UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण)

By | June 1, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण)

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं ?  इसके क्या उद्देश्य हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
सामाजिक नियन्त्रण क्या है? धर्म सामाजिक नियन्त्रण को कैसे प्रभावित करता है? [2016]
या
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2012, 13, 16]
या
धर्म से आप क्या समझते हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की व्याख्या कीजिए। [2007, 10, 11, 13]
या
सामाजिक नियन्त्रण पर आत्म-नियन्त्रण के प्रभाव को दर्शाइए। [2017]
उतर:

सामाजिक नियन्त्रण का अर्थ

समाज एक व्यवस्था का नाम है। समाज का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसमें व्यवस्था बनी रहती है। समाज के सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित करके ही यह व्यवस्था बनी रह सकती है। इस व्यवस्था के बनाने में कुछ शक्तियाँ प्रभावी होती हैं। वास्तव में, ये शक्तियाँ ही सामाजिक नियन्त्रण के रूप में जानी जाती हैं। समाज के प्रत्येक व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरों के हितों को कुचल डाले। वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में उचित-अनुचित का विचार न करके अव्यवस्था को जन्म देता है। सामाजिक नियन्त्रण ही वह शक्ति है जो उसे उच्छंखलता करने से रोकती है। जिस विधि से समाज के सदस्यों के व्यवहारों को सुव्यवस्थित तथा नियन्त्रित किया जाता है, उसे ही सामाजिक नियन्त्रण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, समाज द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों के सामान्य व्यवहारों पर जो नियन्त्रण लगाया जाता है, सामान्य रूप से उसे ही सामाजिक नियन्त्रण की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में सामाजिक नियन्त्रण समाजीकरण का पालक व रक्षक है तथा मानव के

सामाजिक जीवन की एक अनिवार्य दशा है।

सामाजिक नियन्त्रण की परिभाषा सामाजिक नियन्त्रण का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करना। होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियन्त्रण को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है|

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, सामाजिक नियन्त्रण का तात्पर्य उस तरीके से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और उसका स्थायित्व बना रहता है। इसके द्वारा यह समस्त व्यवस्था एक परिवर्तनशील सन्तुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।”

जोसेफ रोसेक के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण उन नियोजित या अनियोजित क्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाने वाला सामूहिक शब्द है जिससे व्यक्ति को समूह के मूल्यों एवं रीति-रिवाजों को सिखाया जाता है, उन्हें मानने का अनुरोध किया जाता है अथवा विवश किया जाता है।’

लुण्डबर्ग के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण एक दशा है जिसमें व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों द्वारा कार्य या विश्वास के सामूहिक प्रमापों को मानने के लिए, जब अन्य आदर्श भी प्राप्त हों, विवश किया जाता है।

जॉर्ज एटबरी व अन्य के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण से तात्पर्य उस तरीके से है जिससे समाज सामाजिक सम्बन्धों में एकरूपता एवं स्थिरता प्राप्त करता है।”

ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “दबाव के वे प्रतिमान जो व्यवस्था एवं प्रस्थापित नियमों को बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं, सामाजिक नियन्त्रण कहे जा सकते हैं।”

धर्म

धर्म कुछ अलौकिक विश्वासों और ईश्वरीय सत्ता पर आधारित एक शक्ति है जिसके नियमों का पालन व्यक्ति “पाप और पुण्य” अथवा ईश्वरीय शक्ति के भय के कारण करता है। धर्म एक आन्तरिक अलौकिक प्रभाव के द्वारा व्यक्ति और समूह के जीवन को नियन्त्रित करता है।

सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका तथा उद्देश्य या महत्त्व

सामाजिक जीवन में धर्म का महत्त्व बहुत अधिक है। यह व्यक्ति को बुरे कार्यों से बचाकर सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की रक्षा करता है। सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में धर्म की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण रहती है। धर्म धार्मिक मूल्यों की सुरक्षा करके समाज को संगठित रखते हैं। धार्मिक नियमों को तोड़ना, पाप बटोरना है। धर्म के विरुद्ध जाकर ईश्वर को नाराज करना है। इन सब भावनाओं से अभिभूत मानव सामाजिक आदर्शों का पालन करके सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका के रूप में धर्म के महत्त्व को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

1. धर्म मानव-व्यवहार को नियन्त्रित करता है-धर्म मानव के व्यवहार को नियन्त्रित करने का महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। अलौकिक सत्ता के भय से व्यक्ति स्वत: अपने व्यवहार को नियन्त्रित रखता है। धर्म का जादुई प्रभाव व्यक्ति को सत्य भाषण, अचौर्य, अहिंसक, दयावान, निष्ठावान तथा आज्ञाकारी बनने की प्रेरणा देकर सामाजिक आदर्शों के पालन में सहायक होता है। नियन्त्रित मानव-व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण का पथ प्रशस्त करता है।

उदाहरणार्थ-ईसाइयों और मुसलमानों में पादरी और मुल्ला-मौलवी अपनेअपने अनुयायियों के सामाजिक जीवन के नियन्त्रक के रूप में कार्य करते हैं। वास्तव में, धर्म के नियमों के विरुद्ध आचरण ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन माना जाता है। वह पाप है। इससे व्यक्ति का न केवल इहलोक, वरन् परलोक भी बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में व्याप्त जाति-प्रथा का आधार भी धर्म है, जो व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण सन्दर्भ बन गयी है; अतः भारतीय राजनीति भी जातिवाद से कलुषित हो गयी है।

2. सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण-समाज सहयोग और संघर्ष का गंगा-जमुनी मेल है। व्यक्तिगत स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्य-पालन, त्याग और बलिदान के पथ पर अग्रसर करके व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति के स्थान पर यह समष्टि के कल्याण की राह दिखाता है, जिससे संघर्ष टल जाते हैं। और सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है।

3. सदगुणों का विकास-सभी धर्म आदर्शों और मूल्यों की खान होते हैं। धर्म का पालन व्यक्ति में सद्गुणों का बीज रोप देता है। व्यक्ति प्रेम, त्याग, दया, सच्चाई, ईमानदारी, अहिंसा और सहयोग आदि सद्गुणों का संचय करके सदाचरण द्वारा सामाजिक नियन्त्रण को अक्षुण्ण बनाये रखता है।

4. पवित्रता की भावना का उदय-धर्म पवित्रता की पृष्ठभूमि से उदित होता है। धर्म-पालन से मन में पवित्रता का भाव अंकुरित होता है। पवित्रता का यह भाव व्यक्ति को दुष्कर्म करने से बचाता है। अपवित्र कार्य सामाजिक मूल्यों का हनन कर विघटन उत्पन्न करते हैं। धर्म पवित्र भाव जगाकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देता है।

5. संस्कारों का उदय-धर्म संस्कार और कर्मकाण्डों की डोर से बँधा है। व्यक्ति विभिन्न संस्कारों की पूर्ति के लिए धर्माचरण करता है। इस प्रकार संस्कारों का निर्वहन करने वाला व्यक्ति स्वतः सामाजिक नियन्त्रण” बन जाता है।

6. सामाजिक परिवर्तन-की प्रक्रिया तीव्र होने के साथ ही सामाजिक टने लगता है। धर्म सामाजिक परिवर्तन पर अंकुश लगाकर सामाजिक, को, ये रखता है। धर्म मनुष्यों को सामाजिक आदर्शों को ग्रहण कर की प्रेरणा सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा करता है। धार्मिक विश्वास सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

7. आर्थिक जीवन पर नियन्त्रण-आर्थिक क्रियाएँ सामाजिक अभिन्न अंग हैं। धनोत्पादन में व्यक्ति उचित-अनुचित भूल जाता है, परन्तु धर्म उसके आर्थिक जीवन पर भी अपना नियन्त्रण बनाये रखता है। हिन्दू दर्शन में भोग के स्थान पर त्याग का आदर्श है। हिन्दू धर्म भौतिक विकास के स्थान पर आध्यात्मिक विकास पर बल देता है। जैन धर्म ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर त्याग का महत्त्व स्पष्ट किया है। मैक्स वेबर के अनुसार, प्रत्येक धर्म में कुछ ऐसे नैतिक नियम या आधारे होते हैं जो कि उस धर्म के मानने वाले समुदाय के सदस्यों की आर्थिक व्यवस्था को निश्चित करते हैं। सभी धर्म उचित ढंग से धन कमाने और व्यय करने की प्रेरणा देकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग प्रदान करते

8. व्यक्तित्व के विकास में सहायक-व्यक्तित्व के विकास में धर्म का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। धर्म व्यक्तित्व के सम्मुख जो आदर्श प्रस्तुत करता है वे सब उसे ज्ञान, धैर्य, साहस, दया, क्षमा आदि गुणों से विभूषित करते हैं। ये सब गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होते हैं। निराशा और कुण्ठाओं से ग्रस्त व्यक्ति समाज को विघटित करता है, जबकि प्रबुद्ध नागरिक सामाजिक नियन्त्रण को आधार स्तम्भ होता है।

9. अपराध पर नियन्त्रण-धर्म व्यक्ति में सद्गुणों का विकास करके अपराध बोध कराने में सहायक होता है। धर्म से अभिभूत व्यक्ति का अन्त:करण कभी भी उसे आपराधिक एवं समाज-विरोधी कार्य करने की अनुमति ही नहीं देता। धार्मिक नियमों के उल्लंघन मात्र से ही धर्मानुरागी व्यक्ति को अपराध बोध हो जाता है। धर्म अपराध पर नियन्त्रण लगाकर सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में सहायता प्रदान करता है।

10. राजनीतिक क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण-राजनीति और धर्म का सम्बन्ध अटूट है। धर्म राजा और राज्य का मार्गदर्शक होता है। धर्माचरण सत्तासीन व्यक्तियों का प्रथम कर्तव्य होता है। राजा धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप शासन चलाता है। राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। धर्म के सिद्धान्तों पर आधारित राज्य और राजनीति दीर्घगामी होते हैं। धर्म वह कवच है जो राजा और राज्य दोनों की सुरक्षा करता है। धर्म मूल्यविहीन राजनीति की आज्ञा नहीं देता। इस प्रकार धर्म सामाजिक आदर्शों का उल्लंघन करने वाली राजनीति एवं राजनेता पर अंकुश लगाकर सामाजिक नियन्त्रण को दृढ़ बनाता है। इस प्रकार भारतीय समाज में सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। धर्म के सन्दर्भ को बिना ध्यान में रखे भारतीय समाज को समझना कठिन है।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। [2008, 10, 11, 12, 13]
या
सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका की व्याख्या कीजिए। [2016]
उतर:

सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका

सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों में राज्य सर्वशक्तिसम्पन्न सर्वोच्च अभिकरण है जो नियन्त्रण के क्षेत्र में अनेक प्रकार से अपनी भूमिका निभाता है। सामाजिक नियन्त्रण के रूप में राज्य की भूमिका निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है

1. पारिवारिक जीवन पर नियन्त्रण-आधुनिक युग में राज्य परिवार पर अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाता है जो कि परिवार को विघटित होने से बचाने के लिए आवश्यक है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार परिवार को राज्य से अधिक कोई अन्य संस्था नियन्त्रित नहीं कर सकती। नियमों द्वारा राज्य विवाह की आयु, शर्त, अवधि और परिवार के स्वरूप का निर्धारण करता है। 1929 ई० में बाल विवाह पर नियन्त्रण लगे तथा आयु-सीमा निश्चित हुई। आज ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955′ में संशोधन करके लड़की तथा लड़के के लिए आयु निर्धारित (लड़की के लिए 18 वर्ष और लड़के लिए 21 वर्ष) कर दी गई है। 1961 ई० में ‘दहेज विरोधी अधिनियम’ भी पारित हुआ। 1956 ई० में ‘हिन्दू उत्तर:ाधिकार अधिनियम’ द्वारा स्त्रियों को भी सम्पत्ति में हिस्सा मिलने लगा है। 1978 ई० के शिक्षा अधिनियम’ द्वारा प्राथमिक शिक्षा सार्वजनिक रूप से अनिवार्य कर दी गई है। इन सब अधिनियमों द्वारा राज्य परिवार को नियन्त्रित करता है।

2. आर्थिक व्यवस्था पर नियन्त्रण-जीवन-यापन और क्षुधापूर्ति के लिए विभिन्न आर्थिक साधनों का समाज में उपयोग किया जाता है। इस अर्थव्यवस्था पर राज्य जैसे प्रभुतासम्पन्न शक्ति का नियन्त्रण होना आवश्यक है। इससे ही अर्थव्यवस्था को संरक्षण मिलता है। इस उद्देश्य से अर्थव्यवस्था में सन्तुलन लाने के लिए राज्य आवश्यकतानुसार विशिष्ट उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर उन पर अपना नियन्त्रण रखता है। अनेक श्रम अधिनियमों द्वारा वेतन एवं पारिश्रमिक निश्चित करता है तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति का समान वितरण भी राज्य की अनुपम विशिष्टता होती है। आर्थिक संकट के समय दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराना तथा आर्थिक विकास में सहयोग देना राज्य का कर्तव्य है तथा असन्तुलन और अनियमितता पर नियन्त्रण करना भी इसी का अधिकार है।

3. सामाजिक क्रियाओं पर नियन्त्रण और निर्देशन-राज्य समाज के समक्ष एक नियमावली रखता है जिसमें अनेक प्रकार की सामाजिक क्रियाओं के नियन्त्रण एवं निर्देशन का वर्णन होता है। ये सभी सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं। प्रचार द्वारा राज्य व्यक्ति को बताता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। भारत में अखण्डता और एकता बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिकता, भाषावाद, प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता आदि के विरुद्ध प्रचार द्वारा नियन्त्रण रखकर राज्य समाज के हित में कल्याणकारी कार्य करता है। राज्य सामाजिक अधिनियमों को पारित करके कुप्रथाओं पर नियन्त्रण करता है। 1829 ई० में सती प्रथा निरोधक अधिनियम’ तथा 1955 ई० में ‘अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम द्वारा इन्हें (सती प्रथा तथा अस्पृश्यता को) सामाजिक अपराध घोषित किया गया है।

4. बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा-राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना है; अत: इसके लिए अस्त्र-शस्त्र, सेना, पुलिस चौकियों, सड़कों एवं युद्धपोतों आदि का प्रबन्ध राज्य ही करता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त इनका उपयोग किया सके। ऐसे समय में एवं शान्ति के समय भी समाज-विरोधी तत्वों की सक्रियता पर नियन्त्रण रखना राज्य का आवश्यक कार्य है।

5. आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखना-प्रत्येक समाज में कुछ-न-कुछ समाज-विरोधी तत्त्व अवश्य होते हैं जिन पर नियन्त्रण रखकर राज्य देश की आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखता है। इसके लिए राज्य कानून, पुलिस और सेना का भी सहयोग लेता है क्योंकि सामान्य स्थिति बनाए रखना आवश्यक है जिससे हड़ताल, तालाबन्दी, घेराव, साम्प्रदायिक दंगे इत्यादि न हो सकें।

6. मौलिक अधिकारों की रक्षा-किसी कल्याणकारी राज्य में मौलिक अधिकारों का संरक्षण करके समाज-विरोधी तत्त्वों को नियन्त्रित किया जाता है। ये मौलिक अधिकार ही जनता की स्वतन्त्रता के प्रतीक हैं। स्वतन्त्रता (भाषण, लेखन और विचारों की स्वतन्त्रता), शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का अधिकार, सम्पत्ति और शिक्षा प्राप्ति का अधिकार आदि मौलिक अधिकार ही हैं। यदि कोई व्यक्ति इन अधिकारों को भंग करता है तो राज्य उसे कठोर दण्ड देता है तथा जिसके अधिकारों का हनन किया गया है उसे संरक्षण प्रदान
करता है।

7. कानून द्वारा नियन्त्रण-राज्य ने अपनी उत्पत्ति के समय ही अपने कार्यों की शक्ति कुछ नियमों व उपनियमों में निहित कर ली थी। वे आज्ञाएँ और आदेश ही कानून कहलाते हैं। जिनका पालन न करने पर दण्ड की व्यवस्था होती है जो सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। दण्ड विधान दो प्रकार से सामाजिक नियन्त्रण रखता है–

  • अपराधियों पर कठोर दृष्टि रखते हुए उन्हें बन्दी बनाकर एवं उनका समाज से बहिष्कार करके तथा
  • दण्ड के भय द्वारा अपराध रोककर।

8. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का नियमन-राज्य राष्ट्रीय कार्य-व्यवहारों पर तो नियन्त्रण रखता ही है, साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों पर भी नियन्त्रण लगाता है क्योंकि आज के इस प्रगतिशील युग में मानव का कार्य-क्षेत्र देश की सीमा से बाहर विदेशों तक हो गया है; अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार विकसित हुए हैं। इनका प्रभाव आन्तरिक व्यवस्था पर भी पड़ता है; अत: संचार, उद्योग, यातायात, सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि को राज्य निर्देशित व नियन्त्रित रखता है।

मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की महत्ता के बारे में ठीक ही कहा है, “राज्य आवश्यक रूप से एक व्यवस्था उत्पन्न करने वाला संगठन है। यह व्यवस्था को बनाए रखने के लिए है; परन्तु नि:सन्देह यह केवल व्यवस्था-मात्र के लिए ही नहीं अपितु जीवन की उन समस्त सम्भावनाओं के लिए है जिनको सुव्यवस्था के आधार की अपेक्षा है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि सामाजिक नियन्त्रण में सबसे प्रमुख औपचारिक अभिकरण राज्य ही है जो जनहित के लिए नियन्त्रण लगाता है।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 14, 16]
या
सामाजिक नियन्त्रण में प्राथमिक समूह की क्या भूमिका है ? [2010]
या
सामाजिक नियन्त्रण के किन्हीं दो अनौपचारिक साधनों की विवेचना कीजिए। [2010, 11]
या
परिवार सामाजिक नियन्त्रण का एक शक्तिशाली अभिकरण है।
टिप्पणी लिखिए। सामाजिक नियन्त्रण में परिवार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2012, 13, 17]
या
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार का महत्त्व घट रहा है। इस कथन का मूल्यांकन कीजिए। [2012, 13]
उत्तर:
परिवार समाज की प्रथम इकाई है और सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख साधन है। सामजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में कोई भी दूसरा समूह व्यक्ति के जीवन को इतना प्रभावित नहीं करता जितना कि परिवार। इसी आधार पर परिवार को सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख अभिकर्ता कहा जाता है। व्यक्ति के विकास में परिवार की अहम भूमिका है। परिवार ही व्यक्ति को समाज सम्बन्धी आदर्शों, रूढ़ियों और प्रचलित रीति-रिवाजों से परिचित कराती है। त्याग, बलिदान, सहायता, दया, सहनशीलता, धैर्य आदि की शिक्षा व्यक्ति को परिवार के माध्यम से ही प्राप्त होती है। परिवार व्यक्ति के बुरे कार्यों की निन्दा और अच्छे कार्यों की प्रशंसा करता है। परिवार की परिस्थितियाँ ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा बना देती हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियन्त्रण में परिवार अहम भूमिका निभाता है। संक्षिप्त रूप में सामाजिक नियन्त्रण में परिवार की भूमिका का वर्णन निम्न प्रकार से है

1. शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-परिवार शिक्षा की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली पाठशाला है। अनेक महापुरुषों का चरित्र-गठन उनके परिवार में ही हुआ है। इटली के प्रजातन्त्र के जन्मदाता मैजिनी का कथन है, “नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार में ही सीखा जाता है।” अब्राहम लिंकन ने परिवार की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है, जो कुछ भी मैं आज हूँ और जो कुछ भी बनने की आशा करता हूँ, वह सब कुछ मेरी देवीस्वरूप माता के कारण है।” परिवार में ही हम आत्म-संयम की अमूल्य शिक्षा प्राप्त करते हैं। हमारा सामाजिक विकास परिवार में ही होता है। यदि परिवार का नियन्त्रण शिथिल पड़ जाता है तो समाज में विघटने प्रारम्भ हो जाता है।

2. दण्ड-व्यवस्था द्वारा नियन्त्रण-व्यक्ति को अनुशासित और सामाजिक नियन्त्रण में रखने के लिए प्रत्येक परिवार में दण्ड की व्यवस्था होती है, जिसके भय से व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में बँधा रहता है। परिवार कभी भी अपने सदस्यों को शारीरिक दण्ड नहीं देता और न ही उत्पीड़न का सहारा लेता है, बल्कि सहानुभूति के द्वारा सदस्यों पर नियन्त्रण लगाता है। साधारणतया, आलोचना, व्यंग्य तथा परिहास आदि साधनों के द्वारा ही सदस्यों को दण्डित किया जाता है और इस प्रकार उनके व्यवहारों पर नियन्त्रण लगाया जाता है।

3. यौन-व्यवहारों का नियन्त्रण-प्राणिशास्त्रीय कार्य के रूप में यौन-इच्छाओं की पूर्ति को एकमात्र साधन परिवार ही है। परिवार ही विवाह संस्कार के माध्यम से युवक-युवतियों को दाम्पत्य सूत्र में बाँधकर उन्हें यौन-इच्छाओं की सन्तुष्टि करने के अवसर जुटाता है। परिवार ही यह निश्चित करता है कि एक विशेष सदस्य का विवाह कब और किसके साथ तथा किस प्रकार हो। परिवार अपनी जाति में ही विवाह करने को बाध्य करता है। इस प्रकार परिवार विवाह सम्बन्धी नियन्त्रण लगाता है। इस प्रकार के नियन्त्रण के कारण व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है तथा स्त्रियों को बुरी दृष्टि से नहीं देखता, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहती है।

4.समाजीकरण और सामाजिक नियन्त्रण-समाजीकरण के दृष्टिकोण से सामाजिक नियन्त्रण में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परिवार ही व्यक्ति को समाजीकरण करता है। वह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुकूल बनाता है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को सामाजिक आदर्शों, संस्कृति, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है तथा वह आगे चलकर जीवन में इन सीखी हुई बातों को प्रयोग में लाता। है, जो सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।

5. सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है। परिवार में उसी संस्कृति के अनुसार कार्य किये जाते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में वृद्ध व्यक्तियों के सम्मान और संयुक्त परिवार व्यवस्था को अच्छा समझा जाता है। परिवार में व्यक्ति को इसी के अनुसार कार्य करने की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार वह वृद्ध व्यक्तियों तथा संयुक्त परिवार का आदर करना सीख जाता है। इस तरह सामाजिक जीवन संगठित बना रहता है। वास्तविकता तो यह है कि समाज में नियन्त्रण का अभाव तभी उत्पन्न होता है जब व्यक्ति अपने सांस्कृतिक मूल्यों के अनुसार कार्य नहीं करते। परिवार ही अपने सदस्यों को समाज के सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराता है। इस प्रकार परिवार के सदस्य सांस्कृतिक प्रतिमानों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करके सांस्कृतिक कार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे सामाजिक संस्कृति के अस्तित्व के साथ-ही-साथ सामाजिक संगठन तथा नियन्त्रण बना रहता है।

6. सामंजस्य तथा सुरक्षा द्वारा नियन्त्रण-पारिवारिक जीवन में सुख, दु:ख, बीमारी, बेकारी आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ जन्म लेती हैं। इन परिस्थितियों से सामंजस्य करने की प्रेरणा भी परिवार में ही दी जाती है। पारिवारिक समायोजन का यह कार्य व्यक्ति को विघटित होने से बचाता है।

7. सदस्यों की देख-रेख द्वारा नियन्त्रण-परिवार अपने सदस्यों की सामान्य देख-रेख करके यह विश्वास दिलाता है कि उनकी वास्तविक आवश्यकताएँ परिवार में ही पूरी हो सकती हैं। साथ ही परिवार व्यक्ति को इस प्रकार की शिक्षा भी देता है जो जीवन के लिए सबसे अधिक उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसका सामाजिक जीवन तभी प्रगतिशील बन सकेगा जब वह परिवार के आदर्शों का पालन करेगा। इस भावना ‘ के साथ ही व्यक्ति जीवन नियन्त्रण में बँध जाता है।

8. मानवीय गुणों का विकास द्वारा नियन्त्रण-परिवार बालक में अनेक मानवीय गुणों को विकसित करता है। मानवीय गुणों में प्रेम, सहयोग, दया, सहानुभूति, आत्म-त्याग, सहिष्णुता, परोपकार, कर्तव्यपालन तथा आज्ञापालन प्रमुख हैं। ये सभी ऐसे गुण हैं जिनके द्वारा व्यक्ति का जीवन स्वयं नियन्त्रित हो जाता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि परिवार सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाता है। परिवार का नियन्त्रण अधिक स्थायी और प्रभावशाली सिद्ध होता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि परिवार केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायता ही नहीं करता वरन् यह समाजीकरण की प्रक्रिया को भी सम्भव बनाता है।

सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार के महत्त्व में कमी

यद्यपि सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार की सदैव से ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। परन्तु औद्योगीकरण, नगरीकरण, लोकतन्त्रीकरण, शिक्षा का प्रसार, आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यक्तिवादिता आदि कारकों के परिणामस्वरूप आज अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों का परिवार की संरचना पर भी प्रभाव पड़ा है, जिसके फलस्वरूप आज परिवार सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में अपना महत्त्व खोता जा रहा है, क्योंकि इन सभी तथा अन्य और भी कई कारकों ने परिवारिक नियन्त्रण एवं बन्धनों को सर्वथा शिथिल कर दिया है।

उदाहरणार्थ-आज के परिवारों में पिता की शक्ति का ह्रास हुआ है। परिवारों में न तो पिता की आज्ञाओं को अन्तिम माना जाता है और न ही उसकी शक्ति को ईश्वरीय समझा जाता है; अतः एक ही परिवार के सदस्य पृथक्-पृथक् मार्गों पर चलकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहने लगे हैं। परिवार के सभी सदस्यों में एकमत का अभाव होता जा रहा है, किसी के ऊपर किसी को नियन्त्रण नहीं है। अब परिवार के सभी सदस्य अपनी इच्छा, दृष्टि, विचार तथा हित को ध्यान में रखकर कार्य करने लगे हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि वर्तमान युग में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार का महत्त्व घटता जा रहा है।

प्रश्न 4
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2010]
उत्तर:
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण में निम्नलिखित अन्तर हैं

  1. औपचारिक नियन्त्रण में दण्ड देने का कार्य राज्य अथवा सरकार द्वारा किया जाता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में दण्ड का स्रोत स्वयं समाज, समुदाय या समूह होता है।
  2. औपचारिक नियन्त्रण में नियमों को सोच-विचारकर बनाये जाने के कारण वे सुपरिभाषित व लिखित होते हैं, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में नियम पूर्ण रूप से लिखित नहीं होते, अपितु सामाजिक अन्त:क्रियाओं के दौरान अपने आप स्पष्ट होते हैं।
  3. औपचारिक नियन्त्रण में नियमों को न मानने पर राज्य या अन्य किसी प्रशासनिक संगठन द्वारा व्यक्ति को निश्चित दण्ड देने की व्यवस्था होती है, अर्थात् व्यक्तियों के लिए नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण में इस प्रकार दण्ड देने की कोई व्यवस्था नहीं होती है।
  4. औपचारिक नियन्त्रण मानव-व्यवहार के बाह्य पक्ष को अधिक प्रभावित करता है। दूसरी | ओर अनौपचारिक नियन्त्रण का विशेष सम्बन्ध व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष से होने के कारण इसे व्यक्ति स्वयं स्वीकार कर लेता है।
  5. औपचारिक नियन्त्रण आधुनिक विशाल एवं जटिल समाजों की विशेषता है, क्योंकि ऐसे समाजों में व्यक्ति के अधिकांश व्यवहारों पर नियन्त्रण औपचारिक नियन्त्रण के साधनों; जैसे—दण्ड, भय, उत्पीड़न एवं शक्ति प्रदर्शन द्वारा सम्भव है। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण का महत्त्व छोटे एवं सरल समाजों में अधिक होता है, क्योंकि इन समाजों के सदस्य अधिकांशतः प्रथा, परम्परा, धार्मिक नियम एवं रूढ़ियों द्वारा नियन्त्रित एवं निर्देशित होते हैं।
  6. औपचारिक नियन्त्रण में परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है, अर्थात् इसमें आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के बदलने पर परिवर्तन होता रहता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में परम्परागत व्यवहारों को बदलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता है।
  7. औपचारिक सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक मूल्यों के विपरीत भी हो सकता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण सदैव परम्परागत सामाजिक मूल्यों के अनुरूप ही होता है।
  8. औपचारिक नियन्त्रण से सम्बन्धित व्यवहार-संहिताएँ या नियम राज्य या अन्य प्रशासनिक संगठनों द्वारा बनाये जाते हैं। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण में इन नियमों को समाज द्वारा निर्मित किया जाता है।
  9. औपचारिक नियन्त्रण का विकास योजनाबद्ध रूप से होता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण का विकास लम्बी अवधि में धीरे-धीरे स्वतः होता है।
  10. औपचारिक नियन्त्रण के प्रभावशाली साधन कानून, न्यायालय व पुलिस हैं, जिनके द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को निश्चित दण्ड देने की व्यवस्था की जाती है। दूसरी ओर, अनौपचारिक नियन्त्रण के प्रभावशाली साधन परम्पराएँ, धार्मिक नियम इत्यादि होते हैं जिनके द्वारा निश्चित दण्ड न देकर सामान्यत: व्यक्ति की सामाजिक निन्दा की जा सकती है अथवा जाति से निष्कासित किया जा सकता है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण एवं समाजीकरण में सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण एवं समाजीकरण में सम्बन्ध
1. सामाजिक संगठन में स्थायित्व लाना-सामाजिक संगठन को स्थायी बनाना सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख कार्य है। नियन्त्रण की व्यवस्था के द्वारा समाज में अनावश्यक परिवर्तनों को रोका जाता है तथा व्यक्तियों को मनमाने ढंग से कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं मिल पाती। इससे सामाजिक जीवन में स्थिरता का गुण उत्पन्न होता है।

2. परम्पराओं की रक्षा-
परम्पराएँ लम्बे अनुभवों पर आधारित होती हैं तथा इनका कार्य व्यवस्थित रूप से व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। सामाजिक संगठन को बनाये रखने में भी परम्पराओं की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जब कभी भी परम्पराएँ टूटने लगती हैं, तब समाज में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। सामाजिक नियन्त्रण सभी व्यक्तियों को परम्पराओं के अनुसार व्यवहार करने का प्रोत्साहन देता है। इसी से संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है।।

3. समूह में एकता की स्थापना-
सामाजिक संगठन के लिए किसी भी समूह के सदस्यों में समान दृष्टिकोण तथा समान मनोवृत्तियों का होना अत्यधिक आवश्यक है। यही विशेषताएँ सामाजिक एकता का आधार हैं। सामाजिक नियन्त्रण एक समूह के सदस्यों को समान नियमों के अनुसार कार्य करना ही नहीं सिखाता बल्कि नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें दण्ड भी देता है। समान नियमों के अन्तर्गत कार्य करने से समान दृष्टिकोण का विकास होता है और इस प्रकार समूह में एकरूपता (Uniformity) बढ़ती है।

4. पारस्परिक सहयोग की प्रेरणा-
एक संगठित समाज के लिए इसके सदस्यों में पारस्परिक सहयोग का होना सबसे अधिक आवश्यक है। व्यक्तियों के व्यवहारों पर यदि कोई नियन्त्रण ने हो तो वे सदैव संघर्ष के द्वारा अपने स्वार्थों को पूरा करने का प्रयत्न करेंगे। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण सामाजिक जीवन अभियन्त्रित और विघटित हो सकता है। नियन्त्रण के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुसार अपने विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करता है। नियन्त्रण की व्यवस्था व्यक्ति को यह बताती है कि पारस्परिक सहयोग के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त करना ही सभी के हित में है।

5. मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों में सन्तुलन-
सामाजिक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि समूह में व्यक्तियों की मनोवृत्तियों तथा उनके विचारों में सन्तुलन हो। यदि हमारी मनोवृत्तियाँ रूढ़िवादी हों लेकिन व्यवहार आधुनिकता को महत्त्व देते हों, तो इससे न केवल व्यक्तिगत जीवन में तरह-तरह के तनाव उत्पन्न होते हैं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी कमजोर पड़ जाती है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति की मनोवृत्तियों में इस तरह परिवर्तन किया जाता है कि वे व्यवहार के नये ढंगों के अनुकूल बन सकें। ऐसा सन्तुलन सामाजिक जीवन के लिए बहुत उपयोगी होता है।

6. मानसिक तथा बाह्य सुरक्षा-
व्यक्तियों को मानसिक तथा बाह्य सुरक्षा प्रदान करने के क्षेत्र में भी सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मानसिक सुरक्षा का तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों को यह विश्वास हो कि कोई भी व्यक्ति उनके हितों पर आघात नहीं करेगा, जबकि बाह्य सुरक्षा का अभिप्राय आजीविका तथा सम्पत्ति के क्षेत्र में सुरक्षा प्राप्त करना है। सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था व्यक्ति की समाज-विरोधी प्रवृत्ति को दबाकर अनेक नियमों के द्वारा उसे समाज से अनुकूलन करना सिखाती है तथा ऐसे व्यवहार करने के लिए बाध्य करती है जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हों। इसका तात्पर्य यह है कि समाज के आन्तरिक संगठन के लिए सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर लैण्डिस ने यहाँ तक निष्कर्ष दिया है कि मनुष्य नियन्त्रण के कारण ही वास्तविक मानव है।

7. व्यक्तित्व का विकास-
सामाजिक नियन्त्रण के सभी कार्यों में व्यक्तित्व का समुचित विकास सम्भवत: सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तित्व के विकास के लिए सामाजिक गुणों की सीख तथा कुशलताओं का विकास आधारभूत हैं। सामाजिक नियन्त्रण के अभाव में व्यक्ति ने तो सामाजिक सीख के द्वारा उन गुणों को प्राप्त कर सकता है जो उसकी संस्कृति का अभिन्न अंग होते हैं और न ही उन क्षमताओं को विकसित कर सकता है जो विभिन्न प्रकार के आविष्कारों तथा समाचारों के लिए आवश्यक होते हैं। जिन समाजों में सामाजिक नियन्त्रण कमजोर होता है, वहाँ लोगों का व्यक्तित्व अपनी संस्कृति के अनुरूप नहीं होता। वास्तविकता यह है कि सामाजिक नियन्त्रण वैयक्तिक तथा सामाजिक सुरक्षा में वृद्धि करके पारस्परिक सहयोग तथा एकता को बढ़ाता है। इसके बाद भी किसी भी समाज में नियन्त्रण की व्यवस्था एक विशेष संस्कृति के अन्तर्गत ही कार्य करती है। यही कारण है कि अलग-अलग संस्कृतियों में सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था के रूप में भी कुछ भिन्नता देखने को मिलती है।

प्रश्न 6
परम्परागत समाज में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2008, 11]
या
सामाजिक नियन्त्रण में कानून की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2016]
या
कानून सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन है या औपचारिक? स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण का अभिप्राय समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था को इस तरह नियमित करना है जिससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि हो सके। वास्तव में, सामाजिक नियन्त्रण ही वह आधार है जिसके द्वारा सामाजिक परिवर्तन के सन्तुलन को बनाये रखा जा सकता है। परिवार, राज्य, शिक्षा संस्थाएँ, नेतृत्व, धर्म आदि सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख अभिकरण हैं, जबकि जनरीतियाँ, लोकाचार, नैतिकता, प्रथाएँ, कानून, जनमत, पुरस्कार, हास्य-व्यंग्य और दण्ड आदि इन अभिकरणों के साधन हैं। समाज में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों की भूमिका निम्नवत् है

1. परिवार-
सामाजिक नियन्त्रण में परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। यद्यपि वर्तमान सामाजिक जीवन में इतने क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं, लेकिन व्यक्ति को संस्कृति की शिक्षा देने और व्यवहार के नियम सिखाने में परिवार को महत्त्व आज भी सबसे अधिक मौलिक है। परिवार आरम्भिक जीवन से ही बच्चे को जनरीतियों, लोकाचारों और प्रथाओं की शिक्षा देता है, समाज की नैतिकता से परिचित कराता है। समय-समय पर अनजाने में भी भूल हो जाने पर उससे प्रायश्चित्त कराता है तथा अनेक पौराणिक गाथाओं और अनुष्ठानों के द्वारा धार्मिक विश्वासों को दृढ़ बनाता है। प्रेम और स्नेह स्वयं ही नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं जो केवल परिवार में ही सम्भव हैं। एक प्राथमिक समूह होने के कारण नियन्त्रण के क्षेत्र में भी परिवार का प्रभाव प्राथमिक ही होता है।

2. राज्य-
वर्तमान जटिल समाजों में राज्य सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावपूर्ण अभिकरण
बन गया है। औद्योगीकरण, नगरीकरण और व्यक्तिवादिता के कारण आज मानव समूहों के बीच संघर्षों और तनावों में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी है कि केवल वही सत्ता व्यक्तियों के व्यवहारों पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण रख सकती है जिसके पास शक्ति और दण्ड के विकसित साधन हों। राज्य इसी प्रकार एक सत्ता है जो प्रशासन, कानून, सेना, पुलिस और न्यायालयों के द्वारा व्यक्ति व समूह के व्यवहारों पर औपचारिक रूप से नियन्त्रण की स्थापना करती है। मैकाइवर का कथन है, कि “राज्य व्यक्ति में उन सभी क्षमताओं को उत्पन्न करता है। जो सामाजिक नियन्त्रण के लिए आवश्यक हैं।”

3. शिक्षण संस्थाएँ-सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में आज शिक्षण संस्थाओं का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। शिक्षण संस्थाएँ व्यक्तित्व के आन्तरिक व बाह्य दोनों पक्षों को नियन्त्रित करती हैं। इन संस्थाओं में व्यक्ति के जीवन का वह भाग व्यतीत होता है जो सबसे अधिक तनावपूर्ण होता है। यह वह समय होता है जिसमें एक किशोर अपने आपको सबसे योग्य समझता है, जबकि वास्तव में, उसके अधिकतर कार्य अनुभव के अभाव में बहुत अनुत्तरदायी प्रकृति के होते हैं। इस काल का नियन्त्रण सम्पूर्ण जीवन को नियन्त्रित रखने और सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण करने में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से व्यक्ति के तर्क और विवेक में वृद्धि होने से वह स्वयं प्रत्येक व्यवहार के परिणामों को समझने लगता है। यही कारण है कि अशिक्षित समाज की अपेक्षा एक शिक्षित समाज कहीं अधिक नियन्त्रित और नियमबद्ध जीवन व्यतीत करता है।

4. नेता तथा नेतृत्व-महान नेताओं के विचार समाज को नियन्त्रित रखने में सदैव से ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं। समाज के अधिकांश सदस्यों में स्वयं विचार करने और परिस्थिति के अनुसार कार्य करने की क्षमता नहीं होती। वे केवल दूसरों का अनुसरण ही करते हैं। ऐसी स्थिति में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि उचित नेतृत्व के द्वारा उनके व्यवहारों पर नियन्त्रण रखा जाए और उन्हें एक विशेष प्रकार से कार्य करने का निर्देश दिया जाए। यही कारण है कि जिस समाज में नेतृत्व स्वस्थ और संगठित होता है, वहाँ व्यक्तियों का जीवन भी उतना ही अधिक नियन्त्रित और सन्तुलित बना रहता है।

5. धर्म-धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सदैव से ही एक प्रमुख अभिकरण रहा है। धर्म कुछ। अलौकिक विश्वासों और ईश्वरीय सत्ता पर आधारित एक शक्ति है जिसके नियमों का पालन व्यक्ति ‘पाप और पुण्य’ अथवा ईश्वरीय शक्ति के भय के कारण करता है। धर्म के नियमों का पालन व्यक्ति किसी मनुष्य के भय से नहीं करता बल्कि मनुष्य से कहीं उच्च अलौकिक शक्ति के भय से करता है। व्यक्ति यह विश्वास करते हैं कि धर्म के आदेशों और निषेधों का पालन न करना ‘पाप’ है और उनके अनुसार कार्य करना ‘पुण्य है। इस प्रकार धर्म एक आन्तरिक अलौकिक प्रभाव के द्वारा व्यक्ति और समूह के जीवन को नियन्त्रित करता है।

6. कानून-वर्तमान युग में कानून नियन्त्रण का सर्वप्रमुख औपचारिक (Formal) साधन है। यह परम्पराओं और काल्पनिक विश्वासों पर आधारित न होकर समाज की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार होता है। इसका कार्य समूह के लिए उपयोगी व्यवहारों को करने का प्रोत्साहन देना और इनकी अवहेलना करने वाले लोगों को निश्चित दण्ड देना है। वर्तमान समाज में जहाँ अनेक धर्मों, मतों और सम्प्रदायों के व्यक्ति एक साथ रहते हैं, प्रथाएँ और लोकाचार आज अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। इस कमी को दूर करने और व्यवहार के नियमों को स्पष्ट रूप देने में कानून का महत्त्व सबसे अधिक है। एक लम्बे समय तक प्रचलित रहने के बाद प्रथाएँ और लोकाचार रूढ़ियों के रूप में बदल जाते हैं जिनको पुन: उपयोगी बनाना केवल कानूनों के द्वारा ही सम्भव होता है। कानून सभी समाजों में एक-से नहीं होते। आदिम समाजों में अधिकतर कानून अलिखित होते हैं, लेकिन इनकी अवहेलना करना सबसे अधिक कठिन होता है, जबकि सभ्य समाजों में ये पूर्णतया लिखित और स्पष्ट होने के बाद भी उतने अधिक प्रभावशाली नहीं होते। इसके बाद भी वर्तमान जटिल और परिवर्तनशील समाजों में कानून नियन्त्रण का सर्वप्रमुख साधन है। इसलिए रॉस (Ross) ने कानून को ‘सामाजिक नियन्त्रण की सबसे विशेषीकृत और पूर्ण साधन’ (Most specialized and highly finished means) माना है।

7. नैतिकता-सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में नैतिकता का स्थान भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उचित-अनुचित का विचार ही नैतिकता है। नैतिकता व्यक्ति को सदाचार का मार्ग दिखाती है। नैतिकता के व्यवहार के लिए कोई बाध्यता नहीं है। व्यक्ति कार्य के औचित्य-अनौचित्य पर विचार कर अपनी आत्मा की आज्ञा मानकर कर्तव्य का पालन करता है। नैतिकता की भावना सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती। है। नैतिकता के द्वारा व्यक्ति बुद्धि और तर्क की कसौटी पर उचित-अनुचित का निर्णय करना सीख जाता है। उसको सामूहिक व्यवहार नैतिकता के अनुरूप हो जाता है। सत्य का अनुपालन, हिंसा से बचाव, न्याय, दया, त्याग, सहानुभूति और सम्मान नैतिक आदर्श हैं। इनका अनुपालन करके व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में स्वत: सहायक बन जाता है।

8. प्रथाएँ-प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण का एक महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक अभिकरण हैं। जनरीतियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हुई जब समूह के व्यवहार का अंग बन जाती हैं तब उन्हें प्रथाएँ कहा जाता है। मनुष्य जन्म से ही अनेक प्रथाओं से घिरा रहता है। अत: उनकी अवहेलना करना उसकी शक्ति से बाहर है। बेकन ने प्रथाओं को ‘मनुष्य के जीवन के प्रमुख न्यायाधीश’ कहकर सम्बोधित किया है। प्रथाएँ मानव संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं। अतः मानव-व्यवहार उन्हीं के द्वारा निर्धारित होता है। प्रथाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। जाति में विवाह करना, जाति निषेधों का पालन करना, मृत्यु पर सम्बन्धी के यहाँ शोक प्रकट करना तथा मृत्युभोज देना आदि प्रथाएँ हैं। लोक-निन्दा के भय से सभी व्यक्ति इनका हृदय से पालन करते हैं। आदिम समाजों में प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण को आज भी सशक्त अभिकरण बनी हुई हैं। व्यक्ति बिना तर्क आँख मूंदकर प्रथाओं का अनुपालन कर सामाजिक नियन्त्रण में सहायक बने रहते हैं।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यह सच है कि आधुनिक जटिल और बड़े समाजों में औपचारिक साधनों के द्वारा सामाजिक नियन्त्रण स्थापित किया जाता है, लेकिन प्रत्येक समाज में नियन्त्रण के औपचारिक साधनों के साथ कुछ ऐसे अनौपचारिक साधनों को भी उपयोग में लाया जाता है जिनके द्वारा आत्म-नियन्त्रण को प्रोत्साहन दिया जा सके। नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में जहाँ बाध्यता, दबाव और शक्ति का समावेश होता है, वहीं नियन्त्रण के अनौपचारिक साधने अपनी प्रकृति से सामाजिक होते हैं। इनका उद्देश्य शक्ति के द्वारा लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करना नहीं होता, बल्कि लोगों में स्वेच्छा से सामाजिक मानदण्डों और मूल्यों के अनुसार व्यवहार करने की आदत को विकसित करना होता है।

इनका दूसरा उद्देश्य व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष को अनुशासित बनाना होता है, क्योंकि अनौपचारिक साधनों के प्रभाव को व्यक्ति स्वेच्छा से स्वीकार करता है। यही कारण है कि समूह-कल्याण में वृद्धि करने के लिए औपचारिक साधनों की तुलना में सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों को महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन मुख्यतः सरल और छोटे समाजों में अधिक प्रभावपूर्ण होते हैं, लेकिन जटिल और बड़े समाजों में भी इनका उपयोग करना उतना ही आवश्यक समझा जाता है। साधारणतया नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन किन्हीं लिखित नियमों के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित नहीं करते, लेकिन इनके अनुसार व्यवहार करना लोग अपना नैतिक कर्तव्य मानते हैं।

प्रथाएँ, परम्पराएँ, लोकाचार, नैतिक नियम, धार्मिक विश्वास, सामूहिक निर्णय, प्रशंसा, तिरस्कार आदि वे तरीके हैं जिनके माध्यम से नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन समाज में एकरूपता लाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों द्वारा नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों को दण्डित करते हैं, लेकिन यह दण्ड राज्य के द्वारा नहीं बल्कि समूह के द्वारा दिया जाता है। ऐसे दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों में रचनात्मक सुधार लाना होता है। समाज व्यक्ति से यह आशा करता है कि सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों के अनुसार वह अपनी प्रवृत्तियों और इच्छाओं को स्वयं नियन्त्रित करे। इसके बाद भी सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों की प्रकृति औपचारिक साधनों की तुलना में कम परिवर्तनशील होती है, क्योंकि यह साधन सामाजिक मूल्यों, सांस्कृतिक मानदण्डों तथा परम्पराओं के आधार पर व्यक्तिगत व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं। परिवार, धर्म, प्रचार, जनमत, पुरस्कार, हास्य तथा व्यंग्य आदि सामाजिक नियन्त्रण के कुछ प्रमुख अनौपचारिक साधन हैं।

प्रश्न 8
सामाजिक नियन्त्रण क्या है? समाज में नियन्त्रण का होना क्यो आवश्यक है? [2017]
उत्तर:
(सामाजिक नियन्त्रण के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें।)

सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता एवं महत्त्व अथवा उद्देश्य

सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता प्रत्येक देश-कोल परिस्थिति में महसूस होती रही है। सामाजिक नियन्त्रण निम्न उद्देश्यों की पूर्ति व महत्त्व की दृष्टि से रखा जाता है
1. सुरक्षा प्रदान करने के लिए अन्य व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यक्तियों के अनावश्यक हस्तक्षेप को रोकने के लिए सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है। अतः सामाजिक नियन्त्रण का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम सुरक्षा प्रदान करना

2. एकता की स्थापना
 सामाजिक नियन्त्रण का दूसरा उद्देश्य व्यक्तियों के व्यवहार को अनुशासित करना है ताकि वे एक-दूसरे की सहायता करें तथा आपस में मिल-जुलकर रहे व कार्य करें। अनावश्यक परिवर्तन पर रोक सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा बार-बार व जल्दीजल्दी होने वाले

3. अनावश्यक परिवर्तनों पर रोक
 लगाई जाती है जिससे समाज में संगठन व व्यवस्था बनी रहे। इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति नियन्त्रित रहकर व्यवहार करता है तथा अपनी स्थिति व भूमिका में सन्तुलन व सामंजस्य बनाए रखता है।

4. परम्पराओं के प्रभाव को बनाए रखना
 समाज में नियन्त्रण रखने के लिए परम्पराएँ अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। ये परम्पराएँ समाज की पहचान होती हैं तथा समाज के लिए उपयोगी होती हैं। अतः सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा इन परम्पराओं के प्रभाव को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

5. सहयोग की भावना का विकास
 संघर्ष किसी समस्या का समाधान नहीं, यह अपने
समाज के व्यक्तियों को समझाने के लिए सामाजिक नियन्त्रण रखा जाता है। सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा समाज के व्यक्तियों के मध्य सहयोग की भावना का विकास किया जाता है ताकि वे मिल-जुलकर रहें व समाज में व्यवस्था बनाए रखकर अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति करें।

6. कथनी और करनी में समरूपता लाना
 सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति के विचारों व कथन को इस तरह निर्मित करने का प्रयास किया जाता है, जिससे कि वे सही सोचें तथा सही व्यवहार व क्रिया करें, ताकि समाज में एकता व व्यवस्था बनी रहे। अर्थात् सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा समाज के सदस्यों की कथनी व करनी को समरूप तथा हितकारी बनाने का प्रयास किया जाता है।

7. प्राचीन व्यवस्था को बनाए रखना
 समाज में चले आ रहे रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों, परम्पराओं, आदर्श-प्रतिमानों आदि के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण तथा अपनाने के कारण समाज में व्यवस्था बनी रहती है जिससे किसी समाज की प्राचीनता नष्ट नहीं होती तथा सदस्यों में अपनी प्राचीन धरोहरों के प्रति सम्मान बना रहता है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा इस प्राचीन व्यवस्था को बनाए रखने का निरन्तर प्रयास किया जाता है।

8. व्यक्तियों का समाजीकरण करना
 सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है तथा इस कार्य में समाजीकरण की प्रक्रिया अपना सहयोग देती है। समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति को आदर्शानुरूप व्यवहार करने की प्रेरणा दी जाती है ताकि वह सन्तुलित व्यवहार करे तथा असामाजिक क्रिया-कलापों से दूर रहे।

9. मनमाने व्यवहार पर रोक
 सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यवहार पर नियन्त्रण रखा जाता है तथा समाजोपयोगी व्यवहार करने पर प्रशंसा पुरस्कार व सहयोग आदि के द्वारा उसे पुरस्कृत किया जाता है तथा मनमाना व समाजविरोधी व्यवहार करने पर उसका बहिष्कार किया जाता है जिससे कि वह समाज में अव्यवस्था ना फैलाये। निन्दा व बहिष्कार से बचने के लिए व्यक्ति गलत व्यवहार करने से बचता है, जिससे कि समाज में नियन्त्रण व व्यवस्था बनी रहती है।

10. सामाजिक सन्तुलन की स्थापना
 समाज में पाए जाने वाले आदर्शों एवं मूल्यों की रक्षा के द्वारा समाज में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, जोकि सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा ही सम्भव हो पाता है। अगर समाज में नियन्त्रण रखने में आदर्श एवं मूल्यों का सहयोग न लिया जाए तो समाज में अव्यवस्था फैलने का खतरा रहता है, जिससे समाज को संगठन, सुरक्षा तथा विकास बाधित होता है।

11. अनुकूलन क्षमता का विकास समाज में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों से व्यक्ति को अनुकूलन करने में सामाजिक नियन्त्रण बहुत सहयोग करता है। अगर व्यक्ति इन परिवर्तनों से सामंजस्य ना बैठा पाए तो सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्त-व्यस्त होने की सम्भावना बनी रहती है। अत: सामाजिक नियन्त्रण अनुकूलन क्षमता का विकास करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

स्पष्ट है कि सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा ही समाज में व्यवस्था बनी रहती है। अत: पुरानी पीढ़ी का हमेशा यह प्रयास रहता है कि नयी पीढ़ी अपने आदर्शों, रीति-रिवाजों व परम्पराओं का सम्मान करे तथा उन्हें आगे हस्तान्तरित करके सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण में पायी जाने वाली विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है

  1. सामाजिक नियन्त्रण एक सतत घटित होने वाली प्रक्रिया है।
  2. सामाजिक नियन्त्रण सार्वभौमिक प्रक्रिया है। कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसमें सामाजिक नियन्त्रण न होता हो।
  3. सामाजिक नियन्त्रण और आत्म-नियन्त्रण (Self-control) में अन्तर होता है। आत्म नियन्त्रण सदैव अन्तर्जनित होता है। व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से अपने ऊपर नियन्त्रण लगाता है। अपना कानूनी हक होते हुए भी वह उसे त्याग सकता है। सामाजिक नियन्त्रण सदैव बाहरी दबाव होता है। वह बाध्यकारी होता है।
  4. समाज सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था है। अतः वह अमूर्त है। वह स्वयं नियन्त्रण लागू करने नहीं आता। इसीलिए अन्ततोगत्वा, सामाजिक नियन्त्रण समाज के नाम में और समाज की ओर व्यक्ति या समूहों द्वारा अन्य व्यक्तियों और समूहों पर लगाया जाता है।
  5. सामाजिक नियन्त्रण तभी महसूस होता है जब कोई व्यक्ति समाज के किसी नियम का विरोध करता है या उसका उल्लंघन करता है; समाज द्वारा निर्देशित पथ से हटकर विपथगामी होता है।
  6. सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य दशा है।
  7. यह सामाजिक एकीकरण का प्रमुख साधन है।
  8. सामाजिक नियन्त्रण समाज में समरूपता और स्थायित्व बनाये रखता है।
  9. सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक परिवर्तन लाने में भी सहायक है, क्योंकि वह परिवर्तनकारी शक्तियों को परिवर्तन के लिए उचित साधन और तरीके अपनाने के लिए बाध्य करता है।
  10. सामाजिक नियन्त्रण व्यक्ति को समाज के आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रेरणा देता है।
  11. सामाजिक नियन्त्रण के अनेक साधन और अभिकरण हैं। 12. दण्ड और पुरस्कार दोनों का इस कार्य में समान महत्त्व होता है।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में ‘नैतिकता’ एवं ‘प्रथाओं की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक नियन्त्रण में ‘नैतिकता’ एवं ‘प्रथाओं की भूमिका

नैतिकता-सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में नैतिकता का स्थान भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उचित-अनुचित का विचार ही नैतिकता है। नैतिकता व्यक्ति को सदाचार का मार्ग दिखाती है। नैतिकता की भावना सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। नैतिकता के द्वारा व्यक्ति बुद्धि और तर्क की कसौटी पर उचित-अनुचित का निर्णय करना सीख जाता है। सत्य का अनुपालन, हिंसा से बचाव, न्याय, दया, त्याग, सहानुभूति और सम्मान नैतिक आदर्श हैं। इनका अनुपालन करके व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में स्वत: सहायक बन जाता है।

प्रथाएँ-धर्म की तरह प्रथाएँ भी सामाजिक नियन्त्रण का एक महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक अभिकरण हैं। जनरीतियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हुई जब समूह के व्यवहार का अंग बन जाती हैं, तब उन्हें प्रथाएँ कहा जाता है। मनुष्य जन्म से ही अनेक प्रथाओं से घिरा रहता है; अत: उनकी अवहेलना करना उसकी शक्ति से बाहर है। प्रथाएँ मानव संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं; अतः मानवव्यवहार उन्हीं के द्वारा निर्धारित होता है। प्रथाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। जाति में विवाह करना, जाति निषेधों का पालन करना, मृत्यु पर सम्बन्धी के यहाँ शोक प्रकट करना तथा मृत्युभोज देना आदि प्रथाएँ हैं। व्यक्ति बिना तर्क आँख मूंदकर प्रथा का अनुपालन कर सामाजिक नियन्त्रण में सहायक बने रहते हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण में दण्ड की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में कानून और दण्ड सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं। जब किसी समाज में धर्म का महत्त्व कम हो जाता है, परम्पराएँ और प्रथाएँ जीवन को नियन्त्रित करने में असफल हो जाती हैं तब कानून ही व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं और समाज-विरोधी व्यवहार करने वाले व्यक्तियों के लिए दण्ड की व्यवस्था करते हैं। दण्ड से व्यक्ति के समाजविरोधी कार्यों पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है, समाज के अन्य व्यक्ति दण्डित व्यक्ति से शिक्षा लेते हैं तथा समाज-विरोधी कार्य करने से डरते व बचते हैं। इस प्रकार कानून व दण्ड व्यक्ति और समूह के व्यवहारों पर नियन्त्रण स्थापित करने वाले प्रभावी साधन हैं। यह कार्य न्यायालय और पुलिस की सहायता से होता है। दण्ड प्रक्रिया में व्यक्तिगत इच्छा और अनिच्छा पर कोई प्रश्न नहीं उठता। दण्ड प्रक्रिया में धनी, निर्धन, निर्बल और सबल सभी एक समान होते हैं।

प्रश्न 4
सामाजिक नियन्त्रण कितने प्रकार का होता है ? वर्णन कीजिए। [2011]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो प्रकार क्या हैं? [2016]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के स्वरूप को लेकर समाजशास्त्री एकमत नहीं हैं। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने इसे निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया है
1. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण-प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मॉनहीम ने सामाजिक नियन्त्रण को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण के रूप में वर्गीकृत किया है। जब कोई नियन्त्रण व्यक्ति पर उसके निकटतम सदस्यों द्वारा लागू किया जाता है तब उसे प्रत्यक्ष नियन्त्रण कहा जाता है। प्रशंसा, आलोचना, दण्ड और पुरस्कार प्रत्यक्ष नियन्त्रण के ही उदाहरण हैं। माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, पड़ोसी तथा अध्यापक प्रत्यक्ष नियन्त्रण के अभिकरण होते हैं। प्राकृतिक पर्यावरण अथवा अन्य समितियों द्वारा लागू किया गया नियन्त्रण अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण कहलाता है। अप्रत्यक्ष नियन्त्रण में नियन्त्रण का
स्रोत दूर होते हुए भी यह सम्पूर्ण समूह को नियन्त्रित बनाये रखता है।

2. चेतन और अचेतन सामाजिक नियन्त्रण-चार्ल्स कूले और एल०एल० बर्नार्ड ने सामाजिक नियन्त्रण को चेतन और अचेतन दो भागों में वर्गीकृत किया है। सोच-समझकर लागू किया गया नियन्त्रण चेतन’ नियन्त्रण कहलाता है। इस नियम में प्रथाएँ, कानुन और परम्पराएँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। सामाजिक अन्त:क्रियाओं द्वारा लागू किया गया नियन्त्रण अचेतन नियन्त्रण कहलाता है। धर्म, संस्कार, विश्वास और मानव का व्यवहार अचेतन नियन्त्रण में सहभागिता निभाते हैं। अचेतन सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण मानव व्यक्तित्व के अंग बन जाते हैं; अत: मानव उनका पालन स्वतः करने लगता है।

3. सकारात्मक और नकारात्मक नियन्त्रण-प्रसिद्ध समाजशास्त्री किम्बाल यंग ने सामाजिक नियन्त्रण को सकारात्मक नियन्त्रण और नकारात्मक नियन्त्रण के रूप में दो भागों में वर्गीकृत किया है। परम्पराओं, मूल्यों तथा आदर्शों द्वारा व्यवहार को नियन्त्रित करना सकारात्मक सामाजिक नियन्त्रण है। दण्ड के भय से व्यक्ति जब सामाजिक नियमों का पालन करता है, तो उसे नकारात्मक नियन्त्रण कहते हैं।

4. औपचारिक और अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण-लिखित कानूनों और निश्चित नियमों द्वारा किया जाने वाला नियन्त्रण सामाजिक नियन्त्रण कहलाता है। राज्य, कानून, न्यायालय, पुलिस, प्रशासन, शिक्षा और जेल आदि अभिकरण औपचारिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। | प्रथाओं, परम्पराओं, लोकाचारों, विश्वासों, संस्कारों, धर्म, नैतिक आदर्शों, मित्र-मण्डली और परिवार द्वारा जो नियन्त्रण लागू किया जाता है उसे अनौपचारिक नियन्त्रण कहा जाता है। अनौपचारिक नियन्त्रण केवल प्राथमिक समूहों द्वारा ही लागू होता है।

प्रश्न 5
अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं? [2013]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधनों का वर्णन कीजिए। [2010, 11, 15, 16]
उत्तर:
अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण इस प्रकार के नियन्त्रण को व्यक्ति मन से स्वीकार करते हैं तथा इसमें शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता। इस प्रकार के नियन्त्रण में जनरीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ, नैतिकता, धर्म, परिवार तथा क्रीड़ा समूह आते हैं। इनमें से दो साधनों का वर्णन इस प्रकार है।

  1. जनरीतियाँ मैकाइवर ने जनरीतियों को समझाते हुए कहा है, “जनीतियाँ व्यवहार करने की वे विधियाँ हैं जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। इन जनरीतियों का पालन व्यक्ति अचेतन रूप से करता है। इस प्रकार से किया जाने वाला पालन अनौपचारिक नियन्त्रण के अन्तर्गत आता है। अलग-अलग समाज की अलग-अलग जनरीतियाँ हो सकती हैं; जैसे—प्रत्येक समाज में अभिवादन करने के अलग-अलग तरीके पाये जाते हैं।
  2. लोकाचार लोकाचारों के अन्तर्गत उन जनरीतियों को शामिल किया जाता है, जिन्हें समूह के कल्याण के लिए आवश्यक मान लिया जाता है। इन लोकाचारों का पालन व्यक्ति स्वयं ही करता है। इनके पालन न करने की स्थिति में उसे समाज द्वारा बहिष्कार, निन्दा तथा शारीरिक दण्ड मिलने का भय रहता है। उपहास, तानों आदि के डर से भी व्यक्ति लोकाचारों का पालन करता है।

प्रश्न 6
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म के किन्हीं दो कार्यों को स्पष्ट कीजिए। [2009, 133]
या
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए। [2008]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की अहम भूमिका है। इसके दो कार्य निम्नलिखित हैं-
1. धर्म मानव-व्यवहार को नियन्त्रित करता है-धर्म मानव के व्यवहार को नियन्त्रित करने का महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। अलौकिक सत्ता के भय से व्यक्ति स्वतः अपने व्यवहार को नियन्त्रित रखता है। धर्म का जादुई प्रभाव व्यक्ति को सत्य भाषण, अचौर्य, अहिंसक, दयावान, निष्ठावान तथा आज्ञाकारी बनने की प्रेरणा देकर सामाजिक आदर्शों के पालन में सहायक होता है। नियन्त्रित मानव-व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण का पथ प्रशस्त करता है।

उदाहरणार्थ-ईसाइयों और मुसलमानों में पादरी और मुल्ला-मौलवी अपने-अपने अनुयायियों के सामाजिक जीवन के नियन्त्रक के रूप में कार्य करते हैं। वास्तव में, धर्म के नियमों के विरुद्ध आचरण ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन माना जाता है जो कि पाप है। इससे व्यक्ति का न केवल इहलोक, वरन् परलोक भी बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में व्याप्त जाति-प्रथा का आधार भी धर्म है, जो व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण सन्दर्भ बन गयी है; अतः भारतीय राजनीति भी जातिवाद से कलुषित हो गयी है।

2. सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण-समाज सहयोग और संघर्ष का गंगा-जमुनी मेल है। व्यक्तिगत स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्य-पालन, त्याग और बलिदान के पथ पर अग्रसर करके व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति के स्थान पर यह समष्टि के कल्याण की राह दिखाता है, जिससे संघर्ष टल जाते हैं। और सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के किसी एक औपचारिक अभिकरण की भूमिका की विवेचना कीजिए।
या
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में शिक्षा का क्या महत्त्व है? [2010]
या
सामाजिक नियन्त्रण में शिक्षा की भूमिका को स्पष्ट कीजिए। [2015]
उत्तर:
शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन है वह व्यक्ति का समाजीकरण करती है तथा उसमें आत्म-नियन्त्रण की शक्ति पैदा करती है। शिक्षा व्यक्ति में आदर्श नागरिकता के गुणों का विकास करती है ताकि वह राज्य के कानूनों का पालन कर सके। शिक्षा व्यक्ति की प्रस्थिति एवं भूमिका में सामंजस्य स्थापित करने में योग देती है। शिक्षा व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि करती एवं उसकी तर्क-शक्ति को बढ़ाती है। इससे व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण को समझने लगता है, समूह कल्याण की दृष्टि से उसे मानने लगता है। शिक्षा व्यक्ति का समाजीकरण कर उसे सामाजिक नियमों का ज्ञान कराती है। शिक्षा व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति का विकास करती है। शिक्षित व्यक्ति ही उचित व अनुचित तथा अच्छे-बुरे में भेद कर सकता है। उचित व्यवहार करके ही हम सामाजिक नियन्त्रण बनाये रखने में योग दे सकते हैं। शिक्षा व्यक्ति को अतार्किक व्यवहारों से मुक्ति दिलाती है। शिक्षा व्यक्ति को आत्म-नियन्त्रण सिखाती है। व्यक्ति स्वयं पर नियन्त्रण रखकर सामाजिक नियन्त्रण में योग देता है। शिक्षा हमारी संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित कर सामाजिक नियन्त्रण में योग देती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधन लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधन निम्नलिखित है|

  • धर्म-धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सदैव से ही एक प्रमुख अभिकरण रहा है।
  • परिवार-सामाजिक नियन्त्रण में परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण अभिकरण हैं।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में जाति-समूह की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जाति-समूह व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के आचरण को नियन्त्रित करता है। हम क्या खाएँ, किसके साथ विवाह करें, क्या पहनें, किन जातियों के यहाँ भोजन व पानी स्वीकार या अस्वीकार करें, कौन-सा व्यवसाय करें, किन से छुआछूत बरतें आदि सभी बातें जाति द्वारा निर्धारित होती रही हैं। जाति के नियमों का पालन कराने के लिए जाति-पंचायत होती है। जाति के नियमों का उल्लंघन करने पर जाति-पंचायत व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर सकती है अथवा उसको शारीरिक व आर्थिक दण्ड दे सकती है।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण के साधन से क्या तात्पर्य है ? इसके उदाहरण भी दीजिए। [2012]
उत्तर:
साधन से तात्पर्य किसी विधि या तरीके से है, जिसके द्वारा कोई भी अभिकरण या एजेन्सी अपनी नीतियों और आदेशों को लागू करती है। उदाहरण के लिए-प्रथा, परम्परा, लोकाचार आदि।

प्रश्न 4
सामाजिक नियन्त्रण से सामाजिक सुरक्षा कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण लोगों को मानसिक एवं बाह्य सुरक्षा प्रदान करता है। व्यक्ति को जब यह विश्वास होता है कि उसके हितों की रक्षा होगी तो वह मानसिक रूप से सन्तुष्ट एवं सुरक्षित अनुभव करता है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक एवं धन-सम्पत्ति की रक्षा की जाती है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण से क्या तात्पर्य है ? इसके उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12]
उत्तर:
अभिकरण का तात्पर्य उन समूहों, संगठनों एवं सत्ता से है, जो नियन्त्रण को समाज पर लागू करते हैं। नियमों को लागू करने का माध्यम अभिकरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, परिवार, राज्य, शिक्षण आदि।

प्रश्न 6
सकारात्मक और नकारात्मक नियन्त्रण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
सकारात्मक नियन्त्रण में पुरस्कार प्रदान कर अन्य लोगों को भी वैसा ही व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नकारात्मक नियन्त्रण में समाज-विरोधी कार्य करने वाले व्यक्ति को दण्डित किया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“धर्म अलौकिक शक्तियों पर विश्वास है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर:
यह हॉबेल का कथन है।

प्रश्न 2
शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन है/ ‘हाँ या नहीं लिखिए।
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 3
सामाजिक तथ्य की अवधारणा किसने दी ? [2008, 12, 16]
उत्तर:
सामाजिक तथ्य’ की अवधारणा दुर्चीम ने दी।

प्रश्न 4
“परिवार, सामाजिक नियन्त्रण का साधन है।” क्या यह सत्य है ? [2011, 16]
उत्तर:
हाँ, यह सत्य है। परिवार, सामाजिक नियन्त्रण का एक अनौपचारिक साधन है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण के चार प्रमुख साधन एजेन्सियाँ बताएँ। [2011]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो अभिकरणों को उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के चार प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं–

  • परिवार,
  • धर्म,
  • कानून तथा
  • दण्ड।

प्रश्न 6
‘सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा का प्रयोग पहली बार किसने किया ?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा का प्रयोग पहली बार रॉस ने किया।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधन कौन-कौन से हैं ? [2017]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में कानून, न्याय-व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन, शिक्षा आदि आते हैं।

प्रश्न 8
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों का उल्लेख कीजिए। [2017]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों में जनरीतियाँ, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, धर्म, नैतिकता आदि आते हैं।

प्रश्न 9
मैरिज एण्ड फैमिली इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
मैरिज एण्ड फैमिली इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के लेखक हैं-के० एम० कपाड़िया।

प्रश्न 10
‘सोशल कण्ट्रोल’ किसकी कृति है ? [2008]
उत्तर:
‘सोशल कण्ट्रोल’ जोसेफ रोसेक की कृति है।

प्रश्न 11
‘द साइकोलॉजी ऑफ सोसायटी’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘द साइकोलॉजी ऑफ सोसायटी’ नामक पुस्तक के लेखक हैं—मॉरिस जिन्सबर्ग।

प्रश्न 12
समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था और प्रगति का विज्ञान है? यह कथन किसका है? [2017]
उत्तर:
आगस्त कॉम्टे।

प्रश्न 13
‘ह्वाट इज सोशियोलॉजी’ नामक पुस्तक किसने लिखी है? [2017]
उत्तर:
एलेक्स इंकलिस ने।।

प्रश्न 14
सामाजिक नियन्त्रण से धर्म के किन्हीं दो कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • मानव व्यवहार को नियन्त्रित करना तथा
  • सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण करना।

प्रश्न 15
किस समाजशास्त्री ने सामाजिक नियन्त्रण को चेतन एवं अचेतन नियन्त्रण की श्रेणियों में विभाजित किया है? [2015]
उत्तर:
कूले तथा एल०एल० बर्नार्ड।

प्रश्न 16
सामाजिक नियन्त्रण के दो अभिकरणों के नाम बताइए।
उत्तर:

  • राज्य तथा
  • परिवार।

प्रश्न 17
सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा की स्थापना करना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सामाजिक नियन्त्रण का उद्देश्य है
(क) व्यापार का विकास करना
(ख) व्यक्ति की राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति
(ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना
(घ) मनुष्य को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना।

प्रश्न 2.
दुर्णीम के अनुसार सामाजिक नियन्त्रण का सबसे प्रभावशाली साधन क्या है ?
(क) राज्य
(ख) समुदाय
(ग) सामूहिक प्रतिनिधान
(घ) व्यक्ति

प्रश्न 3.
सर्वप्रथम किसने ‘सामाजिक नियन्त्रण’ शब्द का प्रयोग किया? [2017]
(क) रॉस
(ख) समनर
(ग) कॉम्टे
(घ) कुले

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से सामाजिक नियन्त्रण का अभिकरण नहीं, बल्कि एक साधन कौन-सा है?
(क) परिवार
(ख) राज्य
(ग) पुरस्कार एवं दण्ड
(घ) शिक्षा संस्थाएँ

प्रश्न 5.
रॉस ने सामाजिक नियन्त्रण में किसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है ?
(क) सन्देह की
(ख) विश्वास की
(ग) भ्रम की
(घ) शंका की

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक नियन्त्रण का साधन नहीं है ?
(क) शिक्षा एवं निर्देशन
(ख) शक्ति एवं पारितोषिक
(ग) सामाजिक अन्तःक्रिया
(घ) अनुनय

प्रश्न 7.
सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन कौन-सा है ?
(क) धर्म
(ख) परिवार
(ग) शिक्षा
(घ) प्रथाएँ

प्रश्न 8.
सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन निम्न में से क्या है ? [2013, 17]
(क) जनरीतियाँ
(ख) कानून
(ग) प्रथाएँ
(घ) रूढ़ियाँ

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन है
(क) कानून
(ख) शिक्षा-व्यवस्था
(ग) परिवार
(घ) राज्य

प्रश्न 10.
सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन कौन-सा है ?
(क) प्रथा
(ख) कानून
(ग) राज्य
(घ) शिक्षा

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किसने प्रजाति चेतना’ की अवधारणा दी है? [2015]
(क) एल०एफ० वार्ड।
(ख) एफ०एच० गिडिंग्स
(ग) एम० जिन्सबर्ग।
(घ) आर०एम० मैकाइवर

प्रश्न 12.
‘सोसायटी’ पुस्तक किसने लिखी है? [2017]
(क) कुले
(ख) मैकाइवर एवं पेज
(ग) सोरोकिन
(घ) इमाइल दुखम

प्रश्न 13.
समाजशास्त्र का जनक किसे कहा जाता है? [2017]
(क) राधा कमल मुखर्जी
(ख) अगस्त कॉम्टे
(ग) एम०एन० श्री निवास
(घ) योगेन्द्र सिंह

उत्तर:
1. (ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना, 2. (ग) सामूहिक प्रतिनिधान, 3. (क) रॉस, 4. (ग) पुरस्कार एवं दण्ड,
5. (ख) विश्वास की, 6. (ग) सामाजिक अन्त:क्रिया, 7. (ग) शिक्षा, 8. (ख) कानून, 9. (ग) परिवार,
10. (क) प्रथा, 11. (ख) एफ०एच० गिडिग्स, 12. (ख) मैकाइवर एवं पेज, 13. (ख) आगस्त कॉम्टे।

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