up board class 9th hindi | कबीरदास
‘हिन्दी’ पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड पर आधारित विविध प्रकार के प्रश्नों को अलग-अलग
प्रकरणों में विभाजित करके एक ही शीर्षक के अन्तर्गत उनका क्रमानुसार विवरण प्रस्तुत किया गया है।
इससे विद्यार्थी को प्रत्येक पाठ और रचयिता का सम्यक् अध्ययन करने में सुविधा होगी। क्रमानुसार वर्णन
निम्नलिखित प्रकरण-शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत है―
(1) जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
(2) पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश एवं काव्यगत सौन्दर्य सहित)
जीवन-परिचय के अन्तर्गत कवि का जीवन-परिचय एवं उसकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख संक्षेप
में करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रश्न में जो पूछा जाए, उत्तर में उतना ही लिखा जाना चाहिए।
1. कबीरदास
जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
प्रश्न कबीरदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर―जीवन-परिचय―कबीर भक्तिकाल की निर्गुण सन्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते
हैं। ये हिन्दी-साहित्य में नवजागरण के युग-प्रवर्तक सन्त कवि थे। इस महान् सन्त के जन्मकाल के सम्बन्ध
में ‘कबीर चरित्र बोध’ की यह उक्ति प्रसिद्ध है―
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भये ॥
इस उक्ति के अनुसार इनकी जन्म-तिथि ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा संवत् 1456 वि० (सन् 1399 ई०)
मानी (बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि के द्वारा) जाती है।
इनके जन्म के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि ये नीरू एवं नीमा नामक नि:सन्तान जुलाहा दम्पति को वाराणसी
में लहरतारा तालाब के निकट प्राप्त हुए थे। ये जुलाहा दम्पति इस नवजात शिशु को अपने घर ले आये और
पुत्र की तरह उसका लालन-पालन किया। यही शिशु आगे चलकर सन्त कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कबीर ने जुलाहे का धन्धा अपनाकर गृहस्थ जीवन व्यतीत किया था। इनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम
कमाल और पुत्री का नाम कमाली था।
कबीर रामानन्द के शिष्य तथा निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। इनकी दृढ़ आस्था थी कि व्यक्ति कर्म के
अनुसार गति पाता है। इसीलिए इन्होंने इस अन्धविश्वास को दूर करने के लिए कि ‘काशी में मरने से मुक्ति
मिलती है और मगहर में मरने से नरक’, अपने जीवन के अन्तिम समय में काशी छोड़कर ‘मगहर चले गये
थे। वहीं संवत् 1575 वि० (सन् 1519 ई०) में ये परम ज्योति में विलीन हो गये। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में
निम्नलिखित उक्ति मिलती है―
संवत् पंद्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गौन।
माघे सुदी एकादशी, रलौ पौन में पौन ॥
कृतियाँ (रचनाएँ)―सन्त कबीर ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं रचा। इनके शिष्यों ने इनकी रचनाओं के
संग्रह को ‘बीजक’ नाम दिया। बीजक के तीन भाग हैं―(1) साखी, (2) सबद, (3) रमैनी।
साखी―यह साक्षी’ शब्द का विकृत रूप है। कबीर ने साखी में अपने जीवन के सच्चे और जीवन्त
अनुभवों को व्यक्त किया है। इनकी साखियाँ ज्ञान की आँखें’ हैं। इनमें कबीर ने समाज-कल्याण एवं
सदाचार सम्बन्धी विचारों को दोहा-छन्द में व्यक्त किया है। इनमें उपदेशात्मकता अधिक है।
सबद―कबीर ने सबद की रचना गेय पदों में की है। इनमें विषय की गम्भीरता एवं संगीतात्मकता है।
रमैनी―रमैनी की रचना चौपाइयों में की गयी है। इनमें कबीर के रहस्यवादी एवं दार्शनिक विचारों
का प्रतिपादन हुआ है।
कबीर ग्रन्थावली नामक ग्रन्थ में बाबू श्यामसुन्दर दास ने कबीर की सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन
किया और इनका प्रकाशन ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी द्वारा किया।
साहित्य में स्थान―ज्ञानमार्गी सन्त कवि कबीरदास का हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है―“कबीर साधना के क्षेत्र में युग-गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में
भविष्यद्रष्टा। उनके समकालीन एवं परवर्ती सभी सन्त कवियों ने उनकी वाणी का अनुसरण किया।”
पधांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
◆ साखी
(1) सतगुर हम तूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।
[रीझि करि = प्रसन्न होकर। प्रसंग = ज्ञान की बात, उपदेश। भीजि गया = भीग गया।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित और सन्त
कबीरदास द्वारा रचित ‘साखी’ कविता शीर्षक से उद्धृत है।
[संकेत–’साखी’ के अन्तर्गत आने वाले सभी पद्यांशों की व्याख्या में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग―इस साखी में कबीर ने गुरु का महत्त्व बताते हुए कहा है कि गुरु की कृपा से ही ईश्वर के
प्रति प्रेम उत्पन्न होता है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि सद्गुरु ने मेरी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान की एक
बात समझायी, जिसे सुनकर मेरे हृदय में ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम उत्पन्न हो गया। वह उपदेश मुझे ऐसा
प्रतीत हुआ, मानो ईश्वर-प्रेमरूपी जल से भरे बादल बरसने लगे हों। उस ईश्वरीय प्रेम की वर्षा से मेरा
अंग-अंग भीग गया। यहाँ कबीरदास जी के कहने का भाव यह है कि सद्गुरु के उपदेश से ही हृदय में ईश्वर
के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है और उसी से मन को शान्ति मिलती है। इस प्रकार जीवन में गुरु का अत्यधिक
महत्त्व है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) इस साखी में गुरु का महत्त्व बताया गया है। (2) सद्गुरु के उपदेश से ही
ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। (3) भाषा―सधुक्कड़ी। (4) शैली―मुक्तक। (5) रस―शान्त।
(6) छन्द―दोहा। (7) अलंकार―‘बरस्या बादल प्रेम का’ में रूपक। बरस्या बादल में अनुप्रास।
(8) शब्द-शक्ति―अभिधा तथा लक्षणा। (9) भावसाम्य―कबीर ने अन्यत्र भी गुरु की महिमा का वर्णन
करते हुए कहा है―
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंँत किया उपगार।
लोचन अनंँत उघाड़िया, अनंँत दिखावणहार ।।
(2) राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हाँस रही मन माँहि ॥
[पटतरे = समान। संतोषिए = सन्तोष मिल सके। हौंस = अभिलाषा।]
प्रसंग―इस साखी में कबीरदास जी ने सद्गुरु और राम-नाम की महत्ता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या―सन्त कबीर कहते हैं कि गुरु ने मुझे ज्ञान दिया है और ‘राम’ नाम (परम ब्रह्म) का
महत्त्व समझाया है। इस अमूल्य ज्ञान के बदले में मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे अपने गुरु को
दक्षिणा-स्वरूप देकर मैं स्वयं को सन्तुष्ट कर सकूँ। गुरु को गुरु-दक्षिणा देकर सन्तुष्ट होने की मेरी
अभिलाषा मेरे मन में ही रह गयी; क्योंकि ज्ञान ही सबसे बड़ा दान और बहुमूल्य वस्तु है और उसका मूल्य
कोई नहीं चुका सकता।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रस्तुत साखी में कबीरदास ने गुरु के दिये हुए ज्ञान के दान को अमूल्य
बताते हुए गुरु के प्रति अपनी अप्रतिम श्रद्धा व्यक्त की है। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक।
(4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―अनुप्रास। (7) शब्द-शक्ति―अभिधा। (8) भाव–
साम्य―मीराबाई ने भी गुरु के ज्ञान के सन्दर्भ में कहा है―
“वस्तु अमोलक दी मेरे सद्गुरु, किरपा करि अपनायो।”
(3) ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आइ॥
[जिनि = नहीं। बीसरि = बिसराना, भुलाना। मिलिया = मिला।]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कहा गया है कि ईश्वर की कृपा के बिना सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होती।
व्याख्या―सन्त कबीर कहते हैं कि सच्चा गुरु मिलने पर चारों ओर ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है।
इसलिए जो गुरु हमें ज्ञान का प्रकाश देता है, उसे कभी नहीं भूलना चाहिए अर्थात् उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ
बने रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही किसी को सच्चा गुरु प्राप्त होता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) ईश्वर-प्रेम की प्राप्ति सद्गुरु की कृपा से ही सम्भव है और सद्गुरु की
प्राप्ति ईश्वर की कृपा से ही होती है। तुलसीदास जी ने भी ऐसा ही कहा है―
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
(2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) शब्द–
शक्ति―अभिधा। (7) अलंकार―‘कृपा करी’ में
(4) माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड्त।
कहै कबीर गुर ग्यान तैं, एक आध उबरंत।।
[पतंग = पतिंगा। भ्रमि भ्रमि = अनेक योनियों में भटका हुआ। इवें पड़त = इसमें गिर पड़ता है। उबरंत =
उद्धार होता है, मुक्त हो जाता है।]
प्रसंग―इस दोहे में गुरु के महत्त्व को बताया गया है और कहा गया है कि गुरु द्वारा दिये गये ज्ञान से
ही मनुष्य माया के बन्धन से छूट सकता है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार कीट-पतंगे दीपक के प्रकाश से आकृष्ट होकर
जल-मरते हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी माया-मोह के बाहरी आकर्षक रूप पर मुग्ध होते हैं और नष्ट हो
जाते हैं। केवल गुरु से प्राप्त ज्ञान ही हमें इस माया-मोह के बन्धन से मुक्त करके नष्ट होने से बचा सकता है,
किन्तु गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान से भी सब नहीं बचते। कोई विरला ही होता है, जो गुरु-ज्ञान से मोक्ष प्राप्त
कर अमर हो जाता है और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) सच्चे गुरु के ज्ञान के उपदेश से ही प्राणी माया के बन्धन तोड़कर संसार के
आवागमन से छूट जाता है, किन्तु गुरु-ज्ञान के सार को समझना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है।
(2) यहाँ ‘नर’ प्राणिमात्र के लिए प्रयुक्त हुआ है। (3) भाषा―सधुक्कड़ी। (4) शैली―मुक्तक
(उपदेशात्मक)। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्त। (7) अलंकार―‘माया-दीपक नर-पतंग’ में रूपक,
‘भ्रमि-भ्रमि’ में पुनरुक्तिप्रकाश और ‘कहै कबीर’, ‘गुरु ग्यान’ में अनुप्रास है। (8) शब्द-शक्ति―
अभिधा तथा लक्षणा।
(5) जब मैं था तब गुरुनहीं,अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं ।।
[मैं = अहंकार। प्रेम गली = प्रेम रूपी मार्ग। साँकरी = तंग। समाहि = समा सकती है।]
प्रसंग―इस दोहे में कबीर ने गुरु से प्रेम को अहंकार के विनाश का साधन बताया है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मेरे हृदय में अहंकार था, तब तक मेरे मन में गुरु के
लिए कोई स्थान नहीं था अर्थात् मैं अहंकार के कारण गुरु के प्रति श्रद्धा न रख सका, किन्तु अब जब मेरे मन
में गुरु के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है तो मेरा सम्पूर्ण अहंकार ही नष्ट हो गया है। इसका कारण
बताते हुए कबीरदास आगे कहते हैं कि प्रेमरूपी हृदय की गली अत्यधिक सँकरी है और उसमें एक साथ
दो का प्रवेश नहीं हो सकता। यही कारण है कि जब तक उस गली में अहंकार विद्यमान था, तब तक
गुरु-भक्ति को कोई स्थान नहीं मिला और जब गुरु-भक्ति का प्रवेश उसमें हो गया तो अहंकार को वहाँ से
भागना पड़ा।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) अहंकार के रहते व्यक्ति के मन में गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती और
गुरु को पाने के लिए अहंकार को छोड़ना ही पड़ता है। तात्पर्य यह है कि प्रभु-प्राप्ति में अहंकार ही सबसे
अधिक बाधक है। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―उपदेशात्मक, मुक्तक। (4) छन्द―दोहा।
(5) रस―शान्त। (6) अलंकार―प्रेम गली’ में रूपक और अनुप्रास। (7) भाव-साम्य―कबीर ने ऐसे
ही भाव अन्यत्र भी व्यक्त किये हैं―”जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।”
(6) भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मनाँ, कबीर सुमिरण सार ।।
[भगति = भक्ति। नाँव = नावा दूजा = दूसरा। मनसा = मन से। बाचा = वचन से। कर्मनाँ = कर्म से।
सुमिरण = भगवान् नाम का स्मरण। सार = तत्त्व।]
प्रसंग―सन्त कबीर ने इन काव्य-पंक्तियों में जगत् की असारता और परमात्मा की नित्यता बताते
हुए अहंकार को नष्ट कर हरि-भक्ति की प्रेरणा दी है।
व्याख्या―कबीरदास का कथन है कि जीव के लिए परमात्मा की भक्ति और भजन करना एक नाव
के समान उपयोगी है। इसके अतिरिक्त संसार में दुःख ही दुःख है। इसी भक्तिरूपी नाव से सांसारिक-
दुःखरूपी सागर को पार किया जा सकता है। इसलिए मन, वचन और कर्म से परमात्मा का स्मरण करना
चाहिए, यही जीवन का परम तत्त्व है; सार है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) ईश्वर का स्मरण ही इस दुःख भरे संसार से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।
इस बात की कबीर द्वारा उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गयी है। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―
उपदेशात्मक, मुक्तक। (4) छन्द―दोहा। (5) रस―शान्त। (6) अलंकार―‘भगति-भजन’, ‘दूजा-दुक्ख’,
‘सुमिरण सार’ में अनुप्रास तथा हरि नाँव’ में रूपक। (7) शब्द-शक्ति―अभिधा। (8) भाव-साम्य―
गोस्वामी तुलसीदास ने भी ईश्वर के नाम-स्मरण के विषय में कहा है―
देह धरे कर यहु फलु भाई। भजिय राम सब काम बिहाई॥
(7) कबिरा चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ।
हरि सुमिरण हायूँ घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥
[चित्त चमंकिया = हृदय में ज्ञान की ज्योति जग गयी है। लाइ = अग्नि। सुमिरण = स्मरण। बेगे =
शीघ्र ]
प्रसंग―इस साखी में कबीरदास जी ने बताया है कि विषयरूपी अग्नि ईश्वर के नाम-स्मरण से ही
शान्त हो सकती है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि उनके हृदय में ज्ञान की ज्योति जग गयी है; अत: अब उन्हें
संसार में चारों ओर विषयों की आग लगी हुई दिखाई दे रही है। अब ईश्वर का स्मरण रूपी घड़ा हाथ में आ
गया है जिससे विषय-वासनाओं रूपी अग्नि को शीघ्र ही बुझा लेना चाहिए। आशय यह है कि जिस प्रकार
घड़े का पानी उँडेलकर आग बुझाई जाती है, उसी प्रकार ईश्वर का स्मरण कर दैविक, दैहिक और भौतिक
सन्तापों से छुटकारा पाया जा सकता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) ईश्वर के नाम-स्मरण से विषय-वासना नष्ट हो जाती है और मन को
सुख-शान्ति मिलती है। इस बात को रूपक के माध्यम से सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
(2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक। (4) छन्द―दोहा। (5) रस―शान्त। (6) अलंकार―‘हरि
सुमिरण हाथू घड़ा’ में रूपक ‘चित्त चमंकिया चहुँ’, ‘लागी लाइ’ में अनुप्रास।
(8) अंघड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि ॥
[अंघड़ियाँ = आँखों में। झाई = अन्धकार। पंथ = मार्ग। निहारि = देखकर। जीभड़ियाँ = जिह्वा में।],
प्रसंग―इस दोहे में सन्त कबीर ने विरह से व्याकुल जीवात्मा के दुःख को व्यक्त किया है।
व्याख्या―कबीरदास जी का कथन है कि जीवात्मा बड़ी व्याकुलता से परमात्मा की प्रतीक्षा में आँखें
बिछाये हुए है। भगवान् की बाट जोहते-जोहते उसकी आँखों में झाइयाँ पड़ गयी हैं अर्थात् उसकी आँखों
के आगे अन्धकार छा गया है; पर फिर भी उसे ईश्वर के दर्शन नहीं होते। परमात्मा का नाम जपते-जपते
थक गया, जीवात्मा की जीभ में छाले भी पड़ गये, परन्तु फिर भी परमात्मा ने उसकी पुकार नहीं सुनी;
क्योकि सच्ची लगन, सच्चे प्रेम तथा मन की पवित्रता के बिना इस प्रकार नाम जपना और बाट जोहना व्यर्थ है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने ईश्वर के वियोग में व्याकुल जीवात्मा का मार्मिक चित्रण
किया है। (2) इन पंक्तियों में कवि की रहस्यवादी भावना दृष्टिगोचर होती है। (3) भाषा―सधुक्कड़ी।
(4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्ता (7) अलंकार―‘निहारि-निहारि’, ‘पुकारि-
पुकारि’ में पुनरुक्तिप्रकाश तथा अनुप्रास। (8) भाव-साम्य―मीरा भी ईश्वर की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये
बैठी दिखाई देती हैं―
मैं बिरहिन बैठी जगूंँ। जगत सब सोवै री आली॥
(9) झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद।
जगत चबैना काल का, कछु मुख में कछु गोद ॥
[मानत हैं = मानते हैं, अनुभव करते हैं। मोद = हर्ष, खुशी। चबैना = चबाकर खाने की वस्तु, भुना हुआ
चना अथवा चावल। काल= मृत्यु। गोद = अधिकतर क्षेत्र में।]
प्रसंग―इस दोहे में कबीर ने भौतिकवाद को सुख मानने वाली लोगों की प्रवृत्ति को गलत बताया है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि लोग संसार की भौतिक वस्तुओं के उपभोग को सुख मानकर
मन में प्रसन्न होते हैं, जब कि वास्तव में यह झूठा सुख है। सच्चा सुख तो ईश्वर की भक्ति में है। यह संसार
और इसका भौतिकवाद तो क्षणभंगुर है, इसे तो काल चबैने के रूप में चबाकर समाप्त कर देगा। यह कुछ
को अपने मुख में रखकर चबा रहा है और कुछ को चबाने के। अपनी गोद में समेटे बैठा है। आशय यह
है कि इस संसार को विनष्ट करने का काल का यह क्रम लगातार चल रहा है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) इस दोहे में मानव-शरीर की नश्वरता का मार्मिक चित्रण हुआ है।
(2) ईश्वर-भक्ति ही व्यक्ति को काल के क्रूर चक्र से बचा सकती है। (3) भाषा―सधुक्कड़ी।
(4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्त। (7) अलंकार―जगत चबैना काल का’ में
रूपक तथा ‘मानत है मन मोद’ में अनुप्रास। (8) भाव-साम्य―सांसारिक वस्तुओं को क्षण भंगुर मानते
हुए कबीरदास जी ने अन्यत्र भी कहा है―
यहु ऐसा संसार है, जैसा सेंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार को, झूठे रंगि न भूल ।।
(10) जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नॉहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।।
[मैं = अहंकार। अँधियारा = अज्ञान। दीपक देख्या माँहि = अपने हृदय में जलते ज्ञान के प्रकाश में देखा।]
प्रसंग―इस दोहे में कहा गया है कि ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार बाधक है और अहंकार के मिट
जाने पर ही ईश्वर से साक्षात्कार हो सकता है।
व्याख्या―कबीरदास जी का कहना है कि सबके हृदय में ईश्वर का निवास है, परन्तु जब तक हृदय
में अहंकार रहता है, ईश्वर से साक्षात्कार नहीं हो पाता। जब ईश्वर से साक्षात्कार हो जाता है, तब हृदय का
अहंकार नष्ट हो जाता है। हृदय में जलते ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश से अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है
और ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। इसलिए अहंकार को नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) घट-घटवासी ईश्वर का दर्शन अहंकार के कारण नहीं हो पाता है; अर्थात्
भगवान् की प्राप्ति में अहंकार बाधक होता है। (2) ‘अन्धकार’ अज्ञान का और ‘दीपक’ ज्ञान का प्रतीक है।
(3) भाषा―सधुक्कड़ी। (4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्त। (7) अलंकार―
‘दीपक देख्या’ में अनुप्रास तथा ‘अँधियारा’ और ‘दीपक’ में श्लेष। (8) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं
व्यंजना। (9) भाव-साम्य―कविवर दादूदयाल ने भी यही भाव व्यक्त किया है―
जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम।
दादू महल बरीक है, है को वाही ठाम ।।
(11) कबिरा कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्यूँ भ्वैं लोटणाँ, ऊपरि जामै घास।
[गरबियौ = गर्व करना, अभिमान। अवास = निवास। काल्हि = कल। भ्वैं = धरती पर।]
प्रसंग―इस दोहे में कबीरदास जी ने धन-दौलत पर गर्व.न करने का उपदेश दिया है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि संसार क्षणभंगुर है, इसलिए ऊँचे-ऊँचे महलों का तथा
धन-दौलत का घमण्ड कभी नहीं करना चाहिए। ये सभी भौतिक वस्तुएँ नश्वर हैं, कुछ ही दिनों में ये धरती
पर गिर जाएँगी और इन पर घास भी उग जाएगी।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) इस क्षणभंगुर जगत् के वैभव पर गर्व नहीं करना चाहिए। बड़े-बड़े
राजमहल भी खंडहर हो जाते हैं और उन पर घास उग आती है। संसार की निस्सारता का वर्णन कबीरदास
जी ने बड़े तर्कसंगत तरीके से समझाया है। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक। (4) रस―
शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―अनुप्रास। (7) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना। (8) भाव–
साम्य―ऐसा ही वर्णन कबीर ने अन्यत्र भी किया है―“यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल
जाना है।
(12) यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठे रंग न भूल।।
[सैंबल फूल = सेमल का फूल। दिन दस = कुछ दिनों के। ब्यौहार = व्यवहार। रंग = मस्ती प्रभाव]]
प्रसंग―प्रस्तुत दोहे में कबीर ने संसार की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालते हुए उसके बाहरी रूप-
सौन्दर्य पर मुग्ध न होने का उपदेश दिया है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार सेमल के फूल की तरह कुछ ही दिन के बाहरी
आकर्षण से भरा हुआ है। सेमल का फूल बड़ा ही सुन्दर और लाल रंग का होता है, किन्तु शीघ्र ही नष्ट हो
जाता है। उसका फल भी खाने के काम नहीं आता, क्योंकि उसमें रुई भरी रहती है। इसलिए क्षणिक सौन्दर्य
पर मुग्ध होकर किसी को अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए; क्योकि संसार की कोई भी वस्तु न तो सच्चा
आनन्द देती है और न ही उसमें सच्चा सौन्दर्य होता है। आशय यह है कि झूठे सौन्दर्य के लालच में पड़कर
मनुष्य को अपना यह दुर्लभ जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) बड़े ही तर्कसंगत तरीके से ईश्वर को शाश्वत एवं संसार को नश्वर बताया
गया है। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक। (4) छन्द―दोहा। अलंकार―‘यह ऐसा
संसार है, जैसा सेंबल फूल’ में उपमा, ‘दिन दस’ में अनुप्रास। (6) रस―शान्त। (7) शब्द-शक्ति―
लक्षणा। (8) दोहे की दूसरी पंक्ति (तीसरा-चौथा चरण) में मुहावरों का सुन्दर प्रयोग। (9) भाव-
स्पष्टीकरण―कविता का मुख्य भाव यह है कि ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या। इसलिए सनातन सत्य
स्वरूप प्रभु भक्ति में मन लगाना चाहिए।
(13) इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख षेह।।
[औसरि = अवस। चेत्या = सावधान। जाण्या = जानना। अंति = अंत में अर्थात् मृत्यु होने पर। षेह =
धूल।]
प्रसंग―कबीरदास द्वारा रचित प्रस्तुत साखी में बताया गया है कि मानव-शरीर को धारण कर
व्यक्ति को ईश्वर के नाम का स्मरण करना चाहिए। यह जीवन प्रभु-भक्ति के लिए ही है।
व्याख्या―कबीर का कथन है कि मानव-जीवन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसकी प्राप्ति प्राणी के
लिए लोक-परलोक सुधारने का एक अच्छा अवसर है। हमें इस जीवन का महत्त्व समझना चाहिए और मन
को प्रभु-प्रेम में लगाना चाहिए। यदि हम अज्ञानी बने रहें और पशु की भाँति केवल भौतिक आवश्यकताओं
की पूर्ति में ही लगे रहें तो प्रभु-भक्ति के बिना मुख अन्त में धूल से ही भरेगा। इसलिए परमात्मा का नाम
स्मरण करना मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है और इसी से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) मानव-जीवन मुक्ति के लिए एक सुअवसर है।इस अवसर को गँवाना नहीं
चाहिए अपितु अपना मन भगवद्-भक्ति में लगाना चाहिए। (2) भाषा―सधुक्कड़ी। (3) शैली―मुक्तक।
(4) रस―शान्त। (5) छन्द―दोहा। (6) अलंकार―‘पशु ज्यौं पाली देह’ में उपमा एवं अनुप्रास।
(7) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा।
(14) यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथि।
[तन = शरीर। काचा = कच्चा। कुम्भ = घड़ा। ढबका = धक्का।]
प्रसंग―प्रस्तुत साखी में कबीर ने जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या―कबीरदास जी कहते हैं कि अरे जीव! तुम्हारा शरीर कच्चे घड़े के समान क्षणभंगुर है।
तुम इसे अपना समझकर सदैव साथ लिये क्यों घूमते हो? जैसे मिट्टी का कच्चा घड़ा थोड़ा-सा धक्का लगने
पर फूट जाता है, उसी प्रकार काल का छोटा-सा झटका लगने पर यह शरीर भी नष्ट हो जाएगा और तुम्हारे
हाथ कुछ नहीं आएगा; अत: तुम इस शरीर का लगाव छोड़कर ईश्वर का ध्यान करो।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) शरीर नाशवान् है और काल के एक छोटे आघात से नष्ट हो जाता है।
शरीर के लिए घड़े की उपमा अत्यधिक सार्थक बन पड़ी है। (2) मनुष्य को अपना मन प्रभु-प्रेम में लगाना
चाहिए। (3) भाषा―सधुक्कड़ी। (4) शैली―उपदेशात्मक, मुक्तक। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्त।
(7) अलंकार―‘यह तन काचा कुम्भ है’ में रूपक तथा ‘काचा कुम्भ’ में अनुप्रास। (8) शब्द-शक्ति―
अभिधा एवं लक्षणा। (9) भाव-साम्य―संसार की क्षणभंगुरता को कवि ने निम्नलिखित दोहे में भी व्यक्त
किया है―
यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार को, झूठै रंग न भूल ॥
(15) कबिरा कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग।
[गरबियौ = गर्व करना, अभिमान। देही = शरीर। सुरंग = सुन्दर रंग। बीछड़ियाँ = बिछड़ने पर।
काँचली = केंचुली। भुवंग = सर्प।]
प्रसंग―सन्त कबीर ने कहा है कि मनुष्य को अपनी देह की सुन्दरता पर घमण्ड नहीं करना चाहिए;
क्योंकि यह सुन्दरता अस्थायी है।
व्याख्या―कबीरदास कहते हैं कि हे प्राणी! तुम अपनी देह की सुन्दरता का क्यों घमण्ड करते हो?
यह तो उसी प्रकार छूट जाएगी, जिस प्रकार साँप की केंचुली साँप के शरीर से अलग हो जाती है। जिस तरह
केंचुली साँप के शरीर से अलग होने पर पुनः उसके शरीर पर नहीं चढ़ती, उसी तरह अवस्था ढलने पर
मनुष्य का रूप-रंग भी बिगड़ जाता है और वह दुबारा लौटकर नहीं आता। कवि का तात्पर्य यह है कि इस
दृश्यमान जगत् में केवल ईश्वर ही शाश्वत है, इसलिए उसी को पाने का प्रयल करना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) शरीर नश्वर है, इसलिए इसकी सुन्दरता का अभिमान नहीं करना चाहिए।
(2) शरीर को साँप की केंचुली के समान बताकर कबीर ने शरीर और आत्मा के अस्थायी सम्बन्ध की ओर
संकेत किया है। (3) भाषा―सधुक्कड़ी। (4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―दोहा। (6) रस―शान्त।
(7) अलंकार―‘कबीर कहा’, ‘देही देखि’ में अनुप्रास तथा ‘देही देखि’ में उपमा।
काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1 कबीर की साखियों में किस छन्द का प्रयोग हुआ है ? सतर्क उत्तर दीजिए।
उत्तर―कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है, क्योंकि उसके चारों चरणों में क्रमश:
13-11, 13-11 मात्राएँ आयी हैं।
प्रश्न 2 ‘हरि जननी मैं बालक तेरा’ पद में कौन-सा रस है ?
उत्तर―‘हरि जननी मैं बालक तेरा’ पद में शान्त रस है।
प्रश्न 3 निम्नलिखित पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार का नाम बताइए तथा उसकी सतर्क पुष्टि कीजिए―
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़त।
उत्तर― इस पंक्ति में ‘माया’ पर ‘दीपक’ तथा ‘नर’ पर ‘पतंग’ का अभेदारोप होने के कारण रूपक
अलंकार है। साथ ही ‘भ्रमि’ शब्द की पुनरुक्ति के कारण पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का प्रयोग भी हुआ है।
प्रश्न4 निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए―
उत्तर― शब्द तत्सम रूप शब्द तत्सम रूप
भगति भक्ति दुक्ख दुःख
सतगुर सद्गुरु ब्यौहार व्यवहार
सीतल शीतल सोवन स्वर्ण
कलस कलश पूत पुत्र
काचा कच्चा
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