UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)

By | May 23, 2022

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 रामस्य पितृभक्तिः (पद्य-पीयूषम्)

परिचय-‘रामस्य पितृभक्तिः
‘ शीर्षक पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के अयोध्याकाण्ड के अठारहवें और उन्नीसवें सर्ग से संकलित किया गया है। इन सर्गों में उस समय की कथा का वर्णन है जब कैकेयी स्वयं को दिये गये वरदानों की पूर्ति के लिए दशरथ से दुराग्रह करती है। तब सुमन्त्र को भेजकर राम को वहाँ  बुलवाया जाता है। जब राम दशरथ और कैकेयी के पास पहुँचकर कैकेयी से अपने पिता की दुरवस्था के विषय में पूछते हैं, तब कैकेयी उनके प्रश्न का जो उत्तर देती है, उसी समय की घटना का वर्णन प्रस्तुत पाठ में किया गया है।

पाठ-सारांश

राम का कैकेयी से पिता के दुःख का कारण पूछना-राम ने कैकेयी के साथ आसन पर बैठे हुए दु:खी पिता को देखा। उन्होंने पहले पिता के चरणों में अभिवादन किया और तत्पश्चात् कैकेयी के चरण स्पर्श किये। पिता दशरथ ‘राम’ शब्द कहकर आँसुओं के कारण न उन्हें देख सके और न बोल सके। पिता को आशीर्वाद न देते देखकर, राम सोचने लगे कि आज पिताजी मुझे देखकर प्रसन्न क्यों नहीं हो रहे हैं। शोकयुक्त राम ने कैकेयी से पूछा कि “आज पिताजी मुझ पर क्यों कुपित हैं? मैं पिता को सन्तुष्ट न करके और उनके वचन का पालन न करता हुआ एक क्षण भी नहीं जीना चाहता हूँ।”

कैकेयी का राम से पिता का वचन पूर्ण करने को कहना-कैकेयी ने राम के वचन सुनकर : स्वार्थ से भरकर कहा कि तुम इन्हें अत्यन्त प्रिय हो। यही कारण है कि तुम्हें अप्रिय बात कहने के लिए इनकी वाणी नहीं निकल रही है। इन्होंने मुझे जो वचन दिया है, वह तुम्हें अवश्य पूरा करना है। तुम्हारे पिता ने मुझे वर देकर मेरा सम्मान किया था, लेकिन अब उस वर को पूरा करते समय ये साधारणजन की तरह दु:खी हो रहे हैं। महाराज तुमसे जो शुभ या अशुभ कहेंगे, वह सब मैं तुमसे कहती हूँ।

राम द्वारा कैकेयी को विश्वास दिलाना-कैकेयी के वचन सुनकर दु:खी राम ने उससे कहा कि, “मैं राजा के कहने से आग में कूद सकता हूँ, भयंकर विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी कूद सकता हूँ; अतः हे देवी! आप राजा को अभिलषित मुझे बताइए, मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा।’ कैकेयी का वरदानों के विषय में बताना–कैकेयी ने सरल और सत्यवादी राम से अत्यन्त कठोर शब्दों में कहा कि “प्राचीन समय में हुए देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता की रक्षा करने पर उन्होंने मुझे दो वर प्रदान किये थे। उन दो वरों में से मैंने प्रथम वर भरत के राज्याभिषेक को तथा द्वितीय वर तुम्हारे वन में जाने का माँगा है। यदि तुम पिता का वचन और अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करना चाहते हो तो चौदह वर्ष तक वन में रहने के लिए जाओ, जिससे भरत पिता के इस राज्य का शासन कर सके।”

राम द्वारा वन जाने की स्वीकारोक्ति-कैकेयी के वचन को सुनकर राम दु:खी हुए और बोले कि “मैं पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए जटा और वल्कल वस्त्र धारण करके वन में चला जाऊँगा। भरत को राज्य की तो बात ही क्या, उसे मैं सीता, प्रिय प्राणों और धन को भी प्रसन्नतापूर्वक दे सकता हूँ। संसार में पिता की सेवा और उसकी आज्ञापालन से बढ़कर श्रेष्ठ धर्म कोई नहीं है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
स ददर्शासने रामो निषण्णं पितरं शुभे।
कैकेय्या सहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता ॥

शब्दार्थ
निषण्णं = बैठे हुए।
परिशुष्यता = सूखते हुए। |

सन्दर्भ
प्रस्तुत श्लोक महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘वाल्मीकि रामायण’ से संकलित और हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘रामस्य पितृभक्तिः ‘ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

प्रसंग
कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से दो वरदान माँग लेने पर दशरथ द्वारा श्रीराम को सुमन्त्र से बुलवाया जाता है। राम महल में पहुँचकर जो कुछ देखते हैं, उसी का वर्णन यहाँ किया गया है।।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही

सन्दर्भ
प्रसंग प्रयुक्त होगा।]

अन्वय
सः रामः परिशुष्यता मुखेन दीनं पितरं कैकेय्या सहितं शुभे आसने निषण्णं ददर्श।

व्याख्या
उन राम ने सूखे हुए मुख वाले, दीन पिता को कैकेयी के साथ आसन पर बैठे देखा; अर्थात् राम ने अपने पिता दशरथ को अत्यन्त दीन-हीन अवस्था में देखा। मानसिक कष्ट से उनका मुख सूख रहा था और वे कैकेयी के साथ सुन्दर आसन पर विराजमान थे।

(2)
स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् ।।
ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः ॥

शब्दार्थ
अभिवाद्य = अभिवादन करके।
विनीतवत् = विनम्र भाव से।
ततः = उसके बाद।
ववन्दे = प्रणाम किया।
सुसमाहितः = अत्यन्त।।

अन्वय
सुसमाहितः (भूत्वा) सः पूर्वं विनीतवत् पितुः चरणौ अभिवाद्य ततः कैकेय्याः चरणौ ववन्दै।

व्याख्या
अत्यधिक एकनिष्ठ होकर उन श्रीराम ने पहले अत्यन्त विनीत भाव के साथ पिता (दशरथ) के चरणों में प्रणाम करके, उसके बाद कैकेयी के चरणों में प्रणाम किया।

(3)
रामेत्युक्त्वा तु वचनं वाष्पपर्याकुलेक्षणः ।।
शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम् ॥

शब्दार्थ
वाष्पपर्याकुलेक्षणः = आँसुओं से व्याकुल नेत्रों वाले।
ईक्षितुम् = देखने के लिए।
अभिभाषितुम् = बोलने के लिए।

अन्वय
वाष्पपर्याकुलेक्षण: दीनः नृपतिः ‘राम’ इति वचनम् उक्त्वा न ईक्षितुं न (च) अभिभाषितुं शशाक।।

व्याख्या
आँसुओं से व्याकुल नेत्रों वाले, अत्यन्त दु:खी राजा राम’ इस वचन को कहकर न तो देख सके और न बोल सके; अर्थात् अत्यधिक दु:खी राजा दशरथ के नेत्र आँसुओ से भरे हुए थे। वेकेवल ‘राम’ इस शब्द को ही कह सके। नेत्रों के अश्रुपूरित होने के कारण न तो वे कुछ देख ही सके और अत्यधिक दु:ख के कारण न कुछ कह ही सके।

(4)
चिन्तयामास चतुरो रामः पितृहिते रतः।
किंस्विदचैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति ॥

शब्दार्थ
चिन्तयामास = सोचने लगे।
चतुरः = होशियार, मेधावी, तीक्ष्णबुद्धि।
पितृहिते रतः पिता के हित में लगे हुए।
किंस्विद्= किस कारण से।
प्रत्यभिनन्दति = प्रसन्न होकर आशीष दे रहे हैं।

अन्वय
पितृहिते रतः चतुरः रामः चिन्तयामास। किंस्विद् नृपतिः अद्य एवं मां न प्रत्यभिनन्दति।

व्याख्या
पिता के हित में लगे हुए तीक्ष्ण-बुद्धि राम ने सोचा कि किस कारण से राजा आज ही मुझसे प्रसन्न होकर आशीर्वाद नहीं दे रहे हैं। तात्पर्य यह है कि जब भी राम अपने पिता (राजा दशरथ) को प्रणाम करते थे, तो वे सदैव उन्हें आशीर्वाद दिया करते थे। केवल आज ही ऐसा नहीं हुआ। यह देखकर मेधावी राम, जो हमेशा पिता की हित-चिन्ता में लगे रहते थे; सोचने के लिए विवश हो गये कि ऐसा क्यों हुआ? |

(5)
अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति ।  
तस्य मामद्य सम्प्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते ॥

शब्दार्थ
अन्यदा = किसी दूसरे समय।
दृष्ट्य = देखकर।
कुपितः अपि = क्रोधित होने पर भी।
प्रसीदति = प्रसन्न होते हैं।
सम्प्रेक्ष्य = देखकर
आयासः = चित्त-क्लेश, दु:ख।
प्रवर्तते = प्रारम्भ हो रहा है। ।

अन्वय
अन्यदा कुपितः अपि पिता मां दृष्ट्वा प्रसीदति। अद्य मां सम्प्रेक्ष्य तस्य आयासः किं प्रवर्त्तते।

व्याख्या
अन्य दिनों कुपित हुए होने पर भी पिताजी मुझे देखकर प्रसन्न हो जाते थे। आज मुझे देखकर उनको दुःख क्यों हो रहा है? तात्पर्य यह है कि आज के अतिरिक्त दूसरे दिनों में जब पिता दशरथ क्रोधित भी होते थे, तब भी वह राम को देखकर प्रसन्न हो जाते थे, लेकिन आज राम को देखने के बाद दशरथ और भी दु:खी हो गये। ऐसा क्यों हुआ, यह राम समझ नहीं सके।

(6)
स दीन इव शोकात विषण्णवदनद्युतिः।
कैकेयीमभिवाद्यैवं रामो वचनमब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
शोकार्त्तः = शोक से व्याकुल।
विषण्णवदनद्युतिः = विषाद के कारण मलिन मुख-कान्ति वाले।
अभिवाद्यैव (अभिवाद्य + एव) = प्रणाम करते ही।
अब्रवीत् = बोला, कहा।

अन्वय
दीनः इव शोकार्त्तः विषण्णवदनद्युतिः सः रामः कैकेयीम् अभिवाद्य एवं वचनम्। अब्रवीत्।।

व्याख्या
दीन-दु:खी के समान दुःख से पीड़ित, दु:ख के कारण मलिन मुख-कान्ति वाले उस राम ने कैकेयी को प्रणाम करते ही यह वचन कहा। तात्पर्य यह है कि पिता को दीन-हीन अवस्था में मानसिक कष्ट से पीड़ित देखते ही राम की मुख-मुद्रा और मानसिक स्थिति भी वैसी ही (पिता जैसी) हो गयी थी।

(7)
कच्चिन्मयानापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता।
कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वमेवैनं प्रसादय ॥

शब्दार्थ
कच्चित् = क्या कहीं।
मया = मेरे द्वारा।
अपराद्धम् = अपराध को, दोष को।
आचक्ष्व = बताओ।
प्रसादय = प्रसन्न करो।

अन्वय
कच्चित् मया अज्ञानात् न अपरार्द्धम्, येन मे पिता कुपितः, तत् मम आचक्ष्व। एनं त्वम् एव प्रसादये।

व्याख्या
क्या कहीं मैंने अज्ञान के कारण कोई अपराध तो नहीं कर दिया, जिससे मेरे पिता मुझ पर क्रुद्ध हो गये, उस कारण को मुझे बताइए (और) आप ही इनको  प्रसन्न करें। अर्थात् मेरी जानकारी में तो मुझसे कोई अपराध हुआ नहीं। सम्भव है कि अनजाने में मुझसे कोई अपराध निश्चित हो गया है, जिस कारण पिताजी मेरे ऊपर क्रुद्ध हो गये हैं। अतः आप मुझे मेरा अपराध बताइए और पिताजी को (मेरे ऊपर) प्रसन्न भी कराइए।

(8)
अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः।
मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे॥

शब्दार्थ
अतोषयन् = सन्तुष्ट न करता हुआ।
अकुर्वन् (न कुर्वन्) = न करता हुआ।
मुहूर्त्तम् । = एक मुहूर्त अर्थात् दो घटी (48 मिनट)।
इच्छेयम् = चाहो जाना चाहिए।

अन्वय
नृपे कुपिते महाराजम् अतोषयन् पितुः वचः वा अकुर्वन् मुहूर्तम् अपित जीवितुं न इच्छेयम्।।

व्याख्या
राजा के क्रुद्ध होने पर महाराज को सन्तुष्ट न करता हुआ अथवा पिता के वचन का पालन न करता हुआ मैं एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहता हूँ; अर्थात् राम स्वयं को धिक्कारते हुए कहते हैं कि यदि मैं महाराज दशरथ को अपने कार्यों से सन्तुष्ट न कर सका, अथवा अपने पिता के वचनों का पालन न कर सका तो मेरे लिए एक क्षण भी जीवित रहना उचित न होगा। तात्पर्य है कि किसी भी स्थिति में मैं इनके वचनों का पालन अवश्य करूंगा।।

(9)
यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः।।
कथं तस्मिन्न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ।।

शब्दार्थ
यतोमूलम् = जिस मूल कारण से।
प्रादुर्भावम् = उत्पत्ति को। इह = यह लोक।
आत्मनः = अपनी।
वर्तेत = व्यवहार करे।
प्रत्यक्षे = साक्षात् उपस्थित, सामने।
दैवते = ईश्वर तुल्य।

अन्वय
नरः इह आत्मन: प्रादुर्भावं यतोमूलं पश्येत् , तस्मिन् प्रत्यक्षे दैवते सति कथं ने वर्तेत।

व्याख्या
मनुष्य इस संसार में अपनी उत्पत्ति को जिसके कारण देखता है, उस देवता स्वरूप पिता के विद्यमान रहने पर क्यों न उसके अनुकूल आचरण करे; अर्थात् इस संसार में मनुष्य कन जन्म पिता के कारण ही होता है। अतः पिता के रहने पर व्यक्ति को हमेशा उसके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए; क्योंकि जन्म देने के कारण पिता देवतास्वरूप ही होता है।

(10)
एवमुक्ता तु कैकेयी राघवेण महात्मना।
उवाचेदं सुनिर्लज्जा धृष्टमात्महितं वचः ॥

शब्दार्थ
महात्मना = महान् पुरुष।
उक्ता = कहा।
सुनिर्लज्जा = अत्यधिक लज्जारहित।
धृष्टम् = ढिठाई से भरा, ढिठाई के साथ।
आत्महितं वचः = अपने स्वार्थ का वचन।
उवाच = कहा।

अन्वय
महात्मना राघवेण एवम् उक्ता तु सुनिर्लज्जा कैकेयी धृष्टम् आत्महितम् इदं वचः उवाच।

व्याख्या
महात्मना राम ने जब इस प्रकार कहा तो अत्यधिक निर्लज्ज कैकेयी ने धृष्टता में ही अपनी भलाई समझते हुए इस प्रकार वचन कहे। तात्पर्य यह है विशाल हृदय वाले राम के सम्मुख भी कैकेयी अपने तुच्छ स्वार्थ को त्याग न सकी और अत्यधिक निर्लज्जता और धृष्टता से स्वार्थ से युक्त अपनी बातें कहने लगी।

(11)
प्रियं त्वामप्रियं वक्तुं वाणी नास्य प्रवर्तते।
तदवश्यं त्वया कार्यं यदनेनाश्रुतं मम ॥

शब्दार्थ
त्वाम् = तुमको।
अप्रियं = अप्रिय, कटु।
वस्तुम् = कहने के लिए।
प्रवर्त्तते = प्रवृत्त हो रहे।
कार्यं = करना चाहिए।
आश्रुतम् = दिया गया वचन, की गयी प्रतिज्ञा को।।

अन्वय
प्रियं त्वाम् अप्रियं वक्तुम् अस्य वाणी न प्रवर्तते। अनेन यत् मम आश्रुतम् , तत् त्वया अवश्यं कार्यम्। |

व्याख्या
अत्यन्त प्रिय, तुमसे कटु बात कहने के लिए इनकी वाणी निकल ही नहीं रही है। इन्होंने मुझसे जो प्रतिज्ञा की है उसका पालन तुम्हें अवश्य करना है। तात्पर्य यह है कि हे राम! तुम अपने पिता महाराजा दशरथ को अत्यन्त प्रिय हो। इसलिए तुमसे ये कुछ भी अप्रिय वचन कहना नहीं चाहते। अतः अब ये तुम्हारा कर्तव्य है कि इन्होंने मुझे जो वचन दिया है, उसे तुम अवश्य पूरा करो।

(12)
एष मह्यं वरं दत्त्वा पुरा मामभिपूज्य च।।
स पश्चात् तप्यते राजा यथान्यः प्राकृतस्तथा ॥

शब्दार्थ
एष = इन्होंने।
मह्यं = मुझे।
पुरा = पहले, प्राचीनकाल में।
अभिपूज्य = सम्मान करके।
तप्यते = सन्तप्त हो रहे हैं।
प्राकृतः = साधारण-जन।।

अन्वय
एषः (राजा) पुरा माम् अभिपूज्य मह्यं वरं च दत्त्वा पश्चात् स राजा तथा तप्यते यथा अन्यः प्राकृतः (जनः तप्यते)।

व्याख्या
ये राजा (दशरथ) प्राचीन समय में मेरा सम्मान करके और मुझे वर देकर बाद में उसी प्रकार दु:खी हो रहे हैं, जैसे दूसरा कोई साधारण-जन दुःखी होता है। तप-सेवा आदि से प्रसन्न हुए देवता, गुरु आदि सामर्थ्यसम्पन्न जनों द्वारा जो इच्छित पदार्थ सेवा करने वाले को दिया जाता है,उसे वर कहते हैं। कैकेयी का भी यही कहना है कि जब इन्होंने मुझ पर प्रसन्न होकर वर दिये थे तब आज वचन का पालन करते समय एक सामान्यजन की तरह क्यों दुःखी हो रहे हैं, अर्थात् इन्हें उसी प्रसन्नता से वचन का पालन भी करना चाहिए।

(13)
यदि तद् वक्ष्यते राजा शुभं वा यदि वाऽशुभम्। ।
करिष्यसि ततः सर्वामाख्यास्यामि पुनस्त्वहम् ॥

शब्दार्थ
वक्ष्यते = कहेंगे।
वो = अथवा।
आख्यास्यामि = बता देंगी

अन्वय
यदि राजा शुभं वा अशुभं वा वक्ष्यते, तद् यदि त्वं करिष्यसि, ततः अहं तु पुनः सर्वम् । आख्यास्यामि।

व्याख्या
राजा (दशरथ) प्रिय या अप्रिय जो कुछ भी तुमसे कहेंगे, तुम यदि उसे करोगे, तब फिर मैं सब कुछ तुम्हें बता दूंगी। तात्पर्य यह है कि स्वार्थ की बात कहने से पूर्व कैकेयी राम को भी भली-भाँति वचनबद्ध कर देना चाहती है।

(14)
एतत्तु वचनं श्रुत्वा कैकेय्या समुदाहृतम् ।
उवाच व्यथित रामस्तां देवीं नृपसन्निधौ ॥

शब्दार्थ
श्रुत्वा = सुनकर।
समुदाहृतम् = भली प्रकार से कहे गये।
व्यथितः = दु:खी।
नृपसन्निधौ = राजा के पास।

अन्वय
कैकेय्या समुदाहृतम् एतत् वचनं श्रुत्वा तु रामः व्यथितः (सन्) नृपसन्निधौ तां देवीम् । उवाच।

व्याख्या
कैकेयी द्वारा कहे गये इस वचन को सुनकर तो राम ने दुःखी होते हुए राजा के पास | . उस देवी (माता कैकेयी) से कहा।

(15)
अहो धिङ्नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः।
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ॥

शब्दार्थ
धिङ = धिक्कार है।
अर्हसे = उचित है, योग्य है।
माम् = मुझे।
ईदृशं = इस प्रकार के।
हि = निश्चय ही।
पतेयम् = गिर सकता हूँ।
पावके = अग्नि में।

अन्वय
अहो! धिङ मां। देवि! (त्वं) ईदृशं वचः वक्तुं न अर्हसे। राज्ञः वचनात् हि अहं पावके अपि पतेयम्। •

व्याख्या
अहो, मुझे धिक्कार है! हे देवी! (तुम्हें) मुझको इस प्रकार के वचन कहना उचित : नहीं है। मैं निश्चय ही राजा (पिता) की आज्ञा से अग्नि में भी गिर सकता हूँ। जब राम को अनुभव

हुआ कि कैकेयी उनके वचन-पालन के प्रति पूर्णरूपेण आश्वस्तं नहीं है, तब उन्होंने उसे विश्वास दिलाने के लिए कहा कि पिता की आज्ञा यदि उनके लिए प्राणघातक भी होगी तब भी वे उसे पूर्ण करने के लिए वचनबद्ध हैं।

(16)
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥

शब्दार्थ
भक्षयेयम् = खा सकता हूँ।
अर्णवे = समुद्र में
नियुक्तः = कहा गया।
गुरुणा = गुरु द्वारा।
पित्रा = पिता द्वारा।
नृपेण = राजा द्वारा।
हितेन = हितैषी द्वारा।

अन्वय
नृपेण गुरुणा हितेन च पित्री नियुक्तः (अहं) तीक्ष्णं विषं भक्षयेयम् , अर्णवे च अपि पतेयम्।।

व्याख्या
यदि राजा, गुरु, पिता और हितैषी मुझे आदेश दें तो मैं तेज विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि राजा, गुरु और पिता तो श्रेष्ठ होते ही हैं, उनकी आज्ञा का पालन तो आवश्यक है ही, लेकिन राम तो उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए भी तत्पर हैं जो उनका हित चाहते हैं।

(17)
तद् बूहि वचनं देवि! राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम्।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते ॥

शब्दार्थ
ब्रूहि = कहो।
अभिकाङ्क्षितम् = अभिलषित को।
प्रतिजाने = प्रतिज्ञा करता हूँ।
द्विः न अभिभाषते = दो तरह की बात नहीं कहता है।

अन्वय
देवि! राज्ञः यद् अभिकाङ्क्षितम् , तद् वचनं (मां) ब्रूहि। (अहं) प्रतिजाने, तत् । (अहं) करिष्ये। रामः द्विः न अभिभाषते।।

व्याख्या
हे देवी! राजा की जो अभिलाषा है, वह आप मुझे बतलाइए, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उसका पालन अवश्य करूंगा। राम दो प्रकार की बात नहीं कहता है। तात्पर्य यह है कि राम कभी असत्य-भाषण नहीं करता है। |

(18)
तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम्।।
उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम् ॥

शब्दार्थ
आर्जवसमायुक्तम् = सरलता से युक्त।
अनार्या = नीचे विचारों वाली।
भृशदारुणम् = अत्यन्त कठोर।

अन्वय
अनार्या कैकेयी आर्जवसमायुक्तं सत्यवादिनं तं रामं भृशदारुणं वचनम् उवाच।।

व्याख्या
नीचे अर्थात् निकृष्ट विचारों वाली कैकेयी ने सरल स्वभाव वाले और सत्यवक्ता राम से अत्यन्त कठोर वाणी से कहा। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, उसी के अनुरूप उसकी वाणी भी परिवर्तित हो जाती है।

(19)
पुरा दैवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव ! 
रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे ॥

शब्दार्थ
पुरा = प्राचीन काल में।
दत्तौ = दिये गये।
सशल्येन = बाण से विद्ध हुए।

अन्वय
हे राघव! पुरा दैवासुरे युद्धे शल्येन (मया) रक्षितेन ते पित्रा महारणे मम वरौ दत्तौ।।

व्याख्या
हे राघव! प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों के बीच होने वाले युद्ध में बाण से। विद्ध हुए और मेरे द्वारा रक्षित तुम्हारे पिता ने उसी महान् युद्ध-भूमि में ही मुझे दो वर प्रदान किये थे।

(20)
तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम्।
गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव! ॥

शब्दार्थ
तत्र = वहाँ।
याचितः = माँगा।
अभिषेचनम् = अभिषेक, राज्याभिषेक।
दण्डकारण्ये = दण्डक वन में।
तव = तुम्हारा।
अध एवं = आज ही।

अन्वय
हे राघव! तत्र (एकेन) में भरतस्य अभिषेचनम्। (द्वितीयेन) अद्यैव तव दण्डकारण्ये गमनं च राजा याचितः।

व्याख्या
हे राघव! उन वरों में से मैंने राजा से एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से आज ही तुम्हारा दण्डक वन में जाना माँगा था।

(21)
यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि।
आत्मानं च नरश्रेष्ठ! मम वाक्यमिदं शृणु ॥

शब्दार्थ
सत्यप्रतिज्ञम् = सच्ची प्रतिज्ञा वाला।
कर्तुमिच्छसि = करना चाहते हो।
आत्मानं =’ स्वयं को।
नरश्रेष्ठ! = मनुष्यों में श्रेष्ठ।
शृणु = सुनो।..

अन्वय
हे नरश्रेष्ठ! यदि त्वं पितरम् आत्मानं च सत्यप्रतिज्ञं कर्तुम् इच्छसि, (तदा) मम इदं वाक्यं शृणु।।

व्याख्या
मानवों में श्रेष्ठ (हे राम)! यदि तुम पिताजी को और अपने को सच्ची प्रतिज्ञा वाला सिद्ध करना चाहते हो तो मेरे इस वचन को सुनो। कैकेयी का आशय यह है कि यदि राम स्वयं अपने वचनों की तथा अपने पिता के वचनों की रक्षा करना चाहते हैं तो उन्हें कैकेयी की बात मान लेनी चाहिए।

(22)
त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च।
भरतः कोशलपतेः प्रशास्तु वसुंधमिमाम् ॥

शब्दार्थ
त्वया = तुम्हारे द्वारा।
अरण्यम् = वने में।
प्रवेष्टव्यं = प्रवेश करना चाहिए।
नव पञ्च च वर्षाणि = नव और पाँच अर्थात् चौदह वर्ष तक।
प्रशास्तु = शासन करे। वसुधाम् = पृथ्वी का।

अन्वय
त्वया नव पञ्च च वर्षाणि अरण्यं प्रवेष्टव्यम्। भरतः कोशलपतेः इमां वसुधां प्रशास्तु।

व्याख्या
तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वन में प्रवेश करना चाहिए और भरत को कोशल नरेश की इस भूमि का शासन करना चाहिए।

(23)
तदप्रियममित्रघ्नो वचनं मरणोपमम् ।
श्रुत्वा न विव्यथे रामः कैकेयीं चेदमब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
अमित्रघ्नः = शत्रुओं का वध करने वाले।
मरणोपमम् = मृत्यु के समान कष्टदायक।
श्रुत्वा = सुनकर।
विव्यथे = पीड़ित हुए।

अन्वय
तद् अप्रियं मरणोपमं वचनं श्रुत्वा अमित्रघ्नः रामः न विव्यथे। कैकेयींच इदम् अब्रवीत्। .

व्याख्या
उस अप्रिय और मृत्यु के समान कष्टदायक वचने को सुनकर शत्रुओं का वध करने । वाले राम पीड़ित नहीं हुए और कैकेयी से यह वचन बोले।

(24)
एवमस्तु गमिष्यामि वनं वस्तुमहं त्वितः। |
जटाचीरधरो राज्ञः प्रतिज्ञामनुपालयन् ॥

शब्दार्थ
एवम् अस्तु = ऐसा ही हो।
वस्तुम् = रहने के लिए।
इतः = यहाँ से।
जटाचीरधरः = जटाएँ और वल्कल वस्त्र धारण करके
अनुपालयन् = पालन करता हुआ।

अन्वय
एवम् अस्तु। अहं तु ज़टाचीरधरः राज्ञः प्रतिज्ञाम् अनुपालयन् वनं स्तुम् इत: गमिष्यामि। व्याख्या-(राम ने कैकेयी से कहा अच्छा ठीक है) ऐसा ही हो। मैं जटाएँ और वल्कल धारण करके राजा (पिता) की आज्ञा का पालन करता हुआ वन में रहने के लिए यहाँ से चला जाऊँगा।

(25)
अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टान् धनानि च। |
हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरताय प्रचोदितः ॥

शब्दार्थ
इष्टान् = प्रिय।
हृष्टः = प्रसन्न होकर।
दद्याम् = दे सकता हूँ।
प्रचोदितः = प्रेरित किया गया।

अन्वय
(त्वया) प्रचोदितः अहं हि सीता, राज्यम्, इष्टान् प्राणान् धनानि च हृष्टः भ्रात्रे भरताय स्वयं दद्याम्।

व्याख्या
(राम ने कैकेयी से कहा) आपके द्वारा प्रेरित किया गया मैं निश्चय ही, सीता को, राज्य को, प्रिय प्राणों को और धनों को भी प्रसन्न होकर स्वयं भाई भरत को दे सकता हूँ। तात्पर्य यह है । कि राम अपने भाई भरत के लिए सर्वस्व त्याग हेतु सदैव तत्पर हैं।

(26)
न ह्यतो धर्माचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ॥

शब्दार्थ
अतो महत्तरम् = इससे बढ़कर।
धर्माचरणम् = धर्म का आचरण करना।
किञ्चित् = कोई।
पितरि शुश्रूषा = पिता की सेवा करना।
वचनक्रिया = वचनों का पालन करना।

अन्वय
पितरि शुश्रूषा तस्य वचनक्रिया वा यथा धर्माचरणम्; अत: महत्तरं किञ्चित् (धर्माचरणम्) न हि अस्ति।

व्याख्या
निश्चय ही, पिता की सेवा अथवा उनके वचनों का पालन करने जैसे उत्तम धर्म के आचरण से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। तात्पर्य यह है कि पिता की सेवा और उनकी आज्ञा के पालन से बढ़कर सर्वोत्तम धर्म और कोई नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1)
यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः।।
कथं तस्मिन्न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ॥

सन्दर्भ
प्रस्तुत सूक्ति श्लोक महर्षि वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ से संकलित हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘रामस्य पितृभक्तिः शीर्षक पाठ से उधृत है।

[संकेत-इस शीर्षक के अन्तर्गत आयी हुई समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्तिपरक श्लोक में राम पिता के महत्त्व को बताते हुए उसकी इच्छानुसार आचरण करने की बात कहते हैं। |

अर्थ
मनुष्य इस संसार में अपनी उत्पत्ति को जिसके कारण देखता है, उस पिता रूप देवता के विद्यमान रहने पर क्यों न उसके अनुकूल आचरण करे।।

व्याख्या
प्रत्येक व्यक्ति के जन्म लेने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण पिता है। बिना पिता के उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। जिस पिता के कारण व्यक्ति अस्तित्व में आया, वह पिता निश्चित रूप से किसी भी देवता से बढ़कर है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने प्राण रहते पिता की इच्छा के अनुरूप आचरण करे। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में भी सर्वत्र पिता को देवता के समान पूज्य बताया गया है। महाभारत में भी यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में युधिष्ठिर ने पिता को आकाश से ऊँचा बताते हुए कहा है-खात्पितोच्चतरस्तथा।।

(2)
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे। |
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्तिपरक श्लोक में राम के मुख से यह सन्देश दिया गया है.कि यदि व्यक्ति  को पिता तथा राजा की भलाई के लिए अपना सर्वस्व भी त्यागना पड़े तो उसे कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

अर्थ
गुरु, पिता, राजा और हितैषी के लिए मैं तेज विष खा सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ।

व्याख्या
श्रीराम के कहने का तात्पर्य यह है कि यदि पिता, गुरु, राजा और हितैषी के लिए विष खाकर प्राण देना आवश्यक हो अथवा समुद्र में डूबकर मरने से उनका हित-साधन होता हो तो व्यक्ति को अपने प्राणों की चिन्ता त्यागकर विषपान कर लेना चाहिए तथा समुद्र में डूब जाना चाहिए। वे यही बात अपनी माता कैकेयी से कह रहे हैं कि यदि पिता और राजा के हित के लिए मुझे भयंकर विषपान करना पड़े अथवा समुद्र में छलाँग लगानी पड़े तो मैं उससे विचलित नहीं होगा। आप निस्संकोच मुझे बताएँ कि पिता दशरथ का दु:ख कैसे दूर हो सकता है।

(3)
रामो द्विर्नाभिभाषते ।। 

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में राम अपनी माता कैकेयी को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि मैं अपने कहे वचनों से पीछे नहीं हटूगा।

अर्थ
राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता है।

व्याख्या
संसार में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो कोई बात कह तो देते हैं, परन्तु उसे पूरा नहीं करते हैं। वे अवसर आने पर अपनी बात से हट जाने का मौका हूँढ़ा करते हैं। ऐसे व्यक्ति अधम कहलाते हैं। लेकिन महापुरुष जो बात कह देते हैं, वे उसे अवश्य पूरा करते हैं। राम माता कैकेयी से कहते हैं कि राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता है। इसका तात्पर्य यह है कि राम जो कहता है, उसे पूरा करता है, उससे पीछे नहीं हटता है अर्थात् राम कभी असत्य-भाषण नहीं करता।

(4)
न ह्यतो धर्माचरणं किञ्चिदस्ति महत्तरम् ।।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया ॥

प्रसंग
पितृभक्ति को संसार को सर्वश्रेष्ठ धर्म बताते हुए राम कैकेयी से यह सूक्तिपरक श्लोक कहते हैं।

अर्थ
निश्चय ही पिता की सेवा, उनके वचनों का पालन करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं

व्याख्या
यह तो सभी जानते हैं कि पिता के कारण ही इस संसार में सभी व्यक्ति अस्तित्व में आये हैं तथा इस संसार में आने के पश्चात् ही ईश्वर और धर्म-कर्म को जान सके हैं। यदि पिता उन्हें उत्पन्न न करता तो वे इन धर्म-कर्मों को नहीं जान सकते थे; अर्थात् पिता के कारण ही हम उनके विषयों में जान सके हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पिता ही सबसे बड़ा देवता और धर्म होता है और उसकी सेवा-शुश्रूषा करके उसको प्रसन्न करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा धर्म और पुण्य है।

श्लोक का संस्कृत अर्थ

(1) स दीन इव •••••••••••••••••••••• वचनमब्रवीत् ॥(श्लोक 6)
संस्कृतार्थः–
रामचन्द्रः, कैकेयीम् उपगम्य स्वपितरं दशरथम् एवं मातरं कैकेयीं प्रणम्य पितरम् अवलोक्य दुःखितः अभवत्। मातरं प्रणम्य शोकेन आर्त्तः खिन्न आनन: दीन: इव मातरः कैकेयीं विनम्रो भूत्वा इदम् उवाच।।

(2) यदि सत्यप्रतिज्ञम् ••••••••• इदं शृणु ॥(श्लोक 21)
संस्कृतार्थ:-
कैकेयी रामम् उवाच-हे नरश्रेष्ठ राम! यदि त्वं स्वजनकं सत्यपालकरूपेण जगति विख्यातं कर्तुम् इच्छसि, तु मम कथनं सावधानतया शृणु।।

(3) न ह्यतो धर्माचरणं ••••••••••••••••••••••••••••••••••• वचनक्रिया ॥ (श्लोक 26 )
संस्कृतार्थ:-
श्रीरामः स्वमातुः कैकेय्याः वचनं श्रुत्वा अकथयत्-संसारेऽस्मिन् स्वपितुः। सेवाकरणं, तस्य च आज्ञायाः पालनं परमः धर्मः अस्ति। अतः महत्तरः मानवस्य कृते कोऽपि धर्में: नास्ति। अतः अहं पितुः आज्ञायाः पालनम् अवश्यं करिष्यामि। एष एव मुम कृते परम: धर्मः अस्ति।।

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