UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व)

By | June 1, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व)

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व से क्या आशय है? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व का क्या अर्थ है? स्पष्ट कीजिए। (2008)
या
व्यक्तित्व को परिभाषित कीजिए।(2013)
उत्तर

व्यक्तित्व की अवधारणा

‘व्यक्तित्व’ एक प्रचलित और आम शब्द है जिसे लोगों ने अपनी-अपनी दृष्टि से जाँचा-परखा है। आधुनिक समय में इसे ऐसे गुणों का संगठन स्वीकार किया जाता है जिनमें अनेक मानवीय गुण अन्तर्निहित तथा संगठित होते हैं। इसके स्वरूप को लेकर लोगों के विचारों में भिन्नता है। कुछ इसे चरित्र का उद्गम स्थान, कुछ शारीरिक-मानसिक विकास का योग, अच्छे-बुरे व्यवहार की समीक्षा करने वाली सन्तुलितं

शक्ति, तो कुछ शरीर के गठन-सौष्ठव व ओजपूर्ण आकर्षक मुखाकृति का पर्याय समझते हैं। वास्तव में ये समस्त अलग-अलग विचार व्यक्तित्व नहीं हैं; न शरीर, ने मस्तिष्क और न मानव का बाह्य स्वरूप ही। व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व इन समस्त अवयवों का सम्पूर्ण एवं सन्तुलित रूप है।

व्यक्तित्व का अर्थ

‘व्यक्तित्व’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ एवं दृष्टिकोण में किया जाता है

(1) शाब्दिक अर्थ में, इस शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के ‘पर्सनेअर (personare) शब्द से माना गया है। प्राचीनकाल में, ईसा से एक शताब्दी पहले persona’ शब्द व्यक्ति के कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रचलित था। विशेषकर इसका अर्थ नाटक में काम करने वाले अभिनेताओं द्वारा पहने। जाने वाले नकाब से समझा जाता था, जिसे धारण करके अभिनेता अपना असली रूप छिपाकर नकली वेश में रंगमंच पर अभिनय करते थे। समय बीता और रोमन काल में ‘persona’ शब्द का अर्थ हो गया-‘स्वयं वह अभिनेता जो अपने विलक्षण एवं विशिष्ट स्वरूप के साथ रंगमंच पर प्रकट होता था।’ इस भाँति व्यक्तित्व’ शब्द किसी व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का समानार्थी बन गया।

(2) सामान्य अर्थ में, व्यक्तित्व से अभिप्राय, व्यक्ति के उन गुणों से है जो उसके शरीर सौष्ठव, स्तर तथा नाक-नक्श आदि से सम्बन्धित हैं।

(3) दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार, सम्पूर्ण व्यक्तित्व आत्मतत्त्व की पूर्णता में निहित है।

(4) अपने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत, व्यक्तित्व से अभिप्राय व्यक्ति के सामाजिक गुणों के संगठित स्वरूप तथा उन गुणों की प्रभावशीलता से है।

(5) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानव-जीवन की किसी भी अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व एक संगठित इकाई है जिसमें व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण से उत्पन्न समस्त गुण समाहित होते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व में बाह्य गुणों (जैसे-रंग, रूप, मुखाकृति, स्वर, स्वास्थ्य तथा पहनावा अदि) तथा आन्तरिक गुणों (जैसे-आदतें, रुचि, अभिरुचि, चरित्र, संवेगात्मक संरचना, बुद्धि, योग्यता तथा अभियोग्यता आदि) का समन्वित तथा संगठित रूप परिलक्षित होता है। इसके साथ ही व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मनुष्य के व्यवहार से होती है अथवा व्यक्तित्व पूरे व्यवहार का दर्पण है और मनुष्य व्यवहार के माध्यम से निजी व्यक्तित्व को अभिप्रकाशित करता है। सन्तुलित व्यवहार, सुदृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। इस स्थिति में व्यक्तित्व को विभिन्न मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) कहा जा सकता है।

व्यक्तित्व की परिभाषा

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को परिभाषित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं। प्रमुख मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. बोरिंग के अनुसार, “व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ अपूर्व एवं स्थायी समायोजन के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।”
  2. मन के अनुसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।”
  3. गोर्डन आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’
  4. वारेन का विचार है, व्यक्तित्व व्यक्ति का सम्पूर्ण मानसिक संगठन है जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
  5. म्यूरहेड ने व्यक्तित्व की व्यापक अवधारणा प्रस्तुत की है। उसके शब्दों में, “व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”
  6. वुडवर्थ के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की विशेषता है, जिसका प्रदर्शन उसके विचारों को व्यक्त करने के ढंग, अभिवृत्ति एवं रुचि, कार्य करने के ढंग तथा जीवन के प्रति दार्शनिक विचारधारा के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. रेक्स के अनुसार, “व्यक्तित्व समाज द्वारा मान्य एवं अमान्य गुणों का सन्तुलन है।”
  8. ड्रेबट के अनुसार, “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं सामाजिक गुणों के सुसंगठित एवं गत्यात्मक संगठन के लिए किया जाता है, जिसको वह अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक आदान-प्रदान में व्यक्त करता है। उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता हैं कि-
    • व्यक्ति एक मनोशारीरिक प्राणी है,
    •  वह अपने वातावरण से समायोजन (अनुकूलन) करके निजी व्यवहार का निर्माण करता है,
    • मनुष्य की शारीरिक-मानसिक विशेषताएँ उसके व्यवहार से जुड़कर संगठित रूप में दिखाई पड़ती हैं। यह संगठन ही व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है तथा
    • प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वयं में विशिष्ट होता है। व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताएँ

आदर्श नागरिक बनने के लिए मनुष्य के व्यक्तित्व का सन्तुलित होना अपरिहार्य है और आदर्श जीवन जीने के लिए अच्छा एवं सन्तुलित व्यक्तित्व एक पूर्व आवश्यकता है, किन्तु प्रश्न यह है कि ‘एक आदर्श व्यक्तित्व के क्या मानदण्ड होंगे? इसका उत्तर हमें निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से प्राप्त होगा अथवा, दूसरे शब्दों में, सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)- सामान्य दृष्टि से व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य सन्तुलित एवं उत्तम व्यक्तित्व का पहला मानदण्ड है। अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का शारीरिक गठन, स्वास्थ्य तथा सौष्ठव प्रशंसनीय होता है। वह व्यक्ति निरोगी होता है तथा उसके विविध शारीरिक संस्थान अच्छी प्रकार कार्य कर रहे होते हैं।

(2) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मन भी होना चाहिए। स्वस्थ मन उस व्यक्ति का कहो जाएगा जिसमें कम-से-कम औसत बुद्धि पायी जाती हो, नियन्त्रित तथा सन्तुलित मनोवृत्तियाँ हों और उनकी मानसिक क्रियाएँ भी कम-से-कम सामान्य रूप से कार्य कर रही हों।

(3) आत्म-चेतना (Self-consciousness)– सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति स्वाभिमानी तथा आत्म-चेतना से युक्त होता है। वह सदैव ऐसे कार्यों से बचता है जिसके करने से वह स्वयं अपनी ही नजर में गिरता हो या उसकी अपनी आत्म-चेतना आहत होती हो। वह चिन्तन के समय भी आत्म-चेतना को सुरक्षित रखता है तथा स्वस्थ विचारों को ही मन में स्थान देता है। | (4) आत्म-गौरव (Self-regard)-आत्म-गौरव का स्थायी भाव अच्छे व्यक्तित्व का परिचायक है तथा व्यक्ति में आत्म-चेतना पैदा करता है। आत्म-गौरव से युक्त व्यक्ति आत्म-समीक्षा के माध्यम से प्रगति का मार्ग खोजता है और विकासोन्मुख होता है।

(5) संवेगात्मक सन्तुलन (Emotional Balance)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। कि उसके समस्त संवेगों की अभिव्यक्ति सामान्य रूप से हो। उसमें किसी विशिष्ट संवेग की प्रबलता नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति को संवेग-शून्य भी नहीं होना चाहिए।

(6) सामंजस्यता (Adaptability)- सामंजस्यता या अनुकूलन का गुण अच्छे व्यक्तित्व की पहली पहचान है। मनुष्य और उसके चारों ओर का वातावरण परिवर्तनशील है। वातावरण के विभिन्न घटकों में आने वाला परिवर्तन मनुष्य को प्रभावित करता है; अतः सन्तुलित व्यक्तित्व में अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करने या सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता होनी चाहिए। सामंजस्य की इस प्रक्रिया में या तो व्यक्ति स्वयं को वातावरण के अनुकूल परिवर्तित कर लेता है या वातावरण में अपने अनुसार परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।

(7) सामाजिकता (Sociability)- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; अत: उसमें अधिकाधिक सामाजिकता की भावना होनी चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व में स्वस्थ सामाजिकता की भावना अपेक्षित है। स्वस्थ सामाजिकता का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व में प्रेम, सहानुभूति, त्याग, सहयोग, उदारता, संयम तथा धैर्य का संचार करता है जिससे उसका व्यक्तित्व विस्तृत एवं व्यापक होता जाता है। इस भाव के संकुचन से मनुष्य स्वयं तक सीमित, स्वार्थी, एकान्तवासी तथा समाज से दूर भागने लगता है। सामाजिकता की भावना व्यक्ति के व्यक्तित्व को विराट सत्ता की ओर उन्मुख करती है।

(8) एकीकरण (Integration)- मनुष्य में समाहित उसके समस्त गुण एकीकृत या संगठित स्वरूप में उपस्थित होने चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए उन सभी गुणों का एक इकाई के रूप में समन्वय अनिवार्य है। किसी एक गुण या पक्ष का आधिक्य या वेग व्यक्तित्व को असंगठित बना देता है। ऐसा बिखरा हुआ व्यक्तित्व असन्तुष्ट व दु:खी जीवन की ओर संकेत करता है। अत: अच्छे व्यक्तित्व में एकीकरण या संगठन का गुण पाया जाता है।

(9) लक्ष्योन्मुखता या उद्देश्यपूर्णता (Purposiveness)- प्रत्येक मनुष्य के जीवन का कुछ-न-कुछ उद्देश्य या लक्ष्य अवश्य होता है। निरुद्देश्य या लक्ष्यविहीन जीवन असफल, असन्तुष्ट तथा अच्छा जीवन माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुदूर उद्देश्य ऊँचा, स्वस्थ तथा सुनिश्चित होना चाहिए एवं उसकी तात्कालिक क्रियाओं को भी प्रयोजनात्मक होना चाहिए। एक अच्छे व्यक्तित्व में उद्देश्यपूर्णता का होना अनिवार्य है।

(10) संकल्प- शक्ति की प्रबलता (Strong Will Power)-प्रबल एवं दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण कार्य में तन्मयता तथा संलग्नता आती है। प्रबल संकल्प लेकर ही बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। स्पष्टतः संकल्प-शक्ति की प्रबलता सन्तुलित व्यक्तित्व का एक उचित मानदण्ड है।।

(11) सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा (Satisfactory Ambition)- उच्च एवं महत् आकांक्षाएँ मानव-जीवन के विकास की द्योतक हैं, किन्तु यदि व्यक्ति इन उच्च आकांक्षाओं के लिए चिन्तित रहेगा तो उससे वह स्वयं को दु:खी एवं असन्तुष्ट हो पाएगा। मनुष्य को अपनी मन:स्थिति को इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति के अभाव में उसे असन्तोष या दु:ख का बोध न हो। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा कहा गया है और यह सुन्दर व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है।

हमने ऊपर लिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत एक सम्यक् एवं सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताओं का अध्ययन किया है। इन सभी गुणों का समाहार ही एक आदर्श व्यक्तित्व’ कहा जा सकता है जिसे समक्ष रखकर हम अन्य व्यक्तियों से उसकी तुलना कर सकते हैं और निजी व्यक्तित्व को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास कर सकते हैं।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के विकास को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं? व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारकों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए। (2008)
या
व्यक्तित्व के जैविक निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?(2014, 17)
या
थायरॉइड ग्रन्थि व्यक्तित्व को कैसे प्रभावित करती है? (2012)
उत्तर
व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक या घटक जीवन के विकास की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दो बातों से प्रभावित होता है-वंशार्जित शक्तियाँ (या वंशानुक्रम) तथा वातावरण। मनोविज्ञान की दुनिया में यह प्रश्न काफी समय तक विवादास्पद रहा कि व्यक्तित्व के विकास को वंशानुक्रम प्रभावित करता है अथवा वातावरण। मनोवैज्ञानिकों के गहन अध्ययन, प्रयोगों, निरीक्षण तथा निष्कर्षों के आधार पर आज निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास; वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों से ही प्रभावित होता है।

वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारक

वंशानुक्रम द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों का निर्धारण होता है तथा यह व्यक्ति के जैवकीय कारकों को अत्यधिक प्रभावित करता है। जैवकीय कारकों में से कुछ प्रधान कारक इस प्रकार हैं-शरीर-रचना, स्नायु-संस्थान, ग्रन्थि-रचना, प्रवृत्तियाँ एवं संवेग। मानव-शरीर से सम्बन्धित ये कारक व्यक्तित्व पर प्रभाव रखते हैं। अब हम इन कारकों के विषय में संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे|

(A) शरीर रचना (Physique)- किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम का प्रभाव उसकी शारीरिक बनावट या शरीर रचना के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शरीर की कद-काठी, नाक-नक्श, मुखाकृति, त्वचा का वर्ण, नेत्र की संरचना व वर्ण, होंठों की बनावट, हाथ-पैर का आकार व लम्बाई आदि सभी बातें वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों द्वारा सुनिश्चित होती हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि आकर्षक व्यक्तित्व दूसरे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है, किन्तु जो व्यक्तित्व अन्य लोगों के आकर्षण का केन्द्र नहीं बन पाता, हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। इसी प्रकार मोटा व्यक्ति प्रसन्नचित तथा विनोदी प्रकृति का, किन्तु दुबला-पतला व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव का होता है। स्पष्टत: व्यक्ति की शरीर रचना उसके व्यवहार को प्रभावित करती है और व्यवहार उसके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। निष्कर्ष यह है कि शरीर रचना का व्यक्तित्व के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

(B) स्नायु-संस्थान (Nervous System)- व्यक्ति का बाह्य व्यवहार जो व्यक्तित्व को चित्रित करता है, स्नायु संस्थान द्वारा संचालित, नियन्त्रित एवं प्रभावित करता है। मानव की बुद्धि, उसकी मानसिक क्रियाएँ तथा अनुक्रियाएँ भी स्नायु-संस्थान की देन हैं। बहुत-सी मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं; जैसे—स्मृति, प्रतिक्षेप, निरीक्षण, चिन्तन तथा मनन आदि का स्नायु-संस्थान से गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति का व्यक्तित्व स्नायु-संस्थान से जुड़ी इन सभी बातों का एक समन्वित पूर्ण रूप है। और स्नायु-संस्थान की रचना वंशानुक्रम से प्राप्त होती है। इसे भॉति, वंशानुक्रम स्नायु-संस्थान के माध्यम से व्यक्तित्वे पर स्पष्ट प्रभाव रखता है।

(C) ग्रन्थि-रेचना (Gland’s Structure)– व्यक्ति के शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रन्थियों का स्वरूप तथा संगठन वंशानुक्रम के द्वारा निर्धारित होता है। ग्रन्थियों की रचना निम्नलिखित दो प्रकार की होती है

(1) नलिकायुक्त. या बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands)— ये ग्रन्थियाँ शरीर के विभिन्न भागों में एक नलिका द्वारा अपना स्राव पहुँचाती हैं। इनमें मुख्य हैं-लार ग्रन्थियाँ, आमाशय ग्रन्थियाँ, वृक्क ग्रन्थियाँ, यकृत, अश्रु ग्रन्थियाँ, स्वेद ग्रन्थियाँ आदि। अधिकांश नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ पाचन-संस्थान से सम्बन्ध रखती हैं।

(2) नलिकाविहीन या अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands)- इन ग्रन्थियों में कोई नलिका नहीं पायी जाती और ये अपना स्राव रक्त में सीधे ही प्रवाहित कर देती हैं। व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली प्रमुख नलिकाविहीन ग्रन्थियों को वन निम्नवत् है

(i) गल ग्रन्थि (Thyroid Gland) गल ग्रन्थि की कम या अधिक क्रियाशीलता मानव व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। इसकी सामान्य क्रियाशीलता में कमी श्लेष्मकाय (Myxoedema) नामक रोग के रूप में प्रकट होती है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क एवं पेशियों की क्रिया मन्द हो जाती है, स्मृति कमजोर पड़ जाती है तथा ध्यान और चिन्तन में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। यदि किसी व्यक्ति में यह ग्रन्थि जन्म से ही मन्द या नष्ट हो गयी हो। तो उसके कारण कुरूप, बौने, अजाम्बुक बाल (Cretins) तथा मूढ़बृद्धि (Imbecile) बच्चे जन्म लेते हैं। इसकी अधिक क्रियाशीलता के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा, अशान्त, उद्विग्न, चिन्तायुक्त, तनावग्रस्त तथा अस्थिर हो जाता है। गल ग्रन्थि की अत्यधिक क्रिया के कारण व्यक्ति की लम्बाई बढ़ जाती है।

(ii) अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal Cland)- वृक्क के काफी समीप स्थित यह ग्रन्थि अधिवृक्की (Adrenin) नामक रस का स्राव करती है जिसकी कमी या अधिकता व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। अधिवृक्की के स्राव की कमी से व्यक्ति के शरीर में कमजोरी तथा शिथिलता बढ़ती है, त्वचा का रंग काला पड़ जाता है, चयापचय (Metabolism) की क्रिया मन्द पड़ जाती है, रोगों की अवरोधक क्षमता धीमी तथा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसके आधिक्य से रक्तचाप बढ़ता है, हृदय की धड़कन तेज हो जाती है, सॉस की गति तीव्र हो जाती है, पसीना आने लगता है, आँख की पुतलियाँ चौड़ी हो जाती हैं, आमाशय तथा पाचन ग्रन्थियों सम्बन्धी क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं, आपत्तिकाल में प्राणी की शक्तियाँ संगठित होने लगती हैं तथा पुरुषोचित गुणों का विकास होता है। इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों का स्वर भारी होने लगता है, नेत्रों की गोलाई समाप्त हो जाती है और दाढ़ी उगने लगती है।

(iii) पोष ग्रन्थि (Pituitary Gland)- मानव-मस्तिष्क में स्थित पोष ग्रन्थि या पीयूष ग्रन्थि के पिछले भाग से निकलने वाला स्राव जल के चयापचय, रक्तचाप तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करता है। ग्रन्थि के अग्र भाग से निकलने वाला रस अन्य ग्रन्थियों को नियन्त्रित करता है। व्यक्ति के विकास के दौरान पोष ग्रन्थि की क्रियाशीलता तेज होने के कारण शरीर के आकार की असामान्य वृद्धि हो जाती है, किन्तु इस ग्रन्थि की क्रिया मन्द पड़ जाने पर व्यक्ति का शारीरिक गठन कुरूप, कद बौना तथा बुद्धि निम्न स्तर की हो जाती है।

(iv) अग्न्याशय (Pancreas)– अग्न्याशय एक नलिकाविहीन ग्रन्थि है जिससे निकलने वाला अग्न्याशयिक रस (Pancreatic Juice) भोजन के पाचन में मदद देता है। इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थि रक्त में इन्सुलिन (Insulin) नामक रस भी छोड़ती है जो रक्त में पहुँचकर शर्करा के उपयोग में मांसपेशियों की मदद भी करता है। इन्सुलिन की परिवर्तित मात्रा रक्त में शर्करा की मात्रा को परिवर्तित कर देती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के स्वभाव तथा भावावस्था पर प्रभाव पड़ता है।

(v) जनन ग्रन्थियाँ (Gonads)- जनन ग्रन्थियों की कमी या अधिकता से लैंगिक लक्षणों तथा यौन-क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है और इस प्रकार व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रभावित होता है। इन ग्रन्थियों से निकला स्राव पुरुषों में पुरुषोचित तथा स्त्रियों में स्त्रियोचित लक्षणों की वृद्धि तथा विकास का कारण बनता है। इस ग्रन्थि के कारण पुरुष तथा नारी में अपने-अपने लिंग के अनुसार यौन चिह्न दिखाई पड़ते हैं। वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त ग्रन्थि रचना और उसके स्राव के प्रभाव से शारीरिक परिवर्तन होता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में ग्रन्थियाँ वंशानुक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

(D) संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव (Emotions and Temperament)— व्यक्ति के कुछ विशेष लक्षण ‘संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव से निर्मित होते हैं; अतः व्यक्तित्व के निर्माण तथा विकास में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेम, क्रोध तथा भय आदि कुछ संवेग व्यक्ति अपने वंशानुक्रम से प्राप्त करता है, जिनका स्वरूप व मात्रा ग्रन्थियों पर आधारित होते हैं। इसके अतिरिक्त आन्तरिक स्वभाव भी इन्हीं पर निर्भर करता है जिसके फलस्वरूप कुछ लोग प्रेमी, तो कुछ क्रोधी, कुछ डरपोक, कुछ चिड़चिड़े या दयालु होते हैं।

(E) मूलप्रवृत्तियाँ, चालक एवं सामान्य आन्तरिक प्रवृत्तियाँ– जन्मजात मूल व आन्तरिक प्रवृत्तियाँ तथा चालक व्यक्ति को वंशानुक्रम से मिलते हैं। ये व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक रूप से प्रभावित करते हैं तथा परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्तित्व के विकास पर पर्यावरण का क्या प्रभाव पड़ता है? बालक के व्यक्तित्व पर परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व के पर्यावरणीय निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार और विद्यालय की भूमिका स्पष्ट कीजिए। (2010, 12)
या
परिवार, विद्यालय और समाज किस प्रकार व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं? (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाला दूसरा मुख्य कारक है-‘पर्यावरण’। व्यक्ति जिस प्रकार के पर्यावरण में रहता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उसी के अनुरूप होता है। पर्यावरण अपने

आप में एक विस्तृत अवधारणा है तथा इसका व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी विस्तृत प्रभाव पड़ता है। बालक के व्यक्तित्व के विकास के सन्दर्भ में पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए क्रमशः परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव को जानना अभीष्ट है।

व्यक्तित्व पर परिवार का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास पर परिवार का सबसे पहला और सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व पर परिवार के प्रभाव को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) परिवार के सदस्य एवं बालक का व्यक्तित्व- बालक अपने परिवार में जन्म लेता है। नवजात शिशु सर्वप्रथम अपनी माता और उसके बाद पिता के सम्पर्क में आता है। यद्यपि बालक का परिवार के सभी सदस्यों से निकट का सम्पर्क रहता है, किन्तु उसका माता-पिता से सबसे नजदीक का सम्बन्ध होता है। माता-पिता के संस्कार उसमें संचरित होते हैं। इसी के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है। माता-पिता का स्नेह बालक के व्यक्तित्व को विकसित करता है। अधिक स्नेह बालक को जिद्दी, शैतान तथा पराश्रयी बना देता है तो स्नेह का अभाव अपराधी। अतः बालक को उचित स्नेह मिलना चाहिए और उसे अनावश्यक रूप से डाँटना-फटकारना नहीं चाहिए। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार में पलने से बालक में सामाजिक सुरक्षा की भावना प्रबल होती है। परिवार के सभी सदस्य बालक के व्यक्तित्व को विकसित करने में सहयोग देते हैं। |

(2) परिवार के मुखिया का व्यक्तित्व- सामान्यतः बालक स्वयं को परिवार के मुखिया के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। मुखिया का चरित्र, आचरण, व्यवहार तथा रहन-सहन के तरीके बालक पर अमिट छाप छोड़ते हैं। आमतौर पर परिवार के लड़के अपने पिता तथा लड़कियाँ अपनी माता के व्यक्तित्व का अनुशीलन करते हैं; अतः परिवार के मुखिया को चाहिए कि वह स्वयं को एक आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करे। आजकल के समाज में प्राय: माता-पिता ही परिवार के मुखिया होते हैं।

(3) स्वतन्त्रता और व्यक्तित्व– परिवार में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता का होना या न होना, बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। बहुत-से परिवारों में बच्चों को अपने विषय में बड़े-बड़े निर्णय लेने की छूट रहती है। इससे बच्चे स्वतन्त्र प्रकृति के बन जाते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व अनियन्त्रित हो सकता है। किन्हीं परिवारों में साधारण बातों के लिए बच्चों को अभिभावकों के निर्णय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इससे बालक दब्बू तथा दूसरों पर निर्भर रहने के आदी हो जाते हैं और समस्याओं के विषय में उचित समय पर उचित निर्णय नहीं ले पाते।

(4) विघटित परिवार और बालक का व्यक्तित्व- विघटित परिवारों (Broken Homes) से अभिप्राय उन परिवारों से है जिनमें माता-पिता के मध्य कलह, तनाव तथा द्वन्द्व की स्थिति बनी रहती है। ऐसे वातावरण से परिवार का वातावरण दूषित हो जाता है और बालक का व्यक्तित्व कुण्ठित तथा विकृत हो जाता है। अध्ययन बताते हैं कि समाज के अधिकांश अपराधी, वेश्याएँ, यौन-विकृति के लोग तथा समाज-विरोधी कार्य करने वाले लोग विघटित परिवारों की देन होते हैं। विघटित परिवार में बालक को माता-पिता का स्नेह नहीं मिलता, उनका उचित समाजीकरण नहीं हो पाता, उनकी प्राकृतिक यौन-जिज्ञासाएँ व इच्छाएँ नियन्त्रित नहीं हो पातीं और इसी कारण परिष्कृत संस्कारों से विमुख होकर जीवन-भर असन्तुलित व्यक्तित्व का बोझ ढोते हैं।

(5) परिवार की आर्थिक स्थिति- परिवार से जुड़े विभिन्न कारकों में आर्थिक पक्ष की अवहेलना नहीं की जा सकती। निर्धन परिवार के बच्चों का जीवन संघर्षपूर्ण एवं कष्टप्रद रहता है। जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यक्तित्व में परिश्रमी होना, सहिष्णुता, कष्टसाध्यता, कठोरता तथा अध्यवसाय का प्राकृतिक समावेश हो जाता है। धनी परिवार के बच्चे भ्रमणशील, आलसी, आरामपसन्द तथा फिजूल खर्च हो जाते हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

व्यक्तित्व पर विद्यालय का प्रभाव

विद्यालय को एक लघु समाज (Miniature Society) कहा जाता है, जिसे सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति व प्राप्ति के लिए निर्मित किया जाता है। विद्यालय बालक के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास के लिए पर्याप्त उत्तरदायी है। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) अध्यापक का प्रभाव – विद्यार्थीगण अपने अध्यापक को आदर्श के रूप में देखते हैं तथा जाने-अनजाने उनके आचरण के अनुसार ही स्वयं को ढालते हैं। अध्यापक का चरित्र, व्यवहार एवं व्यक्तित्व बालकों का पथ-प्रदर्शन करता है। अपने विद्यार्थियों के प्रति सहानुभूति, प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने वाले अध्यापकों का व्यक्तित्व बालकों पर अनुकूल प्रभाव रखता है। इसके विपरीत विद्यार्थियों के प्रति कठोर, रुक्ष एवं बुरा व्यवहार प्रदर्शित करने वाले अध्यापक अपने विद्यार्थियों के असम्मान, घृणा तथा तिरस्कार के भागी बनते हैं।

(2) सहपाठियों एवं मित्रों का प्रभाव- विद्यालय में समाज के कोने-कोने से विद्यार्थियों का आगमन होता है। स्कूल में बालक समाज के प्रत्येक वर्ग, स्तर तथा समुदाय के बालकों के साथ उठता-बैठता, खेलता-कूदता, पढ़ता-लिखता तथा विभिन्न व्यवहार करता है। बालक की आदतों के निर्माण में उसके सहपाठियों का विशेष योगदान रहता है। कक्षा के सहपाठियों के सम्पर्क में आकर बालक अच्छी-बुरी सभी तरह की बातें ग्रहण करता है। प्रेम, सहयोग, मित्रता, नेतृत्व आदि के भाव बालक से बालकं में आते हैं तो चोरी, झूठ बोलना, आक्रमण तथा ईष्र्या आदि की प्रवृत्तियाँ भी वह एक-दूसरे से सीखता है। सदाचार से युक्त सहपाठी एवं मित्रगण बालक को सद्गुणों से भर देते हैं तो कुसंग से उसका व्यक्तित्व विकृत भी हो जाता है।

(3) समूह का प्रभाव- विद्यालय में विभिन्न उद्देश्यों को लेकर बालकों के समूह या दल बन जाते हैं। ये दल अपने भीतर से एक नेता चुनकर उसका अनुगमन करते हैं। खेलकूद वाले बालकों का अपना एक समूह होता है, शैतान बालकों को अलग और पढ़ने वाले बालकों का अलग ही समूह या दल होता है। बालक का व्यक्तित्व अपने समूह से प्रभावित होता है।

व्यक्तित्व पर समाज का प्रभाव

प्रत्येक बालक अपने परिवार तथा विद्यालय का सदस्य बनने के साथ-ही-साथ समाज का भी सदस्य बनता है। एक स्थिति में समाज भी बालक या व्यक्ति के व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है। भातीय समाज में जाति-व्यवस्था को बोल बाला है। इस स्थिति में हमारे समाज में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति का मूल्यांकन उसकी जाति के सन्दर्भ में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त बालक अपने जीवन एवं व्यवहार के अनेक तरीके, सोचने के ढंग तथा विभिन्न प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति को समाज के नियमों एवं आदर्शों के अनुसार ही निर्धारित करता है। बालक की सामाजिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। उच्च सामाजिक वर्ग के बालकों में बड़प्पन की भावना प्रबल होती है। इसके विपरीत निम्न सामाजिक वर्ग के बालकों में प्रायः किसी-न-किसी रूप में हीन भावना विकसित हो जाया करती है। उच्च एवं निम्न सामाजिक वर्ग के परिवारों की आर्थिक स्थिति का अन्तर सम्बन्धित बालकों के व्यक्तित्व को अनुकूल अथवा प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है।

प्रश्न 4
व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का क्या प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट  कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक तत्त्वों का प्रभाव

समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है। समाज में तरह-तरह के व्यक्ति अपनी विशिष्ट स्थिति एवं कार्य रखते हुए एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। समाज से जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं तथा अवयवों का मनुष्य के व्यक्तित्व पर अमिट प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव का निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) वर्ण-व्यवस्था एवं व्यक्तित्व- भारतीय समाज में व्यक्ति की स्थिति तथा उसके कार्य वर्ण-व्यवस्था पर आधारित रहे हैं। वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। किसी विशेष वर्ण में जन्म लेने वाला बालक उस वर्ण के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों, मूल्यों तथा संस्कारों से परिचालित होता है। ये नियम, मूल्य, संस्कार, स्थिति एवं कार्य उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। ज्ञान लेने व देने वाले ब्राह्मण का व्यक्तित्व निश्चित रूप से समाज की सेवा करने वाले शूद्र के व्यक्तित्व से भिन्न होगा। इसी प्रकार वीरोचित कार्य करने वाले क्षत्रिय का व्यक्तित्व व्यापारी वैश्य से पृथक् दिखाई देगा। स्पष्टतः हमारे समाज की वर्ण-व्यवस्था व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव रखती है।

(2) सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यक्तित्व- समाज की जैसी परिस्थितियाँ होती हैं, उसी के अनुरूप मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास भी होता है। अधिकांश लोग सामाजिक नियमों, प्रथाओं, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। दीर्घकाल में पालन करने की यह परिपाटी जीवन शैली और व्यक्तित्व का एक अंग बन जाती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपने सामाजिक बहिष्कार या विरोध से भी डरता है। इसी कारण से वह समाज-विरोधी कार्य करना नहीं चाहता। व्यक्ति की आदतें, प्रवृत्तियाँ तथा सोचने- विचारने का ढंग भी सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाता है। इसमें सन्देह नहीं है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर उसकी सामाजिक परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव पड़ता है।

(3) व्यक्तिगत एवं सामूहिक संघर्ष- मानव-समाज का इतिहास व्यक्ति और समूह के संघर्ष की गाथा रहा है। कुछ लोग समाज की रुग्ण रूढ़ियों तथा परिपाटियों का विरोध करते हैं और समाज में उनके विरुद्ध विचारधारा का प्रचार करते हैं। रूढ़िवादी एवं विरोधी विचारधारा वाले लोगों में संघर्ष विभिन्न समस्याओं व तनावपूर्ण परिस्थितियों को जन्म देता है, जिनका मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।

(4) धार्मिक संस्थाएँ– मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गिरजाघर आदि सभी धार्मिक स्थान हैं जहाँ विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने इष्ट की पूजा-आराधना तथा ध्यान करते हैं। धार्मिक संस्थाओं के नियमों का लगातार पालन करने तथा धर्मस्थलों पर नियमित जाने से व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति का हो जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।।

(5) क्लब एवं गोष्ठियाँ आदि- क्लब तथा गोष्ठियाँ व्यक्तित्व के निर्माण में काफी योगदान देते हैं। समाज के लोग मनोरंजन या ज्ञान-चर्चा आदि के लिए क्लब या गोष्ठी बनाते हैं और एक निश्चित स्थान पर निश्चित समय पर एकत्र होते हैं। वहाँ खेलकूद, नाच-गाना, वार्तालाप, चर्चाएँ आदि के माध्यम से व्यक्तित्व प्रभावित होता है। बच्चों के भी अपने क्लब होते हैं।

(6) सिनेमा तथा टेलीविजन– आज की दुनिया में सिनेमा तथा टेलीविजन ने लोगों को इतना आकर्षित किया है कि अधिकतर लोग यहाँ तक कि बच्चे भी इनके आदी हो चुके हैं। फिल्म तथा अन्य कार्यक्रमों को देखकर बालक उनमें प्रदर्शित अच्छी-बुरी बातों का अनुकरण करते हैं। सिनेमा और टेलीविजन बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में विशिष्ट स्थान रखते हैं।

(7) मेले एवं त्योहार-तरह- तरह के मेले एवं त्योहार भी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक कारक हैं। इन कारकों का बालकों के व्यक्तित्व के विकास में उल्लेखनीय योगदान होता है। मेले एवं त्योहारों के माध्यम से बालक सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत होते हैं तथा उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का अत्यधिक योगदान होता है। वर्तमान समय में इण्टरनेट, फेसबुक तथा सोशल मीडिया जैसे कारक भी युवावर्ग के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

प्रश्न 5
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
या
आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व एक अत्यधिक जटिल एवं बहुपक्षीय संगठन होता है जिसका विकास असंख्य कारकों के घात-प्रतिघात के परिणामस्वरूप होता है। जहाँ तक प्राकृतिक कारकों का प्रश्न है, वे तो किसी-न-किसी रूप में सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। ये कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं, परन्तु मनुष्य क्योंकि एक सामाजिक प्राणी है तथा उसने अत्यधिक व्यापक संस्कृति भी विकसित की है; अत: प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में । सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का भी अत्यधिक योगदान होता है। सामाजिक मनुष्य के जीवन में आर्थिक कारकों की भी अत्यधिक प्रभावकारी भूमिका होती है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन को व्यापक रूप में प्रभावित करते हैं। आर्थिक कारकों के अन्तर्गत हम व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति की दशाओं, धन-प्राप्ति के स्रोतों एवं उपायों तथा आर्थिक अभावों, संकट एवं समृद्धि आदि का बहुपक्षीय अध्ययन करते हैं। आर्थिक कारक प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं निर्धारण में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

व्यक्तित्व तथा आर्थिक कारक

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं गठन पर आर्थिक कारकों का व्यापक एवं निरन्तर प्रभाव पड़ता है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर सक्रिय रहते हैं। तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते हैं। जीवन के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभाव का विवरण निम्नलिखित है|

(1) शैशवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव-
 आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही उसे प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि यदि गर्भावस्था में माँ को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार एवं आवश्यक औषधियाँ आदि उपलब्ध हों तो जन्म लेने वाला शिशु शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। गर्भवती स्त्री को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए धन की आवश्यकता होती है अर्थात् आर्थिक कारक की उल्लेखनीय भूमिका होती है। इसी प्रकार जन्म के उपरान्त शिशु के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार तथा अन्य सुविधाओं की अत्यधिक आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को ये समस्त सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं; अत: इन शिशुओं का विकास सुचारु रूप से होता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित होता है। इस प्रकार के शिशुओं के व्यक्तित्व में सामान्य रूप से अभावजनित ग्रन्थियों का विकास नहीं होता।

दुर्भाग्यवश अथवा परिस्थितियोंवश अनेक परिवार ऐसे भी हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। तथा अभावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को न तो पौष्टिक एवं सन्तुलित आहार उपलब्ध हो पाता है और न ही सामान्य जीवन के लिए आवश्यक अन्य सुविधाएँ ही पलब्ध हो पाती हैं अर्थात् उनकी शैशवावस्था अभावग्रस्त होती है। इस वर्ग के शिशुओं में शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रायः कुण्ठित हो जाता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाता। ऐसे शिशुओं के व्यक्तित्व में कुछ अभावजनित ग्रन्थियों का क्रमशः विकास होने लगता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही सक्रिय हो जाते हैं। तथा शैशवावस्था से ही शिशु के व्यक्तित्व को गम्भीर रूप से प्रभावित करने लगते हैं।

(2) बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में सदैव सक्रिय एवं प्रभावकारी रहते हैं। जब व्यक्ति शैशवावस्था को पार करके बाल्यावस्था में पदार्पण करता है तब उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों में आर्थिक कारकों का भी उल्लेखनीय स्थान होता है। बाल्यावस्था में पहुँचने के साथ-ही-साथ बालकों को आर्थिक कारकों की

आवश्यकता एवं महत्त्व की जानकारी प्राप्त होने लगती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चे अपनी आवश्यकताओं को सरलता से पूरा कर लेते हैं तथा उनकी आवश्यकताएँ भी निरन्तर रूप से बढ़ती जाती हैं। ऐसे बच्चे प्रायः तनाव रहित, प्रसन्न तथा सन्तुष्ट रहते हैं। इस स्थिति में बच्चों का मानसिक, बौद्धिक एवं संवेगात्मक विकास सुचारु रूप से होता है। ऐसे बच्चों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक होता है तथा उनमें सुरक्षा की भावना तथा आत्मविश्वास की कभी कमी नहीं होती। ये समस्त कारक बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव डालते हैं तथा बालक के व्यक्तित्व का सुचारु विकास होता है। जहाँ तक आर्थिक रूप से अभावग्रस्त परिवारों का प्रश्न है, उनके बच्चों के व्यक्तित्व पर परिवार की आर्थिक स्थिति का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इन परिवारों के बच्चों को अपनी आवश्यकताओं को नियन्त्रित करना पड़ता है तथा अनेक बार तो अभावों में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस वर्ग के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के कुण्ठित होने की प्रायः आशंका रहती है। ये बच्चे अनेक बार निराशा तथा असुरक्षा की भावना से घिर जाते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास का भी समुचित विकास नहीं हो पाता।।

बाल्यावस्था में व्यक्तित्व के सुचारु विकास में शिक्षा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था के लिए भी पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा ग्रहण करना सरल होता है, जबकि अभावग्रस्त परिवारों के बच्चे या तो शिक्षा से वंचित ही रह जाते हैं अथवा केवल साधारण एवं कामचलाऊ शिक्षा ही ग्रहण कर पाते हैं। शैक्षिक सुविधाओं के अन्तर के कारण भी भिन्न-भिन्न आर्थिक स्थिति वाले बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है। शिक्षा के अतिरिक्त बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में खेल एवं मनोरंजन के साधनों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न आर्थिक वर्ग वाले परिवारों के बच्चों का खेलों एवं मनोरंजन के साधनों में भी स्पष्ट अन्तर होता है। इस अन्तर का भी बच्चों के व्यक्तित्व के विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में भी व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।

(3) युवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- युवावस्था में प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी व्यवसाय का वरण करता है। इस अवस्था का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इस अवस्था में भी आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सम्पन्न परिवारों के युवकों को व्यावसायिक चुनाव के लिए अधिक सुविधाएँ एवं अवसर उपलब्ध होते हैं। इन युवकों को व्यवसाय-वरण में सामान्य रूप से कोई विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ता। इन परिस्थितियों में सम्बन्धित युवाओं के व्यक्तित्व का विकास एक भिन्न रूप में होता है। इससे भिन्न आर्थिक दृष्टि से हीन अथवा सीमित साधनों से युक्त परिवारों के युवाओं को व्यवसाय के वरण के लिए सामान्य रूप से अधिक योग्य एवं निपुण बनना पड़ता है तथा साथ ही भरपूर संघर्ष भी करने पड़ते हैं। इस प्रकार के प्रयास करने वाले युवा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसा देखने में आता है। कि अपनी योग्यता एवं संघर्ष के बल पर सफलता अर्जित करने वाले युवा अधिक सन्तुष्ट तथा

आत्मविश्वास से परिपूर्ण होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि युवावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों को अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है।

(4) वयस्कावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- वयस्कावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय योगदान होता है। व्यक्ति की आय एवं धन-उपार्जन के ढंग एवं उपायों का भी उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किसी सम्मानजनक एवं समाज द्वारा स्वीकृत व्यवसाय का वरण करते हैं, उनके व्यक्तित्व में सामान्य रूप से आत्म-विश्वास तथा स्थायित्व के गुणों का समुचित विकास होता है। इससे भिन्न कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो प्रायः धन-उपार्जन के लिए कुछ ऐसे उपायों को अपनाते हैं। जिन्हें समाज में बुरा माना जाता है। ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व सामान्य नहीं होता तथा उनके व्यक्तित्व में अस्थिरता, तनाव तथा परेशानी के लक्षण देखे जा सकते हैं। समाज द्वारा निन्दनीय व्यवसायों को अपनाने वाले व्यक्ति के ।

व्यक्तित्व में कुटिलता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। व्यवसाय की प्रकृति के अतिरिक्त वयस्क व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करती है। आर्थिक रूप से सम्पन्न तथा आर्थिक रूप से अभावग्रस्त व्यक्ति के व्यक्तित्व में अत्यधिक अन्तर देखा जा सकता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक स्तर पर आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है तथा जीवन के प्रत्येक स्तर पर व्यक्ति के व्यक्तित्व के ल्किास पर आर्थिक कारकों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 6
चरित्र एवं व्यक्तित्व से क्या आशय है? चरित्र एवं व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व और चरित्र

व्यक्तित्व के विषय में अध्ययन के दौरान चरित्र की अवधारणा से परिचित होना आवश्यक है। वस्तुत: व्यक्तित्व और चरित्र का निकट का सम्बन्ध है। इनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा विभेद को निम्नलिखित प्रकार से जान सकते हैं-

चरित्र (Character)- चरित्र सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार होता हैं। चरित्र का सम्बन्ध मनुष्य के व्यवहार से है। सामाजिक मान्यताओं तथा आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार ‘सच्चरित्र’ कहा जाएगा, किन्तु इसके विपरीत व्यवहार ‘दुष्चरित्र’ की श्रेणी में रखा जाएगा। मुनरो के अनुसार, “चरित्र में स्थायित्व होता है जिसके द्वारा सामाजिक निर्णय लिये जाते हैं। इसके लिए व्यक्ति की स्थायी मान्यताओं तथा उसके चुनाव की प्रकृति जो उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है, चरित्र कहलाती है।” झा के मतानुसार, “एक व्यक्ति का चरित्र वह मानसिक कारक है जो उसके सामाजिक व्यवहार को निश्चित करता है। कुछ विचारकों ने चरित्र को स्थायी भावों का एक संगठन कहा है।

व्यक्तित्वं (Personality)— व्यक्तित्व, शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक लक्षणों, रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता तथा चरित्र आदि का एक समन्वित रूप एवं संगठन है। जब व्यक्ति के समस्त गुण मिलकर एक इकाई का स्वरूप धारण करते हैं तो व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार चरित्र, व्यक्तित्व का एक आवश्यक अंग है और व्यक्तित्व में चरित्र समाहित होता है।

चरित्र एवं व्यक्तित्व का पारस्परिक सम्बन्ध– व्यक्ति का चरित्र विभिन्न स्थायी भावों का एक संगठन है, जबकि उसका व्यक्तित्व (चरित्र सदृश) अनेकानेक गुणों का एक समन्वित संगठन है। इससे बोध होता है कि यदि व्यक्तित्व एक सम्पूर्ण शरीर है तो चरित्र उसका एक अंग-मात्र है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया में जब कुछ संवेग किसी प्राणी या वस्तु विशेष से जुड़ जाते हैं तो वे स्थायी भाव बनाते हैं। व्यक्ति के समस्त स्थायीभाव, किशोरावस्था के नजदीक, एक प्रमुख स्थायीभाव से जुड़ जाते हैं। स्थायीभाव आत्म-सम्मान से जुड़कर आत्म-सम्मान को स्थायीभाव निर्मित करते हैं जो समस्त व्यवहार का संचालन करता है। संगठित चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण तभी होता है जब समस्त स्थायीभाव आत्म से सम्यक् ढंग से संगठित होते हैं। संगठित चरित्र, संगठित व्यक्तित्व को जन्म देता है। इस भाँति सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

इसके विपरीत, यदि व्यक्ति संवेगात्मक रूप से असन्तुलित हो जाए तो तनाव की स्थिति में उसके स्थायी भावों का संगठन भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकेगा। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यक्तित्व असंगठित तथा असन्तुलित हो जाएगा। व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियों तथा संवेगों के दमन से भावना ग्रन्थियों का निर्माण होता है, जिनके कारण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है।

उदाहरणों द्वारा पुष्टि- चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण एवं सम्बन्धीकरण की इस प्रक्रिया को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है

  1. व्यक्ति के समस्त स्थायी भाव ईश्वर भक्ति के स्थायीभाव से जुड़कर धार्मिक व्यक्तित्व का विकास करते हैं। धार्मिक व्यक्ति धार्मिक कार्यों में सबसे अधिक रुचि दिखाता है तथा उसकी तुलना में अन्य कार्यों को छोड़ देता है।
  2. धनलोलुपता के स्थायीभाव से जुड़कर व्यक्ति धन इकट्ठा करने वाला स्वार्थी, लोभी. कंजूस, बेईमान व्यक्तित्व धारण कर लेता है। उसके लिए धन से बढ़कर कुछ नहीं होता तथा वह सच्चाई, ईमानदारी, दया, ममता, न्याय और नैतिकता को पैसे की बलिवेदी पर न्योछावर कर देता है।
  3. इसी प्रकार, राष्ट्रभक्ति का स्थायीभाव प्रधान होने पर अन्य सभी स्थायीभाव उससे जुड़कर देशभक्त व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। देशभक्त के लिए राष्ट्र की आन-मान, मर्यादा, रक्षा तथा श्री-सम्पन्नता ही सब-कुछ है। वह अपने राष्ट्रहित में सभी स्वार्थों को बलिवेदी पर अर्पित कर देता है।

निष्कर्षतः व्यक्ति का चरित्र-निर्माण उसके व्यक्तित्व सम्बन्धी आन्तरिक प्रारूप को पर्याप्त सीमा तक सुनिश्चित करता है। इसी से उसका व्यवहार संचालित होता है और व्यवहार प्रदर्शन ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वप्रधान एवं महत्त्वपूर्ण अवयव है।

प्रश्न 7
असामान्य व्यक्तित्व (Abnormal Personality) से क्या आशय है? असामान्य व्यक्तित्व के लक्षणों, कारणों तथा उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

असामान्य व्यक्तित्व

प्रत्येक व्यक्ति वातावरण की सरल एवं जटिल परिस्थितियों में अपने व्यक्तित्व के गुणों के आधार पर समायोजन करता है। अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रक्रिया में सफल व्यक्ति ‘सामान्य व्यक्तित्व’ वाला होता है, किन्तु जो व्यक्ति वातावरण के साथ कुसमायोजित होते हैं ऐसे व्यक्ति ‘असामान्य व्यक्तित्व’ वाले कहे जाते हैं। सामान्य व्यक्तित्व संगठित होता है, जबकि असामान्य व्यक्तियों का व्यक्तित्व विघटित प्रकार का होता है। व्यक्तित्व का यह विघटन या तो किसी क्षेत्र-विशेष में या कुछ क्षेत्रों में हो सकता है। व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व भी विघटित हो सकता है। यह विघटन अंशकाल के लिए मा पूर्णकाल के लिए भी हो सकता है। वस्तुतः सामान्य प्रकार के व्यक्तित्व में समस्त गुण या लक्षण (Traits) समन्वित होते हैं, किन्तु असामान्य व्यक्तित्व में ये लक्षण पूर्ण रूप से समन्वित नहीं होते।

लक्षण–मैस्लो  तथा मिटिलमैन नामक मनोवैज्ञानिकों ने सामान्य समायोजित व्यक्तियों की विशेषताओं का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में ऐसे व्यक्तियों का व्यवहार लक्ष्यपूर्ण होता है, उनमें सुरक्षा की उपयुक्त भावना होती है, उपयुक्त संवेगात्मकता-स्वच्छन्दता आत्मूल्यांकन पाया जाता है, वैयक्तिकता को बनाये रखना और समूह की जरूरतों को पूरा करने की योग्यता होती है, साथ ही उनमें पूर्व अनुभवों से सीखने की योग्यता भी रहती है। ऐसे संगठित व्यक्तित्व के लक्षण यदि किसी व्यक्ति में नहीं हों तो उन्हें असामान्य कहा जाएगा।

वास्तविकता यह है कि दुनियाभर के ज्यादातर लोगों का व्यवहार पूर्णरूपेण संगठित नहीं होता, उनके व्यक्तित्व में कुछ-न-कुछ विकृति या विघटन पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, विश्व के सभी व्यक्ति सामान्य व्यक्तित्व वाले नहीं होते, थोड़ी-बहुत असामान्यता की हम अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में उपेक्षा कर देते हैं और अल्प विघटित व्यक्तित्व को संगठित व्यक्तित्व की श्रेणी में रख लेते हैं।

असामान्यताएँ– असामान्य व्यक्तित्व वाले लोगों के व्यवहार असामान्य होते हैं और वे किसी-न-किसी मानसिक रोग से पीड़ित हो सकते हैं। इन रोगों में प्रमुख हैं-स्वप्नचारिता (Somnambulims), हिस्टीरिया, स्मृतिभ्रंशता (Amnesia), बहुरूपी व्यक्तित्व (Multiple Personaliy), स्नायु दुर्बलता (Nervous thenia) तथा मनोविदलता (Sohizophrenia) आदि। अलग-अलग व्याधियों में किसी-न-किसी प्रकार का व्यक्तित्व-विघटन कम या ज्यादा मात्रा में पाया। जाता है और उसी के अनुसार व्यक्तित्व की असामान्यता दृष्टिगोचर होती है।

कारण- मनोवैज्ञानिकों ने असामान्य व्यक्तित्व के विभिन्न कारण बताये हैं जिनमें वंशानुक्रम, तनाव, अन्तर्द्वन्द्व, बुद्धि की कमी, विरोधी आदतें, रुचियों व इच्छाओं में समायोजन न होना आदि प्रमुख हैं। सिगमण्ड फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य व्यक्तित्व का कारण यौन-इच्छाओं का दमित होना माना है। इसके अतिरिक्त बहुत-से अन्य कारण हैं जो शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक आधारों से जुड़े हैं।

उपचार— आजकल असामान्य व्यक्तित्व को पुन: सामान्य एवं सन्तुलित बनाने के लिए अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। व्यक्तित्व में उत्पन्न साधारण असामान्यताओं को साक्षात्कार व सुझाव की मदद से दूर किया जा सकता है, किन्तु गम्भीर अवस्था में मनोविश्लेषण पद्धति द्वारा चिकित्सा की जाती है। अति गम्भीर असामान्यताओं के लिए विद्युत आघात, न्यूरो सर्जरी तथा क्लाइण्ट सेण्टर्ड थेरैपी की मदद ली जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
फ्रॉयड के अनुसार व्यक्तित्व-विकास की प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
फ्रॉयड ने अपने मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है। फ्रॉयड की मान्यता है कि व्यक्तित्व की संरचना तीन तत्त्वों या इकाइयों से हुई है। इन्हें फ्रॉयड ने क्रमशः इड, इगो तथा सुपर इगो के रूप में वर्णित किया है। यदि इन तीनों इकाइयों में सन्तुलन बना रहता है तो व्यक्तित्व सन्तुलित रहता है। यदि इन इकाइयों में सन्तुलन बिगड़ जाता है तो व्यक्तित्व के सन्तुलन के बिगड़ने की आशंका रहती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति का इड प्रबल हो जाये तो वह व्यक्ति प्रायः स्वार्थी, सुखवादी तथा अनियन्त्रित प्रकार का हो जाता है। इससे भिन्न यदि किसी व्यक्ति में इगो या अहम् प्रबल हो जाये तो व्यक्ति में मैं भाव’ हावी हो जाता है। यदि व्यक्ति में सुपर इगो या पराहम् प्रबल हो तो वह व्यक्ति आदर्शवादी बन जाता है। इस स्थिति में स्पष्ट है कि व्यक्तित्व के सन्तुलन के लिए इड, इगो तथा सुपर इगो में समन्वय आवश्यक है।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के मुख्य शीलगुणों का उल्लेख कीजिए। (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व अपने आप में एक व्यापक एवं जटिल अवधारणा है। व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए उसके मुख्य तत्त्वों अथवा शीलगुणों को जानना अवश्यक है। मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से चार तत्त्वों या शीलगुणों से होता है। व्यक्तित्व के ये तत्त्व शीलगुण हैं क्रमशः मानसिक गुण या तत्त्व, शारीरिक गुण या तत्त्व, सामाजिकता तथा दृढ़ता। मानसिक गुणों का अध्ययन करने के लिए इन्हें तीन भागों में बाँटा जाता हैं। ये भाग हैं—ज्ञान एवं बुद्धि, स्वभाव तथा संकल्प-शक्ति एवं चरित्र। व्यक्तित्व के निर्माण में सर्वाधिक योगदान ज्ञान तथा बुद्धि का ही होता है।

बुद्धि के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। सामान्य रूप से माना जाता है कि प्रभावशाली एवं उत्तम व्यक्तित्व के लिए व्यक्ति को बौद्धिक स्तर उच्च होना चाहिए। इसके विपरीत, मन्द बुद्धि वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व प्रायः असंगठित तथा निम्न स्तर का ही होता है। व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के स्वभाव की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है तथा उनके व्यवहार के अनुसार ही व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। व्यक्तित्व के निर्माण के लिए संकल्प-शक्ति एवं चरित्र की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उच्च एवं सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व उत्तम एवं सराहनीय माना जाता है तथा इनके विपरीत निम्न चरित्र तथा दुर्बल संकल्प-शक्ति वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निम्न ही माना जाता है। व्यक्तित्व के निर्माण में शारीरिक गुणों एवं तत्त्वों को भी अत्यधिक महत्त्व है। व्यक्तित्व के बाहरी पक्ष का निर्माण शरीर से ही होता है। आकर्षक शरीर वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रायः आकर्षक माना जाता है।

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने तो शारीरिक लक्षणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। मानसिक एवं शारीरिक गुणों के अतिरिक्त व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिकता का भी उल्लेखनीय स्थान है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास मुख्य रूप से उसकी सामाजिक अभिवृति के ही अनुकूल होता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण सामाजिकता के ही आधार पर किया है। व्यक्तित्व का एक अति आवश्यक तत्त्व या शीलगुण दृढ़ता भी है। व्यक्तित्व के सन्दर्भ में दढ़ता से आशय है-व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होना। जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होता है उसका व्यक्तित्व भी स्थिर होता है। व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व या दृढ़ता के अभाव में व्यक्तित्व को संगठित नहीं माना जा सकता।

प्रश्न3
पारम्परिक भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भारतीय पारम्परिक विचारधारा के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण का एक मुख्य आधार गुण, स्वभाव एवं कर्म स्वीकार किया गया है। इस आधार पर व्यक्तित्व के तीन वर्ग निर्धारित किये गये हैं। जिन्हें क्रमशः सात्विक, राजसिक तथा तामसिक कहा गया है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत सात्विक व्यक्ति के मुख्य लक्षण–शुद्ध आहार ग्रहण करना, धर्म एवं अध्यात्म में रुचि रखना तथा बुद्धि की प्रधानता हैं। राजसिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं-अधिक उत्साह, पराक्रम, वीरता, युद्धप्रियता तथा शान-शौकत से परिपूर्ण जीवन। तामसिक व्यक्तित्व के लक्षण पाये गये हैं—समुचित बौद्धिक विकास न होना तथा कौशलपूर्ण कार्यों को करने की क्षमता न होना। इस वर्ग के व्यक्ति प्राय: आलस्य, प्रमाद आदि दुर्गुणों से युक्त होते हैं। तामसिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का आचरण निम्न स्तर का होता है तथा ये प्रायः मद-व्यसन तथा गरिष्ठ आहार ग्रहण करना पसन्द करते हैं। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मण वर्ण सात्विक, क्षत्रिय वर्ण राजसिक, वैश्य वर्ण राजसिक-तामसिक तथा शूद्र वर्ण तामसिक प्रवृत्ति वाले होते हैं।

प्रश्न 4
शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक क्रैशमर (Kretschmer) ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है। उसने 400 व्यक्तियों की शारीरिक रूपरेखा का अध्ययन किया तथा उनके व्यक्तित्व को मुख्य रूप से दो समूहों में इस प्रकार बॉटा

(A) साइक्लॉयड (Cycloid)- क्रैशमर के अनुसार, “साइक्लॉयड व्यक्ति प्रसन्नचित्त, सामाजिक प्रकृति के, विनोदी तथा मिलनसार होते हैं। इनका शरीर मोटापा लिये हुए होता है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण पाया जाता है।”

(B) शाइजॉएड (Schizoid)— साइक्लॉयड के विपरीत शाइजॉएड व्यक्तियों की शारीरिक बनावट दुबली-पतली होती है। ऐसे लोग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संकोची, शान्त स्वभाव, एकान्तवासी, भावुक, स्वप्नदृष्टा तथा आत्म-केन्द्रित होते हैं। क्रैशमर ने इसके अतिरिक्त चार उप-समूह भी बनाये हैं

  1. सुडौलकाय (Athletic)– स्वस्थ शरीर, सुडौल मांसपेशियाँ, मजबूत हड्डियाँ, चौड़ा | वक्षस्थल तथा लम्बे चेहरे वाले शक्तिशाली लोग जो इच्छानुसार अपने कार्यों का व्यवस्थापन कर लेते हैं। ये क्रियाशील होते हैं। कार्यों में रुचि लेते हैं तथा अन्य चीजों की अधिक चिन्ता नहीं करते।।
  2. निर्बल (Asthenic)- लम्बी भुजाओं व पैर वाले दुबले-पतले निर्बल व्यक्ति जिनका सीना चपटा, चेहरा तिकोना तथा ठोढ़ी विकसित होती है। ऐसे लोग दूसरों की निन्दा तो करते हैं, लेकिन अपनी निन्दा सुनने के लिए तैयार नहीं होते।
  3. गोलकाय (Pyknic)- बड़े सिर और धड़ किन्तु छोटे कन्धे, हाथ-पैर वाले तथा गोल छाती वाले असाधारण शरीर के ये लोग बहिर्मुखी होते हैं।
  4. स्थिर-बुद्धि (Dysplasic)- ग्रन्थीय रोगों से ग्रस्त तथा मिश्रित प्रकार के प्रारूप वाले इन व्यक्तियों का शरीर साधारण होता है।

प्रश्न 5
स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
या
शेल्डन द्वारा दिए गए व्यक्तित्व के प्रकार बताइए। (2010)
उत्तर
शेल्डन (Sheldon) नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए मनुष्यों के स्वभाव को आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तियों को निम्नलिखित तीन भागों में बॉटा है|
(1) एण्डोमॉर्फिक (Endomorphic)- गोलाकार शरीर वाले कोमल और देखने में मोटे व्यक्ति इस विभाग के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे लोगों का व्यवहार आँतों की आन्तरिक पाचन शक्ति पर निर्भर करता है।

(2) मीजोमॉर्फिक (Mesomorphic)–
 आयताकार शरीर रचना वाले इन लोगों का शरीर शक्तिशाली तथा भारी होता है।

(3) एक्टोमॉर्फिक (Ectomorphic)- इन लम्बाकार शक्तिहीन व्यक्तियों में उत्तेजनशीलता अधिक होती है। ऐसे लोग बाह्य जगत् में निजी क्रियाओं को शीघ्रतापूर्वक करते हैं। शैल्डन ने उपर्युक्त तीन प्रकार के व्यक्तियों के स्वभाव का अध्ययन करके व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग बताये हैं

(A) विसेरोटोनिक (Viscerotonic)– एण्डोमॉर्फिक वर्ग के लिए विसेरोटोनिक प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। ये लोग आरामपसन्द तथा गहरी व ज्यादा नींद लेते हैं। किसी परेशानी के समय दूसरों की मदद पर आश्रित रहते हैं। ये अन्य लोगों से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं तथा तरह-तरह के भोज्य-पदार्थों के लिए लालायित रहते हैं।

(B) सोमेटोटोनिक (Somatotonic)- मीजोमॉर्फिक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सोमेटोटोनिक व्यक्तित्व के लोग बलशाली तथा निडर होते हैं। ये अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना पसन्द करते हैं। ये कर्मशील होते हैं तथा आपत्ति से भय नहीं खाते। |

(C) सेरीब्रोटोनिक (Cerebrotonic)– एक्टोमॉर्फिक वर्ग में सम्मिलित सेरीब्रोटोनिक व्यक्तित्व के लोग धीमे बोलने वाले, संवेदनशील, संकोची, नियन्त्रित तथा एकान्तवासी होते हैं। संयमी होने के कारण ये अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं को दमित कर सकते हैं। आपातकाल में ये दूसरों की सहायता लेना पसन्द नहीं करते। ये सौम्य स्वभाव के होते हैं। इन्हें गहरी नींद नहीं आती।

प्रश्न 6
सामाजिकता पर आधारित व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
टिप्पणी लिखिए-बहिर्मुखी व्यक्तित्व।
या
टिप्पणी लिखिए-अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।
या
अन्र्तमुखी व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए। अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी व्यक्तित्व में अन्तर स्पष्ट करें। (2018)
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जंग (Jung) ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए सामाजिकता को आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर मानवीय व्यक्तित्व के दो मुख्य वर्ग निर्धारित किये, जिन्हें क्रमश: बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व कहा गया। व्यक्तित्व के इन दोनों वर्गों या प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है–

(A) बहिर्मुखी (Extrovert)- बहिर्मुखी व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोगों का ध्यान सदा बाह्य समाज की ओर लगा रहता है। यही कारण है कि इनका आन्तरिक जीवन कष्टमय होता है।
  2. ऐसे व्यक्तियों में कार्य करने की दृढ़ इच्छा होती है और ये वीरता के कार्यों में अधिक रुचि रखते हैं।
  3. इनमें समाज के लोगों से शीघ्र मेल-जोल बढ़ा लेने की प्रवृत्ति होती है। समाज की दशा पर विचार करना इन्हें भाता है तथा ये उसमें सुधार लाने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं।
  4. अपनी अस्वस्थता एवं पीड़ा की ये बहुत कम परवाह करते। हैं।
  5. ये चिन्तामुक्त होते हैं।
  6. ये आक्रामक, अहंवादी तथा अनियन्त्रित प्रकृति के होते हैं।
  7. ये प्रॉय: प्राचीन विचारधारा के पोषक होते हैं।
  8. ये धारा प्रवाह बोलने वाले तथा मित्रवत् व्यवहार करने वाले होते हैं।
  9. ये शान्त एवं आशावादी होते हैं।
  10. परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार ये स्वयं को व्यवस्थित कर लेते हैं।
  11. ऐसे व्यक्ति शासन करने तथा नेतृत्व करने की इच्छा रखते हैं। ये जल्दी से घबराते भी नहीं हैं।
  12. बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में अधिकतर समाज-सुधारक, राजनीतिक नेता, शासक व प्रबन्धक, खिलाड़ी, व्यापारी और अभिनेता सम्मिलित होते हैं।
  13. ये ऐसे भावप्रधान व्यक्ति होते हैं जो जल्दी ही भावनाओं के वशीभूत हो जाते हैं। इनमें स्त्रियाँ मुख्य स्थान रखती हैं और ऐसे पुरुष भी जो दूसरों का दु:ख-दर्द देखकर जल्दी ही पिघल जाते हैं।

(B) अन्तर्मुखी (Introvert)- अन्तर्मुखी व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है। इनकी सामाजिक कार्यों में रुचि न के बराबर होती है। स्वयं अपने तक ही सीमित रहने वाले ऐसे लोग संकोची तथा एकान्तप्रिय होते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लोग कम बोलने वाले, लज्जाशील तथा पुस्तक-पत्रिकाओं को पढ़ने में गहरी रुचि रखते हैं।
  2. ये चिन्तनशील तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं।
  3. सन्देही प्रवृत्ति के कारण ये अपने कार्य में अत्यन्त सावधान रहते हैं।
  4. ये अधिक लोकप्रिय नहीं होते।
  5. इनका व्यवहार आज्ञाकारी होता है लेकिन ये जल्दी ही घबरा जाते हैं।
  6. ये आत्मकेन्द्रित और एकान्तप्रिय होते हैं।
  7. इनमें लचीलापन नहीं पाया जाता और क्रोध करने वाले होते हैं।
  8. ये चुपचाप रहते हैं।
  9. ये अच्छे लेखक तो होते हैं किन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते।
  10. समाज से दूर रहकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आदि समस्याओं के विषय में ये चिन्तनरत तो रहते हैं लेकिन समाज में सामने आकर व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाते।

बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के व्यक्तियों की विभिन्न विशेषताओं का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति समाज में शायद ही कुछ हों जिन्हें विशुद्धतः बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी का नाम दिया जा सके। अधिकांश व्यक्तियों का व्यक्तित्व ‘मिश्रित प्रकार का होता है जिसमें बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी दोनों व्यक्तित्वों की विशेषताएँ निहित होती हैं। ऐसे व्यक्तित्व को उभयमुखी व्यक्तित्व अथवा विकासोन्मुख व्यक्तित्व (Ambivert Personality) की संज्ञा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-निर्माण के सन्दर्भ में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास का अध्ययन करने वाले विद्वानों के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में सर्वाधिक योगदान प्रदान करने वाले मुख्य कारक दो हैं, जिन्हें क्रमशः आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण (Heredity) तथा पर्यावरण (Environment) के नाम से जाना जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इन दोनों कारकों की प्राथमिकता निर्धारित की है।

एक वर्ग के विद्वानों का मत है कि बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में केवल आनुवंशिकता का ही योगदान होता है। इन विद्वानों की मान्यता है कि बालक के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास उसकी वंश-परम्परा के ही अनुसार होता है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता हैं कि बच्चों के गुणों एवं लक्षणों का निर्धारण उनके माता-पिता एवं पूर्वजों के गुणों एवं लक्षणों से ही होता है। ये विद्वान् पर्यावरण के प्रभाव को कोई महत्त्व प्रदान नहीं करते तथा कहते हैं कि व्यक्ति स्वयं अपने पर्यावरण को अपने अनुकूल ढाल लेता है।

व्यक्तित्व का अध्ययन करने वाला विद्वानों का एक अन्य वर्ग बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण के प्रभाव की प्राथमिकता मानता है। इस वर्ग के विद्वानों का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण की भूमिका ही मुख्य होती है। इस वर्ग के विद्वानों के अनुसार जन्म के समय शिशु में व्यक्तित्व सम्बन्धी कोई गुण नहीं होते तथा बाद में पर्यावरण के प्रभाव से ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता है। एक पर्यावरणवादी विद्वान् का कथन इस प्रकार है, “मुझे एक दर्जन बच्चे दीजिए मैं आपकी माँग के अनुसार उनमें से किसी को चिकित्सक, वकील, व्यापारी अथवा चोर बना सकता हूँ। मनुष्य कुछ नहीं है, वह पर्यावरण का दास है, उसकी उपज है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरणवादियों के अनुसार बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता का कोई योगदान नहीं होता है।

उपर्युक्त विवरण को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि वास्तव में ये दोनों मत एकांगी हैं। तथा अपने आप में पूर्ण रूप से सत्य नहीं हैं। वास्तव में बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण दोनों का ही योगदान होता है।

प्रश्न 8
व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार मुख्य कारक कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर
नियमित एवं सहज-सामान्य जीवन व्यतीत करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व संगठित रहता है। पन्तु जीवन में निरन्तर असामान्यता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत कारक भी व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार होते हैं। व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारण अग्रलिखित हो सकते हैं-

(1) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना – व्यक्तित्व के संगठन के लिए संकल्प-शक्ति का प्रबल होना अति आवश्यक है। इस स्थिति में यदि किसी व्यक्ति की संकल्प-शक्ति दुर्बल हो जाती है तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(2) असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ– व्यक्ति के जीवन में मूलप्रवृत्तियों का विशेष महत्त्व होता है। यदि व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ सामान्य रूप से सन्तुष्ट रहती हैं तो व्यक्ति का व्यक्तित्व सामान्य एवं संगठित रहता है। परन्तु व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ असामान्य रूप ग्रहण कर लेती हैं तथा उनकी सामान्य सन्तुष्टि नहीं हो पाती तो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(3) बौद्धिक न्यूनता- व्यक्तित्व के संगठन के लिए समुचित रूप से विकसित बुद्धि का होना। अनिवार्य माना जाता है। यदि किसी व्यक्ति में बौद्धिक न्यूनता हो अर्थात् बौद्धिक विकास सामान्य से कम हो तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। वास्तव में न्यून बुद्धि वाला व्यक्ति जीवन में आवश्यक समायोजन नहीं कर पाता; अत: उसके व्यक्तित्व के विघटन के अवसर अधिक आ सकते हैं।

(4) इच्छाओं का दमन- इच्छाओं की सामान्य पूर्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व को संगठित बनाये रखने में सहायक होती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छाओं को निरन्तर दमित करने के लिए बाध्य हो जाता है तो उसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। सभ्य समाज में प्राय: व्यक्ति को अपनी यौन-इच्छाओं का अधिक दमन करना पड़ता है। इससे व्यक्तित्व के विघटन की आंशका बढ़ जाती है।

(5) गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग– निरन्तर रहने वाले शारीरिक रोग व्यक्ति को सामान्य जीवन व्यतीत करने से प्रायः रोक देते हैं। इसे बाध्यता का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्तित्व के संगठन पर पड़ता है तथा व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। इसी प्रकार कुछ मानसिक रोग भी व्यक्तित्व के विघटेन के लिए प्रबल कारक सिद्ध होते हैं।

(6) दिवास्वप्नों का लिप्त रहना- दिवास्वप्न देखना मनुष्य की एक असामान्य प्रवृत्ति है। यदि यह प्रवृत्ति बढ़ जाती है तो व्यक्ति यथार्थ जीवन से क्रमश: दूर जाने लगता है। यदि कोई व्यक्ति निरन्तर दिवास्वप्न देखने का आदी हो जाता है तो उसके व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वार्नर द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
वार्नर (Warner) ने शारीरिक आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया तथा इस वर्गीकरण के अन्तर्गत उसने दस प्रकार के व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है।
व्यक्तित्व के ये दस प्रकार हैं-

  1. सामान्य व्यक्तित्व
  2. असामान्य बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  3. मन्द बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  4. अविकसित शरीर का व्यक्तित्व
  5. स्नायविक व्यक्तित्व
  6. स्नायु रोगी व्यक्तित्व
  7. अपरिपुष्ट व्यक्तित्व
  8. सुस्त और पिछड़ा हुआ व्यक्तित्व
  9. अंगरहित व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा
  10. मिर्गी ग्रस्त व्यक्तित्व

प्रश्न 2
टरमन द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
टरमन (Terman) नामक मनोवैज्ञानिक ने अपने दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की बुद्धि-लब्धि को मुख्य आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के आठ प्रकार या वर्ग निर्धारित किये, जो इस प्रकार हैं-

  1. प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  2. उप-प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  3. अत्युत्कृष्ट व्यक्तित्व
  4. उत्कृष्ट बुद्धि व्यक्तित्व
  5. सामान्य बुद्धि व्यक्तित्व
  6. मन्द बुद्धि व्यक्तित्व
  7. मूर्ख तथा
  8. जड़-मूर्ख।

प्रश्न 3
थॉर्नडाइक द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
थॉर्नडाइक (Thorndike) ने अपने ही दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की विचार शक्ति को आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग निर्धारित किये

(1) सूक्ष्म विचारक- इस वर्ग में उन व्यक्तियों या बालकों को सम्मिलित किया जाता है जो किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके पक्ष तथा विपक्ष में सूक्ष्म रूप से विस्तृत विचार करते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सामान्य रूप से विज्ञान, गणित तथा तर्कशास्त्र में अधिक रुचि रखते हैं।

(2) प्रत्यय विचारक- प्रत्ययों के माध्यम से चिन्तन करने वाले व्यक्तियों को इस वर्ग में रखा जाता है। ये व्यक्ति शब्दों, संख्या तथा संकेतों आदि प्रत्ययों के आधार पर विचार करने में रुचि रखते हैं।

(3) स्थूल विचारक- थॉर्नडाइक ने तीसरे वर्ग के व्यक्तियों को स्थूल विचारक कहा है। इस वर्ग के व्यक्ति स्थूल चिन्तन में रुचि रखते हैं तथा अपने जीवन में क्रिया पर अधिक बल देते हैं।

प्रश्न 4
अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के बीच कोई दो अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 16)
उत्तर
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है तथा सामाजिक कार्यों में इनकी रुचि न के बराबर होती है। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति प्राय: शर्मीले होते हैं तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करना पसन्द करते हैं। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से मिलने में शर्म अनुभव नहीं करते तथा अपनी समस्याओं का समाधान अन्य व्यक्तियों से बातचीत करके ही करते हैं।

प्रश्न 5
व्यक्तित्व के विघटन के उपचार की सुझाव विधि का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
विघटित व्यक्तित्व के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सुझाव विधि (Suggestion Method) कहा जता है। इस विधि के अन्तर्गत समस्याग्रस्त व्यक्ति को किसी विशेषज्ञ अथवा उच्च बुद्धि वाले व्यक्ति द्वारा आवश्यक सुझाव दिये जाते हैं। इन सुझावों के प्रभाव से व्यक्ति के व्यवहार एवं दृष्टिकोण में क्रमशः परिवर्तन होने लगता है तथा उसका व्यक्तित्व भी संगठित होने लगता है। व्यक्तित्व के विघटन के उपचार के लिए आत्म-सुझाव भी प्रायः उपयोगी सिद्ध होता है। आत्म-सुझाव के अन्तर्गत व्यक्ति को स्वयं अपने आप को कुछ ऐसे सुझाव दिये जाते हैं जो उसके मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करने में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करते हैं।

प्रश्न 6
टिप्पणी लिखिए-आस्था-उपचार।
उत्तर
अति प्राचीनकाल से मानसिक रोगों तथा व्यक्ति की असामान्यता के निवारण के लिए आस्था-उपचार विधि को अपनाया जाता रहा है। आस्था-उपचार प्रणाली अपने आप में कोई वैज्ञानिक उपचार पद्धति नहीं है। इसका आधार आस्था तथा विश्वास ही है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा किसी महान् व्यक्ति या ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास निर्मित किया जाता है तथा माना जाता है कि उसी की कृपा से व्यक्ति की असामान्यता या रोग निवारण हो जाता है। आस्था-उपचार पद्धति में समर्पण का भाव निहित होता है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-विघटन के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के विघटन तथा असामान्यता के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सम्मोहन विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि के अन्तर्गत एक व्यक्ति उपचारक की भूमिका निभाता है तथा उसे सम्मोहनकर्ता कहा जाता है। सम्मोहनकर्ता अपनी विशेष शक्ति द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करता है तथा उसे नियन्त्रित करके आवश्यक निर्देश देता है। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को ज्यों-का-त्यों पालन करने को बाध्य हो जाता है। सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को वे समस्त व्यवहार न करने का आदेश देता है जो व्यक्ति के विघटन अथवा असामान्यता के प्रतीक होते हैं। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को स्वीकार कर लेता है। इसके उपरान्त सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को चेतना के सामान्य स्तर पर ले आता है। ऐसा माना जाता है कि चेतना के सामान्य स्तर पर आ जाने पर भी व्यक्ति उन सब आदेशों का पालन करता रहता है जो उसे सम्मोहन की अवस्था में दिये जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का व्यवहार सामान्य हो जाता है तथा व्यक्तित्व के विघटनकारी लक्षण समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 8
टिप्पणी लिखिए-मनोविश्लेषण विधि।
उत्तर
व्यक्तित्व की असामान्यता एवं विघटन के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को मनोविश्लेषण विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि को प्रारम्भ करने का श्रेय मुख्य रूप से फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक को है। इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम सम्बन्धित व्यक्ति की व्यक्तित्व सम्बन्धी असामान्यता के मूल कारण को ज्ञात किया जाता है। इसके लिए मुक्त-साहचर्य तथा स्वप्न-विश्लेषण विधियों को अपनाया जाता है। सामान्य रूप से व्यक्ति के अधिकांश असामान्य व्यवहारों का मुख्य कारण किसी इच्छा का अनावश्यक दमन हुआ करता है। असामान्य व्यवहार के मूल कारण को ज्ञात करके सम्बन्धित दमित इच्छा को किसी उचित एवं समाज-सम्मत ढंग से पूरा करने का सुझाव दिया जाता है। दमित इच्छाओं के सन्तुष्ट हो जाने से व्यक्तित्व की असामान्यता का निवारण हो जाता है तथा व्यक्ति का व्यक्तित्व क्रमशः सामान्य एवं संगठित होने लगता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. व्यक्ति के समस्त बाहरी तथा आन्तरिक गुणों की समग्रता को ……………के नाम से जाना जाता है।
2. व्यक्तित्व व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का……….संगठन है।
3. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण उसके जन्मजात तथा……… गुणों के द्वारा होता है।
4. व्यक्ति के व्यक्तित्व के सही रूप का अनुमान उसके ………को देखकर लगाया जा सकता है।
5. शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण ………ने प्रस्तुत किया है। (2018)
6. स्थूलकाय……….. का एक प्रकार होता है।
7. व्यक्ति के स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण…………….नामक मनोवैज्ञानिक ने । प्रस्तुत किया है।
8. सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण मुख्य रूप से…………. नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया है
9. अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी के प्रकार हैं।
10. अन्तर्मुखता-बहिर्मुखता वर्गीकरण…………..द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
11. मिलनसार, सामाजिक, क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को….कहा जाता है।
12. टरमन नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण व्यक्ति की………… के आधार पर किया है।
13. सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति मानसिक रूप से………….. होता है।
14. व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं—
(1) आनुवंशिकता तथा |
(2)………….।
15. बाहरी जगत् में अधिक रुचि लेने वाले तथा प्रबल सामाजिक भावना वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व …………कहलाता है।
16. भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास ……… होता है।
17. आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को………… प्रभावित करते हैं।
18. व्यक्तित्व के विघटन का व्यक्ति के जीवन पर…….प्रभाव पड़ता है।
19. आनुवंशिकता के वाहक कारक कहलाते हैं।
20. सम्मोहन तथा आस्था उपचार से…….का उपचार किया जाता है।
21. असामान्य व्यक्तित्व के उपचार के लिए मनोविश्लेषण विधि का प्रतिपादन……..ने किया
22. मन के तीन पक्षों इड, इगो एवं सुपर-इगो में…………….. व्यक्तित्व का तार्किक, व्यवस्थित विवेकपूर्ण भाग है।। (2016)
23. थायरॉइड ग्रन्थि से निकलने वाले स्राव (रस) को ….कहते हैं। (2017)
उत्तर-
1. व्यक्तित्व
2. गत्यात्मक
3, अर्जित
4. व्यवहार
5. क्रैशमर
6. व्यक्तित्व
7. शैल्डन
8. जंग
9. व्यक्तित्व
10. जंग
11. बहिर्मुखी
12. बुद्धिलब्धि
13. स्वस्थ
14. पर्यावरण
15. बहिर्मुखी
16. भिन्न-भिन्न रूप में
17. गम्भीर
18. प्रतिकूल
19. जीन्स
20. असामान्य व्यक्ति
21. फ्रॉयड
22. सुपर-इगो
23. थायरॉक्सिन

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
अंग्रेजी के शब्द Personality की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई?
उत्तर
Personality शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘personare’ शब्द से हुई है।

प्रश्न 2.
व्यक्तित्व में व्यक्ति के किन-किन गुणों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर
व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 3.
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से किस माध्यम से होती है?
उत्तर
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से उसके व्यवहार के माध्यम से होती है।

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए आलपोर्ट द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’

प्रश्न 5.
व्यक्तित्व की मन के द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
मन के अनसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के किन-किन प्रकारों का उल्लेख किया है?
उत्तर
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकारों अर्थात् साइक्लॉयड तथा शाइजॉएड का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उसने व्यक्तित्व के चार अन्य प्रकारों का भी उल्लेख किया है—

  1. सुडौलकाय
  2. निर्बल
  3. गोलकाय तथा
  4. स्थिर-बुद्धि।

प्रश्न 7.
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के कौन-कौन से प्रकार निर्धारित किये गये हैं?
उत्तर
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकार निर्धारित किये गये हैं

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा
  2. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।

प्रश्न 8.
सन्तुलित व्यक्तित्व की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना
  2. संवेगात्मक सन्तुलन तथा सामंजस्यता
  3. सामाजिकता तथा
  4. संकल्प शक्ति की प्रबलता।

प्रश्न 9.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं-आनुवंशिकता तथा पर्यावरण।

प्रश्न 10.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारक हैं-

  1. शरीर रचना
  2. स्नायु संस्थान
  3. ग्रन्थि रचना तथा
  4. संवेग एवं आन्तरिक स्वभाव।।

प्रश्न 11.
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक हैं

  1. परिवार के मुखिया का प्रभाव
  2. परिवार के अन्य सदस्यों का प्रभाव
  3. परिवार में उपलब्ध स्वतन्त्रता
  4. परिवार का संगठित अथवा विघटित होना तथा
  5. परिवार की आर्थिक स्थिति।

प्रश्न 12.
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से किस-किसका प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर पड़ने वाले मुख्य प्रभाव हैं

  1. अध्यापक का प्रभाव
  2. सहपाठियों का प्रभाव तथा
  3. समूह का प्रभाव।

प्रश्न 13.
व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. व्यक्तित्व की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
  2. असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ
  3. बौद्धिक न्यूनता
  4. इच्छाओं का दमन
  5. गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग तथा
  6. दिवास्वप्नों में लिप्त रहना।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
परसोना शब्द किससे सम्बन्धित है?
(क) प्राणी से।
(ख) ज्ञान से
(ग) योग्यता से
(घ) व्यक्तित्व से
उत्तर
(घ) व्यक्तित्व से

प्रश्न 2.
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व को किस प्रकार का संगठन माना जाता है?
(क) अस्पष्ट
(ख) स्पष्ट ।
(ग) गत्यात्मक
(घ) स्थायी एवं कठोर
उत्तर
(ग) गत्यात्मक

प्रश्न 3.
सन्तुलित व्यक्तित्व का लक्षण नहीं है (2018)
(क) सुरक्षा की भावना
(ख) उपयुक्त स्व-मूल्यांकन
(ग) दिवास्वप्न ।
(घ) यथार्थ आत्म-ज्ञान
उत्तर
(ग) दिवास्वप्न

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा है
(क) जैविक
(ख) मनोशारीरिक
(ग) मनोभौतिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) मनोशारीरिक

प्रश्न 5.
“व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के
प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”-यह कथन किसका है?
(क) मन
(ख) म्यूरहेड
(ग) आलपोर्ट
(घ) फ्रॉयड
उत्तर
(ख) म्यूरहेड

प्रश्न 6.
किस मनोवैज्ञानिक ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है?
(क) शेल्डन
(ख) जंग
(ग) क्रैशमर
(घ) वार्नर
उत्तर
(ग) क्रैशमर

प्रश्न 7.
अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी-
(क) सामाजिक परिस्थितियाँ हैं ।
(ख) तनाव-दबाव के सूचक हैं।
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।
(घ) व्यक्तित्व के दोष हैं ।
उत्तर
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।

प्रश्न 8.
अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी प्रकार के व्यक्तित्व का वर्णन करने वाले मनोवैज्ञानिक हैं (2014, 17)
(क) शेल्डन
(ख) जुग
(ग) एडलर
(घ) आलपोर्ट
उत्तर
(ख) जुग

प्रश्न 9.
मिलनसार, सामाजिक क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को कहा जाता है
(क) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व
(ग) उभयमुखी व्यक्तित्व
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व

प्रश्न 10.
आर्थिक कारकों का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है
(क) केवल शैशवावस्था में ।
(ख) केवल बाल्यावस्था में
(ग) केवल वैवाहिक अवस्था में
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में
उत्तर
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में

प्रश्न 11.
व्यक्ति के व्यक्तित्व में आनुवशिकता के वाहक कहलाते हैं
(क) गुणसूत्र,
(ख) जीन्स
(ग) रक्त कोशिकाएँ
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) जीन्स

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन नलिकाविहीन ग्रन्थि नहीं हैं?
(क) गल ग्रन्थि
(ख) पीयूष ग्रन्थि
(ग) लार ग्रन्थि
(घ) शीर्ष ग्रन्थि
उत्तर
(ग) लार ग्रन्थि

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में किसको ‘मास्टर ग्रन्थि’ कहते हैं? (2017) 
(क) थायरॉड्ड
(ख) पैराथायरॉइड
(ग) एड्रीनल
(घ) पिट्यूटरी
उत्तर
(घ) पिट्यूटरी

प्रश्न 14.
व्यक्तित्व के विघटन का कारण नहीं होता
(क) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
(ख) बौद्धिक न्यूनता
(ग) इच्छाओं का दमन ।
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना
उत्तर
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना

प्रश्न 15.
व्यक्तित्व की असामान्यता के उपचार के लिए अपनायी जाती है (2014)
(क) सम्मोहन विधि
(ख) मनोविश्लेषण विधि
(ग) सुझाव विधि
(घ) ये सभी विधियाँ
उत्तर
(घ) ये सभी विधियाँ

प्रश्न 16.
व्यक्तित्व को सन्तुलित बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण हैं
(क) इदम्
(ख) अहम्
(ग) पराहं
(घ) ये तीनों
उत्तर
(ख) पराहं ये तीनों

प्रश्न 17.
सामाजिक आदर्शों से संचालित होता है (2018)
(क) अहम्
(ख) पराहं
(ग) इदम् ।
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) पराहं

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