up board class 9th hindi | ठेले पर हिमालय

By | May 8, 2021

up board class 9th hindi | ठेले पर हिमालय

                                      (धर्मवीर भारती)
 
                               जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
 
प्रश्न  धर्मवीर भारती का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर―जीवन-परिचय―धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 ई० को इलाहाबाद के
एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। इनकी सम्पूर्ण शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई। इन्होंने
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम० ए०; पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। ये कुछ समय तक
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्राध्यापक रहे और इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले ‘संगम’
पत्र का सम्पादन भी किया। भारती जी ने बम्बई (मुम्बई) से प्रकाशित होने वाले हिन्दी के साप्ताहिक पत्र
‘धर्मयुग’ का बहुत समय तक सम्पादन किया। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, विनोबा भावे, जयप्रकाश
नारायण एवं डॉ० राममनोहर लोहिया इनके वरेण्य आदर्श रहे हैं। ये स्वतन्त्रता संग्राम के एक सेनानी भी थे
तथा ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में इन्होंने सक्रिय भाग लिया था। ये ‘भारत-भारती’ तथा ‘व्यास सम्मान’ जैसे
महनीय साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित और गौरवान्वित भी हुए। सन् 1972 ई० में भारत सरकार ने
आपको ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया। 4 सितम्बर, सन् 1997 ई० की प्रात: बम्बई (मुम्बई) में
कलम का यह सिपाही इस असार-संसार से विदा लेकर परलोकवासी हो गया।
कृतियाँ―भारती जी ने हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी है। इनकी प्रमुख
कृतियाँ निम्नलिखित हैं―
(1) कथा-साहित्य-‘गुनाहों का देवता’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इनके लोकप्रिय उपन्यास है।
‘चाँद और टूटे हुए लोग इनका कहानी-संग्रह है।
(2) नाटक व एकांकी–नदी प्यासी थी’ भारती जी का नाटक और नीली झील’ प्रसिद्ध एकांकी
संग्रह है।
(3) निबन्ध-संग्रह―कहनी-अनकहनी’, ‘ठेले पर हिमालय’, ‘पश्यन्ती’।
(4) आलोचना―‘मानव-मूल्य’ और ‘साहित्य’।
(5) काव्य-संग्रह―‘कनुप्रिया’, ‘ठण्डा लोहा’, ‘अन्धायुग’ और ‘सात गीत वर्ष।
(6) अनुवाद―‘देशान्तर में विश्व की कुछ प्रसिद्ध भाषाओं की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद है।
(7) सम्पादन―‘संगम’ और ‘धर्मयुग’। धर्मयुग के सम्पादक के रूप में भारती जी ने विशेष ख्याति
अर्जित की।
इनके अतिरिक्त ‘डायरी’ और ‘यात्रावृत्त’ विधा में भी आपकी कृतियाँ हैं।
साहित्य में स्थान―भारती जी एक सहृदय कवि, ख्याति प्राप्त पत्रकार, लब्ध-प्रतिष्ठ निबन्धकार
एवं कुशल कथाकार थे। पत्रकार के रूप में हिन्दी-साहित्य में इनकी विशेष ख्याति एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है,
क्योंकि इन्होंने पत्रकारिता को नयी ऊर्जा देकर उसे अनूठी ऊँचाइयों तक पहुँचाया। इनके निधन पर
तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के० आर० नारायणन ने कहा था, “हिन्दी-साहित्य जगत् ने एक संवेदनशील
एवं प्रतिभाशाली लेखक को खो दिया।”
 
                                गद्यांशों पर आधारित प्रश्न
 
प्रश्न निम्नलिखित गद्यांशों के आधार पर उनके साथ दिये हुए प्रश्नों के उत्तर लिखिए―
(1) अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना
अपार सौन्दर्य बिखरा था, सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर
की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है; इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह
घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुन्दर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके
किनारे-किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जाने वाली बेलों
की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ,
आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक-दूसरे लोक में चले आये थे। इतना सुकुमार, इतना सुन्दर, इतना सजा
हुआ और इतना निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ाना चाहिए।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में किस घाटी का वर्णन किया गया है? घाटी को देखने के बाद लेखक को
क्या प्रतीत हुआ?
2. घाटी के सौन्दर्य का अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
[कत्यूर = हिमालय क्षेत्र की एक घाटी का नाम। किन्नर और यक्ष = मानवों से इतर योनियाँ। बेसाख्ता
= स्वाभाविक रूप से। निष्कलंक = कलंकरहित।
उत्तर―(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित तथा उच्च
कोटि के विचारक श्री धर्मवीर भारती द्वारा लिखित ‘ठेले पर हिमालय’ नामक निबन्ध से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखिए―
पाठ का नाम―ठेले पर हिमालय। लेखक का नाम―श्री धर्मवीर भारती।
संकेत―इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न ‘अ’ का यही उत्तर इसी रूप में लिखा जाएगा।
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का कहना है कि कौसानी
पहुँचने के पूर्व मार्ग की थकावट और प्राकृतिक सौन्दर्य का किंचित भी आभास न मिल पाने के कारण जब
वे खोझते हुए बस से उतरते हैं तो प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण कौसानी की रमणीय एवं मोहक पर्वतमाला के
बीच सुरम्य ‘कत्यूर’ नामक घाटी देखते हैं। इस घाटी के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर वे पाषाण की मूर्ति के
सदृश खड़े रह जाते हैं। वे देखते हैं कि रंग-बिरंगे फूल उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे हैं। इसे देखकर
लगता है कि इस घाटी में मनुष्य नहीं, अपितु किन्नर और यक्ष ही निवास करते होंगे।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कहना है कि इधर-उधर से आकर एक साथ
मिलने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है कि कई बेलें एक साथ उलझ गयी हैं। इनको देखकर लेखक
के मन में एकाएक यह विचार आता है कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर अपनी कलाई में बाँध ले और
उन्हें आँखों से लगा ले। तात्पर्य यह है कि इनकी सुन्दरता आँखों में बसाने योग्य है। यह सौन्दर्य आत्मविभोर
कर देने वाला है। सजे हुए सुन्दर तथा पवित्र सौन्दर्य वाली इस कत्यूर घाटी को देखकर मन करता है कि
इसकी पवित्रता बनाये रखने के लिए मन्दिर अथवा आराधना-स्थल की भाँति जूते उतारकर और फिर पैर
पोंछकर ही आगे बढ़ना चाहिए, जिससे कि इसकी पवित्रता पर पैरों की धूल आदि का कोई धब्बा न लगे।
(स) 1. प्रस्तुत अंश में हिमालय क्षेत्र की एक घाटी कत्यूर का वर्णन किया गया है। घाटी को देखने
के बाद लेखक को ऐसा प्रतीत हुआ कि एकाएक वह किसी दूसरे लोक (पृथ्वी के अतिरिक्त) में चला
आया है।
2. कत्यूर की घाटी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इस घाटी में किन्नर और यक्ष (मानव से इतर
योनि) रहते होंगे। नदियाँ वृक्ष की लम्बी बेलों के समान लगती हैं। इन्हें देखकर इनको कलाई में बाँधने या
आँखों से लगाने की इच्छा होती है। पवित्र सौन्दर्य वाली कत्यूर की घाटी में आगे बढ़ने के लिए किसी पवित्र
स्थल की भाँति पैर पोंछकर और जूते उतारकर आगे बढ़ने की इच्छा होती है।
(2) इन धीरे-धीरे खिसकते हुए बादलों में यह कौन चीज है, जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के
टुकड़े-सा……. और कैसा अजब रंग है इसका, न सफेद, न रुपहला, न हल्का नीला…… पर तीनों का
आभास देता हुआ। यह है क्या? बर्फ तो नहीं है। हाँ जी। बर्फ नहीं है तो क्या है? और अकस्मात् बिजली-सा
यह विचार मन में कौंधा कि इसी कत्यूर घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वत सम्राट, हिमालय है, इन बादलों ने
उसे ढाँक रखा है, वैसे वह क्या सामने है, उसका एक कोई छोटा-सा बाल-स्वभाव वाला शिखर बादलों की
खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा ‘बरफ। वह देखो।” शुक्ल जी, सेन, सभी ने देखा, पर
अकस्मात् वह फिर लुप्त हो गया। लगा, उसे बाल-शिखर जान किसी ने अन्दर खींच लिया। खिड़की से
झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. लेखक को बादलों के बीच क्या दिखाई पड़ा? उसका वर्णन कीजिए।
2. लेखक के मन में एकाएक क्या विचार आया?
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक कौसानी की यात्रा पर गया था। जब वह कत्यूर
की घाटी के पास पहुँचा तो वहाँ से उसे बादलों से ढके हुए किसी पर्वत-शिखर के दर्शन हुए। उसे बादलों के
बीच से कोई छोटा-सा पर्वत-शिखर दिखाई पड़ा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई छोटा-सा बालक किसी
खिड़की से झाँक रहा है। एकाएक लेखक प्रसन्नता के आधिक्य से चीख उठता है कि “बरफ ! वह देखो।”
उसके कहने का आशय था कि वह सामने हिमालय है, उस ओर देखो। उसके सहयात्रियों ने उस ओर देखा।
लेकिन वह पर्वत-शिखर गायब हो चुका था; अर्थात् उसके सम्मुख बादल आ चुके थे। लेखक को ऐसा लगा
कि किसी ने उसे छोटा समझकर अन्दर खींच लिया कि खिड़की से झाँक रहा है, कहीं नीचे न गिर पड़े।
(स) 1. लेखक को बादलों के बीच से नगाधिराज, पर्वतसम्राट हिमालय के दर्शन हुए। हिमालय का
रंग विचित्र है। यह न तो सफेद है और न ही चाँदी के जैसा है और न ही हलका नीला है। इसका रंग इन तीनों
के मिश्रित रंग के समान है।
2. लेखक के मन में एकाएक यह विचार आया कि इस कत्यूर की घाटी के दूसरी ओर ही पर्वतों का
सम्राट हिमालय है, जो इस समय बादलों से ढका हुआ है।
 
(3) पर उस एक क्षण के हिम-दर्शन ने हममें जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा,
थकावट-सब छू-मन्तर हो गयी। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छंट जाएंगे और फिर हिमालय
हमारे सामने खड़ा होगा―निरावृत्त……असीम सौन्दर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूँघट धीरे से
खिसका देगी और…… और तब? और तब? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्ल जी शान्त
थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्कुरा देते थे, जिसका अभिप्राय था, ‘इतने अधीर थे, कौसानी
आयी भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू।’
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. लेखक पर हिम-दर्शन के प्रभाव का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
2. शुक्ल जी के मुस्कराने का क्या अभिप्राय था?
खिन्नता = उदासी। छू-मन्तर = गायब होना। निरावृत्त = जो ढका हुआ न हो, उन्मुक्त। सौन्दर्य- राशि
= सुन्दरता का खजाना।
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―भारती जी कह रहे हैं कि कत्यूर की घाटी से क्षण मात्र
के लिए हुए हिमालय के दर्शन ने उनके मन को ऐसे सुख और उल्लास से भर दिया था, जो अवर्णनीय था।
उनकी समस्त मानसिक परेशानी, हिमालय को न देख पाने की निराशा और यात्राजन्य थकावट सब तत्काल
ही गायब हो गयी। भारती जी और उनके साथ के सभी लोग हिमालय को देखने की लालसा में व्याकुल हो
उठे। वे ऐसा सोच रहे थे कि ये जो बादल सामने छाये हुए हैं, जिनके कारण वे हिमालय को देख नहीं पा रहे
हैं, वे जब तुरन्त ही सामने से हट जाएंगे और तब हिमालय उनके सामने प्रत्यक्ष खड़ा होगा, बिना किसी
आवरण के, निरावृत्त। वह असीम सौन्दर्य की राशि (हिमालय) बादलों के घूघट रूपी आवरण को धीरे से
खिसकाकर जब सामने आ जाएगी, उस समय क्या होगा? यह सोच-सोचकर भारती जी का हृदय बुरी तरह
से धड़क रहा था।
(स) 1. क्षण-मात्र के हिमालय के दर्शन ने लेखक को ऐसे उल्लास से भर दिया था, जिससे उसकी
समस्त मानसिक परेशानी, निराशा और मार्ग की थकावट सब कुछ तुरन्त ही गायब हो गयी।
2. शुक्ल जी के मुस्कराने का अभिप्राय था कि वे लेखक धर्मवीर भारती को मात्र यह दर्शाना चाहते थे
कि बिना कौसानी तक पहुँचे ही उनके मन में जो निराशा व्याप्त हो गयी थी, वह यहाँ पहुँचते ही कैसे गायब
हो गयी। यही तो कौसानी का जादू है।
 
(4) हमारे मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रही थीं, यह अगर बता पाता तो यह खरोंच, यह पीर ही
क्यों रह गयी होती? सिर्फ एक धुंधला-सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ के सिल के सामने खड़े
होने पर मुँह पर ठंडी-ठंडी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष,
सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप
कहा था और उसे नष्ट करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे, यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. लेखक ने पुराने साधकों का उल्लेख क्यों और किस लिए किया है?
2. लेखक ने अपनी भावनाओं के बारे में क्या कहा है?
पीर = पीड़ा। संवेदन = अनुभूति, ज्ञान। अन्तर्द्वन्द्व = परस्पर विरोधी भावों का संघर्ष।
उत्तर―(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक कहता है कि कौसानी में हिमालय की हिमयुक्त
चोटियों को देखने के पश्चात् हमारे मन में हिमालय के प्रति अनेक भावनाएँ उठ रही थीं। वे भावनाएँ ऐसी थीं
कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन वर्णनातीत भावनाओं को व्यक्त न कर पाने की कसक लेखक के
मन में अभी तक बनी हुई है। वे भावनाएँ किस प्रकार की थीं; इसका अस्पष्ट-सा अहसास कराते हुए लेखक
कहता है कि उस समय कुछ ऐसा अनुभव हुआ जैसा कि बर्फ की सिल्ली के पास खड़े होने पर उससे उठती
ठण्डी-ठण्डी भाप का अनुभव करके व्यक्ति अपने चेहरे पर एक अजीब-से आनन्द को प्राप्त करता है।
वैसा ही आनन्द लेखक को हिमालय की बर्फीली चोटियों को देखकर प्राप्त हुआ। उस समय लेखक को लगा
कि हिमालय की शीतलता उसके मस्तक का स्पर्श कर रही है और उसके मन-मस्तिष्क के समस्त संघर्ष,
अन्तर्द्वन्द्व और सभी प्रकार के कष्ट-दुःख दूर हो रहे हैं।
(स) 1. लेखक का कहना है कि मुझे हिमालय दर्शन के दिन ज्ञात हुआ कि पुराने साधकों का
शारीरिक, दैवीय और सांसारिक कष्टों को ताप कहने का क्या प्रयोजन था और उनके शमन के लिए वे
हिमालय पर ही तपस्या करने क्यों आते थे ? अर्थात् हिमालय का सौन्दर्य और शीतलता उन्हें इतना आनन्द
प्रदान करते थे कि वे अपने सभी प्रकार के कष्टों को भूल जाते थे।
2. लेखक ने कहा है कि हिमालय के दर्शन के पश्चात् उसके मन में जो भावनाएँ उठ रहीं थीं, उनका
वर्णन करने के लिए उसके पास शब्द ही नहीं हैं। यदि वह उस सुख का वर्णन कर पाता तो उसके मन में उस
सुख को अभिव्यक्त न कर सकने की पीड़ा ही क्यों होती।
 
(5) सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बरफ कमल के लाल
फूलों में बदलने लगी, घाटियाँ गहरी नीली हो गयीं। अँधेरा होने लगा तो हम उठे और मुँह-हाथ धोने और
चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम जैसे सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ ऐसा
मिल गया हो, जिसे अन्दर-ही-अन्दर सहेजने में सब आत्मलीन हो अपने में डूब गये हों।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) अँधेरा होने के पश्चात् लेखक और उसके सहयात्रियों ने क्या किया?
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कथन है कि बर्फ से ढकी पर्वत की चोटियों
पर अस्त होते सूर्य की लाल-लाल किरणें पड़ रही थीं। ग्लेशियरों से जो पानी बह रहा था, उसमें सूर्य की
अरुण आभा के मिल जाने से ऐसा लगता था कि मानो केसर ही पिघलकर बह रही हो। सफेद बर्फ पर
सूर्यास्त के पूर्व की लाल धूप के प्रकाश से ऐसा जान पड़ता था कि मानो बर्फ ही लाल कमल के फूलों में
बदल रही थी। सूर्यास्त के कारण घाटियाँ धीरे-धीरे गहरी नीली होने लगीं।
(स) अँधेरा होने के पश्चात् लेखक और उसके सहयात्री हाथ-मुँह धोने और चाय पीने में लग गये।
लेकिन वे सभी चुपचाप थे। इतने चुपचाप कि जैसे उनका सब कुछ छिन गया हो अथवा उन्हें ऐसा कुछ मिल
गया हो जिसे समेटने के लिए वे सब अपने में ही सीमित हो गये हों।
(6) इसी हिमालय को देखकर किसने-किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि एक
कविता तो दूर, एक पंक्ति, हाय एक शब्द भी तो नहीं जागता। ….पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा
लग रहा है इस हिम-सम्राट् के समक्षा पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अन्दर भी बादल थे, जो उँट रहे हैं,
कुछ ऐसा उभर रहा है, जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है”…” । कुछ ऐसा, जो इसी ऊँचाई पर उठने की
चेष्टा कर रहा है, ताकि इनसे इन्हीं के स्तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़
गया है और मुझे―छोटे भाई को नीचे खड़ा हुआ कुंठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर
रहा है, स्नेहभरी चुनौती भी दे रहा है―“हिम्मत है? ऊँचे उठोगे?”
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. हिमालय-दर्शन के उपरान्त लेखक को क्या प्रतीति हुई?
2. अन्य कवियों में और लेखक में क्या अन्तर है?
कुण्ठित = मन्द पड़ना, संकुचित। लज्जित = शर्मिन्दा। चुनौती = आह्वान करना, उत्तेजना देना।
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक कहता है कि पवित्र हिमालय के दर्शन से उसके
साथ-साथ अन्य पर्यटकों का मन भी पवित्र हो रहा था, मन से दुर्भावनाएँ नष्ट हो रही थीं और हिम-शिखरों
जैसी उच्च कोटि की भावनाएँ मन में उत्पन्न हो रही थीं। लेखक को ऐसा लगा कि हिमालय हमें अपने जैसा
महान, उच्च और पवित्र बनने की प्रेरणा दे रहा है। लेखक का कहना है कि उसके मन में ऐसे विचार आ रहे
थे, जो उसे वैचारिक धरातल पर बहुत ऊँचा उठा रहे थे, जिससे वह इन ऊँची चोटियों से इन्हीं के जैसा
बनकर मिल सके।
(स) 1. लेखक को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो हिमालय बड़े भाई की तरह अपने छोटे भाई लेखक
को उदार और महान् बनने के लिए चुनौती दे रहा है तथा उसे उत्तेजित कर रहा है कि तुममें इतनी हिम्मत है
कि मेरी तरह महान् बन सको? इस प्रेमपूर्ण चुनौती से लेखक संकोच और लज्जा का अनुभव कर रहा है
क्योंकि हिमालय जैसी महानता, पवित्रता और उदारता प्राप्त करना असम्भव है।
2. अन्य कवियों में और लेखक में यह अन्तर है कि दूसरे कवियों ने हिमालय को देखकर उसके
सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। लेकिन लेखक स्वयं को इस हिमालय के सम्मुख इतना छोटा समझ रहा है
कि उसके मन में इसके लिए कविता तो दूर कविता की एक पंक्ति या एक शब्द भी नहीं आ रहा है।
 
(7) आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर मेरे मित्र
उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये, उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात
कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। ये बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं और
हम हैं कि चौराहों पर खड़े ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे
क्षण में ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने कहा था-“कबहुँक हौ यहि
रहनि रहौंगो”―मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा, वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर? और
तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ सन्देशा भेज दूं-“नहीं बन्धु…….आऊँगा। मैं फिर
लौट- लौटकर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है, मैं करूं तो क्या
करूंँ?”
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. लेखक हिमालय को क्या सन्देश भेजना चाहता है?
2. लोग क्या देखकर अपने मन को बहला लेते हैं?
3. किसकी याद आने पर मन में पीड़ा उठती है?
4. हिमालय की याद आने पर लेखक की क्या स्थिति होती है?
कबहुँक = कभी। हौं = मैं। रहनि = जीने का ढंग, रहना। हिमशिखर = बर्फ की चोटियाँ। आवास =
निवास। रमना = मन लगना, रहना।
उत्तर― (ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक अपनी मनोदशा को व्यक्त करता हुआ
कहता है कि आज भी जब उसे हिमालय की याद आती है, तो उसका मन पीड़ा से भर उठता है। कुछ दिनों
पूर्व उसके एक उपन्यासकार मित्र ठेले पर लदी हुई बर्फ को देखकर हिमालय की ही स्मृतियों में डूब गये
थे। उनकी इस पीड़ा को लेखक भली-भाँति समझता है और जब वह ठेले पर हिमालय की बात कहता है तो
यह भी अपने उस दर्द को (हिमालय को न देख पाने) को भुलाने का एक बहाना ही है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कहना है कि कौसानी के हिमालय पर स्थित बर्फ
की ऊँचाइयाँ उन्हें बार-बार अपने पास बुलाती प्रतीत होती हैं और वे हैं कि अपने नगर में ठेले पर बिकने
वाली बर्फ को देखकर ही सन्तुष्ट हो लेते हैं। लेखक अपने मन में सोचता है कि शायद किन्हीं इसी प्रकार के
क्षणों में सन्त कवि तुलसी ने ठेले पर लदी हुई बर्फ को देखकर कहा होगा कि क्या मैं भी कभी इस हिमालय
की ऊँचाइयों को प्राप्त कर इस प्रकार का जीवन व्यतीत कर सकूँगा? क्या इन शिखरों की ऊँचाइयों को मैं
भी कभी प्राप्त कर सकूँगा?
तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक कहता है कि यह सोचकर मेरे मन में यह विचार उठता
है कि मैं भी किसी के हाथों हिमालय को समाचार भेजूं कि हे भाई ! मैं आऊँगा। मैं भी कोई सामान्य व्यक्ति
नहीं हूँ। तुम्हारे समान ही ऊँचा सोचने वाला हूँ। तुम्हारी ऊँचाइयों पर ही मैं भी रहता हूँ। यदि मेरा मन लगता
है तो तुम्हारी उच्च चोटियों पर ही लगता है। अब तुम ही बताओ कि मैं करूं तो क्या करूं? मैं तो विवश है
तुम्हारे पास रहने के लिए।
(स) 1. लेखक हिमालय को यह सन्देश भेजना चाहता है कि “हे भाई ! मैं कोई सामान्य व्यक्ति नहीं
हूँ। वरन् तुम्हारे समान ही ऊँचा सोचने वाला हूँ। मेरा मन भी तुम्हारे ऊँचे शिखरों पर ही लगता है। अब तुम ही
बताओ कि तुम्हारे पास रहने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?
2. लोग चौराहों पर खड़े होकर और ठेले पर लदी हुई बर्फ की सिल्ली को देखकर ही अपने मन
को बहला लेते हैं।
3. हिमालय की याद आने पर लेखक के मन में पीड़ा उठती है।
4. हिमालय की याद आने पर लेखक का मन पीड़ा से भर उठता है।

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