UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 5 जातक-कथा

By | June 2, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 5 जातक-कथा

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 5 जातक-कथा

गद्यांशों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

गद्यांश 1
अतीते प्रथमकलो जनाः एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्तम्। सर्वाकारपरिपूर्ण पुरुषं राजानुमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एकं सिहं राजानमकर्वन्। ततः शकुनिगणाः हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते परस्परमवलोकयन्तः एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यावचन्। (2017, 13)
सन्दर्म प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ नामक पाठ के ‘उलूकजातकम् संण्ड से उद्धृत है।
अनुवाद प्राचीनकाल में प्रथम युग के लोगों ने एक विद्वान् सौभाग्यशाली एवं सर्वगुणसम्पन्न पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्ठे होकर एक शेर को (जंगल का) राजा बनाया। उसके बाद हिमालय प्रदेश में एक चट्टान पर एकत्र होकर पक्षीगण ने कहा, “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। बिना राजा के रहना उचित नहीं। हमें भी एक को राजा के पद पर बिठाना चाहिए।” तत्पश्चात् उन सबने एक-दूसरे पर दृष्टि डालते हुए एक उल्लू को देखकर कहा, ”हमें यह पसन्द है।”

गद्यांश 2
अथैकः शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्व: अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’, अस्य एतस्मिन् राज्याभिषेककाले एवं रूपं मुखं, कुक्षस्य च कीदृशं भविष्यति। अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिताः वयं तप्राकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला इव तत्र तत्रैव धड़क्ष्यामः। ईदृशो राजा मह्यं न रोचते इत्याहस एवमुक्त्वा ‘मह्यं न रोचते’, ‘मयं न रोचते’ इति विरुवन् आकाशे उदपतत्। उलूकोऽपि उत्थाय एनमन्वधावत्। तत आरभ्य तौ अन्योन्यवैरिणौ जाती। शकुनयः अपि सुवर्णहंसं राजानं कृत्वा अगुमन्। (2012)
सन्दर्भ पूर्ववत्।।
अनुवाद तत्पश्चात् सबका विचार जानने के लिए एक पक्षी ने तीन बार घोषणा की तब एक कौआ उठकर बोला, “थोड़ा ठहरो, जब राज्याभिषेक के समय इसका ऐसा मुख है तो क्रोधित होने पर भला कैसा होगा? इसके क्रोधित होकर देखने पर तो हम सब गर्म कड़ाही में डाले गए तिलों-से जहाँ-के-तहाँ जल जाएँगे। मुझे ऐसा राजा पसन्द नहीं।”

ऐसा कहकर वह ‘मुझे नहीं पसन्द, मुझे नहीं पसन्द’, चिल्लाता हुआ आकाश में उड़ गया। उल्लू ने भी उसका पीछा किया। तभी से वे दोनों परस्पर शत्रु बन गए। सुवर्ण हंस को राजा बनाकर पक्षीगण भी चल पड़े।

गद्यांश 3
अतीते प्रथमकल्ये चतुष्पदाः सिंहं राजानमकुर्वन्। मत्स्या आनन्दमत्स्य, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुनः सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। स तस्ये वरमदात् यत् सा आत्मनश्चितरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराजः तस्यै वरं दत्त्वा मिवति शकुनिसर्छ संन्यपतत्। नानाप्रकारा हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन् महति पाषाणतले सुंन्यपतन्। हंसराजः आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसर्छ अवलोकयन्ती मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं में स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत। मयूरः ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगवेंण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महतः शकुनिसङ्खस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंसः लज्जितः ‘अस्य नैव हीः अस्ति न बर्हाणां समुत्थाने लज्जा। नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ इत्यकथयत्।।

हंसराजः तदैव परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरमदात्। मयूरो हंसपोतिकामप्राप्य लज्जितः तस्मात् स्थानात् पलायितः। हंसराजोऽपि हृष्टमानसः स्वगृहम् अगच्छत्।। (2017, 14, 13, 12, 11)
सन्दर्म प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ नामक पाठ के ‘नृत्यजातकम्’ खण्डे से उद्धृत है।
अनुवाद प्राचीनकाल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा बनाया। मछलियों ने आनन्द मछली को तथा पक्षियों ने सुवर्ण इस को। इस सुवर्ण हंस की पुत्री हंसपोतिका अति रुपवती थी। उसने उसे वर अर्थात् अधिकार दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करें। उसे वर देकर हंसराज पक्षियों के समूह में हिमालय पर उतरा। विविध प्रकार के हंस, मोर आदि पक्षी आकर एक विशाल चट्टान के तल पर एकत्र हो गए। हंसराज ने अपनी पुत्री को आदेश दिया कि वह आए और अपने मनपसन्द पति का वरण करे।

”यह मेरा स्वामी हो’–उसने (हंसपोतिका ने) पक्षी-समूह पर दृष्टि डालते हुए मणि के रंग सदृश गर्दन तथा रंग बिरंगे पंखों वाले मोर को देखकर कह।। “आज भी तुम मेरी शक्ति को नहीं देखती’ अर्थात् अब तक तुम्हें मेरे पराक्रम का आभास नहीं है, यह ककर गोर ने अति गर्व सहित लज्जा को त्यागकर पक्षियों के उस विशाल समूह के मध्य नृत्य करना प्रारम्भ किया और नृत्य करते-करते नग्न हो गया। यह देख सुवर्ण राजहंस ने लजित होकर कहा, “इसे न तो संकोच (विनय) है और न पंखों को ऊपर करने में लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी बेटी नहीं दूंगा।” उसी सभा के मध्य हंसराज ने अपनी पुत्री अपने भाँजे हंसपौत को दे दी। हंसपुत्री को न पाने पर मोर लज्जित होकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर चला गया।

श्लोकों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी अनुवाद

श्लोक 1
न में रोचते भद्रं वः उलूकस्याभिषेचनम् ।
अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो, भविष्यति।। (2012)
सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा नामक पाठ के ‘उलूकजातकम् खण्ड से उद्धृत है।
अनुवाद मुझे तुम्हारे द्वारा उल्लू का राज्याभिषेक पसन्द नहीं। इस अक्रोधित का मुख तो देखो, न जाने क्रोध में कैसा होगा?

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न-पत्र 2 में संस्कृत दिग्दर्शिका के पाठों (गद्य व पद्य) में से चार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 2 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न 1.
चतुष्पदाः कं राजानम् अकुर्वन्? (2018, 14, 13, 10)
उत्तर:
चतुष्पदाः एके सिंहं राजानम् अकुर्वन्।

प्रश्न 2.
शकुनिगणाः सन्निपत्य किम् व्यचारयन्? (2012)
उत्तर:
शकुनिगणाः सन्निपत्य व्यचारयन्–‘मनुष्येषु राजा , प्रज्ञायते . तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको चासो नाम न वर्तते। एको राज स्थाने स्थापयितव्यः।’

प्रश्न 3.
अन्ते शकुनिगणाः कं राजानम् अकुर्वन्? (2015)
उत्तर:
अन्ते शकुनिगणा: सुवर्णहंसं राजानम् अकुर्वन्।

प्रश्न 4.
हंसपोतिका कस्य दुहिता आसीत्? (2013)
उत्तर:
हंसपोतिका सुवर्णराजहंसस्य दुहिता आसीत्।

प्रश्न 5.
राजहंसः परिषन्मध्ये कस्मै दुहितरम् अददात? (2011)
उत्तर:
राजहंसः परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।

प्रश्न 6.
हंसराजः स्व दुहितरं कस्मै अददातु? (2011)
उत्तर:
हंसराजः स्व दुहितरं राजहंसाय अददात्।

प्रश्न 7.
अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः कं राजानम् कुर्वन्? (2014, 13)
उत्तर:
अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः एके सिंह, राजानम् कुर्वन्।

प्रश्न 8.
हंस पोतिका पति रूपेण कस्य वरणम् अकरोत्? (2018)
उत्तर:
हंस पोतिका पति रूपेण मयूरस्य वरणम् अकरोत्।।

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