सिद्ध साहित्य

By | August 5, 2021
सिद्ध से तात्पर्य सीधे बौद्धों की वज्रयानी परंपरा के सिद्धाचार्यो के साहित्य से है जो अपभ्रंश दोहों
तथा चर्यापदों के रूप में उपलब्ध है। इसमें बौद्ध तांत्रिक सिद्धांतों को मान्यता दी गयी है। यद्यपि उन्हीं के
समकालीन शैव नाथ योगियों को भी सिद्ध कहा जाता था, किंतु कतिपय कारणों से हिंदी तथा अन्य कई
प्रांतीय भाषाओं में शैव योगियों के लिये नाथ तथा बौद्ध तांत्रिकों के लिये सिद्ध शब्द प्रचलित हो गया। उसी
प्रसंग में सिद्ध-साहित्य बौद्ध सिद्धाचार्यों के साहित्य का वाचक हो गया। ये सिद्ध विभिन्न प्रकार की
साधनाओं में निष्णात, अलौकिक सिद्धियों से सम्पन्न और चमत्कारपूर्ण अतिप्राकृतिक शक्ति से पूर्ण थे।
अनुभूति के अनुसार ये देवों, यक्षों, डाकिनियों इत्यादि के स्वामी और अजर-अमर थे। इनकी साधना
कृच्छ्राचार की साधना थी। इनकी संख्या चौरासी बताई जाती है परंतु यह संख्या इतिहास सम्मत प्रतीत नहीं
होती । नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इनके गढ़ रहे थे। पूरे देश में इनके अनेक पीठ थे। इनका
समय आठवीं से बारहवीं शती तक माना जाता है। इनके नामों के अंत में ‘पा’ जुटा होता था। राहुल
सांकृत्यायन के प्रमाण के आधारपर अठारह सिद्धों की रचनाएँ मिलती हैं—सरहपा (नालंदा) सवरपा
(विक्रमशिला) भूसुकपा (नालंदा), लुईपा (मगध), विरूपा (मगध), डों विपा (मगध), दारिकपा (डड़ीसा),
गुंडरीपा (डिसुनगर), कुक्कुरीपा (कपिलवस्तु), कमरीपा (उड़ीसा), कण्हपा (बिहार-बंगाल), गोरक्षपा
(गोरखपुर), तन्तिपा (मगध), महीपा (मगध), भादेपा (श्रावस्ती), धामपा (विक्रमशिला), तिलोपा (मगध)
और शान्तिपा (मगध) की रचनाएँ मिलती हैं
सिद्ध-साहित्य मूलत: दो काव्य-रूपों में उपलब्ध है ‘दोहा-कोश और ‘चर्यापद’ । प्रथम में दोहों से
युक्त चतुष्पदियों की कड़वक-शैली मिलती है और द्वितीय में तांत्रिक चर्या के समय गाये जाने वाले पद प्राप्त
होते हैं। सरहपा, कण्हवा, तिलोपा आदि के दोहा-कोश प्राप्त हुए हैं। चर्यापदों का संग्रह एकत्र रूप में प्राप्त
है। इसमें विभिन्न सिद्धाचार्यों की रचनाएँ संग्रहीत हैं। चर्यापदों का संकलन मुनिदत्त ने किया था । सरहपा के
तो दो खंडित दोहा कोश मिलते ही हैं, कुछ दोहे टीकाओं में उद्धृत हैं। कुछ दोहा-जातियाँ बौद्ध-तंत्रों तथा
साधनाओं में मिली हैं। चर्यापद बौद्ध तांत्रिक चर्या के समय गाये जाने वाले पद हैं। ये विभिन्न सिद्धाचार्यों द्वारा
लिखे गये हैं।
सिद्ध साहित्य का सर्वप्रथम पता सन् 1907 ई. में श्री हर प्रसाद शास्त्री को नेपाल में मिला था। सिद्ध
साहित्य में सामान्य रूप से महासुख, सहजामृत, स्वकसविति इत्यादि के साम्प्रदायिक उपदेश ही अधिक दिये गये
हैं। इन लोगों ने प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख की प्राप्ति स्वीकृत की है। इसी से निर्वाण के शून्य,
विज्ञान और महासुख–ये तीन विभाग ठहराये गये हैं। इन्होंने निर्वाण-सुख को सहवास-सुख के ही समानान्तर बताया
है। शक्तिरहित देवताओं के ‘युगनद्ध’ की कल्पना की है। यत्र-तत्र अश्लील मुद्राओं की मूर्तियों की स्थिीत आज
भी मिलती है। रहस्यात्मक प्रवृत्ति की वृद्धि होने के कारण साधकों का समाज ‘श्री समाज’ कहा गया और
भेरवीचक्र’ की श्री वृद्धि-साधना चल पड़ी। इस सिद्धि के लिये किसी नीच शक्ति (स्त्री) का सहवास आवश्यक
मान लिया गया । इस प्रकार धर्म के नाम पर दुराचार पनपने लगा। ये सिद्ध रहस्यमयी प्रवृत्ति के अनुसार ‘काआ
तरुवर पंच विडाल । चंचल चीए पइट्ठो काल” और ‘गंगा जउँना माँझे बहइ रे नाई” का कथन कर चले। शून्य
और विज्ञान के भी वचन इन्होंने कहे हैं-
“शून्य-कूल लई खटें सोते उजाउ । सरहा मनइ गअणे समाअ ।
विज्ञान-भाव ण होइ अभाव न जाई। अइस सँवोडे को पति आइ। सरहपा
तथा “लुई भणइ बढ़ दुलख बिणाणा, तिधातुए विलइ ऊह लागेणा।” लुईपा
सिद्ध साहित्य में मूलतः शांत और शृंगार रस की रचनाएँ ही मिलती हैं। काव्य की कसौटी पर कसने
से पाठक को सर्वथा निराश होना पड़ता है। सर्वत्र उपदेश की ही प्रमुखता है। हिंदी का संत-साहित्य इस
साहित्य की प्रवृत्तियों से अत्यधिक प्रभावित हुआ है। ये सिद्ध भी शास्त्रागम की निंदा करते थे और
शास्त्रज्ञानियों को मूर्ख बताते थे-
‘सत्यागम बहु पढइ सुण बढ़ किं विण जाणइ–कण्हपा।
वस्तुत: सिद्धों के अधिकांश उपदेश जीवन की सामान्य सरणियों, मार्ग की जुता के विरोधी हैं।
संभवत यही कारण है कि साहित्य के अंतर्गत इनकी गणना नहीं की जाती । हाँ, भाषा की दृष्टि से इस
साहित्य का महत्त्व अवश्य है। भाव की तरह ही इस साहित्य की भाषा भी कुतूहलजन्य एवं चाकचिक्य से
भरी हुई है। सीधे जन-मानस पर प्रभाव पैदा करने के उद्देश्य से इन सबने अटपटी भाषा का प्रयोग किया है। यह भाषा मंत्र-स्वभाव वाली, गुह्य और प्रतीकात्मक थी। यह ‘सन्धा भाषा’ के नाम से प्रख्यात् है।
प्रारंभ में यह भी विवादग्रस्त था। कई लोग इसे ‘सन्धा’ भाषा कहते रहे तो कुछ लोग ‘सन्ध्या भाषा’
मानकर इसका अर्थ सन्ध्या के समान अस्पष्ट भाषा मानते थे। हरप्रसाद शास्त्री तथा विनयतोष भट्टाचार्य इसे
‘आलो-आँधारी भाषा’ कहते थे अंधकार और प्रकाश के बीच थोड़ा स्पष्ट और थोड़ा अस्पष्ट बताने का
यह कार्य काफी समय तक चलता रहा था। कुछ विद्वान इस भाषा को ‘संधिदेश की भाषा’ (बिहार और
बंगाल की सीमा की भाषा) बताने की भी कौतुकपूर्ण कल्पनाएँ करने लगे। इसे ‘संधिकाल की भाषा’
(अपभ्रंश और हिंदी के बीच की भाषा) भी कहा गया, परंतु बाद में इसे ‘सन्धा भाषा’ ही शुद्ध रूप कहा
गया । इसे संस्कृत शब्द ‘सन्धाय’ (अभिप्रेत) का अपभ्रंश रूप स्वीकार किया गया और ‘सन्धा भाषा’ का
अर्थ अभिसन्धियुक्त या अभिप्राययुक्त भाषा’ किया। यह भाषा मंत्र-स्वभाव वाली गुह्य प्रकृति से युक्त तथा
प्रतीकों के माध्यम से आगे बढ़ने वाली थी। इसमें प्रतीक विभिन्न स्रोतों से आयात किये गये हैं। ये प्रतीक
मूलत: अर्थसाम्यगत, साधर्म्य मूलक और चर्यागत होते हैं । औपम्यमूलक प्रतीकों से विभिन्न रूपकों की
योजना होती है। विरोधमूलक प्रतीकों का पर्यवसान उलटबासियों में मिलता है। आगे के हिंदी संत-साहित्य
में मिलने वाली उलटबाँसियाँ इन्हीं की देन हैं।
इस प्रकार बंधनों से सर्वथा मुक्त जीवन को सर्वोपरि मानने वाले इन सिद्धों में सरहपा एवं शबरपा दो
थे। इनके अलावा डोम्मिपा, कण्हपा तथा लुईपा आदि सिद्ध कवियों की रचनाएँ भी प्राप्त
होती हैं।
सिद्धों के सहजिया संप्रदाय में मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को महत्त्व देकर एक प्रकार से
स्वच्छंदतावाद का प्रतिपादन हुआ है। इसी मार्ग में आगे आनेवाले गोरखपंथ ने स्वच्छंदतावाद का प्रतिवाद किया
जिसने वज्रयान की अश्लीलता और वीभत्सता को काफी कम किया। इन कवियों की भाषा जरूर साहित्यिक
अपभ्रंश के निकट है। ऐसी भाषा के प्रमुख प्रयोक्ता सिद्ध कवियों में मुख्यतः कण्हपा (इन्हें ही कृष्णपाद
आचार्य भी कहा गया) और सरहपा थे । सरहपा की भाषा का एक दृष्टांत देखें-
“पंडिअ सहल सत्तू बम्खाण्इ। देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ ।
अमणागमण ण तेन बिखंडिअ । तोवि णिलज्ज भण हउँ पंडिअ।”
यहाँ पंडिअ का अर्थ पंडित, सअल का अर्थ समस्त, सत्त का अर्थ सत्य, बुद्ध का अर्थ बुद्धि,
और
‘अमणागमण’ का अर्थ आवागमन है। ‘रहस्य’ के संदर्भ में सरहपा का एक प्रसिद्ध दोहा है-
“जहि मण पवण ण संचरह । रवि ससि णाह पवेस ।
तहि बढे, चित्त विसाम करू, सरहें कहिउ उएस ।।
अर्थात् जहाँ मन और पवन भी नहीं पहुँच सकते, जहाँ सूर्य-चंद्रमा का भी प्रवेश नहीं है, वही अपने
मन को ले जाना चाहिये । वेद-पुरणादि का ज्ञान बघारनेवाले के विषय में कण्हपा कहते हैं-
 “आगम-वेअ-पुणेहि पण्डिअ माण वहन्ति ।
पकक सिरीफले अलिअ जिम, बाहेरी अभमन्ति ।।”
इस प्रकार सिद्ध कवियों ने जहाँ जाति-पाँति का खंडन किया, वहीं शास्त्र, ज्ञान की निरर्थकता बताई।
सद्गुरु की महिमा बताई और गुरु-शिष्य के संबंध को अत्यंत महता प्रदान की। संपूर्ण सिद्ध साहित्य अपनी कई
विशेषताओं को आगे आने वाले हिंदी साहित्य के लिये उपयोग की सामग्री दे गया है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *