UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन)
UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 14 Social Change (सामाजिक परिवर्तन)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)
प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है ? सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों (कारणों) का उल्लेख कीजिए। [2007, 08, 09, 10, 11, 13, 15, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। [2007]
या
सामाजिक परिवर्तन के कारकों की विवेचना कीजिए। [2017]
या
सामाजिक परिवर्तन के दो कारकों को बताइए। [2013, 14, 15]
या
सामाजिक परिवर्तन को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रमुख कारकों को स्पष्ट कीजिए। [2015, 16]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा
मैरिल का कथन है कि मानव-सभ्यता का सम्पूर्ण इतिहास सामाजिक परिवर्तन का ही इतिहास है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक परिवर्तन प्रत्येक समाज की एक आवश्यक विशेषता ही नहीं बल्कि परिवर्तन के द्वारा ही मानव-समाज असभ्यता और बर्बरता के विभिन्न स्तरों. को पार करते हुए सभ्यता के वर्तमान स्तर तक पहुँच सका है। यह सच है कि किसी समाज में परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है, जब कि कुछ समाजों में यह गति बहुत तेज हो सकती है। लेकिन संसारे का कोई भी समाज ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें परिवर्तन न होता रहा हो।
इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी तरह के परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन नहीं कहते। किसी समुदाय के लोगों की वेशभूषा, खान-पान, मकानों की बनावट अथवा परिवहन के साधनों में होने वाले विकास को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जाता। संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य लोगों के सामाजिक सम्बन्धों, समाज के ढाँचे अथवा सामाजिक मूल्यों में होने वाले परिवर्तन से है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी समाज में लोगों की प्रस्थिति और भूमिका, विचार करने के ढंगों तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
इतिहास, दर्शन, राजनीतिशास्त्र तथा अनेक दूसरे समाज विज्ञानों से सम्बन्धित विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को अपने-अपने दृष्टिकोण से स्पष्ट किया है। इस दशा में सामाजिक परिवर्तन की वास्तविक अवधारणा को समझने से पहले यह आवश्यक है कि परिवर्तन तथा ‘सामाजिक परिवर्तन के अन्तरे को स्पष्ट किया जाये। परिवर्तन क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए फिचर (Fichter) ने लिखा है, “संक्षिप्त शब्दों में, किसी पूर्व अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में पैदा होने वाली भिन्नता को ही परिवर्तन कहा जाता है।
इस कथन के द्वारा फिचर ने यह बताया कि परिवर्तन में तीन प्रमुख तत्त्वों का समावेश होता है
- एक विशेष दशा,
- समय तथा
- भिन्नता।
सर्वप्रथम, जब हमें यह कहते हैं कि परिवर्तन हो रहा है तो हमारा उद्देश्य यह स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस दशा, वस्तु अथवा तथ्य में हो रहा है। दूसरे, समय के दृष्टिकोण से परिवर्तन एक तुलनात्मक दशा है। किसी वस्तु या दशा में एक समय की तुलना में दूसरे समय पैदा होने वाली नयी विशेषताओं को ही हम परिवर्तन कहते हैं। तीसरे, परिवर्तन का तात्पर्य किसी दशा अथवा वस्तु के रूप में इस तरह भिन्नता उत्पन्न होना है जो उसे पहले की तुलना में एक नया आकार-प्रकार दे दे। स्पष्ट है कि यदि समय के अन्तराल के साथ लोगों की वेशभूषा बदल जाये, मकानों की निर्माण-शैली में भिन्नता आ जाये अथवा परिवहन के साधन अधिक विकसित हो जायें तो इन सभी दशाओं को हम ‘परिवर्तन’ के नाम से सम्बोधित करेंगे।
‘सामाजिक परिवर्तन’ की अवधारणा परिवर्तन से भिन्न है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि जब दो विशेष अवधियों के बीच व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक मूल्यों में भिन्नता उत्पन्न होती है, तब इसी भिन्नता को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध समाज के मुख्यत: तीन पक्षों में होने वाले परिवर्तन से होता है। ये पक्ष हैं
- व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन,
- समाज की संरचना को बनाने वाली इकाइयों में परिवर्तन तथा
- सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन। इसका अर्थ है।
कि जब व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनकी प्रस्थिति और भूमिका तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसी दशा को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस तथ्य को समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी कुछ प्रमुख परिभाषाओं के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ
सामाजिक परिवर्तन का सही अर्थ क्या है, यह जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
- किंग्सले डेविस के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन केवल वे ही परिवर्तन समझे जाते हैं जो कि सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढाँचे और कार्य में घटित होते हैं।’
- मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाजशास्त्री होने के नाते हमारी विशेष रुचि प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक सम्बन्धों से है। केवल इन सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
- गिलिन और गिलिन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही यह परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन में हुए हों या सांस्कृतिक साधनों पर, जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से, या प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कार से हुए हों।”
सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक परिवर्तन के पीछे कोई-न-कोई कारक अवश्य रहता है। इसके विभिन्न अंगों में परिवर्तन लाने के लिए विभिन्न कारक ही उत्तरदायी हैं। अतः सामाजिक परिवर्तन भी अनेक कारकों का परिणाम होता है। सामाजिक परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारक उत्तरदायी होते
1. प्राकृतिक या भौगोलिक कारक – प्राकृतिक या भौगोलिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक शक्तियाँ समाज के प्रतिमानों के रूपान्तरण में अधिक उत्तरदायी होती हैं। भौगोलिक कारकों में भूमि, आकाश, चाँद-तारे, पहाड़, नदी, समुद्र, जलवायु, प्राकृतिक घटनाएँ, वनस्पति आदि सम्मिलित हैं। प्राकृतिक कारकों के समग्र प्रभाव को ही प्राकृतिक पर्यावरण कहा जाता है। प्राकृतिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़, भूकम्प व घातक बीमारियाँ मानव सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। लोग घर-बार छोड़कर अन्यत्र प्रवास कर जाते हैं। नगर और गाँव वीरान हो जाते हैं। लोगों के सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। जलवायु सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक है। जलवायु सभ्यता के विकास और विनाश में प्रमुख भूमिका निभाती है। भौगोलिक कारक ही मनुष्य के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का निर्धारण करते हैं। कहीं मनुष्य प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर उसी के अनुरूप कार्य करता है और कहीं प्रकृति की उदारता का भरपूर लाभ उठाकर सांस्कृतिक उन्नति के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी बन जाता है।
2. प्राणिशास्त्रीय कारक – प्राणिशास्त्रीय कारक भी सामाजिक परिवर्तन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारकों को जैविकीय कारक भी कहा जाता है। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष को प्रदर्शित करते हैं। इनसे प्रजातीय सम्मिश्रण, मृत्यु एवं जन्म-दर, लिंग अनुपात और जीवन की प्रत्याशी का बोध होता है। प्रजातीय मिश्रण से व्यक्ति के व्यवहार, मूल्य, आदर्श और विचारों में परिवर्तन आता है। प्रजातीय मिश्रण से समाज की प्रथाएँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन का ढंग और सामाजिक सम्बन्ध बदल जाने के कारण सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। जन्म-दर और मृत्यु-दर सदस्यों में सामाजिक अनुकूलन का भाव जगाते हैं। जन्म-दर और मृत्यु-दर में परिवर्तन होने से सामाजिक प्रवृत्तियाँ और मृत्यु-दर अधिक होने से समाज में व्यक्तियों की औसत आयु घट जाती है। समाज में क्रियाशील व्यक्तियों की संख्या घटने से नये आविष्कार बाधित होने लगते हैं। समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होने पर बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो जाता है, इसके विपरीत स्थिति में बहुपति प्रथा चलन में आ जाती है। नयी परम्पराएँ समाज की संरचना और मूल्यों में परिवर्तन उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन का कारण बनती हैं। समाज में स्वास्थ्य सेवाओं में कमी आने से स्वास्थ्य में गिरावट होने लगती है।
3. सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के लिए आर्थिक कारक सबसे अधिक उत्तरदायी हैं। आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं, परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और रीति-रिवाजों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। औद्योगिक विकास ने भारतीय सामाजिक संरचना को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया है।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष तथा भौतिक द्वन्द्ववाद के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करके इसमें आर्थिक कारकों को निर्णायक माना है। मार्क्स का कहना है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक साधनों से कितनी कर पाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रौद्योगिकीय विकास का स्तर क्या है। प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों से विभिन्न वर्गों में पाये जाने वाले आर्थिक सम्बन्ध बदल जाते हैं। आर्थिक सम्बन्ध बदलते ही समाज की सामाजिक संरचना परिवर्तित हो जाती है। यह आर्थिक संरचना अन्य सभी संरचनाओं (जैसे-धार्मिक, राजनीतिक, नैतिक आदि) में परिवर्तन की श्रृंखला प्रारम्भ कर देती है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स ने आर्थिक कारकों की भूमिका को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है।
4. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक भी सामाजिक विघटन के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सोरोकिन का मत है कि सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। संस्कृति मानव-जीवन की जीवन-पद्धति है। इसमें रीतिरिवाज, सामाजिक संगठन, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान, कला, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, मशीनें तथा नैतिक आदर्श सम्मिलित हैं। इसमें समस्त भौतिक और अभौतिक पदार्थ सम्मिलित होते हैं। वास्तव में, संस्कृति वह सीखा हुआ व्यवहार है जो सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक शैली है। जैसे ही समाज के सांस्कृतिक तत्त्वों में परिवर्तन आता है, वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
वर्तमान में विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर, समझौता मात्र रह गया है, जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। बढ़ते हुए विवाह-विच्छेदों के कारण समाज में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही। है। समाज में सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं और प्रथाओं में जैसे ही बदलाव आता है, वैसे ही सांस्कृतिक प्रतिमान बदल जाते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं। सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। भौतिक और अभौतिक दोनों ही संस्कृतियाँ मानव के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक पहलू में परिवर्तन आने से दूसरा पहलू स्वतः बदल जाता है।
5. सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समाज बनता है। जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, देशान्तरगमन, स्त्री-पुरुषों का अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं।
6. सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक – वर्तमान युग प्रौद्योगिकी का युग है। नये-नये आविष्कार, उत्पादन की विधियाँ अथवा यन्त्र सामाजिक परिवर्तन लाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी भी सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जैसे-जैसे किसी समाज की प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होते रहते हैं, वैसे-वैसे समाज के विभिन्न पहलुओं तथा संस्थाओं में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रौद्योगिकी एक सामान्य शब्द है, जिसके अन्तर्गत समस्त यान्त्रिक उपकरणों तथा इनसे वस्तुओं के निर्माण की प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। अन्य शब्दों में, यह मशीनों और औजारों तथा उनके प्रयोग से सम्बन्धितं है।
वेबलन ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को प्रमुख स्थान दिया है। उन्होंने मनुष्यों को आदतों का दास माना है। आदतें स्थिर नहीं होतीं और प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के साथ आदतें भी बदल जाती हैं। इससे सामाजिक परिवर्तन होता है। प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही नगरीकरण और औद्योगीकरण की गति तीव्र होती है। बड़े-बड़े नगर तथा औद्योगिक केन्द्र विकसित होने से समाज में अनेक समस्याएँ जन्म लेने लगती हैं, जिससे समाज में परिवर्तन आ जाता है। भौतिकवादी प्रवृत्ति का उदय होने से धन व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मापदण्ड बन जाता है। मनोरंजन के साधनों का व्यवसायीकरण होने तथा मानसिक संवेग तनाव और रोग को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन लाते हैं।
प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ क्या हैं? इसकी व्याख्या कीजिए। [2013]
या
सामाजिक परिवर्तन की दो विशेषताएँ लिखिए। [2013]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन यद्यपि एक तुलनात्मक अवधारणा है, लेकिन कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर इसकी सामान्य प्रकृति को स्पष्ट किया जा सकता है
1. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक जीवन में होने वाला परिवर्तन है – यदि दो-चार व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों अथवा व्यवहार करने के ढंगों में परिवर्तन हो जाये तो इसे सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, जब किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है, तभी इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
2. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती – कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि किसी समाज में भविष्य में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे और कब होंगे। हम अधिक-से-अधिक परिवर्तन की सम्भावना मात्र कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि आगामी कुछ वर्षों में औद्योगीकरण के कारण अपराधों की मात्रा में वृद्धि हो जायेगी अथवा किसी प्रकार के अपराध बढ़ सकते हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से भविष्य में अपराधों की संख्या तथा स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह सकते।
3. सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है – सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति इस प्रकार की है कि इसकी निश्चित माप नहीं की जा सकती। मैकाइवर का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का अधिक सम्बन्ध गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes) से है और गुणात्मक तथ्यों की माप न हो सकने के कारण इसकी जटिलता बहुत अधिक बढ़ जाती है। भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तन को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक मूल्यों (Cultural values) और विचारों में होने वाला परिवर्तन इतना जटिल हो जाता है कि सरलता से उसको समझ सकना बहुत कठिन है। सामाजिक परिवर्तन में जितनी वृद्धि होती जाती है, इसकी जटिलता भी उतनी ही बढ़ जाती है।
4. सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है – किसी एक समाज में होने वाले परिवर्तन को दूसरे समाज से उसकी तुलना करने पर ही समझा जा सकता है। एक ही समाज के विभिन्न भागों में परिवर्तन की गति भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, अथवा विभिन्न समाजों में परिवर्तन की | मात्रा में अन्तर हो सकता है। सामान्य रूप से सरल और आदिवासी समाजों में परिवर्तन बहुत कम और धीरे-धीरे होता है, जब कि जटिल और सभ्य समाजों में हमेशा नये परिवर्तन होते रहते हैं। यही कारण है कि ग्रामों में परिवर्तन की गति धीमी और नगरों में बहुत तेज (rapid) होती है।
5. सामाजिक परिवर्तन का चक्रवत और रेखीय रूप – सामान्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के दो स्वरूप होते हैं-चक्रवत और रेखीय। चक्रवत परिवर्तन का तात्पर्य है कि परिवर्तन कुछ विशेष दशाओं के बीच ही होता रहता है। लौट-बदलकर वही स्थिति फिर से आ जाती है जो कुछ समय पहले विद्यमान थी। फैशन या पहनावे के क्षेत्र में चक्रवत परिवर्तन सबसे अधिक देखने को मिलता है। रेखीय परिवर्तन हमेशा एक ही दिशा में आगे की ओर होता रहता है। ऐसे परिवर्तन अधिकतर प्रौद्योगिकी व शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं।
6. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है – सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य और आवश्यक घटना है। परिवर्तन चाहे नियोजित रूप से किया गया हो अथवा स्वयं हुआ हो, यह अनिवार्य रूप से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। विभिन्न समाजों में परिवर्तन की मात्रा में अन्तर हो सकता है, लेकिन इसके न होने की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि समाज की आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहती हैं तथा व्यक्तियों की मनोवृत्तियों और रुचियों में भी परिवर्तन होता रहता है।
7. सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी है – मानव-समाज के आरम्भिक इतिहास से लेकर आज तक परिवर्तन की प्रक्रिया सभी व्यक्तियों, समूहों और समाजों को प्रभावित करती रही है। बीरस्टीड का कथन है कि “परिवर्तन का प्रभाव इतना सर्वव्यापी रहा है कि कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हैं। उनके इतिहास और संस्कृति में इतनी भिन्नता पायी जाती है कि * किसी व्यक्ति को भी दूसरे का प्रतिरूप (Replica) नहीं कहा जा सकता।” इससे सामाजिक परिवर्तन की सर्वव्यापी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है।
प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तनों से आप क्या समझते हैं। इसमें आर्थिक कारकों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
या
आर्थिक कारक तथा सामाजिक परिवर्तन में सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2009]
(संकेत – सामाजिक परिवर्तन के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (1) का अध्ययन करें]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तनों के आर्थिक कारक
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारकों को समझने से पहले यह जानना आवश्यक है कि आर्थिक कारकों को अभिप्राय किन दशाओं अथवा विशेषताओं से है ? साधारणतया यह समझा जाता है कि प्रति व्यक्ति आय, लोगों का जीवन-स्तर, आर्थिक समस्याएँ, आर्थिक आवश्यकताएँ तथा सम्पत्ति का संचय आदि वे दशाएँ हैं जिन्हें आर्थिक कारक कहा जा सकता है। वास्तव में, ये दशाएँ स्वयं आर्थिक कारक न होकर आर्थिक कारकों के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली कुछ प्रमुख घटनाएँ हैं। आर्थिक कारकों का तात्पर्य उन आर्थिक संस्थाओं तथा शक्तियों से होता है जो किसी समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करती हैं। इस दृष्टिकोण से उपभोग की प्रकृति, उत्पादन का स्वरूप, वितरण की व्यवस्था, आर्थिक नीतियाँ, श्रम-विभाजन की प्रकृति तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा वे प्रमुख आर्थिक कारक हैं, जो व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को एक विशेष ढंग से प्रभावित करते हैं। मार्क्स के अनुसार केवल उत्पादन का स्वरूप अथवा उत्पादन का ढंग अकेले इतना महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक है जिसमें होने वाला कोई भी परिवर्तन सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को बदल देता है। सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित विभिन्न आर्थिक कारकों की प्रकृति को अग्रलिखित रूप से समझा जा सकता है
1. उपभोग की प्रकृति – किसी समाज में व्यक्ति किन वस्तुओं का उपभोग करते हैं तथा उपभोग का स्तर क्या है, यह तथ्य एक बड़ी सीमा तक सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। किसी समाज में जब अधिकांश व्यक्तियों को एक न्यूनतम जीवन-स्तर बनाये रखने के लिए उपभोग की केवल सामान्य सुविधाएँ ही प्राप्त होती हैं तो वहाँ परिवर्तन की गति बहुत सामान्य होती है। इसके विपरीत, यदि अधिकांश व्यक्ति उपभोग की सामान्य सुविधाएँ पाने से भी वंचित रहते हैं तो धीरे-धीरे जनसामान्य का असन्तोष इतना बढ़ जाता है कि वे सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करने लगते हैं। व्यक्तियों का जीवन-स्तर यदि सामान्य से अधिक ऊँचा होता है तो अधिकांश व्यक्ति परम्परागत व्यवहार-प्रतिमानों, प्रथाओं और धार्मिक नियमों को अपने लिए आवश्यक नहीं समझते। इसके फलस्वरूप वहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती है।
2. उत्पादन की प्रणालियाँ – उत्पादन की प्रणाली का तात्पर्य मुख्य रूप से उत्पादन के साधनों, उत्पादन की मात्रा तथा उत्पादन के उद्देश्य से है। मार्क्स के अनुसार, उत्पादन की प्रणाली सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है। उत्पादन के साधन अथवा उपकरण जब बहुत सरल और परम्परागत प्रकृति के थे, तब समाजों की प्रकृति भी सरल थी। अनेक प्रकार के शोषण और आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी व्यक्ति अपनी दशाओं से सन्तुष्ट रहते थे। जैसे-जैसे परम्परागत प्रविधियों की जगह उन्नत ढंग की मशीनों के द्वारा उत्पादन किया जाने लगा, समाज के उच्च और निम्न वर्ग की आर्थिक असमानताएँ बढ़ने लगीं। ये आर्थिक असमानताएँ वर्ग-संघर्ष को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन का ही नहीं बल्कि क्रान्ति तक का कारण बन जाती हैं।
3. वितरण की व्यवस्था – प्रत्येक समाज में वितरण की एक ऐसी व्यवस्था अवश्य पायी जाती है जिसके द्वारा राज्य अथवा समूह अपने साधन विभिन्न व्यक्तियों को उपलब्ध करा सकें। वितरण की यह व्यवस्था या तो राज्य के नियन्त्रण में होती है अथवा व्यक्तियों को इस बात की स्वतन्त्रता होती है कि वे प्रतियोगिता के द्वारा अपनी कुशलता के अनुसार स्वयं ही विभिन्न , साधन प्राप्त कर लें। वितरण की इन दोनों में से किसी भी एक व्यस्था के रूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पैदा करता है। रॉबर्ट बीरस्टीड का विचार है कि यदि हवा और पानी की तरह सभी व्यक्तियों को भोजन और वस्त्र भी बिना किसी बाधा के मिल जाएँ तो समाज में कोई समस्या न रहने के कारण सामाजिक परिवर्तन की दशा भी उत्पन्न नहीं होती। इसके विपरीत, व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाना भी बहुत स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में वस्तु-विनिमय का प्रचलन था जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध थे तथा लोगों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं।
4. आर्थिक नीतियाँ – प्रत्येक राज्य कुछ ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनाता है जिनके द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था को सन्तुलित बनाया जा सके। आर्थिक नीतियाँ केवल आर्थिक सम्बन्धों को ही व्यवस्थित नहीं बनातीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन को रोकने अथवा उसमें वृद्धि करने में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उदाहरण के लिए, यदि राज्य स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण लगाकर श्रमिकों की मजदूरी, कार्य की दशाओं तथा कल्याण सुविधाओं के बारे में कानून बनाकर श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करता है तो समाज । में स्तरीकरण की व्यवस्था बदलने लगती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जगह राज्य द्वारा यदि सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना की जाने लगती है तो इससे भी आर्थिक संरचना में और फिर सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने लगते हैं।
5. श्रम-विभाजन – श्रम-विभाजन एक विशेष आर्थिक कारक है, जिसका सामाजिक परिवर्तन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। समाज में जब किसी तरह का श्रम-विभाजन नहीं होता तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करता है। इसके फलस्वरूप लोगों का जीवन आत्मनिर्भर अवश्य बनता है लेकिन लोग अपने धर्म, जाति और समुदाय के बन्धनों से बाहर नहीं निकल पाते। श्रम-विभाजन एक ऐसी दशा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से एक विशेष कार्य के द्वारा। आजीविका उपार्जित करने की आशा की जाती है। इसका तात्पर्य है कि श्रम-विभाजन में सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्वीम — ‘ ने इस दशा को ‘सावयवी एकता’ कहा है।
6. आर्थिक प्रतिस्पर्दा – प्रतिस्पर्धा यद्यपि एक सामाजिक प्रक्रिया है लेकिन जब यह प्रक्रिया आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित हो जाती है, तब इसी को हम आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं। जॉनसन का कथन है कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा व्यक्तियों में तनाव और संघर्ष की दशा उत्पन्न करके सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है। आर्थिक प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की तुलना में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इसके फलस्वरूप व्यक्तियों की कार्यकुशलता अवश्य बढ़ती है, लेकिन पारस्परिक द्वेष और । विरोध में भी बहुत वृद्धि हो जाती है।
7. औद्योगीकरण – अनेक विद्वान् औद्योगीकरण को सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक मानते हैं। औद्योगीकरण से छोटे-छोटे कस्बे बड़े औद्योगिक नगरों में परिवर्तित होने लगते हैं। उद्योगों में काम करने वाले लाखों श्रमिकों की मनोवृत्तियों, व्यवहारों और रहन-सहन के तरीकों में परिवर्तन होने लगता है। नये व्यवसायों में वृद्धि होने से सभी धर्मों, जातियों और वर्गों के लोमों द्वारा किये जाने वाले कार्य की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है।
प्रश्न 4
सामाजिक परिवर्तन क्या है? इसके जनसंख्यात्मक कारक की विवेचना कीजिए। [2011]
या
सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संकेत – सामाजिक परिवर्तन के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (1) की हैडिंग सामाजिक परिवर्तन का अर्थ देखें।
जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, देशान्तरगमन, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, स्त्री-पुरुषों का – अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं। हम यहाँ सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों की भूमिका का उल्लेख करेंगे।
1. जनसंख्या के आकार को प्रभाव – जनसंख्या का आकार भी समाज को प्रभावित करता है। समाज का जीवन-स्तर, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य एवं अनेक अन्य सामाजिक समस्याओं का जनसंख्या के आकार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमारे सामाजिक मूल्य, आदर्श, मनोवृत्तियाँ, जीवन-यापन का ढंग सभी कुछ जनसंख्या के आकार पर भी निर्भर हैं। राजनीतिक व सैनिक दृष्टि से भी जनसंख्या का आकार महत्त्वपूर्ण है। जिन देशों में जनसंख्या अधिक होती है, वे राष्ट्र शक्तिशाली माने जाते हैं; चीन इसका उदाहरण है। जिन देशों की जनसंख्या … कम होती है, वे राष्ट्र कमजोर समझे जाते हैं। इसी प्रकार जिन देशों की जनसंख्या कम है। वहाँ के लोगों का जीवन-स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा और अमेरिका के लोगों का जीवन-स्तर चीन व भारत के लोगों से काफी ऊँचा है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या कम है। ग्राम और नगर का भेद भी जनसंख्या के कारक पर ही निर्भर है।
2. जन्म तथा मृत्यु-दर – जन्म और मृत्यु-दर जनसंख्या के आकार को प्रभावित करते हैं। जब किसी देश में मृत्यु-दर की अपेक्षा जन्म-दर अधिक होती है तो जनसंख्या में वृद्धि होती। है। इसके विपरीत स्थिति में जनसंख्या घटती है। जब जन्म-दर और मृत्यु दर में कमी होती है या दोनों में सन्तुलन होता है तो उस देश की जनसंख्या में स्थिरता पायी जाती है। जिन देशों में जनाधिक्य होता है, वहाँ इस प्रकार की प्रथाएँ एवं रीति-रिवाज पाये जाते हैं जिनके द्वारा जन्म-दर को कम किया जा सके। उदाहरण के लिए, वहाँ गर्भपात की छूट होती है तथा – जन्मनिरोध एवं परिवार नियोजन पर अधिक जोर दिया जाता है। ऐसे देशों में छोटे परिवारों पर : बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में जनाधिक्य होने के कारण परिवार नियोजन है। कार्यक्रम को तीव्र गति से लागू किया गया है। इसके विपरीत, जिन देशों में जनसंख्या कम होती है वहाँ स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठी-ऊँची होती है और जन्म-निरोध, परिवार नियोजन तथा गर्भपात के विपरीत धारणाएँ पायी जाती हैं। साथ ही वहाँ जन्म-दर को बढ़ाने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहन दिया जाता है; जैसे-रूस में जनसंख्या को बढ़ाने के लिए कई प्रलोभन दिये जाते रहे हैं।
3. आप्रवास एवं उत्प्रवास – जनसंख्या की गतिशीलता भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। जब किसी देश में विदेश से आकर बसने वालों की संख्या अधिक होती है। तो वहाँ जनसंख्या में वृद्धि होती है और यदि किसी देश के लोग अधिक संख्या में विदेशों में जाकर रहने लगते हैं तो उस देश की जनसंख्या घटने लगती है। विदेशों से अपने देश में जनसंख्या के आने को आप्रवास (Immigration) तथा अपने देश से विदेशों में जनसंख्या के निष्क्रमण को उत्प्रवास (Emigration) कहते हैं। आप्रवास एवं उत्प्रवास के कारण विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति सम्पर्क में आते हैं। वे एक-दूसरे के विचारों, भाषा, प्रथाओं, रीतिरिवाजों, कला, ज्ञान, आविष्कार, खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, धर्म आदि से परिचित होते हैं। सम्पर्क के कारण एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को प्रभावित एवं परिवर्तित करती है।
4. आयु – यदि किसी देश में वृद्ध लोगों की तुलना में युवक और बच्चे अधिक हैं तो वहाँ परिवर्तन को शीघ्र स्वीकार किया जाएगा। इसका कारण यह है कि वृद्ध व्यक्ति सामान्यतः रूढ़िवादी एवं परिवर्तन-विरोधी होते हैं तथा प्रथाओं के कठोर पालन पर बल देते हैं। वृद्ध लोगों की अधिक संख्या होने पर सैनिक दृष्टि से वह समाज कमजोर होता है। युवा लोगों की अधिकता होने पर वह देश और समाज नवीन आविष्कार करने में सक्षम होता है। ऐसे समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्रान्तियाँ आने के अवसर मौजूद रहते हैं, किन्तु दूसरी ओर जनसंख्या में युवा लोगों का अधिक अनुपात होने पर अनुभवहीन लोगों की संख्या भी बढ़ जाती है।
5. लिंग – समाज में स्त्री-पुरुषों का अनुपात भी सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। जिन समाजों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, उनमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न होती है और वहाँ बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन होता है। दूसरी ओर, जहाँ पर स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक होती है वहाँ बहुपति प्रथा का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा पायी जाती है।
प्रश्न 5
सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकी की भूमिका का विवेचन कीजिए। [2012, 15, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन में प्राविधिक कारक के चार प्रभावों को लिखिए। [2010]
उत्तर:
आज के युग में प्रौद्योगिकी सामाजिक परिवर्तन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक है। यदि यह कहा जाए कि पिछले करीब पाँच सौ वर्षों में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, उनके पीछे सबसे प्रमुख कारक प्रौद्योगिक है, तो इसमें किसी प्रकार की कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। यह वास्तविकता है कि विज्ञान के क्षेत्र में होने वाली प्रगति ने अनेक आविष्कारों को जन्म दिया है। आविष्कारों से यन्त्रीकरणं बढ़ा है और यन्त्रीकरण के फलस्वरूप उत्पादन की प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। थर्स्टन वेबलन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं। यहाँ हम प्रौद्योगिकीय कारकों और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध पर विचार करेंगे और यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि प्रौद्योगिक कारक किस प्रकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन लाने में योग देते है।
1. यन्त्रीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन – विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में आज आविष्कारों वे खोजों का विशेष महत्त्व है। वर्तमान में प्रेस, पहिया, भाप-इंजन, जहाज, मोटर-कार, वायुयान, ट्रैक्टर, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन, बिजली, टाइपराइटर, कम्प्यूटर, गनपाउडर, अणुबम आदि के आविष्कार ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिये हैं। मैकाइवर का कहना है कि भाप के इंजन के आविष्कार ने मानव के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को इतना प्रभावित किया है जितना स्वयं उसके आविष्कारक ने भी कल्पना नहीं की होगी। ऑगबर्न ने रेडियो के आविष्कार के कारण उत्पन्न 150 परिवर्तनों को उल्लेख किया। स्पाइसर ने अनेक ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया है जिनसे यह पता चलता है कि छोटे यन्त्रों के प्रयोग से ही मानवीय सम्बन्धों में विस्तृत एवं अनपेक्षित परिवर्तन हुए हैं। कार में स्वचालित यन्त्र (Self-starter) के लग जाने से ही कई सामाजिक परिवर्तन हुए। हैं। इससे स्त्रियों की स्वतन्त्रता बढ़ी, अब उनके लिए कार चलाना आसान हो गया, वे क्लब जाने लगीं, उनकी गतिशीलता में वृद्धि हुई और इसका प्रभाव उनके पारिवारिक जीवन पर भी पड़ा। भारत में नये कारखानों के खुलने और मशीनों की सहायता से उत्पादन होने से लोगों को विभिन्न स्थानों पर काम करने हेतु जाना पड़ा, विभिन्न जातियों के लोगों को साथ-साथ काम करना पड़ा। इससे जाति-प्रथा एवं संयुक्त परिवार प्रणाली का विघटन हुआ, छुआछूत कम हुई, वर्ग-व्यवस्था पनपी तथा स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि हुई।।
2. यन्त्रीकरण तथा सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन – यन्त्रीकरण ने सामाजिक मूल्यों को परिवर्तित करने में योग दिया है। सामाजिक मूल्यों का हमारे जीवन में विशेष महत्व होता है और हम अपने व्यवहार को उन्हीं के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करते हैं। वर्तमान में व्यक्तिगत सम्पत्ति एवं शक्ति का महत्त्व बढ़ा है एवं सामूहिकता के मूल्य कमजोर पड़े हैं। अब धन और राजनीतिक शक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव एवं महत्त्व के कारण उन लोगों को समाज में ज्यादा सम्मान या प्रतिष्ठा दी जाती है जो धनी हैं, बड़े व्यापारी या उद्योगपति हैं, राजनेता या प्रशासक हैं। यन्त्रीकरण ने प्रदत्त के बजाय अर्जित गुणों के महत्त्व को बढ़ाने में योगदान दिया है।
3. संचार के उन्नत साधन एवं सामाजिक परिवर्तन – संचार के नवीन उन्नत साधनों जो कि एक प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय कारक हैं, ने विकास के अनेक जटिल सामाजिक फेरवर्तनों को जन्म दिया। संचार की अनेक प्रविधियाँ हैं, जिनमें तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि प्रमुख हैं। संचार ही तो सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। सिनेमा यो चलचित्रों ने लोगों के विचारों, विश्वासों एवं मनोवृत्तियों को बदलने में काफी योग दिया है। साथ ही इसने पारिवारिक, सामाजिक एवं जातिगत सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है। अब रेडियो की सहायता से कोई भी बात, सूचना एवं विचार कुछ ही क्षणों में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों तक पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो मनोरंजन का स्वस्थ साधन भी है। रेडियो और टेलीविजन ने परिवार के सदस्यों को एक-साथ बैठकर अवकाश का समय बिताने को प्रेरित किया है। इससे सदस्यों को अपने मनोरंजन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता और साथ ही उनके पारिवारिक सम्बन्धों में दृढ़ता आयी है। संचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूह के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिला है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें सांस्कृतिक दूरी कुछ कम हुई है तथा सात्मीकरण हुआ है।
4. कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियाँ एवं सामाजिक परिवर्तन – कृषि क्षेत्र में नवीन प्रविधियों का प्रयोग एक ऐसा प्रौद्योगिक कारक है जिसने जीवन में अनेक परिवर्तन लाने में योग दिया है। पशुओं की नस्ल, उर्वरकों के प्रयोग, बीजों की किस्मे तथा श्रम बचाने वाली मशीनों सम्बन्धी मामलों में सुधार हो जाने से कृषि उत्पादन में मात्रा एवं गुण दोनों ही दृष्टि से वृद्धि हुई है। सिंचाई के उन्नत साधनों ने भी कृषि-उत्पादन बढ़ाने में काफी योग दिया है। इसका प्रभाव न केवल आर्थिक जीवन पर बल्कि सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। पहले कृषि-कार्यों के ठीक से संचालन के लिए अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती थी जिससे ग्रामों में सामूहिकता का महत्त्व बना हुआ था। अब श्रम की बचत करने वाली मशीनों के प्रयोग से व्यक्ति को कृषि-कार्यों में अन्य व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। इससे सामूहिकता की बजाय व्यक्तिवादिता का महत्त्व बढ़ा है। साथ ही मशीनों के प्रयोग से कृषि-कार्यों में कम व्यक्तियों की आवश्यकता ने संयुक्त के बजाय नाभिक परिवारों के महत्त्व को बढ़ाया है। कृषि के क्षेत्र में प्रयोग में लायी जाने वाली नवीन प्रविधियों ने सामाजिक सम्बन्धों, लोगों के दृष्टिकोण और मनोवृत्तियों को काफी कुछ बदल दिया है। अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी सम्बन्धों में घनिष्ठता और आत्मीयता के बजाय औपचारिकता और कृत्रिमता बढ़ती जा रही है।
5. उत्पादन प्रणाली और सामाजिक परिवर्तन – उत्पादन प्रणाली भी एक प्रमुख प्रौद्योगिक कारक है, जिसने समय-समय पर सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक संरचना को काफी कुछ बदला है। पहले जब मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था तब लोग अपने हाथों से काम करते थे और परिवार ही उत्पादन की इकाई था। ऐसी स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों के हित एवं रुचियाँ समान थीं. और सम्बन्धों में घनिष्ठता थी। उस समय छोटे पैमाने पर उत्पादन होने से औद्योगिक समस्याएँ और श्रम-समस्याएँ नहीं थीं। लोग अपने घरों पर उत्पादित वस्तुओं को अन्य व्यक्तियों को उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के बदले में देकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसी प्रकार वे अपनी सेवाओं का भी आदान-प्रदान करते थे। इससे ग्रामीण समुदायों में एकता और दृढ़ता बनी हुई थी, लेकिन अब उत्पादन प्रणाली बदल गयी है। वर्तमान में नगरीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैक्ट्रियों में मशीनों की सहायता से उत्पादन होने लगा है। अब हाथ से काम करने वालों का महत्त्व कम हुआ है और मशीनें चलाने वाले प्रशिक्षित व्यक्तियों का महत्त्व बढ़ा है। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण अधिक हुआ है। उत्पादन की नवीन प्रणाली ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहाँ तक कि सांस्कृतिक जीवन तक को भी बहुत कुछ बदल दिया है। इस नयी प्रणाली ने विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, विवाह, परिवार, जाति आदि को अनेक रूपों में प्रभावित किया है और सामाजिक परिवर्तन की गति को तेज किया है।
6. अणु-शक्ति पर नियन्त्रण एवं सामाजिक परिवर्तन – अणु-शक्ति का प्रयोग रचनात्मक एवं विनाशक दोनों ही प्रकार के कार्यों के लिए किया जा सकता है। शान्ति के अभिकर्ता के रूप में अणु-शक्ति समृद्धि का अभूतपूर्व युगे ला सकती है। जहाँ इस शक्ति का प्रयोग मानव की सुख-समृद्धि को बढ़ाने और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में किया जा सकता है, वहीं इसका प्रयोग मानव और उसकी कृतियों को नष्ट करने के लिए भी किया जा सकता है। जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अणु-शक्ति का प्रयोग बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की गति भी तीव्र होती जाएगी।
प्रश्न 6
सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है। सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 13]
या
सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न सांस्कृतिक दशाओं का विवेचन कीजिए। [2012, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारक हैं। इनमें से एक सांस्कृतिक कारक अथवा सांस्कृतिक दशाएँ हैं। अनेक विद्वानों ने एक तर्क दिया है कि सांस्कृतिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन विद्वानों में मैक्स वेबर, स्पेंग्लर तथा सोरोकिन प्रमुख हैं।
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को निम्नलिखित विद्वानों के विचारानुसार स्पष्ट किया जा सकता है
(क) मैक्स वैबर
मैंक्स वैबर ने संस्कृति एवं धर्म के सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए संसार के सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन किया। इन धर्मों में ईसाई धर्म की एक प्रमुख शाखा प्रोटेस्टैण्ट धर्म को उसने विशेष रूप से अध्ययन किया और उसी के आधार पर मैक्स वेबर ने यह निष्कर्ष निकाला कि धर्म का सामाजिक व्यवस्था; विशेष रूप से आर्थिक संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन सम्बन्ध में मैक्स वेबर ने पूँजीवाद का प्रोटेस्टैण्ट धर्म से सम्बन्ध स्थापित किया। मैक्स वैबर ने अपने सिद्धान्त में यह दिखाया है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पूँजीवाद को प्रोत्साहित करने वाले तत्त्व निहित हैं। इस प्रकार के तत्त्व अन्य धर्मों में नहीं पाए जाते। इसलिए पूँजीवाद की भावना का विकास केवल पश्चिमी यूरोप के देशों में ही हुआ यहाँ पर प्रोटैस्टैण्ट लोगों की संख्या अधिक है। मैक्स वैबर के अनुसार धर्म व संस्कृति ही यह निश्चय करते हैं कि देश में किस प्रकार की प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन मिलता है।
(ख) स्पेंग्लर
स्पेंग्लर ने अपनी पुस्तक ‘दि डिक्लाइन ऑफ दि वेस्ट’ (The decline of the waste) में लिखा है कि ऋतुओं की भाँति ही विश्व की संस्कृति समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है। यह परिवर्तन कुछ निश्चित नियमों के अनुसार ऋतुओं की भाँति चक्रवत् होता रहता है। इसी परिवर्तन के कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। एक संस्कृति के बाद दूसरी संस्कृति आती है और उससे पूर्व संस्कृति के नियमों में प्ररवर्तन हो जाता है। इस परिवर्तन का क्रम चक्रवत् चलता रहता है और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी सदैव चलती रहती है।
(ग) सोरोकिन
सोरोकिन ने संस्कृति को ही सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण माना है। उनका कहना है कि जो लोग सैदव ऊर्ध्वगामी विकास देखते हैं, वे सहीं नहीं हैं; औन न ही वे व्यक्ति सही हैं जो सामाजिक परिवर्तन को चक्रीय गति से देखते हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति चक्रीय तो है परन्तु वास्तव में यह सांस्कृतिक तत्त्वों के उतार-चढ़ाव के कारण होता है। उसका विचार है कि संस्कृति दो प्रकार की होती है – प्रथम चेतनात्मक संस्कृति है, जिसमें भौतिक सुख को प्रदान करने वाले आविष्कार व उपकरणों को महत्त्व दिया जाता है। ये संस्कृति के भौतिक तथा मूर्त पक्ष हैं जिनको हम चेतनात्मक संस्कृति के नाम से पुकारते हैं। संस्कृति के दूसरे स्वरूप को सोरोकिन विचारात्मक संस्कृति के नाम से पुकारता है। इसमें भौतिक समृद्धि की अपेक्षा आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल दिया जाता है। संस्कृति का यह अभौतिक तथा अमूर्त पक्ष होता है जिसका सम्बन्ध हमारे विचारों, हमारी भावनाओं से होता है। सोरोकिन का मत है कि इन दोनों प्रकार की संस्कृतियों में उतार-चढ़ाव होता रहता है। कभी चेतनात्मक संस्कृति ऊपर उन्नति की ओर पहुँचती है और फिर विचारात्मक संस्कृति की ओर झुक जाती है। इन दोनों संस्कृतियों के बीच उतार-चढ़ाव की प्रक्रिया से सामाजिक परिवर्तन का जन्म होता है।
सोरोकिने का मत है कि दोनों प्रकार की संस्कृतियों में से जब कोई भी संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तो वह और आगे न बढ़कर पुनः पीछे की ओर लौटने लगती है। आज हम भौतिकवाद की चरम सीमा पर हैं किन्तु व्यक्ति बनाव-सिंगार से तंग आकर सरल जीवन तथा सादगी की ओर बढ़ता नजर आता है। आविष्कारों के भयंकर परिणामों से तंग आकर विश्व शान्ति के प्रयासों को तीव्र करने के लिए विविध प्रकार के संगठनों का निर्माण होने लगा है। इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि एक चरम सीमा के बिन्दु पर पहुँचकर कोई भी संस्कृति पीछे की ओर लौटती है।
संस्कृति तथा सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों के विचारों की विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृति सामाजिक परिवर्तन की दिशा को निश्चित करती है। संस्कृति इस बात को निर्धारित करती है कि कौन-सा आविष्कार किस सीमा तक लोकप्रिय होगा। जो आविष्कार सांस्कृतिक तत्त्वों के अनुरूप नहीं होते है उनको समाज में सफलता नहीं मिलती है।
प्रश्न 7
ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2007, 09, 11]
या
सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या कीजिए। [2015]
या
सांस्कृतिक विलम्बना पर एक लेख लिखिए। [2013]
उत्तर:
उक्ट ऑगबर्न का सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त
विलियम एफ० ऑगबर्न (w. F. Ogburn) ने संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए सर्वप्रथम 1922 ई० में अपनी पुस्तक ‘Social Change’ में सांस्कृतिक पिछड़’ अथवा ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। आपके अनुसार, संस्कृति का तात्पर्य मनुष्य द्वारा निर्मित सभी प्रकार के भौतिक और अभौतिक (Material and non-material) तत्त्वों से है। ‘lag’ का तात्पर्य ‘लँगड़ाना’ अथवा ‘पीछे रह जाना होता है। इस प्रकार संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में जब अभौतिक पक्ष पीछे रह जाता है, तब सम्पूर्ण संस्कृति में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ अथवा ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं। यही स्थिति सामाजिक परिवर्तन का आधारभूत कारण है। ऑगबर्न ने स्वयं इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “…………………. आधुनिक संस्कृति के विभिन्न भाग समान गति से नहीं बदल रहे हैं, कुछ भागों में दूसरी की अपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन हो रहा है और क्योंकि संस्कृति के सभी भाग एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी अभियोजन की आवश्यकता हो जाती है।”
ऑगबर्न का तर्क है कि संस्कृति के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों की असमान दर ही सांस्कृतिक पिछड़ का कारण है। हम किसी भी प्रगतिशील अथवा आदिम समाज का उदाहरण क्यों न ले लें, अधिकांश आधुनिक समाजों में हमें यह स्थिति देखने को मिलती है। एक ओर, हमारी भौतिक संस्कृति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं। हम आधुनिक ढंगों से खेती करते हैं, मशीनों के द्वारा उत्पादन कार्य करते हैं, चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मृत्यु को भी कुछ समय तक रोकने में समर्थ हो गये हैं, परिवहन के साधनों से हजारों मील की दूरी कुछ घण्टों में ही तय करने लगे हैं और संचार के साधनों से हजारों मील दूर की आवाज को कुछ सेकण्डों में ही सुन सकते हैं; लेकिन दूसरी ओर, हमारे विश्वास और लोकाचार आज भी हजारों वर्ष पुराने हैं। व्यक्ति कितना ही प्रगतिशील और शिक्षित क्यों न हो गया हो, वह काली बिल्ली द्वारा रास्ता काटे जाने अथवा टूटे हुए शीशे को देखना अशुभ समझता है और पितृ-आत्माओं की तृप्ति के लिए कुछ व्यक्तियों को भोजन कराने में विश्वास करता है। इसी प्रकार हजारों विश्वास हमारे जीवन को आज भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति से प्रभावित कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का भौतिक पक्ष कहीं आगे बढ़ चुका है, जब कि अभौतिक पक्ष बहुत पीछे है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं।
सन् 1947 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘A Handbook of Sociology’ में ऑगबर्न ने ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की परिभाषा में कुछ संशोधन करते हुए कहा है कि “सांस्कृतिक पिछड़ वह तनाव है जो तीव्र और असमान गति से परिवर्तन होने वाली संस्कृति के दो परस्पर सम्बन्धित भागों में विद्यमान होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति में होने वाले कम परिवर्तन को ही हम सांस्कृतिक पिछड़ नहीं कहते, बल्कि संस्कृति के दोनों भागों में से किसी भी एक भाग के दूसरे से आगे निकल जाने की स्थिति को सांस्कृतिक पिछड़ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, हम भारतीय समाज को ले सकते हैं, जहाँ नगरों और ग्रामीण समुदायों में यह स्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में पायी जाती है। नगरों में भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा बहुत आगे है, जब कि ग्रामीण समुदाय में भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति का महत्त्व कहीं अधिक है। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष दूसरे की अपेक्षा यदि अधिक परिवर्तित हो जाये तो यह स्थिति ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की स्थिति उत्पन्न कर देती है।
सांस्कृतिक विलम्बना के कारण तथा परिणाम
सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त में ऑगबर्न ने इस तथ्य को भी स्पष्टं किया कि संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्षों के बीच यह असन्तुलन क्यों पैदा होता है तथा सांस्कृतिक विलम्बना की दशी से सम्बन्धित कौन-से परिणाम सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं ? जहाँ तक सांस्कृतिक विलम्बना के कारण का प्रश्न है, इसे पाँच प्रमुख दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है
- रूढ़िवादी मनोवृत्तियाँ संस्कृति के अभौतिक पक्ष में परिवर्तन लाने में बाधक होती हैं। अधिकांश व्यक्ति नयी प्रौद्योगिकी को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन वे अपने विचारों, विश्वासों तथा सामाजिक मूल्यों को बदलना नहीं चाहते।
- अधिकांश लोगों में नये विचारों यो नयी वस्तु के प्रति भय की भावना होती है।
- अतीत के प्रति निष्ठा होने के कारण हम प्रत्येक उसे व्यवहार अथवा विचार को अधिक अच्छा समझते हैं जिनको परम्पराओं के रूप में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित किया जाता है।
- समाज के कुछ विशेष वर्गों के निहित स्वार्थ (Vested interests) भी संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्ष के बीच पैदा होने वाले सन्तुलन का एक प्रमुख कारण हैं। समाज का पूँजीपति वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग तथा अधिकारी वर्ग अपने-अपने स्वार्थों के कारण अक्सर नयी प्रौद्योगिकी, नवाचारों, व्यवहार के नये तरीकों अथवा नये विचारों का इसलिए विरोध करता है जिससे उसका पारम्परिक महत्त्व कम न हो जाए।
- नये विचारों की परीक्षा में कठिनता होने के कारण उनकी उपयोगिता की जाँच करना भी अक्सर सम्भव नहीं हो पाता। यही दशाएँ संस्कृति के विभिन्न पक्षों में असन्तुलन पैदा करती हैं।
किसी समाज में जब सांस्कृतिक विलम्बना की दशा उत्पन्न होती है, तब इसके अनेक परिणाम स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। जब संस्कृति का एक पक्ष दूसरे से पिछड़ जाता है, तब
- व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपनी दशाओं से नये सिरे से अनुकूलन करें।
- इसके फलस्वरूप परम्परागत संस्थाओं के कार्य दूसरी संस्थाओं को हस्तान्तरित होने लगते हैं।
- यही दशा सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव में कमी पैदा करती है।
- यदि सांस्कृतिक विलम्बना की दशा लम्बे समय तक बनी रहती है तो सामाजिक सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण सामाजिक समस्याओं में वृद्धि होने लगती है। ये सभी दशाएँ सामाजिक परिवर्तन में वृद्धि करती हैं।
सिद्धान्त की समालोचना यद्यपि यह सच है कि संस्कृति के सभी भाग समान गति से नहीं बदलते, लेकिन जिस रूप में ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसमें बहुत-सी कमियाँ हैं
- यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि अभौतिक संस्कृति की तुलना में भौतिक संस्कृति सदैव ही आगे बढ़ जाती है। मैक्स मूलर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् ने भारत का उदाहरण देते हुए बताया है कि भारत ज्ञान और त्याग में अत्यधिक प्रगतिशील है, जब कि भौतिक संस्कृति का यहाँ न तो अधिक महत्त्व है और न ही इस क्षेत्र में प्रगति करने का प्रयत्न किया जा सकता है।
- ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को ही सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारण मान लिया है, लेकिन यह सदैव सत्य नहीं है। मैकाइवर का कथन है कि संस्कृति का असन्तुलन सदैव भौतिक और अभौतिक पक्षों के बीच में नहीं होता, बल्कि संस्कृति के एक पक्ष में ही सन्तुलन की स्थिति हो सकती है।
- कभी-कभी अभौतिक और भौतिक संस्कृति के विकास की दर में ही भिन्नता होने से सांस्कृतिक पिछड़ की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों का असन्तुलन भी पिछड़ की स्थिति उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, हम एक समय पर यह विश्वास दिलाते हैं कि दहेज-प्रथा असंगत और असामयिक है और दूसरे समय पर हम स्वयं दहेज लेते और देते हैं। हम अन्धविश्वासों की आलोचना करते हैं और स्वयं ही अन्धविश्वासों के अंनुसार व्यवहार करते हैं। इस स्थिति में हम अभौतिक संस्कृति में होने वाले परिवर्तन की वास्तविक सीमा को नहीं समझ पाते।
- हमारे सामने मुख्य कठिनाई यह आती है कि संस्कृति के अभौतिक पक्ष में होने वाले परिवर्तनों को किस प्रकार मापा जाए ? भौतिक वस्तुओं के परिवर्तनों को हम माप सकते हैं लेकिन अभौतिक पक्ष से सम्बन्धित परिवर्तन का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस प्रकार भौतिक संस्कृति के तनिक-से परिवर्तन को प्रगति कह देना और अभौतिक संस्कृति में अनेक परिवर्तनों के बाद भी उसे ‘स्थायी’ मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल है।
- ऑगबर्न के इस सिद्धान्त का एक बड़ा दोष यह है कि आपने इस सिद्धान्त को केवल पश्चिमी समाज की परिस्थितियों में ही प्रस्तुत किया है। इस प्रकार यदि हम कहें कि आपने केवल औद्योगीकरण को ही अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारक मान लिया है तो यह गलत नहीं होगा।
प्रश्न 8
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए। या सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2011, 12, 16, 17]
या
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2012, 14]
या
‘सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है।’ स्पष्ट करते हुए इसके चक्रीय सिद्धान्त की विवेचना कीजिए। [2012]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया
सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। असभ्यता और बर्बरता के युग में जब मानव का जीवन पूरी तरह प्राकृतिक था, तब भी समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही। यदि संसार के इतिहास को उठाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि जब से समाज का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से समाज के रीति-रिवाज, परम्पराएँ, रहन-सहन की विधियाँ, पारिवारिक, वैवाहिक व्यवस्थाओं आदि में निरन्तर परिवर्तन होता आया है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही वैदिक काल के समाज में और वर्तमान समाज में आकाश-पाताल का अन्तर पाया जाता है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य की
आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहने के कारण वह उसकी पूर्ति के नये-नये तरीके सोचता रहता है। इसके फलस्वरूप उसके कार्य और विचार करने के तरीकों में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सतत अथवा निरन्तर क्रम में स्वाभाविक रूप से चलती रहती है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन के आरम्भिक सिद्धान्तों में उविकास की प्रक्रिया को अधिक महत्त्व दिया गया, जब कि बाद के सामाजिक विचारकों ने रेखीय अथवा चक्रीय आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना की। आज अधिकांश समाजशास्त्री संघर्ष सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना करने के पक्ष में हैं। वास्तव में, सामाजिक परिवर्तन के बारे में दिये गये सिद्धान्तों की संख्या इतनी अधिक है कि यहाँ पर इन सभी का उल्लेख करना सम्भव नहीं हैं; अत: हम यहाँ केवलु प्रमुख रूप से सामाजिक परिवर्तन के रेखीय और चक्रीय सिद्धान्त का ही वर्णन करेंगे।
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त
समाजशास्त्र को जब एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में विकसित करने का कार्य आरम्भ हुआ तो आरम्भिक समाजशास्त्री उविकास के सिद्धान्त से अधिक प्रभावित थे। फलस्वरूप कॉम्टे, स्पेन्सर, मॉर्गन, हेनरीमैन तथा वेबलन जैसे अनेक विचारकों ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो विकास के अनेक स्तरों में से गुजरती हुई आगे की ओर बढ़ती है। परिवर्तन के इस क्रम में आगे आने वाला प्रत्येक स्तर अपने से पहले के स्तर से अधिक स्पष्ट लेकिन जटिल होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एक निश्चित दशा में आगे की ओर बढ़ने की होती है। उदाहरण के लिए, समाजशास्त्र के जनक कॉम्टे ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण मनुष्य के बौद्धिक स्तर अथवा उसके विचारों में परिवर्तन होते रहना है। यह बौद्धिक विकास तीन स्तरों के द्वारा होता है। पहले स्तर में व्यक्ति के विचार धार्मिक विश्वासों से प्रभावित होते हैं। दूसरे स्तर पर मनुष्य तात्विक अथवा दार्शनिक विधि से विचार करने लगता है। अन्तिम स्तर प्रत्यक्ष अथवा वैज्ञानिक ज्ञान का स्तर है जिसमें तर्क और अवलोकन की सहायता से विभिन्न घटनाओं के कारणों और परिणामों की व्याख्या की जाने लगती है।
इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन ऊपर की ओर उठती हुई एक सीधी रेखा के रूप में होता है। हरबर्ट स्पेन्सर ने भी सामाजिक परिवर्तन को समाज के उविकास की चार अवस्थाओं के रूप में स्पष्ट किया। इन्हें स्पेन्सर ने सरल समाज (Simple society), मिश्रित समाज (Compound society), दोहरे मिश्रित समाज (Double compound society) तथा अत्यधिक मिश्रित समाज (Terribly compound society) का नाम दिया। समाज की प्रकृति में होने वाले इन प्रारूपों के आधार पर स्पेन्सर ने बताया कि आरम्भिक समाज आकार में छोटे होते हैं, इसके सदस्यों में पारस्परिक सम्बद्धता कम होती है, यह समरूप होते हैं लेकिन लोगों की भूमिकाओं में कोई निश्चित विभाजन नहीं होता।
इसके बाद आगे होने वाले प्रत्येक परिवर्तन के साथ समाज का आकार बढ़ने लगता है, सदस्यों में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाती है, लोगों की प्रस्थिति और भूमिका में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देने लगता है तथा सामाजिक संरचना अधिक व्यवस्थित बनने लगती है। इस तरह समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन सरलता से जटिलता की ओर एक रेखीय क्रम में होता है। मॉर्गन ने मानव-सभ्यता के विकास को जंगली युग, बर्बरता का युग तथा सभ्यता का युग जैसे तीन भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया। कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार पर तथा वेबलन ने प्रौद्योगिक आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये। स्पष्ट है कि जिन सिद्धान्तों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को अनेक स्तरों के माध्यम से विकास की दिशा में होने वाले परिवर्तन के रूप में स्पष्ट किया गया, उन्हें हम परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त कहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त
रेखीय सिद्धान्तों के विपरीत सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित हैं। कि सामाजिक परिवर्तन कुछ निश्चित स्तरों के माध्यम से एक विशेष दिशा की ओर नहीं होता बल्कि सामाजिक परिवर्तन एक चक्र के रूप में अथवा उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होता है। इतिहास बताता है कि पिछले पाँच हजार वर्षों में संसार में कितनी ही सभ्यताएँ बनीं, धीरे-धीरे उनका विकास हुआ, कालान्तर में उनका पतन हो गया तथा इसके बाद अनेक सभ्यताएँ एक नये रूप में फिर से विकसित हो गयीं। सभ्यता की तरह सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन भी उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होते हैं। एक समय में जिन व्यवहारों, मूल्यों तथा विश्वासों को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, कुछ समय बाद उन्हें अनुपयोगी और रूढ़िवादी समझकर छोड़ दिया जाता है।
तथा अनेक ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान विकसित होने लगते हैं जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। इसका तात्पर्य है कि जिस तरह मनुष्य का जीवन जन्म, बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और मृत्यु के चक्र से गुजरता है, उसी तरह विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी एक चक्र के रूप में उत्थान और फ्तन होता रहता है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतुओं अथवा मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित परिवर्तन जिस तरह एक निश्चित चक्र के रूप में होते हैं, समाज में होने वाले परिवर्तन सदैव एक गोलाकार चक्र के रूप में नहीं होते। जिन सामाजिक प्रतिमानों, विचारों, विश्वासों तथा व्यवहार के तरीकों को हम एक बार छोड़ देते हैं, समय बीतने के साथ हम उनमें से बहुत-सी विशेषताओं को फिर ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन उनमें कुछ संशोधन अवश्य हो जाता है। इस दृष्टिकोण से अधिकांश सामाजिक परिवर्तन घड़ी के पैण्डुलम की तरह होते हैं जो दो छोरों अथवा सीमाओं के बीच अपनी जगह निरन्तर बदलते रहते हैं। स्पेंग्लर, पैरेटो, सोरोकिन तथा टॉयनबी वे प्रमुख विचारक हैं जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये।
लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)
प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में महान लोगों की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
इतिहास में सामाजिक परिवर्तन की राजनीतिक व्याख्या महान लोगों के सन्दर्भ में की गयी है। ऐसा कहा जाता है कि इतिहास कभी भी महान लोगों के प्रभाव से विमुक्त नहीं रहा। हिटलर, मुसोलिनी, चांग- काई-शेक, चर्चिल, रूजवेल्ट, गांधी आदि महापुरुषों ने समाज को परिवर्तित करने में अपनी-अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अछूतोद्धार तथा आजादी के संघर्ष के लिए महात्मा गांधी की भूमिका अविस्मरणीय है। भारत की विदेश नीति में पं० नेहरू की महत्त्वपूर्ण देन है। राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों ने भारतीय समाज में सुधार के अनेक प्रयत्न किये। श्रीमती गांधी का नेतृत्व भी चमत्कारिक रहा, उन्होंने भी अपने बीस सूत्रीय एवं गरीबी हटाओ’ कार्यक्रमों के द्वारा भारतीय समाज में परिवर्तन एवं सुधार के प्रयास किये।
प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में संचार के उन्नत साधन एवं सामाजिक परिवर्तन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
संचार के नवीन उन्नत साधनों, जो कि एक प्रभावशाली प्रौद्योगिकीय कारक है, ने विकास के अनेक जटिल सामाजिक परिवर्तनों को जन्म दिया। संचार की अनेक प्रविधियाँ हैं जिनमें तार; टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन आदि प्रमुख हैं। संचार ही तो सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। सिनेमा यो चलचित्रों ने लोगों के विचारों, विश्वासों एवं मनोवृत्तियों को बदलने में पर्याप्त योग दिया। है। साथ ही इसने पारिवारिक, सामाजिक एवं जातिगत सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है। अब रेडियो की सहायता से कोई भी बात, सूचना एवं विचार कुछ ही क्षणों में लाखों-करोड़ों व्यक्तियों तक पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो मनोरंजन का स्वस्थ साधन भी है। रेडियो और टेलीविजन ने परिवार के सदस्यों को एक-साथ बैठकर अवकाश का समय बिताने को प्रेरित किया है। इससे सदस्यों को अपने मनोरंजन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता और साथ ही उनके पारिवारिक सम्बन्धों में भी दृढ़ता आयी है। संचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक समूह के लोगों को एक-दूसरे को समझने का मौका मिला है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें सांस्कृतिक दूरी कुछ कम हुई है और सात्मीकरण हुआ है।
प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तन के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2009]
या
माक्र्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त
मार्क्स ने उत्पादन की नयी प्रविधियों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय-प्रक्रम की व्याख्या की है, जिसके कारण उनके सिद्धान्त को रेखीय होने के साथ-साथ ‘प्राविधिक सिद्धान्त (Technological Theory) भी कहा जाता है। माक्र्स के अनुसार प्रकृति की प्रत्येक वस्तु द्वन्द्व है। उत्पादन की नवीन शक्तियों के उत्पन्न होते ही पुरानी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्पूर्ण प्रकृति में द्वन्द्वरत की अनवरत प्रक्रिया जारी रहती है, जिसे मार्क्स ने ‘द्वन्द्ववाद’ क़ी संज्ञा दी है। द्वन्द्ववाद के माध्यम से उसने यह निष्कर्ष प्राप्त किया है कि प्रकृति में कोई भी वस्तु/पदार्थ/विचार स्थिर नहीं है, सभी गतिशील हैं, सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक पद्धति का प्रयोग विचारों के क्षेत्र के साथ-साथ समाज के भौतिक विकास पर भी किया है। हीगल (Hegel) की मान्यता है कि इतिहास मन का अनवरत आत्मानुभव है तथा घटनाएँ उसकी बाह्य अभिव्यक्ति। वहीं मार्क्स की मान्यता है कि घटनाएँ ही प्रधान हैं, उनके बारे में हमारे विचार गौण ही हैं। द्वन्द्वात्मक प्रणाली के माध्यम से मार्क्स ने जिस रूप में भौतिक जगत का विश्लेषण किया, उसे ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ (Dialectic Materialism) कहा जाता है। मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की विवेचना निम्नवत् की जा सकती है
कार्ल मार्क्स ने भी सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या रेखीय आधार पर की है। उसने समस्त सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक या प्रौद्योगिक आधार पर स्पष्ट किया है। अतः उसके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को निर्णयवादी (Deterministic Theory) भी कहा जाता है। उसके विचार से धर्म, राजनीति, भौगोलिक दशाएँ अथवा अन्य कारण सामाजिक परिवर्तन को जन्म नहीं देते हैं, केवल आर्थिक कारक ही सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलता है। मार्क्स ने आर्थिक कारक को उत्पादन की प्रणाली अथवा प्रौद्योगिकी (Technology) के रूप में स्पष्ट किया है। किसी समाज में प्रचलित प्रौद्योगिकी या उत्पादन प्रणाली ही उस समाज की पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को निश्चित करती है। जब किसी समाज में प्रचलित उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है तो उसकी सामाजिक व्यवस्था के समस्त अंगों में भी परिवर्तन हो जाता है। माक्र्स ने आर्थिक व्यवस्था या प्रौद्योगिकी को अर्थात् उत्पादन की प्रणाली को समाज की रचना ‘अधिसंरचना’ (Substructure) तथा सामाजिक व्यवस्था को ‘अतिसंरचना (Superstructure) कहा है। प्रत्येक समाज की अतिसंरचना उसकी अधिसंरचना अर्थात् उत्पादन प्रणाली के अनुसार ही परिवर्तित होती रहती है।
प्रश्न 4
कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
या
मार्क्स के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2009]
उत्तर:
मार्क्स का समाजवाद वैज्ञानिक समाजवाद’ (Scientific Socialism) कहलाता है। उनकी विचारधारा को वैज्ञानिक कहे जाने के वैसे तो कई कारण हैं, पर उनमें सबसे बड़ा कारण : उनकी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ (Dialectical Materialism) की धारणा है। यद्यपि मार्क्स आदर्शवादी विचारक हीगल (Hegel) की द्वन्द्वात्मक प्रणाली में विश्वास रखते थे और उन्होंने अपनी द्वन्द्वात्मक धारणा को हीगल से ही ग्रहण किया है। परन्तु हीगल के द्वन्द्ववाद का आधार ‘विचार’ था, जब कि मार्क्स ने उसमें संशोधन करके उसे ‘भौतिकवाद’ पर आधारित कर दिया। हीगल का कहना था कि “विचारों के संघर्ष के परिणामस्वरूप ही नयी विचारधाराएँ जन्म लेती हैं। परन्तु मार्क्स ने वर्तमान सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के लिए भौतिक (आर्थिक) परिस्थितियों को सर्वोच्च माना है। मार्क्स के अनुसार, “बाह्य जगत का प्रभाव आन्तरिक विचारों का निर्माण करता है।” जो नये विचार उत्पन्न होते हैं, वे किसी विचार से सम्बन्धित विरोधी तत्त्वों के पारस्परिक टकराव से उत्पन्न होते हैं।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना
1. भौतिकता पर अत्यधिक बल – मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त में केवल भौतिकता को ही महत्त्व प्रदान किया है तथा आध्यात्मिकता की पूर्णतः उपेक्षा की है। मानव
जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक नहीं हो सकता।
2. संघर्ष की अनिवार्यता पर बल – मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विकास की प्रक्रिया में संघर्ष की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। उनका कहना है कि प्रत्येक उच्चतर अवस्था क्रान्ति के पश्चात् ही प्राप्त होती है। उनके इसी विचार के कारण आज के युवक साम्यवादी क्रान्ति की आराधना करते हैं।
3. पदार्थ को चेतनाहीन मानना उचित नहीं – मार्क्स का यह मत भी उचित नहीं जान पड़ता कि पदार्थ चेतनाहीन होता है और अपने निहित विरोधी तत्त्वों में संघर्ष के फलस्वरूप उसका विकास होता है। सत्य तो यह है कि किन्हीं बाह्य शक्तियों के कारण उसका विकास होता है।
4. स्पष्टता का अभाव – कुछ विद्वानों का कहना है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या स्पष्ट रूप से नहीं की गयी है। वेबर महोदय का कहना है कि मार्क्स अपने द्वन्द्ववादी भौतिकवाद की व्याख्या अधिक स्पष्ट रूप में नहीं कर पाये; अतः इनकी धारणा अत्यन्त गूढ़ एवं अस्पष्ट है। प्रसिद्ध साम्यवादी अधिनायक लेनिन का भी यही कहना है कि हीगल के द्वन्द्ववाद को समझे बिना मार्क्स के द्वन्द्ववाद को नहीं समझा जा सकता।
5. विकास से सम्बन्धित अनुचित धारणा – द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सम्बन्ध में मार्क्स का कहना है कि पूँजीवाद (Capitalism) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुसार इतिहास की उपज है। वे कहते हैं कि जिस देश में पूंजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाएगा, उस देश में उसका विरोधी तत्त्व ‘समाजवाद’ भी उसी के पेट से उत्पन्न होगा। परन्तु यदि इस बात को स्वीकार कर लिया जाये, तो इंग्लैण्ड में (जहाँ सबसे पहले पूँजीवाद अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा) सबसे पहले समाजवाद का उदय होना चाहिए था, जो कि नहीं हुआ। इसके विपरीत रूस और चीन में (जहाँ पूँजीवाद अपनी निम्नतर स्थिति में था) समाजवाद का सबसे अधिक विकास हुआ। उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सत्य की खोज करने की एकमात्र विधि नहीं है, सत्य की खोज तो अन्य विधियों से भी की जा सकती है।
प्रश्न 5
सामाजिक परिवर्तन में मनोवैज्ञानिक कारकों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चूँकि समस्त मानव-सम्बन्ध मानव-मस्तिष्क की उपज हैं अतः सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन मानव-मस्तिष्क में परिवर्तन के कारण होते हैं। मानव में जिज्ञासा की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस प्रवृत्ति ने ही मानव को आविष्कार करने एवं अज्ञात को खोजने की प्रेरणा दी। मानव ने अनेक ऐसे आविष्कार किये जिन्होंने उसके जीवन को ही बदल दिया। जिज्ञासा के कारण ही वह चन्द्रमा पर पहुँचा, समुद्र की गहराई तक गया और दूर देशों की यात्रा की। मानव-मस्तिष्क नवीनता चाहता है, वह एक ही स्थिति से ऊब जाता है। इस ऊब से मुक्ति पाने के लिए ही मानव ने नये फैशने को जन्म दिया। मानसिक असन्तोष एवं संघर्ष सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। पारिवारिक विघटने एवं विवाह-विच्छेद का कारण परिवार के सदस्यों तथा पति-पत्नी का मानसिक अनुकूलन न हो पाना भी है। मानसिक तनाव सामाजिक सम्बन्धों को तोड़ देते हैं तथा लोगों में निराशा पैदा करते हैं। यह हत्या, आत्महत्या तथा अपराध के लिए भी उत्तरदायी है।
प्रश्न 6
सामाजिक अनुकूलन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक अनुकूलन सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं में से एक है। अनुकूलन में एक व्यक्ति दूसरे से समायोजन करने का प्रयत्न करता है। अनुकूलन किस सीमा तक होता है, इस बात को प्रकट करने के लिए कुछ शब्दों; जैसे-अभियोजन, समायोजन, सात्मीकरण तथा एकीकरण आदि; का प्रयोग किया जाता है। अनुकूलन की क्रिया दो बातों की ओर संकेत करती है
- व्यक्ति अपने को परिस्थिति के अनुसार ढाल ले तथा
- पर्यावरण या परिस्थितियों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार संशोधित कर ले। इस प्रकार अनुकूलन भी एक प्रकार का परिवर्तन है। जो सभी समाजों में पाया जाता है। किसी व्यक्ति द्वारा विदेश में जाकर रहने पर स्वयं को वहाँ के समाज के अनुसार ढाल लेना अनुकूलन का उदाहरण है।
प्रश्न 7
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय और चक्रीय सिद्धान्तों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित रेखीय तथा चक्रीय सिद्धान्तों में निम्नलिखित अन्तर
- चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन का एक चक्र चलता है। हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिरकर पुनः उसी स्थिति में आ जाते हैं, जब कि रेखीय सिद्धान्त यह विश्वास करता है। कि परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। हम क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं और जिस चरण को हम त्याग चुके होते हैं, पुनः वहाँ कभी नहीं लौटते हैं।
- चक्रीय सिद्धान्त में परिवर्तन उच्चता से निम्नता और निम्नता से उच्चता की ओर होता है, जब कि रेखीय सिद्धान्त विश्वास करता है कि परिवर्तन सदैव निम्नता से उच्चता की ओर तथा
अपूर्णता से पूर्णता की ओर ही होता है। - चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन का चक्र तेज व मन्द दोनों हो सकता है, जब कि रेखीय सिद्धान्त परिवर्तन की मन्द गति में विश्वास करता है।
- रेखीय सिद्धान्त चक्रीय सिद्धान्त की अपेक्षा उविकासवादियों से अधिक प्रभावित होता है।
- चक्रीय सिद्धान्तकारों ने परिवर्तन के चक्र को ऐतिहासिक एवं अनुभवसिद्ध प्रभावों के आधार पर प्रकट करने का प्रयास किया है, जब कि रेखीय सिद्धान्तकारों ने रेखीय परिवर्तन को एक सैद्धान्तिक रूप दिया है।
- रेखीय सिद्धान्तकारों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन मानवीय प्रयत्न व इच्छा से स्वतन्त्र हैं तथा ऐसे परिवर्तन स्वत: उत्पन्न होते हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकार मानते हैं कि परिवर्तन का चक्र मानवीय प्रयत्नों एवं प्राकृतिक प्रभावों का परिणाम है।
- रेखीय सिद्धान्तकार परिवर्तन के किसी एक प्रमुख कारण पर अधिक बल देते हैं तथा वे निर्धारणवादियों के निकट हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकार परिवर्तन को अनेक कारकों का प्रतिफल मानते हैं तथा कहते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अत: यह स्वयं घटित होता है। 8. रेखीय सिद्धान्तकार मानते हैं कि परिवर्तन के चरण एवं क्रम विश्व के सभी समाजों में एकसमान रहते हैं, जब कि चक्रीय सिद्धान्तकारों की मान्यता है कि विभिन्न सामाजिक संगठनों व संरचनाओं की सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया एवं प्रकृति में अन्तर पाया जाता है।
प्रश्न 8
सामाजिक परिवर्तन क्या है ? यह सांस्कृतिक परिवर्तन से किस प्रकार भिन्न है ? [2007, 08, 13, 16]
या
सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक परिवर्तन से अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2016]
या
सामाजिक परिवर्तन क्या है? सामाजिक परिवर्तन एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में भेद कीजिए। [2013, 16]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन – सामान्यतः सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज में घटित होने वाले परिवर्तनों से है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहा है तो कुछ ने सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों को। सम्पूर्ण समाज अथवा उसके किसी पक्ष में होने वाले परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में
क्र०सं० | सामाजिक परिवर्तन | सांस्कृतिक परिवर्तन |
1. | सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध सामाजिक, ढाँचे तथा सामाजिक अन्तक्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों से है। | सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न पक्षों के परिवर्तन से सम्बन्धित हैं। |
2. | सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया है। | सांस्कृतिक परिवर्तन इस प्रक्रिया की उपज है। |
3. | सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है। | सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है। |
4. | सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन की तुलना में कुछ तेजी से होता है। | अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों; जैसे – धर्म, नैतिकता, प्रथाओं, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से आते हैं। |
5. | सामाजिक परिवर्तन का क्षेत्र अधिक व्यापक है। | सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के अन्दर ही एक विशेष रूप ग्रहण करता है। |
6. | सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य रूप से सामाजिक परिवर्तन का उत्पन्न करता है। | सांस्कृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न होना सदैव आवश्यक नहीं होता, यद्यपि इसकी सम्भावना अवश्य की जा सकती है। |
प्रश्न 9
सामाजिक विघटन एवं सामाजिक परिवर्तन के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक विघटन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौम क्रिया है जो प्रत्येक समाज में लगातार चलती रहती है। इतना अवश्य है कि किसी समाज में इसकी गति तीव्र होती है और किसी में धीमी गतिशील समाजों में सामाजिक परिवर्तन की तीव्रता सामाजिक विघटन को प्रोत्साहित करती है।।
गिलिन, डिटमर, कोलबर्ट एवं अन्य विद्वानों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन समाज में असामंजस्य की समस्या पैदा करके सामाजिक विघटन को जन्म देता है। सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रवृत्तियों में चार प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं, जो साधारणतः विघटन को बढ़ावा देती हैं। ये प्रवृत्तियाँ
- धार्मिकता से धर्म-निरपेक्षता की ओर परिवर्तन;
- समरूपता से विभिन्नता या विजातीयता की ओर परिवर्तन;
- लोकगाथाओं से वैज्ञानिक निष्कर्षों की ओर परिवर्तन तथा ।
- प्राथमिक समूह के प्रभाव में कमी के कारण उत्पन्न परिवर्तन।
उपर्युक्त परिवर्तनों की तीव्र गति के कारण समाज में अनेक सामाजिक समस्याएँ तथा विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
विभिन्न प्रामाणिक तत्त्वों में परिवर्तन की असमान दर के कारण समाज विघटन की ओर अग्रसर होता है। वे संस्थाएँ जो समाज को स्थिरता प्रदान करती हैं अक्सर परिवर्तन विरोधी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक विघटन में सहायक होती हैं। होता यह है कि उन भौतिक दशाओं जिनमें एक विशिष्ट संस्था का विकास हुआ, के बदल जाने पर स्वयं संस्था में आवश्यक परिवर्तन नहीं आता। जो संस्था मनुष्य की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित हुई, वही अपनी अपरिवर्तनीय प्रवृत्ति के कारण मनुष्य के सामने बदली हुई परिस्थितियों में समायोजन की कठिन समस्या उत्पन्न कर देती है। ऐसी स्थिति में सामाजिक विघटन विभिन्न रूपों में दिखाई देने लगता है।
सामाजिक विघटन का एक कारण संस्कृति के भौतिक एवं अभौतिक पक्षों में परिवर्तन की असमान दर है। आविष्कार एवं प्रसार के कारण भौतिक संस्कृति में तेजी से परिवर्तन आता है। इसके विपरीत, अभौतिक संस्कृति में बहुत धीमी गति से परिवर्तन होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक संस्कृति पीछे छूट जाती है। ऐसा होने पर सामाजिक अव्यवस्था या असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। इसी को ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना नाम दिया है जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।
प्रश्न 10
सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों से तात्पर्य उन कारकों से है जो हमें अपने माता-पिता द्वारा वंशानुक्रमण में प्राप्त होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के प्रकार को निर्धारित करते हैं। हमारा स्वास्थ्य, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता एवं योग्यता, विवाह की आयु, प्रजनन दर, हमारा कद एवं शारीरिक गठन आदि सभी वंशानुक्रमण एवं जैविकीय कारकों से प्रभावित होते हैं। किसी समाज के लोगों की जन्म-दर एवं मृत्यु-दर, औसत आयु आदि पर भी प्राणिशास्त्रीय कारकों को प्रभाव पड़ता है। जन्म-दर, मृत्यु-दर एवं औसत आयु में परिवर्तन होने से समाज पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, किसी समाज में पुरुषों की मृत्यु-दर अधिक है तो वहाँ विधवाओं की संख्या में वृद्धि होगी एवं विधवा-विवाह की समस्या पैदा होगी तथा स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति एवं बच्चों की शिक्षा-दीक्षा एवं समाजीकरण भी प्रभावित होगा।
दुर्बल एवं कमजोर शारीरिक एवं मानसिक क्षमता वाले लोग आविष्कार एवं निर्माण का कार्य नहीं कर पाएँगे। अतः आविष्कारों के कारण होने वाले परिवर्तन नहीं होंगे। इसकी तुलना में योग्य व्यक्ति नव-निर्माण एवं आविष्कार के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होंगे। किसी समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक होने पर बहुपत्नी-विवाह प्रथा एवं स्त्रियों की कमी होने पर बहुपति प्रथा तथा दोनों की समान संख्या होने पर एक-विवाह प्रथा का प्रचलन होगा। सामान्यतः यह माना जाता है कि अन्तर्जातीय एवं अन्तर्रजातीय विवाह से प्रतिभाशाली सन्तानें पैदा होती हैं, जो आविष्कारों द्वारा नवीन परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)
प्रश्न 1
निम्नलिखित पुस्तकें एवं अवधारणाएँ किन समाजशास्त्रियों से सम्बन्धित हैं। [2007]
(1) सांस्कृतिक विलम्बना,
(2) वर्ग-चेतना,
(3) चेतनात्मक संस्कृति,
(4) वर्ग-संघर्ष,
(5) आर्थिक निर्धारणवाद,
(6) अतिरिक्त मूल्य,
(7) प्रौद्योगिक विलम्बना,
(8) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन तथा
(9) अभिजात वर्ग का परिभ्रमण।
उत्तर:
(1) ऑगबर्न,
(2) कार्ल मार्क्स,
(3) सोरोकिन,
(4) कार्ल मार्क्स,
(5) कार्ल मार्क्स,
(6) कार्ल मार्क्स,
(7) मैकाइवर एवं पेज,
(8) एम० एन० श्रीनिवास तथा
(9) पैरेटो।
प्रश्न 2
सामाजिक परिवर्तन की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है।
(ii) सामाजिक परिवर्तन आवश्यक एवं स्वाभाविक है।
(iii) सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा तुलनात्मक है।
(iv) सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है।।
प्रश्न 3
सामाजिक परिवर्तन के दो परिणाम लिखिए। [2010, 13, 15, 16, 17]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के दो स्वाभाविक परिणाम निम्नलिखित हैं
- सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक । सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है।
- सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए, परिवहन और संचार के साधनों में वृद्धि होने से सामाजिक गतिशीलता में भी वृद्धि होती है ।
प्रश्न 4
सामाजिक परिवर्तन के दो कारक लिखिए। (2007)
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के दो कारक निम्नलिखित हैं
- सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में भौतिक यो भौगोलिक तत्त्वों या परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा है। हंटिंग्टन के मतानुसार, जलवायु का परिवर्तन ही सभ्यताओं और संस्कृति के उत्थान एवं पतन का एकमात्र कारण है।
- सामाजिक परिवर्तनों में मनोवैज्ञानिक कारकों को विशेष हाथ रहता है। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सदा नवीन खोजें किया करता है और नवीन अनुभवों के प्रति इच्छित रहता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही मानव समाज की रुढ़ियों, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों में परिवर्तन होते रहते हैं।
प्रश्न 5
आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं में क्या परिवर्तन लाते हैं ?
उत्तर:
आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं में भी परिवर्तन लाते हैं। भारत में औद्योगीकरण व नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार व्यवस्था का विघटन हुआ, जाति-पाँति के भेदभाव, छुआछूत आदि समाप्त हुए, शिक्षा का प्रसार हुआ, स्त्रियों को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए, अन्तर्जातीय विवाह, प्रेम-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह आदि आरम्भ हुए, जाति सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हुए, व्यवसाय में परिवर्तन आया, ग्रामीणों में शिक्षा का प्रसार हुआ, जनसंख्या की गतिशीलता बढ़ी तथा बैंकों की स्थापना हुई।
प्रश्न 6
कार्ल मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ का सिद्धान्त क्या है? [2007]
उत्तर:
मार्क्स द्वन्द्व को ही परिवर्तन की प्रक्रिया का आधार मानता है। माक्र्स ने ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ के द्वारा समाज के विकास को समझने का प्रयत्न किया है। मार्क्स ने इस बात पर बल दिया कि समाज के विकास के कुछ नियम होते हैं तथा उन नियमों के अनुरूप ही समाज में परिवर्तन होते रहते हैं। मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी वर्ग एक ‘वाद’ है, सर्वहारा वर्ग ‘प्रतिवाद’ है। और इन दोनों के संघर्ष से संवाद के रूप में वर्गहीन समाज की स्थापना होगी। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का अन्तिम लक्ष्य वर्गविहीन समाज की स्थापना है जिसमें न कोई वर्ग-भेद होगा और न किसी प्रकार का शोषण।
प्रश्न 7
प्रौद्योगिकी के दो प्रत्यक्ष प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रौद्योगिकी के दो प्रत्यक्ष प्रभाव निम्नवत् हैं
- नगरीकरण – जब उत्पादन फैक्ट्री प्रणाली द्वारा होने लगा तो ग्रामों से बहुत-से लोग काम की तलाश में नगरों में आने लगे। परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या तेजी के साथ बढ़ती गयी। जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने के कारण अनेक नगरीय समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
- गतिशीलता का बढ़ना – प्रौद्योगिकीय परिवर्तन ने स्थानीय और सामाजिक दोनों ही प्रकार की गतिशीलता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। स्थानीय गतिशीलता का अर्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की प्रवृत्ति का बढ़ना है। सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक सामाजिक स्थिति से दूसरी सामाजिक स्थिति प्राप्त कर लेना है, एक समूह या वर्ग से दूसरे समूह या वर्ग में पहुँच जाना है।
प्रश्न 8
क्षेत्रीयतावाद किस तरह राष्ट्रहित में बाधक है ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद के कारण देश का प्रत्येक क्षेत्र स्वयं को एक पृथक् इकाई मान लेता है। प्रत्येक क्षेत्र के निवासी अधिकाधिक अधिकारों तथा सुविधाओं की माँग को लेकर एक-दूसरे के विरोधी बन जाते हैं। धीरे-धीरे क्षेत्रवाद की भावना के कारण केन्द्र सरकार में लोगों की निष्ठा कम होने लगती है। इससे केन्द्र व राज्य सरकारों के सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं। व्यवस्था और प्रशासन तब एक समस्या का रूप ले लेती है। ये सभी वे परिस्थितियाँ हैं जो राष्ट्रीय एकता को चुनौती देकर देश की सम्पूर्ण प्रगति को अवरुद्ध कर देती हैं।
प्रश्न 9
क्या सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी की जा सकती है ?
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के बारे में निश्चित रूप से पूर्वानुमान लगाना कठिन है; अत: उसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम सामाजिक परिवर्तन के बारे में बिल्कुल ही अनुमान नहीं लगा सकते अथवा सामाजिक परिवर्तन का कोई नियम ही नहीं है। इसका केवल यह अर्थ है कि कई बार आकस्मिक कारणों से भी परिवर्तन होते हैं, जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।
प्रश्न 10
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नामोल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन का रेखीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नाम मॉर्गन तथा कॉम्टे है।
प्रश्न 11
सांस्कृतिक परिवर्तन के दो उदाहरण दीजिए। [2013]
उत्तर:
सांस्कृतिक परिवर्तन के उदाहरण निम्न हैं
- सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न पक्षों के परिवर्तन से सम्बन्धित है।
- सांस्कृतिक परिवर्तन इस प्रक्रिया की उपज है।
- सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है।
- अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों; जैसे – धर्म, नैतिकता, प्रथाओं, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से आते हैं।
- सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के अन्दर ही एक विशेष रूप ग्रहण करता है।
प्रश्न 12
संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2016]
उत्तर:
संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- सीखा हुआ व्यवहार – व्यक्ति समाज की प्रक्रिया में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। ये सीखे हुए अनुभव, विचार-प्रतिमान आदि की संस्कृति के तत्त्व होते हैं। इसलिए संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है।
- हस्तान्तरण की विशेषता – संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित हो जाती है। संस्कृति का अस्तित्व हस्तान्तरण के कारण ही स्थायी बना रहता है। हस्तान्तरण की यह प्रक्रिया निरन्तर होती रहती है। समाजीकरण की प्रक्रिया संस्कृति के हस्तान्तरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1
सामाजिक परिवर्तन के दो कारणों को बताइए। [2011, 12]
उत्तर:
(1) प्राकृतिक या भौगोलिक कारक तथा
(2) प्राणिशास्त्रीय कारक।
प्रश्न 2
किसने सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया? [2011, 17]
उत्तर:
मैकाइवर एवं पेज ने।
प्रश्न 3
संस्कृतिकरण की अवधारणा किसने दी है? [2013]
उत्तर:
एम० एन० श्रीनिवास।
प्रश्न 4
“सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है।” (सत्य/असत्य) [2013, 14, 17]
उत्तर:
सत्य।
प्रश्न 5
भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति की अवधारणा किसने दी? [2011, 14, 16]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।
प्रश्न 6
भौतिक और अभौतिक संस्कृति में असमान गति के परिवर्तन से जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसे ऑगबर्न क्या कहते हैं ? [2012]
उत्तर:
सांस्कृतिक विलम्बना।
प्रश्न 7
अभिजात वर्ग को परिभ्रमण सिद्धान्त की अवधारणा किसने दी है? [2013]
या
संभ्रांत वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त किसका है? [2013]
या
सामाजिक परिवर्तन में किसने ‘अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त दिया है? [2015]
उत्तर:
पैरेटो महोदय।
प्रश्न 8
किसने सामाजिक परिवर्तन की विवेचना संस्कृति में परिवर्तन के रूप में की है? [2011]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।
प्रश्न 9
प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा किस विद्वान् की है ?
या
“प्रौद्योगिकीय प्रविधियाँ सामाजिक परिवर्तन को जन्म देती हैं।” यह मत किसका है?
उत्तर:
प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा थर्स्टन वेबलन की है।
प्रश्न 10
सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम क्या है ?
उत्तर:
सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम ‘सांस्कृतिक गतिशीलता है।
प्रश्न 11
“भौतिक संस्कृति में अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा तीव्र गति से परिवर्तन होता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन ऑगबर्न का है।
प्रश्न12
प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता कौन हैं ?
उत्तर:
प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता थर्स्टन वेबलन हैं।
प्रश्न 13
निम्नलिखित पुस्तकों के लेखकों के नाम लिखिए
(क) आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन।
(ख) इण्डियाज चेन्जिग विलेजेज।
(ग) डिस्कवरी ऑफ इण्डिया।
उत्तर:
(क) डॉ० एम०एन० श्रीनिवास,
(ख) एस०सी० दुबे,
(ग) जवाहरलाल नेहरू।
प्रश्न 14
आर्थिक निर्णायक की अवधारणा किसने दी ? [2007]
या
आर्थिक निर्धारणवाद सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं ? [2009]
या
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक का समर्थक कौन है ? [2007]
उत्तर:
आर्थिक निर्णायक की अवधारणा कार्ल मार्क्स ने दी।
प्रश्न 15
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानों की संख्या लिखिए। [2011]
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानों की संख्या 2 है।
प्रश्न 16
‘प्रौद्योगिक विलम्बना’ की धारणा किसने दी ? [2011]
उत्तर:
मैकाइवर तथा पेज ने।
प्रश्न 17
“सामाजिक परिवर्तन का एक प्रकार लहर की तरह वक्र रेखा प्रस्तुत करता है।” इसका समर्थक कौन है ?
उत्तर:
इस अवधारणा के समर्थक हैं-ओस्वाल्ड स्पेंग्लर।
प्रश्न 18
कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो किस वर्ष प्रकाशित हुआ ?
उत्तर:
कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन 1948 ई० में हुआ।
प्रश्न 19
“जनसंख्या ज्यामितिक क्रम में बढ़ती है। यह किसने कहा ?
उत्तर:
माल्थस ने।
प्रश्न 20
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक कौन हैं ? [2007]
उत्तर:
ओस्वाल्ड स्पेंग्लर।।
प्रश्न 21
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त के दो सिद्धान्तकारों का नामोल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर:
मॉर्गन तथा हेनरीमैन।
प्रश्न 22
‘वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं ?
उत्तर:
वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त’ के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स हैं।
प्रश्न 23
किसने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या भावनात्मक, चेतनात्मक और आदर्शात्मक अवधारणाओं से की है? [2015]
उत्तर:
चार्ल्स कूले ने।।
प्रश्न 24
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया? [2016]
उत्तर:
ऑगबर्न ने।
प्रश्न 25
ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा किसने दी है? [2016]
उत्तर:
कार्ल मार्क्स ने।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1
निरन्तर एक ही दिशा में आगे की ओर होने वाले परिवर्तन को कहते हैं [2007]
(क) चक्रीय
(ख) प्रगतिशील
(ग) क्रान्तिकारी
(घ) उविकासीय
प्रश्न 2
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक परिवर्तन नहीं है ?
(क) विवाह के उत्सव को साधारण बनाना
(ख) संयुक्त परिवार का विघटन
(ग) धार्मिक विश्वासों का प्रभाव कम होना
(घ) मोटर-कार के मॉडल में परिवर्तन हो जाना
प्रश्न 3
“सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होने के कारण होता है।” यह कथन किसका
(क) वेबलन का
(ग) टॉयनबी का
(ख) ऑगबर्न का
(घ) सोरोकिन का
प्रश्न 4
कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण
(क) यान्त्रिक प्रयोग
(ख) आर्थिक कारक
(ग) धार्मिक कारण
(घ) राजनीतिक कारण
प्रश्न 5
निम्नलिखित में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम माना है ?
(क) जॉर्ज सी० होमन्स ने
(ख) बीसेज एवं बीसेंज ने
(ग) आगस्त कॉम्टे ने
(घ) रॉबर्ट बीरस्टीड ने।
प्रश्न 6
निम्नलिखित किस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन जैविकीय आधार पर होता है ?
(क) प्राणिशास्त्रीय सिद्धान्त
(ख) जनसंख्यात्मक सिद्धान्त
(ग) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त
(घ) विकासवादी सिद्धान्त ।
प्रश्न 7
मैक्स वेबर ने सामाजिक परिवर्तन के लिए किसे अधिक महत्त्व दिया है ?
(क) पूँजी को
(ख) शिक्षा को
(ग) धर्म को
(घ) संस्कृति को
प्रश्न 8
भारत में सामाजिक परिवर्तन विषय पर किस विद्वान् ने सबसे अधिक अध्ययन किया ?
(क) डॉ० नगेन्द्र ने
(ख) सच्चिदानन्द ने
(ग) एम० एन० श्रीनिवास ने
(घ) डॉ० राधाकृष्णन ने
प्रश्न 9
ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस आधार पर की है ?
(क) सामाजिक असन्तुलन
(ख) नैतिक पतन।
(ग) सांस्कृतिक विलम्बना
(घ) प्रौद्योगिकीय कारक
प्रश्न 10
निम्नलिखित समाजशास्त्रियों में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को चक्रवत माना है?
(क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने
(ख) हॉबहाउस ने ।
(ग) शुम्पीटर ने
(घ) इमाइल दुर्चीम ने
प्रश्न 11
संस्कृति की विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन का सर्वप्रमुख कारण कौन मानता है ?
(क) सोरोकिन
(ख) मैक्स वेबर
(ग) सिमैले
(घ) मॉण्टेस्क्यू
प्रश्न 12
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया ? या सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा किसने दी है? [2015, 16]
(क) जिन्सबर्ग ने
(ख) ऑगबर्न ने
(ग) कार्ल मार्क्स ने
(घ) इमाइल दुर्चीम ने
प्रश्न 13
‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ का प्रतिपादक कौन था ? या निम्नलिखित में से किसने ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत की? [2016]
(क) मार्क्स
(ख) महात्मा गांधी
(ग) स्पेन्सर
(घ) ऑगबर्न
प्रश्न 14
टॉयनबी (Toynbee) के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को किस नाम से जाना जाता है ?
(क) अभिजात वर्ग का सिद्धान्त
(ख) चक्रीय सिद्धान्त
(ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त
(घ) सामाजिक गतिशीलता का सिद्धान्त
प्रश्न 15
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक का समर्थक कौन है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) वेबलन
(ग) जॉर्ज लुण्डबर्ग
(घ) मैक्स वेबर
प्रश्न 16
निम्नांकित में से किसने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है? [2012, 16]
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) विल्फ्रेडो पैरेटो
(ग) आगस्त कॉम्टे
(घ) थॉर्टन वेबलन
प्रश्न 17
‘ए हैण्ड बुक ऑफ सोशियोलॉजी’ के लेखक हैं [2017]
(क) किंग्सले डेविस
(ख) चार्ल्स होर्टन कूले
(ग) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
(घ) गुन्नार मिर्डल।
प्रश्न 18
कौन-सी पुस्तक एफ० एच० गिडिंग्स द्वारा लिखी गयी है ? [2009]
(क) सोसायटी
(ख) पॉजिटिव पॉलिटी
(ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी
(घ) सोशियल कण्ट्रोल
प्रश्न 19
‘कल्चरल डिस ऑर्गेनाइजेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं? [2015]
(क) के० डेविस
(ख) इलियट एण्ड मैरिल
(ग) कूले
(घ) स्पेन्सरं
उत्तर:
1. (घ) उदूविकासीय, 2. (घ) मोटर-कार के मॉडल में परिवर्तन हो जाना, 3. (क) वेबलन का, 4. (ख) आर्थिक कारक, 5. (ग) आगस्त कॉम्टे ने, 6. (घ) विकासवादी सिद्धान्त, 7. (ग) धर्म को, 8. (ग) एम० एन० श्रीनिवास ने, 9. (ग) सांस्कृतिक विलम्बना, 10. (क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने, 11. (क) सोरोकिन, 12. (ख) ऑगबर्न ने, 13. (क) मार्क्स, 14. (ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त, 15. (घ) मैक्स वेबर, 16. (ख) विल्फ्रेडो पैरेटो, 17. (ग) ऑगबर्न एवं निमकॉफ, 18. (ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी, 19. (ख) इलियट एण्ड मैरिल।।
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