UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 4 अशोक के फूल

By | June 2, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 4 अशोक के फूल

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 4 अशोक के फूल

अशोक के फूल – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2017, 16, 14, 13, 12, 11, 10)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन-परिचय तथा साहित्यिक उपलब्धियाँ
हिन्दी के श्रेष्ठ निबन्धकार, उपन्यासकार, आलोचक एवं भारतीय संस्कृति के युगीन व्याख्याता आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म वर्ष 1907 में बलिया जिले के ‘दूबे का छपरा’ नामक ग्राम में हुआ था। संस्कृत एवं ज्योतिष का ज्ञान इन्हें उत्तराधिकार में अपने पिता पण्डित अनमोल दूबे से प्राप्त हुआ। वर्ष 1930 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त करने के बाद वर्ष 1940 से वर्ष 1950 तक ये शान्ति निकेतन में हिन्दी भवन के निदेशक के रूप में रहे। विस्तृत स्वाध्याय एवं साहित्य सृजन का शिलान्यास यहीं हुआ। वर्ष 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने। वर्ष 1980 से वर्ष 1966 तक पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने। वर्ष 1967 में इन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। अनेक गुरुतर दायित्वों को निभाते हुए उन्होंने वर्ष 1979 में रोग-शय्या पर ही चिरनिद्रा लीं।

साहित्यिक सेवाएँ
आधुनिक युग के गद्यकारों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी गद्य के धोत्र में इनकी साहित्यिक सेवाओं का आकलन निम्नवत् किया जा सकता है–

  1. निबन्धकार के रूप में आचार्य द्विवेदी के निबन्धों में जहाँ साहित्य और संस्कृति की अखण्ड धारा प्रवाहित होती है, वहीं प्रतिदिन के जीवन की विविध गतिविधियों, क्रिया-व्यापारों, अनुभूतियों आदि का चित्रण भी अत्यन्त सजीवता और मार्मिकता के साथ हुआ है।
  2. आलोचक के रूप में आलोचनात्मक साहित्य के सृजन की दृष्टि से द्विवेदी जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी आलोचनात्मक कृतियों में विद्वत्ता और अध्ययनशीलता स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। ‘सूर-साहित्य’ उनकी प्रारम्भिक आलोचनात्मक कृति है।
  3. उपन्यासकार के रूप में द्विवेदी जी ने चार महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की है। ये हैं-‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचन्द्र लेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित ये उपन्यास द्विवेदी जी की गम्भीर विचार-शक्ति के प्रमाण
  4. ललित निबन्धकार के रूप में द्विवेदी जी ने ललित निबन्ध के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य किए हैं। हिन्दी के ललित निबन्ध को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले निबन्धकार के रूप में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अग्रणी हैं। निश्चय ही ललित निबन्ध के क्षेत्र में वे युग-प्रवर्तक लेखक रहे हैं।

कृतियाँ
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनको निम्नलिखित वर्गों में प्रस्तुत किया गया है-

  1. निबन्ध संग्रह अशोक के फूल, कुटज, विचार-प्रवाह, विचार और वितर्क, आलोक पर्व, कल्पलता।
  2. आलोचना साहित्य सूर-साहित्य, कालिदास की लालित्य योजना, कबीर, साहित्य-सहचर, साहित्य का मर्म।
  3. इतिहास हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास
  4. उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा, अरुचन्द्र लेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
  5. सम्पादन नाथ-सिद्धों की बानियाँ, संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन्देश-रासका।
  6. अनूदित रचनाएँ प्रबन्ध चिन्तामणि, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, प्रबन्धकोश, विश्व परिचय, लाल कनेर, मेरा बचपन आदि।

भाषा-शैली
द्विवेदी जी ने अपने साहित्य में संस्कृतनिष्ट, साहित्यिक तथा सरल भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, उर्दू तथा फारसी भाषा के प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी किया है।

इनकी भाषा में मुहावरों का प्रयोग प्रायः कम हुआ है। इस प्रकार द्विवेदी जी की भाषा शुद्ध, परिष्कृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली है। उनकी गद्य-शैली प्रौद एवं गम्भीर है। इन्होंने विवेचनात्मक, गवेषणात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक तथा आत्मपरक शैलियों का प्रयोग अपने साहित्य में किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी की कृतियाँ हिन्दी साहित्य की शाश्वत निधि हैं। उनके निबन्धों एवं आलोचनाओं में उच्च कोटि की विचारात्मक क्षमता के दर्शन होते हैं। हिन्दी साहित्य जगत में उन्हें एक विद्वान् समालोचक, निबन्धकार एवं आत्मकथा लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त है। वस्तुतः वे एक महान् साहित्यकार थे। आधुनिक युग के गद्यकारों में उनका विशिष्ट स्थान है।

अशोक के फूल – पाठ का सार

परीक्षा में ‘पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

सामन्तीय सभ्यता एवं परिष्कृत रुचि का प्रतीक : अशोक
‘अशोक के फूल’ नामक निबन्ध आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिन्तन की परिणति है। भारतीय परम्परा में अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं-श्वेत एवं लाल पुष्प। श्वेत पुष्प तान्त्रिक क्रियाओं की सिद्धि के लिए उपयोगी हैं, जबकि लाल पुष्प स्मृतिवर्धक माना जाता है। द्विवेदी जी का मानना है कि मनोहर, हस्यमय एवं अलंकारमय दिखने वाला अशोक का वृक्ष विशाल सामन्ती सभ्यता की परिष्कृत रुचि का प्रतीक है। यही कारण है कि सामन्ती व्यवस्था के ढह जाने के साथ-साथ अशोक के वृक्ष की महिमा एवं गरिमा दोनों नष्ट होने लगी। इससे अशोक के वृक्ष का सामाजिक महत्त्व भी कम होने लगा।

अशोक वृक्ष की पूजा: गन्धर्वो एवं यक्षों की देन
प्राचीन साहित्य के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि अशोक के वृक्ष में कन्दर्प देवताओं का वास है। वास्तव में पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्ठाता कन्दर्प देवता की होती थी। इसे ही ‘मदनोत्सव’ कहते थे। लेखक का मानना है कि अशोक के स्तवकों में वह मादकता आज भी है। भारतवर्ष का सुवर्ण युग इस पुष्प के प्रत्येक दल में लहरा रहा है।

मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा
लेखक का मानना है कि दुनिया की सारी चीजें मिलावट से पूर्ण हैं। कोई भी वस्तु अपने विशुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद, केवल एक ही चीज विशुद्ध है। और वह है मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा।

वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबकुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। मानव-जाति की दुर्दम, निर्मम धारा के हजारों वर्षों का रूप देखने से स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य की जीवन-शक्ति बड़ी ही निर्मम हैं, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही हैं। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती हुई यह जीवन धारा आगे बदी है।

अशोक के वृक्ष की मौज
लेखक कहता है कि अशोक का वृक्ष आज भी अपनी उसी स्थिति में विद्यमान है, जिसमें वह दो हजार वर्ष पहले था। उसका कहीं से भी कुछ नहीं बिगड़ा है। वह उसी मस्ती में हँस रहा है, वह उसी मस्ती में झूम रहा है। इससे सभी को रस यानी आनन्द लेने की शिक्षा लेनी चाहिए। उदास या निराश होना व्यर्थ है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर::: देने होंगे।

प्रश्न 1.
पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुन्दर वस्तुओं को हतभाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अन्तिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा में भी अनुमान कर सकता हूँ।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) किस पुष्प को देखकर लेखक उदास हो जाते हैं?
उत्तर:
अशोक के खिले हुए पुष्य को देखकर लेखक उदास हो जाते हैं। वे उसकी सुन्दरता के कारण नहीं, बल्कि उसकी कमियों का अन्वेषण कर दुःखी हो रहे हैं।

(ii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या बताना चाहता है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक बताना चाहता है कि संसार में सुन्दर वस्तुओं को दुर्भाग्यशाली या कम समय के लिए भाग्यवान समझकर ईष्र्थावश उससे आनन्द की प्राप्ति करने वाले लोगों की कमी नहीं है।

(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्वयं के विषय में क्या कहा है?
उत्तर:
लेखक ने स्वयं को अन्य लोगों से कम दूरदर्शी बताकर अपनी उदारता एवं महानता का परिचय दिया है। लेखक अशोक के फूल के सम्बन्ध में अपनी मनः स्थिति एवं सोच को स्पष्ट कर रहा है।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश के लेखक व पाठ का नाम स्पष्ट कीजिए। लेखक ने इस पाठ में किस शैली का प्रयोग किया है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश के लेखक हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं तथा पाठ का नाम अशोक के फूल है। इस निबन्ध में लेखक ने वर्णनात्मक, विवेचनात्मक एवं व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है।

(v) निम्न शब्दों के अर्थ लिखिए।
उत्तर:
हतभाग्य – भाग्यहीन, अभागा दूरदर्शी – भविष्य की घटनाओं को समझने वाला।

प्रश्न 2.
अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला, वह अपूर्व था। सुन्दरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था। वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कन्धों पर से ही फूट उठता था।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) संस्कृत के किस कवि ने अशोक को सम्मानित किया?
उत्तर:
संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अशोक को जो सम्मान दिया. वह अपूर्व था। उससे पहले किसी भी कवि ने अशोक का वर्णन नहीं किया।

(ii) किस फूल की सुन्दरता के कारण सुन्दरियाँ उन्हें अपने कानों का आभूषण बनाती हैं?
उत्तर:
अशोक के फूलों की सुन्दरता के कारण सुन्दरियाँ उन्हें अपने कानों का आभूषण बनाती हैं। यह कर्णफूल जब उनके गलों पर झूलता है तो वे और अधिक सुन्दर लगने लगती हैं।

(iii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का उददेश्य क्या हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने अशोक के फूल का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। यहाँ लेखक कहना चाहता है कि साहित्यकारों में मुख्य रूप से संरकृत के महान् कवि कालिदास ने अशोक के फूल का जो मादकतापूर्ण वर्णन किया है, ऐसा किसी अन्य ने नहीं किया है।

(iv) अशोक पर फूल आने के सम्बन्ध में लेखक को क्या विचार है?
उत्तर:
लेखक का विचार है कि अशोक पर तभी पुष्प आते हैं जब कोई अत्यन्त सुन्दर युवती अपने कोमल और संगीतमय नूपुरवाले चरणों से उस पर प्रहार करती है।

(v) निम्न शब्दों का अर्थ लिखिए – आसिजनकारी तथा कर्णावतंस।
उत्तर:
आसिंजनकारी – अनुरागोत्पादक
कर्णावतंस – कर्णफूल।

प्रश्न 3.
कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है! केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद अशोक से उसका स्वार्थ नहीं सधा। क्यों उसे वह याद रखती? सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में किस प्रसंग की चर्चा की गई है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक आचार्य द्विवेदी जी ने रचनाकारों अर्थात् साहित्यकारों द्वारा अशोक के फूल को भूल जाने की आलोचना की है।

(ii) लेखक ने गद्यांश में किस प्रकार के लोगों को स्वार्थी कहा है?
उत्तर: मस्त गद्यांश में लेखक आचार्य द्विवेदी ने रचनाकारों अर्थात् साहित्यकारों द्वारा ‘अशोक के फूल’ के भूल जाने की आलोचना की है कि यह संसार बड़ा स्वार्थी है। यह केवल उन्हीं बातों को याद रखता है जिससे उसके स्वार्थ की सिद्धि होती है।

(iii) “सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।” से लेखक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
लेखक कहना चाहता है कि यह संसार स्वार्थी व्यक्तियों से भरा पड़ा है। यह हर व्यक्ति अपने ही स्वार्थ को साधने में लगा हुआ है। उसे अपने ही स्वार्थ को सिद्ध करने से फुरसत नहीं है, तो वह अशोक के फूल की क्या परवाह करेगा, जो शायद उसके लिए किसी काम का नहीं है।

(iv) ‘फूल’ शब्द के पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर:
फूल- पुष्य, कुसुम, प्रसून आदि।

(v) स्वार्थ शब्द का विलोम लिखिए।
उत्तर:
स्वार्थ शब्द का विलोम निःस्वार्थ होगा।

प्रश्न 4.
मुझे मानव-जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हजारों वर्ष का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती सी जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है। शुद्ध केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा) है। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र हैं। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण-भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सब कुछ बह जाता है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने किस ओर संकेत किया हैं?
उत्तर:
मानव सभ्यता एक प्रवाहमान धारा के समान है। हमारी सभ्यता और संस्कृति भी अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का मिला-जुला रूप है। इन्हीं तथ्यों की ओर लेखक ने संकेत किया है।

(ii) मानव जाति किस मोह को रौंदती चली आ रही है?
उत्तर:
मनुष्य की जीवन शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही हैं। अब तक न जाने उसने कितनी जातियों एवं संस्कृतियों को अपने पीछे छोड़ दिया है।

(iii) मानव का व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित होता है?
उत्तर:
मानव कभी भी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट नहीं रहता। अतः हमेशा ही उसके व्यवहार एवं संस्कृति में परिवर्तन होता रहता है। इसके लिए वह हमेशा प्रयत्नशील रहा है।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किन बातों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक मनुष्य की जीने की इच्छा के बारे में ध्यान आकृष्ट कराना चाहता है। वह बताना चाहता है कि मनुष्य की जीने की इच्छा इतनी प्रबल है कि अब तक न जाने कितनी सभ्यताओं और संस्कृतियों का उत्थान और पतन हुआ है। न जाने कितनी जातियाँ और संस्कृतियाँ पनपी और नष्ट हो गईं, परन्तु आज तक जो शुद्ध और जीवित है, वह है मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा अर्थात् उसकी जीने की इच्छा।

(v) ‘दुर्दम’ और ‘निर्मम’ शब्दों में से उपसर्ग और मूल शब्द छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
दुर्दम = ‘दुर्’ (उपसर्ग), दम (मूल शब्द)
निर्मम = ‘निर् ‘ (उपसर्ग), मम (मूल शब्द)

प्रश्न 5.
आज जिसे हम बहुमूल्य संस्कृति मान रहे हैं, वह क्या ऐसी ही बनी रहेगी? सम्राटों-सामन्तों ने जिस आचार-निष्ठा को इतना मोहक और मादक रूप दिया था, वह लुप्त हो गई; धर्माचार्यों ने जिस ज्ञान और वैराग्य को इतना महार्घ समझा था, वह लुप्त हो गया; मध्ययुग के मुसलमान रईसों के अनुकरण पर जो रस-राशि उमड़ी थी, वह वाष्प की भाँति उड़ गई, क्या यह मध्ययुग के कंकाल में लिखा हुआ व्यावसायिक युग को कमले ऐसा ही बना रहेगा? महाकाल के प्रत्येक पदाघात में धरती धसकेगी। उसके कुंठनृत्य की प्रत्येक चारिका कुछ-न-कुछ लपेटकर ले जाएगी। सब बदलेगा, सब विकृत होगा—सब नवीन बनेगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का उद्देश्य यह बताना है कि सभ्यता एवं संस्कृति निरन्तर परिवर्तनशील हैं। उसे समय के प्रहार से कोई नहीं बच सकता।

(ii) धर्माचार्यों के महार्घ ज्ञान-वैराग्य का क्या हुआ?
उत्तर:
लेखक कहता है कि संसार का नियम है, जो आज जिस रूप में है, कल वह अवश्य नए रूप में परिवर्तित होगा। अतः धर्म के आचार्यों ने जिस ज्ञान और वैराग्य को कीमती व प्रतिष्ठित समझा था, आज उसका अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त हो गया।

(iii) मध्ययुगीन रस-राशि से लेखक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मध्ययुगीन रस-राशि से लेखक का तात्पर्य मध्ययुग में मुस्लिम शासकों के अनुकरण से समाज में उमड़ी रसिक संस्कृति से है। लेखक कहता है कि वह संस्कृति भी भाप बनकर कहाँ लुप्त हो गई अर्थात् समाप्त हो गई।

(iv) निम्न शब्दों का अर्थ लिखिए मोहक, विकृत, बहुमूल्य।
उत्तर:
मोहक – आकर्षक, मोहने वाला
विकृत – खण्डित
बहुमूल्य – कीमती

(v) निम्न शब्दों के विलोम लिखिए – वैराग्य, नवीन।
उत्तर:
वैराग्य – अनुराग
नवीन – प्राचीन

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