आदिकालीन काव्य का शिल्पपरक वैशिष्ट्य

By | August 3, 2021
वस्तुत: आदिकाल हर तरह से हिंदी के ‘हिंदी’ बनने का काल है। बनने की इस प्रक्रिया में वह भाषिक
संरचना और साहित्य दोनों ही धरातलों पर अपने को निर्मित कर रही थी। हमें यह पता है कि इस काल में
दो प्रकार के काव्य-ग्रंथ उपलब्ध होते हैं—अपभ्रंश काव्य और ‘देसभाषा काव्य’ परंतु हिंदी के आदिकाल का
साहित्य विशेष सुरक्षित स्थिति में कभी रहा नहीं। फलतः साहित्य भी प्रायः अत्यंत कम संख्या में उपलब्ध हैं।
डॉ. द्विवेदी इसलिये लिखते हैं “जिन पुस्तकों के आधार पर इस काल की भाषा-शैली की प्रकृति का कुछ
आभास पाया जा सकता है उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। कुछ पुस्तकों की भाषा तो इतनी परिवर्तित हुई है कि
उनके विषय में कुछ भी विचार करना अनुचित जान पड़ता है।” हिंदी इस समय तक अपभ्रंश के प्रभाव के
चंगुल में पड़ी हुई थी। हाँ, उस चंगुल से छूटने की स्थिति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इस तरह पूर्व की परंपरा
से गृहीत शैली और कुछ खुद की प्रयुक्त शैली को हिंदी ने अपनाया और आगे बढ़ाया है।
पुरानी हिंदी का व्यापक काव्य-भाषा का ढाँचा ब्रज और खड़ी बोली का था। अपभ्रंश काल की भाषा
जैसे-जैसे देस-भाषा की ओर बढ़ती जा रही थी, संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोगों को आधिकारिक स्थान प्राप्त
होता चला जा रहा था । प्रादेशिक बोलियों के साथ ब्रजभाषा तथा मध्य देश की भाषा के संयोग से जो भाषा
बनी वह पिंगल कहलाई। हिंदी साहित्य के इतिहास में पिंगल का विशेष स्थान है। पिंगल भाषा में फारसी,
अरबी, तुर्की के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।
मैथिली, बिहार की बोली होने पर भी हिंदी की विभाषा मानी गयी । इसी कारण विद्यापति की पदावली
को हिंदी का ग्रंथ माना गया । इसमें प्रयुक्त भाषा-रूप में संस्कृत के तत्सम रूप का विशेष बहिष्कार नहीं दिखाई
देता । अमीर खुसरो के काव्य में जनता की उस बोली के दर्शन होते हैं, जो कालांतर में विकसित होकर खड़ी
बोली कहलाई । तत्कालीन जनभाषा का रूप खुसरों की पहेलियों एवं मुकरियों में मिलता है। यह दिल्ली और
मेरठ प्रदेश की भाषा है। इस भाषा की क्रियाएँ हिंदी की हैं। वैसे इसमें अरबी-फारसी के काफी शब्द मिलते
हैं। उक्त चारों प्रकार की भाषाओं के क्रमश: उदाहरण देखें-
अपभ्रंश- जो जिण सासण भाषियऊ, सो मई कहियऊ साख,
जो पालइ सइ भाऊकरि, सो तरि पावइ पारु । (देवसेन की श्रावकाचार)
डिंगल – परणबा चाल्यो वसील राय चडरास्या सदुलिया बोलाई:
जान तणी साजति करउ, जरहि रंगावली पहर ज्यों होय ।
(नरपति नाल्ह कृत वीसलदेव रासो)
मैथिली- कालि कहल पिय साँझहि रे जाइब मोइ मारू देस
मोह अभागिनि नहि जानल रे, संग जाइतवें जोगिनी बेस । (विद्यापति)
खड़ी बोली – एक थाल मोती से भरा सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे ।। (खुसरो की पहेली)
हिंदी के आदिकाल की भाषा के उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य का आदिकाल भाषा का
संक्रांति काल था। इस काल में पद्य की प्रधानता थी; गद्य के दर्शन तो गोरखनाथ की कुछ पुस्तकों, तत्कालीन
राजाओं के पत्रों, ताम्रपत्रों, शिलालेखों आदि में ही होते थे।
इस संक्रांति काल में अपभ्रंश के प्रति मोह कम करके भाषा जन-भाषा के रूप में विकसित हो रही थी।
यह हिंदी का प्रारंभिक रूप था । व्याकरण और छंद-शास्त्र के बंधन प्रायः शिथिल हो चुके थे। एक भाषा
एक प्रकार से मनमाने रूप में विकसित हो रही थी। संस्कृत के छंदों का प्रवाह और अनुशासन तो समाप्त हो
ही चुका था। अंत्यानुप्रास का बंधन भी प्रायः समाप्त हो चुका था। अपभ्रंश से विकसित होकर हिंदी अपना
रूप सुधार कर बना रही थी। शिल्प के मामले में वह कई रूपों को अपने में समो रही थी। आदिकालीन काव्य
ही एक तरह की कथात्मक शैली लक्षित की जा सकती है। अपभ्रंश में कथापरक काव्य लिखे जाते
थे जबकि संस्कृत में यही कथा गद्य में लिखी जाती थी। आदिकालीन काव्य की शैली यही कथात्मक या
आख्यानपरक होने लगी। कथात्मक शिल्प होने के कारण इनमें पूर्व से ही गृहीत कुछ कथानक रूढ़ियों का भी
प्रयोग होता था । कीर्तिलता और पृथ्वीराज रासो में ऐसी कथानक रूढ़ियाँ द्रष्टव्य हैं। स्वयं डॉ, ह. प्र. द्विवेदी
लिखते हैं “चंदवरदाई का मूल ग्रंथ शुक-शुकी संवाद के रूप में (आख्यान परकता) लिखा गया था।
उदाहरणार्थ-
कहै सुकी सुक संभलौ। नींद न आवे मोहि
सुकी सरिस सुक उच्चारयो, धरयो नारि सिर चित्र ।
इस प्रकार की कथानक-रूढ़ियाँ कथात्मकता के साथ अंतर्भुक्त है।
आदिकालीन काव्य के शिल्पगत वैशिष्ट्य का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है उसकी गीतिपरकता । इस काल
में काव्य का एक आकर्षक रूप गीतिकाव्य के रूप में सुस्थिर होकर आया है। आदिकालीन ऐसे कवि जो गीति
काव्य का सहारा लेते थे वे प्रायः कथा को, नृप-यश-प्रशंसा को या फिर लोक विश्रुत प्रेमाख्यान को गीति काव्य
में ढाल कर उसे गा-गाकर सुनाने के उपक्रम करते दिखाई पड़ते हैं। स्वयं कवि राजा को और आमजन (श्रोता)
को भी अपनी रचना गाकर सुनाता था। शायद यही कारण है कि आदिकालीन काव्य में प्राय: ही एक प्रकार
की सांद्र लयात्मकता के दर्शन होते हैं। रासो काव्यों से लेकर विद्यापति की पदावली-सबमें गेयता का यह तत्व
पूरी विशिष्टता के साथ वर्तमान है। पृथ्वीराज रासो जैसे चरितकाव्य में भी यह गीतिमयता भरी हुई है । रासक
या रासो का अर्थ ही है ऐसा रूपक जो गेय हो । ढोला भारू रा दूहा में प्रेमाख्यान है परंतु वह भी गेय है।
इस प्रकार जन-साधारण में प्रचलित काव्य रूपगत रूढ़ियों को कवियों ने अपने काव्य में रखा है और उसमें
गीतिमयता अंतर्भुक्त की है ताकि जनसाधारण में वह लोकप्रिय हो सके।
हम यह प्रारंभ में ही बता चुके हैं कि आदिकालीन काव्य के मुख्यत: दो रूप मिलते हैं—प्रबंध काव्य
और मुक्तक काव्य । दोनों ही प्रकार के काव्यों की रचना आदिकाल में हुई है। प्रबंध काव्य में विशेष रूप से
दोहा, चौपाई छंदों का उपयोग किया है। सवैया और कवित्त का भी उपयोग कवि करने लगे थे। वस्तुत: यह
कवित्त रासो ग्रंथों में छप्पय के रूप में जाना जाता था। मुक्तक की रचना कवि प्राय: दोहों में करते थे।
चंदबरदाई ही एकमात्र ऐसे कवि आदिकाल के हैं जिन्होंने अपने ‘पृथ्वीराज रासो’ ग्रंथ में रास, रासक, छप्पय,
चौपाई, चर्चरी और दूहा जैसे अनेक प्रकार के छंदों का उपयोग किया है। विलक्षण बात यह है कि चंद ने
कभी-कभी कुंडलिया, रोला गाथा, सोरठा और काव्य जैसे छंदों का सहजता से उपयोग किया है
तत्कालीन काव्य में हिंदी भाषा जो बनने की प्रक्रिया से गुजर रही थी, के मुख्यतः तीन रूप दिखाई पड़ते
हैं : पश्चिमी हिंदी (पिंगल) का रूप, पूर्वी हिंदी का रूप और खड़ी बोली का रूप । यही खड़ी बोली अमीर
खुसरो की मुख्य भाषा थी, जो बाद में हिंदी का अपना रूप बनी। इन अनेक दिशाओं से माल लेकर अपना
रूप निखारने में लगी हिंदी आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे इतिहासकार को यह कहने पर विवश कर गयी—”खड़ी
बोली ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, अवधी, मैथिली आदि भाषाओं के रूपों और प्रत्ययों का इतना भेद होते हुए
भी सब हिंदी के अंतर्गत मानी जाती है। अत: जिस प्रकार हिंदी साहित्य वीसलदेव रासो पर अपना अधिकार
रखता है उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।”
अस्तु संपूर्ण आदिकालीन काव्य की व्यापक बाह्य और आभ्यंतरिक रूपों को देखें तो यह स्पष्ट लगता
है कि हिंदी अपना स्वरूप निखारने में बड़ी शिद्दत से अनजाने ही लगी हुई थी।

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