UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः (गद्य – भारती)
UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 5 गुणाढ्यवृत्तान्तः (गद्य – भारती)
पाठ-साराश
सातवाहन का परिचय-महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर प्रतिष्ठानपुर नामक नगर में सातवाहन नाम का एक परगुणग्राही और गुणवान राजा शासन करता था। उसका अनेक गुणों से सम्पन्न गुणाढ्य नाम का एक मन्त्री था। वहाँ राजा, मन्त्री और अधिकारी सभी के मध्य प्राकृत भाषा का ही प्रचलन था। राजा की एक रानी ‘भारती’ थी, जो कि संस्कृत की विदुषी थी। राजा भारती से अत्यधिक स्नेह करता था।
भारती द्वारा राजा की संस्कृत अल्पज्ञता पर व्यंग्य-एक बार वसन्त-उत्सव के समय राजा सातवाहन अपनी सभी रानियों के साथ अपने उद्यान की वापी में जलक्रीड़ा कर रहा था। राजा के द्वारा लगातार जलधारा से प्रताड़ित करने पर भारती राजा से बोली-देव, मोदकैर्मा ताडय’। भारती के कहने का अभिप्राय यह था–‘मा उदकैः मां ताडय’ अर्थात् मुझे जल-कणों से मत मारो, किन्तु सातवाहन ने इसका अर्थ-‘मोदकैः मां ताडय।’ अर्थात् ‘मुझे लड्डुओं से मारो,’ समझा। राजा ने एक सेवक द्वारा बहुत-से लड्डू मँगवाये। उन्हें देखकर भारती ने हँसकर कहा-“राजन्! यहाँ लड्डुओं का क्या प्रसंग? मैंने तो ‘जल से मत मारो’ ऐसा कहा था। तुमने तो कठोर लड्डुओं से मारना शुरू कर दिया। यदि तुम ‘मा’ और ‘उदक’ की सन्धि नहीं जानते तो न सही, किन्तु यहाँ लड्डुओं का कोई प्रसंग नहीं है। वास्तव में तुम अज्ञानी हो।”
राजा की संस्कृत-ज्ञान की इच्छा-रानी के द्वारा इस प्रकार उलाहना पाकर राजा ने पाण्डित्य प्राप्त करने या मरने का निश्चय किया। दूसरे दिन राजा ने गुणाढ्य औ अन्य मन्त्रियों को बुलाकर संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करने की इच्छा से पूछा कि “मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पढ़ने पर कितने समय में संस्कृत का विद्वान् बन सकता है? आप लोग मुझे बताएँ।”
गुणाढ्य द्वारा प्रतिज्ञा-राजा के प्रश्न के उत्तर में गुणाढ्य ने कहा कि “देव! अभ्यास करने से सब कुछ सिद्ध हो जाता है। आप चिन्ता न करें। यद्यपि प्राचीन विद्वान् मानते हैं कि व्यक्ति व्याकरण बारह वर्षों में सीख जाता है, किन्तु मैं आपको केवल छ: वर्षों में ही सिखा दूंगा।” गुणाढ्य के प्रत्युत्तर में शर्ववर्मा नाम के विद्वान् मन्त्री ने राजा से कहा–हे राजन्! मैं आपको छः महीने में ही सिखा सकता हूँ।’
” शर्ववर्मा द्वारा छ: महीने में सिखाने की बात सुनकर गुणाढ्य बोला-“यदि तुम छः महीने में सिखा दोगे तो मैं जीवनपर्यन्त संस्कृत या प्राकृत का प्रयोग नहीं करूंगा।
बृहत्कथा की रचना-शर्ववर्मा ने अपने कथनानुसार राजा को छः महीने में ही सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत बना दिया। गुणाढ्य ने पराजित होकर संस्कृत और प्राकृत को छोड़कर विन्ध्य के जंगली लोगों की भाषा ‘पैशाची’ में ‘बृहत्कथा’ की रचना की। यद्यपि ‘बृहत्कथा’ अब प्राप्त नहीं है, किन्तु उसके दो संस्कृत-रूपान्तर बृहत्कथामञ्जरी’ और ‘कथासरित्सागर’ काव्य-रसिकों को आज भी आनन्द प्रदान कर रहे हैं।
गद्यांशों के सवतर्न अद
(1) अस्ति महाराष्ट्रेषु गोदावरीदक्षिणतीरे प्रतिष्ठितं प्रतिष्ठानं नाम नगरम्। तच्च सातवाहनो नाम विश्रुतो गुणग्राही भूपः शास्तिस्य।गुणाढ्यनामा तस्य विविधगुणगणाढ्यो मुख्य सचिवः। राज्ञः सचिवानम् , अन्येषां चाधिकारिणां प्राकृतभाषायां भूयसी प्रीतिरासीत्। तस्य राज्ये सर्वेऽपि जनाः प्राकृतमेव भाषन्ते स्म। आसीत् , किन्तु महीपालस्य महिषीणां मध्ये ‘भारती’ नाम काचित् संस्कृतविदुषी यस्यां भूपतिः सविशेषं स्निह्यति स्म। |
शब्दार्थ-
प्रतिष्ठितम् = स्थित, बसा हुआ।
विश्रुतः = प्रसिद्ध।
भूपः = राजा।
शास्ति स्म = शासनं करता था।
विविध गुणगणाढ्यो = अनेकानेक गुणो से सम्पन्न।
सचिवः = मन्त्री। भूयसि =बहुत अधिक।
भाषन्ते स्म = बोलते थे।
महिषीणाम् = रानियों के।
विदुषी = शिक्षितं स्त्री।
सविशेष स्निह्यति स्म = बहुत अधिक स्नेह करता था।
सन्दर्थ
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘गुणाढ्यवृत्तान्तः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।
संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए. यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।
प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राजा सातवाहन, उसके मन्त्री और अन्य अधिकारियों के प्राकृत भाषा ज्ञान के विषय में बताया गया है।
अनुवाद
महाराष्ट्र प्रान्त में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर प्रतिष्ठान (औरंगाबाद जिले में आधुनिक पैठण) नाम का नगर स्थित था। सातवाहन नाम का प्रसिद्ध गुणग्राही राजा उस पर शासन करता था। उसका विविध गुणों के समूह से सम्पन्न गुणाढ्य नाम का मुख्यमन्त्री था। राजा, मन्त्रियों : और उसके दूसरे अधिकारियों का प्राकृत भाषा में बहुत अधिक प्रेम था। उसके राज्य में सभी लोग प्राकृत ही बोलते थे, किन्तु उस राजा की रानियों में भारती’ नाम की संस्कृत की कोई विदुषी रानी भी थी, जिससे राजा विशेष प्रेम करता था।
(2) स च सातवाहनः एकदा वसन्तोत्सवसमये जलक्रीडां कर्तुं महिषीभिः साकं प्रासादोद्यानगतवापीम् अवतीर्णः। अचिरादेव ते सर्वे परस्परं जलक्षेपेण क्रीडां कुर्वन्तः मोदमानाश्च अतिष्ठन्। महाराजेन जलधाराभिरजस्त्रम् आहन्यमाना उद्विग्ना भारती हस्ताभ्यां तं निवारयन्ती सहसा अब्रवीत्-‘देव, मोदकैर्मी ताडये” ति। एतदाकण्र्य नृपतिः वचनकरं कञ्चिद् आहूय तेन बहुमोदकान् आनाययत्। तान् आलोक्य विहस्य सा अभाषत्-राजन् , अत्र जलान्तरे कोऽवसरो मोदकानाम्? ‘उदकैः मां मा सिञ्च’ इत्येवम् उक्तस्वं माम् इदानीं कठिनतरैः मोदकैस्ताडयितुं प्रवृत्तः। माशब्दोदकशब्दयोः सन्धि यदि नैवे जानासि, मा तावद् जानीहि! किन्तु मोदकानामत्र किमपि प्रकरणं नास्ति इत्यपि यदि नैवावगच्छसि, तर्हि भवसि सत्यमेव देवानां प्रियः।
शब्दार्थ—
साकम् = साथ।
प्रासादोद्यानगतवापीम् = महल के उपवन में स्थित बावली (छोटा तालाब) में।
अचिरादेव = शीघ्र ही।
मोदमानाः = प्रसन्न।
अजस्रम् = निरन्तर आहन्यमाना = आहत की जाती हुई।
उद्विग्ना = परेशान हुई।
निवारयन्ती = रोकती हुई।
मोदकैः (मा + उदकैः) = जल से मत।
एतद् आकर्य = यह सुनकर।
वचनकरम् = सेवक को।
आहूय = बुलाकर।
आनाययत् = मँगवाये।
जलान्तरे = पानी के अन्दर।
कठिनतरैः = अत्यधिक कठोर।
माशब्दोदकशब्दयोः = ‘मा’ शब्द तथा ‘उदक’ शब्दों में।
प्रकरणम् = सन्दर्भ।
अवगच्छसि = जानते हो।
भवसि = आप।
देवानां प्रियः = मूर्ख, अज्ञानी।।
प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राजा सातवाहन को भारती द्वारा; संस्कृत भाषा की अल्पज्ञता के कारण; लज्जित किये जाने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद
और एक दिन वह सातवाहन वसन्त-उत्सव के समय जलक्रीड़ा करने के लिए रानियों के साथ महल के उपवन में स्थित वीपी में उतरा। शीघ्र ही वे सब आपस में पानी फेंककर खेलते हुए प्रसन्न हो रहे थे। महाराज के द्वारा जलधारा से निरन्तर ताड़ित होती हुई परेशान भारती उसे दोनों हाथों से रोकती हुई सहसा बोली-“महाराज! मुझे जल से मत मारो।” यह सुनकर राजा ने किसी आज्ञाकारी सेवक को बुलाकर उससे बहुत लड्डू मँगवाये। उन्हें देखकर हँसकर वह बोली-“राजन्! यहाँ जल के भीतर लड्डुओं को क्या प्रसंग है? मुझे जल से मत सींचो’ ऐसा कहे गये तुम मुझे अब अधिक कठोर लड्डुओं से मारने हेतु प्रवृत्त हो रहे हो। यदि तुम ‘मा’ और ‘उदक शब्दों की सन्धि नहीं जानते हो तो मत जानो, किन्तु यहाँ लड्डुओं का कोई भी प्रसंग नहीं है। यदि इतना भी नहीं जानते हो तो आप सत्य में ही अज्ञानी हो।”
(3) तया एवमाधिक्षिप्तो राजा सव्रीडः परित्यक्तजलक्रीडः जातावमानः तत्क्षणं निजावासम् आविशत्। तत्र च परित्यक्ताहारविहारः ‘पाण्डित्यं मृत्यु वा शरणं करवाणीति’ कृतमनाः न मनागपि शान्तिमुपागच्छत्।।
शब्दार्थ-
अधिक्षिप्तः = उलाहना दिया गया।
सब्रीडः = लज्जासहित जातावमानः = अपमानित हुआ।
आविशत् = प्रवेश किया।
करवाणि = करूगा।
कृतमनाः = मन बनाकर।
मनागपि = थोड़ी भी।
प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि राजा ने लज्जित होकर संस्कृत सीखने का निश्चय किया।
अनुवाद
उसके द्वारा इस प्रकार उलाहना दिया गया राजा लज्जासहित जलक्रीड़ा को छोड़कर अपमानित होकर उसी समय अपने महल में आ गया और वहाँ भोजन और भ्रमण छोड़कर “मैं पाण्डित्य या मृत्यु की शरण प्राप्त करूंगा” ऐसा संकल्प करके जरा भी शान्ति को प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् अशान्त ही रहा।
(4) अन्येद्युः गुणाढ्यम् अन्यांश्च सचिवान् आहूय अपृच्छत्-प्रयत्नेन शिक्षमाणः पुमान् कियता कालेन संस्कृतपाण्डित्यम् अधिगच्छतीति मे बूत। एतदाकर्त्य गुणाढ्योऽवदत्-देव, अभ्यासेन सर्वं सिद्धयति इति अलं चिन्तया। द्वादशवर्षेः व्याकरणं श्रूयते’ इति प्राचीनानामुक्तिः । किन्त्वहं त्वां तद् वर्षषट्केनैव शिक्षयिष्यामि। एतदाकण्र्य शर्ववर्माभिधः तस्य कश्चिद् विपश्चिद् मन्त्री सहसा अभाषत्–राजन् , अहं त्वां मासषट्केनैव शिक्षायितुं पारयामि। एतत् · श्रुत्वा गुणाढ्यः सरोषमवदत्-यदि एवं स्यात्, तर्हि यावज्जीवनम् अहं संस्कृतं प्राकृतं वा न व्यवहामि।
शब्दार्थ-
अन्येद्युः = दूसरे दिन।
आहूय = बुलाकर।
अधिगच्छति = प्राप्त होता है।
अलं चिन्तया = चिन्ता मत कीजिए।
पारयामि = समर्थ हूँ।
सरोषम् = क्रोधसहित।।
प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में गुणाढ्य द्वारा छः वर्ष में और शर्ववर्मा द्वारा छः मास में संस्कृत का ज्ञान करा देने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद
दूसरे दिन गुणाढ्य और दूसरे मन्त्रियों को बुलाकर (राजा ने पूछा-“प्रयत्न से सिखाया गया पुरुष कितने समय में संस्कृत में विद्वत्ता प्राप्त करता है? यह मुझे बताओ’ यह सुनकर गुणाढ्य बोला-“महाराज! अभ्यास से सब कुछ सिद्ध हो जाता है। चिन्ता मत कीजिए। बारह वर्षों में व्याकरण का ज्ञान प्राप्त होना) सुना जाता है, यह पुराने लोगों का कथन है, किन्तु मैं छ: वर्षों में ही सिखा दूंगा।” यह सुनकर शर्ववर्मा नाम को उसका कोई विद्वान् मन्त्री अचानक बोला-“राजन्! मैं आपको छ: महीने में ही सिखाने में समर्थ हूँ।” यह सुनकर गुणाढ्य क्रोधसहित बोला-“यदि ऐसा हो जाएगा तो मैं जीवनभर संस्कृत या प्राकृत का व्यवहार नहीं करूंगा।’
(5) शर्ववर्मणा स्ववचोरक्षणं कृतम्। नियतैरेव अहोभिर्भूपतिः सर्वशास्त्रपारङ्गतोऽभवत्। तेनेत्थं निर्जितो गुणाढ्यः शिष्टभाषां संस्कृतं, जनभाषां प्राकृतं चोभयमपि विहाय, स्वकीयां ‘बृहत्कथा’–नाम्नीं विचित्रकौतुककथामयीं रचनां विन्ध्याटव्यां प्रवर्तमानया पैशाची’ इत्याख्यया वन्यजनभाषया अकरोदिति परम्परया प्रसिद्धम्।
सा चैषा सरसा बृहत्कथा इदानीं लुप्ता। किन्तु तस्याः ‘बृहत्कथामञ्जरी’, ‘कथासरित्सागर’–इत्याख्यं संस्कृतरूपान्तरद्वयम् अद्यापि सहृदयजनानां चेतांसि चमत्करोति।
शब्दार्थ-
स्ववचोरक्षणं कृतं = अपने वचन की रक्षा की।
नियतैः = निश्चित।
अहोभिः = दिनों में।
निर्जितः = हराया गया।
विहाय = छोड़कर।
प्रवर्तमानया = चलने वाली।
अकरोत् इति = किया ऐसा।
लुप्ता = नष्ट हो गयी।
चमत्करोति = आनन्दित करती है।
प्रसंगु
प्रस्तुत गद्यांश में गुणाढ्य द्वारा पैशाची भाषा में बृहत्कथा की रचना किये जाने का वर्णन किया गया है।
अनुवाद
शर्ववर्मा ने अपनी बात की रक्षा की। निश्चित दिनों में ही राजा सब शास्त्रों में पारंगत हो गया। उसके द्वारा इस प्रकार पराजित हुए गुणाढ्य ने शिष्ट लोगों की भाषा संस्कृत और जनभाषा प्राकृत दोनों को ही छोड़कर, विचित्र और कौतुक कथाओं से युक्त बृहत्कथा नाम की अपनी रचना को विन्ध्याटवी में बोली जाने वाली ‘पैशाची’ नाम की जंगली लोगों की भाषा में किया (लिखा)। यह परम्परा से प्रसिद्ध है। और वह सरस बृहत्कथा अब नष्ट हो गयी है; अर्थात् अप्राप्य है, किन्तु उसके ‘बृहत्कथामञ्जरी’ और ‘कथासरित्सागर’ नाम के दो संस्कृत के अनुवाद आज भी सहृदय जनों के हृदय को चमत्कृत करते हैं।
लघु उत्तरीय प्ररन
प्ररन 1
भारती ने सातवाहन को किस कारण मूर्ख कहा? या । राजा सातवाहन ने अपने आपको किस कारण अपमानित अनुभव किया?उत्तर
भारती ने राजा सातवाहन को इसलिए मूर्ख कहा क्योंकि उसने ‘मा’ व ‘उदकैः’ शब्दों की सन्धि का गलत अर्थ ‘मोदकैः’ लगा लिया। वह यह भी नहीं समझ सका कि स्नान करते समय ‘मोदकैः’ अर्थात् लड्डुओं का क्या प्रयोजन हो सकता है। संस्कृत की अपनी अल्पज्ञता के कारण ही उसने स्वयं को अपमानित अनुभव किया। |
प्ररन 2
सातवाहन और उसके मन्त्रियों के परस्पर वार्तालाप को अपनी भाषा में लिखिए। |
उत्तर
सातवाहन ने गुणाढ्य और अन्य मन्त्रियों को बुलाकर पूछा–“प्रयत्नपूर्वक अध्यापन करने पर कोई व्यक्ति कितने समय में संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करा सकता है।” गुणाढ्य नाम के मन्त्री ने कहा–‘महाराज! संस्कृत के पुराने पण्डितों का कहना है कि बारह वर्षों में मात्र व्याकरण का ज्ञान होता है। किन्तु मैं आपको छः वर्षों में ही व्याकरण सिखा दूंगा।’ इस पर शर्ववर्मा नाम के दूसरे मन्त्री ने कहा-राजन्! मैं आपको छ: महीने में ही संस्कृत सिखा दूंगा।
प्ररन 3
राजा ने अपने अपमान के बदले में क्या किया?
उत्तर
राजा ने अपने अपमान के बदले में अपने एक विद्वान् मन्त्री शर्ववर्मा से छः महीने में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।
प्ररन 4
गुणाढ्य ने ‘बृहत्कथा’ की रचना किस भाषा में की?
उत्तर
गुणाढ्य ने विन्ध्य के जंगलों में रहने वाले जंगली लोगों के मध्य प्रचलित ‘पैशाची’ नाम की भाषा में ‘बृहत्कथा’ की रचना की।
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