up board class 9th hindi | सोहनलाल द्विवेदी

By | May 12, 2021

up board class 9th hindi | सोहनलाल द्विवेदी

                                     जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
 
 
प्रश्न  कवि सोहनलाल द्विवेदी का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर―जीवन-परिचय―श्री सोहनलाल द्विवेदी का जन्म 4 मार्च, सन् 1906 ई० को उत्तर प्रदेश के
फतेहपुर जिले के बिन्दकी नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता श्री वृन्दावनप्रसाद द्विवेदी कर्मनिष्ठ
ब्राह्मण थे। इन्होंने हाईस्कूल तक की शिक्षा फतेहपुर में तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त
की। यहाँ महामना मालवीय जी के सम्पर्क से तथा गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से इनमें देश-प्रेम की
भावना पुष्ट हुई। इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लिया और कई बार जेल-यात्राएँ कीं। इन्होंने देश-प्रेम और
देशोद्धार की ओजपूर्ण कविताएँ लिखकर युवकों को प्रेरित किया। इन्होंने ‘बाल-सखा’ और ‘अधिकार’
नामक पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। ये गाँधीजी की विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित रहे। इन्होंने सत्य,
अहिंसा, प्रेम और देश-प्रेम की भावना से पूर्ण काव्य-रचना की। इन्होंने ‘साहित्य-वारिधि’ और ‘डी०
लिट्०’ की उपाधियाँ भी प्राप्त की।
दूरदर्शन द्वारा इनके ऊपर एक वृत्तचित्र का निर्माण भी किया गया है। निरन्तर साहित्य-सेवा में रत
यह सरस्वती पुत्र 82 वर्ष की अवस्था में 29 फरवरी,1988 ई० को इस असार संसार से विदा हो गया।
काव्य-कृतियाँ―द्विवेदी जी ने समाज-सुधार, देशप्रेम और बाल-साहित्य पर अपनी लेखनी
चलायी है। इनकी कृतियों का परिचय निम्नलिखित है―
(1) कविता-संग्रह―(1) भैरवी, (2) पूजागीत, (3) प्रभाती, (4) चेतना, (5) युगाधार।
(2) प्रेम गीतों का संग्रह―‘वासन्ती’ में प्रेम और सौन्दर्य की कविताएँ हैं।
(3) बाल-कविता-संग्रह―(1) शिशु भारती, (2) दूध बताशा, (3) बाल भारती, (4) बच्चों के बापू,
(5) बिगुल, (6) बाँसुरी और (7) झरना आदि।
(4) आख्यान-काव्य―(i) कुणाल (खण्डकाव्य), (i) वासवदत्ता तथा (iii) विषपान।
इनके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने ‘गाँधी अभिनन्दन ग्रन्थ’ का सम्पादन भी किया है।
साहित्य में स्थान―राष्ट्रीय जागरण और समाज-सुधार के कार्यों में संलग्न द्विवेदी जी की
साहित्य-साधना ही उनके जीवन का पथ बन गयी है। अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय कविताओं के माध्यम
से सुप्त भारतीय जनता को जागरण का सन्देश देने वाले कवियों में सोहनलाल द्विवेदी का विशिष्ट स्थान
है।
 
                    पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
 
◆ उन्हें प्रणाम
(1)  भेद गया है दीन-अश्रु से जिनका मर्म,
        मुहताजों के साथ न जिनको आती शर्म,
       किसी देश में किसी वेश में करते कर्म,
       मानवता का संस्थापन ही है जिनका धर्म!
                 ज्ञात नहीं हैं जिनके नाम !
                उन्हें प्रणाम! सतत प्रणाम !
[दीन-अभु = दु:खियों के आँसू। मर्म = हृदय। मुहताज = दूसरों की दया के अभिलाषी। संस्थापन = स्थापित करना। सतत = निरन्तर।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पद्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित तथा
सोहनलाल द्विवेदी द्वारा रचित उन्हें प्रणाम’ शीर्षक कविता से अवतरित हैं। यह कविता कवि के काव्य
संग्रह ‘जय भारत जय’ से पाठ्य-पुस्तक में ली गयी है।
[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी पद्यांशों की व्याख्या के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त
होगा।
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि उन अज्ञात देशभक्तों की वन्दना करता है, जिन्होंने मातृभूमि के
कल्याण और दीन-दुःखियों की सेवा के लिए अपने समस्त सुखों को न्योछावर कर दिया है।
व्याख्या―कवि कहता है कि मैं उन महापुरुषों को प्रणाम करता हूँ जिनका हृदय दीन-दुःखियों के
नेत्रों में आँसू देखकर पीड़ित हो जाता है। जो लोग असहायों और दीनों के बीच बैठकर सेवा करने में तनिक
भी लज्जा का अनुभव नहीं करते; अर्थात् जो लोग दीन-दुःखियों को देखकर नि:संकोच उनकी सेवा करने
लगते हैं, उन लोगों को चाहे किसी भी स्थान में किसी भी ढंग से रहना पड़े, वे हर परिस्थिति में दीन-हीनों की
सेवा में जुटे रहते हैं। दया, प्रेम, सहानुभूति आदि मानवीय गुणों की स्थापना करना उनका लक्ष्य रहता है। ऐसे
अनेक महापुरुष हो चुके हैं, जिनके नामों का भी पता नहीं है; क्योंकि वे प्रसिद्धि और यश-प्राप्ति से दूर
रहकर मानव-सेवा में लगे रहते हैं। ऐसे महापुरुषों को मैं प्रणाम करता हूँ, उन्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) दीन-हीनों की सेवा में लगे रहने वाले सत्पुरुष वन्दनीय होते हैं।
(2) मानवता की सेवा करने वालों में प्रसिद्धि की चाह नहीं होती। इस भाव की सार्थक अभिव्यक्ति की गयी
है। (3) भाषा―सरल, सुबोध खड़ी बोली। (4) शैली―भावात्मक। (5) रस―शान्त। (6) गुण―प्रसाद।
(7) छन्द―तुकान्त, मुक्त। (8) अलंकार―अनुप्रास। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा।
 
(2)  कोटि-कोटि नंगों, भिखमंगों के जो साहथ,
        खड़े हुए हैं कंधा जोड़े, उन्नत माथ,
        शोषित जन के, पीड़ित जन के, कर को थाम,
        बढ़े जा रहे उधर जिधर है मुक्ति प्रकाम!
        ज्ञात और अज्ञात मात्र ही जिनके नाम!
       वन्दनीय उन सत्पुरुषों को सतत प्रणाम!
[कोटि-कोटि = करोड़ों। उन्नत = ऊँचा। माथ = मस्तक। कर = हाथ । प्रकाम = अत्यधिक।]
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने दीन-दलितों की सहायता करने वाले सत्पुरुषों के प्रति श्रद्धा व्यक्त
की है।
व्याख्या―कवि उन लोगों की वन्दना करता है, जो संसार के करोड़ों नंगे-भूखों को सहारा देते हैं
और जिनके साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलने में उन्हें गौरव की अनुभूति होती है। वे लोग समाज
के शोषित और दीन-दु:खी लोगों का हाथ पकड़कर उस मार्ग पर अग्रसर होते हैं जहाँ पहुँचकर उन्हें
दुःखों से पूर्ण छुटकारा मिल जाता है। ऐसे कुछ सत्पुरुषों के नाम लोगों को ज्ञात हो जाते हैं और कुछ लोगों
के नाम ज्ञात भी नहीं हो पाते हैं। वे ज्ञात और अज्ञात सभी सत्पुरुष वन्दना के योग्य हैं कवि उन्हें श्रद्धाभाव से
प्रणाम करता है, बारम्बार प्रणाम करता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) जो लोग दीन-दुःखियों के बीच में रहकर उनकी सेवा करते हैं, वे वन्दनीय
होते हैं। (2) महात्मा गाँधी जैसे सत्पुरुषों; जिन्होंने पद-दलितों और शोषितों को बिना किसी लज्जा के साथ
दिया के प्रति आदर-भाव व्यक्त किया गया है। (3) भाषा―तत्सम शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली।
(4) शैली―ओजपूर्ण। (5) रस―वीर। (6) गुण―ओज। (7) छन्द―तुकान्त, मुक्त। (8) अलंकार―
अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा।
 
(3) जिनके गीतों के पढ़ने से मिलतीशान्ति,
      जिनकी तानों के सुनने से झिलती भ्रान्ति,
      छा जाती मुखमण्डल पर यौवन की कान्ति,
      जिनकी टेकों पर टिकने से टिकती क्रान्ति।
      मरण मधुर बन जाता है जैसे वरदान,
      अधरों पर खिल जाती है मादक मुस्कान,
       नहीं देख सकते जग में अन्याय वितान,
       प्राण उच्छ्वसित होते, होने को बलिदान!
       जो घावों पर मरहम का कर देते काम!
       उन सहृदय हृदयों को मेरे कोटि प्रणाम!
[तान = संगीत के स्वरों का कलापूर्ण विस्तार। झिलती = सहन कर ली जाती है। भ्रान्ति = भ्रम। कान्ति
छटा। टेक = संकल्प, आश्रय । मादक = मस्त कर देने वाली। वितान = फैलाव। उच्छ्वसित होना =
प्रफुल्लित होना।
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने उन गीतकारों और संगीतकारों को नमन किया है, जो देश को ऊपर
उठाने में सदैव तत्पर रहते हैं तथा जिनके गीतों को पढ़कर भ्रान्तियाँ गिर जाती हैं, विवेक जाग्रत होता है तथा
मन को शान्ति मिलती है।
व्याख्या―द्विवेदी जी का कहना है कि वे गीतकार, संगीतकार एवं साहित्यकार हमारे लिए वन्दनीय
हैं, जिनके गीतों से, कविताओं से और संगीत से हमारे मन को शान्ति मिलती है और हमारा भ्रम दूर होता है।
जिनकी रचनाएँ देशवासियों में जवानी का जोश भरती हैं और जिनके संकल्पों पर दृढ़तापूर्वक टिके रहने से
बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ सम्भव होती हैं। जिनकी सत्प्रेरणा से देश के युवक मृत्यु को अभिशाप न समझ कर
वरदान मान लेते हैं और देश के लिए हँसते-हँसते अपने प्राण भी न्योछावर कर देते हैं। वे सभी सत्पुरुष
वन्दनीय हैं, जो अन्याय को मिटाने हेतु अपने प्राणों का बलिदान तक करने के लिए तत्पर रहते हैं और
दूसरों के दुःखरूपी घावों पर अपनी सान्त्वना और सहानुभूति का मरहम लगाकर उन्हें पीड़ा-मुक्त करते हैं,
वे सभी सहृदय व्यक्ति सम्मान के योग्य हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) इन पंक्तियों में कवि ने उन सभी का स्मरण किया है, जो अपने सुख की
चिन्ता किये बिना अपने देश-जाति के लिए हर बलिदान करने को तत्पर रहते हैं। (2) भाषा―प्रवाहपूर्ण,
साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―ओजपूर्ण। (4) रस―वीर। (5) गुण―ओजा (6) छन्द―तुकान्त,
मुक्त। (7) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना। (8) अलंकार―अनुप्रास एवं श्लेष।
 
4.         उन्हें जिन्हें है नहीं जगत् में अपना काम,
            राजा से बन गये भिखारी तज आराम,
            दर-दर भीख माँगते सहते वर्षा घाम,
            दो सूखी मधुकरियाँ दे देतीं विश्राम!
            जिनकी आत्मा सदा सत्य का करती शोध,
            जिनको है अपनी गौरव गरिमा का बोध,
            जिन्हें दुःखी पर दया, क्रूर पर आता क्रोध
            अत्याचारों का अभीष्ट जिनको प्रतिशोध!
             उन्हें प्रणाम! सतत प्रणाम!
             जो निर्धन के धन निर्बल के बल अविराम!
              उन नेताओं के चरणों में कोटि प्रणाम!
[तज = छोड़कर।दर-दर = प्रत्येक दरवाजे पर। घाम = धूप। मधुकरियाँ = भिक्षा में प्राप्त रोटियाँ। शोध
= खोज। बोध = ज्ञान। गरिमा = बड़प्पन। अभीष्ट = इच्छित। प्रतिशोध = बदला। अविराम = निरन्तर,
लगातार।]
प्रसंग―कवि ने उन राष्ट्रप्रेमी लोगों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है जिन्होंने अपने समस्त सुखों
को न्योछावर कर, अनेक कष्ट सहकर भी अत्याचारों का विरोध करते हुए निर्बलों और मातृभूमि की
सेवा की है।
व्याख्या―कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी जी का कहना है कि जो सत्पुरुष अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं
करते अपितु दीन-दुःखियों की पीड़ा हरने के लिए राज्य का सुख-वैभव छोड़कर भिखारी तक बन जाते हैं,
भिक्षा की दो रूखी-सूखी रोटियाँ खाकर जीवित रहते हैं और वर्षा तथा धूप में घूमते-फिरते, दर-दर की
ठोकरें खाते हैं, वे सभी सज्जन वन्दनीय है। जिनकी आत्मा सत्य की खोज में जुटी रहती है, जिनको अपनी
गौरव-गरिमा का ज्ञान रहता है, जिन्हें दुःखी पर दया और क्रूर पर क्रोध करना आता है और जो अत्याचार
का बदला लेना जानते हैं, ऐसे सत्पुरुष सबके वन्दनीय होते हैं। जो निर्धनों के काम आते हैं और निर्बलों के
निरन्तर बल स्वरूप हैं, उन नेताओं के चरणों में कवि प्रणाम करता है। कवि उन्हें अपनी कविता के माध्यम
से कोटि-कोटि (करोड़ों) प्रणाम अर्पित करता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि अत्याचारों के प्रतिरोध का समर्थन करता है। (2) कवि ने जवाहरलाल
नेहरू, मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस आदि महान् नेताओं का प्रकारान्तर से स्मरण
किया है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―ओजपूर्ण। (5) रस―शान्ता (6) गुण―प्रसाद।
(7) शब्द-शक्ति―व्यंजना। (8) छन्द―तुकान्त, मुक्त। (9) अलंकार―अनुप्रास व पुनरुक्तिप्रकाश।
 
(5)          मातृभूमि का जगा जिन्हें ऐसा अनुराग!
              यौवन में ही लिया जिन्होंने है वैराग,
              नगर-नगर की ग्राम-ग्राम की छानी धूल
              समझे जिससे सोई जनता अपनी भूल!
             जिनको रोटी नमक न होता कभी नसीब,
             जिनको युग ने बना रखा है सदा गरीब,
             उन मूों को विद्वानों को जो दिन-रात,
             इन्हें जगाने को फेरी देते हैं प्रात,
             जगा रहे जो सोये गौरव को अभिराम!
              उस स्वदेश के स्वाभिमान को कोटि प्रणाम!
[अनुराग = प्रेम। वैराग = संन्यास। धूल छानना = बार-बार जाना। नसीब = भाग्य, उपलब्ध। अभिराम
= सुन्दर।]
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि उन लोगों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करता है, जिन्होंने अपने समस्त
सुखों को न्योछावर कर मातृभूमि की सेवा की है।
व्याख्या―कवि उन लोगों को प्रणाम करता है, जिन महापुरुषों के हृदय में मातृभूमि के प्रति ऐसा
असीम प्रेम उत्पन्न हुआ था, जिसके कारण अपने सब सुखों को त्यागकर उन्होंने अपनी युवावस्था में ही
वैराग्य ले लिया था। उन्होंने नगर-नगर और ग्राम-ग्राम में घूम-घूमकर जनता में मातृभूमि के प्रति ऐसा प्रेम
जगाया था, जिससे जनता अपनी भूल को समझ सके और परतन्त्रता की नींद को छोड़कर मातृभूमि के उद्धार
के लिए कदम उठा सके। जिन लोगों को समाज ने इतना गरीब बना दिया है कि उन्हें पेट भरने के लिए नमक
और रोटी तक नसीब नहीं होती, वे अज्ञानी और मूर्ख ही बने रह जाते हैं। इनको ज्ञान देना और इनमें
जागरूकता पैदा करना ऐसे-वैसों का काम नहीं है। लेकिन जो विद्वान्, ऐसे मूों की अज्ञानता दूर कर उनमें
ज्ञान और जागरूकता भरने के लिए रात और दिन, सुबह और शाम चक्कर लगाते रहते हैं, निश्चय ही वे
सत्पुरुष वन्दनीय हैं। जो महापुरुष देश का सोया गौरव जगाने में तल्लीन रहते हैं, जो अपने देश की सुन्दर
संस्कृति का ज्ञान कराते हैं, वे सत्पुरुष देश के स्वाभिमान हैं, देश को उन पर गर्व है और वे वन्दनीय हैं,
अभिनन्दनीय हैं। कवि उन्हें करोड़ों बार प्रणाम करता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने जन-जागृति उत्पन्न करने वाले महापुरुषों की वन्दना की है।
(2) कवि के अनुसार देशभक्त सदैव कठिनाइयों से जूझते रहते हैं। उन्हें देशभक्ति के कठिन पथ पर चलकर
अनेक कष्टों का भी सामना करना पड़ा है, सब कुछ छोड़कर वैरागी बनना पड़ा है, इस तथ्य का सुन्दर
उद्घाटन किया गया है। (3) भाषा―मुहावरेदार साहित्यिक खड़ी बोली (ब) शैली―ओजपूर्ण।
(5) रस―शान्त तथा वीर। (6) गुण―प्रसादा (7) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना। (8) छन्द―
तुकान्त, मुक्त। (9) अलंकार―अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश।
 
(6)  जंजीरों में कसे हुए सिकचों के पार
       जन्मभूमि जननी की करते जय-जयकार
       सही कठिन, हथकड़ियों की, बेतों की मार
       आजादी की कभी न छोड़ी टेक पुकार !
        स्वार्थ, लोभ, यश कभी सका है जिन्हें न जीत
        जो अपनी धुन के मतवाले मन के मीत
        ढाने को साम्राज्यवाद की दृढ़ दीवार
        बार-बार बलिदान चढ़े प्राणों को वार!
        बंद सिकचों में जो हैं अपने सरनाम
        धीर, वीर उन सत्पुरुषों को कोटि प्रणाम!
        उन्हीं कर्मठों, ध्रुव धीरों को है प्रतियाम!
                                          कोटि प्रणाम!
[सींकचों के पार = जेल के अन्दर। टेक = संकल्प। धुन = लगन। सरनाम = प्रसिद्ध, मूर्धन्य । कर्मठ =
कर्मशील। ध्रुव = निश्चल, अटल। प्रतियाम = प्रत्येक प्रहर में।]
प्रसंग―यहाँ कवि ने उन कर्मशील, देशभक्त और धैर्यवान वीरों को नमन किया है, जिन्होंने जेलों में
बन्द रहकर भी अपना और अपने देश का नाम रोशन किया।
व्याख्या―कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी जी का कहना है कि जो देश-भक्त सत्पुरुष देश की आजादी
के लिए जंजीरों में बाँधे गये, जिन्हें जेल के सींकचों के अन्दर डाल दिया गया, जिनके हाथों में हथकड़ियाँ
बाँधी गयीं, जिन्होंने बेंतों की कठिन मार सहन की, परन्तु फिर भी देश की आजादी के लिए अपना संकल्प
नहीं छोड़ा, अपनी माँग नहीं छोड़ी और भारत माता की जय-जयकार करते रहे, वे सत्पुरुष वन्दनीय हैं,
अभिनन्दनीय हैं।
मातृभूमि के जिन सपूतों ने कभी अपना स्वार्थ नहीं देखा, जो कभी लोभ-लालच में नहीं आये, जिन्हें
यश प्राप्त करने की कोई इच्छा नहीं थी, जिनका मन अपने वश में था, जो अपनी लगन के पक्के थे और
जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद की मजबूत दीवारों को गिराने के लिए फाँसी के फन्दों पर चढ़कर अपने प्राणों
का बलिदान कर दिया, वे सभी देश-भक्त वन्दनीय हैं, अभिनन्दनीय हैं।
देश की आजादी के लिए जेल के सींकचों में अपना जीवन बिताने वाले, बड़े वीर और धैर्यवान थे, वे
बहुत कर्मठ और दृढ़ निश्चयी थे। ऐसे वीरों का यश आज भी फैला हुआ है। इन सभी देश-भक्तों के लिए
हम हर-प्रहर करोड़ों बार प्रणाम करते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि देशभक्त और बलिदानी वीरों की वन्दना करता है। (2) भाषा―
साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―ओजपूर्ण। (4) रस―वीर। (5) गुण―ओज। (6) छन्द―तुकान्त,
मुक्ता (7) शब्द-शक्ति―लक्षणा। (8) अलंकार―अनुप्रास, रूपक और पुनरुक्तिप्रकाश। (9) भाव-
साम्य―ऐसे ही भाव एक अन्य कवि ने भी व्यक्त किये हैं―
                जो चढ़ गये पुण्य-वेदी पर
                 लिये बिना गर्दन का मोल।
                 कलम, आज उनकी जय बोल॥
 
(7)  जो फाँसी के तख्तों पर जाते हैं झूम,
       जो हँसते-हँसते शूली को लेते चूम,
       दीवारों में चुन जाते हैं जो मासूम,
       टेक न तजते, पी जाते हैं विष का घूम!
        उस आगत को जो कि अनागत दिव्य भविष्य
        जिनकी पावन ज्वाला में सब पाप हविष्य!
       सब स्वतन्त्र, सब सुखी जहाँ पर सुख विश्राम
       नवयुग के उस नव प्रभात की किरण ललाम !
       उस मंगलमय दिन को मेरे कोटि प्रणाम !
       सर्वोदय हँस रहा जहाँ, सुख शान्ति प्रकाम!
[मासूम = भोले-भाले। टेक = प्रण । धूम = धुआँ। आगत = जो बीता न हो; अर्थात् वर्तमान। अनागत =
न आया हुआ, भविष्य । हविष्य = हवन-सामग्री। ललाम = सुन्दर। मंगलमय = कल्याणमय । सर्वोदय =
सभी का उदय। प्रकाम = बहुत अधिक।]
प्रसंग―कवि ने उन बलिदानी वीरों के प्रति अपनी श्रद्धा-भावना व्यक्त की है जिनके कारण
मंगलमय युग की प्राप्ति सम्भव हुई।
व्याख्या―कवि उन साहसी देशभक्तों को प्रणाम करता है जो प्रसन्नतापूर्वक फाँसी के तख्तों पर
चढ़कर (भगतसिंह की तरह) हँसते-हँसते सूली को चूम लेते हैं। अपने प्रण की रक्षा के लिए भोले-भाले
बालक (गुरु गोविन्दसिंह के बच्चों की तरह) जिन्दा ही दीवार में (औरंगजेब के द्वारा) चिनवा दिये जाते हैं,
परन्तु अपनी टेक नहीं छोड़ते। कवि उन वीर पुरुषों के प्रति भी श्रद्धा से नमन करता है, जिन्होंने प्रसन्नता से
जहर के धुएँ को पी लिया और काल-कोठरी में अपना जीवन व्यतीत करते रहे।
कवि आगे कहता है कि वह उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करता है, जिनके महान् कार्यों के कारण यह वर्तमान
का सुन्दर समय (आजादी) देखने का अवसर मिला तथा आने वाला भविष्य भी अलौकिक व मंगलमय
होगा। उन पवित्र आत्मा वाले पुरुषों के बलिदान की पवित्र अग्नि में जलकर सभी पाप उसी प्रकार भस्म हो
जाते हैं, जैसे यज्ञ की पवित्र अग्नि में हवन-सामग्री। कवि उन महान् राष्ट्रभक्तों को भी अपना प्रणाम अर्पित
करता है जो ऐसे नवयुग का निर्माण करेंगे जिसके प्रारम्भ होते ही सभी स्वतन्त्र होंगे, सभी सुखी हो जाएंगे
और पृथ्वी पर चारों ओर सुख-समृद्धि का वातावरण हो जाएगा। वह नवयुग उस नये वातावरण को उत्पन्न
कर देगा, जो सभी के लिए कल्याणकारी होगा।
कवि आने वाले उस मंगलकारी दिन को करोड़ों बार अपना प्रणाम करता है जिस दिन सबका
कल्याण होगा, जिसमें सभी प्रकार के सुख और पूर्ण शान्ति होगी।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का भाव व्यक्त हुआ है। (2) कवि ने
बलिदानी वीरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है तथा स्वतन्त्रता संग्राम की ऐतिहासिक घटनाओं को दोहराया है।
(3) कवि आन पर मर-मिटने वालों के प्रति अपना प्रणाम-भाव अर्पित करता है। (4) कवि उस भावी नवयुग
को भी प्रणाम करता है, जब सर्वत्र सुख और समृद्धि का वातावरण होगा। (5) भाषा―साहित्यिक खड़ी
बोली। (6) शैली―ओजपूर्ण। (7) रस―वीर एवं शान्त। (8) गुण―ओज एवं प्रसाद।
(9) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना। (10) छन्द―तुकान्त, मुक्त। (11) अलंकार―अनुप्रास,
पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक, यमक तथा मानवीकरण। (12) भाव-साम्य―ऐसे ही भाव अमर शहीद रामप्रसाद
बिस्मिल ने भी निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त किये हैं―
                    शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
                    वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
 
                      काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
 
प्रश्न 1 “जो फाँसी के तख्तों पर जाते हैं झूम,
           जो हँसते-हँसते शूली को लेते चूम।”
            इन पंक्तियों में प्रयुक्त रस का नाम बताइए तथा लक्षण लिखिए।
उत्तर―इन पंक्तियों में वीर रस है। वीर रस का लक्षण काव्य-सौन्दर्य के तत्त्व’ के अन्तर्गत देखें।
 
प्रश्न 2 काव्य में जहाँ एक ही शब्द की लगातार आवृत्ति होती है, वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
होता है। पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार के कुछ उदाहरण पाठ की कविताओं से छाँटकर
लिखिए।
उत्तर―(1) जय-जय निर्भय हे!
               जय जय जय जय हे!
          (2) युग-युग अक्षय हे।
          (3) कोटि-कोटि नंगों, भिखमंगों के जो साथ।
          (4) दर-दर भीख मांगते सहते वर्षा घाम।
           (5) नगर-नगर की ग्राम-ग्राम की छानी घूल।
           (6) जो हँसते-हंसते शूली को लेते चूम।
 
प्रश्न 3 निम्नलिखित शब्द-युग्मों से विशेषण-विशेष्य अलग-अलग करके लिखिए―
उत्तर―शब्द-युग्म               विशेषण         विशेष्य
           दुर्भद्य मनस्वी           दुर्भेद्य             मनस्वी
           नव-युग                   नव                युग
           मधुर मरण               मधुर              मरण
           मादक मुस्कान          मादक            मुस्कान
           दृढ़ दीवार                दृढ़                दीवार
           बन्द सींकचें             बन्द               सींकचें
 
प्रश्न 4 ‘भेद गया’, ‘प्रतियाम’ और ‘शान्ति प्रकाम’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―     शब्द                        अर्थ
              भेद गया          =        अत्यधिक दुःखी हो गया।
              प्रतियाम          =        बार-बार, प्रत्येक प्रहर।
             शान्ति प्रकाम    =        पूर्ण शान्ति।
 
प्रश्न 5 “मरण मधुर बन जाता है जैसे वरदान” में प्रयुक्त अलंकार बताइए।
उत्तर― उपमा अलंकार।
 
प्रश्न 6 निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए―
जन, दीन, मुख, जगत।
उत्तर― शब्द                         पर्यायवाची
             जन          =             मनुष्य, व्यक्ति।
             दीन          =             दरिद्र, विपन्न।
             मुख          =             मुंँह, आनन।
             जगत        =             भव, भुवन।
 
प्रश्न 7 नीचे लिखे शब्दों के विलोम शब्द लिखिए―
जय, सबल, दुर्भेद्य, अक्षय, निर्भय, उन्नत, ज्ञात, शान्ति, क्रूर, दृढ़, स्वतन्त्र।
उत्तर― शब्द                  विलोम
           जय                  पराजय
           सबल                निर्बल
           दुर्भेद्य                भेद्य
           अक्षय                क्षय
           निर्भय                भयभीत
           उन्नत                 अवनत
           ज्ञात                   अज्ञात
           शान्ति                अशान्ति
           क्रूर                    दयावान
           दृढ़                    शिथिल
           स्वतन्त्र               परतन्त्र
 
प्रश्न 8 निम्नलिखित शब्दों के सन्धि-विच्छेद कीजिए―
अरुणोदय, अत्याचारी, स्वाभिमान, अनागत, सर्वोदय।
उत्तर― शब्द                       सन्धि-विच्छेद
            अरुणोदय       =      अरुण + उदय
            अत्याचारी       =      अति + आचारी
            स्वाभिमान      =       स्व  + अभिमान
            अनागत         =       अन + आगत
            सर्वोदय          =       सर्व +  उदय

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