हिन्दी में साहित्य के इतिहास-लेखन की परंपरा

By | July 27, 2021
[गार्सी द तासी, ग्रियर्सन, शिवसिंह सेंगर, मिश्र बंधु, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम
कुमार वर्मा, डॉ. नगेंद्र और डॉ गणपति चंद्र गुप्त ]
साहित्य के इतिहास की अवधारणा पिछले छह-सात दशकों से साहित्य-चिंतन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण
अपरंच विवादास्पद समस्या जैसी बनी हुई है। साहित्य के इतिहास का स्वरूप तो विवाद का विषय है ही, अब
तो उसकी आवश्यकता और संभावना को भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। खासकर रूपंवादी आलोचना
के बढ़ते दौर में साहित्येतिहास की असमर्थता और असमर्थ साहित्येतिहास के दोषों की भी इतनी चर्चा हुई है
कि उसे अनावश्यक तथा असंभव तक घोषित करना सरल हो गया है। कई बार तो आलोचना को साहित्य के
बोध और व्याख्या के लिये पर्याप्त कहकर या फिर साहित्य-चिंतन को आलोचना का पर्याय मानकर या फिर
साहित्य के बोध और व्याख्या के संदर्भ में इतिहास तक को अनावश्यक समझ कर साहित्य-चिंतन को ही
आलोचना का पर्याय मान लिया गया है। साहित्येतिहास के विरोधी आलोचक साहित्य की स्वायत्तता, साहित्य
के सौंदर्य-बोधीय मूल्य की शाश्वतता और सार्वभौमिकता के आधार पर ही इतिहास को अनावश्यक मानते हैं।
‘साहित्य-दर्शन’ और ‘साहित्य का विज्ञान’ निर्मित करने वाले आलोचक साहित्य के इतिहास का खंडन करके
साहित्य की ‘साहित्यिकता’ और आंतरिकता को बचाने के प्रयत्न में साहित्य की सामाजिकता की हत्या तक करने
पर तुले हैं; जबकि जी. हार्टमैन जैसे चिंतक का कहना है कि ‘साहित्य का इतिहास’ एक बौद्धिक अनुशासन
के रूप में ही नहीं, साहित्य की रक्षा के लिये भी आवश्यक है,
किंतु आज की स्थिति थोड़ी बदली है। आज के मनुष्य ने तो इतिहास का ही नहीं, इतिहास-विधायक
दृष्टिकोण का भी निर्माण कर लिया है। ऐतिहासिक भौतिकवाद’ जैसा प्रत्यय जीवन-जगत के प्रति ऐसा ही
दृष्टिकोण है जो सर्वव्यापी है। हिन्दी साहित्य में भी इतिहास-लेखन का कार्य लगभग उन्नीसवीं सदी से ही शुरू
हो गया था। इस अर्थ में ऐतिहासिक अध्ययन की हमारी अपनी परंपरा रही है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों से
हिन्दी-साहित्य में इतिहास-ग्रंथ चाहे जैसे भी और जिस रूप में भी मगर निकलते रहे हैं। इन ‘इतिहास-ग्रंथों’
में लेखकों के दृष्टिकोणों और इतिहास लिखने की प्रणालियों में पर्याप्त भिन्नताएँ हैं। कालक्रम से निकले ऐसे
इतिहास-ग्रंथों के ऐसे रूप स्वाभाविक ही रहे । सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि उन्नीसवीं सदी के लगभग
सभी ऐसे इतिहास-ग्रंथ एक प्रकर के कवि वृत्त-संग्रह हैं। ये सारे संग्रह अपने-अपने ढंग से तैयार किये गये हैं।
इस क्रम में सर्वप्रथम नाम फ्रांसीसी लेखक गासी दातासी का आता है। वे एक प्रज्ञावान लेखक थे और
उन्होंने हिन्दी में कवियों के वृत्त की उपयोगिता साहित्य के विकास के लिये आवश्यक समझी थी। सन् 1839
और 1846 ई. में ‘इस्त्वार द ला लितेरात्यूर ऐंदुई ऐं ऐंदुस्तानी’ नामक एक तथाकथित हिन्दी साहित्य का इतिहास अर्थ लिखा । इस पूरी पुस्तक में उसने हिन्दी के कुल स्तर कवियों का नामानुक्रम के साथ एक संग्रह
तैयार किया। यह नामानुक्रम वास्तव में वर्णानुक्रम से किया गया है।
इसके बाद दूसरा नाम आता है शिवसिंह सेंगर का। शिवसिंह सेंगर ने सन् 1877 में शिविसंह सरोज’
नामक एक इतिहास-ग्रंथ की ही तरह का ग्रंथ तैयार किया। इस ग्रंथ में यों ही अस्तव्यस्तापूर्वक हिन्दी के
लगभग एक हजार कवियों का वृत्त तैयार किया हुआ मिलता है। इस ग्रंथ में कवियों का संक्षिप्त जीवन-वृत्त
रेखांकित मिलता है। हाँ, एक बात और यह है कि कवियों के संक्षिप्त जीवन-वृत्त के साथ ही यत्र-तत्र कवियों
की कविताओं के उदाहरण भी इसमें दिये गये हैं।
इन दो प्रयासों के बाद एक महत्त्वपूर्ण नाम आता है जॉर्ज ग्रियर्सन का । ग्रियर्सन वृत्ति से भाषाविद थे
और यहाँ भारत में रहते हुए खासकर उत्तर भारत में कार्य करते हुए उन्होंने बिहार की बोलियों का बड़ा ही
अनोखा अध्ययन किया था। ग्रियर्सन ने सन् 1889 में अपनी एक पुस्तक प्रकाशित की “मॉडर्न वर्नाक्यूलर
लिटरेचर ऑफ नादर्न हिन्दोस्तान’ । यह पुस्तक अपनी विषय-वस्तु को लेकर कोई बहुत मौलिक नहीं है क्योंकि
इसमें शिवसिंह सेंगर लिखित ‘शिवसिंह सरोज’ नामक पुस्तक में संग्रहित कवि-वृत्त परक सामग्री का पूर्ण उपयोग
किया है। कालक्रमानुसार ग्रियर्सन ने इस पूरी सामग्री को एक इतिहास का रूप देने की भरपूर कोशिश की है।
इन संग्रहों को देखने से एक तथ्य उभरकर सामने आता है कि इसके कर्ता का प्रयोजन बहुत दूरगामी
नहीं था। वे कुल मिलाकर इन संग्रहों के द्वारा हिन्दी साहित्य का केवल परिचय देना चाहते थे। ऐसा लगता
है इसी लक्ष्य से ये पुस्तकें लिखी गयी हैं। जाहिर है, जब उद्देश्य ही बहुत व्यापक और गम्भीर नहीं था तो
उनका निर्वचन भी तो वैसा ही होगा। सभी पुस्तकों में कुछ प्रसिद्ध और ज्ञातमात्र कवियों की एक तरह की सूची
बनाकर छाप दी है। उस काल के समस्त साहित्यिक लेखन पर गौर करें तो पता चलेगा कि यह ऐसी प्रवृत्ति
थी जो साहित्य के इतिहास-लेखन में ही नहीं, बल्कि उस युग के समस्त ऐतिहासिक दृष्टिकोण का ही एक अंग
मात्र थी । स्पष्ट है, वहाँ इतिहास का अर्थ अत्यंत सीमित था । इतिहास का सीधा अर्थ था कवि-व्यक्तित्व की
सूची और जिस सूची का एक मात्र उपयोग था कोरी जानकारी मात्र प्राप्त करना । यत्र-तत्र दी जाने वाली
काव्यपरक उदाहरणों की सारणि का उद्देश्य महज काव्य का रसास्वादन कराना था और कुछ नहीं।
आज ऐसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण के उपयोग की बात तो दूर प्रायः तभी उसके कुछ ही दिनों बाद समाज
ने उसे छोड़ दिया । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सांस्कृतिक पुनरुत्थान की लहर ने सारे देश में नयी चेतना ला
दी। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध व्यापक राष्ट्रीय भावना उमड़ उठी।
विदेशियों के विरुद्ध अपने को श्रेष्ठ प्रमाणित करने की आकांक्षा प्रबल हो उठी । वर्तमान तो साथ था
ही, इसलिये उन्होंने अतीत का सहारा लिया । स्वतंत्रता के संग्राम में अपने इतिहास का उपयोग पहली बार करने
की मानसिकता बनाई गयी। यह एक ऐसी प्रवृत्ति उभरकर सामने आई जिसने एक ओर जहाँ अपने अतीत में
छिपे रत्नों को खोजने के लिये प्रेरित किया वहीं दूसरी ओर उन रत्नों को पुराने-से-पुराना प्रमाणित करने एवं
विदेशी प्रतिभाओं की तुलना में गौरवशाली दिखाने का प्रोत्साहन भी दिया। इस भावना ने पूर्ववर्ती सिहासो कंकाल को त्वचा से ढंककर उन्हें आकार प्रदान किया। यह प्रवृति उस युग के साहित्य ही नहीं, सभी विषयों
के इतिहास में देखी जा सकती है। संभवत: इसी प्रवृत्ति की प्रेरणा से सन् 1900-1911 ई. तक की काशी
की ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ ने बड़े व्यापक रूप से अज्ञात कवियों की खोज के काम का अभियान शुरू किया
था। नागरी प्रचारिणी सभा ने अपने इस अभियान के तहत एक रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट इतनी वृहत्
थी कि उसे आठ जिल्दों में प्रकाशित करना पड़ा। यह एक ऐतिहासिक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य था। बाद
में मिश्रबंधु ने उक्त रिपोर्ट के ही आधार पर लगभग पाँच हजार कवियों का एक विशाल वृत्त-संग्रह तैयार
किया। यह वृत्त-संग्रह “मिश्रबंधु विनोद’ नाम से तीन खंडों में प्रकाशित हुआ। इसी के साथ हिन्दी नवरल’
नाम से मिश्रबंधु विनोद का ही सार तथा पूरक बनकर सामने आया । इन सभी प्रयत्नों में भी प्रणाली और ढंग
तो पूर्व की ही तरह है, परंतु इनसे एक तथ्य उभरकर सामने आया कि कवि-संख्या की दृष्टि से हिन्दी-साहित्य
का इतिहास किसी भी दूसरे साहित्य से कमतर और हीन नहीं है। हिन्दी नवरत्न’ ने तो यह भी प्रमाणित कर
दिया कि इन कवियों में ऐसे नवरत्न भी हैं जो ऊँचे में किसी से उन्नीस नहीं हैं।
इसके तुरंत बाद ही पुनर्जागरण की भावना वैयक्तिक धरातल से आगे बढ़कर व्यापक सामाजिक क्षेत्र के
रूप में उतरी महात्मा गाँधी के साथ राष्ट्रीयता की भावना ने विकास को नये चरणों को रखा । विचारों में
सामाजिक चेतना आई । इतिहास में व्यक्तियों के सहारे समूची जाति का कार्य-कलाप दिखाने की चेष्टा होने
लगी। खुद व्यक्ति भी अपनी समस्त परिस्थितियों के साथ वर्णित और चित्रित होने लगा। फिर तो साहित्य, जो
इतिहास के अलग-अलग कवियों की समीक्षाओं का संग्रह मात्र था, भिन्न-भिन्न युगों की राजनीतिक और
सामाजिक परिस्थितियों के वर्णन से भी संवलित हो उठा। एक युग तथा एक प्रकार की रचना करने वाले कवियों
की सामान्य विशेषताओं के अनुसार प्रवृत्तियों तथा युगों का विभाजन किया गया और इन साहित्यिक प्रवृत्तियों
को तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं से संबद्ध करने के प्रयत्न हुए। इस परिवर्तित स्थिति ने हिन्दी
साहित्य के इतिहास-लेखन का एक सर्वथा अभिनव और गम्भीर दौर प्रारंभ करने की भूमिका निर्मित की।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. श्याम सुंदर दास इसी महत्त्वपूर्ण काल के प्रतिनिधि साहित्य-इतिहास के लेखक
हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ सन् 1929 में और डॉ श्याम सुंदर दास का ‘हिन्दी
भाषा और साहित्य’ सन् 1930 में प्रकाशित हुए। वस्तुत: ये दोनों ग्रंथ इस युग प्रतिनिधि इतिहास-ग्रंथ हैं।
इन दोनों में भी आचार्य शुक्ल के इतिहास-ग्रंथ को अत्यधिक महत्त्व का एवं आनेवाले इतिहास-लेखकों के लिये
पथ-प्रदर्शक के रूप में माना गया ।
ऊपर कहा गया है कि मिश्रबंधुओं ने लगभग एक हजार कवियों का जीवन-वृत्त तैयार कर हिन्दी
साहित्य के इतिहास रूपी शरीर का एक ठोस कंकाल खड़ा कर दिया था। आचार्य शुक्ल ने पूर्व में दिये गये
कंकाल के आकार में गर्म रक्त का संचार कर दिया। सच तो यह है कि कंकाल को माँसल बनाने का कार्य
भी शुक्ल जी ने ही किया। निस्संदेह, बनाया हुआ ढाँचा ‘मिश्रबंधु विनोद’ का ही था; सामग्री भी पूरी तरह
वही थी। शुक्ल जी ने उसी संग्रह से अपना संकलन तैयार किया । खोज से प्राप्त नयी सामग्री के अनुसार यत्र-तत्र तिथि, स्थान तथा ग्रंथ-संख्या संबंधी संशोधन और विचार-विश्लेषण भी किया, लेकिन ऐसा प्रतीत
होता है कि आचार्य शुक्ल का मन तथ्यों की पूरी छानबीन की ओर उतना नहीं रमा । उनकी रस-दृष्टि तथा
विवेचनशील प्रतिभा कवियों के मूल्यांकन में अधिक खुलकर सामने आई । कवियों के जीवन-वृत्त और
ग्रंथ-सूची से आगे बढ़कर उन्होंने कवियों की साहित्यिक और रचनात्मक सामर्थ्य का उद्घाटन करने की चेष्टा
की। सभी रचनाकारों की रचनाओं का नमूना देने का ढंग तो लगभग ज्यों का त्यों रहने दिया, परंतु, दिये गये
नमूनों को अधिकाधिक प्रतिनिधि तथा उत्कृष्ट बनाने का प्रयास उन्होंने किया। कवियों के नाम के पहले
क्रम संख्या देने का ढंग भी वही रहने दिया गया है; परंतु प्रवृत्ति साम्य और युग के अनुसार कवियों को समुदायों
में रखकर उन्होंने सामूहिक प्रभाव डालने की ओर ध्यान रखा । इसीलिये प्रवाह से कटे हुए विशिष्ट कवियों को
भी फुटकल खाते में डाल देना पड़ा।
इस प्रकार इतिहास के आदि, मध्य और आधुनिक जैसे कोरे कालपरक विभाजन को उन्होंने वीरगाथा,
भक्ति, रीति और गद्य-काल की भावपरक क्यारियों में पुन: रोपने का उद्यम किया । इतना ही नहीं, इन सबका
सामान्य परिचय देकर एक ऐतिहासिक प्रवाह भी दिखाया। उन्होंने प्रवाह की गति का उत्थान-पतन भी दिखाया
और लोक-संग्रह की कसौटी पर इतिहास के समाजोन्मुख और समाज-पराङ्गमुख युगों में अंतर भी बतलाया।
कुल मिलाकर यह बगैर किसी संशय के कहा जा सकता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जो इतिहास पंचांग
के रूप में प्राप्त हुआ था उसे उन्होंने मानवीय शक्ति से अनुप्राणित कर साहित्य बना दिया ।
डॉ श्यामसुंदर दास अपने इतिहास-लेखन में वह गहराई और बारीकी तो नहीं ला सके, लेकिन उन्होंने
आचार्य शुक्ल के इतिहास के विच्छिन्न प्रवाह को क्रम-संख्या, रचनाओं का नमूना आदि बातें घटाकर
अविच्छिन्न-सा दिखलाना चाहा । हाँ, उन्होंने शुक्लजी की अपेक्षा राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
परिस्थितियों का खाता और अधिक लम्बा कर दिया। फिर तो इन इतिहासों के पीछे-पीछे संक्षिप्त, मध्यम, सरल
और सुबोध-अनेक छात्रोपयोगी इतिहास-पुस्तकें आईं जिनमें मौलिकता नाम मात्र की भी नहीं थी और नकल
छुपाने के लिये यत्किचित खुद शुक्ल जी की तथ्य संबंधी भूलों का सुधार और अधिक-से-अधिक कालों के
नाम-परिवर्तन तक का सुझाव मिलता है। इनकी सीमा भी ऐतिहासिक और युगीन थी 1
परंतु युग-परिवर्तन के साथ ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा पद्धति की सीमाएँ
भी स्पष्ट होने लगीं। वस्तुत: इतिहास की वह प्रणाली उनके जीवन-जगत संबंधी दृष्टिकोण से ही निर्धारित हुई
थी। उसके बाद वाली पीढ़ी को शुक्ल जी के इतिहास में सामाजिक परिस्थितियों, साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा
साहित्यिक व्यक्तित्वों के बीच जो कार्य-कारण संबंधी असंगति दिखायी पड़ने लगी वह उनके और उनके युग
के जीवन-जगत-संबंधी दृष्टिकोण की असंगति थी। राष्ट्रीय आंदोलन का वह गाँधी-युग था जिसमें व्यक्ति और
समाज में यथोचित घनिष्ठ संबंध स्थापित न हो सका था । मध्यवर्गीय व्यक्ति-स्वातंत्र्य-आंदोलन के पीछे शेष
जन-समूह नत्थी भर था। विचार तो व्यापक जन-समाज से भिन्न था ही। यही कारण है कि शुक्ल जी के
इतिहास में सामाजिक परिस्थितियाँ तथा साहित्यकार साथ-साथ रखे जाने पर भी एक-दूसरे से अलग हैं। जिस
युक्ति से वे परिस्थितियों से उत्पन्न बताये जाते हैं, वह सांगत प्रतीत नहीं होती। जैसे भक्त कवियों को
मुसलमानी शासन की दासताजन्य निराशा से उत्पन्न बताना । युग विभाजन करने में शुक्ल जी का औसतवाद’
बाला सिद्धांत भी इसी अलगाव का परिणाम है, और उनके विटकोण की असंगति को और भी उभारकर रख
देता है। एक ही परिस्थिति में विभिन्न काव्य प्रवृत्तियों के अस्तित्व की संगति बैठाने में वे कतई असमर्थ से
थे, संभवतः क्योंकि उन्हें उन परिस्थितियों में पलने वाली परस्पर विरोधी विविध सामाजिक शक्तियों के
अंतर्विरोध का पता ही नहीं था । इसलिये उन्हें अपने इतिहास को हर युग में एक पुटकल खाता खोलना पड़ा।
दृष्टिकोण की इसी सीमा के कारण उनके मूल्यांकन की पदावली भी सीमित अथवा अपरिमयी रही । इसीलिये
अपने युग का प्रतिनिधित्व करता हुआ भी रामचंद्र शुक्ल का इतिहास आगे आने वाले युग के एक सीमा तक
अपूर्ण ही प्रतीत हुआ। फिर भी शुक्ल जी उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से आराम होने वाले भारतीय नवजागरण
के प्रतिनिधि चिंतक है और हिन्दी नवजागरण की प्रगतिशील चेतना के अग्रगामी साहित्य विचारक है। उन्होंने
भारतीय साहित्य में विकसित रचना, आलोचना और इतिहास लेखन का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करते हुए हिन्दी
आलोचना और इतिहास लेखन की सुदद नींव ही नहीं रखी वरन भावी विकास का रास्ता भी तैयार किया। यह
कहा जाता है कि वह अपने समय के हिन्दी के सबसे बड़े आलोचक और इतिहासकार थे। उनके लेखन में
आलोचना और इतिहास के सिद्धांत तथा व्यवहार की विरल एकता दिखाई देती है। आलोचक की ऐतिहासिक
चेतना और इतिहासकार की आलोचनात्मक चेतना की विकासशील एकता से निर्मित साहित्य विवेक शुक्ल जी
के इतिहास और आलोचना संबंधी लेखन की मुख्य विशेषता थी। आचार्य शुक्ल ने रचना और आलोचना की
अनेक परंपराओं के व्यापक अनुभव और अनुशीलन से अर्जित निप्रीत साहित्य विवेक के सहारे हिन्दी साहित्य
के लगभग एक हजार वर्षों के इतिहास की साहित्यिक रचनाओं को असाहित्यिक रचनाओं से अलगाया। नंद
दुलारे बाजपेयी ने इसीलिये ठीक ही लिखा है कि ‘साहित्यिक और असाहित्यिक का भेद जानना हो तो कोई
शुक्ल जी के इतिहास से जाने ।’
हिन्दी साहित्य के इतिहास को हिन्दी भाषा के इतिहास से प्रत्यक्ष जोड़ते हुए आचार्य शुक्ल जी ने
लिखा-“प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।”(हिन्दी
साहित्य का इतिहास-पृष्ठ-7] इसी अपभ्रंश को शुक्ल जी कभी ‘प्राकृताभास हिन्दी’ और कभी पुरानी हिन्दी’
भी कहते हैं। आचार्य शुक्ल जिसे ‘देश भाषा काव्य’ कहते हैं, उसी से हिन्दी साहित्य का आरंभ भी मानते
हैं। आदिकाल की फुटकल रचनाओं और रचनाकारों से शुक्ल जी हिन्दी साहित्य का वास्तविक प्रारम्भ
मानते हैं।
आचार्य शुक्ल ने अपने साहित्य के इतिहास के दृष्टिकोण को जस रूप में रखा है “जबकि प्रत्येक देश
का साहित्य वहाँ की जनता की चित्रवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की
चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चलता है। आदि से अंत तक उन्हीं
चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उसका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास लिये यह बहुत बड़ी चुनौती थी। इतना ही नहीं, संत और पावित काव्य को जाति विरोधी तथा वर्ण विरोधी
दिखलाकर आचार्य द्विवेदी ने वस्तुतः अपने युग में प्रचलित प्राचीन सामंती जीवन मूल्यों पर प्रहार किया । कुल
मिलाकर यह ग्रंथ हिन्दी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों के उद्गम स्थलों का पता देते हुए, सदि और नवीनता के
हास-विकास का संक्षिप्त रचनात्मक कोश जैसा प्रमाणित हुआ। आधुनिक युग के साहित्य की विधायक
शक्तियों को पहचानते हुए भी ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने केवल
गतिविधि का संकेत करके संतोष किया है। निस्संदेह ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ नवीन युग और साहित्य के
नवीन इतिहास की ही भूमिका प्रमाणित हुई।
ऐसा नहीं कि असंगतियों यहाँ भी नहीं है। कई असंगतियाँ तो स्पष्ट परिलक्षित होती हैं जैसे सामाजिक
ढाँचे के विवेचन में आर्य:-अनार्यमूलक जातिगत (रेशनल या रेशियल) सिद्धांतों का सहारा जो 19वीं सदी के
यूरोप का आदर्शवादी दृष्टिकोण था और जिसके कारण आगे चलकर ‘फासिन्म’ का उदय हुआ। किंतु इस ग्रंथ
से यह युक्ति हटा देने पर भी मूल स्थापना में विशेष अंतर नहीं पड़ता। इसी तरह परंपरा-निर्वाह पर संभवतः
अधिक बल दिया हुआ प्रतीत होता है। इन कारणों से नवीन इतिहास की पृष्ठभूमि के रूप में इसे स्वीकार करते
हुए भी इसके आदर्शवादी दृष्टिकोण तथा प्रणाली को स्वीकार करने में कठिनाई प्रतीत होती है। बावजूद इस
सबके आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इतिहासकार आचार्य हजार प्रसाद
द्विवेदी ही हैं, इसमें संदेह नहीं । आचार्य द्विवेदी के इतिहास लेखन का प्रयास परंपरा के पुनर्मूल्यांकन और नये
विकास की संभावनाओं की ओर संकेत करना है। वास्तव में आचार्य द्विवेदी ने साहित्येतिहास से संबंधित
इतिहास-लेखन के लिये मूल तत्वों साहित्य, परंपरा, संस्कृति, इतिहास, मनुष्य भाषा और साहित्य के इतिहास
पर गंभीरता से स्वतंत्र चिंतन किया है।
साहित्य की धारणा के तहत द्विवेदी जी लिखते हैं “यह सत्य है कि वह (साहित्य) व्यक्ति विशेष
की प्रक्रिया से ही रचित होता है, किन्तु और अधिक सच यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है-
(विचार-वितर्क-पृ.278) जाहिर है, द्विवेदी जी प्रतिभा को पूर्ण रूप से वैयक्तिक नहीं मानते । सामाजिक पहुँच
को ही व्यक्ति विशेष की प्रतिभा सूचित करती हैं।
आचार्य द्विवेदी साहित्य के इतिहास में अतीत, वर्तमान और भविष्य के विकासशील संबंध को
पहचानते हैं। साहित्यिक मूल्यांकन में इस विकासशील संबंध को वे नहीं भूलते । वे परंपरा और अतीत को
महत्त्व देते हैं लेकिन परंपरा के नाम पर रूढ़िवाद का समर्थन वह नहीं करते। वह इतिहास में क्रांति, परिवर्तन,
प्रवाह, धारा, प्रगति और विकास आदि की बात करते समय अतीत, वर्तमान और भविष्य के विकासशील संबंध
को याद रखते हैं। साहित्य के इतिहास के विभिन्न कालों की रचनाओं, रचनाकारों और प्रवृत्तियों के
मूल्यांकन में उनका यह दृष्टिकोण स्पष्ट दिखाई पड़ता है। द्विवेदी जी की इतिहास दृष्टि की नवीनता विशेष
रूप से साहित्यिक मूल्यांकन में ही प्रकट हुई है। हाँ, इस संदर्भ में भी द्विवेदी जी की दृष्टि सदैव परंपरा
से अँटकी रहती है। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है कि आचार्य द्विवेदी की इतिहास दृष्टि की एक प्रमुख विशेषता है परंपरा की खोज और उसके रचनात्मक प्रभाव का मूल्यांकन । इसका कारण संभवत: उनका
राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की भावना से जुड़ा होना हो सकता है। एक और भी कारण यह है कि द्विवेदी जी
हिन्दी साहित्य की परंपराओं को भारतीय साहित्य की परंपराओं से जोड़कर देखना चाहते हैं और हिन्दी
साहित्य की समृद्ध विकासशील परंपरा को भारतीयों और विदेशियों के सामने रखना चाहते हैं। उनके
इतिहास-लेखन के उद्देश्य का अंतरर्राष्ट्रीय संदर्भ हिन्दी साहित्य की भूमिका’ के अंतिम वाक्यों से प्रकट
होता है। इस प्रकार द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य की परंपरा के वास्तविक रूप को सामने लाने के उद्देश्य से
ही परंपरा की खोज और मूल्यांकन को अधिक महत्व देते जान पड़ते हैं।
आचार्य द्विवेदी साहित्य के इतिहास को मानव की जय-यात्रा की विकास-कथा कहते हैं और इतिहास
का लक्ष्य इस जय-यात्रा के विकास को शक्ति प्रदान करना मानते हैं। मनुष्य की यह जय-यात्रा सरल, सीधी
और आसान नहीं होती, वह संघर्षों के बीच से आगे बढ़ती है। इसी की अभिव्यक्ति साहित्य में भी होती है।
स्वभावतः साहित्य के इतिहास में संघर्षों के बीच से विकसित होने वाली विकास-कथा का अध्ययन वह
आवश्यक मानते हैं।
द्विवेदी जी की इतिहास-दृष्टि की केंद्रीय विशेषता यह है कि वह हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय
साहित्य के इतिहास के अंग के रूप में देखना चाहते हैं। भारतीय साहित्य का इतिहास और उसके अंग के रूप
में हिन्दी साहित्य या किसी दूसरी भाषा के साहित्य के विकास की अवस्थाओं तथा वास्तविकताओं के आधार
पर ही हो सकता है। द्विवेदी जी के अध्ययन, इतिहास-लेखन और आलेचना के केंद्र में भक्ति-आंदोलन और
उसका साहित्य रहा है। प्रगतिशील आंदोलन से उनकी गहरी सहानुभूति रही है। शायद इसीलिये वे भारतीय
साहित्य के इतिहास की संभवना पर विचार करने में सक्षम हुए और हिंदी साहित्य के इतिहास को भारतीय
साहित्य के इतिहास के अंग के रूप में देखने की नई दृष्टि विकसित कर सके। यह आचार्य द्विवेदी की
इतिहास-दृष्टि की व्यापकता और विकासशीलता का प्रमाण है।
इनके अलावा डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. श्रीकृष्ण लाल, डॉ. नगेंद्र, डॉ. गणपति चंद्र गुप्त एवं आचार्य
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे लोगों ने आचार्य शुक्ल एवं आचार्य द्विवेदी के इतिहास-ग्रंथों को आधार बनाकर
थोड़े बहुत परिवर्तन को रेखांकित करने का लगभग बचकाना प्रयास किया है। इन लोगों ने कभी काल-विभाजन
के आधार, रचनाओं की प्रवृत्ति और कवियों के नामों के संदर्भ में कुछ निजी प्रतिपत्तियाँ जाहिर की हैं। ‘हिन्दी
साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ लिखने वाले डॉ. राम कुमार वर्मा काल-विभाजन को अपनी दृष्टि देने का
प्रयास करते हैं पर इनमें भी प्रमाणहीनता के कारण मौलिक उद्भावना प्रतीत नहीं होती । डॉ. श्रीकृष्ण लाल महज
छात्रोपयोगी (उच्च वर्गीय) रूपरेखा अख्तियार करते हैं। डॉ. नगेंद्र भी जबरिया मौलिक उद्भावना प्रमाणित
करने का यत्न करते हैं। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने जरूर रीतिकाल को ‘शृंगार काल’ कहकर उसके लिये
अपना विशेष मत प्रकट करने का प्रयास किया है। इन सबसे अलग डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ लिखने का दम भरा है, परंतु, यहाँ भी सामग्री आचार्य शुक्ल एवं आचार्य द्विवेदी से ही
गृहीत है। वैज्ञानिक इतिहास कह देने मात्र से डॉ॰ गुप्त कौन-सी नवीनता या मौलिकता प्रकट करना चाहते हैं
यह समझ में सहज ही नहीं आता।
इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हुई हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की परंपरा
अनवरत चलती रही है और अब भी प्रयास चल रहे हैं।

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