अपभ्रंश साहित्य के विभिन्न स्रोतों और उसकी परंपराओं की तह में जाने एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से
सामने आता है कि क्या अपभ्रंश को हिंदी कहा जा सकता है ? हिंदी के इतिहासकार मिश्र बंधुओं से लेकर
चंद्रधर शर्मा गुलेरी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन तक अपभ्रंश को हिंदी के तुरंत का पूर्व रूप मानते हैं। गुलेरी जी तो अपभ्रंश को पुरानी हिंदी कहते ही थे। आचार्य शुक्ल ने अपभ्रंश को ‘प्राकृताभास हिंदी’
अथवा ‘प्राकृतरूढ़ियों से बहुत कुछ बद्ध’ हिंदी ही कहा है। उनका यह कथन “अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी’
के पथों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं
शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। अत: हिंदी काव्य-भाषा के पुराने रूप का पता भी हमें तभी लगता है।
स्पष्ट है वह अपभ्रंश को प्राकृताभास हिंदी और हिंदी काव्य-भाषा का पुराना रूप मानने के पक्ष में ही हैं।
सिद्ध-सामंत युग की सार्थकता बताते हुए राहुल सांकृत्यायन भी अपभ्रंश की पुरानी रचनाओं, बौद्ध सिद्ध के पदों और दोहों को हिंदी ही बता गये हैं। स्पष्ट है कि अनेक विद्वान इसी मत को प्रकारांतर से मानने के पक्ष में हैं
कि अपभ्रंश को हिंदी कहा जा सकता है। सच तो यह है कि यह धारणा मिथ्या ज्ञान और हिंदी की जड़ को
सातवीं शती तक बताने के स्वार्थ के कारण बनी है।
सच तो यह है कि हिंदी और अपभ्रंश दो भिन्न भाषाएँ हैं। दोनों में कई स्तरों पर अंतर है।
भाषा-शास्त्र और भाषा-विज्ञान के आधार पर इसे प्रमाणित किया जा सकता है। वैसे भी लगभग 1300 ई.
तक अपभ्रंश साहित्य का ही काल है। हिंदी की रचनाएँ इसके पश्चात् ही आने लगी हैं। डॉ सुनीति कुमार
चटर्जी, डॉ. उदय नारायण तिवारी और डॉ. बाबूराम सक्सेना जैसे भाषाविद् इसी तथ्य के पोषक हैं।
इन भाषाविदों के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि 13वीं-14वीं शताब्दी तक अपभ्रंश से अलग
हिंदी का रूप ठीक-ठीक प्रकट ही नहीं हो पाया था। हाँ, वह कार्य तब हो अवश्य रहा था। जाहिर है तब
तक की रचनाएँ अपभ्रंश की ही मानी जाँयगी, हिंदी की नहीं। इसकी पुष्टि स्वयं राहुल जी दूसरे स्थल पर
यों करते हैं—’हम जब पुराने कवियों की भाषा को हिंदी कहते हैं तो इस पर मराठी, उड़िया, बंगला,
असमिया, गोरखा, पंजाबी, गुजराती, भाषा-भाषियों को आपत्ति हो सकती है। वस्तुतः ये सारी भाषाएँ
बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में अपभ्रंश से अलग होती दीख रही हैं। ये सिद्ध सामंत युगीन कवियों की रचनाएँ
उपर्युक्त सारी भाषाओं की सम्मिलित निधि हैं।” इसी प्रकार ह. प्र. द्विवेदी भी मानते हैं कि “यह विचार
(अपभ्रंश को हिंदी कहना) भाषा शास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है।” जाहिर है, गुलेरी जी ने अपभ्रंश को
पुरानी हिंदी कहकर भ्रांति पैदा कर दी है।
स्पष्ट है तब तक हिंदी का रूप स्थिर भी नहीं हो पाया था। तब तक अपभ्रंश साहित्य में तीन प्रकार
के बंध प्रयुक्त हो रहे थे—दोहाबंध, पद्धड़िया बंध और गेय पदबंध । इनके अतिरिक्त छप्पय और कुंडलिया
आदि के बंध भी मिलते हैं। दोहा के प्रति अतिरिक्त लगाव के कारण ही कई बार अपभ्रंश को दूहा विधा’
तक कहा जाता रहा है। इन दोहों में धार्मिक उपदेश, नीतिविषयक बातें, वीररसात्मक उद्गार और शृंगारपरक
उक्तियाँ मिलती हैं। स्वयं सरहपा ने पद्धड़िया बंध के अंतर्गत चौपाई और दोहों की पद्धति अपनाई है।
संदेशरासक का भी यही बंध है। संपूर्ण रूप में रासक छंद गेय पदबंध के अंतर्गत ही आते हैं।
काव्यरूपों की दृष्टि से अपभ्रंश में प्रबंधात्मक काव्य, खंड काव्य और मुक्तक काव्य मिलते हैं। जैन
चरित काव्य अधिकतर प्रबंधात्मक ही हैं। यह जरूर है कि अपभ्रंश साहित्य और भाषा का हिंदी से गहरा संबंध
है। भाषा, भाव, छंद-विधान, काव्य-रूप, काव्य-रूढ़ियों आदि सभी दृष्टियों से हिंदी अपभ्रंश की ऋणी है।
हिंदी के रासो ग्रंथों पर अपभ्रंश के चरित काव्यों का स्पष्ट प्रभाव है। ऐसे ही संदेश रासक’ और ‘भविस्यत
कहा’ जैसे काव्यों के विरह-वर्णन का प्रभाव हिंदी के विरह-काव्यों पर पूर्णत: पड़ा है। भक्तिकाल में जो
संत-काव्य लिखे गये हैं उनपर सिद्धों-नाथों का स्पष्ट प्रभाव है। सच तो यह है कि हिंदी के संत-काव्य की
पृष्ठभूमि वहीं तैयार हो गयी थी। खंडनात्मक प्रवृत्ति, उलटबाँसी और दृष्टकूटों का पूर्वरूप अपभ्रंश कालीन
सिद्धों-नाथों की रचनाओं में मिलता ही है। सूफी काव्यों का आख्यानपरक रूप लगभग जैन-आख्यानों में
मिलता ही है। शृंगारकालीन काव्य में नखशिख-वर्णन, षऋतु-वर्णन, शृंगार-अतिरेक के चित्रण सब यहाँ
उपलब्ध हैं। अस्तु शृंगार-काल में तो अपभ्रंश के काव्य-विषय तक लिये गये हैं। आदिकालीन साहित्य पर
विचार करते हुए इसीलिये डॉ. ह. प्र० द्विवेदी लिखते हैं-“वस्तुत: छंद, काव्यगत रूप, वक्तव्य, वस्तु,
कवि-रूढ़ियों और परंपराओं की दृष्टि से यह साहित्य अपभ्रंश साहित्य का बढ़ावा है।”
हिंदी के मात्रिक छंदों का पूर्व रूप अपभ्रंश में ही मिलता है। पद्धरी, दोहा, चौपाई, सवैया, घनाक्षरी,
छप्पय, कुंडलिया और रोला जैसे छंद अपभ्रंश में पूरी तरह प्रयुक्त हो रहे थे। रासक काव्य-रूप तो प्रत्यक्षरूपेण
अपभ्रंश से ही हिंदी में आया है। कबीर, सूर, तुलसी और मीरा की पद-शैली का पूर्व रूप अपभ्रंश में वर्तमान
है। प्रबंधों में मंगलाचरण, आत्मनिवेदन, सज्जनप्रशंसा, दुर्जन-निंदा, संवाद के सहारे कथा का बढ़ना—सब
काव्य-रूढ़ियाँ हिंदी में अपभ्रंश से ही ली गयी हैं। हिंदी को अपभ्रंश के योगदान के बारे में डॉ. ह. प्र. द्विवेदी
लिखते हैं “इस प्रकार हिंदी साहित्य में प्रायः पूरी परंपराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह सब देखकर यदि हिंदी
को अपभ्रंश-साहित्य से अभिन्न समझा जाता है, तो इसे बहुत अनुचित नहीं कहा जा सकता। इन ऊपरी
साहित्य-रूपों को छोड़ भी दिया जाय तो भी इस साहित्य की प्राणधारा निरवच्छिन्न रूप से परवर्ती हिंदी साहित्य
में प्रवाहित होती रही है।” निश्चय ही अपभ्रंश-साहित्य ने हिंदी साहित्य को सब विधियों से प्रभावित किया
है। हिंदी साहित्य की प्रसविणी के रूप में अपभ्रंश साहित्य की कृतियों का अक्षय स्थान है।
अपभ्रंश और हिंदी के वीरकाव्यों, भक्तिकाव्यों, शृंगार-काव्यों तथा काव्यरूपों एवं काव्य-रूढ़ियों का
गर सर्वेक्षण किया जाय तो स्पष्ट प्रमाणित होगा कि हिंदी साहित्य इन सभी संदर्भो में अपभ्रंश साहित्य को
देन से उपकृत हुआ है। जाहिर है अपभ्रंश को सीधे हिंदी कहने का कोई औचित्य नहीं है। अपभ्रंश हिंदी की
पूर्ववर्ती भाषा और साहित्य-परंपरा का वाहक था इसमें कोई संदेह नहीं।