रणनीति का प्रयोग वहाँ सरलता से सम्भव था। इसके अतिरिक्त भारत के बीच में स्थित होने के कारण वहाँ के निवासियों के लिए उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं में अपनी प्रगति करने की सुविधा थी।
2. आर्थिक पृष्ठभूमि- आर्थिक दृष्टि से महाराष्ट्र के निवासियों में आर्थिक असमानताएँ न थी। व्यापारी वर्ग के अतिरिक्त वहाँ धनी वर्ग के व्यक्ति अधिक न थे। इसका कारण था- आर्थिक शोषण करने वाले वर्ग का अभाव। इससे महाराष्ट्र निवासियों का चरित्र दृढ़ बना, वे परिश्रमी और साहसी बने, उनमें समानता की भावना जगी, वे छोटे और बड़े की भावना से रहित हुए तथा वे उस भोग-विलास से दूर ही रहते थे, जिसके कारण उत्तर भारत के समाज का नैतिक पतन हो रहा था।
3. भाषा और साहित्य का योगदान- भाषा की दृष्टि से मराठी भाषा बहुत सरल और व्यावहारिक थी। इस जनसाधारण की भाषा के प्रयोग से महाराष्ट्र के निवासियों में एकता और समानता पनपी। सन्त तुकाराम के पद बिना भेदभाव के गाए जाते थे। इस प्रकार धार्मिक साहित्य ने लोगों के मध्य अप्रत्यक्ष रूप से एकता स्थापित कर दी थी। सर जदुनाथ सरकार के अनसार, शिवाजी द्वारा किए गए राजनीतिक संगठन से पर्व ही महाराष्ट्र में एक भाषा, एक रीति-रिवाज और एक ही प्रकार के समाज का निर्माण हो चुका था।
4. मराठा धर्मसुधारकों का प्रभाव- मराठों में स्वदेश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना जगाने में महाराष्ट्र के धर्मसुधारकों का महत्वपूर्ण योगदान था। महाराष्ट्र धर्म-सुधार आन्दोलन का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, तुकाराम, संत रामदास और बामन पंडित जैसे विचारक और सुधारक हुए, जिन्होंने मराठों में जागृति ला दी। जनसाधारण की भाषा का सहारा लेकर इन लोगों ने घर-घर में अपनी बात पहुँचाई। शिवाजी के गुरु रामदास समर्थ ने अनेक मठों की स्थापना कर, ‘दसबोध’ नामक ग्रन्थ की रचना की और मठों में नवचेतना का संचार किया।
5. सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्षता- अहमदनगर, गोलकुण्डा व बीजापुर जैसे मुस्लिम राज्यों में लम्बे समय तक उच्च सैनिक व प्रशासनिक पदों पर कार्य करते रहने से मराठा, सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्ष हो गए थे, जिसका उन्हें कालान्तर में काफी लाभ मिला।
6. औरंगजेब की दक्षिण नीति- औरंगजेब ने उत्तर भारत को विजित करने के बाद दक्षिण भारत को विजित करने का निर्णय लिया। इसे देखकर समस्त मराठा शक्ति संगठित हो गई और उन्होंने मुगलों से संघर्ष करने का निर्णय किया। इसका मुख्य कारण उनका दक्षिण में पर्याप्त प्रभावशाली होना था। औरंगजेब का आक्रमण उनके इस प्रभाव को खत्म कर सकता था। यदि वे औरंगजेब की सत्ता को स्वीकार भी करते, तो औरंगजेब की धर्मान्ध नीति के कारण उन्हें वे उच्च पद व सुविधाएँ मिलने की सम्भावना बिलकुल ही नगण्य थी, जो कि उन्हें दक्षिण के दुर्बल व विलासी मुसलमान शासकों से मिल रही थी। यह एक व्यावहारिक कारण था, जिसने शिवाजी के नेतृत्व में मराठों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया।
7. मराठों का उच्च चरित्र- मराठों के उच्च चरित्र ने भी उनके उत्कर्ष में सहायता की। उनके अन्दर साहस, एकता, परिश्रम, नैतिकता, राष्ट्र-प्रेम आदि गुण मौजूद थे।
8. भक्ति व धर्म-सुधार आन्दोलन- 15वीं व 16वीं शताब्दी के धर्म व भक्ति आन्दोलनों ने सामाजिक व धार्मिक धार्मिक करके मराठों में जातीय एकता की भावना भर दी, जिसने उन्हें शक्तिशाली बना दिया। इतिहासकार रानाडे के अनुसार महाराष्ट्र की राजनीति में उत्पन्न उथल-पुथल का प्रमुख कारण धार्मिक-आन्दोलन था। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम व रामदास जैसे सन्तों ने मराठों में राष्ट्रीय भावना का संचार कर दिया।
9. दक्षिणी मुसलमानों का पतन- दक्षिण के मुसलमान शासकों का कुछ तो नैतिक पतन हो चुका था। वे शासन की जिम्मेदारी मराठों को सौंपकर भोग-विलास में डूबे रहते थे, जिससे मराठों ने शासन के महत्वपूर्ण पदों को कब्जे में करके सैन्य संचालन व प्रशासन को अपने हाथों में ले लिया था। तत्पश्चात् दिल्ली के मुगल शासकों विशेष रूप से औरंगजेब की दक्षिण नीति के कारण कई दक्षिणी मुसलमान राज्य औरंगजेब के हाथों में चले गए थे। उसने अहमदनगर पर विजय पाने के बाद गोलकुण्डा व बीजापुर को जीतने का प्रयास किया। दक्षिण के मुसलमान शासकों की दुर्बल स्थिति को देखकर मराठों ने कई महत्वपूर्ण दुर्ग अपने हाथों में ले लिए और स्वतंत्र मराठा राज्य के स्वप्न को साकार करने का सफल प्रयास किया।
प्रश्न 2.
शिवाजी की उपलब्धियों का विवरण दीजिए।
उतर:
शिवाजी ने सबसे पहले 1646 ई० में बीजापुर के तोरण नामक पहाड़ी किले पर अधिकार कर लिया। इस किले में उन्हें भारी खजाना मिला, जिसकी सहायता से शिवाजी ने अपनी सेना में वृद्धि की तथा तोरण के किले से पाँच मील पूर्व में रायगढ़ नामक नया किला बनवाया। इससे शिवाजी की शक्ति में वृद्धि हुई। इसके बाद धीरे-धीरे उन्होंने चोकन, कोंडाना, पुरन्दर, सिंहगढ़ आदि किलों पर अधिकार कर लिया। शिवाजी की प्रगति को देखते हुए बीजापुर के सुलतान ने उनके पिता शाहजी भोंसले को 1648 ई० में कैद कर लिया और तभी छोड़ा जब शाहजी के पुत्र शिवाजी तथा व्यंकोजी ने बंगलौर (बंगलुरु) और कोंडाना के किले सुल्तान के आदमियों को वापस कर दिए।
इससे शिवाजी की गतिविधियाँ कुछ समय के लिए रुक गईं। 1656 ई० में शिवाजी की एक महत्वपूर्ण विजय जावली की थी। जावली एक मराठा सरदार चन्द्रराव के अधिकार में था और वह शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर राज्य से मिला हुआ था। शिवाजी ने चन्द्रराव की हत्या कर दी और किले पर अधिकार कर लिया। इससे उनका राज्य–विस्तार दक्षिण-पश्चिम की ओर सम्भव हो सका। शिवाजी की उपलब्धियों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है
1. मुगलों के साथ प्रथम मुठभेड़- 1657 ई० में शिवाजी का मुकाबला पहली बार मुगलों से हुआ। दक्षिण के सूबेदार शहजादा औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण किया और बीजापुर ने शिवाजी से सहायता माँगी। यह अनुभव करके कि दक्षिण में मुगलों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकना आवश्यक है, शिवाजी ने बीजापुर की सहायता करने के उद्देश्य से मुगलों के दक्षिण-पश्चिम भाग पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। इसी समय शिवाजी ने जुन्नार को लूटा और स्थान-स्थान पर आक्रमण करके मुगलों को तंग किया। परन्तु जब बीजापुर ने मुगलों से संधि कर ली तब शिवाजी ने मुगलों पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिए। उत्तराधिकार के युद्ध के कारण मुगलों को प्राय: दो वर्ष तक दक्षिण भारत की ओर ध्यान देने का अवकाश न मिल सका।।
2. बीजापुर से संघर्ष- औरंगजेब के उत्तर भारत चले जाने के बाद शिवाजी ने फिर से देश विजय का सिलसिला शुरू कर दिया और इस बार उनका लक्ष्य बीजापुर के प्रदेश थे। उन्होंने पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच पड़ने वाले कोंकण क्षेत्र पर जोरदार हमला किया और उसके उत्तरी हिस्से को जीत लिया। उन्होंने कई और पहाड़ी किलों पर भी कब्जा कर लिया, जिससे बीजापुर ने उनके खिलाफ कड़ा कदम उठाने का फैसला किया। 1659 ई० में बीजापुर ने दस हजार सैनिकों के साथ अफजल खाँ नामक एक प्रमुख बीजापुरी सरदार को शिवाजी के खिलाफ भेजा और उसे निर्देश दिया कि चाहे जिस तरह भी करो पर उसे बंदी बना लो। उन दिनों ऐसे मौकों पर धोखेबाजी खूब चलती थी। अफजल खाँ और शिवाजी पहले भी कई बार धोखेबाजी का सहारा ले चुके थे।
शिवाजी के सैनिक खुली लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे और अफजल खाँ की विशाल सेना देखकर वह ठिठक गए। अफजल खाँ ने शिवाजी को व्यक्तिगत मुलाकात के लिए निमन्त्रण भेजा और यह वादा किया कि वह उसे बीजापुर के सुल्तान से माफी दिलवा देगा। लेकिन शिवाजी को पूरा शक था कि वह अफजल खाँ की चाल थी, इसलिए वे भी पूरी तैयारी के साथ उसके शिविर में आ गए और चालाकी से, लेकिन साथ ही बहुत साहसिक ढंग से, उसे मार डाला। अब उन्होंने अफजल खाँ की नेतृत्वविहीन सेना पर आक्रमण करके उसके पैर उखाड़ दिए और उसके सारे साज-सामान पर, जिसमें तोपखाना भी शामिल था, अधिकार कर लिया। इस विजय से प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने दक्षिण कोंकण, पन्हाला और कोल्हापुर जिले में अपनी सेनाएँ भेजकर उन्हें विजित कर लिया।
3. शिवाजी और शाइस्ता खाँ- औरंगजेब ने दक्षिण में मराठों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए 1660 ई० में मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ को शिवाजी को समाप्त करने के आदेश दिए। उसने बीजापुर राज्य से मिलकर शिवाजी को समाप्त करने की योजना बनाई और शिवाजी से पूना, चाकन और कल्याण को छीनने में सफलता प्राप्त की। इन पराजयों से शिवाजी की शक्ति कमजोर पड़ी। मराठा सेना का उत्साह बढ़ाने के उद्देश्य से शिवाजी ने एक दु:साहसिक कदम उठाया। 1663 ई० में एक रात्रि में उन्होंने पूना में शाइस्ता खाँ के शिविर पर आक्रमण कर उसे जख्मी कर दिया एवं उसके एक पुत्र तथा सेनानायक को मार दिया। शाइस्ता खाँ को भागकर अपने प्राणों की सुरक्षा करनी पड़ी। इस पराजय से मुगल प्रतिष्ठा को जहाँ ठेस पहुँची वहीं शिवाजी की प्रतिष्ठा पुन: बढ़ गई तथा मुगलों पर पुनः आक्रमण आरम्भ हो गए।
4. सूरत की प्रथम लूट (1664 ई०)- शाइस्ता खाँ पर विजय से प्रोत्साहित होकर 1664 ई० में शिवाजी ने मुगलों के बन्दरगाह नगर सूरत पर धावा बोल दिया। मुगल बादशाह और उनके सामन्त सूरत से जाने वाले मालवाहक जहाजों में आमतौर से पूँजी निवेश करते थे। शिवाजी के इस आक्रमण से मुगल किलेदार भाग खड़ा हुआ। शिवाजी ने चार दिन तक सूरत को अच्छी तरह लूटा, जिसमें एक करोड़ रुपए से अधिक राशि का माल तथा बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त हुईं।
5. मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी- शाइस्ता खाँ की विफलता के बाद औरंगजेब ने शिवाजी का दमन करने के लिए आम्बेर के राजा जयसिंह को भेजा। जयसिंह औरंगजेब के सबसे विश्वस्त सलाहकारों में से था। उसे पूरी प्रशासनिक और सैनिक स्वायत्तता प्रदान की गई, जिससे उसे दक्कन में मुगल प्रतिनिधि पर किसी प्रकार निर्भर न रहना पड़े। उसका सीधा सम्बन्ध सम्राट से था। पहले के सेनापतियों की तरह जयसिंह ने मराठों की शक्ति को कम आँकने की भूल नहीं की। जयसिंह ने शिवाजी को अकेला करने के लिए पहले उनके प्रमुख सेनापतियों को प्रलोभन दिया। उसने शिवाजी को कमजोर करने के लिए उनकी पूना की जागीर के आसपास के गाँवों को तहस-नहस कर दिया। यूरोप की व्यापारी कम्पनियों को भी मराठा नौ-सेना की किसी भी कार्यवाही को रोकने के निर्देश दे दिए गए। अन्ततः जयसिंह ने पुरन्दर के दुर्ग की घेराबन्दी (1665 ई०) कर दी और मराठों को झुकना पड़ा। उसके बाद दोनों पक्षों के बीच पुरन्दर की सन्धि हुई।
6. शिवाजी का मुगल दरबार में जाना- पुरन्दर की सन्धि शिवाजी के लिए कष्टदायक थी, तथापि परिस्थिति के अनुसार उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। जयसिंह के अनुरोध पर शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए। आगरा में शिवाजी का यथोचित सम्मान नहीं किया गया और उनसे पंचहजारी मनसबदारों में खड़े होने को कहा गया। शिवाजी के विरोध करने पर औरंगजेब ने उन्हें नजरबन्द कर लिया। औरंगजेब के इरादों को भाँपकर शिवाजी पहरेदारों को धोखा देकर अपने पुत्र के साथ आगरा से निकल गए और सकुशल महाराष्ट्र वापस लौट गए। मराठा इतिहासकारों ने इस घटना को बहुत महत्वपूर्ण माना है। डॉ० सरदेसाई ने तो लिखा है कि “इस घटना से ही मुगल साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो जाता है।” महाराष्ट्र लौटने के पश्चात् शिवाजी कुछ वर्षों तक शान्त रहे। इस बीच उन्होंने औरंगजेब से समझौता भी कर लिया।
औरंगजेब ने उन्हें बाबर की जागीर एवं ‘राजा’ की उपाधि दी तथा उनके पुत्र को पाँच हजारी मनसब का पद दिया। शिवाजी का औरंगजेब के साथ यह समझौता एक कूटनीतिक चाल थी। औरंगजेब बीजापुर और गोलकुण्डा को समाप्त करने के लिए समय चाहता था तो शिवाजी अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए। इस बीच दक्षिण में मुगलों की दुर्बल स्थिति को देखते हुए शिवाजी ने अपने खोए हुए दुर्गों को पुनः वापस प्राप्त करने के लिए प्रयास आरम्भ कर दिया। 1670 ई० से मराठा मुगल सम्बन्ध पुनः कटु हो गए। शहजादा मुअज्जम और दिलेर खाँ के आपसी मनमुटाव का लाभ उठाकर शिवाजी ने मुगलों से अनेक किले वापस छीन लिए। उन्होंने सूरत पर दुबारा आक्रमण कर उसे लूटा और 1670 ई० में वहाँ से चौथ वसूल की। 1670-74 ई० के बीच उन्होंने पुरन्दर, पन्हाला, सतारा एवं अनेक दुर्गों को वापस ले लिया और मुगलों तथा बीजापुर के सुल्तान को परेशान किया।
7. शिवाजी का राज्याभिषेक- 1674 ई० तक शिवाजी की शक्ति और उनका प्रभाव-क्षेत्र अत्यधिक विकसित हो चला था। अतः 15 जून, 1674 में उन्होंने बनारस के विद्वान पण्डित गंगाभट्ट के हाथों अपना राज्याभिषेक करवाया और छत्रपति की उपाधि धारण की तथा भगवा-ध्वज उनका झण्डा बना एवं रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। शिवाजी के राज्याभिषेक को सत्रहवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना माना गया है, इससे न केवल मराठा नेताओं के ऊपर शिवाजी का वर्चस्व कायम हुआ बल्कि उनका शासक के रूप में पद ऊँचा हुआ और उन्होंने मुगलों के विरोध में हिन्दू राजतन्त्र की खुलकर घोषणा की। समारोह से पहले शिवाजी ने कई महीनों तक मन्दिरों में पूजा की, जिसमें चिपलुण में परसराम मन्दिर और प्रतापगढ़ में भवानी मन्दिर शामिल हैं। अब शिवाजी एक जागीरदार अथवा लुटेरा मात्र नहीं थे, बल्कि मराठा राज्य के संस्थापक बन गए।
शासक के रूप में शिवाजी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य था- कर्नाटक में अपनी शक्ति का विस्तार करना। उन्होंने बीजापुर के विरुद्ध गोलकुण्डा से सन्धि (1677 ई०) कर ली। बीजापुरी कर्नाटक क्षेत्र को अबुल हसन कुतुबशाह और शिवाजी ने आपस में बाँट लेने का फैसला किया। अबुल हसन ने शिवाजी को एक लाख हून प्रतिवर्ष कर देने एवं एक मराठा प्रतिनिधि को अपने दरबार में रखने एवं सैनिक सहायता देने का भी आश्वासन दिया। इस सन्धि से शिवाजी की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। प्रायः एक वर्ष के समय में ही शिवाजी ने बीजापुर के जिंजी और वैल्लोर पर कब्जा कर लिया। इसके अतिरिक्त तुंगभद्रा से कावेरी नदी के बीच का इलाका भी उन्होंने जीत लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इसमें से सन्धि के अनुसार गोलकुण्डा को कोई हिस्सा नहीं दिया तथा पुनः बीजापुर को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया।
प्रश्न 3.
शिवाजी की शासन-व्यवस्था निम्नलिखित शीर्षकों के अनुसार समझाइए
(क) केन्द्रीय प्रशासन,
(ख) सैन्य प्रशासन
(ग) भूमि प्रशासन
उतर:
(क) केन्द्रीय प्रशासन
1. राजा- मध्ययुग के अन्य शासकों की भाँति शिवाजी एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न निरकुंश शासक थे। राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उनमें केन्द्रित थीं। उनके अधिकार असीमित थे। वहीं राज्य के प्रशासकीय प्रधान, मुख्य न्यायधीश, कानून निर्माता और सेनापति थे। परन्तु शिवाजी ने अपनी शक्तियों का प्रयोग निरंकुश तानाशाही के लिए नहीं किया बल्कि जनहितार्थ किया। इतिहासकार रानाडे के शब्दों में, “शिवाजी नेपोलियन की भाँति एक महान संगठनकर्ता और असैनिक प्रशासन के निर्माणकर्ता थे।’
2. अष्टप्रधान- शिवाजी की सहायता के लिए आठ मन्त्रियों की एक परिषद् होती थी जो ‘अष्टप्रधान’ के नाम से सम्बोधित की जाती थी। केवल सेनापति के अतिरिक्त अन्य सभी मन्त्रिगण ब्राह्मण होते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी तथा वे सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी थे। इन मन्त्रियों से कार्य कराने का भार भी स्वयं सम्राट पर ही था।
शिवाजी ने इन मन्त्रियों को अपने विभागों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की थी वरन् सरलतापूर्वक कार्य विभाजन के लिए इन मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनके निरीक्षण एवं निर्देशन का भार शिवाजी पर ही था। आठ में से छह मन्त्रियों को समय पड़ने पर युद्धभूमि में जाना पड़ता था। शिवाजी यद्यपि इन मन्त्रियों से इनके विभागीय कार्यों के लिए परामर्श लेते थे, किन्तु उनको मानने के लिए वे बाध्य नहीं थे वरन् जिस बात को वे उचित समझते थे, वही करते थे। इस प्रकार का निरंकुश शासन तभी तक सफल रह सकता था, जब तक कि राजा योग्य हो। शिवाजी की मन्त्रिपरिषद् में निम्नलिखित पद थे
- प्रधानमन्त्री एवं पेशवा- मुगल सम्राटों के वजीर के समान शिवाजी के राज्य में पेशवा का स्थान था। वह अन्य सभी विभागों तथा मन्त्रियों पर निगरानी रखता था तथा राजा की अनपुस्थिति में राज्य के कार्यों की देखभाल करता था। राजकीय पत्रों पर राजा की मुहर के नीचे उसकी मुहर होती थी तथा प्रजा की सुख सुविधाओं का ध्यान रखना उसका कर्तव्य था।
- मजमुआदार अथवा अमात्य- आय तथा व्यय का निरीक्षण करना तथा सम्पूर्ण राज्य की आय का ब्यौरा रखना अमात्य का कार्य होता था।
- वाकयानवीस अथवा मन्त्री- राजदरबार में घटित होने वाली घटनाओं तथा राजा के कार्यों का ब्यौरा रखना मन्त्री का कार्य था। वह राजा के विरुद्ध रचित षड्यन्त्रों एवं कुचक्रों का पता लगाता था, उसके खाने-पीने की वस्तओं का निरीक्षण करता था तथा राजमहल का प्रबन्ध करता था।
- सचिव- सम्राट के पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना सचिव का कार्य था। सचिव महल तथा परगनों के लेखों का निरीक्षण करता था तथा राज्य के पत्रों पर मुहर लगाता था।
- सुमन्त- बाह्य नीति में राजा को परामर्श देने वाला मन्त्री सुमन्त कहलाता था। अन्य राजाओं के राजदूतों से भेंट करना तथा पड़ोसी राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना भी उसे रखनी पड़ती थी।
- सेनापति- सेना का अध्यक्ष सेनापति होता था, जिसका कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैन्य-व्यवस्था करना, सैनिकों को प्रशिक्षण देना तथा सेना में अनुशासन बनाए रखना होता था। युद्धभूमि में भेजने के लिए वह
सैनिकों का चयन भी करता था। - पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष- धार्मिक कार्यों के लिए दान, धार्मिक उत्सवों का प्रबन्ध, ब्राह्मणों को दान देना तथा धर्म विरोधियों को दण्ड देना पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष का कर्तव्य था। वह जन-आचरण निरीक्षण विभाग का प्रधान होता था। धर्म-संस्थाओं तथा साधु-सन्तों को दान देने के विषय में भी वही निर्णय लेता था।
- न्यायाधीश- दीवानी, फौजदारी तथा सैन्य सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय करने के लिए न्यायाधीश सबसे बड़ा अधिकारी होता था। यह न्यायाधीश प्रायः हिन्दू रीति-रिवाजों एवं प्राचीन धर्मशास्त्रों के आधार पर निर्णय करता था।
अष्टप्रधान की स्थापना का निर्णय शिवाजी ने एक समय पर अथवा अपने राज्याभिषेक के समय नहीं किया वरन् इसका विकास क्रमशः हुआ तथा शिवाजी आवश्यकता के अनुसार इन मन्त्रिगणों की संख्या में वृद्धि करते रहे। अन्त में उनकी अष्टप्रधान सभा का पूर्ण विकसित रूप उनके ‘छत्रपति बनने के पश्चात ही दृष्टिगोचर हुआ।
(ख) सैन्य प्रशासन- शिवाजी ने सेना के बल पर ही एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था तथा साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उन्होंने एक सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ सेना का संगठन किया। शिवाजी के पास एक स्थायी सेना थी, जिसमें 10000 पैदल, 30000 से लेकर 45000 तक घुड़सवार, 1160 हाथी, लगभग 3000 ऊँट और 500 तोपें थीं। उनकी मृत्यु के समय उनकी अनुशासित एवं व्यवस्थित सेना की संख्या 1 लाख थी, जिसमें, 20000 मावले पैदल सैनिक, 45000 राज्य के घुड़सवार तथा 60000 सिलहदार थे। उनके पास लगभग 3000 हाथी तथा 32000 घोड़े इसके अतिरिक्त थे।
शिवाजी से पूर्व सैनिक 6 महीने कृषि करते थे तथा 6 महीने सेना में रहते थे परन्तु शिवाजी ने स्थायी सेना की व्यवस्था की तथा विश्रृंखलित मराठों को एकत्रित करके एक राष्ट्रीय सेना का रूप प्रदान किया। जागीरदारी प्रथा को हटाकर उन्होंने सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की, जिससे सम्राट तथा सेना में प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो सका तथा शिवाजी के मराठा सैनिक अपने नेता के इशारे पर प्राण न्योछावर करने को प्रस्तुत रहने लगे। घोड़े दगवाने तथा घुड़सवारों का हुलिया लिखवाने की प्रथा को प्रचलित किया गया। उनकी सेना में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों वर्गों के व्यक्तियों को समान रूप से स्थान प्राप्त था तथा अनेक मुसलमान सैनिकों ने बड़ी स्वामीभक्ति के साथ उत्कृष्ट कार्य किए थे।
1. सेना में अनुशासन की व्यवस्था- शिवाजी ने अपनी सेना में कठोर अनुशासन की व्यवस्था की थी। सेना को उसका पालन करना अनिवार्य था अन्यथा उन्हें कठोर दण्ड के लिए तैयार रहना पड़ता था। इसका प्रभाव सेना पर यह हुआ कि सेना हमेशा अनुशासित रहती थी। वर्षा ऋतु के पश्चात् सैनिक मुगल प्रदेशों पर आक्रमण करके उनसे चौथ व सरदेशमुखी कर वसूलते थे। शिवाजी के आदेशानुसार शत्रु-पक्ष के बच्चों व स्त्रियों पर अत्याचार करने की बिल्कुल मनाही थी। उन्हें सम्मानपूर्वक वापस भेजने की व्यवस्था थी। सैनिक राज्य के कृषक व ब्राह्मणों पर बिलकुल भी अत्याचार नहीं कर सकते थे। लूटे गए माल को सम्पूर्ण रूप से पदाधिकारियों को देने का आदेश था, जिसे शिवाजी के राजकोष में संगृहीत कर दिया जाता था। नियमित वेतन के अलावा सैनिक किसी से भी रिश्वत नहीं ले सकता था अन्यथा कठोर दण्ड मिलता था। शिवाजी अपने नियमों को कठोरतापूर्वक पालन करवाते थे।
2. घुड़सवार सेना- किसी भी राजा की प्रमुख सेना घुड़सवार सेना होती है। यह सेना का प्रमुख अंग होती है। शिवाजी की भी सेना का मुख्य अंग घुड़सवार सेना थी। इसके दो भाग थे- बारगीर व सिलहदार। बारगीर वर्ग के सैनिकों को राज्य की ओर से घोड़े व अस्त्र-शस्त्रों की व्यवस्था थी परन्तु सिलहदारों को अस्त-शस्त्र व घोड़े खरीदने पड़ते थे। इसके लिए उन्हें एक निश्चित धनराशि दी जाती थी। बारगीर मासिक वेतन प्राप्त करते थे। 25 घुड़सवारों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा 10 जुमलादारों पर एक हजारी होता था, जिसे 1 हजार हून वार्षिक मिलते थे। सर-ए-नौबत या सेनापति घुड़सवारों का प्रधान था।
3. पैदल सेना- सेना की दूसरी प्रमुख शाखा पैदल सेना थी। पैदल सेना का भी विभाजन घुड़सवार सेना के समान था। साधारण सैनिक नायक के अधीन होते थे। 5 नायकों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर 1 जुमलादार, 10 जुमलादारों पर 1 हजारी तथा 7 हजारियों पर सर-ए-नौबत अथवा सेनापति होता था। शिवाजी के पास 20,000 मावलों की अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित सेना थी।
4. जलसेना- शिवाजी ने एक जलसेना का भी संगठन किया, जिससे जंजीरा के अबीसीनियन सिद्दियों को भी पराजित किया जा सके। सन् 1680 ई० में उन्होंने एक युद्ध में शत्रु पक्ष को बुरी तरह पराजित भी किया था। कोलाबा उनकी जलसेना का प्रमुख अड्डा था, जिसमें शिवाजी की 200 जहाजों की सेना रहती थी। जहाजी बेड़े का संचालन अधिकांशतः मुसलमान पदाधिकारियों के हाथ में था। लेकिन शिवाजी की जलसेना अधिक शक्तिशाली अथवा कुशल नहीं थी। फिर भी शिवाजी के पश्चात भी आंग्रे के अधीन मराठों की जल-सेना 18 वीं शताब्दी तक अंग्रेजों एवं पुर्तगालियों के लिए भय का कारण बनी रही।
5. युद्ध-पद्धति- शिवाजी ने मुगलों से सर्वथा भिन्न युद्ध-पद्धति को अपनाया। मुगल सेनापति तथा अन्य पदाधिकारी अत्यन्त विलासी होते थे। वे युद्धभूमि में भी भारी सामान के साथ चलते थे तथा युद्ध में विजय प्राप्त करने की अपेक्षा उन्हें निजी स्वार्थ का अधिक ध्यान रहता था। इसके विपरीत, मराठा सैनिकों को कष्ट सहन करने की आदत डाली जाती थी। वे टट्टओं पर सवार होकर मुट्ठी भर चने के साथ सरदार की आज्ञा प्राप्त होते ही चल पड़ते थे तथा उनको एकत्रित होने में विलम्ब नहीं लगता था। छोटी-छोटी टुकड़ियाँ होने के कारण उनके सैन्य-संचालन में विशेष असुविधा नहीं होती थी। उनके अस्त्र-शस्त्र भी हल्के होते थे तथा सामान न के बराबर होता था। महाराष्ट्र की प्राकृतिक स्थिति छापामार रण-पद्धति के सर्वथा अनुकूल थी तथा इसी पद्धति के कारण शिवाजी मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हो सके।
6. दुर्गों की व्यवस्था- शिवाजी ने दुर्गों के महत्व पर अत्यधिक बल दिया था। दुर्ग शत्रु आक्रमणकारियों से सुरक्षित रहने के महत्वपूर्ण साधन थे। मराठा सैनिक दुर्गों की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे तथा माता के समान उनकी पूजा करते थे। दुर्गों के निकटवर्ती प्रदेशों के निवासियों को संकटकाल में दुर्गों में ही शरण प्राप्त होती थी। शिवाजी के राज्य में 240 दुर्ग थे। उन्होंने कुछ नए दुर्गों का भी निर्माण करवाया तथा प्राचीन दुर्गों का जीर्णोद्वार करवाकर उन्हें सुदृढ़ बनवाया। प्रत्येक महत्वपूर्ण घाटी अथवा पहाड़ी पर उन्होंने सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया, जो मराठा सैनिकों की रक्षा करने के लिए उत्तम शरणस्थल थे।
शिवाजी के राज्य की जीवन-शक्ति यही दुर्ग थे। उन्होंने प्रत्येक दुर्ग की सुरक्षा के लिए तीन पदाधिकारियोंहवलदार, सबनीस तथा सर-ए-नौबत की नियुक्ति की। ये तीनों पदाधिकारी भिन्न-भिन्न जातियों के होते थे, जिससे कि विश्वासघात न कर सकें। दुर्ग की चाबियाँ हवलदार के पास रहती थीं, जो दुर्ग की सेना का प्रधान अधिकारी होता था। शासन तथा मालगुजारी का प्रबन्ध ब्राह्मण सबनीस करता था तथा किलेदार अर्थात् दुर्ग का सर-ए-नौबत खाने-पीने का सामान तथा घोड़ों के लिए दाने आदि की व्यवस्था करता था। ये तीनों पदाधिकारी समान पद के होते थे तथा एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते थे। दुर्ग में स्थित सेना में जातियों का सम्मिश्रण कर दिया गया था। शिवाजी की दुर्ग व्यवस्था सर्वथा सराहनीय थी तथा पहाड़ियों में छापामार रण-पद्धति की सफलता इसी व्यवस्था पर निर्भर थी।
(ग) भूमि प्रशासन- सेना की ही तरह शिवाजी ने भूमिकर व्यवस्था के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। प्रत्येक गाँव का क्षेत्रफल ब्यौरेवार रखा जाता था और प्रत्येक बीघे की उपज का अनुमान लगाया जाता था। उपज का 2/5 भाग राज्य को दिया जाता था। किसानों को बीज और पशुओं की सहायता दी जाती थी जिसका मूल्य सरकार कुछ किश्तों में वसूल कर लेती थी। भूमि कर नकद अथवा जिन्स के रूप में वसूला जाता था।
शिवाजी की लगान व्यवस्था रैयतवाड़ी थी जिसमें राज्य के किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर रखा था। शिवाजी नहीं चाहते थे कि जमींदार, देशमुख और देसाई किसानों में हस्तक्षेप करें। हरसम्भव वे लगान अधिकारियों को जागीर के बदले नकद वेतन ही दिया करते थे। वे जब कभी जागीर देते भी थे तो इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि जागीरदार अपनी जागीर में कोई राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित न कर सके।
शिवाजी की आय का मुख्य साधन चौथ था। यह पड़ोसी राज्यों की आय का चौथा भाग होता था जिसे वसूल करने के लिए शिवाजी उन पर आक्रमण करते थे। चौथ हर साल वसूल करते थे। शिवाजी की आय का दूसरा मुख्य साधन सरदेशमुखी थी। यह राज्यों की आय का 1/10 भाग होता था।
प्रश्न 4.
‘शिवाजी में एक सफल सेनानायक एवं प्रशासक के गुण मौजदू थे।” विवेचना कीजिए।
उतर:
शिवाजी एक सफल सेनानायक- शिवाजी को दादा कोणदेव के द्वारा पूर्ण सैनिक शिक्षा प्राप्त हुई थी। वे वीर सैनिक थे तथा भयंकर-से-भयंकर संकट में भी नहीं घबराते थे। आगरा में औरंगजेब के द्वारा बन्दी बनाए जाने पर उनका पलायन उनके साहस एवं धैर्य का अप्रतिम उदाहरण है। वे केवल एक वीर सैनिक ही नहीं वरन् महान सेनापति भी थे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व उनके सैनिकों तथा सम्पर्क में आने वाले अन्य सभी व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। उनके सैनिक और कर्मचारी उनकी पूजा करते थे तथा उनके लिए अपने प्राणों का बलिदान देने को सदैव उत्सुक रहते थे। उन्होंने एक कुशल सेनापति की भाँति महाराष्ट्र में छापामार युद्ध को अपनाया जिसके कारण उनके शत्रु उन पर विजय प्राप्त करने में सदैव असमर्थ रहे। शिवाजी प्रथम भारतीय सम्राट थे जिन्होंने जल सेना के महत्त्व को समझा तथा एक शक्तिशाली जल-बेड़े का निर्माण करवाया।
एक साधारण जागीरदार के पुत्र होते हुए शिवाजी ने विशाल सेना का नेतृत्व करते हुए एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। इस साम्राज्य निर्माण का मुख्य ध्येय हिन्दुओं की रक्षा करना था जो किसी राजनीतिक शक्ति के द्वारा असम्भव थी। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने स्वराज्य का निर्माण किया। शिवाजी ने तोरण वियज के द्वारा 1649 ई० में विजय कार्य आरम्भ किया तथा केवल थोड़े ही वर्षों में बीजापुर, गोलकुण्डा तथा मुगल साम्राज्य के प्रदेशों को विजय करके एक विशाल साम्राज्य निर्मित किया। उनकी मृत्यु के समय उनके पास एक स्वतन्त्र राज्य, एक शक्तिशाली जल-बेड़ा तथा 45,000 घुड़सवारों, 60,000 सिलहदारों तथा 20,000 पैदल सैनिकों की सुव्यवस्थित एवं अनुशासित विशाल सेना थी। उनके राज्य में चोरी-डाके का नामोनिशान नहीं था। भिन्न-भिन्न जातियों में विभाजित मराठा सेना का संगठन करके उन्होंने छत्रपति’ की उपाधि धारण की तथा हिन्दुओं का परित्राण किया।
शिवाजी एक सफल प्रशासक- शिवाजी में अन्य महान विजेताओं के समान कुशल शासन-प्रबन्ध के गुण विद्यमान थे जिनकी उनके आलोचकों तक ने प्रशंसा की है। यद्यपि उन्होंने निरंकुश राज्यतन्त्र-पद्धति को अपनाया किन्तु उनका राज्य प्रजाहित के लिए था। वे प्रजावत्सल सम्राट थे जो निरन्तर कठोर परिश्रम के द्वारा अपनी प्रजा की सुख एवं समृद्धि की वृद्धि के लिए तत्पर रहते थे। उन्होंने अपने राज्य में शांति सुव्यवस्था एवं समृद्धि को जन्म दिया। उनकी केन्द्रीय शासन-व्यवस्था, सैनिक संगठन, नौ-सेना व्यवस्था समय एवं परिस्थिति के सर्वथा अनुकूल थी।
ग्राण्ड डफ ने भी उनके शासन सम्बन्धी गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “उनका राज्य तथा शासन गरीब प्रजा एवं उसकी उन्नति के लिए था। उन्होंने जागीरदारी प्रथा, वंशानुगत पद आदि दोषपूर्ण व्यवस्थाओं को हटाकर नकद वेतन तथा योग्यता के आधार पर पदों का वितरण की व्यवस्था की। उनकी अष्टप्रधान सभा, सैनिक संगठन, भूमि सुधार उनको एक कुशल शासक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।” एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है- “जो प्रदेश शिवाजी ने जीता अथवा जो धन एकत्रित किया वह मुगलों के लिए इतना भयावह नहीं था, जितना की शिवाजी का स्वयं का आदर्श, नई विचारधारा और प्रणाली जो उन्होंने चलाई तथा एक नई प्रेरणा उन्होंने मराठा जाति में फेंक दी थी।
प्रश्न 5.
शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन निम्नलिखित है
1. योग्य सेनापति- शिवाजी एक योग्य सेनापति थे। अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का प्रयोग किया और सुरक्षा के लिए अनेक दुर्गों का निर्माण कराया।
2. महान् शासक-प्रबन्धक- शिवाजी ने असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में महान् शासक प्रबन्धक होने का परिचय दिया। अष्टप्रधान व्यवस्था, उनकी लगान व्यवस्था, देशपाण्डे और देशमुख जैसे पैतृक पदाधिकारियों को बिना हटाए हुए उनकी शक्ति और प्रभाव को समाप्त करके किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना तथा ऐसे शासन की स्थापना करना जो उनकी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से चल सके, ऐसी बातें थीं, जो उनके असैनिक शासन की श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। शिवाजी की घुड़सवार सेना और पैदल सैनिकों में पदों का विभाजन, ठीक समय पर वेतन देना, उनको योग्यतानुसार पद देना, गुरिल्ला युद्ध-पद्धति तथा किलों की सुरक्षा का प्रबन्ध आदि उनकी सैनिक व्यवस्था की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। शिवाजी ने एक अच्छी नौसेना के निर्माण का भी प्रयत्न किया था। शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा बनाया था और एक राज्य व्यावहारिक संस्कृत कोष का भी निर्माण कराया था। इससे मराठी साहित्य के निर्माण में सहायता मिली थी।
3. हिन्दू राज्य के संस्थापक- शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू राज्य का निर्माण किया, जबकि मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मराठा राज्य को तो क्या दक्षिण के शिया राज्यों गोलकुण्डा और बीजापुर को भी समाप्त करने पर तुला हुआ था। इसके अतिरिक्त बीजापुर राज्य, पुर्तगालियों और जंजीरा के सिद्दियों का प्रबल विरोध होते हुए भी शिवाजी ने मराठा स्वराज्य की न केवल स्थापना की बल्कि जनता को सुरक्षा और शांति प्रदान की।
4. कुशल और साहसी सैनिक- शिवाजी एक कुशल और साहसी सैनिक थे। अनेक युद्धों में उन्होंने अपने जीवन को संकट में डाला था। अफजल खाँ से भेंट करना, शाइस्ता खाँ पर अचानक उसके शहर और निवास स्थान में प्रवेश करके आक्रमण करना, औरंगजेब से आगरा मिलने जाना उनके जीवन की ऐसी घटनाएँ हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालने से कभी नहीं झिझके।। राष्ट्र निर्माता- शिवाजी का नवीनतम कार्य हिन्दू-मराठाराष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम् देन, उसको स्वतन्त्रता की भावना प्रदान करना था। गुलाम रहकर वे बड़ी-से-बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनुभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना सम्भव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हें रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, तानाजी मालसुरे, सन्ताजी घोरपड़े, खाण्डेराव दाभादे जैसे योग्य मराठा सरदारों का सहयोग मिला।
5. धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति- शिवाजी की धार्मिक प्रवृत्ति एक पहाड़ी झरने की भाँति स्वच्छ जल को अविरल गति से बहाने वाली थी, जिसमें धर्मान्धता की गन्दगी न थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और उनके साथ समान व्यवहार किया। धर्म, धार्मिक ग्रन्थ और कहानियाँ उनके प्रेरणा स्त्रोत थे।
महाराष्ट्र के तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों और सन्तों से वह प्रभावित हुए थे। शिवाजी पहले हिन्दू थे, जिन्होंने मध्य युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे विद्रोही सामन्त और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य के प्रदर्शन के लिए। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरण स्वरूप है।
शिवाजी नि: सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान् क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।” वे पुनः लिखते हैं, “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नए पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है। इस प्रकार शिवाजी ने मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
प्रश्न 6.
शिवाजी की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:
शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन निम्नलिखित है
1. योग्य सेनापति- शिवाजी एक योग्य सेनापति थे। अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का प्रयोग किया और सुरक्षा के लिए अनेक दुर्गों का निर्माण कराया।
2. महान् शासक-प्रबन्धक- शिवाजी ने असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में महान् शासक प्रबन्धक होने का परिचय दिया। अष्टप्रधान व्यवस्था, उनकी लगान व्यवस्था, देशपाण्डे और देशमुख जैसे पैतृक पदाधिकारियों को बिना हटाए हुए उनकी शक्ति और प्रभाव को समाप्त करके किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना तथा ऐसे शासन की स्थापना करना जो उनकी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से चल सके, ऐसी बातें थीं, जो उनके असैनिक शासन की श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। शिवाजी की घुड़सवार सेना और पैदल सैनिकों में पदों का विभाजन, ठीक समय पर वेतन देना, उनको योग्यतानुसार पद देना, गुरिल्ला युद्ध-पद्धति तथा किलों की सुरक्षा का प्रबन्ध आदि उनकी सैनिक व्यवस्था की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। शिवाजी ने एक अच्छी नौसेना के निर्माण का भी प्रयत्न किया था। शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा बनाया था और एक राज्य व्यावहारिक संस्कृत कोष का भी निर्माण कराया था। इससे मराठी साहित्य के निर्माण में सहायता मिली थी।
3. हिन्दू राज्य के संस्थापक- शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू राज्य का निर्माण किया, जबकि मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मराठा राज्य को तो क्या दक्षिण के शिया राज्यों गोलकुण्डा और बीजापुर को भी समाप्त करने पर तुला हुआ था। इसके अतिरिक्त बीजापुर राज्य, पुर्तगालियों और जंजीरा के सिद्दियों का प्रबल विरोध होते हुए भी शिवाजी ने मराठा स्वराज्य की न केवल स्थापना की बल्कि जनता को सुरक्षा और शांति प्रदान की।
4. कुशल और साहसी सैनिक- शिवाजी एक कुशल और साहसी सैनिक थे। अनेक युद्धों में उन्होंने अपने जीवन को संकट में डाला था। अफजल खाँ से भेंट करना, शाइस्ता खाँ पर अचानक उसके शहर और निवास स्थान में प्रवेश करके आक्रमण करना, औरंगजेब से आगरा मिलने जाना उनके जीवन की ऐसी घटनाएँ हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालने से कभी नहीं झिझके।। राष्ट्र निर्माता- शिवाजी का नवीनतम कार्य हिन्दू-मराठाराष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम् देन, उसको स्वतन्त्रता की भावना प्रदान करना था। गुलाम रहकर वे बड़ी-से-बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनुभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना सम्भव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हें रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, तानाजी मालसुरे, सन्ताजी घोरपड़े, खाण्डेराव दाभादे जैसे योग्य मराठा सरदारों का सहयोग मिला।
5. धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति- शिवाजी की धार्मिक प्रवृत्ति एक पहाड़ी झरने की भाँति स्वच्छ जल को अविरल गति से बहाने वाली थी, जिसमें धर्मान्धता की गन्दगी न थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और उनके साथ समान व्यवहार किया। धर्म, धार्मिक ग्रन्थ और कहानियाँ उनके प्रेरणा स्त्रोत थे।
महाराष्ट्र के तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों और सन्तों से वह प्रभावित हुए थे। शिवाजी पहले हिन्दू थे, जिन्होंने मध्य युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे विद्रोही सामन्त और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य के प्रदर्शन के लिए। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरण स्वरूप है।
शिवाजी नि: सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान् क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।” वे पुनः लिखते हैं, “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नए पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है। इस प्रकार शिवाजी ने मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।