UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 1 भोजस्यौदार्यम्

By | June 2, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 1 भोजस्यौदार्यम्

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 1 भोजस्यौदार्यम्

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

गद्यांश 1
ततः कदाचिद् द्वारपाल आगत्य महाराजं भोजं प्राह–’देव, कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति। राजा ‘प्रवेशय’ इति प्राह। ततः प्रविष्टः सः कविः भोजमालोक्य अद्य में दारिद्रयनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षाश्रूणि मुमोच। राजा तमालोक्य प्राह–’कवे, किं रोदिषि” इति। ततः कविराह-राजन्! आकर्णय मद्गृहस्थितिम्।।
सन्दर्म प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद तत्पश्चात् द्वारपाल ने आकर महाराज भोज से कहा, “देव! द्वार पर ऐसा विहान् खड़ा है जिसके तन पर केवल लँगोटी ही शेष है।” राजा बोले, “प्रवेश कराओं।” तब उस कवि ने भोज को देखकर यह मानकर कि आज मेरी दरिद्रता दूर हो जाएगी, प्रसन्नता के आँसू बहाए। राजा ने उसे देखकर कहा, “कवि! रोते क्यों हो?” तब कवि ने कहा-‘राजन्! मेरे घर की स्थिति को सुनिए।”

गद्यांश 2
राजा शिव, शिव इति उदीरयन् प्रत्यक्षरं लक्ष दत्त्वा प्राह–’त्वरितं गच्छ गेहम्, त्वद्गृहिणी खिन्ना वर्तते।’ अन्यदा भोजः श्रीमहेश्वरं नमितुं शिवालयमभ्यगच्छत्। तदा कोऽपि ब्राह्मणः राजानं शिवसन्निधौ प्राह–देव!
सन्दर्म पूर्ववत्।।
अनुवाद ‘शिव, शिव’ कहते हुए प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ देकर राजा ने। कहा, ”शीघ्र घर जाओ। तुम्हारी पत्नी दु:खी है।’ भोज अगले दिन श्री महेश्वर (भगवान शंकर) को नमन करने के लिए शिवालय गए। तब शिव के समीप राजा से किसी ब्राह्मण ने कहा- हे राजन्।

गद्यांश 3
राजा तस्यै लक्ष दत्वा कालिदासं प्राह–‘सखे, त्वमपि प्रभातं वर्णय’ इति।
ततः कालिदासः प्राह
अभूत् प्राची पिङ्गा रसंपतिरिव प्राप्य कनुर्क।
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि।।
क्षणं क्षीणस्तारा नृपतय इवानुद्यम्पराः।
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः।।
राजातितुष्टः तस्मै प्रक्षरं लक्षं ददौ। (2014, 18, 11, 06)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद राजा ने उसे एक लाख (रुपये) देकर कालिदास से कहा-“मित्र तुम भी प्रभात का वर्णन करो।” तब कालिदास ने कहा-पूर्व दिशा सुवर्ण (सूर्य की पहली किरण) को पाकर पारे-सी पीली (सुनहरी) हो गई है। चन्द्रमा वैसे ही कान्तिहीन हो गया है, जैसे अज्ञानियों (गॅवारों) की सभा में विद्वान्। तारे उद्यमहीन राजाओं की भाँति क्षणभर में क्षीण हो गए हैं। निर्धनों (धनहीनों) के गुणों के सदृश दीपक भी नहीं चमक रहे हैं। कहने का अर्थ है जिस प्रकार दरिद्रता व्यक्ति के गुणों को ढक लेती है उसी प्रकार सवेरा होने पर दीपक व्यर्थ हो जाता है। राजा ने सन्तुष्ट होकर उसको प्रत्येक शब्द पर लाख मुद्राएँ दीं।।

श्लोकों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

श्लोक 1
अये लाजानुच्चैः पथि वचनमाकण्यं गृहिणीं।
शिशोः कर्णी यत्नात् सुपिहितवती दीनवदना।।
मयि क्षीणोपाये यदकृतं दृशावश्रुबहुले।
तदन्तः शल्यं मे त्वमसि पुनरुद्धमुचितः ।। (2017, 16, 13, 10)
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।
अनुवाद मार्ग पर ऊँचे स्वर में ‘अरे, खील लो’ सुनकर दीन मुख वाली (मेरी पत्नी ने बच्चों के कान सावधानीपूर्वक बन्द कर दिए और मुझ दरिद्र पर जो अश्रुपूर्ण दृष्टि डाली, वह मेरे हृदय में काँटे सदृश गड़ गई, जिसे निकालने में आप ही समर्थ हैं।

श्लोक 2
अर्द्ध दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्द्ध शिवस्याहृतम्।
देवेत्थं जगतीतले पुरहराभावे समुन्मीलति।।
गङ्गा सागरमम्बरं शशिकला नागाधिपः मातलम्।।
सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत् त्वां मां तु भिक्षाटनम्।। (2013)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद शिव का अद्भुभाग दान-वैरी अर्थात् विष्णु ने तथा अर्द्ध भाग पार्वती ने हर लिया। इस प्रकार भू-तल पर शिव की कमी होने से गंगा सागर में, चन्द्रकला आकाश में तथा नागराज (शेषनाग) भू-तल में समा गए। सर्वज्ञता और अधीश्वरता आपमें तथा भिक्षाटन मुझमें आ गया।

श्लोक 3
विरलविरलाः स्थूलास्ताराः कलाविव सज्जुनाः।
मुन इव मुनेः सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः।।
अपसरति च ध्यान्तं चित्तात्सतामिव दुर्जनः।।
ब्रजति च निशा क्षित्रं लक्ष्मीरनुघमिनामिव।। (2018)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद आकाश में बड़े तारे उसी प्रकार गिने-चुने (बहुत कम) । दिखाई दे रहे हैं, जैसे कलियुग में सज्जन। सारा आकाश मुनि के सदृश प्रसन्न (निर्मल) हो गया है। आकाश से अँधेरा वैसे ही मिटता जा रहा है, जैसे सज्जनों के चित्त से दुर्जन और उद्यमहीनों की लक्ष्मी तीव्रता से भागी जा रही हो।

श्लोक 4
अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राप्य कनकं।
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि।।
क्षणं क्षीणस्तारा नृपतय इवानुद्यमपराः ।।
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः ।। (2017, 14, 13, 11)
सन्दर्भ पूर्ववत्।
अनुवाद पूर्व दिशा सुवर्ण (सूर्य की पहली किरण) को पाकर पारे-सी पीली (सुनहरी) हो गई है। चन्द्रमा वैसे ही कान्तिहीन हो गया है, जैसे अज्ञानियों (गॅवारों) की सभा में विद्वज्जन। तारे उद्यमहीन राजाओं की भाँति क्षणभर में क्षीण हो गए हैं। निर्धनों (धनहीनों) के गुणों के सदृश दीपक भी नहीं चमक रहे हैं। कहने का अर्थ है, जिस प्रकार दरिद्रता व्यक्ति के गुणों को ढक लेती है, उसी प्रकार संवेरा होने पर दीपक व्यर्थ हो जाता है।

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न पूछे जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित है।

प्रश्न 1.
द्वारपालः भोजं किम् अकथयत्? (2017, 13, 11)
उत्तर:
द्वारपालः भोजम् अकथयत् यत् कौपीनावशेषः कोऽपि विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति।

प्रश्न 2.
भोजं दृष्ट्वा कविः किम् अचिन्तयत?
उत्तर:
भोजं दृष्ट्वा कविः अचिन्तयत् ‘अद्य मम दरिद्रतायाः नाशः भविष्यति’ इति।

प्रश्न 3.
भोजः कविम् किम् अपृच्छतु? (2017, 16)
उत्तर:
भोजः कविम् अपृच्छत् ‘कवे! किं रोदिषि?’ इति।

प्रश्न 4.
राजा भोजः कालिदासं किं कर्तुं प्राह? (2018)
उत्तर:
राजा भोजः कालिदास प्रभातवर्णन कर्तुं प्राह।

प्रश्न 5.
भोजस्य सभायां कः कविः प्रभातम् अवर्णयत्? (2012)
उत्तर:
भोजस्य सभायां कवि: कालिदासः प्रभातम् अवर्णयत्।

प्रश्न 6.
कवि कथम् अरोदी? (2017)
उत्तर:
कवेः रोदनस्य कारणं तस्य दरिद्रता आसीत्।

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