up board class 9th hindi | गुरु नानकदेव
(हजारीप्रसाद द्विवेदी)
जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
प्रश्न हजारीप्रसाद द्विवेदी की कृतियों का उल्लेख करते हुए उनका जीवन-परिचय दीजिए।
उत्तर― जीवन-परिचय―हिन्दी के मूर्धन्य निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया
जिले के ‘दुबे का छपरा’ नामक ग्राम में सन् 1907 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल
द्विवेदी एवं माता का नाम श्रीमती ज्योतिकली देवी था। इनके पिता ज्योतिष और संस्कृत के प्रकाण्ड
विद्वान् थे। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत-साहित्य तथा ज्योतिष में आचार्य की उपाधि प्राप्त
की। आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से ये शान्ति-निकेतन गये और वहाँ जाकर साहित्य का गम्भीर
अध्ययन और बांग्ला भाषा का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया। वहाँ सन् 1940 ई० में ये हिन्दी-विभाग में अध्यापन
करने लगे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रेरणा से ये साहित्य-सृजन की ओर प्रवृत्त हुए। काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष पद पर कार्य करते हुए ये हिन्दी साहित्य
की सतत सेवा करते रहे। सन् 1949 ई० में ‘लखनऊ विश्वविद्यालय’ ने साहित्य के क्षेत्र में इनकी महान्
सेवाओं के लिए इन्हें डी.लिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ‘कबीर’ पर इन्हें ‘मंगलाप्रसाद’
पारितोषिक भी प्रदान किया गया। इनकी गौरवपूर्ण साहित्य-सेवा के फलस्वरूप भारत सरकार ने सन् 1957
ई० में इन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। निरन्तर साहित्य सृजन करते हुए 19 मई, सन्
1979 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।
कृतियाँ―द्विवेदी जी ने हिन्दी की अनेक विधाओं पर उत्तम साहित्य का सृजन किया है। इनकी
कृतियों का विवरण निम्नलिखित है―
(1) निबन्ध-संग्रह―‘विचार और वितर्क,’ ‘अशोक के फूल’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘कुटज’,
‘कल्पलता’, ‘कल्पना’, ‘साहित्य के साथी’, ‘आलोकपर्व’ आदि।
(2) आलोचना-साहित्य―सूर-साहित्य’, ‘कबीर’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘कालिदास की लालित्य
योजना’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हमारी साहित्यिक समस्याएँ’, ‘भारतीय वाङ्मय’, ‘नख-दर्पण में
हिन्दी कविता’, ‘साहित्य का साथी’, ‘समीक्षा साहित्य’ आदि।
(3) इतिहास–‘हिन्दी-साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’, ‘हिन्दी-साहित्य’,
‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘प्राचीन भारत का कला-विकास’, ‘मध्यकालीन धर्म-साधना’ आदि।
(4) उपन्यास–‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ तथा ‘अनामदास का पोथा’।
(5) सम्पादित ग्रन्थ―‘नाथ-सिद्धों की बानियाँ,’ ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो’, ‘सन्देश-रासक’।
(6) अनूदित साहित्य―‘प्रबन्ध चिन्तामणि,’ ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह, ‘प्रबन्ध कोष’, ‘लाल कनेर’,
‘मेरा बचपन’, ‘विश्व परिचय’ आदि।
साहित्य में स्थान―आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रकाण्ड विद्वान्, उच्चकोटि के विचारक और
समर्थ आलोचक हैं। ये भारतीय संस्कृति के युगीन व्याख्याता थे। हिन्दी-साहित्य में इनका मूर्धन्य स्थान है।
डॉ० शम्भूनाथ सिंह के शब्दों में―“आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की हिन्दी-साहित्य को सबसे बड़ी
देन यह है कि उन्होंने हिन्दी-समीक्षा को एक नयी, उदार और वैज्ञानिक दृष्टि दी है।”
गद्यांशों पर आधारित प्रश्न
प्रश्न निम्नलिखित गद्यांशों के आधार पर उनके साथ दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखिए―
(1) लोकमानस में असें से कार्तिकी पूर्णिमा के साथ गुरु के आविर्भाव का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है।
गुरु किसी एक ही दिन को पार्थिव शरीर में आविर्भूत हुए होंगे, पर भक्तों के चित्त में वे प्रतिक्षण प्रकट हो
सकते हैं। पार्थिव रूप को महत्त्व दिया जाता है, परन्तु प्रतिक्षण आविर्भूत होने को आध्यात्मिक दृष्टि से
अधिक महत्त्व मिलना चाहिए। इतिहास के पण्डित गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के विषय में
वाद-विवाद करते रहें, इस देश का सामूहिक मानव चित्त उतना महत्त्व नहीं देता।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित, अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. नानकदेव के आविर्भाव का सम्बन्ध किस दिन से जुड़ा हुआ है?
2. क्या नानकदेव के आविर्भाव के सम्बन्ध में वाद-विवाद उचित है?
[लोकमानस = जनता का मन। अर्से से = अधिक समय से। आविर्भाव = जन्म। आविर्भूत = उत्पन्न।
पार्थिव = भौतिक। वाद-विवाद = झगड़ा।]
उत्तर― (अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य खण्ड’ के अन्तर्गत यशस्वी
निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ‘गुरु नानकदेव’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है।
अथवा निम्नवत् लिखिए―
पाठ का नाम―गुरु नानकदेव। लेखक का नाम―आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।
[संकेत―इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न ‘अ’ का यही उत्तर इसी रूप में लिखा
जाएगा।]
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कहना है कि गुरु नानक
का जन्म कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था। यह बात भले ही कसौटी पर खरी न उतरती हो फिर भी
गुरु नानकदेव का पंचतत्त्व से बना हुआ भौतिक शरीर किसी एक दिन प्रकट हुआ ही होगा, लेकिन श्रद्धालु
भक्तजनों के हृदय में उनका जन्म प्रत्येक क्षण होता रहता है अर्थात् इनके भक्त जब भी उनका स्मरण करते
हैं, तभी वे उनके हृदय में प्रकट हो जाते हैं। भारतीय जनमानस में पार्थिव रूप अर्थात् भौतिक शरीर को
अधिक महत्त्व दिया जाता है, परन्तु लेखक का कहना है कि गुरु नानकदेव के पार्थिव जन्मदिन की तुलना में
आध्यात्मिक जन्मदिन को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
(स)1. गुरु नानकदेव के आविर्भाव का सम्बन्ध कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि के साथ जुड़ा हुआ है।
2. नानकदेव के आविर्भाव के सम्बन्ध में वाद-विवाद उचित नहीं है क्योंकि भौतिक शरीर के जन्म
होने के सम्बन्ध में वाद-विवाद हो सकते हैं लेकिन भक्तों के हृदय में गुरु किसी भी क्षण में अवतरित हो
सकता है।
(2) गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जाये, वही क्षण उत्सव का है, वही क्षण
उल्लसित कर देने के लिए पर्याप्त है। ‘नवो नवो भवति जायमानः’-गुरु, तुम प्रतिक्षण चित्तभूमि में
आविर्भूत होकर नित्य नवीन हो रहे हो। हजारों वर्ष से शरत्काल की यह सर्वाधिक प्रसन्न तिथि प्रभामण्डित
पूर्णचन्द्र के साथ उतनी ही मीठी ज्योति के धनी महामानव का स्मरण कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ
महामानवों का सम्बन्ध जोड़ने में इस देश का समष्टि चित्त आह्लाद का अनुभव करता है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) पूर्ण चन्द्रमा की तिथि किस महामानव का स्मरण कराती है?
[उल्लसित = आनन्दित। जायमान = जन्म लेता हुआ। चित्तभूमि = चित्त या मन से।]
उत्तर― (ब) रेखांकित अंशकी व्याख्या―लेखक का कहना है कि गुरु भगवान् का स्वरूप है और
उसकी महिमा अवर्णनीय है। मन में गुरु का ध्यान जिस शुभ घड़ी में चाहे जिस दिन, जिस समय आ जाये,
भक्तजनों के लिए वही दिन, वही समय आनन्दित होने का, महोत्सव का होता है। भक्तजनों के हृदयों में गुरु
का नित्य नवीन जन्म होता रहता है। शरद्काल की पूर्णिमा की चाँदनी अनादिकाल से लोगों में आह्लाद का
संचार करती रही है। उज्ज्वल आभा से मण्डित इस चन्द्र के दर्शन की लोग वर्षभर प्रतीक्षा करते हैं। चाँदनी
के उत्सव की यह मनोरम तिथि सदैव से अविस्मरणीय रही है।
(स) पूर्ण चन्द्रमा की तिथि महामानव गुरु नानकदेव का स्मरण कराती है क्योंकि चन्द्रमा के साथ
महामानवों का सम्बन्ध जुड़ने से भारतवासियों के हृदय अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
(3) देश में नये धर्म के आगन्तुकों के कारण एक ऐसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, जो इस देश के
हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास में अपरिचित थी। ऐसे ही दुर्घट काल में इस देश की मिट्टी ने ऐसे अनेक
महापुरुषों को उत्पन्न किया, जो सड़ी रूढ़ियों, मृतप्राय आचारों, बासी विचारों और अर्थहीन संकीर्णताओं के
विरुद्ध प्रहार करने में कुण्ठित नहीं हुए और इन जर्जर बातों से परे सबमें विद्यमान सबको नयी ज्योति और
नया जीवन प्रदान करने वाले महान् जीवन-देवता की महिमा प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुए।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) देश में कौन-सी समस्या उठ खड़ी हुई थी?
दुर्घट = कठिनता से घटित होने वाला। आचारों = आचरणों, व्यवहारों। अर्थहीन = महत्त्वहीन।
संकीर्णताओं = संकुचित विचारों। जर्जर = जीर्ण-शीर्ण। प्रतिष्ठित = स्थापित। समर्थ = सक्षम।]
उत्तर―(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य द्विवेदी जी ने स्पष्ट किया है कि कठिन समय में
हमारे देश की मिट्टी में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। इन महापुरुषों ने दूषित संस्कारों, सड़ी-गली
परम्पराओं, अनुपयोगी एवं अहितकर विचारों और संकुचित दृष्टिकोण को समाप्त करने के लिए पूरा-पूरा
प्रयास किया। बाधाओं के कारण वे भयभीत नहीं हुए। इन महान पुरुषों ने जर्जर और खण्डित विचारधारा को
समाप्त करके एक ऐसी विराट जीवन-दृष्टि को प्रतिष्ठित किया, जिसके कारण जन-जन का मन नयी
ज्योति, नयी दीप्ति, नयी आभा और नये प्रकाश से जगमग हो गया। गुरु नानकदेव भी एक ऐसे ही महापुरुष
थे।
(स) कतिपय नये धर्म के मानने वालों; जो भारतवर्ष के हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास से अपरिचित
थे; के कारण देश जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों आदि की विभिन्न मान्यताओं के कारण खण्डशः विच्छिन्न हो
गया था।
(4) विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रांति ले आने वाला यह सन्त इतने मधुर, इतने
स्निग्ध, इतने मोहक वचनों का बोलने वाला है। किसी का दिल दुःखाये बिना, किसी पर आघात किये बिना,
कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखने वाला, नयी संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करने
वाला यह सन्त मध्यकाल की ज्योतिष्क मण्डली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की
तरह ज्योतिष्मान् है। आज उसकी याद आये बिना नहीं रह सकती।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) गद्यांश में किस सन्त के बारे में कहा जा रहा है? उनकी वाणी की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
[आघात = चोट। कुसंस्कार = बुरे विचार एवं आचरण। संजीवनी = जीवन देने वाली। उल्लसित
आनन्दित। ज्योतिष्क = प्रकाशपुंज, तेजयुक्त व्यक्ति। ज्योतिष्मान = प्रकाशमान।)
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार गुरु
नानक एक महान सन्त थे। उन्होंने अपने आचरण और मधुर वाणी से ही दूसरों के विचारों और आचरण में
परिवर्तन करने का प्रयास किया। बिना किसी का दिल दुखाये और बिना किसी को किसी प्रकार की चोट
पहुँचाये, उन्होंने दूसरों के बुरे संस्कारों को नष्ट कर दिया। उनकी सन्त वाणी को सुनकर दूसरों का हृदय
हर्षित हो जाता था और लोगों को नवजीवन प्राप्त होता था। लोग उनके उपदेशों को जीवनदायिनी औषध की
भाँति ग्रहण करते थे। मध्यकालीन सन्तों के बीच गुरु नानकदेव इसी प्रकार प्रकाशमान दिखाई पड़ते हैं, जैसे
आकाश में आलोक बिखेरने वाले नक्षत्रों के मध्य; शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभायमान होता है।
(स) गद्यांश में गुरु नानकदेव के बारे में कहा जा रहा है। गुरु नानकदेव की वाणी मधुर, स्निग्ध और
अत्यधिक मोहक थी जो भारतवासियों के तत्कालीन जीवन में क्रान्ति लाने में सहायक हुई।
(5) वह सब प्रकार से लोकोत्तर है। उसका उपचार प्रेम और मैत्री है। उसका शास्त्र सहानुभूति और
हित-चिन्ता है। वह कुसंस्कारों के अन्धकार को अपनी स्निग्ध-ज्योति से भेदता है, मुमूर्ष प्राणधारा को अमृत
का भाण्ड उँड़ेलकर प्रवाहशील बनाता है। वह भेदों में अभेद देखता है, नानात्व में एक का संधान बनाता है,
वह सब प्रकार से निराला है। इस कार्तिक पूर्णिमा को अनायास उसके चरणों में नत हो जाने की इच्छा होती है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) कौन सभी प्रकार से निराला है? गद्यांश में लेखक किस कार्तिक पूर्णिमा पर किसके चरणों में नत
हो जाने की बात कह रहा है ?
[लोकोत्तर = अलौकिक। उपचार = इलाज। हित-चिन्ता = दूसरों के हित के विषय में सोचना।
कुसंस्कार = बुरे संस्कार। स्निग्ध-ज्योति = प्रेम का प्रकाश। मुमूर्षु = मरने के निकट। भाण्ड = बर्तन।
प्रवाहशील = गतिशील। अभेद = एकता। नानात्व = अनेकता। संधान = खोज।]
उत्तर―(ब)रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कहना है कि गुरुनानक सभी-दृष्टियों से एक
अलौकिक पुरुष थे। प्रेम और मैत्री के द्वारा ही वे दूसरों की बुराइयों को दूर करने में विश्वास रखते थे। दूसरों
के प्रति सहानुभूति का भाव रखना और उनके कल्याण के प्रति चिन्तित रहना ही उनके लिए शास्त्र के समान
था। अपने समय के बुरे संस्कारों को उन्होंने प्रेम तथा मैत्री के व्यवहार और सरल मधुर वाणी द्वारा दूर किया।
अन्धविश्वासों, रूढ़ियों तथा कुसंस्कारों से जो जन-जीवन मृतप्राय हो गया था, गुरु नानक ने उसमें अमृत
भरा और उसे पुनः नया जीवन देकर विविधता में एकता की खोज कर बन्धुत्व की भावना को जगाया।
(स) गुरु नानकदेव सभी प्रकार से निराले हैं। लेखक द्वारा किसी वर्ष की शरद पूर्णिमा को प्रस्तुत
लेख लिखा गया है। गद्यांश में लेखक शरद पूर्णिमा के एक मास बाद आने वाली कार्तिक पूर्णिमा पर गुरु
नानकदेव के चरणों में नत होने की बात कर रहा है।
(6) गुरु नानक ने प्रेम का सन्देश दिया है; क्योंकि मनुष्य-जीवन का जो चरम प्राप्तव्य है, वह स्वयं
प्रेमरूप है। प्रेम ही उसका स्वभाव है, प्रेम ही उसका साधन है। अरे ओ मुग्ध मनुष्य, सच्ची प्रीति से ही तेरा
मान-अभिमान नष्ट होगा, तेरी छोटाई की सीमा समाप्त होगी, परम मंगलमय शिव तुझे प्राप्त होगा। उसी सच्चे
प्रेम की साधना तेरे जीवन का परम लक्ष्य है। बाह्य आडम्बरों को तू धर्म समझ रहा है। मूल संस्कारों को तू
आस्था मानता है? नहीं प्यारे, यह सब धर्म नहीं है। धर्म तो स्वयं रूप होकर भगवान् के रूप में तेरे भीतर
विराजमान है। उसी अगम-अगोचर प्रभु की शरण पकड़। क्या पड़ा है इन छोटे अहंकारों में। ये मुक्ति के
नहीं, बंधन के हेतु हैं।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. नानकदेव के अनुसार मानव का चरम प्राप्तव्य क्या है और वह कैसे प्राप्त होता है?
2. नानकदेव के अनुसार धर्म क्या है, क्या नहीं है और वह कहाँ है?
3. कौन-सा कारण मुक्ति का न होकर बन्धन का कारण है?
[चरम प्राप्तव्य = प्राप्ति का अन्तिम लक्ष्य। शिव = मंगल।]
उत्तर― (ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक कहता है कि गुरु नानकदेव ने सारे संसार को
प्रेम का सन्देश दिया। मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है। ईश्वर स्वयं प्रेम स्वरूप है
और प्रेम ही उसका स्वभाव है। उस ईश्वर तक पहुँचने का एकमात्र उपाय भी प्रेम ही है। मन का अहंकार भी
शुद्ध प्रेम की साधना करने से ही दूर हो सकता है। निष्कपट प्रेम के अभाव में मन में हीन भावना आती है और
उससे हृदय संकीर्ण और अपवित्र होता है। इन दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए ईश्वरीय प्रेम की सच्ची साधना
करनी चाहिए। इसी से कल्याण होता है, छोटे-बड़े के भेद नष्ट होते हैं, जीवन में सरसता आती है और अन्त
में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―बाहरी आडम्बर धर्म नहीं है। धर्म तो आत्मा के रूप में व्यक्ति
के अन्दर है, जिसे अहंकार को नष्ट करके ही जाना और पाया जा सकता है। इसलिए मूल संस्कारों को
छोड़कर, बाहरी आडम्बरों से मुक्ति पाकर और अपने अन्दर के अहंकार को पूर्णत: नष्ट करके ही ईश्वर की
शरण में जाना उचित है। इसी से मुक्ति मिलेगी। अहंकार और आडम्बरों से घिरे रहने पर सांसारिक बन्धनों
से छुटकारा नहीं मिलेगा; क्योंकि ये बन्धन के कारक हैं, मुक्ति के हेतु नहीं।
(स) 1. नानकदेव का कहना है कि मनुष्य जीवन का चरम प्राप्तव्य ईश्वर है, जो प्रेम स्वरूप है और
जिसे प्रेम से ही पाया जा सकता है।
2. नानकदेव का कहना है कि मूल संस्कार और बाहरी दिखावा धर्म नहीं है। धर्म तो स्वयं ईश्वर का
रूप है और वह प्रत्येक मनुष्य के अन्दर ही स्थित है।
3. मानव के मन में स्थित अहंकार और बाहरी दिखावे की प्रवृत्ति ही मुक्ति के न होकर बन्धन के
कारण हैं।
(7) धन्य हो, हे अगम, अगोचर, अलख, अपार देव, तुम्हीं मेरी चिन्ता करो। जहाँ तक देखता हूँ वहाँ
तक जल में, थल में, पृथ्वी में सर्वत्र तुम्हारी ही लीला व्याप्त है, घट-घट में तुम्हारी ज्योति उद्भासित हो
रही है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) प्रस्तुत अंश कविता की दो पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद है। उन दो मूल पंक्तियों को लिखिए।
[अगम = बुद्धि की पहुंच से परे; जिसे समझा न जा सके। अगोचर = अप्रत्यक्ष । अलख = जो दिखाई न
दे ।अपार = जिसकी कोई सीमा न हो। घट-घट में = प्रत्येक हृदय में। उद्भासित = चमक।]
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियों में आचार्य द्विवेदी ने गुरु नानक के उस
दृष्टिकोण को सामने रखा है, जिसमें उन्होंने प्रत्येक मनुष्य एवं प्राणी में उसी अगम, अगोचर, अलख कहलाने
वाले ईश्वर की ज्योति देखी है, जो स्वयं उनके हृदय में भी विराजमान है। गुरु नानक, उसी ईश्वर को
सम्बोधित करते हुए, मनुष्य मात्र के लिए यह सन्देश देते हैं कि हे देव! तुम्हीं मेरी चिन्ता करो; क्योंकि जल
में, स्थल में और इस पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है, वहाँ-वहाँ तक सर्वत्र तुम्हारी ही लीला
व्याप्त है और तुम्हारी ही ज्योति से इस धरा का कण-कण चमक रहा है।
(स) कविता की दो मूल पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं―
अगम अगोचर अलख अपारा, चिन्ता करहु हमारी।
जलि थलि माही अलि भरिपुरि घट घट ज्योति तुम्हारी ॥
(8) अद्भुत है गुरु की बानी की सहज बेधक शक्ति। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई बनावट नहीं,
सहज हृदय से निकली हुई सहज प्रभावित करने की अपार शक्ति। सहज जीवन बड़ी कठिन साधना है।
सहज भाषा बड़ी बलवती आस्था है। सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है। गुरु का अनाडम्बर सहज धर्म ऐसी
ही सहजवाणी से प्रचारित हो सकता था। कितनी अद्भुत निरभिमान शैली है। कहीं भी पांडित्य का दुर्धर बोझ
नहीं और फिर भी पंडितों को आन्दोलित करने वाली यह वाणी धन्य है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) नानकदेव की वाणी की शक्ति का वर्णन कीजिए।
[आडम्बर = दिखावा। आस्था = श्रद्धा, विश्वासपूर्ण भावना।]
उत्तर―(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कथन है कि सरल और आडम्बररहित
जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन होता है। सहज भाषा में अद्भुत शक्ति होती है। सरल जीवन व्यतीत करना
ऐसा ही टेढ़ा काम है, जैसा सीधी लकीर खींचना। यहाँ सीधी लकीर का तात्पर्य सरल और निष्कपट जीवन
से है। लेखक का तात्पर्य है कि गुरु नानकदेव ने बिना किसी आडम्बर के अपने भावों को जनसाधारण तक
पहुँचाया। उनकी वाणी में न तो अहंकार था और न ही विद्वत्ता का आडम्बर। इसीलिए उनकी सरल,
स्वाभाविक और मीठी वाणी ने सबको प्रभावित किया। विद्वज्जनों को भी पूर्णरूपेण प्रभावित करने वाली
उनकी वाणी धन्य है जिसने रूढ़ियों में जकड़े समाज को असाधारण रूप से प्रभावित किया है।
(स) गुरु नानकदेव की वाणी में अद्भुत शक्ति थी। उनकी वाणी हदय पर सीधा असर करती थी।
उसमें कहीं कोई दिखावा और कृत्रिमता नहीं थी। वह हृदय से स्वाभाविक रूप से प्रकट होती थी और श्रोता
के हृदय को पूरी तरह से अपने वश में कर लेती थी।
(9) किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है, बड़ी लकीर खींच देना। क्षुद्र
अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए तर्क और शास्त्रार्थ का मार्ग कदाचित्
ठीक नहीं है। सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना। गुरु नानक ने यही किया। उन्होंने जनता को
बड़े-से-बड़े सत्य के सम्मुखीन कर दिया। हजारों दीये उस महाज्योति के सामने स्वयं फीके पड़ गये।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. किसी लकीर को मिटाये बिना छोटा कैसे किया जा सकता है?
2. मनुष्य के दुर्गुणों को मिटाने के विषय में नानकदेव क्या सोचते थे?
3. नानकदेव ने क्या किया?
4. ‘हजारों दीये उस महाज्योति के सामने स्वयं फीके पड़ गये’, वाक्यांश का आशय स्पष्ट
कीजिए।
[क्षुद्र = तुच्छ। अहमिका = अहंकार की भावना। संकीर्णता = संकुचित सोच। कदाचित् = कभी।
सम्मुखीन = सम्मुख।
उत्तर― (ब)रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य द्विवेदी जी का कहना है कि यदि किसी रेखा को
बिना मिटाये छोटी बनाना हो तो इसका सबसे अच्छा उपाय यही होगा कि उसके सामने उससे बड़ी रेखा
खींच दी जाये। दूसरी बड़ी रेखा खींचने से पहली रेखा स्वयं छोटी दिखाई देगी, छोटी बनाने के लिए उसे
मिटाने की आवश्यकता नहीं है। मानव के मन में जो अहंकार की तुच्छ भावना और गन्दे विचार भरे हुए हैं,
उनकी तुच्छता और निरर्थकता सिद्ध करने के लिए तर्क अथवा शास्त्रों के प्रमाण देकर वाद-विवाद करना
उचित नहीं है। ऐसा करने से संघर्ष और अधिक बढ़ेगा, इसलिए छोटेपन का आभास कराने के लिए लोगों के
सामने बड़ा, उदार और आदर्श आचरण प्रस्तुत करना चाहिए अर्थात् एक बड़े सत्य को उनके सम्मुख रखना
चाहिए।
(स) 1. किसी लकीर को मिटाये बिना छोटा बना देने का उचित उपाय यह है कि उसके सामने बड़ी
लकीर खींच दी जाए।
2. गुरु नानकदेव जानते थे कि तर्क एवं शास्त्रार्थ के द्वारा दुर्गुणों को मिटा पाना सम्भव नहीं है। मनुष्य
के दुर्गुण तभी मिट सकेंगे जब कि उसको सत्य के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो सकेगा।
3. गुरु नानकदेव ने तुच्छ एवं संकुचित आचरण के सम्मुख अपनी उदारता का महान आदर्श रखा
और लोगों के सम्मुख सर्वोच्च सत्य को प्रकट कर दिया।
4. वाक्यांश का आशय है कि नानकदेव के समय के हजारों बड़े-बड़े सन्त भी गुरु नानकदेव की
महानता को स्वीकार करने के लिए विवश हो गये।
(10) भगवान् जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति ऐसे महान् सन्तों में उतार देते हैं। एक बार
जब यह ज्योति मानव-देह को आश्रय करके उतरती है तो चुपचाप नहीं बैठती। वह क्रियात्मक होती है, नीचे
गिरे हुए अभाजन जनों को वह प्रभावित करती है, ऊपर उठाती है। वह उतरती है और ऊपर उठाती है। इसे
पुराने पारिभाषिक शब्दों में कहें तो कुछ इस प्रकार होगा कि एक ओर उसका ‘अवतार’ होता है, दूसरी और
औरों का उद्धार होता है। अवतार और उद्धार की यह लीला भगवान् के प्रेम का सक्रिय रूप है, जिसे पुराने
भक्तजन ‘अनुग्रह’ कहते हैं।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) ‘अवतार’ एवं ‘उद्धार’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(अनुग्रह = कृपा। दिव्य ज्योति = अलौकिक प्रकाश। अभाजन = अयोग्य।]
उत्तर―(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य द्विवेदी जी का कहना है कि भगवान् जब
अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए उन पर कृपा करते हैं तो वे अपने दिव्य तेज को गुरु नानक जैसे सन्त
पुरुषों में चुपचाप उतार देते हैं। यह दिव्य ज्योति मानव-शरीर का आश्रय लेकर जब पृथ्वी पर उतरती है तो
वह चुपचाप नहीं बैठती। वह ज्योति तत्काल सक्रिय हो जाती है और अपना कार्य करने लगती है। वह पतितों,
पापियों और अयोग्यजनों को ऊपर उठाती है। वह स्वयं तो नीचे उतरती है, परन्तु अगणित जनों को ऊपर
उठाती है, उन्नत बनाती है और उनका उद्धार करती है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कहना है कि ‘अवतार’
शब्द का शाब्दिक अर्थ है, ‘नीचे उतरना’ और उद्धार शब्द का शाब्दिक अर्थ है, ‘ऊपर उठाना’। परिभाषा के
रूप में कहा जाये तो परमात्मा भक्तजनों पर अनुग्रह करके अवतार लेता है और अधर्मियों का उद्धार करता
है। इस प्रकार ईश्वर का अवतार लेना और भक्तजनों का उद्धार होना ही ईश्वर के प्रेम का सक्रिय रूप है।
भगवान् के इसी क्रियात्मक प्रेम को भक्त लोग अपनी भाषा में अनुग्रह या कृपा कहते हैं। यह ईश्वर की कृपा
ही थी, जो उसने अपने को गुरु नानकदेव के रूप में धरती पर उतारा।
(स) ‘अवतार’ शब्द का अर्थ है―नीचे उतरना और ‘उद्धार’ शब्द का अर्थ है―ऊपर उठाना।
(11) महागुरु, नयी आशा, नयी उमंग, नये उल्लास की आशा में आज इस देश की जनता तुम्हारे
चरणों में प्रणति निवेदन कर रही है। आशा की ज्योति विकीर्ण करो, मैत्री और प्रीति की स्निग्ध धारा से
आप्लावित करो। हम उलझ गये हैं, भटक गये हैं, पर कृतज्ञता अब भी हममें रह गयी है। आज भी हम तुम्हारी
अमृतोपम वाणी को भूल नहीं गये हैं। कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) लेखक भारतवासियों की ओर से नानकदेव से क्या कहना चाहता है?
विकीर्ण = प्रसारित। स्निग्ध = पवित्र। अमृतोपम = अमृत के समान। अंगीकार = स्वयं में समाहित,
स्वीकार।
उत्तर―(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि गुरु
नानकदेव एक महान् सन्त थे। उन्होंने तुच्छ अहंकार तथा संकीर्णता को नष्ट कर समाज को नयी जीवनी
शक्ति प्रदान की थी। वे इस महान गुरु से प्रार्थना करते हैं कि वे भटके हुए भारतवासियों के हृदय में प्रेम, मैत्री
और सदाचार का विकास करके उनमें नयी आशा, नये उल्लास व नयी उमंग का संचार करें। इस देश की
जनता उनके चरणों में अपना प्रणाम निवेदन करती है। वर्तमान समाज में रहने वाले भारतवासी कामना,
लोभ, तृष्णा, ईर्ष्या, ऊँच-नीच, जातीयता एवं साम्प्रदायिकता जैसे दुर्गुणों से ग्रसित होकर भटक गये हैं, फिर
भी इनमें कृतज्ञता का भाव विद्यमान है।
(स) लेखक भारतवासियों की ओर से गुरु नानकदेव से कहना चाहता है कि यद्यपि भारतवासी
अनेक दुर्गुणों से ग्रसित होकर भटक चुके हैं तथापि उनमें कृतज्ञता की भावना अभी भी विद्यमान है। इस
कृतज्ञता की भावना के कारण ही आज भी ये भारतवासी आपकी अमृतवाणी को भूले नहीं हैं और आपकी
महानता के आगे अपना सिर झुकाते हैं। अत: हे गुरु! आप कृतज्ञ भारतवासियों के प्रणाम को स्वीकार करें।