up board class 9th hindi | सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

By | May 12, 2021

up board class 9th hindi | सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 
                                     जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
 
प्रश्न सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए!
उत्तर―जीवन-परिचय―निराला जी स्वच्छन्दतावादी कवियों में सर्वाधिक विद्रोही, उदात्त,
जग-जीवन के प्रति सजग और अनोखे व्यक्तित्व से मण्डित कवि हैं। इनका जन्म बंगाल के
महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० रामसहाय
त्रिपाठी था, जो उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के अन्तर्गत ‘गढ़कोला’ ग्राम के निवासी और बंगाल में
राजकीय सेवा में रत थे। ढाई वर्ष की आयु में ही इन्हें माता की गोद से वंचित होना पड़ा था।
इनके पालन-पोषण का भार पिता के कन्धों पर आ पड़ा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा महिषादल में ही
हुई। संस्कृत, बाँग्ला और अंग्रेजी का अध्ययन इन्होंने घर पर ही किया। इनके पिता का भी असामयिक
निधन हो गया था। युवा होने पर इनका विवाह साहित्यिक अभिरुचि की कन्या मनोहरा देवी से हुआ,
लेकिन वह भी एक पुत्र और एक पुत्री का भार इन पर सौंपकर; जब ये केवल 22 वर्ष के थे; संसार से विदा
हो गयी।
प्रारम्भ में परिवार के भरण-पोषण के लिए इन्होंने महिषादल राज्य में नौकरी की; किन्तु कुछ समय
बाद वहाँ से अलग होकर रामकृष्ण मिशन के पत्र ‘समन्वय’ का भार सँभाला। इसके बाद ‘मतवाला’ के
सम्पादक मण्डल में सम्मिलित हुए। तीन वर्ष बाद लखनऊ आकर ‘गंगा पुस्तकमाला’ का सम्पादन करने
लगे तथा ‘सुधा’ पत्रिका के लिए सम्पादकीय लिखने लगे। अत्यधिक स्वाभिमानपूर्ण व्यक्तित्व का होने
के कारण इन्हें सेवा-वृत्ति रास न आयी। अन्तत: ये इलाहाबाद में रहने लगे। जीवन के उत्तरार्द्ध में इनकी
आर्थिक स्थिति बहुत विषम हो गयी थी, लेकिन इनके स्वाभिमान और दीन-दुखियों के प्रति करुणा में कोई
कमी नहीं आयी थी। यह महान् साहित्यकार 15 अक्टूबर, सन् 1961 ई० को इस संसार से महाप्रयाण कर
गया।
रचनाएँ (कृतियाँ)―निराला जी बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार थे। काव्य के अतिरिक्त इन्होंने
उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, आलोचना और संस्मरण भी लिखे, परन्तु ये मूलतः कवि थे। निराला जी की
प्रमुख काव्य-रचनाएँ निम्नलिखित हैं―
(1) तुलसीदास―यह गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित छायावादी शैली में लिखा हुआ
खण्डकाव्य है।
(2) अनामिका―यह निराला जी की छायावादी कविताओं का श्रेष्ठ संग्रह है। इसमें ‘राम की शक्ति
पूजा’, ‘सरोज स्मृति’, ‘दान’ आदि कविताएँ संगृहीत हैं।
(3) परिमल―इस कविता-संग्रह में ‘बादल राग’, ‘भिक्षुक’, ‘विधवा’ आदि प्रगतिशील कविताएँ
संगृहीत हैं।
(4) गीतिका―यह एक सौ एक लघु गीतों का संग्रह है। इसमें प्रेम, प्रकृति और राष्ट्रीय भावना से
परिपूर्ण तथा दार्शनिक गीत संगृहीत हैं।
(5) कुकुरमुत्ता, नये पत्ते―ये दोनों व्यंग्यप्रधान कविताओं के संग्रह हैं। इनमें सामाजिक जीवन में
व्याप्त भ्रष्टाचार पर तीखे व्यंग्य किये गये हैं।
इनके अतिरिक्त ‘अणिमा’, ‘अपरा’, ‘बेला’, ‘आराधना’, ‘अर्चना’ आदि निराला जी के प्रमुख
काव्य-ग्रन्थ हैं।
साहित्य में स्थान―निराला जी हिन्दी के प्रतिभा पुत्र थे। शायद ही हिन्दी के किसी अन्य कवि को
इतने वैषम्यों और विरोधों का सामना करना पड़ा हो। प्रलयंकर शिव के समान स्वयं कटु गरल का पान करके
इन्होंने हिन्दी काव्य-जगत् को पीयूष वितरित किया। अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं निराले कवित्व के
निराला जी हिन्दी काव्य-जगत् के सम्राट माने जाते हैं।
 
                 पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
◆  दान
 
(1)  निकला पहिला अरविन्द आज,
       देखता अनिन्द्य रहस्य-साज,
       सौरभ-वसना समीर बहती,
       कानों में प्राणों की कहती,
       गोमती क्षीण-कटि नटी नवल,
        नृत्यपर-मधुर    आवेश-चपल।
[पहिला अरविन्द = यहाँ इसके दो अर्थ हैं-(1) सरोवर में खिला हुआ पहला कमल तथा (2) प्रात: का
सूर्य (ज्ञान)। अनिन्द्य = अत्यधिक सुन्दर, निर्दोष सौन्दर्य। सौरभ-वसना = सुगन्धि के वस्त्र धारण किये
हुए। समीर = वायु। क्षीण-कटि = पतली कमर (धारा) वाली। नटी नवल = नवयौवना, नर्तकी। चपल
= चंचल।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पद्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में’दान’ शीर्षक के
अन्तर्गत संकलित तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित ‘अपरा’ नामक काव्य-ग्रन्थ से ली गयी हैं।
[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली सभी व्याख्याओं के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने प्रात:कालीन प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया है। पौष मास के
प्रात:काल की यह सुन्दरता उसे प्रकृति का रहस्यमय शृंगार लगती है।
व्याख्या―कविवर निराला जी का कहना है कि प्रकृति के रहस्यमय सुन्दर शृंगार को देखने के लिए
पौ फटते ही पहला कमल खिल गया अथवा प्रकृति के रहस्यों को निर्दोष भाव से देखने के लिए आज ज्ञान
का प्रतीक सूर्य निकल आया है। सुगन्धिरूपी वस्त्र धारण कर वायु मन्द-मन्द बह रही है। वह जब कानों के
निकट से गुजरती है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वह प्राणों को पुलकित करने वाली गतिशीलता का सन्देश दे
रही हो। गोमती नदी में कहीं-कहीं पानी कम होने से वह एक पतली कमर वाली नवेली नायिका-सी जान
पड़ती है। उसमें उठती-गिरती लहरों के कारण वह धारा मधुर उमंग से भरकर नृत्य करती हुई-सी जान
पड़ती है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने गोमती के तट पर प्रात:कालीन प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव वर्णन
किया है। (2) गोमती नदी को नवयौवना नर्तकी कहकर नदी का मानवीकरण किया गया है। (3) सूर्य की
पहली किरण के साथ प्रात:कालीन प्रथम कमल के खिलने की कल्पना, प्राकृतिक सौन्दर्य को कोमल
सुन्दरता के भाव से परिप्लावित करती है। (4) भाषा―संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली। (5) शैली–प्रतीकात्मक
वर्णनात्मक। (6) रस―शान्त, शृंगार। (7) शब्द-शक्ति―अभिधा और ‘निकला पहिला अरविन्द आज’ में
लक्षणा। (8) गुण―माधुर्य। (9) छन्द―प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्दा
(10) अलंकार-‘गोमती क्षीण-कटि नटी नवल’ में रूपक, ‘सौरभ-वसना’ और ‘बहती’ में मानवीकरण
तथा अनुप्रास।
(2) मैं प्रातः पर्यटनार्थ चला
     लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ,
      सोचा-“विश्व का नियम निश्चल,
      जो जैसा, उसको वैसा फल,
      देती यह प्रकृति स्वयं सदया,
     सोचने को न रहा कुछ नया,
     सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध,
    भाषा, भावों के छन्द-बन्ध,
    और भी उच्चतर जो विलास,
    प्राकृतिक दान वे, सप्रयास
     या अनायास आते हैं सब,
     सब में है श्रेष्ठ, धन्य मानव।”
[पर्यटनार्थ = भ्रमण के लिए। निश्चल = स्थिर। सदया = दया भाव से युक्त। वर्ण = रंग।
विलास = आनन्द। सप्रयास = प्रयत्नपूर्वक। अनायास = अचानक।]
प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में प्रात: भ्रमण के लिए निकले हुए निराला जी ने प्रकृति के विविध साधनों
को देखा और उनमें मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति बताया है।
व्याख्या―कवि निराला जी कहते हैं कि मैं एक दिन सवेरे गोमती नदी के तट पर घूमने के लिए गया
और लौटकर पुल के समीप आकर खड़ा हो गया। वहाँ मैं विचार करने लगा कि इस संसार के सभी
नियम अटल हैं। जो जैसा करता है, उसको वैसा ही फल मिलता है। प्रकृति दया भाव से सभी मनुष्यों को
उनके कर्मों का फल प्रदान करती है अर्थात् मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही फल पाते हैं। इस प्रकार उनके
सोचने के लिए कुछ भी नवीन नहीं होता।
निराला जी पुनः विचार करते हैं कि इस संसार में एक से बढ़कर एक सुन्दर चीजें हैं जिनमें सुन्दरता
है, गीत हैं, अनेक रंग और सुगन्धियाँ हैं, भाषा है, भाव है और सुन्दर छन्द भी हैं। ये सब हमारा मन मोह लेते
है। प्रकृति की दी हुई या मनुष्य द्वारा निर्मित और भी अधिक सुन्दर चीजें और क्रियाकलाप हो सकते हैं जो
हमें सुन्दर लगते हैं और जो मनुष्य के पास प्रयत्न करने पर या अनायास ही चले आते हैं। इसलिए इस जड़
चेतन संसार में मनुष्य सब में श्रेष्ठ है, इसलिए वह धन्य है। तात्पर्य यह है कि विश्व में मनुष्य ही ईश्वर की
सर्वश्रेष्ठ रचना है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) अपने उपयोग की समस्त वस्तुएँ मनुष्य प्रकृति से ही प्राप्त करता है,
इसीलिए प्रकृति को दयालु कहा गया है। (2) प्रस्तुत पंक्तियाँ निराला जी के दार्शनिक चिन्तन की परिचायक
हैं। (3) भाषा―शुद्ध संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली। (4) शैली―वर्णनात्मक। (5) रस―शान्त। (6) छन्द―
प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द। (7) गुण–प्रसाद। (8) अलंकार―अनुप्रास।
(9) शब्द-शक्ति―अभिधा। (10) भाव-साम्य―प्रकृति के सम्बन्ध में ऐसे ही भाव अन्य कवि ने भी
व्यक्त किये हैं―
नियति-चक्र का खेल जगत में,
                   चलता है बिन रुके हुए ।
दृश्य-अदृश्य सकल परिवर्तन,
                   इसके हाथों बिके हुए।।
 
(3) फिर देखा, उस पुल के ऊपर
      बहुसंख्यक बैठे हैं वानर।
       एक ओर पंथ के, कृष्णकाय
       कंकाल शेष नर मृत्युप्राय
       बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
       भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल,
       अति क्षीण कण्ठ है, तीव्र श्वास,
      जीता ज्यों जीवन से उदास।
      ढोता जो वह, कौन-सा शाप?
      भोगता कठिन, कौन-सा पाप?
      यह प्रश्न सदा ही है पथ पर,
      पर सदा मौन इसका उत्तर!
      जो बड़ी दया का उदाहरण,
      वह पैसा एक, उपायकरण!
[ बहुसंख्यक = गिनती में बहुत सारे। वानर = बन्दर। कृष्णकाय = साँवले शरीर वाला। कंकाल शष =
अत्यधिक दुर्बल। सशरीर = शरीरधारी। दैन्य = दीनता। क्षीण = दुबला, पतला। तीव्र श्वास = तेज
साँस। पथ पर = रास्ते पर अर्थात् भाव-मार्ग पर। उपायकरण = युक्ति का स्थाना]
प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में निराला जी ने दान करने का ढोंग करने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित एक
घटना का वर्णन करते हुए मानव की मानव के प्रति संवेदनहीनता का वर्णन किया है।
व्याख्या―निराला जी ने देखा कि गोमती के पुल पर बहुत बड़ी संख्या में बन्दर इकट्ठे होकर बैठे
हुए हैं तथा सड़क के एक ओर दुबला-पतला काले रंग का एक भिखारी बैठा हुआ था। वह हड्डियों का ढाँचा
मात्र दिखाई दे रहा था और ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी मृत्यु निकट आ गयी हो अथवा जैसे गरीबी
स्वयं दुर्बल शरीर धारण कर वहाँ बैठी हो। वह भिक्षा पाने के लिए अपलक नेत्रों से ऊपर की ओर देख रहा
था। उसका कण्ठ भूख के कारण बहुत कमजोर पड़ गया था और उसकी श्वास भी तीव्र गति से चल रही थी।
ऐसा लग रहा था मानो वह जीवन से बिल्कुल उदास होकर शेष घड़ियाँ व्यतीत कर रहा हो। न जाने जीवन के
इस रूप में वह कौन-सा शाप ढो रहा था और किन पापों का फल भोग रहा था ? मार्ग से गुजरने वाले सभी
लोग यही सोचते थे, किन्तु कोई भी इसका उत्तर नहीं दे पाता था। कोई अधिक दया दिखाता तो एक पैसा
उसकी ओर फेंक देता जैसे कि उस एक पैसे की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो जाएगी।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना; मानव; की दुर्दशा तथा उसके प्रति लोगों के
उपेक्षाभाव का कवि ने बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। (2) उपर्युक्त भावना सभ्य समाज में व्याप्त
संवेदनहीनता का उदाहरण है। (3) भाषा―शुद्ध संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली। (4) शैली―वर्णनात्मक एवं
व्यंग्यात्मक। (5) रस―शान्त एवं करुणा (6) छन्द―प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
(7) गुण–प्रसाद। (8) अलंकार―‘जीता ज्यों जीवन से उदास’ में अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा।
 
4.                  मैंने झुक नीचे को देखा,
                     तो झलकी आशा की रेखा―
                     विप्रवर स्नानकर चढ़ा सलिल
                    शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल,
                    लेकर झोली आये ऊपर,
                     देखकर चले तत्पर वानर।
                    द्विज-राम-भक्त, भक्ति की आस,
                     भजते शिव को बारहों मास,
                     कर रामायण का पारायण,
                     जपते  हैं   श्रीमन्नारायण,
                      दुःख पाते जब होते अनाथ,
                     कहते कपियों के जोड़ हाथ,
                      मेरे पड़ोस के वे सज्जन,
                      करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन,
                      झोली से पुए, निकाल लिये,
                       बढ़ते कपियों के हाथ दिये,
                       देखा भी नहीं उधर फिर कर
                      जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर,
                      चिल्लाया किया दूर दानव,
                      बोला मैं-“धन्य, श्रेष्ठ मानव!”
[विप्रवर = श्रेष्ठ ब्राह्मण। सलिल = जल, पानी। दूर्वादल = देवताओं को चढ़ाई जाने वाली एक विशेष
प्रकार की घास । तण्डुल = चावल। तत्पर = मुस्तैदी के साथ। द्विज = ब्राह्मण । पारायण = नियमित पाठा
कपियों = बन्दरों। सरिता-मज्जन = नदी में स्नान। इतर = दूसरा। दानव = राक्षस, दुष्ट]]
प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने ढोंग करने वाले कट्टरपन्थी धार्मिक लोगों
की प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य किया है।
व्याख्या―कवि कहता है कि मैंने झुककर पुल के नीचे देखा तो मेरे मन में कुछ आशा जगी। वहाँ
एक ब्राह्मण स्नान करके शिवजी पर जल चढ़ाकर और दूब, चावल, तिल आदि भेंट करके अपनी झोली
लिये हुए ऊपर आया। उनको देखकर बन्दर शीघ्रता से दौड़े। ये ब्राह्मण भगवान् राम के भक्त थे। उन्हें भक्ति
करने से कुछ मनोकामना पूरी होने की आशा थी। वह बारह महीने भगवान् शिव की आराधना किया करते
थे। वे ब्राह्मण महाशय प्रतिदिन प्रात:काल रामायण का पाठ करने के बाद ‘श्रीमन्नारायण’ मन्त्र का जाप
करते थे। कभी दुःखी होते या असहाय दशा का अनुभव करते, तब हाथ जोड़कर बन्दरों से कहते कि वे
उनका दुःख दूर कर दें। कवि इस ब्राह्मण का परिचय देते हुए कहता है कि ये सज्जन मेरे पड़ोस में रहते थे
और प्रतिदिन गोमती नदी में स्नान करते थे। इन्होंने पुल के ऊपर पहुँचकर अपनी झोली से पुए निकाल लिये
और हाथ बढ़ाते हुए बन्दरों के हाथ में पुए रख दिये।
कवि को यह देखकर दुःख हुआ कि उन्होंने बन्दरों को तो बड़े चाव से पुए खिलाये, परन्तु उधर
घूमकर भी नहीं देखा, जिधर वह भिखारी कातर दृष्टि से देखता हुआ बैठा था। जब उस भिखारी ने अपनी
क्षीण आवाज में उनसे पुआ माँगा तो उन्होंने उसे ‘दानव! दूर ही रहो’ कहकर झिड़क दिया। पृथ्वी पर मनुष्य
को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना समझने वाले निराला जी को मानव की ऐसी निन्दनीय उपेक्षा देखकर अत्यधिक
दुःख हुआ और अत्यधिक विषादमय स्वर में वे बोल उठे—’तू धन्य है श्रेष्ठ मानवा’ तात्पर्य यह है कि मनुष्य
होकर मनुष्य पर दया न दिखाने वाले मनुष्य! न तो तुम श्रेष्ठ हो और न ही धन्य हो।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने अन्धविश्वासी मानवों के धार्मिक ढोंग पर तीव्र व्यंग्य किया है।
(2) कवि के हृदय की करुणा एवं मानव-प्रेम की अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में व्यक्त हो रही है।
(3) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―वर्णनात्मक एवं व्यंग्यात्मक। (5) रस―शान्त एवं
करुणा (6) गुण―प्रसाद। (7) छन्द―प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राओं वाला मात्रिक छन्द।
(8) अलंकार―अनुप्रास, उत्प्रेक्षा तथा वक्रोक्ति। (9) शब्द-शक्ति―विपरीत लक्षणा एवं व्यंजना।
(10) भाव-स्पष्टीकरण―दीन-दुःखियों की सेवा ही सच्ची ईश्वर-भक्ति है और बाह्य आडम्बर केवल
छलावा।
 
                        काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
 
प्रश्न 1 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों का सकारण नाम बताइए―
(क) गोमती क्षीण-कटि नटी नवल।
(ख) जीता ज्यों जीवन से उदास।
(ग) उठी झुलसाती हुई लू
      रुई ज्यों जलती हुई भू।
उत्तर― (क) क्षीण पर कटि का अभेद आरोप होने के कारण रूपक अलंकार है।
(ख) ‘ज’ वर्ण की पुनरावृत्ति से अनुप्रास तथा जीवन में उदासी की सम्भावना के कारण उत्प्रेक्षा
अलंकार है।
(ग) धरती में रूई की भाँति जलने की सम्भावना व्यक्त करने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।
 
प्रश्न 2 जब प्रकृति में मानव का आरोप कर उसे मानव के समान कार्य करते हुए दिखाया जाता है,
तब वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है। पाठ से ऐसे पाँच उदाहरण छाँटकर लिखिए, जहाँ
मानवीकरण अलंकार का सौन्दर्य काव्य की श्रीवृद्धि कर रहा हो।
उत्तर―(1) गर्जितोर्मि सागर जल
              धोता शुचि चरण युगल।
(2) तरु-तृण-वन-लता……….., हार गले।
(3) सौरभ-वसना समीर बहती
      कानों में प्राणों की कहती।
(4) गोमती क्षीण-कटि नटी नवला
(5) देती यह प्रकृति स्वयं सदया।
 
प्रश्न 3 निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए―
(क) बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल।
(ख) कानों में प्राणों की कहती।
(ग) देती यह प्रकृति स्वयं सदया।
(घ) कंकाल शेष नर मृत्युप्राय।
उत्तर―[संकेत–’पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या’ के अन्तर्गत सम्बन्धित पंक्तियों के अंश देखें।
 
प्रश्न4 निम्नलिखित शब्दों में सनियम सन्धि-विच्छेद कीजिए―
उत्तर―   शब्द                      सन्धि-विच्छेद              नियम
            गर्जितोर्मि                गर्जित + ऊर्मि            अ+ ऊ = ओ
            पर्यटनार्थ                 पर्यटन + अर्थ             अ+ अ = आ
            निश्चल                     निस् + चल                 स् + च = श्च
            श्रीमन्नारायण            श्रीमत् + नारायण         त् + न  = न्न
            सज्जन                   सत् + जन                   त् + ज =ज्ज
            अनादर                   अन+ आदर                 अ + आ = आ
 
प्रश्न 5 निम्नलिखित पदों में सनाम समास-विग्रह कीजिए―
उत्तर― समस्त पद          समास-विग्रह         समास-नाम
           अनिन्द्य             निन्दा से रहित        नञ् तत्पुरुष
           छन्द-बन्ध          छन्द का बन्ध         षष्ठी तत्पुरुष
           कृष्णकाय          कृष्ण शरीर             कर्मधारय
           दूर्वादल              दूर्वा का दल            षष्ठी तत्पुरुष
           राम-भक्त            राम का भक्त          षष्ठी तत्पुरुष
            सरिता-मज्जन    सरिता में मज्जन     सप्तमी तत्पुरुष
 
प्रश्न 6 निम्नलिखित प्रत्येक शब्द के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए―
कमल, कनक, सागर, वानर, भिक्षु, वसन, सुमन।
उत्तर― कमल―पंकज, जलज।
कनक―कंचन, सुवर्ण।
सागर―पारावार, अम्बुधि।
वानर―कपि, मर्कट।
भिक्षु―याचक, भिक्षुक।
वसन―वस्त्र, चीर।
सुमन―पुष्प, कुसुम।
 
प्रश्न 7 नीचे दिये गये शब्दों के विलोम शब्द लिखिए―
जय, शुचि, क्षीण, निश्चल, पाप, अनायास, मूक, आशा, दिवा, गुरु।
उत्तर― शब्द            विलोम
            जय            पराजय
           शुचि            अशुचि
          क्षीण             स्थूल
          निश्चल           चलायमान
          पाप              पुण्य
         अनायास         सायास
         मूक               वाचाल
        आशा             निराशा
        दिवा              रात्रि
        गुरु               शिष्य

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