UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

By | June 1, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी

 

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi खण्डकाव्य Chapter 5 त्यागपथी (रामेश्वर शुक्ल अञ्चल)

प्रश्न 1.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) को संक्षेप में (अपने शब्दों में) लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। [2015, 17]
या
‘त्यागपथी’ काव्यग्रन्थ की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध उल्लेख कीजिए। [2009, 10]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश लिखिए।[2011, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ के तीसरे सर्ग का कथानक (कथा/कथावस्तु) अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के चौथे सर्ग के आधार पर राज्यश्री, हर्षवर्द्धन और दिवाकर मित्र के वार्तालाप का सारांश लिखिए। [2014]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथावस्तु लिखिए। [2016, 18]
या
‘त्यागपथी’ के प्रथम तीन सर्यों के आधार पर सम्राट् हर्षवर्द्धन के जीवन की कहानी लिखिए।
या
‘त्यागपथी’ के पंचम (अन्तिम) सर्ग की कथा अपनी भाषा (अपने शब्दों) में लिखिए। [2013, 14, 15, 16, 17]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में पंचग सर्ग में वर्णित घटनाओं को अपने शब्दों में लिखिए।
या
आपको ‘त्यागपथी’ का कौन-सा सर्ग रुचिकर प्रतीत होता है और क्यों ? उस सर्ग का कथानक अपनी भाषा में लिखिए। [2009]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के पंचम संर्ग’ की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए। [2015, 18]
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के द्वितीय संर्ग’ की कथा अपने शब्दों में लिखिए।[2014, 15]
या
‘त्यागपथी’ में वर्णित भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का वर्णन कीजिए। [2012, 13]
[ संकेत : प्रथम, द्वितीय व तृतीय सर्ग का सारांश संक्षेप में लिखें। ]
उत्तर
श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल द्वारा रचित ‘त्यागपथी’ ऐतिहासिक खण्डकाव्य की कथा पाँच सर्गों में विभाजित है। इसमें छठी शताब्दी के प्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्धन के त्याग, तप और सात्विकता का वर्णन किया गया है। सम्राट् हर्ष की वीरता का वर्णन करते हुए कवि ने इस खण्डकाव्य में राजनीतिक एकता और विदेशी आक्रान्ताओं के भारत से भागने का भी वर्णन किया है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक निम्नवत् है-

प्रथम सर्ग

थानेश्वर के राजकुमार हर्षवर्द्धन वन में आखेट हेतु गये थे। वहीं उन्हें अपने पिता प्रभाकरवर्द्धन के विषम ज्वर-प्रदाह का समाचार मिलता है। कुमार तुरन्त लौट आते हैं। वे पिता के रोग का बहुत उपचार करवाते हैं, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती। हर्षवर्द्धन के बड़े भाई राज्यवर्द्धन उत्तरापथ पर हूणों से युद्ध करने में लगे थे। हर्षवर्द्धन ने दूत के साथ अपने अग्रज को पिता की अस्वस्थता का समाचार पहुँचाया। इधर हर्षवर्द्धन की माता अपने पति की दशा बिगड़ती देख आत्मदाह के लिए तैयार हो जाती हैं। हर्ष ने उन्हें बहुत समझाया, पर वे नहीं मानीं और हर्ष के पिता की मृत्यु से पूर्व ही वे आत्मदाह कर लेती हैं। कुछ समय पश्चात् राजा प्रभाकरवर्द्धन की भी मृत्यु हो जाती है। पिता का अन्तिम संस्कार कर हर्षवर्द्धन शोकाकुल मन से राजमहल में लौट आते हैं। उन्हें इस बात की बड़ी चिन्ता है कि पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर अनुजा (बहन) राज्यश्री तथा अग्रज (भाई) राज्यवर्द्धन की क्या दशा होगी ?

द्वितीय सर्ग

राज्यवर्द्धन हुणों को परास्त कर सेनासहित अपने नगर सकुशल लौट आते हैं। शोकविह्वल हर्षवर्द्धन की दशा देख वे बिलख-बिलखकर रोते हैं। माता-पिता की मृत्यु से शोकाकुल राज्यवर्द्धन वैराग्य लेने का निश्चय कर लेते हैं, किन्तु तभी उन्हें समाचार मिलता है कि मालवराज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री के पति गृहवर्मन को मार डाला है तथा राज्यश्री को कारागार में डाल दिया है। राज्यवर्द्धन वैराग्य को भूल मालवराज का विनाश करने चल देते हैं। राज्यवर्द्धन गौड़ नरेश को पराजित कर देते हैं, परन्तु गौड़ नरेश छलपूर्वक उनकी हत्या करवा देता है। हर्षवर्द्धन को जब यह समाचार मिलता है तो वे विशाल सेना लेकर मालवराज से युद्ध करने के लिए चल पड़ते हैं। मार्ग में हर्षवर्द्धन को समाचार मिलता है कि उनकी छोटी बहन राज्यश्री बन्धनमुक्त होकर; विन्ध्याचल की ओर वन में चली गयी है। यह समाचार पाकर हर्षवर्द्धन बहन को खोजने वन की ओर चल देते हैं। वन में दिवाकर मित्र के आश्रम में उन्हें एक भिक्षुक से यह समाचार मिलता है कि राज्यश्री आत्मदाह करने वाली है। वे शीघ्र ही पहुँचकर राज्यश्री को आत्मदाह करने से बचा लेते हैं। वे दिवाकर मित्र और राज्यश्री को अपने साथ ले कन्नौज लौट आते हैं।

तृतीय सर्ग

हर्षवर्द्धन अपनी बहन के छीने हुए राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं। वहाँ अनीतिपूर्वक अधिकार जमाने वाला मालव-कुलपुत्र भाग जाता है। राज्यवर्द्धन का हत्यारा गौड़पति-शशांक भी अपने गौड़-प्रदेश को भाग जाता है। सभी लोग हर्षवर्द्धन से कन्नौज का राजा बनने की प्रार्थना करते हैं, परन्तु हर्ष अपनी बहन का राज्य लेने से मना कर देते हैं। वे अपनी बहन से सिंहासन पर बैठने को कहते हैं, परन्तु बहन भी राज-सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। फिर हर्षवर्द्धन ही कन्नौज के संरक्षक बनकर अपनी बहन के नाम से वहाँ का शासन चलाते हैं।

इसके बाद छः वर्षों तक हर्षवर्द्धन का दिग्विजय-अभियान चलता है। उन्होंने कश्मीर, पञ्चनद, सारस्वत, मिथिला, उत्कल, गौड़, नेपाल, वल्लभी, सोरठ आदि सभी राज्यों को जीतकर तथा यवन, हूण और अन्य विदेशी शत्रुओं का नाश करके देश को अखण्ड और शक्तिशाली बनाकर एक सुसंगठित राज्य बनाया। अपनी बहन के स्नेहवश वे अपनी राजधानी भी कन्नौज को ही बनाते हैं और अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी तथा धर्म, संस्कृति और कला की भी पर्याप्त उन्नति हो रही थी।

चतुर्थ सर्ग

राज्यश्री एक बड़े राज्य की शासिका होकर भी दु:खी है। वह सब कुछ छोड़कर गेरुए वस्त्र धारणकर भिक्षुणी बनना चाहती है। वह हर्षवर्द्धन से संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँगने जाती है तो हर्षवर्द्धन उसे समझाते हैं कि तुम तो मन से संन्यासिनी ही हो। यदि तुम गेरुए वस्त्र ही धारण करना चाहती हो तो अपने वचनानुसार मैं भी तुम्हारे साथ ही संन्यास ले लूंगा। तभी दिवाकर मित्र आकर उन्हें समझाते हैं कि वास्तव में आप दोनों भाई-बहन का मन संन्यासी है, किन्तु आज देश की रक्षा एवं सेवा संन्यास-ग्रहण करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। दिवाकर मित्र के समझाने पर दोनों संन्यास का विचार त्याग कर देशसेवा में लग जाते हैं।

पंचम सर्ग

हर्षवर्द्धन एक आदर्श सम्राट् के रूप में शासन करते हैं। उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी है, विद्वानों की पूजा की जाती है। सभी प्रजाजन आचरणवान्, धर्मपालक, स्वतन्त्र तथा सुरुचिसम्पन्न हैं। महाराज हर्षवर्द्धन सदैव जन-कल्याण एवं शास्त्र-चिन्तन में लगे रहते हैं। अपने भाई के ऐसे धर्मानुशासन को देखकर राज्यश्री भी प्रसन्न रहती है। सम्पूर्ण राज्य एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। एक बार हर्षवर्द्धन तीर्थराज प्रयाग में सम्पूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं

हुई थी घोषणा सम्राट की साम्राज्य भर से,
करेंगे त्याग सारा कोष ले संकल्प कर में ।

सब कुछ दान करके वे अपनी बहन से माँगकर वस्त्र पहनते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक पाँच वर्ष बाद वे इसी प्रकार अपना सर्वस्व दान करने लगे। इस दान को वे प्रजा-ऋण से मुक्ति का नाम देते हैं। अपने जीवन में वे छ: बार इस प्रकार के सर्वस्व-दान का आयोजन करते हैं। हर्षवर्द्धन संसारभर में भारतीय संस्कृति का प्रसार करते हैं। इस प्रकार कर्तव्यपरायण, त्यागी, परोपकारी, परमवीर, महाराज हर्षवर्द्धन का शासन सब प्रकार से सुखकर तथा कल्याणकारी सिद्ध होता है।

प्रश्न 2.
‘त्यागपथी’ के प्रमुख पात्रों का परिचय देते हुए बताइए कि आपको कौन-सा पात्र सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों ?
उत्तर
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में प्रभाकरवर्द्धन तथा उनकी पत्नी यशोमती, उनके दो पुत्र (राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन), एक पुत्री (राज्यश्री), कन्नौज, मालव, गौड़ प्रदेश के राजाओं के अतिरिक्त आचार्य दिवाकर, सेनापति भण्ड आदि अनेक पात्र हैं। खण्डकाव्य का नायक हर्षवर्द्धन है तथा काव्य की नायिका होने का गौरव उसकी बहन राज्यश्री को प्राप्त हुआ है। इन सभी पात्रों में मुझे हर्षवर्द्धन का चरित्र सबसे अधिक प्रभावित करता है; क्योंकि वह एक आदर्श भाई एवं पुत्र; देश-प्रेमी, अजेय-योद्धा, श्रेष्ठ शासक, महान् त्यागी, धर्मपरायण और महादानी है।।

प्रश्न 3.
‘त्यागपथी’ के नायक अथवा प्रमुख पात्र (हर्षवर्द्धन) का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘त्यागपथी’ काव्य के आधार पर हर्षवर्द्धन की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए। [2009, 11, 12, 14, 15, 16, 18]
या
” ‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन का चरित्र देशप्रेम का प्रखरतम (आदर्श) उदाहरण है।” उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को प्रमाणित कीजिए। [2011]
या
” ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में सम्राट हर्षवर्द्धन का चरित्र ही केन्द्र है और उसी के चारों ओर कथानक का चक्र घूमता है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के नाम को ध्यान में रखकर हर्षवर्द्धन का चरित्रांकन कीजिए। [2015]
या
हर्षवर्द्धन का चरित्र, आचरण का संवाहक है। सिद्ध कीजिए।
या
“‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य में हर्ष एक इतिहास पुरुष के रूप में चित्रित है।” इस उक्ति के आलोक में हर्ष का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन का चरित्र आज के युवकों पर कितना प्रभावकारी है? [2009]
या
“हर्ष एक सच्चा त्यागपथी था।” उक्ति के आधार पर हर्ष का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2010, 11]
या
“शौर्य था साकार नृप में अवतरित था ज्ञान।” कथन के आधार पर ‘त्यागपथी’ के हर्षवर्द्धन के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए। [2010, 11]
उत्तर
थानेश्वर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के छोटे पुत्र हर्षवर्द्धन के चरित्र की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) नायक–हर्षवर्द्धन ‘त्यागपथी’ के नायक हैं। इस खण्डकाव्य की सम्पूर्ण कथा का केन्द्र वही हैं। सम्पूर्ण घटनाचक्र उन्हीं के चारों ओर घूमता है। कथा आरम्भ से अन्त तक हर्षवर्द्धन से ही सम्बद्ध रहती है।।
(2) आदर्श पुत्र एवं भाई-इस खण्डकाव्य में हर्षवर्द्धन एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भ्राता के रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। अपने पिता के रुग्ण होने का समाचार पाकर वे आखेट से तुरन्त लौट आते हैं और यथासामर्थ्य उनकी चिकित्सा करवाते हैं। पिता के स्वस्थ न होने तथा माता द्वारा आत्मदाह करने की बात सुनकर वे भाव-विह्वल हो जाते हैं। वे अपनी माता से कहते हैं-

मुझ मन्द पुण्य को छोड़ न माँ तुम भी जाओ।
छोड़ो विचार यह मुझे चरण से लिपटाओ ।

आदर्श पुत्र के समान ही वे आदर्श भाई का कर्तव्य भी पूरा करते हैं। वे अपनी बहन राज्यश्री को अग्निदाह करने एवं संन्यास लेने से रोकते हैं-

दोनों करों से घेरकर छोटी बहिन के भाल को।
भूल खड़े थे निकट जलती चिता की ज्वाल को ।

बड़े भाई राज्यवर्द्धन के प्रति भी उनका अपार प्रेम है-

बाहर चले जब राज्यवर्द्धन हर्ष पीछे चल पड़े।
ज्यों वन-गमन में राम के पीछे चले लक्ष्मण अड़े।

(3) देश-प्रेमी-हर्षवर्द्धन सच्चे देश-प्रेमी हैं। उन्होंने छोटे राज्यों को एक साथ मिलाकर विशाल राज्य की स्थापना की। देश की एकता एवं रक्षा हेतु वे बड़े-से-बड़ा युद्ध करने से भी नहीं हिचकते थे। उन्होंने एक बड़े राज्य की स्थापना ही नहीं की, वरन् धर्मपूर्वक शासन भी किया। देश सेवा ही उनके जीवन का व्रत है।

(4) अजेय योद्धा--हर्षवर्द्धन एक अजेय योद्धा हैं। विद्रोही उनके तेजबल के आगे ठहर नहीं पाता। कोई भी राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका। भारत के इतिहास में महाराज हर्षवर्द्धन की दिग्विजय, उनका युद्ध-कौशल और उनकी अनुपम वीरती आज भी स्वर्णाक्षरों में लिखी है। उनकी वीरता एवं कुशल शासन का ही यह परिणाम था कि ”उठा पाया न सिर कोई प्रवंचक।”

(5) श्रेष्ठ शासक-महाराज हर्षवर्द्धन एक श्रेष्ठ शासक हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रजा के हितार्थ ही समर्पित है। उनका शासन धर्म-शासन है। उनके शासन में सभी जनों को समान न्याय एवं सुख उपलब्ध है-

शान्ति शुभता का व्रती था हर्ष का शासन ।
था लिया जिसने प्रजा-हित राजसिंहासन ॥
थी सकल साम्राज्य में सुख श्री उमड़ आयी।
थी चतुर्दिक न्याय समता की विभा छायी ॥

वे सदैव प्रजा के कल्याण में लगे रहते थे और स्वयं को प्रजा का सेवक समझते थे। उनका मत था-

नहीं अधिकार नृप को पास रखे धन प्रजा का,
करे केवल सुरक्षा देश-गौरव की ध्वजा का।।

(6) महान् त्यागी-हर्षवर्द्धन महान् त्यागी एवं आत्म-संयमी हैं। आत्म-संयम एवं सर्वस्व त्याग करने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ के नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई के अधिकार को ग्रहण करना नहीं चाहते। इसी प्रकार कन्नौज को राज्य भी वे अपनी बहन के नाम पर चलाते हैं। प्रयाग में छ: बार अपना सर्वस्व प्रजा के लिए दे देना उनके महान् त्याग का प्रमाण है। वे राजकोष को प्रजा की सम्पत्ति मानते हैं। इसीलिए वे उसे प्रजा को ही दान कर देते हैं। वे अपने पहनने के वस्त्र भी अपनी बहन राज्यश्री से माँगकर पहनते हैं-

दिये सम्राट् ने निज वस्त्र आभूषण वहाँ परे ।
बहिन से भीख में माँग वसन पहिना वहाँ पर ॥

(7) धर्मपरायण–हर्षवर्द्धन के जीवन में धर्मपरायणता कूट-कूटकर भरी हुई है। वे जन-सेवा में ही अपना जीवन लगा देते हैं-

रहे कल्याण मानवमात्र का ही धर्म मेरा,
रहे सर्वस्व-त्यागी पुण्य पर विश्वास मेरा।

उन्होंने शैव, शाक्त, वैष्णव और वेद-मत को एक साथ रखा। उन्होंने किसी के प्रति भी भेदभाव नहीं बरता।

(8) कर्त्तव्यनिष्ठ एवं दृढनिश्चयी-सम्राट हर्ष ने आजीवन अपने कर्तव्य का पालन किया। प्रारम्भ में इच्छा न होते हुए भी इन्होंने अपने भाई के कहने पर राज्य सँभाला और प्रत्येक संकटापन्न स्थिति में भी अपने कर्तव्य को निभाया। बहन राज्यश्री को वनों में खोजकर वे अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हैं-

मैं स्वयं जाऊँगा बहिन को ढूँढ़ने वन प्रान्त में,
पाए बिना उसको न क्षण भर हो सकेंगा शान्त मैं।

भाई की छल से की गयी हत्या का समाचार सुनकर उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उससे उनके दृढ़निश्चय का पता चलता है-

लेकर चरण रज आर्य की करता प्रतिज्ञा आज मैं,
निर्मूल कर दूंगा धरा से अधर्म गौड़ समाज मैं ।।

(9) महादानी—त्यागपथी के हर्षवर्द्धन आत्मसंयमी तथा महादानी हैं। महान् त्यागी होने के कारण ही कवि ने उन्हें ‘त्यागपथी’ नाम से पुकारा है। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे अपने बड़े भाई का अधिकार ग्रहण नहीं करना चाहते। कन्नौज विजय के बाद भी वे कन्नौज का सिंहासन राज्यश्री को देना चाहते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि हर्ष का चरित्र एक महान् राजा, आदर्श भाई, आदर्श पुत्र और महान् त्यागी का चरित्र है, जिसके लिए प्रजा की सुख-सुविधा ही सर्वोपरि है और वह अपने मानवीय कर्तव्यों के प्रति भी निष्ठावान है।

प्रश्न 4.
‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16]
या
‘त्यागपथी’ के प्रमुख नारी-पात्र राज्यश्री की चारित्रिक विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए/लिखिए। [2013, 15, 16, 17]
या
‘त्यागपथी’ में निरूपित राज्यश्री की चारित्रिक छवि पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
उत्तर
राज्यश्री सम्राट हर्षवर्द्धन की छोटी बहन है। हर्षवर्द्धन के चरित्र के बाद राज्यश्री का चरित्र ही ऐसा है, जो पाठकों के हृदय एवं मस्तिष्क पर छा जाता है। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
(1) माता-पिता की लाडली-राज्यश्री अपने माता-पिता को प्राणों से भी प्यारी है। कवि कहता है|

माँ की ममता की मूर्ति राज्यश्री सुकुमारी।
थी सदा पिता को, माँ को प्राणोपम प्यारी ॥

(2) आदर्श नारी–राज्यश्री आदर्श पुत्री, आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। वह यौवनावस्था में विधवा हो जाती है तथा गौड़पति द्वारा बन्दिनी बना ली जाती है। भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद वह कारागार से भाग जाती है और वन में भटकती हुई एक दिन आत्मदाह के लिए उद्यत हो जाती है; किन्तु अपने भाई हर्षवर्द्धन द्वारा बचा लेने पर वह तन-मन-धन से प्रजा की सेवा में ही अपना जीवन अर्पित कर देती है। हर्ष द्वारा राज्य सौंपे जाने पर भी वह राज्य स्वीकार नहीं करती। यही है उसका आदर्श रूप, जो सबको आकर्षित करता है–

विपुल साम्राज्य की अग्रज सहित वह शासिका थी,
अभ्यन्तर से तथागत की अनन्य उपासिका थी।

(3) देश-भक्त एवं जन-सेविका–राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर वह अपने वैधव्य का दु:ख झेलती हुई भी देश-सेवा में लगी रहती है। देशप्रेम के कारण राज्यश्री संन्यासिनी बनने का विचार भी छोड़ देती है तथा शेष जीवन को देशसेवा में ही लगाने का व्रत लेती है-

करूंगी साथ उनके मैं हमेशा राष्ट्र-साधन
अहिंसा नीति का होगा सभी विधिपूर्ण पालन ॥
x                          x                                     x
प्रजा के हित समर्पित है व्रती जीवन तुम्हारा।
सभी का हित सभी को सुख, तुम्हें दिन-रात प्यारा ।।

(4) करुणामयी नारी–राज्यश्री ने माता-पिता की मृत्यु तथा पति और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दुःख झेले। इन दुःखों ने उसे करुणा की मूर्ति बना दिया। अपने अग्रज हर्षवर्द्धन से मिलते समय उसकी कारुणिक दशा अत्यन्त मार्मिक प्रतीत होती है–

सतत बिलखती थी बहिन माता-पिता की याद कर ।
ले नाम सखियों का, उमड़ती थी नदी-सी वारि भर ॥
था साखु अग्रज धैर्य देता माथ उसका ढाँपकर ।
रोती रही अविरल बहिन बेतस लता-सी काँपकर ।।

(5) त्यागमयी नारी–राज्यश्री का जीवन त्याग की भावना से आलोकित है। भाई हर्षवर्द्धन द्वारा कन्नौज का राज्य दिये जाने पर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती। वह कहती है–

स्वीकार न मुझको कान्यकुब्ज सिंहासन।
बैठो उस पर तुम करो शौर्य से शासन ।।

वह राज्य-कार्य के बन्धन में पड़ना नहीं चाहती; क्योंकि वह मन से संन्यासिनी है। हर्षवर्द्धन के समझाने पर भी वह नाममात्र की ही शासिका बनी रहती है। प्रयाग महोत्सव के समय हर्षवर्द्धन के साथ राज्यश्री भी अपना सर्वस्व प्रजा के हितार्थ त्याग देती है–

लुटाती थी बहन भी पास का सब तीर्थस्थल में,
पहिन दो वस्त्र केवल दीपती थी छवि विमल में ।।

(6) सुशिक्षिता एवं ज्ञान-सम्पन्न राज्यश्री सुशिक्षिता एवं शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न है। जब आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्त्विक विवेचन करते हुए उसे मानव-कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं तब राज्यश्री इसे स्वीकार कर लेती है और आचार्य की आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करती है।
इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके पातिव्रत-धर्म, देश-धर्म, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श निश्चय ही अनुकरणीय हैं।

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