UP Board Class 10 Social Science History | मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया

By | April 20, 2021

UP Board Class 10 Social Science History | मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया

UP Board Solutions for Class 10 Social Science History Chapter 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया

खण्ड-III : रोजाना की जिन्दगी, संस्कृति और राजनीति
अध्याय 5.                           मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
 
                                        अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
 
(क) एन०सी०ई० आर०टी० पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न
संक्षेप में लिखें
प्रश्न 1. निम्नलिखित के कारण दें―
(क) वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छपाई यूरोप में 1295 ई० के बाद आई।
(ख) मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
(ग) रोमन कैथोलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी
शुरू कर दी।
(घ) महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस और
सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
उत्तर― (क) 1295 ई० में महान खोजी यात्री मार्कोपोलो चीन में कितने ही वर्ष अपनी खोजें करने के
पश्चात् इटली वापस लौटा। चीन के पास छपाई की वुडब्लॉक या काठ की तख्ती पर छपाई वाली तकनीक
थी। इस तकनीक को मार्कोपोलो अपने साथ लेकर ही अपने देश इटली में आया था। फलत: अब इटली के
लोग भी तख्ती की छपाई वाली तकनीक के द्वारा पुस्तकें निकालने लगे। इसके बाद कुछ ही समय में यह
तकनीक शेष यूरोप में भी फैल गयी। कुलीन वर्ग और भिक्षु-संघों के लोग इस तकनीक द्वारा छपी मुद्रित
पुस्तकों को सस्ती और अश्लील मानते थे। इसी कारण उनके लिए छापी जाने वाली पुस्तकों के अश्लील
संस्करण अभी भी अत्यधिक महँगे ‘वेलम’ या चर्म-पत्र पर ही छपते थे। यूरोप के व्यापारी और
विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने वाले विद्यार्थी सस्ती और मुद्रित पुस्तकों को ही खरीदते थे। इस प्रकार
वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छपाई; यूरोप में 1225 ई० के बाद ही आ सकी।
 
(ख) प्रिंट अथवा छापेखाने द्वारा मुद्रित पुस्तकों का तत्कालीन धर्म के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव हुआ।
इस समय के सुप्रसिद्ध धर्म-सुधारक मार्टिन लूथर ने रोमन कैथोलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना की।
इसी सन्दर्भ में उसने अपनी ‘पिच्चानवें स्थापनाएँ लिखीं। इसकी एक मुद्रित प्रति को विटेनबर्ग के चर्च के
दरवाजे पर भी टाँग दिया गया। इसमें मार्टिन लूथर ने चर्च को शास्त्रार्थ करने के लिए अपनी चुनौती दी।
इसके बाद शीघ्र भी लूथर के लेख काफी संख्या में छापे और पढ़े जाने लगे। मार्टिन के लेखों का प्रभाव एवं
परिणाम यह हुआ कि चर्च में विभाजन हो गया। इस विभाजन के फलस्वरूप ही प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार का
आरम्भ हुआ। इसके उपरान्त कुछ ही सप्ताहों में ‘न्यू टेस्टामेंट’ के लूथर के तर्जुमे या अनुवाद की 5,000
प्रतियाँ बिक गईं। यहाँ तक कि तीन माह के अन्दर ही इसका दूसरा संस्करण छपवाना पड़ा। इससे खुश
होकर मार्टिन लूथर ने प्रिंट के प्रति अपने पूरे मन से कृतज्ञ होकर कहा, “मुद्रण; ईश्वर की दी हुई महानतम
देन है, सबसे बड़ा तोहफा।”
 
(ग) यह छपे हुए लोकप्रिय साहित्य का ही परिणाम था कि इसके फलस्वरूप कम शिक्षित लोग भी धर्म की
भिन्न-भिन्न आख्याओं से परिचित हुए। साथ ही उन्होंने इस सन्दर्भ में अपने विचार और प्रतिक्रियाओं को
व्यक्त करना भी शुरू कर दिया था। यह बात अन्यथा है कि ऐसा करने उनके लिए मुसीबतभरा भी हो सकता
था। इसी प्रकार के एक उदाहरण सोलहवीं शताब्दी में इटली के एक किसान मेनोकियो के बारे में है। उसकी
पुस्तकों को पढ़ने में रुचि उत्पन्न हो चुकी थी और उसने अपने क्षेत्र में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ना शुरू कर
दिया था। उसने जिन पुस्तकों को पढ़ा, उनके आधार पर उसने बाइबिल के नए अर्थ लगाने शुरू कर दिए।
उसने ईश्वर और सृष्टि के बारे में इस प्रकार के विचारों को व्यक्त किया कि कैथोलिक चर्च उससे क्रुद्ध हो
गया। इस प्रकार के धर्म-विरोधी विचारों का दमन करने के लिए रोमन कैथलिक चर्च ने ‘इन्क्वीजीशन’
(धर्म-श्वेहियों को दुरुस्त करने वाली संस्था) को शुरू किया। इसके आधार पर मेनोकियो को दो बार
गिरफ्तार कर लिया गया। यहाँ तक कि उसे अन्त में मौत की सजा दे दी गयी। धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार
की बातें करने वालों और धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रतिक्रियात्मक प्रश्न उठाने वालों से परेशान होकर
रोमन चर्च ने उस समय के पुस्तक छापने वाले प्रकाशकों और पुस्तक-विक्रेताओं पर भी कई प्रकार की
पाबन्दियाँ लगा दी। इसके उपरान्त 1558 ई० से प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची भी बनाई जाने लगी।
 
(घ) 1922 ई० में महात्मा गांधी ने कहा था―“वाणी की स्वतन्त्रता … प्रेस की आजादी … सामूहिकता की
आजादी। भारत सरकार अब जनमत को व्यक्त करने और बनाने के इन तीन ताकतवर औजारों को दबाने की
कोशिश कर रही है। स्वराज, खिलाफत … की लड़ाई, सबसे पहले तो इन संकटग्रस्त आजादियों की लड़ाई
है।” गांधीजी ने उस समय यह इसलिए कहा, क्योंकि अंग्रेज सरकार उस समय लोगों द्वारा अपनी बात को
किसी भी रूप में अभिव्यक्त करने के विरुद्ध थी। यही कारण है कि उस समय सही रूप में लोगों को
अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त नहीं थी। अंग्रेज सरकार के गलत कानूनी, नीतियों अथवा दमन की
कार्यवाहियों के विरुद्ध जब भी भारतीय कुछ कहते तो उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाती थी। यही नहीं
प्रेस की आजादी को समाप्त करने के लिए भी अंग्रेज सरकार ने वर्नाक्युलर या देसी प्रेस ऐक्ट के माध्यम से
अनेक कठोर कानून बनाए।
अंग्रेज सरकार भारत को दीर्घकाल तक अपना उपनिवेश बनाए रखना चाहती थी। इसलिए वह चाहती थी कि
भारतीय कभी भी सामूहिक रूप से शक्तिशाली न हो सके। यही कारण है कि जब भी अवसर प्राप्त हुआ,
अंग्रेजों ने भारत के लोगों, संगठनों आदि में फूट डालकर उन्हें कमजोर करने का प्रयास किया अथवा उनके
विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही की। गांधीजी इन तीनों का महत्त्व समझते थे। इसीलिए उन्होंने यह कहा और इस
दिशा में प्रयास किया कि भारतीयों को अपनी बात कहने या लिखने की आजादी प्राप्त हो तथा यहाँ प्रेस की
आजादी कायम रहे। साथ ही लोगों को संगठन बनाने तथा संगठनात्मक शक्ति के आधार पर भारत को
आजाद कराने के लिए सामूहिकता को भी अत्यन्त आवश्यक माना। उनका यह मानना था कि स्वराज की
लड़ाई का वास्तविक उद्देश्य भी यही है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी हो, यहाँ प्रेस पर कोई पाबन्दी
न हो तथा यहाँ सामूहिकता के लिए सभी आवश्यक अवसर उपलब्ध हों।
 
प्रश्न 2. छोटी टिप्पणी में इनके बारे में बताएँ―
(क) गुटेन्बर्ग प्रेस
(ख) छपी किताब को लेकर इरैस्मस के विचार
(ग) वर्नाक्युलर या देसी प्रेस ऐक्ट
उत्तर― (क) गुटेन्बर्ग प्रेस―प्रिंटिंग के इतिहास में गुटेनबर्ग का अपना विशेष योगदान था। उसके
पिता एक व्यापारी थे और वह एक बड़ी रियासत में पलकर बड़ा हुआ था। वह अपने बाल्यकाल से ही
तेल और जैतून पेरने की मशीन (Press) देखता आया था। बाद के समय में उसने पत्थर पर पॉलिश करने
की कला सीखी। इसके बाद उसने सुनार का काम और अन्त में शीशे को मनचाहे आकारों में गढ़ने के
कौशल में महारत प्राप्त की। अपने इस समस्त ज्ञान और अनुभव का प्रयोग उसके द्वारा अपने एक नए
आविष्कार में किया गया। उसने एक प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया और जैतून प्रेस ही उसके इस प्रिंटिंग
प्रेस का मॉडल बना। इसके अतिरिक्त उसके द्वारा साँचे का उपयोग; अक्षरों की धातु से बनी आकृतियों को
गढ़ने हेतु किया गया। 1448 ई० तक उसने अपनी प्रिंटिंग प्रेस को बनाने का काम पूरा कर लिया था। अपनी
इस प्रिंटिंग प्रेस के द्वारा उसने जिस पहली पुस्तक को छापा, उसका नाम ‘बाइबिल’ था। इस पुस्तक की 180
प्रतियाँ तैयार करने में उसे लगभग तीन वर्ष का समय लगा। फिर भी उस समय के हिसाब से यह गति काफी
तेज थी। यह बात दूसरी है कि यह मशीनी तकनीक हाथ से पुस्तकों को छापने की तकनीक की जगह पूरी
तरह से नहीं ले पाई।
 
(ख) छपी किताब को लेकर इरैस्मस के विचार―लातिन का विद्वान और कैथोलिक धर्म-सुधारक
इरैस्मस; जो कैथोलिक धर्म की ज्यादतियों का आलोचक भी था, वह छपी किताबों या प्रिंट को लेकर बहुत
अधिक आशंकित था। 1508 ई० में उसने ‘एडेजेज’ में लिखा था, “किताबें भिनभिनाती मक्खियों की तरह
हैं, दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ; ये नहीं पहुंच जाती? हो सकता है कि जहाँ-तहाँ, एकाध जानने
लायक चीजें भी बताएँ, लेकिन इसका ज्यादा हिस्सा तो विद्वत्ता के लिए हानिकारक ही है, इनसे बचना
चाहिए … (मुद्रक) दुनिया को सिर्फ तुच्छ (जैसे कि मेरी लिखी) चीजों से ही नहीं पाट रहे, बल्कि
बकवास, बेवकूफ, सनसनीखेज, धर्मविरोधी, अज्ञानी और षड्यंत्रकारी किताबें छापते हैं और उनकी तादाद
ऐसी है कि मूल्यवान साहित्य का मूल्य ही नहीं रह जाता।
 
(ग)वर्नाक्युलर या देसी प्रेस ऐक्ट―भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० में एक व्यापक विद्रोह हुआ।
इस विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रति अंग्रेजों का रवैया बदल गया। वे बहुत अधिक नाराज हो
उठे और उन्होंने प्रेस का मुँह बन्द करने की माँग की। उधर जैसे-जैसे विभिन्न भाषाओं में छपने वाले
भारतीय समाचार-पत्र राष्ट्रवाद के समर्थन में अधिकाधिक लिखने लगे वैसे-वैसे ही औपनिवेशिक
सरकार में प्रेस पर कठोर नियंत्रण सम्बन्धी प्रस्ताव पर बहस तेज होती चली गयी। इसी के
परिणामस्वरूप आइरिश प्रेस-कानून की तरह 1878 ई० में ‘वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट’ लागू कर दिया गया।
इस ऐक्ट के आधार पर सरकार को विभिन्न भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों में छपी रिपोर्ट और
उनके सम्पादकीय को सेंसर करने का व्यापक अधिकार प्राप्त हो गया। इस ऐक्ट के पारित होने के बाद
से भारत की अंग्रेज सरकार ने विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं में छपने वाले अखबारों पर नियमित
रूप से नजर रखनी शुरू कर दी। अखबारों की रिपोर्ट आदि को पढ़ने के बाद यदि किसी रिपोर्ट को
अंग्रेजों के विरुद्ध; अर्थात् बागी घोषित किया जाता था तो ऐसी रिपोर्ट को छापने वाले अखबार को पहले
चेतावनी दी जाती थी। यदि अखबार के मालिक द्वारा उस चेतावनी को अनसुना किया जाता था तो इस
स्थिति में उस अखबार को जब्त किया जा सकता था। यही नहीं छपाई करने वाली मशीनों को भी छीना
जा सकता था।
 
प्रश्न 3. उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था?
(क) महिलाएँ
(ख) गरीब जनता
(ग) सुधारक
उत्तर―(क)महिलाएँ―इस समय भारत में लिखे जाने वाले उपन्यास आदि साहित्य में महिलाओं के
जीवन और उनकी भावनाओं को बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा जाने लगा था। इसलिए विशेष रूप से मध्यम
वर्ग के घरानों की महिलाओं का पढ़ना भी पहले से अधिक हो गया था। जो पिता या पति अपने विचारों और
अपनी भावनाओं से उदार स्वभाव के थे, उन्होंने अपने घरों पर महिलाओं को पढ़ाना आरम्भ कर दिया। जब
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में अनेक छोटे-बड़े शहरों में स्कूल खुले तो महिलाओं को स्कूलों में भी पढ़ाई के
लिए भेजा जाने लगा। यहीं नहीं देश की कई पत्रिकाओं ने लेखिकाओं को भी अपनी पत्रिकाओं में जगह दी।
इसके साथ ही इन पत्रिकाओं में नारी-शिक्षा की आवश्यकता को बार-बार रेखांकित किया गया। इनमें भी
पढ़ाई सम्बन्धी पाठ्यक्रम और आवश्यकता के अनुरूप पाठ्य-सामग्री भी छपती थी। इस प्रकार
मुद्रण-संस्कृति का प्रसार; महिलाओं के लिए अनेक दृष्टियों से उपयोगी सिद्ध हुआ।
 
(ख) गरीब जनता―उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मद्रासी शहरों में वहाँ के चौक-चौराहों पर काफी सस्ती
पुस्तकों की बिक्री की जा रही थी। इसके परिणामस्वरूप निर्धन लोग भी उन सस्ती पुस्तकों को खरीद सकते
थे। इसके अतिरिक्त बीसवीं शताब्दी के अन्त से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना भी की जाने लगी थी।
इसके परिणामस्वरूप भी आम लोगों तक पुस्तकें सुलभ हुईं। ये पुस्तकालय प्राय: शहरों या कस्बों में हुआ
करते थे। कभी-कभी कुछ सम्पन्न गाँवों में भी पुस्तकालय देखने को मिलते थे। यदि उन क्षेत्रों के स्थानीय
अमीर पुस्तकालय खोलते थे तो यह उनके लिए एक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी।
 
(ग) सुधारक―यह उन्नीसवीं शताब्दी का वह समय था, जब समाज-सुधारकों ,धर्म-सुधारकों तथा हिंदू
रूढ़िवादियों के बीच कई विषयों पर तेज बहसें हो रहीं थीं। ये बहस; विधवा-विवाह, सती-प्रथा,
एकेश्वरवाद, ब्राह्मण पुजारीवर्ग और मूर्तिपूजा जैसे मुद्दों पर आधारित थीं। देश के बंगाल प्रान्त में जैसे-जैसे
ये बहस तेज हुईं वैसे-वैसे ही भारी मात्रा में छपी पुस्तिकाओं एवं अखबारों में इन बहसों से सम्बन्धित तर्क
समाज के समक्ष आने लगे। इन्हें अधिक-से-अधिक लोगों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हो सके, इसके लिए
इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छापा गया। इसी उद्देश्य से भारत के महान समाज-सुधारक राजा राममोहन
राय ने 1821 ई० में ‘संवाद-कौमुदी’ को प्रकाशित किया। राजा राममोहन राय के विचारों के विरुद्ध अथवा
उनसे टक्कर लेने के लिए रूढ़िवादियों ने ‘समाचार-चंद्रिका’ का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त 1882
ई० में दो फारसी अखबार भी छापे गए। ये अखबार थे-‘जाम-ए-जहाँ नामा’ व ‘शम्सुल अखबार’।
 
चर्चा करें
प्रश्न 1. अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से
निरंकुशवाद का अंत और ज्ञानोदय होगा?
उत्तर― अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक लोगों के मन में यह विश्वास बन चुका था कि पुस्तकों के
माध्यम से प्रगति और ज्ञानोदय होता है। कितने ही लोगों का तो यह भी मानना था कि पुस्तकों के माध्यम से
यह दुनिया बदल सकती है तथा ये पुस्तकें निरंकुशवाद और आतंक पर आधारित राजसत्ता से समाज को
मुक्ति दिलाकर एक ऐसा दौर लाएँगी, जब संसार में केवल विवेक और बुद्धि का राज होगा। अठारहवीं
शताब्दी में ही फ्रांस के एक प्रसिद्ध उपन्यासकार लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए ने यह घोषणा की कि,”छापाखाना
प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है, इससे बन रही जनमत की आँधी में निरंकुशवाद उड़ जाएगा।” मर्सिए
के उपन्यासों के नायक किताबों को पूरी तरह से पढ़ते हैं, वे किताबों की दुनिया में ही जीते हैं और इसी क्रम
में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार ये नायक प्राय: किताबों को पढ़ने से ही बदल जाते हैं। ज्ञानोदय को लाने
और निरंकुशवाद के आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका के बारे में मर्सिए पूरी तरह से आश्वस्त
थे। इसीलिए उन्होंने कहा, “हे निरंकुशवादी शासको! अब तुम्हारे काँपने का वक्त आ गया है। आभासी
लेखक की कलम के जोर के आगे तुम हिल उठोगे।”
 
प्रश्न 2. कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक
उदाहरण लेकर समझाएँ।
उत्तर― किताबों की सुलभता सम्बन्धी चिंता के बारे में यूरोप और भारत के उदाहरणों का संक्षिप्त
उल्लेख निम्नवत् है―
(क) यूरोप में किताबों के सम्बन्ध में चिंता एवं प्रिंट का डर―जनता के द्वारा प्रिंट की अपने उद्देश्यों के
लिए प्रयोग करने की सम्भावनाओं का समाज के विभिन्न वर्गों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभाव हुआ। यही
कारण था कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति छापेखाने द्वारा मुद्रित पुस्तकों के सम्बन्ध में खुश नहीं था। जिन्होंने
प्रिंट के व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार और पुस्तकों के आने का स्वागत भी किया, वे भी कई दृष्टियों से प्रिंट के
प्रति भयभीत थे। इस प्रकार की चिंताएँ, भय एवं आशंकाएँ; उस समय के धर्म-गुरुओं, सम्राटों, लेखकों और
कलाकारों के द्वारा व्यक्त की जा रही थीं। इसी प्रकार की चिंताएँ, भय आदि समाज में प्रसारित होने वाले
नवीन साहित्य की आलोचना का प्रमुख आधार बनीं। उदाहरण के लिए, लातिन का विद्वान और कैथोलिक
धर्म-सुधारक इरैस्मस; जो कैथोलिक धर्म की ज्यादतियों का आलोचक भी था, वह छपी किताबों या प्रिंट को
लेकर बहुत अधिक आशंकित था। उसके अनुसार इन पुस्तकों का अधिकतर हिस्सा अनुपयोगी और पूर्णत:
व्यर्थ और विद्वत्ता के लिए हानिकारक है। उसे यह भय था कि जो भी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, उनके
परिणामस्वरूप मूल्यवान साहित्य का भी कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।
 
(ख) भारत में किताबों की सुलभता के सम्बन्ध में चिंता― किताबों की सुलभता को लेकर भारत के
अनेक लोग विशेष रूप से बच्चों और महिलाओं को किताबों से दूर रखना चाहते थे। उनकी यह मान्यता यो
कि यदि कन्याएँ पढ़ाई-लिखाई करेंगी तो वे विधवा हो जाएँगी। इसी प्रकार कुछ दकियानूसी विचारों के
मुसलमानों को यह लगता था कि उर्दू के रूमानी अफसाने पढ़कर घरों की औरतें बिगड़ जाएँगी। ऐसा भी
हुआ कि कभी-कभी कुछ विद्रोही महिलाओं ने इस प्रकार के प्रतिबन्धों या बन्दिशों को अस्वीकार भी किया
उत्तरी भारत के एक दकियानूसी विचारों वाले परिवार की एक लड़की की एक कहानी इस प्रकार भी बताई
जाती है, जिसने गुपचुप तरीकों से न केवल पढ़ना सीखा, बल्कि अपनी कलम से लिखा भी। उसके खानदान
वाले तो केवल यही चाहते थे कि वह बस अरबी कुरान को पढ़े। परन्तु यह उसे बिलकुल भी समझ नहीं
आता था। इसीलिए उसने अपनी उस जुबान को पढ़ने की जिद की, जो उसकी अपनी जुबान थी। इसी प्रकार
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में पूर्वी बंगाल में एक कट्टर रूढ़िवादी परिवार में ब्याही कन्या रशसुन्दरी देवी
के बारे में बताया जाता है कि उसने अपनी रसोई में छिप-छिपकर पढ़ना सीखा। बाद के समय में इसी
रशसुन्दरी ने ‘आमार जीवन’ नामक अपनी आत्मकथा भी लिखी। इस आत्मकथा का प्रकाशन 1876 ई० में
हुआ। यह बंगाली भाषा में प्रकाशित होने वाले सबसे पहली आत्मकथा थी।
 
प्रश्न 3. उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
उत्तर―उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का निम्नलिखित दृष्टियों से प्रभाव
हुआ―
1. उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मद्रासी शहरों में वहाँ के चौक-चौराहों पर काफी सस्ती पुस्तकों की
बिक्री की जा रही थी। इसके परिणामस्वरूप निर्धन लोग भी उन सस्ती पुस्तकों को खरीद सकते थे।
 
2. इसके अतिरिक्त बीसवीं शताब्दी के अन्त से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना भी की जाने लगी
थी। इसके परिणामस्वरूप भी आम लोगों तक पुस्तकें सुलभ हुईं। ये पुस्तकालय प्राय: शहरों या
कस्बों में हुआ करते थे। कभी-कभी कुछ सम्पन्न गाँवों में भी पुस्तकालय देखने को मिलते थे। यदि
उन क्षेत्रों के स्थानीय अमीर पुस्तकालय खोलते थे तो यह उनके लिए एक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती
थी।
 
3. पुस्तकों के माध्यम से गरीबों में पढ़ने के प्रति रुचि जाग्रत हुई। साथ ही उन्हें अधिकाधिक साक्षर होने
की प्रेरणा भी प्राप्त हुई।
 
4. ज्योतिबा फूले आदि समाज-सुधारकों की साहित्य को पढ़कर उन्हें जाति-प्रथा आदि सामाजिक
बुराइयों के कारणों एवं प्रभावों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ
और वे इस सम्बन्ध में सचेत हुए।
 
5. धर्म-सुधारकों द्वारा प्रकाशित साहित्य ने उन्हें भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों आदि के
बारे में परिचित कराया। इसके फलस्वरूप वे तर्क और विवेक के आधार पर सही दिशा में सोचने के
लिए प्रेरित हुए।
 
6. गरीबों और मजदूरों ने केवल मुद्रित साहित्य का अध्ययन ही नहीं किया, बल्कि प्रिंट के माध्यम से
अपने विचारों को व्यक्त भी किया। कानपुर के मिल-मजदूर काशीबाबा ने 1938 ई० में छोटे और
बड़े सवाल’ लिखकर तथा उनका मुद्रण करवाकर जातीय एवं वर्गीय शोषण के बीच का सम्बन्ध या
रिश्ता समझाने का प्रयत्न किया। 1935 ई० से 1955 ई० के मध्य एक और मिल-मजदूर ने
‘सुदर्शन-चक्र’ के नाम से अपनी लेखनी चलाई। उनका लेखन ‘सच्ची कविताएँ’ नाम से एक संग्रह
में छापा गया।
 
7. बंगलौर के सूती मिल के मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के विचार से पुस्तकालयों की स्थापना
करवाई। इसकी प्रेरणा उन्हें बंबई के मिल-मजदूरों से प्राप्त हुई थी।
 
8. मिल-मजदूरों की साहित्य एवं साक्षरता के प्रति रुचि को तत्कालीन समाज-सुधारकों द्वारा संरक्षण
प्राप्त हुआ। अपना संरक्षण प्रदान करने के पीछे उन समाज-सुधारकों का मुख्य उद्देश्य एवं प्रयास
यह था कि मजदूरों की नशाखोरी समाप्त हो, उनमें साक्षरता आए और उन तक राष्ट्रवाद का संदेश
भी सही समय पर पहुँच जाए।
 
प्रश्न 4. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
उत्तर―मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में निम्नलिखित दृष्टियों से सहायता की-
1. 1870 ई० के दशक तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर अपने भाव
को दर्शाने वाले कैरिकेचरों और कर्टूनों की छपाई भी होने लगी थी। इन कैरिकेचरों और कार्टूनों में से
कुछ में शिक्षित भारतीयों की पश्चिमी पोशाकों और उनकी पश्चिमी अभिरुचियों का मजाक उड़ाया
जाता था। इनमें से कुछ में समाज में होने वाले कुछ सामाजिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में भय का भाव
भी दिखाई देता था।
 
2. उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से जाति-भेद के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की पुस्तिकाओं और
निबन्धों में लिखा जाने लगा था। देश के महाराष्ट्र प्रान्त में ‘निम्न-जातीय’ आन्दोलनों के मराठी प्रणेता
के रूप में ज्योतिबा फुले एक सुप्रसिद्ध नाम था। उन्होंने 1871 ई० में जाति-प्रथा सम्बन्धी अत्याचारों
पर आधारित अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’ लिखी।
 
3. इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी में ही महाराष्ट्र में भीमराव अम्बेडकर और मद्रास में ई०वी० रामास्वामी
नायकर (जो पेरियार के नाम से बेहतर जाने जाते हैं) जाति-प्रथा पर अपनी अत्यन्त प्रभावपूर्ण
कलम चलाई। उन्होंने अपनी पुस्तकों आदि में जो भी लिखा, उसे सारे भारत में पढ़ा गया।
 
4. इसके साथ ही स्थानीय विरोध आन्दोलनों और सम्प्रदायों के चिंतकों ने भी प्राचीन धर्मग्रंथों की
आलोचना करते हुए एक नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने की मुहिम को आगे बढ़ाया।
इसके लिए उन्होंने अनेक लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ एवं गुटकों को छपवाया।
 
5. विभिन्न राष्ट्रवादी विचारों वाले नेताओं और राजनीतिक संगठनों ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना
को विकसित करने के लिए मुद्रण-संस्कृति का व्यापक रूप में प्रयोग किया।
 
6. राष्ट्रवादी नेताओं और क्रांतिकारियों के द्वारा प्रसारित साहित्य ने भारतीयों को आजादी प्राप्त करने की
दिशा में सक्रिय किया और उनके राष्ट्र, आजादी, आत्म-गौरव के भाव आदि की आवश्यकता को
अनुभूत कराया।
 
परियोजना कार्य
प्रश्न पिछले सौ सालों में मुद्रण संस्कृति में हुए अन्य बदलावों का पता लगाएँ। फिर इनके बारे में
यह बताते हुए लिखें कि वे क्यों हुए और इनके कौन-से नतीजे हुए?
उत्तर― पिछले सौ सालों में मुद्रण संस्कृति में हुए अन्य बदलावों, उनके कारणों और परिणामों का
संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है―
(क) पिछले सौ सालों में मुद्रण संस्कृति में हुए बदलाव―पिछले सौ सालों में मुद्रण संस्कृति में हुए
बदलावों का पता लगाने हेतु यहाँ अठारहवीं, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में हुए आविष्कारों या परिवर्तनों
का उल्लेख किया जा रहा है―
1. अठारहवीं शताब्दी के मुद्रण सम्बन्धी परिवर्तन या आविष्कार―अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम
वर्षों में मुद्रण सम्बन्धी ग्राफिक तकनीकी तथा ग्रफिक्स तैयार करने में सहायक वस्तुओं आदि के
क्षेत्र में कई उल्लेखनीय आविष्कार हुए। उदाहरण के लिए, बीविक ने इनग्रेविंग टूल्स और
सेनेपिल्डर ने लिथोग्राफी का आविष्कार किया। इसी प्रकार ब्लैक के द्वारा रीलिफ इचिंग को तैयार
किया।
 
2. उन्नीसवीं शताब्दी के मुद्रण सम्बन्धी परिवर्तन या आविष्कार―उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में
स्टैनहोप, जॉर्ज ई० वलेमर, कोईंग तथा कुछ अन्य लोगों द्वारा एक नवीन प्रकार की टाइप-प्रेस का
निर्माण किया, जो उस समय की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।
इसी प्रकार ब्रायन डॉनकिन ने फाउड्रिनर मशीन का वाणिज्यिक क्षेत्र में सफलतापूर्वक प्रयोग करके दिखाया
और कम्पोजिशन रोलर का आविष्कार किया।
 
3. बीसवीं शताब्दी के मुद्रण सम्बन्धी परिवर्तन या आविष्कार―बीसवीं शताब्दी में अब अधिकांश
पुस्तकें, पत्रिकाएँ आदि लिथोग्राफी ऑफसेट तकनीकी के आधार पर प्रिंट की जाती हैं। इसके
अतिरिक्त कुछ अन्य प्रिंट-तकनीकी भी हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित है―
(i) पलेक्सोग्राफी―इस तकनीकी का प्रयोग पैकेजिंग, लेबल व समाचार-पत्रों के लिए होता है।
(ii) रीलिफ प्रिंट―यह मुख्यत: कैटलॉग के लिए प्रयुक्त होती है।
(iii) स्क्रीन प्रिंटिंग―यह टी-शर्ट से लेकर फर्श की टाइल्स तक के मुद्रण में काम आती है।
(iv) रोटो ग्रेवर―इसका प्रयोग विशेष रूप से पत्रिकाओं और पैकेजिंग हेतु किया जाता है।
(v) इंकजेट―यदि कम संख्या में पुस्तकों का मुद्रण करना हो अथवा फर्श की टाइल्स या लिफाफों पर
प्रिंटिंग करनी हो तो इस तकनीकी को प्रयुक्त किया जाता है।
(vi) लेजर प्रिंटिंग―इसका प्रयोग मुख्य रूप से ऑफिस के कार्यों तथा एकाउंट्स सम्बन्धी कार्यों में
किया जाता है। डायरेक्ट मेल कम्पनी द्वारा पत्र, कूपन आदि का मुद्रण करने के लिए भी इसका
प्रयोग होता है।
(vii) ग्रेवर प्रिंटिंग―इस तकनीकी का प्रयोग उच्चकोटि के मुद्रण; जैसे-पत्रिकाएँ, मेल-ऑर्डर,
कैटलॉग, पैकेजिंग, फैब्रिक तथा वॉल-पेपर के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त डाक-टिकटों
और प्लास्टिक की विभिन्न प्रकार की सजावटी लैमिनेट के लिए भी ग्रेवर प्रिंटिंग का प्रयोग होता है।
(viii) डिजिटल प्रिंटिंग―यह एक उच्चस्तरीय प्रिंटिंग तकनीकी है। इसका प्रयोग घरेलू कार्यों हेतु,
कार्यालयों के लिए तथा इंजीनियरिंग सम्बन्धी कार्यों के लिए किया जाता है। छोटे और बड़े दोनों ही
प्रकार के फॉरमेट हेतु इसे सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया जा सकता है।
इनके अतिरिक्त भी कुछ और मुद्रण-तकनीकियाँ आविष्कृत की गयी हैं। उदाहरण के लिए, लाइन प्रिंटिंग,
डेजी व्हील, डॉट मैट्रिक्स, हीट ट्रांसफ तथा ब्लू प्रिंट।
 
(ख) मुद्रण संस्कृति के बदलावों के कारण एवं परिणाम― यह हम जानते हैं कि आवश्यकता
ही आविष्कार की जननी है। मुद्रण के क्षेत्र में हुए बदलाव भी कुछ इसी प्रकार की आवश्यकताओं का परिणाम
हैं। एक समय था, जब हस्तलिखित पांडुलिपियों का ही प्रयोग किया जाता था। परन्तु ये पांडुलिपियाँ; केवल
उस समय के अमीरों, कुलीन वर्गों एवं विद्वानों तक ही सीमित थीं।
1295 ई० में जब मार्कोपोलो अपनी चीन की यात्रा के उपरान्त अपने देश इटली वापस लौटा तो वह अपने
साथ चीन से वुडब्लॉक नामक वह तकनीक लेकर आया, जिसने मुद्रण के संसार का सबसे पहला अध्याय
आरम्भ किया। इस तकनीक ने पुस्तकों की बड़ी संख्या में छपाई को सुलभ बनाया। धीरे-धीरे इटली से छपाई
की यह तकनीक सारे यूरोप के देशों में फैल गयी और वहाँ भी इस तकनीकी की सहायता से विभिन्न प्रकार
की पुस्तकें आदि छापी जाने लगीं।
एशिया एवं यूरोपीय बाजारों में पुस्तकों के आने से उनकी माँग में इतनी अधिक वृद्धि होती चली गयी कि अब
किसी नई मुद्रण तकनीकी की आवश्यकता का अनुभव होने लगा। परिणामस्वरूप 1430 ई० के दशक में
स्ट्रेसबर्ग के योहान गुटेन्बर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का निर्माण किया, जिसने मुद्रण के संसार में एक प्रकार से क्रांति
ही ला दी। इसके उपरान्त की सौ वर्षों की अवधि में यूरोप के अधिकांश देशों में छापेखाने लग गए। इन
छापेखानों में वृद्धि के साथ ही पुस्तकों की संख्या में भी निरन्तर वृद्धि होती चली गयी। यहाँ तक कि पन्द्रहवीं
शताब्दी के दूसरे भाग में ही यूरोप के बाजार में दो करोड़ मुद्रित पुस्तकें छपकर आ गयीं। सोलहवीं शताब्दी
में इनकी संख्या दस गुनी; अर्थात् बीस करोड़ हो गयी। इसके बाद मुद्रण तकनीकी में निरन्तर प्रगति होती
चली गयी और इन मुद्रण तकनीकियों के माध्यम से विभिन्न प्रकार का मुद्रण किया जाने लगा।
मुद्रण-संस्कृति में जो भी बदलाव आए, उनके परिणामों या प्रभाव निम्नलिखित हैं―
1. मुद्रण के परिणामस्वरूप एक नया पाठक-वर्ग तैयार हुआ। छपाई से पुस्तकों आदि की कीमत में भी
कमी आई। बाजार किताबों से भर गए और उनके पाठकों की संख्या में भी अपार वृद्धि होती चली
गयी।
2. किताबों तक लोगों की पहुँच आसान होने से पढ़ने की एक नयी संस्कृति विकसित हुई। इसके साथ
ही विचारों और तर्क-वितर्क, वाद-विवाद और चर्चाओं के द्वार खुले।
3. छपे हुए संदेशों के माध्यम से लोगों को अलग ढंग से सोचने के लिए अथवा कार्यवाहियों के लिए
प्रेरित किया जाने लगा, जिसका कई दृष्टियों से सम्पूर्ण विश्व में व्यापक प्रभाव हुआ।
4. मुद्रित किए गए लोकप्रिय साहित्य के द्वारा कम शिक्षित लोग भी धर्म की अलग-अलग व्याख्याओं से
परिचित हुए, जिससे धर्म के क्षेत्र में एक नई वैचारिक क्रांति हुई। लोग आडम्बरों और धर्म की
अंधविश्वास पर आधारित कुरीतियों से बचने लगे।
5. पुस्तकों की उपलब्धता के परिणामस्वरूप ही साक्षरता की दर में वृद्धि हुई। अठारहवीं शताब्दी के
अंत तक ही सारे यूरोप में साक्षरता की दर 80 प्रतिशत तक हो गयी।
6. अलग-अलग रुचियों और आवश्यकताओं वाले पाठक-वर्ग के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण
पाठ्य-सामग्री सुलभ हुई।
7. उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान छापेखाने की तकनीकी में निरन्तर अनेक प्रकार के सुधार हुए। इस
शताब्दी के अन्त तक ऑफसेट प्रेस भी आ गयी। इससे रंगीन और त्वरित छपाई भी होनी शुरू हो
गयी। विशेष रूप से समाचार-पत्रों के मुद्रण में एक प्रकार की क्रांति ही आ गयी।
8. वर्तमान में मुद्रण; केवल कागज तक ही सीमित नहीं है, बल्कि प्लास्टिक, फर्श की टाइल्स, रसोई के
सामान आदि पर भी विभिन्न प्रकार की आकर्षक छपाई हो रही है।
9. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आयी कम्प्यूटर क्रांति ने मुद्रण के संसार को भी एक नयी तकनीक
सुलभ कराई।
10. आज उपलब्ध विभिन्न डिजिटल तकनीक; जैसे―जेरॉक्स आई॰जेन-3, कोडैक नेक्सप्रेस,
एच०पी० इंडिगो, डिजिटल प्रेस सीरीज आदि ने सभी प्रकार के कार्य को सरलता से करना सम्भव
बना दिया है।
11. अब न केवल बड़े-बड़े उद्योग, बल्कि एक आम व्यक्ति भी अपनी आवश्यकता के अनुरूप उच्च
गुणवत्ता वाला मुद्रण सरलता से कर सकता है।
 
(ख) अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
                                      बहुविकल्पीय प्रश्न
 
1. मुद्रण की सबसे पहली तकनीकी किस देश में विकसित हुई?
(क) जापान में
(ख) चीन में
(ग) भारत में
(घ) कोरिया में
                   उत्तर―(ख) चीन में
 
2. 768 ई० से 770 ई० के मध्य चीन के बौद्ध-प्रचारक किस देश में छपाई की तकनीक लेकर
आए?
(क) भारत में
(ख) अमेरिका में
(ग) इण्डोनेशिया में 
(घ) जापान में
                  उत्तर―(घ) जापान में
 
3. 1295 ई० में कौन-सा खोजी यात्री चीन से इटली वापस लौटकर आया?
(क) वास्को-डि-गामा 
(ख) गुटेन्बर्ग
(ग) मार्कोपोलो 
(घ) कोलम्बस
                   उत्तर―(ग) मार्कोपोलो
 
4. निम्नलिखित में से किसके द्वारा प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया गया?
(क) रदरफोर्ड
(ख) गुटेनबर्ग 
(ग) जेम्सवाट 
(घ) मार्कोपोलो
                    उत्तर―(ख) गुटेन्बर्ग
 
5. जापान की सबसे प्राचीन पुस्तक का क्या नाम है?
(क) डायमंड-सूत्र
(ख) बाइबिल 
(ग) चैपबुक 
(घ) पिकविक
                   उत्तर―(क) डायमंड-सूत्र
 
6. मार्टिन लूथर थे―
(क) समाज-सुधारक 
(ख) शासक 
(ग) धर्म-सुधारक
(घ) वैज्ञानिक
                  उत्तर―(ग) धर्म-सुधारक
 
7. मार्टिन लूथर ने किससे सम्बन्धित कुरीतियों की आलोचना की?
(क) जर्मनी की
(ख) समाज की 
(ग) शिक्षा की
(घ) चर्च की
                 उत्तर―(घ) चर्च की
 
8. ‘वेलम’ इनमें से क्या है?
(क) ताम्र-पत्र 
(ख) भोज-पत्र 
(ग) चर्म-पत्र 
(घ) काष्ठ-पत्र
                    उत्तर―(ग) चर्म-पत्र
 
9. गुटेन्बर्ग के द्वारा बाइबिल की कितनी प्रतियाँ तैयार की गयीं?
(क) 146 प्रतियाँ
(ख) 180 प्रतियाँ
(ग) 162 प्रतियाँ 
(घ) 192 प्रतियाँ
                      उत्तर―(ख) 180 प्रतियाँ
 
10. ‘बिब्लियोथीक ब्ल्यू’ नामक सस्ते कागज पर छापी जाने वाली छोटे आकार की पुस्तकों का
चलन किस देश में था?
(क) जापान में 
(ख) इंग्लैंड में
(ग) फ्रांस में
(घ) रूस में
                उत्तर―(ग) फ्रांस में
 
11. लुई सेबेस्तिएँ मार्सिए थे―
(क) उपन्यासकार 
(ख) नाटककार 
(ग) चित्रकार
(घ) एक कवि
                  उत्तर―(क) उपन्यासकार
 
12. योहान गुटेन्बर्ग की नई प्रिंटिंग प्रेस तकनीक का मॉडल कौन-सी मशीन बनी?
(क) सरसों का तेल पेरने की मशीन
(ख) जैतून पेरने की मशीन
(ग) सिलाई मशीन
(घ) पंचिंग मशीन
                       उत्तर―(ख) जैतून पेरने की मशीन
 
13. सोलहवीं शताब्दी में यूरोप के बाजार में कितनी मुद्रित पुस्तकें आईं?
(क) दो करोड़ पुस्तकें
(ख) पाँच करोड़ पुस्तकें
(ग) दस करोड़ पुस्तकें
(घ) बीस करोड़ पुस्तकें
                              उत्तर―(घ) बीस करोड़ पुस्तकें
 
14. किस शताब्दी के आरम्भ में सार्वजनिक पुस्तकालय खुलने लगे?
(क) सोलहवीं शताब्दी
(ख) अठारहवीं शताब्दी
(ग) बीसवीं शताब्दी
(घ) ये सभी असत्य
                           उत्तर―(ग) बीसवीं शताब्दी
 
15. ब्रिटेन में छपाई की तकनीक किस देश से आई?
(क) भारत से
(ख) इटली से
(ग) जापान से
(घ) मलेशिया से
                      उत्तर―(ख) इटली से
 
16. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य न्यूयॉर्क के रिचर्ड एम0 हो ने किसका आविष्कार किया था?
(क) कागज का
(ख) प्रिंटिंग तकनीक का
(ग) ऑफसेट प्रेस का
(घ) पहली प्रिंटिंग प्रेस का
                                   उत्तर―(ग) ऑफसेट प्रेस का
 
17. हाथ के कागज पर हस्तलिखित पुस्तकों को कहा जाता है―
(क) गैली
(ख) पांडुलिपि
(ग) प्लाटेन
(घ) वेलम
             उत्तर―(ख) पांडुलिपि
 
18. ‘पंचांग के द्वारा जानकारी प्राप्त होती है―
(क) सूर्य की गति की
(ख) ज्वारभाटा के समय की
(ग) चन्द्रमा की गति की
(घ) ये सभी सत्य
                      उत्तर―(घ) ये सभी सत्य
 
19. 1860 ई० के दशक में कैलाशबासिनी देवी ने किसके बारे में लिखा?
(क) निरंकुशवाद के बारे में
(ख) महिलाओं की दयनीय दशा के बारे में
(ग) दहेज-प्रथा के बारे में
(घ) जाति-प्रथा के बारे में
                                  उत्तर―(ख) महिलाओं की दयनीय दशा के बारे में
 
20. रोमन चर्चा में इनमें से किस वर्ष से प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची बनाकर रखी जाने लगी?
(क) 1558 ई० से 
(ख) 1568 ई० से 
(ग) 1578 ई० से
(घ) 1588 ई० से
                         उत्तर―(क) 1558 ई० से
 
21. चैपबुक्स बेचने वालों को किस देश में चैपमेन’ कहा जाता था?
(क) जापान में 
(ख) जर्मनी में
(ग) इंग्लैंड में
(घ) कोरिया में
                   उत्तर―(ग) इंग्लैंड में
 
22. रिचर्ड एम० हो के पास निम्नलिखित में से किस आकार का प्रिंटिंग प्रेस था?
(क) गोलाकार
(ख) बेलनाकार
(ग) शंक्वाकार 
(घ) वर्गाकार
                   उत्तर―(ख) बेलनाकार
 
23. भारत में प्रिंटिंग प्रेस किस शताब्दी में आई?
(क) सोलहवीं शताब्दी में
(ख) सत्रहवीं शताब्दी में
(ग) अठारहवीं शताब्दी में
(घ) उन्नीसवीं शताब्दी में
                                उत्तर―(क) सोलहवीं शताब्दी में
 
24. ‘बंगाल-गजट’ नामक पत्रिका का सम्पादन किसके द्वारा किया गया था?
(क) जेन ऑस्टिन
(ख) जेम्स ऑगस्टस हिक्की
(ग) राजा राममोहन राय
(घ) ताराबाई सिंदे
                         उत्तर―(ख) जेम्स ऑगस्टस हिक्की
 
25. तमिल भाषा में डच प्रोटेस्टेंट धर्म-प्रचारकों के द्वारा कितनी पुस्तकों का प्रकाशन किया गया?
(क) 32 पुस्तकों का 
(ख) 36 पुस्तकों का 
(ग) 40 पुस्तकों का 
(घ) 42 पुस्तकों का
                          उत्तर―(क) 32 पुस्तकों का
 
26. उन्नीसवीं शताब्दी में उपन्यास का अहम पाठक किसे माना जाता था?
(क) पुरुषों को
(ख) बच्चों को 
(ग) महिलाओं को
(घ) वृद्धों को
                 उत्तर―(ग) महिलाओं को
 
27. “पेनी मैगजीन’ का प्रकाशन विशेष रूप से किसके लिए किया गया था?
(क) किसानों के लिए
(ख) छात्रों के लिए
(ग) महिलाओं के लिए
(घ) मजदूरों के लिए
                         उत्तर―(घ) मजदूरों के लिए
 
28. तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ का सर्वप्रथम मुद्रित संस्करण कहाँ से प्रकाशित
हुआ था?
(क) दिल्ली से
(ख) कानपुर से
(ग) कलकत्ता से
(घ) इलाहाबाद से
                        उत्तर―(ग) कलकत्ता से
 
29. राजा राममोहन राय के द्वारा ‘संवाद-कौमुदी’ नामक पुस्तक की रचना की गयी थी―
(क) 1819 ई० में
(ख) 1821 ई० में
(ग) 1832 ई० में
(घ) 1854 ई० में
                      उत्तर―(ख) 1821 ई० में
 
30. ‘गुलामगिरी’ नामक पुस्तक किस सामाजिक प्रथा पर आधारित है?
(क) जाति-प्रथा
(ख) बाल-विवाह प्रथा 
(ग) दहेज-प्रथा
(घ) इनमें से कोई नहीं
                             उत्तर―(क) जाति-प्रथा
 
31. ‘केसरी’ नामक पत्रिका के सम्पादन पर निम्नलिखित में से किसे 1908 ई० में कैद कर
लिया गया?
(क) गोपालकृष्ण गोखले
(ख) महात्मा गांधी
(ग) बालगंगाधर तिलक
(घ) विनोबा भावे
                       उत्तर―(ग) बालगंगाधर तिलक
 
32. ‘देवबंद सेमिनरी’ नामक संस्था की स्थापना किस वर्ष की गयी?
(क) 1832 ई० में 
(ख) 1845 ई० में 
(ग) 1855 ई० में 
(घ) 1867 ई० में
                       उत्तर―(घ) 1867 ई० में
 
33. निम्नलिखित में से किस देश में उपन्यास सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ?
(क) चीन में
(ख) फ्रांस में 
(ग) भारत में
(घ) बेल्जियम में
                      उत्तर―(ग) भारत में
 
34. ‘स्टेट्समैन’ नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन किस वर्ष शुरू हुआ?
(क) 1870 ई० में 
(ख) 1877 ई० में
(ग) 1887 ई० में, 
(घ) 1897 ई० में
                       उत्तर―(ख) 1877 ई० में
 
                                  अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. किन्हीं ऐसे दो देशों के नाम लिखिए, जहाँ मुद्रण की सबसे पहली तकनीक विकसित हुई।
उत्तर― मुद्रण की सबसे पहली तकनीक का विकास करने वाले देशों के नाम हैं-चीन और जापान।
 
प्रश्न 2. जापान में मुद्रित सबसे पहली पुस्तक का नाम लिखिए।
उत्तर―जापान में मुद्रित सबसे पहली पुस्तक का नाम ‘डायमंड-सूत्र’ था। यह 868 ई० में जापान में
छपी प्राचीनतम बौद्ध पुस्तक थी। इसमें पाठ की छः शीटों के साथ ही काठ पर खुदे चित्र भी हैं।
 
प्रश्न 3. “खुशनवीसी’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर―‘खुशनवीसी’ हाथ से बड़े ही सुगठित और सुन्दर अक्षरों में लिखी जाने वाली कलात्मक
लिखाई को कहा जाता था। इसे लिखने वालों को ‘खुशनवीस’ कहा जाता है।
 
प्रश्न 4. जापान में मुद्रण तकनीकी का सर्वप्रथम कब और किसने प्रचलन किया?
उत्तर―जापान में मुद्रण तकनीकी का सर्वप्रथम 768 ई०-770 ई० के मध्य चीन के बौद्ध मिशा
मिशनरियों ने प्रचलन किया था। यह हाथ से मुद्रण की तकनीक पर आधारित थी।
 
प्रश्न 5. ‘कम्पोजीटर’ और ‘गैली’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―‘कम्पोजीटर’ और ‘गैली’ शब्द का अर्थ निम्नलिखित है―
● कम्पोजीटर―मुद्रण हेतु इबारत (लिखी हुई हस्तलिपि आदि) को कम्पोज करने वाले व्यक्ति
कम्पोजीटर कहा जाता है।
● गैली-धातु का बना वह फ्रेम; जिसमें टाइप बिछाकर इबारत बनाई जाती है; ‘गैली’ कहा जाता है।
 
प्रश्न 6. ‘कैलीग्रैफी’ (सुलेख) की परिभाषा लिखिए।
उत्तर―‘कैलीग्रैफी’ (सुलेख) सुन्दर व सुगठित अक्षरों के लेखन की कला को कहा जाता है।
 
प्रश्न 7. “प्रोटेस्टेंट धर्म-सुधार’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर―सोलहवीं शताब्दी के यूरोप में रोमन चर्च में सुधार के लिए किए गए आन्दोलन को ‘प्रोटेस्टेंट
धर्म-सुधार’ के नाम से जाना जाता है।
 
प्रश्न 8. जापान में चित्रों की छपाई के लिए किन पदार्थों का प्रयोग किया जाता था?
उत्तर―जापान में चित्रों की छपाई के लिए अधिकतर ताश के पत्तों, वस्त्रों और कागज के नोटों का
प्रयोग किया जाता था।
 
प्रश्न 9. ‘इक्वीजीशन’ तथा ‘सम्प्रदाय’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―‘इक्वीजीशन’ तथा ‘सम्प्रदाय’ का अर्थ निम्नलिखित है―
● इक्वीजीशन―विधर्मियों की पहचान करने वाली और उन्हें दंडित करने वाली रोमन कैथोलिक संस्था।
● सम्प्रदाय―किसी धर्म का एक उप-समूह; जो उस धर्म से किन्हीं आधारों पर भिन्न होता है।
 
प्रश्न 10.’लेखक’ कौन थे?
उत्तर― ‘लेखक’ उन कुशल लोगों को कहा जाता था, जो प्रकाशकों के लिए हाथ से पांडुलिपियाँ लिखा
करते थे।
 
प्रश्न 11. चैपबुकऔर ‘चैपमैन’ का क्या आशय है?
उत्तर―‘चैपबुक’ और ‘चैपमैन’ का आशय निम्नलिखित है―
• ‘चैपबुक―यह शब्द पॉकेट-बुक के आकार की पुस्तकों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। चैपबुक्स को
प्राय: फेरीवालों के द्वारा बेचा जाता था। सोलहवीं शताब्दी की मुद्रण क्रांति के समय से चैपबुक अधिक
लोकप्रिय हुई।
● चैपमैन-इंग्लैंड में पैनी चैपबुक्स अथवा एक पेसिया पुस्तकों को बेचने वालों को चैपमैन’ कहा जाता
था।
 
प्रश्न 12. योहान गुटेन्बर्ग ने सबसे पहले किस पुस्तक को मुद्रित किया?
उत्तर― योहान गुटेन्बर्ग ने सबसे पहले ‘बाइबिल’ नामक पुस्तक को मुद्रित किया।
 
प्रश्न 13.’पंचांग से आप क्या समझते हैं?
उत्तर― चन्द्रमा व सूर्य की गति, चन्द्रमा का राशि-प्रवेश, मुहूर्त आदि दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी
देने वाले वार्षिक प्रकाशन को पंचांग’ कहा जाता है।
 
प्रश्न 14.सबसे पहली प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किसके द्वारा किया गया?
उत्तर– सबसे पहली प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार 1430 ई० में जर्मनी के योहान गुटेन्बर्ग के द्वारा किया
गया था।
 
प्रश्न 15.उन्नीसवीं शताब्दी में महिलाओं की दयनीय स्थिति के बारे में लिखने वाली
महिला-लेखिकाओं के नाम लिखिए। उनमें से किसी एक की लेखनी के बारे में बताइए।
उत्तर― उन्नीसवीं शताब्दी में महिलाओं की दयनीय स्थिति के बारे में लिखने वाली महिला-लेखिकाओं
में रशसुन्दरी देवी, कैलाशबासिनी देवी, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई आदि प्रमुख महिला लेखिकाएँ थीं।
इनमें 1860 ई० में लिखने वाली कैलाशबासिनी देवी एक प्रसिद्ध लेखिका थीं। उन्होंने अपनी रचनाओं में
महिलाओं की दयनीय स्थिति के बारे में लिखते हुए यह उल्लेख किया है कि महिलाओं को घर में बंदी जैसा
जीवन व्यतीत करना पड़ता है। उन्हें पढ़ने से मना किया जाता है और घर पर एक नौकरानी की तरह सारा
काम कराया जाता है। यही नहीं उन्हें बहुत अधिक दुत्कारा और अपमानित किया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें
मारा-पीटा भी जाता है।
 
प्रश्न 16.’मुद्रण-क्रांति’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर―‘मुद्रण-क्रांति’ वह क्रांति थी, जिसने न केवल पुस्तकों के उत्पादन के मूल्य को कम किया,
वरन् सूचना व ज्ञान के माध्यम से लोगों के सम्बन्धों को भी परिवर्तित कर दिया। साथ ही इसने लोगों के
दृष्टिकोण या देखने के नजरिए और लोक-चेतना में भी परिवर्तन ला दिया।
 
प्रश्न 17.बीसवीं शताब्दी के मध्य में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के सम्बन्ध में किस लेखक
ने अपने साहित्य में वर्णन किया।
उत्तर―बीसवीं शताब्दी के मध्य में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के सम्बन्ध में चार्ल्स डिकेन्स
ने अपने साहित्य में वर्णन किया।
 
प्रश्न 18.फ्रांस की क्रांति में कार्टूनों और कैरिकेचरों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर―फांस की क्रांति में कार्टूनों और कैरिकेचरों को देखकर यह भाव उत्पन्न होता था कि देश के
किसान, कामगार और कलाकार तो अनेक प्रकार की कठिनाइयों से भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जबकि
राजशाही भोग-विलास में डूबी हुई है। भूमिगत घूमने वाले साहित्य में दिए इस प्रकार के कार्टूनों और
कैरिकेचरों ने लोगों को राजतंत्र के विरुद्ध भड़काया।
 
प्रश्न 19. पाण्डुलिपि से आप क्या समझते हैं?
उत्तर― पाण्डुलिपि’; हस्तलिखित सामग्री को कहा जाता है।
 
प्रश्न 20.मार्टिन लूथर कौन था?
उत्तर― मार्टिन लूथर एक प्रोटेस्टेंट धर्म-सुधारक था। उसने मुद्रण को बढ़ावा देने में अपना विशेष
योगदान दिया।
 
प्रश्न 21.’पिच्चानवें स्थापनाओं का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर― ‘पिच्चानवें स्थापनाओं’ का मुख्य उद्देश्य कैथोलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करना था।
 
प्रश्न 22.1821 ई० से संवाद-कौमुदी’ का प्रकाशन किसके द्वारा आरम्भ किया गया?
उत्तर―1821 ई० से संवाद कौमुदी’ का प्रकाशन राजा राममोहन राय के द्वारा आरम्भ किया गया?
 
प्रश्न 23. ‘बिब्लियोथीक ब्ल्यू’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर―‘बिब्लियोथीक ब्ल्यू’ फ्रांस में मुद्रित कम कीमत वाली छोटे आकार की पुस्तकों को कहा जाता
था। ये किताबें सस्ते कागज पर छपी होती थीं और इनकी जिल्द नीले रंग की होती थी।
 
प्रश्न 24.”छापाखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है, इसमें बन रही जनमत की आँधी में
निरंकुशवाद उड़ जाएगा।” ये शब्द किसके द्वारा कहे गए हैं?
उत्तर―“छापाखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है, इसमें बन रही जनमत की आँधी में
निरंकुशवाद उड़ जाएगा।” ये शब्द लुईस सेबेस्तियन मर्सियर के द्वारा कहे गए हैं।
 
प्रश्न 25.शक्ति से चलने वाली बेलनाकार मुद्रण मशीन का आविष्कार किसने किया था?
उत्तर―शक्ति से चलने वाली बेलनाकार मुद्रण मशीन का आविष्कार न्यूयॉर्क के रिचर्ड एम०हो ने
किया था।
 
प्रश्न 26.”मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन और सबसे बड़ा तोहफा है।” यह कथन किसका है?
उत्तर―“मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन और सबसे बड़ा तोहफा है।” यह कथन मार्टिन लूथर
का है।
 
प्रश्न 27.ऐसी दो भाषाओं के नाम लिखिए, जिनमें मुद्रण-युग से पहले भारतीय पांडुलिपियाँ तैयार की
जाती थीं।
उत्तर― मुद्रण-युग से पहले भारतीय पांडुलिपियाँ संस्कृत, बंगाली, अरबी और फारसी भाषाओं में
तैयार की जाती थीं।
 
प्रश्न 28. बंगाल-गजट’ के सम्पादक का नाम लिखिए।
उत्तर―‘बंगाल-गजट’ के सम्पादक का नाम ऑगस्टस हिक्की था।
 
प्रश्न 29. गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हिक्की पर मुकदमा क्यों किया?
उत्तर―गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हिक्की पर मुकदमा इसलिए किया, क्योंकि उसने
दास-व्यापार के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार की आलोचना की थी।
 
प्रश्न 30. ‘गुलामगिरी’ के रचनाकार का नाम लिखिए।
उत्तर― ‘गुलामगिरी’ के रचनाकार का नाम ज्योतिबा फुले है।
 
प्रश्न 31.’गुलामगिरी’ पुस्तक का विषय क्या था?
उत्तर― ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का विषय जाति-प्रथा के अत्याचारों से सम्बन्धित है।
 
प्रश्न 32.बालगंगाधर से सम्बन्धित समाचार-पत्र का नाम लिखिए।
उत्तर―बालगंगाधर से सम्बन्धित समाचार-पत्र का नाम ‘केसरी’ है।
 
प्रश्न 33.भारत का सबसे पहला समाचार-पत्र कौन-सा था? इसे किसके द्वारा प्रकाशित किया गया
था?
उत्तर― भारत का सबसे पहला समाचार-पत्र ‘बंगाल-गजट’ था। इसे गंगाधर भट्टाचार्य के द्वारा
प्रकाशित किया गया था।
 
प्रश्न 34. सबसे पहली तमिल पुस्तक किसके द्वारा मुद्रित की गयी?
उत्तर―सबसे पहली तमिल पुस्तक 1579 ई० में कैथोलिक पुजारियों द्वारा मुद्रित की गयी।
 
प्रश्न 35. वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट क्या था?
उत्तर― ‘वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट’ प्रेस की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में औपनिवेशिक सरकार द्वारा पारित
ऐक्ट था। इसके माध्यम से अंग्रेज सरकार को भाषाई प्रेस में मुद्रित रिपोर्ट और सम्पादकीय को सेंसर करने
का व्यापक अधिकार प्राप्त हो गया था।
 
प्रश्न 36. किन्हीं ऐसी तीन भाषाओं के नाम लिखिए, जिनमें पहले मुद्रण होता था?
उत्तर― कोंकणी, कन्नड़ और तमिल; वे भाषाएँ थीं, जिनमें पहले मुद्रण होता था।
 
प्रश्न 37.भारत में सबसे पहली प्रिंटिंग प्रेस कब आई?
उत्तर― भारत में सबसे पहली प्रिंटिंग प्रेस 16वीं शताब्दी में भारत के गोवा में पुर्तगाली धर्म-प्रचारकों के
साथ आई।
 
                                         लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. गुटेनबर्ग ने पुस्तकों के मुद्रण को अन्य लोगों की रुचि एवं अपेक्षा के अनुरूप किस प्रकार
बनाया?
उत्तर―जोहान गुटेनबर्ग ने अपने समस्त ज्ञान और अनुभवों का प्रयोग करके एक प्रिंटिंग प्रेस का
आविष्कार किया। इस प्रेस में उसके द्वारा साँचे का उपयोग; अक्षरों की धातु से बनी आकृतियों को गढ़ने हेतु
किया गया। 1448 ई० तक उसने अपनी प्रिंटिंग प्रेस को बनाने का काम पूरा कर लिया था। इसके बाद उसने
इस प्रेस के द्वारा पुस्तकों की छपाई शुरू की। गुटेनबर्ग ने पुस्तकों के मुद्रण को अन्य लोगों की रुचि एवं
अपेक्षा के अनुरूप निम्नलिखित दृष्टियों से बनाया―
1. आरम्भ में गुटेन्बर्ग द्वारा बनाई गयी प्रिंटिंग मशीन से छपी पुस्तकें भी अपने रंग-रूप व साज-सज्जा
में हस्तलिखित पांडुलिपियों के समान ही दिखाई देती थीं।
2. इस मशीन तकनीक में धातु से बने अक्षर भी हाथ की सजावटी शैली जैसे ही थे।
3. पुस्तकों के हाशियों पर फूल-पत्तियों की डिजाइन बनायी जाती थी और चित्रों को प्राय: पेंट किया
जाता था।
4. जो पुस्तकें अमीर लोगों के लिए छापी जाती थीं, उनके छपे हुए पन्नों पर हाशिये की जगह बेल-बूटों
के लिए खाली छोड़ दिया जाता था।
5. पुस्तक का प्रत्येक खरीदार अपनी रुचि के अनुरूप डिजाइन व पेंटर का निर्धारण स्वयं ही करके
पुस्तक को सुन्दर बनवा सकता था।
6. गुटेन्बर्ग द्वारा मुद्रित पुस्तकों में अभिकथनों को खरीदारों की रुचि के अनुरूप ही पेंट किया गया।
7. प्रत्येक खरीदार अपनी पसंद का प्रारूप, काव्य आदि का चुनाव करने के लिए स्वतन्त्र था। उनके
द्वारा चुने गए प्रारूप को हाथ से रंगीन किया जाता था।
8. पुस्तक का बाहरी रूप बड़े ध्यानपूर्वक बनाया जाता था। इसे बनाने में लोगों की रुचि एवं पसन्द का
ध्यान रखा जाता था।
 
प्रश्न 2. “हाथ की छपाई की अपेक्षा मशीनी छपाई ने मुद्रण में क्रांति ला दी थी।” इस कथन को स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर― “हाथ की छपाई की अपेक्षा मशीनी छपाई ने मुद्रण में क्रांति ला दी थी।” इस कथन को
निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है―
1. 1450 ई० से 1559 ई० की लगभग सौ वर्षों की अवधि में यूरोप के अधिकांश देशों में छापेखाने लग
गए थे। इस अवधि में जर्मनी के प्रिंटर या पुस्तकों को छापने वाले मुद्रक दूसरे देशों में जाकर
छापेखाने खुलवाया करते थे।
2. जैसे-जैसे छापेखानों की संख्या में वृद्धि हुई, पुस्तकों के उत्पादन में भी उसी प्रकार आश्चर्यजनक
ढंग से वृद्धि हुई।
3. पन्द्रहवीं शताब्दी के दूसरे भाग में यूरोप के बाजार में 2 करोड़ छपी हुई पुस्तकें आईं।
4. सोलहवीं शताब्दी में यह संख्या बढ़कर 20 करोड़ हो गयी।
5. इस प्रकार हाथ की छपाई के स्थान पर मशीन की छपाई या यांत्रिक मुद्रण के आने से ही
‘मुद्रण-क्रांति’ सम्भव हुई।
6. ‘मुद्रण क्रांति’ का आशय केवल छापेखाने में तकनीकी दृष्टि से परिवर्तन की शुरुआत होने से ही नहीं
था। छापेखाने के द्वारा जो पुस्तकें छापी गयीं, उनके द्वारा लोगों के जीवन में भी अनेक प्रकार के
परिवर्तन हुए।
7. इनके परिणामस्वरूप सूचना व ज्ञान से तथा संस्था और सत्ता से लोगों का सम्बन्ध ही बदल गया।
8. इसके माध्यम से लोगों की चेतना और उनके देखने के तरीके या दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हुआ।
 
प्रश्न 3. छपी हुई किताबों की शुरुआत कहाँ हुई तथा ये कैसे छापी जाती थीं?
उत्तर―छपी हुई किताबों की शुरुआत के स्थान और उन्हें छापने के तरीके का संक्षिप्त उल्लेख निम्नवत्
है―
1. मुद्रण की सबसे पहली तकनीक का विकास; चीन, जापान और कोरिया में हुआ।
2. इस छपाई को हाथ के द्वारा किया जाता था।
3. लगभग 594 ई० चीन में स्याही लगे हुए काठ के ब्लॉक अथवा तख्ती पर कागज को रगड़कर
पुस्तकों की छपाई की जाने लगी।
4. शुरू में छिद्रित कागज के दोनों तरफ छपाई की जानी सम्भव नहीं थी, इसलिए पारम्परिक चीनी
पुस्तकें ‘एकॉर्डियन’ शैली में पुस्तकों को मोड़ने के उपरान्त, उन्हें सिलकर तैयार की जाती थीं।
5. इन पुस्तकों का सुलेखन (खुशनवीसी) करने वाले लोग सुलेख की कला में बड़े कुशल होते थे। ये
हाथ से ही बड़े ही सुन्दर और अच्छे आकार वाले अक्षरों में बिलकुल सही रूप में कलात्मक लिखाई
का कार्य करते थे। इन्हें ‘सुलेखक’ अथवा ‘खुशखत’ कहा जाता था।
 
प्रश्न 4. 15वीं शताब्दी से पूर्व आरम्भिक पुस्तकों की छपाई किस प्रकार होती थी?
उत्तर―आरम्भ में तो गुटेन्बर्ग द्वारा बनाई गयी प्रिंटिंग मशीन से छपी पुस्तकें भी अपने रंग-रूप व
साज-सज्जा में हस्तलिखित पांडुलिपियों के समान ही दिखाई देती थीं। इस मशीन तकनीक में धातु से बने
अक्षर भी हाथ की सजावटी शैली जैसे ही थे। पुस्तकों के हाशियों पर फूल-पत्तियों की डिजाइन बनायी जाती
थी और चित्रों को प्राय: पेंट किया जाता था। जो पुस्तकें अमीर लोगों के लिए छापी जाती थीं, उनके छपे हुए
पन्नों पर हाशिये की जगह बेल-बूटों के लिए खाली छोड़ दिया जाता था। पुस्तक का प्रत्येक खरीदार अपनी
रुचि के अनुरूप डिजाइन व पेंटर का निर्धारण स्वयं ही करके पुस्तक को सुन्दर बनवा सकता था।
 
प्रश्न 5. गुटेन्बर्ग ने मुद्रण के क्षेत्र में अपना योगदान किस प्रकार दिया?
उत्तर―प्रिंटिंग के इतिहास में गुटेनबर्ग का अपना विशेष योगदान था। उसके पिता एक व्यापारी थे और
वह एक बड़ी रियासत में पलकर बड़ा हुआ था। वह अपने बाल्यकाल से ही तेल और जैतून पेरने की मशीन
(Press) देखता आया था। बाद के समय में उसने पत्थर पर पॉलिश करने की कला सीखी। इसके बाद उसने
सुनार का काम और अन्त में शीशे को मनचाहे आकारों में गढ़ने के कौशल में महारत प्राप्त की।
अपने इस समस्त ज्ञान और अनुभव का प्रयोग उसके द्वारा अपने एक नए आविष्कार में किया गया। उसने
एक प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया और जैतून प्रेस ही उसके इस प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल बना। इसके
अतिरिक्त उसके द्वारा साँचे का उपयोग; अक्षरों की धातु से बनी आकृतियों को गढ़ने हेतु किया गया। 1448
ई० तक उसने अपनी प्रिंटिंग प्रेस को बनाने का काम पूरा कर लिया था। अपनी इस प्रिंटिंग प्रेस के द्वारा उसने
जिस पहली पुस्तक को छापा, उसका नाम ‘बाइबिल’ था। इस पुस्तक की 180 प्रतियाँ तैयार करने में उसे
लगभग तीन वर्ष का समय लगा। फिर भी उस समय के हिसाब से यह गति काफी तेज थी। यह बात दूसरी है.
कि यह मशीनी तकनीक; हाथ से पुस्तकों को छापने की तकनीक की जगह पूरी तरह से नहीं ले पाई।
 
प्रश्न 6. मार्कोपोलो कौन था? मुद्रण-संस्कृति में उसका क्या योगदान था?
उत्तर― मार्कोपोलो का संक्षिप्त परिचय और मुद्रण-संस्कृति में उसके योगदान का संक्षिप्त विवरण
निम्नवत् है―
(क) मार्कोपोलो का संक्षिप्त परिचय―मार्कोपोलो इटली का निवासी था। वह विभिन्न स्थानों की खोज
करने के लिए तथा व्यापारिक उद्देश्यों से अपने देश से कई स्थानों पर होता हुआ चीन पहुँचा और वहाँ कई
वर्षों तक रहा। 1295 ई० में महान खोजी यात्री मार्कोपोलो चीन में कितने ही वर्ष अपनी खोजें करने के
पश्चात् इटली वापस लौटा।
(ख) मुद्रण-संस्कृति में उसका योगदान―चीन के पास छपाई की वुडब्लॉक या काठ की तख्ती पर
छपाई वाली तकनीक थी। इस तकनीक को मार्कोपोलो अपने साथ लेकर ही अपने देश इटली में आया था।
फलतः अब इटली के लोग भी तख्ती की छपाई वाली तकनीक के द्वारा पुस्तकें निकालने लगे। इसके बाद
कुछ ही समय में यह तकनीक शेष यूरोप में भी फैल गयी। कुलीन वर्ग और भिक्षु-संघों के लोग इस तकनीक
द्वारा छपी मुद्रित पुस्तकों को सस्ती और अश्लील मानते थे। इसी कारण उनके लिए छापी जाने वाली पुस्तकों
के अश्लील संस्करण अभी भी अत्यधिक महँगे ‘वेलम’ या चर्म-पत्र पर ही छपते थे।
 
प्रश्न 7. पहले छपी पुस्तक ‘बाइबिल’ की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर―योहान गुटेन्बर्ग के द्वारा छापी गयी पहली पुस्तक ‘बाइबिल’ की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं―
1. 1448 ई० तक योहान गुटेन्बर्ग ने अपनी प्रिंटिंग प्रेस को बनाने का काम पूरा कर लिया था। अपनी इस
प्रिंटिंग प्रेस के द्वारा उसने जिस पहली पुस्तक को छापा, उसका नाम ‘बाइबिल’ था।
2. इस पुस्तक की 180 प्रतियाँ तैयार करने में उसे लगभग तीन वर्ष का समय लगा। फिर भी उस समय
के हिसाब से यह गति काफी तेज थी। यह बात दूसरी है कि यह मशीनी तकनीक; हाथ से पुस्तकों को
छापने की तकनीक की जगह पूरी तरह से नहीं ले पाई।
3. बाइबिल की प्रतियों को गुटेनबर्ग की नई प्रेस में धातु से बने टाइप के अक्षरों से छापा गया।
4. बाइबिल की इन प्रतियों के हाशिए पर कलाकारों के द्वारा हाथ से टीकाकारी और सुन्दर आकार में
चित्रकारी की गयी थी।
5. इनमें से प्रत्येक प्रति का प्रत्येक अपने में अलग स्वरूप वाला था।
6. पुस्तकों की प्रतियों में कहीं-कही अक्षरों में भी रंग भरे गए थे।
 
प्रश्न 8. छापेखाने के आविष्कार ने किस प्रकार एक नए पाठक-वर्ग को जन्म दिया?
उत्तर― छापेखाने के अस्तित्व में आने से एक नया पाठक वर्ग का उदय हुआ। मशीनों से होने वाली
छपाई के कारण पुस्तकों की कीमत में कमी आयी। पहले एक पुस्तक को छापने में जो समय और श्रम लगता
था, उसमें भी अब काफी कमी आने लगी। अब काफी संख्या में पुस्तकों की प्रतियों को छापना सरल हो
गया। इसके अतिरिक्त बाजार में किताबों की भरमार हो गई। साथ ही पाठक वर्ग की संख्या में भी वृद्धि होती
चली गयी।
बाजार में पुस्तकों के सरलता से सुलभ होने का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि पढ़ने की एक नयी
संस्कृति का विकास हुआ। अब तक आम लोग एक मौखिक संसार में ही जीते थे। वे धार्मिक पुस्तकों का
दूसरों के द्वारा वाचन सुनते थे। गाथा-गीतों को उन्हें पढ़कर सुनाया जाता था। विभिन्न प्रकार के किस्से भी
उनके लिए किसी अन्य के द्वारा बोलकर ही पढ़े जाते थे। इस प्रकार पहले ज्ञान का मौखिक रूप से ही
आदान-प्रदान होता था। लोग किसी समूह में ही किसी दास्तान को सुनते थे या कोई आयोजन देखते आए थे।
अगले आठवें अध्याय में आप यह पढ़ेंगे कि लोग अकेले में चुपचाप पढ़ने के आदी नहीं थे। मुद्रण-क्रांति या
छपाई में क्रांति से पूर्व की पुस्तकें महँगी तो थी ही, उन्हें पर्याप्त संख्या में छापना भी एक असम्भव कार्य था।
परन्तु अब पुस्तकें समाज के सभी वर्गों को सुलभ हो सकती थीं। यदि पहले की जनता श्रोता थी तो अब एक
पाठक-जनता अस्तित्व में आ गयी थी।
 
प्रश्न 9. मुद्रण के प्रभाव को लेकर कुछ लोग आशंकित क्यों थे?
उत्तर―जनता के द्वारा प्रिंट की अपने उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने की सम्भावनाओं का समाज के
विभिन्न वर्गों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभाव हुआ। यही कारण था कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति छापेखाने
द्वारा मुद्रित पुस्तकों के सम्बन्ध में खुश नहीं था। जिन्होंने प्रिंट के व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार और पुस्तको
के आने का स्वागत भी किया, वे भी कई दृष्टियों से प्रिंट के प्रति भयभीत थे। कुछ लोगों के मन में छपी हुई
पुस्तकों के व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार और छपे हुए शब्दों की सुगमता के प्रति यह आशंका थी कि न जाने
सामान्य लोगों के मन पर इसका क्या प्रभाव हो। उनके मन में यह भय भी उत्पन्न हो चुका था कि यदि छपे
प्रिंट और पढ़े जा रहे प्रिंट पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होगा तो लोगों के मन में विश्वेही और
अधार्मिक विचार उत्पन्न होने लगेगे। उनका विचार था कि यदि ऐसा हुआ तो मूल्यवान साहित्य की सत्ता
अथवा उसका महत्त्व ही समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार की चिंताएँ, भय एवं आशंकाएँ; उस समय
धर्म-गुरुओं, सम्राटों, लेखकों और कलाकारों के द्वारा व्यक्त की जा रही थीं। इसी प्रकार की चिंताएँ, भय
आदि समाज में प्रसारित होने वाले नवीन साहित्य की आलोचना का प्रमुख आधार बनीं।
 
प्रश्न 10. चीन दीर्घकाल तक मुद्रित सामग्री का प्रमुख उत्पादक किस प्रकार बना रहा?
उत्तर―चीन दीर्घकाल तक मुद्रित सामग्री का प्रमुख उत्पादक निम्नलिखित दृष्टियों से बना रहा-
1. चीन में साम्राज्यवादी देश मुद्रित सामग्री का प्रमुख उत्पादक था। उसके द्वारा चीन में सिविल सेवा
परीक्षा की पाठ्य-पुस्तकें भारी मात्रा में छापी गयीं।
2. किसी भी व्यापारिक सूचना के अनुसार अपने व्यापार में लाभ के उद्देश्य से व्यापारी चीन में छपी
दैनिक जीवन पर आधारित मुद्रण सामग्री का उपयोग करते थे।
3. नए पाठक कथात्मक वर्णन, कविताएँ और रोमानी नाटकों को पढ़ना पसन्द करते थे। इस प्रकार की
सामग्री चीन में भारी मात्रा में छापी जाती थी।
4. चीन की धनी महिलाएँ पुस्तकों को पढ़ने में रुचि लेने लगीं और उन्होंने स्वयं भी अनेक कविताओं
और कहानियों का प्रकाशन कराया।
 
प्रश्न 11.लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए कौन थे? उनके छापेखाने के सम्बन्ध में क्या विचार थे?
उत्तर―लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए फ्रांस के एक प्रसिद्ध उपन्यासकार थे। उनका छापेखाने के सम्बन्ध में यह
विचार था कि छापाखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है, इससे बन रही जनमत की आँधी में
निरंकुशवाद उड़ जाएगा। मर्सिए के उपन्यासों के नायक किताबों को पूरी तरह से पढ़ते हैं, वे किताबों की
दुनिया में ही जीते हैं और इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार ये नायक प्रायः किताबों को पढ़ने से
ही बदल जाते हैं। ज्ञानोदय को लाने और निरंकुशवाद के आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका के
बारे में मर्सिए पूरी तरह से आश्वस्त थे। इसीलिए उन्होंने कहा, “हे निरंकुशवादी शासकों, अब तुम्हारे काँपने
का वक्त आ गया है! आभासी लेखक की कलम के जोर के आगे तुम हिल उठोगे!’
 
प्रश्न 12.चीन में नई पाठक-संस्कृति किस प्रकार विकसित हुई?
उत्तर― काफी समय तक छपी या मुद्रित सामग्री का सबसे बड़ा उत्पादक चीन राजतन्त्र ही बना रहा।
चीन में काफी बड़ी संख्या में नौकरशाही की नियुक्ति; सिविल सेवा परीक्षा के आधार पर की जाती थी। चीन
में सिविल सेवा परीक्षा सम्बन्धी पुस्तकें काफी संख्या में छापी जाती थीं। सोलहवीं शताब्दी में परीक्षा देने
वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी, जिसके परिणामस्वरूप छापी जाने वाली पुस्तकों की संख्या में भी उसी
अनुपात में वृद्धि हो गयी। सत्रहवीं शताब्दी तक आते-आते चीन में नई शहरी-संस्कृति विकसित होने लगी।
इसके फलस्वरूप छपाई में भी अनेक प्रकार की विविधताएँ आने लगीं। साथ ही अब मुद्रित सामग्री के
उपभोक्ता या उसका प्रयोग करने वाले केवल विद्वान लोग या अधिकारी ही नहीं रहे। व्यापारी और महिलाएँ
आदि भी अब छपी हुई सामग्री को उपयोग करने लगे। व्यापारी अपने प्रतिदिन के व्यापार की जानकारी हेतु
मुद्रित सामग्री का प्रयोग करने लगे। अब पढ़ना एक शौक बन गया। नए पाठक वर्ग को काल्पनिक किस्से,
कविताएँ, आत्मकथाएँ, रूमानी नाटक पढ़ना पसन्द था। वे शास्त्रीय साहित्यिक पुस्तकों के संकलन में भी
रुचि लेते थे। यहाँ तक कि अब अमीर घरानों की महिलाओं ने भी पढ़ना शुरू कर दिया। इनमें से कुछ ने
स्वयं द्वारा रचित काव्य और नाटक भी छपवाए।
 
प्रश्न 13.जातिभेद को समाप्त करने में प्रेस ने क्या योगदान दिया?
उत्तर― उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से जाति-भेद के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की पुस्तिकाओं
और निबन्धों में लिखा जाने लगा था। देश के महाराष्ट्र प्रान्त में निम्न-जातीय’ आन्दोलनों के मराठी प्रणेता के
रूप में ज्योतिबा फुले एक सुप्रसिद्ध नाम था। उन्होंने 1871 ई० में जाति-प्रथा सम्बन्धी अत्याचारों पर
आधारित अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’ लिखी। इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी में ही महाराष्ट्र में भीमराव
अम्बेडकर और मद्रास में ई०वी० रामास्वामी नायकर (जो पेरियार के नाम से बेहतर जाने जाते हैं।
जाति-प्रथा पर अपनी अत्यन्त प्रभावपूर्ण कलम चलाई। उन्होंने अपनी पुस्तकों आदि में जो भी लिखा, उसे
सारे भारत में पढ़ा गया। इसके साथ ही स्थानीय विरोध आन्दोलनों और सम्प्रदायों के चिंतकों ने भी प्राचीन
धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए एक नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने की मुहिम को आगे बढ़ाया।
इसके लिए उन्होंने अनेक लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ एवं गुटकों को छपवाया।
 
प्रश्न 14.जापान में मुद्रण के विकास का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर―768 ई० से 770 ई० के मध्य चीनी बौद्ध धर्म के प्रचारक छपाई की तकनीक लेकर जापान
आए। 868 ई० में जापान में ‘डायमंड-सूत्र’ के नाम से एक पुस्तक छापी गयी। यह जापान में छपी सबसे
पुरानी या सबसे पहली मुद्रित पुस्तक है। इस पुस्तक में पाठ के साथ-साथ ही काठ पर पर खुदे चित्र भी हैं।
इस समय बनाई जाने वाली तस्वीरें या चित्र; प्राय: कपड़ों, ताश के पत्तों और कागज के नोटों पर बनाई जाती
थीं। मध्यकाल में कवियों और गद्यकारों की रचनाएँ भी छपती थीं। इसके साथ ही ये पुस्तकें आसानी से प्राप्त
होने वाली और सस्ती कीमत वाली भी होती थीं।
एदो (जो बाद में तोक्यो के नाम से जाना गया); के शहरी क्षेत्रों की चित्रकारी को देखने से यह पता चलता है
कि वहाँ एक शालीन शहरी संस्कृति का विकास हो रहा था। जापान की इस शालीन शहरी संस्कृति में हम
चायघर के मजमों, कलाकारों और तवायफों को देख सकते हैं। वहाँ हाथ से छपी हुई सामग्री विभिन्न प्रकार
की होती थी; जैसे–महिलाओं, संगीत के साज, हिसाब-किताब, चाय अनुष्ठान, फूलों को सजाना
(पुष्पसज्जा) शिष्टाचार और रसोई आदि पर छपी हुई पुस्तकें। इन पुस्तकों से वहाँ के पुस्तकालय और
दुकानें भरी पड़ी रहती थीं।
 
प्रश्न 15.बीसवीं शताब्दी में मजदूर वर्ग ने अपने को शिक्षित करने के लिए क्या-क्या प्रयास किए?
उत्तर― सत्रहवीं शताब्दी से ही पढ़ने वालों को किराए पर पुस्तकें देने वाले पुस्तकालय भी अस्तित्व में
आ चुके थे। उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैंड में इस प्रकार के पुस्तकालयों का उपयोग; सफेद-कॉलर मजदूरों,
दस्तकारों और निम्नवर्गीय लोगों को शिक्षित करने के लिए किया गया। काम के दिन छोटे होने के उपरान्त
मजदूरों को अपने सुधार एवं आत्माभिव्यक्ति के लिए कुछ समय प्राप्त होने लगा। इन मजदूरों के लिए काफी
संख्या में राजनीतिक पर्चे और आत्मकथाएँ भी लिखीं गईं। यॉर्कशायर के एक मैकेनिक थॉमस वुड ने बताया
कि वह पुराने अखबार खरीदकर शाम के वक्त आग की रोशनी में पढ़ता था, क्योंकि उसके पास मोमबत्ती के
लिए पैसे नहीं होते थे। गरीबों की आत्मकथाओं से हमें पता चलता है कि वे मुश्किल हालात में पढ़ने के लिए
जद्दोजहद करते थे, बीसवीं सदी के रूसी क्रान्तिकारी लेखक मैक्सिम गोर्की की ‘मेरा बचपन’ और ‘मेरे
विश्वविद्यालय’ इन संघर्षों की कहानियाँ हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान मद्रासी शहरों में वहाँ के चौक-चौराहों पर काफी सस्ती पुस्तकों की बिक्री की
जा रही थी। इसके परिणामस्वरूप निर्धन लोग भी उन सस्ती पुस्तकों को खरीद सकते थे। इसके अतिरिक्त
बीसवीं शताब्दी के अन्त से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना भी की जाने लगी थी। इसके परिणामस्वरूप
भी आम लोगों तक पुस्तकें सुलभ हुईं।
इस समय कारखानों में काम करने वाले मजदूरों से बहुत अधिक काम लिया जाता था। उन्हें अपने अनुभवों
को ठीक प्रकार से लिखने की शिक्षा तक भी सुलभ नहीं हुई थी। परन्तु कानपुर के मिल-मजदूर काशीबाबा ने
1938 ई० में ‘छोटे और बड़े सवाल’ लिखकर तथा उनका मुद्रण करवाकर जातीय एवं वर्गीय शोषण के
बीच का सम्बन्ध या रिश्ता समझाने का प्रयत्न किया। 1935 ई० से 1955 ई० के मध्य एक और
मिल-मजदूर ने ‘सुदर्शन-चक्र’ के नाम से अपनी लेखनी चलाई। उनका लेखन ‘सच्ची कविताएँ’ नाम से
एक संग्रह में छापा गया। इसके अतिरिक्त बंगलौर के सूती मिल के मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के
विचार से पुस्तकालयों की स्थापना करवाई। इसकी प्रेरणा उन्हें बंबई के मिल-मजदूरों से प्राप्त हुई थी।
मिल-मजदूरों के इस प्रकार के कार्यों को तत्कालीन समाज-सुधारकों द्वारा संरक्षण प्राप्त हुआ। अपना
संरक्षण प्रदान करने के पीछे उन समाज-सुधारकों का मुख्य उद्देश्य एवं प्रयास यह था कि मजदूरों की
नशाखोरी समाप्त हो, उनमें साक्षरता आए और उन तक राष्ट्रवाद का संदेश भी सही समय पर पहुंँच जाए।
 
प्रश्न 16. अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक पुस्तकों और प्रिंट-संस्कृति के बारे में बने आम विश्वासों का
संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर―जनता के द्वारा प्रिंट की अपने उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने की सम्भावनाओं का समाज के
विभिन्न वर्गों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभाव हुआ। यही कारण था कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति छापेखाने
द्वारा मुद्रित पुस्तकों के सम्बन्ध में खुश नहीं था। जिन्होंने प्रिंट के व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार और पुस्तकों
के आने का स्वागत भी किया, वे भी कई दृष्टियों से प्रिंट के प्रति भयभीत थे। कुछ लोगों के मन में छपी हुई
पुस्तकों के व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार और छपे हुए शब्दों की सुगमता के प्रति यह आशंका थी कि न जाने
सामान्य लोगों के मन पर इसका क्या प्रभाव हो। उनके मन में यह भय भी उत्पन्न हो चुका था कि यदि छपे
प्रिंट और पढ़े जा रहे प्रिंट पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होगा तो लोगों के मन में विद्रोही और
अधार्मिक विचार उत्पन्न होने लगेंगे। उनका विचार था कि यदि ऐसा हुआ तो मूल्यवान साहित्य की सत्ता
अथवा उसका महत्त्व ही समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार की चिंताएँ, भय एवं आशंकाएँ; उस समय के
धर्म-गुरुओं, सम्राटों, लेखकों और कलाकारों के द्वारा व्यक्त की जा रही थीं। इसी प्रकार की चिंताएँ, भय
आदि समाज में प्रसारित होने वाले नवीन साहित्य की आलोचना का प्रमुख आधार बनीं।
 
प्रश्न 17.भारत में प्रेस की भूमिका को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेज सरकार के द्वारा क्या-क्या
प्रयास किए गए?
उत्तर― 1820 ई० के दशक तक कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेस की आजादी को नियंत्रित करने
वाले कुछ कानून पारित कर दिए। इसके साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन अखबारों के प्रकाशन को
प्रोत्साहित करना आरम्भ कर दिया, जो ब्रितानी शासन का उत्सव मनाया करते थे; अर्थात् ब्रितानी शासन की
प्रशंसा में लिखा करते थे। 1835 ई० में अंग्रेजी एवं भारत की देसी भाषाओं के समाचार-पत्र के सम्पादकों
द्वारा गवर्नर जनरल बैंटिंक से प्रार्थना करते हुए उसे एक प्रार्थना पत्र दिया, जिसे पढ़कर बैंटिक; प्रेस-कानून
की समीक्षा के लिए तैयार हो गया। इसके बाद भारत में आए उदारवादी औपनिवेशिक अंग्रेज अधिकारी
टॉमस मेकॉले ने प्रिंट सम्बन्धी पहले की आजादी को बहाल करते हुए नए कानून बनाए।
जब भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० में व्यापक विद्रोह हुआ तो इस विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतन्त्रता
के प्रति अंग्रेजों का रवैया बदल गया। वे बहुत अधिक नाराज हो उठे और उन्होंने प्रेस का मुँह बन्द करने की
माँग की। उधर जैसे-जैसे विभिन्न भाषाओं में छपने वाले भारतीय समाचार-पत्र राष्ट्रवाद के समर्थन में
अधिकाधिक लिखने लगे, वैसे-वैसे ही औपनिवेशिक सरकार में प्रेस पर कठोर नियंत्रण सम्बन्धी प्रस्ताव पर
बहस तेज होती चली गयी। इसी के परिणामस्वरूप आइरिश प्रेस-कानून की तरह 1878 ई० में ‘वर्नाक्युलर
प्रेस ऐक्ट’ लागू कर दिया गया। इस ऐक्ट के आधार पर सरकार को विभिन्न भारतीय भाषाओं के
समाचार-पत्रों में छपी रिपोर्ट और उनके सम्पादकीय को सेंसर करने का व्यापक अधिकार प्राप्त हो गया।
इस ऐक्ट के पारित होने के बाद से भारत की अंग्रेज सरकार ने विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं में छपने
वाले अखबारों पर नियमित रूप से नजर रखनी शुरू कर दी। अखबारों की रिपोर्ट आदि को पढ़ने के बाद
यदि किसी रिपोर्ट को अंग्रेजों के विरुद्ध अर्थात् बागी घोषित किया जाता था तो ऐसी रिपोर्ट को छापने वाले
अखबार को पहले चेतावनी दी जाती थी। यदि अखबार के मालिक द्वारा उस चेतावनी को अनसुना किया
जाता था तो इस स्थिति में उस अखबार को जब्त किया जा सकता था। यही नहीं छपाई करने वाली मशीनों
को भी छीना जा सकता था।
 
प्रश्न 18. पैनी चैपबुक्स’ के महत्त्व का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर― जैसे-जैसे मुद्रण के क्षेत्र में प्रगति हुई और पुस्तकों के पाठकों में अपार वृद्धि हुई, वैसे-वैसे ही
प्रकाशकों के द्वारा लोगों या पाठकों की रुचि के अनुरूप तरह-तरह के साहित्य छापा जाने लगा।
पुस्तक-विक्रेताओं ने अधिक-से-अधिक पुस्तकों को लोगों तक सुलभ बनाने के लिए फेरीवालों को काम
पर रखा। ये फेरीवाले गाँवों में जाकर छोटी-छोटी पुस्तकों को बेचते थे। इन पुस्तकों में मुख्य रूप से पंचांग,
लोक-गाथाएँ और लोक-गीतों पर आधारित पुस्तकें, मनोरंजन पर आधारित पुस्तकें और पेनी चैपबुक्स को
मुद्रण किया जाता था।
पैनी चैपबुक्स का महत्त्व―पैनी चैपबुक्स का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से था―
1. पेनी चैपबुक्स’ को ‘एक-पैसिया’ पुस्तकें भी कहा जाता था। इसके इस नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता
है कि ये पुस्तकें अत्यन्त सस्ती होती थीं।
2. ये पुस्तकें सोलहवीं शताब्दी की मुद्रण-क्रांति के समय से लोकप्रिय हुईं।
3. इनमें विभिन्न प्रकार की मुद्रित सामग्री सम्मिलित होती थी; जैसे―पैम्फलैट, राजनीतिक व धार्मिक
पचें, नर्सरी की कविताएँ, काव्य, लोक-कथाएँ तथा बच्चों का साहित्य आदि
4. ये पुस्तकें पॉकेट बुक्स के आकार में छोटी-छोटी पुस्तकें होती थीं। इन पुस्तकों को अधिकतर
फेरीवालों द्वारा बेचा जाता था।
5. इन पुस्तकों को निर्धन वर्ग के लोग भी खरीदकर पढ़ सकते थे।
6. इन्हें बेचने वालों को चैपमेन’ कहा जाता था।
 
प्रश्न 19.अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में विज्ञान, तर्क और विवेकवाद के विचार लोकप्रिय-साहित्य में
किस प्रकार स्थान पाने लगे?
उत्तर―अठारहवीं शताब्दी में पुस्तकों, पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में दी गई पठनीय सामग्री के साथ
ही लोगों को यूरोप के वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के बारे में पढ़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ। इस सदी में प्राचीन
एवं मध्यकालीन ग्रंथों का संकलन किया गया तथा मानचित्रों और वैज्ञानिक जानकारी को बड़ी मात्रा में छापा
गया। जब आइजैक न्यूटन जैसे वैज्ञनिकों ने अपने आविष्कारों को छपवाना शुरू किया तो उनके लिए विज्ञान
की जानकारी रखने वाला एक बड़ा पाठक-वर्ग तैयार हो गया। इसके साथ ही टॉमस पेन, वॉल्तेयर और ज्याँ
जाक रूसो जैसे महान दार्शनिकों की पुस्तकें भी काफी संख्या में छापी और पढ़ी जाने लगीं। इस प्रकार यूरोप के
लोकप्रिय साहित्य में विज्ञान, तर्क और विवेकवाद पर आधारित विचारों को भी स्थान मिलने लगा।
 
प्रश्न 20.”मुद्रण-क्रांति ने सूचना और ज्ञान से उनके सम्बन्धों को बदलकर लोगों की जिन्दगी बदल
दी।” इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर― ‘मुद्रण क्रांति’ का आशय केवल छापेखाने में तकनीकी दृष्टि से परिवर्तन की शुरुआत होने से ही
नहीं था। छापेखाने के द्वारा जो पुस्तकें छापी गयीं, उनके द्वारा लोगों के जीवन में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन
हुए। इनके परिणामस्वरूप सूचना व ज्ञान से तथा संस्था और सत्ता से लोगों का सम्बन्ध ही बदल गया। इसके
माध्यम से लोगों की चेतना और उनके देखने के तरीके या दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हुआ।
बाजार में पुस्तकों के सरलता से सुलभ होने का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि पढ़ने की एक नयी
संस्कृति का विकास हुआ। अब तक आम लोग एक मौखिक संसार में ही जीते थे। वे धार्मिक पुस्तकों का
दूसरों के द्वारा वाचन सुनते थे। गाथा-गीतों को उन्हें पढ़कर सुनाया जाता था। विभिन्न प्रकार के किस्से भी
उनके लिए किसी अन्य के द्वारा बोलकर ही पढ़े जाते थे। इस प्रकार पहले ज्ञान का मौखिक रूप से ही
आदान-प्रदान होता था। लोग किसी समूह में ही किसी दास्तान को सुनते थे या कोई आयोजन देखते आए थे।
अगले आठवें अध्याय में आप यह पढ़ेंगे कि लोग अकेले में चुपचाप पढ़ने के आदी नहीं थे। मुद्रण-क्रांति या
छपाई में क्रांति से पूर्व की पुस्तकें महँगी तो थी ही, उन्हें पर्याप्त संख्या में छापना भी एक असम्भव कार्य था।
परन्तु अब पुस्तकें समाज के सभी वर्गों को सुलभ हो सकती थीं। यदि पहले की जनता श्रोता थी तो अब एक
पाठक-जनता अस्तित्व में आ गयी थी।
 
प्रश्न 21. भारत में मुद्रण युग से पहले की पांडुलिपियों की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर―भारत में मुद्रण युग से पहले की पांडुलिपियों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं―
1. भारत में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं; जैसे―संस्कृत, अरबी, फारसी आदि में हाथ से लिखी
पांडुलिपियों की प्राचीन परम्परा थी।
2. ये पांडुलिपियाँ ताड़ के वृक्ष के पत्तों अथवा हाथ से बनाए गए कागज पर नकल करके तैयार की
जाती थीं।
3. इनके पन्नों पर लिखाई के साथ-साथ कहीं-कहीं तो बहुत सुन्दर तस्वीरों को भी बनाया जाता था।
4. इसके बाद इन्हें अधिक दिनों तक सुरक्षित बनाए रखने के उद्देश्य से इन्हें तख्तियों की जिल्द में
अथवा सिलाई करके बाँध दिया जाता था।
5. उन्नीसवीं शताब्दी में जब छपाई की तकनीक का विस्तार होने लगा तो इसके बाद तक भी
पांडुलिपियों की नकल का काम जारी रहा।
 
प्रश्न 22. हस्तलिखित पांडुलिपियों की क्या कमियाँ थीं? यूरोप में वुडब्लॉक विधि क्यों प्रचलित हुई?
उत्तर― हस्तलिखित पांडुलिपियों की प्रमुख कमियों और यूरोप में वुडब्लॉक विधि के प्रचलित होने का
संक्षिप्त उल्लेख निम्नवत् है―
(क) हस्तलिखित पांडुलिपियों की कमियाँ अथवा दोष―पांडुलिपियों के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे―
(i) यूरोप में पुस्तकों की माँग में निरन्तर तेजी से वृद्धि होती जा रही थी। इसलिए केवल हस्तलिखित
पांडुलिपियों के द्वारा ही इस मांग को पूरा किया जाना सम्भव नहीं था।
(ii) इसके अतिरिक्त पांडुलिपियों को तैयार करने हेतु नकल उतारना; बहुत अधिक खर्चीला तथा
समयसाध्य व श्रमसाध्य कार्य था।
(iii) ये पांडुलिपियाँ प्राय: बहुत नाजुक भी होती थीं।
(iv) उनके लाने-ले जाने और रख-रखाव में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ आती थीं।
(ख) वुडब्लॉक प्रिंटिंग (तख्ती की छपाई) का लोकप्रिय होना―पांडुलिपियों के उपर्युक्त दोषों के
कारण उनका सर्कुलेशन (चलन) सीमित होता चला गया और पुस्तकों की निरन्तर बढ़ती हुई माँग के
परिणामस्वरूप वुडब्लॉक प्रिंटिंग या तख्ती की छपाई की तकनीक लोकप्रिय होती चली गयी। पन्द्रहवीं
शताब्दी के आरम्भ तक के समय में यूरोप में व्यापक स्तर पर तख्ती की छपाई का प्रयोग करके कपड़े, ताश
के पत्ते और छोटी-छोटी टिप्पणियों के साथ धार्मिक चित्रों की छपाई हो रही थी।
 
प्रश्न 23.यूरोप में मुद्रण-क्रांति के आरम्भ के बाद वैज्ञानिक तथा दार्शनिकों के विचार आम जनता की
पहुँच तक किस प्रकार आए?
उत्तर― यूरोप में मुद्रण-क्रांति के आरम्भ के बाद वैज्ञानिक तथा दार्शनिकों के विचार आम जनता की
पहुँच तक किस प्रकार आए, इसका संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है―
1. अठारहवीं शताब्दी में पुस्तकों, पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में दी गई पठनीय सामग्री के साथ ही
लोगों को यूरोप के वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के बारे में पढ़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ।
 
2. इस सदी में प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथो का संकलन किया गया तथा मानचित्रों और वैज्ञानिक
जानकारी को बड़ी मात्रा में छापा गया।
 
3. जब आइजैक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों को छपवाना शुरू किया तो उनके लिए
विज्ञान की जानकारी रखने वाला एक बड़ा पाठकवर्ग तैयार हो गया।
 
4. इसके साथ ही टॉमस पेन, वॉल्तेयर और ज्याँ जाक रूसो जैसे महान दार्शनिकों की पुस्तकें भी काफी
संख्या में छापी और पढ़ी जाने लगीं।
 
5. इस प्रकार यूरोप के लोकप्रिय साहित्य में विज्ञान, तर्क और विवेकवाद पर आधारित विचारों को भी
स्थान मिलने लगा और जनता तर्क एवं विवेक के आधार पर सही निर्णय तक पहुँचने के लिए
दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के विचारों को महत्त्व देने लगी। यह सब केवल मुद्रण के क्षेत्र में हुई क्रांति
के परिणामस्वरूप ही सम्भव हो सका।
 
6. अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक लोगों के मन में यह विश्वास बन चुका था पुस्तकों के माध्यम से
प्रगति और ज्ञानोदय होता है। कितने ही लोगों का तो यह भी मानना था कि पुस्तकों के माध्यम से यह
दुनिया बदल सकती हैं तथा ये पुस्तकें निरंकुशवाद और आतंक पर आधारित राजसत्ता से समाजका
मुक्ति दिलाकर एक ऐसा दौर लाएँगी, जब संसार में केवल विवेक और बुद्धि का राज होगा। यूरोपीय
देशों के लोगों में इस प्रकार की मानसिकता का विकास करने में दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के विचार
विशेष रूप से सहायक हुए।
फिर भी यह तभी सम्भव हुआ, जब मुद्रण क्रांति के बाद महान विचारकों के विचारों पर आधारित साहित्य
का व्यापक स्तर पर मुद्रण, प्रकाशन और प्रचार-प्रसार हुआ।
 
                                   दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. गुटेनबर्ग ने अपनी प्रेस से सबसे पहले कौन-सी पुस्तक छापी थी? इस पुस्तक की क्या
विशेषताएँ थीं?
उत्तर― गुटेन्बर्ग ने अपनी प्रेस से जो किताब छापी वह थी बाइबिल। उसने इसकी तकरीबन 180 प्रतियाँ
बनाने में सिर्फ तीन साल का समय लिया जो उस समय के हिसाब से काफी तेज छपाई थी। उसकी 180
प्रतियाँ में से 50 प्रतियाँ ही बच पाई हैं। इन्हें गुटेनबर्ग की प्रेस की धातुई टाइप से छापा गया था। इसकी
विशेषताएँ इस प्रकार थीं―
1. इसके पन्नों पर, हाशियों पर कलाकारों ने हाथ से टीकाकारी और सुघड़ चित्रकारी की थी।
2. कोई भी दो प्रतियाँ एक जैसी नहीं थीं। हर प्रति का हर पन्ना अलग था।
3. पहली नजर में वे एक जैसे लगते, किन्तु गौर से तुलना करने पर फर्क पता चलता था।
4. हर जगह पर कुलीन तबकों ने इस विशिष्टता को पसंद किया।
5. जो प्रति जिसके पास थी वह दावा कर सकता था कि वह अनोखी है क्योंकि किसी के पास उसकी
हू-ब-हू नकल नहीं थी।
6. इसकी इबारतों में कई जगह पर अक्षरों में रंग भरे गए थे। इसके दो फायदे थे एक तो पन्ना रंगीन हो
जाता था साथ ही पवित्र शब्द ज्यादा दर्शनी और महत्त्वपूर्ण बन जाते थे।
7. गुटेन्बर्ग ने इबारत व पाठको काले में छापा और बाद में रंग भरे जाने के लिए जगह छोड़ दी।
 
प्रश्न 2. जापान की मुद्रण-संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर― जापान की मुद्रण-संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं―
1. एदो (तोक्यो) की शहरी क्षेत्रों की चित्रकारी को देखने से पता चला कि जापान में एक शालीन शहरी
संस्कृति का विकास हो रहा था।
2. जापान की इस शालीन शहरी संस्कृति में चायघर के मजमों, कलाकारों और तवायफों के चित्र देवाने
को मिलते हैं।
3. जापान में हाथ से छपी हुई सामग्री विभिन्न प्रकार की होती थी; जैसे–महिलाओं, संगीत के साज,
हिसाब-किताब, चाय-अनुष्ठान, फूलों को सजाना (पुष्पसज्जा), शिष्टाचार और रसोई आदि पर
छपी पुस्तकें।
4. जापान में छपी सबसे पुरानी या सबसे पहली मुद्रित पुस्तक ‘डायमंड-सूत्र’ के नाम से छापी गईं।
5. मध्यकाल में कवियों और गद्यकारों की रचनाएँ भी छपती थीं।
 
प्रश्न 3. चीन में प्रिंट के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर―मुद्रण की सबसे पहली तकनीक का विकास; चीन, जापान और कोरिया में हुआ। इस छपाई को
हाथ के द्वारा किया जाता था। लगभग 594 ई० में चीन में स्याही लगे हुए काठ के ब्लॉक अथवा तख्ती पर
कागज को रगड़कर पुस्तकों की छपाई की जाने लगी। शुरू में छिद्रित कागज के दोनों तरफ छपाई की जानी
सम्भव नहीं थी, इसलिए पारम्परिक चीनी पुस्तकें एकॉर्डियन’ शैली में पुस्तकों को मोड़ने के उपरान्त, उन्हें
सिलकर तैयार की जाती थीं। इन पुस्तकों का सुलेखन (खुशनवीसी) करने वाले लोग सुलेख की कला में
बड़े कुशल होते थे। ये हाथ से ही बड़े ही सुन्दर और अच्छे आकार वाले अक्षरों में बिलकुल सही रूप में
कलात्मक लिखाई का कार्य करते थे। इन्हें ‘सुलेखक’ अथवा ‘खुशखत’ कहा जाता था।
काफी समय तक छपी या मुद्रित सामग्री का सबसे बड़ा उत्पादक चीन राजतन्त्र ही बना रहा। चीन में काफी
बड़ी संख्या में नौकरशाही की नियुक्ति; सिविल सेवा परीक्षा के आधार पर की जाती थी। चीन में सिविल
सेवा परीक्षा सम्बन्धी पुस्तकें काफी संख्या में छापी जाती थीं। सोलहवीं शताब्दी में परीक्षा देने वालों की
संख्या में वृद्धि हो गयी, जिसके परिणामस्वरूप छापी जाने वाली पुस्तकों की संख्या में भी उसी अनुपात में
वृद्धि हो गयी।
सत्रहवीं शताब्दी तक आते-आते चीन में शहरी-संस्कृति विकसित होने लगी। इसके फलस्वरूप छपाई में भी
अनेक प्रकार की विविधताएँ आने लगीं। साथ ही अब मुद्रित सामग्री के उपभोक्ता या उसका प्रयोग करने
वाले केवल विद्वान लोग या अधिकारी ही नहीं रहे। व्यापारी और महिलाएँ आदि भी अब छपी हुई सामग्री को
उपयोग करने लगे। व्यापारी अपने प्रतिदिन के व्यापार की जानकारी हेतु मुद्रित सामग्री का प्रयोग करने लगे।
अब पढ़ना एक शौक बन गया। नए पाठक वर्ग को काल्पनिक किस्से, कविताएँ, आत्मकथाएँ, रूमानी नाटक
पढ़ना पसन्द था। वे शास्त्रीय साहित्यिक पुस्तकों के संकलन में भी रुचि लेते थे। यहाँ तक कि अब अमीर
घरानों की महिलाओं ने भी पढ़ना शुरू कर दिया। इनमें से कुछ ने स्वयं द्वारा रचित काव्य और नाटक भी
छपवाए।
पढ़ने की इस नयी संस्कृति के साथ ही एक नई तकनीक भी सामने आई। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में
पश्चिमी शक्तियों द्वारा अपनी चौकियाँ स्थापित करने के साथ ही पश्चिमी देशों की छपाई की तकनीक और
मशीनी प्रेस का आयात भी किया गया। ‘शंघाई-प्रिंट’; जो पश्चिमी शैली के स्कूलों की आवश्यकताओं को
पूरा करने में सहायक था; वह प्रिंट-संस्कृति का एक नया केन्द्र बन गया। इस प्रकार अब हाथ की छपाई का
स्थान; मशीनी अथवा यांत्रिक छपाई ने ले लिया।
 
प्रश्न 4. भारत में छपाई कब और किस प्रकार शुरू हुई? मुद्रण-युग के पहले भारत में सूचना और
विचार किस प्रकार लिखे जाते थे?
उत्तर― भारत में छपाई की शुरुआत―सबसे पहले सोलहवीं शताब्दी में भारत के गोवा में पुर्तगाली
धर्म-प्रचारकों के साथ प्रिंटिंग प्रेस आया। इसके बाद जेसुइट पुजारियों ने कोंकणी भाषा सीखकर कई
पुस्तिकाएँ छापीं। यहीं से भारत में मुद्रण का आरम्भ हुआ। 1674 ई० तक कोंकणी एवं कन्नड़ भाषाओं में
लगभग 50 पुस्तकों का मुद्रण हो चुका था। 1579 ई० में कैथोलिक पुजारियों ने कोचीन में पहली तमिल
भाषा की पुस्तक का प्रकाशन किया। इन्हीं के द्वारा 1713 ई० में सबसे पहली मलयालम पुस्तक भी छापी
गयी। इसके अतिरिक्त डच प्रोटेस्टेंट धर्म-प्रचारकों के द्वारा भी 32 पुस्तकें छापी गयीं। ये पुस्तकें तमिल भाषा
में छपी थीं। इन 32 पुस्तकों में से कई पुस्तकें पुरानी किताबों का अनुवाद भी थीं। भारत की कई क्षेत्रीय
भाषाओं में पुस्तकें छप चुकी थीं, परन्तु भारत में अंग्रेजी-भाषी
प्रेस काफी समय तक भी विकास नहीं कर
पाया। यद्यपि अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक छापेखाने का आयात शुरू कर
दिया था।
मुद्रण-युग के पहले भारत में सूचना और विचार का लिखा जाना―भारत में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं;
जैसे―संस्कृत, अरबी, फारसी आदि में हाथ से लिखी पांडुलिपियों की प्राचीन परम्परा थी। ये पांडुलिपियाँ
ताड़ के वृक्ष के पत्तों अथवा हाथ से बनाए गए कागज पर नकल करके तैयार की जाती थीं। इनके पन्नों पर
लिखाई के साथ-साथ कहीं-कहीं तो बहुत सुन्दर तसवीरों को भी बनाया जाता था। इसके बाद इन्हें अधिक
दिनों तक सुरक्षित बनाए रखने के उद्देश्य से इन्हें तख्तियों की जिल्द में अथवा सिलाई करके बाँध दिया जाता
था। उन्नीसवीं शताब्दी में जब छपाई की तकनीक का विस्तार होने लगा तो इसके बाद तक भी पांडुलिपियो
की नकल का काम जारी रहा।
 
प्रश्न 5. यूरोप में मुद्रण-संस्कृति का विकास किस प्रकार हुआ? यूरोप में पांडुलिपियों हेतु सुलेखको
की आवश्यकता में वृद्धि पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर― यूरोप में मुद्रण-संस्कृति के विकास तथा यूरोप में पांडुलिपियों हेतु सुलेखकों की आवश्यकता
में वृद्धि का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है―
(क) यूरोप में मुद्रण-संस्कृति का विकास―1295 ई० में महान खोजी यात्री माकोंपोलो चीन में कितने
ही वर्ष अपनी खोजें करने के पश्चात इटली वापस लौटा। चीन के पास छपाई की वुडब्लॉक या काठ की
तख्ती पर छपाई वाली तकनीक थी। इस तकनीक को मार्कोपोलों अपने साथ लेकर ही अपने देश इटली में
आया था। फलतः अब इटली के लोग भी तख्ती की छपाई वाली तकनीक के द्वारा पुस्तकें निकालने लगे।
इसके बाद कुछ ही समय में यह तकनीक शेष यूरोप में भी फैल गयी। कुलीन वर्ग और भिक्षु-संघों के लोग
इस तकनीक द्वारा छपी मुद्रित पुस्तकों को सस्ती और अश्लील मानते थे। इसी कारण उनके लिए छापी जाने
वाली पुस्तकों के अश्लील संस्करण अभी भी अत्यधिक महँगे ‘वेलम’ या चर्म-पत्र पर ही छपते थे। यूरोप के
व्यापारी और विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने वाले विद्यार्थी सस्ती और मुद्रित पुस्तकों को ही खरीदते थे।
 
(ख) यूरोप में पांडुलिपियों हेतु सुलेखकों की आवश्यकता में वृद्धि―जैसे-जैसे पुस्तकों की माँग में
वृद्धि हुई; सारे यूरोप के पुस्तक-विक्रेता विभिन्न देशों में अपनी पुस्तकों का निर्यात करने लगे। अनेक स्थानों
पर पुस्तकों के मेले भी लगाए जाने लगे। जब पुस्तकों की मांग बढ़ी तो उनकी आपूर्ति के लिए हस्तलिखित
पांडुलिपियों के उत्पादन के नए तरीकों पर भी विचार किया जाने लगा। इसके लिए सुलेखकों की अधिक
संख्या में आवश्यकता थी। अत: अब केवल अमीरों के यहाँ ही सुलेखक या कातिब काम नहीं करते थे,
बल्कि पुस्तक-विक्रेताओं के द्वारा भी उन्हें रोजगार दिया जाने लगा। सामान्यतः एक पुस्तक-विक्रेता के यहाँ
50 सुलेखक काम करते थे।
 
प्रश्न 6. उन नवीन आविष्कारों (नवाचारों) का उल्लेख कीजिए, जिनके परिणामस्वरूप सत्रहवीं
शताब्दी के उपरान्त मुद्रण-तकनीकी में सुधार हुआ?
अथवा प्रिंटिंग प्रेस, रंगीन छपाई तथा कागज डालने की तकनीकी आदि में सुधार तथा मुद्रकों एवं
प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों की बिक्री हेतु नए तरीके अपनाने पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर― प्रिंटिंग प्रेस, रंगीन छपाई तथा कागज डालने की तकनीकी आदि में सुधार तथा मुद्रकों एवं
प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों की बिक्री हेतु नए तरीके अपनाने पर निम्नलिखित पंक्तियों में संक्षिप्त प्रकाश
डाला गया है―
(क) प्रिंटिंग प्रेस, रंगीन छपाई तथा कागज डालने की तकनीकी आदि में सुधार―अठारहवीं शताब्दी
के अन्त तक धातु पर आधारित प्रेस का निर्माण होने लगा था। इसके उपरान्त पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में
छापेखाने की तकनीक में निरन्तर विभिन्न प्रकार के सुधार होते रहे। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक न्यूयॉर्क
के रिचर्ड एम०हो ने शक्ति से संचालित होने वाले बेलनाकार प्रेस को छपाई हेतु कारगर बना लिया। इस
बेलनाकार प्रेस की सहायता से प्रति घण्टे 8,000 शीट या ताव छप सकते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त
तक ऑफसेट प्रेस भी आ गया था। इसके द्वारा एक साथ छह रंगों की रंगाई सम्भव थी। विद्युत-चालित इन
प्रेसों की सहायता से छपाई का कार्य अत्यन्त तीव्रता से होने लगा। साथ ही मुद्रण की तकनीकी के क्षेत्र में
एक-दो बातें और हुई। अब मशीन में कागज डालने की पहले वाली विधि में सुधार हुआ और प्लेट की
गुणवत्ता में पहले से और अधिक अच्छी हो गयी। स्वचालित पेपर-रील और रंगों हेतु फोटो-विद्युत नियंत्रण
का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार मुद्रण की मशीनों से सम्बन्धित कई प्रकार की छोटी-छोटी इकाइयों में
सुधार होने के परिणमस्वरूप मशीनी प्रेस के द्वारा मुद्रित हुए पन्नों का रंग-रूप ही परिवर्तित होकर पहले से
बहुत अधिक बेहतर हो गया।
 
(ख) मुद्रकों एवं प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों की बिक्री हेतु नए तरीके अपनाना-छापेखाने या
मुद्रण की मशीनों आदि में सुधार के साथ ही अब पुस्तकों को छापने वाले प्रकाशकों और उन्हें बेचने वाले
मुद्रकों ने भी पुस्तकों को बेचने के नए-नए तरीके निकाल लिए। उन्नीसवीं शताब्दी की पत्रिकाओं में छपने
वाले उपन्यास अब धारावाहिक उपन्यासों के रूप में छपने लगे। इसके फलस्वरूप अब उपन्यास लिखने की
एक विशिष्ट शैली का विकास हुआ। 1920 ई० के दशक में इंग्लैंड में जो पुस्तक लोकप्रिय थीं, उन्हें एक
सस्ती पुस्तक-शृंखला ‘शिलिंग-शृंखला’ के रूप में छापा गया। पुस्तकों की जिल्द का आकर्षक आवरण या
मुखपृष्ठ अथवा डस्ट-कवर भी बीसवीं शताब्दी के तकनीकी सुधारों का ही परिणाम है। जब 1930 ई० में
सारे संसार में आर्थिक मंदी का दौर आया तो प्रकाशकों को अपनी पुस्तकों की बिक्री में कमी आने का भय
हो गया। परिणामत: उन्होंने पाठकों की जेब का ख्याल करते हुए पुस्तकों के अजिल्द या पेपरबैक संस्करण
छापे।
 
प्रश्न 7. भारतीय महिलाओं के जीवन पर मुद्रण-संस्कृति के प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर― भारतीय महिलाओं के जीवन पर मुद्रण-संस्कृति के प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है―
(क) पढ़ने-लिखने वाली महिलाओं की संख्या में वृद्धि―इस समय लिखे जाने वाले उपन्यास आदि
साहित्य में महिलाओं के जीवन और उनकी भावनाओं को बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा जाने लगा था। इसलिए
विशेष रूप से मध्यम वर्ग के घरानों की महिलाओं का पढ़ना भी पहले से अधिक हो गया था। जो पिता या
पति अपने विचारों और अपनी भावनाओं से उदार स्वभाव के थे, उन्होंने अपने घरों पर महिलाओं को पढ़ाना
आरम्भ कर दिया। जब उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में अनेक छोटे-बड़े शहरों में स्कूल खुले तो महिलाओं
को स्कूलों में भी पढ़ाई के लिए भेजा जाने लगा। यहीं नहीं देश की कई पत्रिकाओं ने लेखिकाओं को भी
अपनी पत्रिकाओं में जगह दी। इसके साथ ही इन पत्रिकाओं में नारी-शिक्षा की आवश्यकता को बार-बार
रेखांकित किया गया। इनमें भी पढ़ाई सम्बन्धी पाठ्यक्रम और आवश्यकता के अनुरूप पाठ्य-सामग्री भी
छपती थी। इस प्रकार की पाठ्य-वस्तु का उपयोग घर बैठे ही स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए किया जा
सकता था।
 
(ख) महिला-साहित्यकारों का उदय―उन्नीसवीं शताब्दी में हुए सामाजिक सुधार आन्दोलनों और उस
समय लिखे गए उपन्यासों ने पहले ही नारी-जीवन और उनसे सम्बन्धित भावनाओं में लोगों की दिलचस्पी
पैदा कर दी थी। इसलिए महिलाओं द्वारा जो भी आपबीती के सम्बन्ध में लिखा जा रहा था, उसके बारे में
लोगों के मन में एक कुतूहल का भाव पहले से ही बना हुआ था। 1860 ई० के दशक से कैलाशबासिनी देवी
जैसी महिला लेखिकाओं ने महिलाओं के अनुभवों पर लिखना आरम्भ किया। अपने लेखन में वे यह लिखती
थीं कि महिलाएँ किस प्रकार घरों में बंदी और अनपढ़ बनाकर रखी जाती थीं, वे किस प्रकार घरों का बोझ
उठाती थीं तथा घरों में वे जिनकी सेवा करती थीं, वे ही उन्हें किस प्रकार जानवरों की तरह दुत्कारते थे।
1880 ई० के दशक में ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई ने उच्च जातियों की महिलाओं की दयनीय
स्थितियों के बारे में बड़े ही जोश और रोष के साथ लिखा। विभिन्न प्रकार के सामाजिक बंधनों में बँधी हुई
एक महिला के लिए पढ़ने के क्या मायने हैं, इस सम्बन्ध में एक तमिल उपन्यास में एक महिला ने लिखा,
“बहुतेरे कारणों से मेरी दुनिया छोटी है… मेरे जीवन की आधी से ज्यादा खुशियाँ किताबें पढ़ने से आई
(ग) गम्भीर हिन्दी साहित्य की छपाई की शुरुआत और महिलाओं के लिए पत्रिकाओं का
प्रकाशन―भारत में उर्दू, तमिल, बंगाली और मराठी प्रिंट-संस्कृति का तो पहले ही विकास हो चुका था,
परन्तु गम्भीर हिन्दी की छपाई का आरम्भ 1870 ई० के दशक से ही हुआ। बहुत जल्दी ही इसका एक बड़ा
हिस्सा नारी-शिक्षण को समर्पित हुआ। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में महिलाओं के लिए पत्रिकाओं का
मुद्रण भी शुरू हो चुका था। कभी-कभी किसी पत्रिका का सम्पादन भी महिला-लेखिका या सम्पादिका के
द्वारा ही होता था। ये पत्रिकाएँ काफी लोकप्रिय हो चुकी थीं। इन पत्रिकाओं में जो लिखा जाता था, उसका
सम्बन्ध विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा, विधवा-जीवन की दयनीय दशाओं, विधवा-विवाह और
राष्ट्रीय आन्दोलन आदि से होता था। कुछ पत्रिकाओं के माध्यम से महिलाओं को अपनी गृहस्थी को चलाने
और फैशन करने के तरीकों से भी परिचित कराया जाता था। साथ ही कहानियों और धारावाहिक उपन्यास
के जरिए उनका मनोरंजन भी किया जाता था।
 
प्रश्न 8. गुटेन्बर्ग प्रेस के आविष्कार, उसके द्वारा छापी गयी पहली पुस्तक ‘बाइबिल’ तथा उसके
द्वारा मुद्रित पुस्तकों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर― गुटेन्बर्ग प्रेस के आविष्कार, उसके द्वारा छापी गयी पहली पुस्तक ‘बाइबिल’ तथा उसके
द्वारा मुद्रित पुस्तकों की विशेषताओं का संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित है―
(क) गुटेन्बर्ग प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार―प्रिंटिंग के इतिहास में गुटेनबर्ग का अपना विशेष योगदान था।
उसके पिता एक व्यापारी थे और वह एक बड़ी रियासत में पलकर बड़ा हुआ था। वह अपने बाल्यकाल से
ही तेल और जैतून पेरने की मशीन (Press) देखता आया था। बाद के समय में उसने पत्थर पर पॉलिश करने
की कला सीखी। इसके बाद उसने सुनार का काम और अन्त में शीशे को मनचाहे आकारों में गढ़ने के
कौशल में महारत प्राप्त की।
 
(ख) योहान गुटेन्बर्ग द्वारा छापी गयी पहली पुस्तक ‘बाइबिल’―अपने इस समस्त ज्ञान और अनुभव
का प्रयोग उसके द्वारा अपने एक नए आविष्कार में किया गया। उसने एक प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया
और जैतून प्रेस ही उसके इस प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल बना। इसके अतिरिक्त उसके द्वारा साँचे का उपयोग
अक्षरों की धातु से बनी आकृतियों को गढ़ने हेतु किया गया। 1448 ई० तक उसने अपनी प्रिंटिंग प्रेस को
बनाने का काम पूरा कर लिया था। अपनी इस प्रिंटिंग प्रेस के द्वारा उसने जिस पहली पुस्तक को छापा,
उसका नाम ‘बाइबिल’ था। इस पुस्तक की 180 प्रतियाँ तैयार करने में उसे लगभग तीन वर्ष का समय लगा।
फिर भी उस समय के हिसाब से यह गति काफी तेज थी। यह बात दूसरी है कि यह मशीनी तकनीक; हाथ से
पुस्तकों को छापने की तकनीक की जगह पूरी तरह से नहीं ले पाई।
 
(ग) छपी पुस्तकों का रंग-रूप और साज-सज्जा आदि विशेषताएँ―आरम्भ में तो गुटेन्बर्ग द्वारा बनाई
गयी प्रिंटिंग मशीन से छपी पुस्तकें भी अपने रंग-रूप व साज-सज्जा में हस्तलिखित पांडुलिपियों के समान
ही दिखाई देती थीं। इस मशीन तकनीक में धातु से बने अक्षर भी हाथ की सजावटी शैली जैसे ही थे। पुस्तकों
के हाशियों पर फूल-पत्तियों की डिजाइन बनायी जाती थी और चित्रों को प्रायः पेंट किया जाता था। जो
पुस्तकें अमीर लोगों के लिए छापी जाती थीं, उनके छपे हुए पन्नों पर हाशिये की जगह बेल-बूटों के लिए
खाली छोड़ दी जाती थी। पुस्तक का प्रत्येक खरीदार अपनी रुचि के अनुरूप डिजाइन व पेंटर का निर्धारण
स्वयं ही करके पुस्तक को सुन्दर बनवा सकता था।
 
प्रश्न 9. स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में प्रेस पर लगे प्रतिबंधों का वर्णन कीजिए।
उत्तर―स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में प्रेस पर लगाए जाने वाले प्रतिबंधों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है―
(क) प्रेस की आजादी को नियंत्रित करने वाले कानून और अंग्रेज अधिकारियों का प्रेस के प्रति उदार
रुख― 1820 ई० के दशक तक कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेस की आजादी को नियंत्रित करने वाले
कुछ कानून पारित कर दिए। इसके साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन अखबारों के प्रकाशन को प्रोत्साहित
करना आरम्भ कर दिया, जो ब्रितानी शासन का उत्सव मनाया करते थे; अर्थात् ब्रितानी शासन की प्रशंसा में
लिखा करते थे।
1835 ई० में अंग्रेजी एवं भारत की देसी भाषाओं के समाचार-पत्र के सम्पादकों द्वारा गवर्नर जनरल बैंटिक
से प्रार्थना करते हुए उसे एक प्रार्थना-पत्र दिया, जिसे पढ़कर बैंटिक; प्रेस-कानून की समीक्षा के लिए तैयार
हो गया। इसके बाद भारत में आए उदारवादी औपनिवेशिक अंग्रेज अधिकारी टॉमस मेकॉले ने प्रिंट सम्बन्धी
पहले की आजादी को बहाल करते हुए नए कानून बनाए।
 
(ख) 1857 ई० के विद्रोह के उपरान्त प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध और वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट’
लागू–भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० में एक व्यापक विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के बाद प्रेस की
स्वतन्त्रता के प्रति अंग्रेजों का रवैया बदल गया। वे बहुत अधिक नाराज हो उठे और उन्होंने प्रेस का मुँह बन्द
करने की माँग की। उधर जैसे-जैसे विभिन्न भाषाओं में छपने वाले भारतीय समाचार-पत्र राष्ट्रवाद के
समर्थन में अधिकाधिक लिखने लगे वैसे-वैसे ही औपनिवेशिक सरकार में प्रेस पर कठोर नियंत्रण सम्बन्धी
प्रस्ताव पर बहस तेज होती चली गयी।
इसी के परिणामस्वरूप आइरिश प्रेस-कानून की तरह 1878 ई० में ‘वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट’ लागू कर दिया
गया। इस ऐक्ट के आधार पर सरकार को विभिन्न भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों में छपी रिपोर्ट और
उनके सम्पादकीय को सेंसर करने का व्यापक अधिकार प्राप्त हो गया। इस ऐक्ट के पारित होने के बाद से
भारत की अंग्रेज सरकार ने विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं में छपने वाले अखबारों पर नियमित रूप से
नजर रखनी शुरू कर दी। अखबारों की रिपोर्ट आदि को पढ़ने के बाद यदि किसी रिपोर्ट को अंग्रेजों के
विरुद्ध; अर्थात् बागी घोषित किया जाता था तो ऐसी रिपोर्ट को छापने वाले अखबार को पहले चेतावनी दी
जाती थी। यदि अखबार के मालिक द्वारा उस चेतावनी को अनसुना किया जाता था तो इस स्थिति में उस
अखबार को जब्त किया जा सकता था। यही नहीं छपाई करने वाली मशीनों को भी छीना जा सकता था।
 
प्रश्न 10.प्रारम्भ में छपी पुस्तकें पांडुलिपियों जैसी किस प्रकार लगती थीं?
उत्तर― मुद्रण की सबसे पहली तकनीक का विकास; चीन, जापान और कोरिया में हुआ। इस छपाई को
हाथ के द्वारा किया जाता था। लगभग 594 ई० चीन में स्याही लगे हुए काठ के ब्लॉक अथवा तख्ती पर
कागज को रगड़कर पुस्तकों की छपाई की जाने लगी। शुरू में छिद्रित कागज के दोनों तरफ छपाई की जानी
सम्भव नहीं थी, इसलिए पारम्परिक चीनी पुस्तकें एकॉर्डियन’ शैली में पुस्तकों को मोड़ने के उपरान्त, उन्हें
सिलकर तैयार की जाती थीं। इन पुस्तकों का सुलेखन (खुशनवीसी) करने वाले लोग सुलेख की कला में
बड़े कुशल होते थे। ये हाथ से ही बड़े ही सुन्दर और अच्छे आकार वाले अक्षरों में बिलकुल सही रूप में
कलात्मक लिखाई का कार्य करते थे। इन्हें ‘सुलेखक’ अथवा ‘खुशखत’ कहा जाता था।
प्रारम्भ में छपी पुस्तकें पांडुलिपियों जैसी इस प्रकार लगती थीं―
1. प्रारम्भ में मुद्रित (छपी) पुस्तकें, स्वरूप और दिखावट में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों जैसी ही
दिखाई देती थीं।
2. धात्विक अक्षर, सुंदर सुडौल सुलेखन जैसे ही प्रतीत होते थे।
3. हाशिये को हाथ से सजाया जाता था और तस्वीरों को भिन्न-भिन्न रंग दिए जाते थे।
 
प्रश्न 11. यूरोप के मुद्रकों ने लोगों; और वह भी अधिकतर निरक्षर लोगों को मुद्रित पुस्तकों की ओर
किस प्रकार आकर्षित किया?
उत्तर―यूरोप के मुद्रकों ने लोगों; और वह भी अधिकतर निरक्षर लोगों को मुद्रित पुस्तकों की ओर
किस प्रकार आकर्षित किया? इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है―
(क) सभी प्रकार के लोगों में छपी पुस्तकों के प्रति रुचि उत्पन्न करना―समाज में होने वाले
परिवर्तनों का यह दौर अपने में सरल नहीं था। इसका कारण यह था कि पुस्तकों को केवल उन्हीं के द्वारा
पढ़ा जा सकता था, जो साक्षर थे। परन्तु यूरोप के अधिकतर देशों में बीसवीं शताब्दी तक साक्षरता की दर
बहुत कम थी। पुस्तकों को छापने वाले प्रकाशकों के समक्ष यह भी एक समस्या थी कि लोगों में छपी हुई
पुस्तकों के प्रति रुचि का विकास किस प्रकार किया जाए। इसके लिए यह आवश्यक था कि मुद्रित पुस्तकें
अधिकांश लोगों को सुलभ हो जाएँ। जो पढ़ने में सक्षम नहीं थे, वे भी किसी के द्वारा बोलकर पढ़े गए को
सुनकर तो उसका आनन्द प्राप्त ही कर सकते थे। इसलिए प्रकाशकों या मुद्रकों ने लोक-गीत व
लोक-गाथाओं को छापना शुरू किया। इस प्रकार की पुस्तकें प्राय: सचित्र होती थीं। इन्हें सामूहिक
ग्रामीण-सभाओं में शहर के शराबघरों में गाया या पढ़कर सुनाया जाता था।
इस प्रकार मौखिक संस्कृति का प्रवेश मुद्रित संस्कृति में हुआ। छपी हुई संस्कृति को मौखिक अंदाज में
प्रसारित किया गया। मौखिक व मुद्रित संस्कृति के बीच जो विभाजक रेखा थी, वह अब धुंधली पड़ गयी
इसके साथ ही श्रोता व पाठक वर्ग अब एक-दूसरे से घुल-मिल गए।
 
(ख) रुचि के अनुरूप विभिन्न आकार-प्रकार के साहित्य तथा पत्र-पत्रिकाओं का मुद्रण―अब
प्रकाशकों के द्वारा लोगों या पाठकों की रुचि के अनुरूप तरह-तरह के साहित्य छापे जाने लगे।
पुस्तक-विक्रेताओं ने अधिक-से-अधिक पुस्तकों को लोगों तक सुलभ बनाने के लिए फेरीवालों को काम
पर रखा। ये फेरीवाले गावों में जाकर छोटी-छोटी पुस्तकों को बेचते थे। इन पुस्तकों में मुख्य रूप से पंचांग,
लोक-गाथाएँ और लोक-गीतों पर आधारित पुस्तकें होती थीं। इसके उपरान्त मनोरंजन पर आधारित पुस्तकें
भी यूरोप के आम पाठकों तक पहुँचने लगीं। इंग्लैंड में ‘पेनी चैपबुक्स’ या ‘एक-पैसिया’ पुस्तकों का चलन
भी शुरू हो गया था। ये पुस्तकें पॉकेट बुक्स के आकार में छोटी-छोटी पुस्तकें होती थीं।
इन पुस्तकों को निर्धन वर्ग के लोग भी खरीदकर पढ़ सकते थे। इन्हें बेचने वालों को ‘चैपमैन’ कहा जाता था।
इसी प्रकार फ्रांस में ‘बिब्लियोथीक ब्ल्यू’ नामक पुस्तकों का चलन था। ये पुस्तकें छोटे आकार की, सस्ते
कागज पर छपी हुई और नीली जिल्द में बँधी हुई होती थीं। इनके अतिरिक्त यूरोप के बाजारों में चार-पाँच
पन्ने की प्रेम-कहानियाँ और अतीत की कुछ गाथाएँ भी छपी हुई होती थीं। अतीत की इन गाथाओं को
इतिहास के नाम से जाना जाता था। इस विवरण के आधार पर यह सरलता से स्पष्ट हो जाता है कि यूरोप में
लोगों की भिन्न-भिन्न रुचि या दिलचस्पी तथा अलग-अलग उद्देश्यों के आधार पर पुस्तकों का प्रकाशन
होता था। ये पुस्तकें कई प्रकार की और कई आकार की होती थीं।
इन पुस्तकों के प्रकाशन के अतिरिक्त अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू
हुआ। पत्रिकाओं में समसामयिक घटनाओं का विवरण दिया जाता था। साथ ही मनोरंजन पर आधारित
सामग्री भी दी जाती थी। समाचार-पत्रों और अन्य पत्रों में युद्ध और व्यापार से सम्बन्धित जानकारी होती थी।
इसके अतिरिक्त इनमें दूर-देशों के समाचार भी पढ़ने को मिलते थे।
 
प्रश्न 12. भारत में धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में मुद्रण की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर― भारत में धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में मुद्रण की भूमिका का संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों
के अन्तर्गत किया गया है―
(क) छपे साहित्य का मेनोकियो पर प्रभाव तथा उसके और प्रकाशकों, पुस्तक-विक्रेताओं के
विरुद्ध चर्च की कार्यवाही―यह छपे हुए लोकप्रिय साहित्य का ही परिणाम था कि इसके परिणामस्वरूप
कम शिक्षित लोग भी धर्म की भिन्न-भिन्न आख्याओं से परिचित हुए। साथ ही उन्होंने इस सन्दर्भ में अपने
विचार और प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करना भी शुरू कर दिया था। यह बात अन्यथा है कि ऐसा करना उनके
लिए मुसीबतभरा भी हो सकता था।
इसी प्रकार के एक उदाहरण सोलहवीं शताब्दी में इटली के एक किसान मेनोकियो के बारे में है। उसकी
पुस्तकों को पढ़ने में रुचि उत्पन्न हो चुकी थी और उसने अपने क्षेत्र में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ना शुरू कर
दिया था। उसने जिन पुस्तकों को पढ़ा, उनके आधार पर उसने बाइबिल के नए अर्थ लगाने शुरू कर दिए।
उसने ईश्वर और सृष्टि के बारे में इस प्रकार के विचारों को व्यक्त किया कि कैथोलिक चर्च उससे क्रुद्ध हो
गया। इस प्रकार के धर्म-विरोधी विचारों का दमन करने के लिए रोमन कैथोलिक चर्च ने ‘इन्क्वीजीशन
(धर्म-द्रोहियों को दुरुस्त करने वाली संस्था) को शुरू किया। इसके आधार पर मेनोकियो को दो बार
गिरफ्तार कर लिया गया। यहाँ तक कि उसे अन्त में मौत की सजा दे दी गयी।
 
(ख) उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक विषयों पर बहस और इस दृष्टि से प्रिंट की भूमिका―उन्नीसवी
शताब्दी के आरम्भ से ही हमारे देश में धार्मिक विषयों के सम्बन्ध में बहुत अधिक बहसें हो रही थीं। देश के
अलग-अलग समूह अंग्रेजों के अधीन औपनिवेशिक भारत में हो रहे विभिन्न प्रकार के बदलावों से इस
समय जूझ रहे थे। साथ ही वे धर्म की अपने-अपने अनुसार अलग-अलग व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। इनमें
से कुछ तो उस समय के रीति-रिवाजों की आलोचना करते हुए उनमें सुधार चाहते थे। दूसरी ओर वे
रूढ़िवादी लोग थे, जो समाज-सुधारकों के तर्कों के विरुद्ध थे और वे पुराने रीति-रिवाजों में किसी भी प्रकार
का बदलाव नहीं होने देना चाहते थे। इस प्रकार के सारे वाद-विवाद; प्रिंट के माध्यम से सारी जनता के
सामने आए। उस समय छापे जाने वाले समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने न केवल नवीन विचारों के
प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया, बल्कि धर्म सम्बन्धी इन बहसों के स्वरूप आदि का निर्धारण करने में
भी सहायता की।
 
(ग) समाज एवं धर्म-सुधारकों तथा हिन्दू रूढ़िवादियों के बीच बहस एवं उनकी पुस्तकें―यह
उन्नीसवीं शताब्दी का वह समय था, जब समाज-सुधारकों, धर्म-सुधारकों तथा हिंदू रूढ़िवादियों के बीच
कई विषयों पर तेज बहसें हो रहीं थीं। ये बहस; विधवा-विवाह, सती-प्रथा, एकेश्वरवाद, ब्राह्मण पुजारीवर्ग
और मूर्तिपूजा जैसे मुद्दों पर आधारित थीं। देश के बंगाल प्रान्त में जैसे-जैसे ये बहसें तेज हुई वैसे-वैसे ही
भारी मात्रा में छपी पुस्तिकाओं एवं अखबारों में इन बहसों से सम्बन्धित तर्क समाज के समक्ष आने लगे। इन्हें
अधिक-से-अधिक लोगों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हो सके, इसके लिए इन्हें आम बोलचाल की भाषा में
छापा गया। इसी उद्देश्य से भारत के महान समाज-सुधारक राजा राममोहन राय ने 1821 ई० में
‘संवाद-कौमुदी’ को प्रकाशित किया। राजा राममोहन राय के विचारों के विरुद्ध अथवा उनसे टक्कर लेने के
लिए रूढ़िवादियों ने ‘समाचार-चंद्रिका’ का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त 1882 ई० में दो फारसी
अखबार भी छापे गए। ये अखबार थे―’जाम-ए-जहाँनामा’ व ‘शम्सुल अखबार’।
 
(घ) मुस्लिम सम्प्रदायों एवं लेखकों द्वारा धार्मिक सामग्री का प्रकाशन―उत्तर भारत के ‘उलमा’ इस
समय मुस्लिम राजवंशों के पतन के बारे में बहुत अधिक चिन्तित थे। उन्हें इस बात का भय था कि कहीं
औपनिवेशिक अंग्रेज शासक धर्मांतरण को बढ़ावा न दें अथवा मुस्लिम कानूनों को ही न बदल दें। अपने इस
भय के उपाय के रूप में उन्होंने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का प्रयोग करके अपने मुस्लिम धर्मग्रन्थों के फारसी या
उर्दू अनुवादों का प्रकाशन किया। इसके साथ ही उन्होंने धार्मिक समाचार-पत्र व गुटके भी छपवाए।
 
प्रश्न 13.”मौखिक संस्कृति और मुद्रण-संस्कृति परस्पर पूरक थे।” उपयुक्त तर्क देकर इस कथन
की समीक्षा कीजिए।
उत्तर― ‘मौखिक संस्कृति और मुद्रण-संस्कृति परस्पर पूरक थे।’ इस कथन के लिए निम्नलिखित
उपयुक्त तर्क दिये जा सकते हैं―
1. प्राचीन समय में पढ़ना सिर्फ उच्च/संभ्रात वर्ग में प्रचलित था।
2. मुद्रण के आविष्कार के बाद, पुस्तकें संभ्रात वर्ग के साथ-साथ सामान्य जन गृहिणी एवं कामगारों
तक भी पहुंँची।
3. उनमें से अधिकतर जो अनपढ़ थे वे उन पुस्तकों को सुनकर आनंद ले सकते थे जिसे उन्हें पढ़ने के
लिए अनुमति थी।
4. अशिक्षितों के लिए लोकप्रिय गाथाओं एवं ग्रामीण कहानियों को तेज आवाज में पढ़ा जा सकता था।
5. महाभारत एवं रामायण जैसे तथा बहुत-सी ऐसी लोक-गाथाओं एवं वीर-गाथाओं को समझने के
लिए इसे सामूहिक रूप से गाया जाता था।
 
प्रश्न 14.उन कारणों का उल्लेख कीजिए, जिनके कारण यूरोप में पढ़ने का जुनून पैदा हो गया था।
अथवा पढ़ने के जुनून के सम्बन्ध में संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए इस सम्बन्ध में एक प्रकाशक जेम्स
लॉकिंग्टन के विवरण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर― पढ़ने के जुनून और इस सम्बन्ध में एक प्रकाशक जेम्स लॉकिंग्टन के विवरण का संक्षिप्त
उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में प्रस्तुत किया गया है―
(क) पढ़ने का जुनून―सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी की अविधि में यूरोप के अधिकांश देशों में
साक्षरता में वृद्धि होती रही। इस अविधि में अलग-अलग सम्प्रदायों के चर्चों ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों की
स्थापना की। साथ ही गाँव के किसानों और कारीगरों को भी शिक्षित किया जाने लगा। इन प्रयासों का
परिणाम यह हुआ कि यूरोप के कुछ देशों में तो साक्षरता की दर 60 से 80 प्रतिशत तक पहुँच गयी। यूरोप में
स्कूलों का प्रसार और साक्षरता की दर में वृद्धि ही नहीं हुई। वहाँ के लोगों में पढ़ने में रुचि भी उत्पन्न हुई।
यहाँ तक कि यह रुचि एक जुनून के रूप में विकसित हो गयी। अब वहाँ के लोगों को विभिन्न प्रकार की और
अधिक-से-अधिक से पुस्तकें चाहिए थीं। परिणामस्वरूप पुस्तक छापने वाले प्रकाशक भी अधिकाधिक
पुस्तक छापने लगे।
 
(ख) पढ़ने के जुनून के सम्बन्ध में जेम्स लॉकिंग्टन का विवरण―“पिछले बीस सालों में किताबों की
बिक्री में आमतौर पर बेतहाशा वृद्धि हुई है। गरीब किस्म के किसान या गाँव के लोग, जो पहले अपनी शामें
डायन-जोगिन और भूत-प्रेत की कहानियाँ सुनते हुए बिताते थे … अब अपनी संतानों द्वारा पढ़े गए रूमानी
या अन्य किस्सों को सुनने का आनन्द लेते हुए जाड़े की रातों को छोटी करने लगे हैं। अगर जॉन शहर जा
रहा है तो उसे सख्त हिदायत की जाएगी कि वह पेरेग्रिन पिकल्स ऐडवेंचर’ लेकर आए …और अगर डॉली
अंडे बेचने जा रही है तो उसे कहा जाता है कि वह ‘द हिस्ट्री ऑफ जोजेफ ऐण्डूज लेकर ही वापस लौटे।”
 
प्रश्न 15.उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज को आकार देने में प्रेस की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर― उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज को आकार देने में प्रेस की भूमिका
उत्तर भारत के ‘उलमा’ इस समय मुस्लिम राजवंशों के पतन के बारे में बहुत अधिक चिन्तित थे। उन्हें इस
बात का भय था कि कहीं औपनिवेशिक अंग्रेज शासक धर्मातरण को बढ़ावा न दें अथवा मुस्लिम कानूनों को
ही न बदल दें। अपने इस भय के उपाय के रूप में उन्होंने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का प्रयोग करके अपने
मुस्लिम धर्मग्रन्थों के फारसी या उर्दू अनुवादों का प्रकाशन किया। इसके साथ ही उन्होंने धार्मिक
समाचार-पत्र व गुटके भी छपवाए। 1867 ई० में स्थापित देवबंद सेमिनरी ने हजारों फतवे जारी किए। इनमें
मुस्लिम पाठक-वर्ग को रोजाना का जीवन जीने का सलीका बताया जाता था और इस्लामी सिद्धान्तों के
मायने समझाए जाते थे। पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में कई इस्लामी सम्प्रदायों और सेमिनरी का उदय
हुआ। इन सभी की धर्म के सम्बन्ध में अपनी-अपनी व्याख्याएँ थीं। ये सभी अपने सम्प्रदाय के प्रभाव को
बढ़ाना चाहते थे और दूसरों के प्रभाव को काटने के लिए उनके विरोध में अपने तर्क देते थे।
हिंदुओं में भी छपाई के फलस्वरूप सामने आने वाली पुस्तकों आदि के कारण विशेष रूप से स्थानीय
भाषाओं में धार्मिक पढ़ाई को बहुत बल मिला। 1810 ई० में कलकत्ता से गोस्वामी तुलसीदास की सोलहवीं
शताब्दी की पुस्तक ‘श्रीरामचरितमानस’ का पहला छपा हुआ संस्करण प्रकाशित हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के
मध्य तक पुस्तकों के सस्ते लिथोग्राफी संस्करणों से उत्तर भारत का बाजार पट गया। उत्तर प्रदेश के लखनऊ
के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस में कितनी ही भारतीय भाषाओं में अनगिनत धार्मिक
पुस्तकों का मुद्रण हुआ। ये पुस्तकें मुद्रित थीं और इन्हें लाने-ले-जाने में भी कोई कठिनाई नहीं थी, इसी
कारण धर्म के प्रति आस्थावान लोग इन्हें कभी भी और कहीं भी आसानी से पढ़ सकते थे। अनपढ़ लोगों की
भीड़ में इन्हें बोल-बोलकर भी पढ़ा जा सकता था।
इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक पुस्तकें काफी संख्या में व्यापक रूप से जन-समुदाय को सुलभ हो
रही थीं। इसी के परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों के बीच एवं उन धर्मों के लोगों में बहस या वाद-विवाद एवं
संवाद की एक नई स्थिति बन गयी थी। लेकिन प्रिंट या मुद्रित पुस्तकों आदि ने विभिन्न समुदायों के बीच
केवल विभिन्न मतों या विचारधाराओं को ही जन्म नहीं दिया, बल्कि इसके माध्यम से समुदायों को अन्दर से
और विभिन्न हिस्सों को सारे भारत से जोड़ने में भी अपनी उल्लेखनीय भूमिका अदा की।
 
प्रश्न 16.”मुद्रण-संस्कृति ने फांसीसी क्रांति के लिए नई परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं।” तीन
उपयुक्त तर्क देते हुए इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर― कुछ इतिहासकारों का यह विचार है कि मुद्रण-संस्कृति के परिणामस्वरूप फ्रांस की क्रान्ति के
लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन हुआ। इस सम्बन्ध में तीन प्रकार के तर्क सामने आते हैं, जिनका
संक्षिप्त उल्लेख अग्रलिखित है―
1. इस सन्दर्भ में पहला तर्क यह है कि पुस्तकों के निरन्तर मुद्रण या छपाई के कारण विभिन्न चिंतकों के
विचारों या उनके द्वारा दिए ज्ञान का व्यापक रूप से प्रसार हुआ। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से
विभिन्न पुरानी परम्पराओं, अंधविश्वासों और निरंकुशवादी सोच एवं क्रियाकलापों की आलोचना
की। उन्होंने कहा कि रीति-रिवाजों को आँख मूंदकर मानने के स्थान पर विवेक के आधार पर शासन
करने पर बल दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक बात को तर्क और विवेक की कसौटी पर
कसकर ही उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने चर्च की धर्मिक सत्ता और निरंकुशवाद पर
आधारित सत्ता का अपने विचारों से खंडन किया। साथ ही पुरानी परम्पराओं के आधार पर चली आ
रही सामाजिक व्यवस्था को अपने तर्कों के आधार पर लोगों की निगाह में कमजोर बना दिया। उस
समय के सुप्रिसिद्ध क्रांतिकारी चिंतक और लेखक वॉल्तेयर और रूसो के द्वारा भी लिखा गया, उसे
पढ़ने वाला एक व्यापक पाठक-वर्ग था। उनके विचारों के पुस्तकों आदि के रूप में पढ़ने वाले
पाठकों में दुनिया को देखने का एक नवीन आलोचनात्मक, प्रश्नसूचक और तार्किक दृष्टिकोण
उत्पन्न हो गया था।
 
2. दूसरा तर्क यह है कि वाद-विवाद या आपसी संवाद की एक नयी संस्कृति को जन्म दिया। जो भी
पुराने मूल्य, संस्थाएँ और कायदे थे, उन आम जनता के लोग आपस में बहस और तर्क करने लगे।
इससे इन सबके फिर से मूल्यांकन का क्रम शुरू हुआ। रूसो आदि लेखकों के चिंतन के
परिणामस्वरूप तर्क की ताकत से परिचित हुई ‘नयी पब्लिक’ अब धर्म और आस्था पर प्रश्न उठाने
का मोल समझ चुकी थी। वह अब केवल अंधविश्वास के आधार पर सबकुछ मानने के लिए तैयार
नहीं थी। इस प्रकार से तैयार हुई ‘सार्वजनिक दुनिया’ के द्वारा सामाजिक क्रांति पर आधारित नए
विचारों का सूत्रपात हुआ।
 
3. तीसरा और अन्तिम तर्क यह है कि 1780 ई० के दशक तक राजशाही और उसकी नैतिकता का
मजाक उड़ाने वाले साहित्य का अब तक ढेर लग चुका था। इस सारी प्रक्रिया में सामाजिक व्यवस्था
के सम्बन्ध में आम जनता और चिंतकों ने अनेक प्रकार के प्रश्न उठाए। इस समय जो कार्टून और
कैरिकेचर (व्यंग्य चित्र) बनाए जाते थे, उन्हें देखकर भी यही भाव उत्पन्न होता था कि जनता तो
अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँसी हुई है, जबकि राजशाही भोग-विलास में ही डूबी हुई है। जो
साहित्य छिपे हुए रूप में प्रसारित किया जाता था, ऐसे भूमिगत साहित्य ने भी लोगों को राजतन्त्र के
विरुद्ध भड़काया।
 
प्रश्न 17.उन्नीसवीं सदी के अंत तक एक नए प्रकार की दृश्य-संस्कृति आकार ले रही थी। इस नयी
दृश्य-संस्कृति की किन्हीं तीन प्रमुख विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर― उन्नीसवीं सदी के अंत में दृश्य-संस्कृति―उन्नीसवीं सदी के अंत में ‘दृश्य-संस्कृति’ उभरी,
जिसके द्वारा किताबों को आकर्षक बनाया गया। छापाखानों के विकास के साथ बड़ी संख्या में कई छवियों
की नकलें या प्रतियाँ आसानी से तैयार की जाने लगी। राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों ने आम खपत के लिए
तस्वीरें बनाई। काठ की तख्ती पर चित्र उकेरने वालों को भी मुद्रकों ने काम देना प्रारंभ कर दिया। अब गरीब
आसानी से उपलब्ध होती सस्ती तस्वीरों व कैलेंडरों से अपने घरों और दुकानों को सजाने लगे थे। इन छपी
तस्वीरों के कारण आधुनिकता व परंपरा, धर्म, राजनीति व समाज व संस्कृति के लोकप्रिय विचार-जगत का
निर्माण हुआ। नयी दृश्य-संस्कृति की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं―
1. छापेखानों की बढ़ती तादाद के साथ छवियों की कई नकलें या प्रतियाँ अब बड़ी आसानी से बनाई जा
सकती थीं।
2. राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों ने आम लोगों के लिए तस्वीरें बनाई। सस्ते कैलेंडर और तस्वीरें
खरीदकर गरीब भी अपने घरों को सजा लेते थे।
3. छपी तस्वीरों में आधुनिकता व परम्परा, धर्म व राजनीति तथा समाज व संस्कृति के लोकप्रिय
विचार-लोक को गढ़ा गया।
 
प्रश्न 18. मजदूरों पर मुद्रण के प्रभावों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
अथवा ‘जन-साक्षरता के परिणामस्वरूप यूरोप में बच्चों, महिलाओं और मजदूरों का एक बहुत बड़ा
पाठक-वर्ग सामने आया।” इस कथन पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
अथवा बच्चों, महिलाओं और मजदूरों पर जन-साक्षरता अथवा मुद्रण के प्रभावों का संक्षिप्त
विवरण दीजिए।
उत्तर―उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के देशों में जन-साक्षरता की दिशा में किए गए प्रयास बहुत अधिक
सफल हुए और वहाँ की साक्षरता दर में काफी वृद्धि हुई। साक्षरता में हुई इस वृद्धि के परिणामस्वरूप ही
वहाँ बच्चों एवं महिलाओं आदि के रूप में एक बड़ा पाठक-वर्ग सामने आया।
निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत साक्षरता के परिणामस्वरूप बच्चों, महिलाओं और मजदूरों का पाठक-वर्ग
के रूप में वृद्धि का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है―
(क) उन्नीसवीं शताब्दी में जन-साक्षरता में वृद्धि, बच्चों के लिए पुस्तकें तथा लोक-कथाओं का
प्रकाशन―उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में यूरोप के अधिकांश देशों में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य घोषित
कर दिया गया। शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक पढ़ने में सक्षम होते गए और वे भी मुद्रित पुस्तकों के पाठकों
की एक महत्त्वपूर्ण श्रेणी के रूप में गिने जाने लगे। इसी कारण अब प्रकाशकों के लिए व बालकों के लिए
पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण हो गया। 1857 ई० में फ्रांस में केवल बाल-पुस्तकों को छापने के
लिए ही एक प्रेस या मुद्रणालय खोला गया। इस मुद्रणालय में पुरानी व नयी; दोनों प्रकार की परी-कथाओं
और लोक-कथाओं का प्रकाशन किया गया।
इसी प्रकार जर्मनी के ग्रिम-बंधुओं ने कितने ही वर्षों के प्रयास से किसानों के बीच जाकर अनेक
लोक-कथाएँ जमा की। उन्होंने जो सामग्री एकत्रित की गयी, उनका सम्पादन किया गया और उसके बाद
अन्त में 1812 ई० में उन लोक-कथाओं का कहानियों के रूप में एक संकलन छापा गया। जो सामग्री बच्चों
के लिए अनुपयुक्त समझी जाती थी या जो पाठ्य-सामग्री कुलीन वर्ग के लोगों को अश्लील प्रतीत होती थी,
उसे प्रकाशित संस्करण में सम्मिलित नहीं किया जाता था। इस प्रकार पुरानी लोक-कथाओं को छापने से
उन्हें एक नया रूप मिला, फिर भी यह सही है कि वे छपी तो, लेकिन इस प्रक्रिया में उनका रूप परिवर्तित भी
हो गया।
 
(ख) पाठिका एवं लेखिकाओं के रूप में महिलाएँ―बच्चों के साथ ही महिलाएं भी उन्नीसवीं शताब्दी में
पाठिका एवं लेखिका के रूप में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयीं। ‘पेनी ‘मैगजींस’ व ‘एक पैसिया पत्रिकाएँ’;
विशेष रूप से महिलाओं के लिए ही छपा करती थीं। ये पत्रिकाएँ ठीक वैसी ही होती थीं, जैसी कि सही
चाल-चलन व गृहस्थी के बारे में जानकारी प्रदान करने वाली निर्देशिकाएँ। जब उन्नीसवीं शताब्दी में
उपन्यास भी छापे जाने लगे तो महिलाओं को उनके पाठक-वर्ग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया।
उस समय जो प्रसिद्ध उपन्यास लिखे जा रहे थे, उनमें भी महिलाएं ही आगे थीं। इन महिला उपन्यासकारों में
जेन ऑस्टिन, ब्रॉण्ट बहने, जॉर्ज इलियट आदि महिलाओं के नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों में
जो भी लिखा, उससे एक नयी नारी की परिभाषा उभरकर सामने आई, एक ऐसी नारी की; जिसका व्यक्तित्व
मजबूत था, जिसके पास गहरी सूझ-बूझ थी, जिसके पास अपना मस्तिष्क था और जिसके पास अपनी
इच्छाशक्ति भी थी। जो बिना किसी के आश्रित हुए अपने तर्क एवं विवेक के आधार पर स्वयं ही निर्णय लेने
में सक्षम थी और जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर कुछ भी करने में स्वयं को सक्षम समझती थी।
 
(ग) पुस्तकालयों का अस्तित्व में आना और मजदूरों के लिए पुस्तकों की भूमिका―सत्रहवीं शताब्दी
से ही पढ़ने वालों को किराए पर पुस्तकें देने वाले पुस्तकालय भी अस्तित्व में आ चुके थे। उन्नीसवीं शताब्दी
में इंग्लैंड में इस प्रकार के पुस्तकालयों का उपयोग; सफेद-कॉलर मजदूरों, दस्तकारों और निम्नवर्गीय लोगों
को शिक्षित करने के लिए किया गया। काम के दिन छोटे होने के उपरान्त मजदूरों को अपने सुधार एवं
आत्माभिव्यक्ति के लिए कुछ समय प्राप्त होने लगा। इन मजदूरों के लिए काफी संख्या में राजनीतिक पर्चे
और आत्मकथाएँ भी लिखी गईं।
 
प्रश्न 19.भारत में छपाई के विकास में धर्म प्रचारकों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर―प्रिंटिंग प्रेस 16वीं सदी में भारत के गोवा में पुर्तगाली धर्म-प्रचारकों के साथ आया। जेसुइट
पुजारियों ने कोंकणी सीखी और कई सारी पुस्तिकाएँ छापी। 1674 ई० तक कोकणी और कन्नड़ भाषाओं में
लगभग 50 किताबें छप चुकी थीं। कैथोलिक पुजारियों ने 1579 ई० में कोचीन में पहली तमिल किताब
छापी। 1713 ई० में पहली मलयालम किताब छापने वाले भी वहीं थे। डच प्रोटेस्टेंट धर्म-प्रचारकों ने 32
तमिल किताबें छापी, जिनमें से कई पुरानी किताबों का अनुवाद थीं। अंग्रेजी भाषी प्रेस भारत में बहुत समय
तक विकास नहीं कर पाया था, यद्यपि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 17वीं सदी के अंत तक छापेखाने का
आयात शुरू कर दिया था।
जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने 1780 से बंगाल गजट नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन शुरू किया। यह
पत्रिका भारत में प्रेस चलाने वाले औपनिवेशिक शासन से आजाद, निजी अंग्रेज उद्यम थी और इसे अपनी
स्वतंत्रता पर अभिमान था। वह भारत में कार्यरत वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों से जुड़ी गपबाजी भी छापता था।
इससे नाराज होकर गवर्नर जनरज वॉरेन हेस्टिंग्स ने हिक्की पर मुकदमा कर दिया और ऐसे सरकारी आश्रय
प्राप्त अखबारों के प्रकाशन को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया जो औपनिवेशिक राज की छवि पर होते
हमलों से इसकी रक्षा कर सकें। 18वीं सदी के अंत तक बहुत सारी पत्र-पत्रिकाएँ छपने लगीं। कुछ
हिन्दुस्तानी भी अपने अखबार छापने लगे थे। ऐसे प्रयासों में पहला था राजा राममोहन राय के करीबी रहे
गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित बंगाल गजट।
 
प्रश्न 20.भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों ने अपने विचारों के प्रसार हेतु मुद्रण तकनीकी का प्रयोग
किस प्रकार किया?
उत्तर― उन्नीसवी शताब्दी के आरम्भ से ही हमारे देश में धार्मिक विषयों के सम्बन्ध में बहुत अधिक
बहसें हो रही थीं। देश के अलग-अलग समूह अंग्रेजों के अधीन औपनिवेशिक भारत में हो रहे विभिन्न
प्रकार के बदलावों से इस समय जूझ रहे थे। साथ ही वे धर्म की अपने-अपने अनुसार अलग-अलग
व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। इनमें से कुछ तो उस समय के रीति-रिवाजों की आलोचना करते हुए उनमें
सुधार चाहते थे। दूसरी ओर वे रूढ़िवादी लोग थे, जो समाज-सुधारकों के तर्कों के विरुद्ध थे और वे पुराने
रीति-रिवाजों में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं होने देना चाहते थे। इस प्रकार के सारे वाद-विवाद; प्रिंट
के माध्यम से सारी जनता के सामने आए। उस समय छापे जाने वाले समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने न
केवल नवीन विचारों के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया, बल्कि धर्म सम्बन्धी इन बहसों के स्वरूप
आदि का निर्धारण करने में भी सहायता की। बहसों में देश का जन-समुदाय भी व्यापक रूप से भाग ले
सकता था। साथ ही इस सन्दर्भ में उसका क्या मत या विचारधारा है, उसे भी व्यक्त कर सकता था। धर्म
सम्बन्धी इस प्रकार के विभिन्न मतों या विचारधाराओं के परिणामस्वरूप कितने ही नवीन विचार भी सामने
आए।
यह उन्नीसवीं शताब्दी का वह समय था, जब समाज-सुधारकों, धर्म-सुधारकों तथा हिंदू रूढ़िवादियों के
बीच कई विषयों पर तेज बहसें हो रही थीं। ये बहस; विधवा-विवाह, सती-प्रथा, एकेश्वरवाद, ब्राह्मण
पुजारीवर्ग और मूर्तिपूजा जैसे मुद्दों पर आधारित थीं। देश के बंगाल प्रान्त में जैसे-जैसे ये बहस तेज हुईं,
वैसे-वैसे ही भारी मात्रा में छपी पुस्तिकाओं एवं अखबारों में इन बहसों से सम्बन्धित तर्क समाज के समक्ष
आने लगे। इन्हें अधिक-से-अधिक लोगों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हो सके, इसके लिए इन्हें आम
बोलचाल की भाषा में छापा गया । इसी उद्देश्य से भारत के महान समाज-सुधारक राजा राममोहन राय ने
1821 ई० में ‘संवाद-कौमुदी’ को प्रकाशित किया। राजा राममोहन राय के विचारों के विरुद्ध अथवा उनसे
टक्कर लेने के लिए रूढ़िवादियों ने समाचार-चंद्रिका’ का प्रकाशन किया। इसके अतिरिक्त 1882 ई० में दो
फारसी अखबार भी छापे गए। ये अखवार थे—’जाम-ए-जहाँनामा’ व ‘शम्सुल अखबार’।
उत्तर भारत के उलेमा इस समय मुस्लिम राजवंशों के पतन के बारे में बहुत अधिक चिन्तित थे। उन्हें इस बात
का भय था कि कहीं औपनिवेशिक अंग्रेज शासक धर्मातरण को बढ़ावा न दें अथवा मुस्लिम कानूनों को ही न
बदल दें। अपने इस भय के उपाय के रूप में उन्होंने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का प्रयोग करके अपने मुस्लिम
धर्मग्रन्थों के फारसी या उर्दू अनुवादों का प्रकाशन किया। इसके साथ ही उन्होंने धार्मिक समाचार-पत्र व
गुटके भी छपवाए। 1867 ई० में स्थापित देवबंद सेमिनरी ने हजारों फतवे जारी किए। इनमें मुस्लिम
पाठक-वर्ग को रोजाना का जीवन जीने का सलीका बताया जाता था और इस्लामी सिद्धान्तों के मायने
समझाए जाते थे। पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में कई इस्लामी सम्प्रदायों और सेमिनरी का उदय हुआ। इन
सभी की धर्म के सम्बन्ध में अपनी-अपनी व्याखाएँ थीं। ये सभी अपने सम्प्रदाय के प्रभाव को बढ़ाना चाहते
थे और दूसरों के प्रभाव को काटने के लिए उनके विरोध में अपने तर्क देते थे।
हिंदुओं में भी छपाई के फलस्वरूप सामने आने वाली पुस्तकों आदि के कारण विशेष रूप से स्थानीय
भाषाओं में धार्मिक पढ़ाई को बहुत बल मिला। 1810 ई० में कलकत्ता से गोस्वामी तुलसीदास की सोलहवीं
शताब्दी की पुस्तक ‘श्रीरामचरितमानस’ का पहला छपा हुआ संस्करण प्रकाशित हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के
मध्य तक पुस्तकों के सस्ते लिथोग्राफी संस्करणों से उत्तर भारत का बाजार पट गया। उत्तर प्रदेश के लखनऊ
के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस में कितनी ही भारतीय भाषाओं में अनगिनत धार्मिक
पुस्तकों का मुद्रण हुआ। ये पुस्तकें मुद्रित थीं और इन्हें लाने-ले-जाने में भी कोई कठिनाई नहीं थी, इसी
कारण धर्म के प्रति आस्थावान लोग इन्हें कभी भी और कहीं भी आसानी से पढ़ सकते थे। अनपढ़ लोगों की
भीड़ में इन्हें बोल-बोलकर भी पढ़ा जा सकता था।
इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक पुस्तकें काफी संख्या में व्यापक रूप से जन-समुदाय को सुलभ हो
रही थीं। इसी के परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों के बीच एवं उन धर्मों के लोगों में बहस या वाद-विवाद एवं
संवाद की एक नई स्थिति बन गयी थी। लेकिन प्रिंट या मुद्रित पुस्तकों आदि ने विभिन्न समुदायों के बीच
केवल विभिन्न मतों या विचारधाराओं को ही जन्म नहीं दिया, बल्कि इसके माध्यम से समुदायों को अन्दर से
और विभिन्न हिस्सों को सारे भारत से जोड़ने में भी अपनी उल्लेखनीय भूमिका अदा की।

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